शनिवार, 20 दिसंबर 2014

अभिज्ञानशाकुन्तल के पाठविचलन की आनुक्रमिकता

अभिज्ञानशाकुन्तल के पाठविचलन की आनुक्रमिकता ।। वसन्तकुमार म. भट्ट निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद – 380 009 bhattvasant @ yahoo.co.in भूमिका – अभिज्ञानशाकुन्तल शीर्षक से सुप्रसिद्ध नाटक न केवल संस्कृत वाङ्मय की अद्वितीय शोभा है, वह विश्वनाट्यसाहित्य का भी बहुमूल्य रत्न है । यह नाटक नाट्यतत्त्व और काव्यतत्त्व जैसी उभयविध दृष्टि से आकर्षक है । इन दोनों में भी काव्यतत्त्व इतना अधिक हृद्य और सुन्दर है कि इस नाटक की साहित्यशास्त्रीय समीक्षा करने में ही विद्वज्जगत् रममाण रहता है । परन्तु इस नाटक का जो देवनागरी पाठ प्रचलित हुआ है उसकी नाटकीयता के सन्दर्भ में परीक्षा करने के लिए कोई उद्यत होगा तो उसे मालूम होगा कि यह प्रचलित पाठ तो निश्चित रूप से रंगावृत्ति ही है ! क्योंकि इस पाठ में जो रंसूचनायें हैं वह विसंगतता से भरी पड़ी हैं । अतः, इस नाटक के काव्यतत्त्वीय पक्ष को लेकर जो पाठान्तर दृष्टिगोचर हो रहे हैं, उसकी अपेक्षा से नाट्य-तत्त्वीय पक्ष से जुडे पाठभेदों की पाठालोचना अनुपेक्ष्य है । यदि इस दिशा में कोई नाट्य-रसिक प्रवृत्त होगा तो आज प्रचलित हुआ देवनागरी वाचना का जो पाठ है वह बहुशः परिवर्तित एवं संक्षिप्त किया गया है यह बात तुरंत समझ में आयेगी । तथा अन्ततो गत्वा, इस नाटक के मंचन का इतिहास भी दृश्यमान होने लगेगा ।। अभिज्ञानशाकुन्तल इस शीर्षक से जो नाटक सुप्रसिद्ध है उसकी देवनागरी एवं दाक्षिणात्य नामक दो वाचनायें उपलब्ध होती हैं । अभिज्ञानशकुन्तला शीर्षक से काश्मीर की वाचना का पाठ शारदालिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में सुरक्षित है । तथा अभिज्ञानशकुन्तलम् जैसे तीसरे शीर्षक से प्रचलित हुआ पाठ मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में संचरित हुआ है । इस तरह, एक ही नाटक की पञ्चविध वाचनाओं को देख कर भी किसी को भी स्वाभाविकतया "इन में से मूलपाठ कहाँ छिपा हुआ होगा ?" उसकी जिज्ञासा होती है । अद्यावधि जिन विद्वानों ने इस विषय में प्रारम्भिक रूप से जो कुछ सोचा है उसमें (1) "अमुक वाचना का पाठ काव्यत्वपूर्ण या व्यञ्जनापूर्ण है इस लिए वही वाचना मौलिक हो सकती है ।", अथवा (2) "अमुक वाचना का पाठ बृहत्काय है, क्योंकि उसमें अश्लिलांशों का प्रक्षेप हुआ है । ऐसा पाठ कदापि मौलिक नहीं हो सकता ।" अथवा, (3) "उपलब्ध हो रही अनेक पाण्डुलिपियों में से जो पाण्डुलिपि सब से प्राचीनतम काल में लिखी गई हो, उसमें सुरक्षित रहे पाठ को सर्वाधिक श्रद्धेय मान कर उसका स्वीकार करना चाहिए" ।, अथवा (4) "बहुसंख्यक पाण्डुलिपियों में, जो पाठ उपलब्ध होता हो, एवमेव जो पाठ बहुसंख्यक टीकाकारों के द्वारा समादृत हो उस पाठ को मान्यता दी जानी चाहिए" ।, अथवा (5) "सामान्यतया किसी भी कृति का लघुपाठ ही पहले आकारित होता है, और उसमें से कालान्तर में बृहत्पाठ बनाया जाता है । अतः इस नाटक का लघुपाठ जिसमें संचरित हुआ है वही, याने देवनागरी वाचना ही मौलिक है ।", अथवा (6) "इस नाटक की पाँचों वाचनाओं में से जहाँ जहाँ सब से अधिक नाट्यक्षम पाठ मिलता हो उसका चयन करके, उसका पुनर्गठन करना चाहिए ।" ऐसे बहुविध विकल्प प्रस्तुत किये गये हैं ।। कालिदास के इस नाटक की पाठसंशुद्धि करने के लिए सोचे गये इन मार्गों का अनुगमन किया जाय तो उनसे हमारे सामने अभिज्ञानशाकुन्तल के बहुविध संस्करण आयेंगे । और उनमें से एक भी संस्करण सर्वसम्मत नहीं होगा । क्योंकि इन मार्गों में एक या दूसरे प्रकार का तर्कदोष अन्तर्निहित है । अतः इन सभी विचारधाराओं से हट कर, प्रस्तुत शोध-आलेख में तुलनात्मक एवं ऐतिहासिक जैसी उभयविध दृष्टि का उपयोग किया गया है । जिसमें वस्तुलक्षी बन कर सब से पहले यह निश्चित किया जायेगा कि उपर्युक्त पाँचों वाचनाओं में से प्राचीनतम वाचना कौन सी है ? तथा अन्यान्य वाचनाओं में उपलब्ध हो रहे पाठान्तरों का तुलनात्मक अभ्यास करके, उसमें संनिहित पाठविचलन की आनुक्रमिकता उजागर की जायेगी । जिससे इस नाटक के मौलिक पाठ की गवेषणा का मार्ग प्रशस्त होगा ।। [ 1 ] बृहत्पाठवाली तीन वाचनाओं का पुरोवर्तित्व उपर्युक्त पाँचों वाचनाओं में से जो काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनायें हैं उन सब में इस नाटक का बृहत्पाठ मिलता है । तथा जो देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनायें हैं उन दोनों में लघुपाठ संचरित हुआ है । अतः प्रथम दृष्टि में तो लघुपाठवाली वाचनायें ही अधिक श्रद्धेय या मौलिक होने की सम्भावना सोची जा सकती है । पाठालोचना का एक अधिनियम यह भी है कि बृहत् एवं अलंकृत पाठ की अपेक्षा से जो लघुपाठ होता है वही मूलपाठ होने की सम्भावना होती है । किन्तु यह अधिनियम अभिज्ञानशाकुन्तल जैसी एककर्तृक रचना को लागु नहीं किया जा सकता । यह अधिनियम तो महाभारत जैसे प्रोक्त प्रकार के ( अनेक-कर्तृक ) ग्रन्थों के लिए ही सही है । नाट्यकृतियों के लिए सोचा जाय तो, उनमें तो कविप्रणीत बृहत्पाठ में से सूत्रधारों के द्वारा अमुक अंशों की कटौती करके, मंचन के योग्य लघुपाठ को ( जिसको हम "रंगावृत्ति" कहते है ) तैयार करने की प्रवृत्ति ही प्रायः देखी जाती है । अतः प्रस्तुत सन्दर्भ में उपर्युक्त अधिनियम मार्गदर्शक नहीं बन सकता है ।। वर्तमान समय में "अभिज्ञानशाकुन्तल" शीर्षक से जो देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचना का पाठ प्रचलित है, उसका स्वरूप भी इसी तरह का, याने रंगावृत्ति स्वरूप का ही है । इस बात के प्रमाण प्रमुखतया तीसरे अङ्क में उपलब्ध हैं । तद्यथा (क) शकुन्तला की दोनों सहेलियाँ मृगबाल के पास जाती है और रंगमंच पर दुष्यन्त-शकुन्तला अकेले है तब शकुन्तला उस लतामण्डप से बाहर जाने का उपक्रम करती है । उसको दुष्यन्त कहता है कि "उत्सृज्य कुसुमशयनं .... कथमातपे गमिष्यसि ।" याने इस दृश्य का समय मध्याह्न का है । लेकिन देवनागरी वाचना में इस उक्ति के बाद, नायक-नायिका के छोटे छोटे केवल छह वाक्य आते हैं, और तुरंत नेपथ्य-उक्ति से कहा जाता है कि "चक्रवाकवधूके, आमन्त्रयस्व प्रियसहचरम्, उपस्थिता रजनी ।" यहाँ मध्याह्न और रात्रि के बीच का समय व्यतीत हुआ है ऐसा प्रतीत होने के लिए पर्याप्त संवादशृङ्खला का नितान्त अभाव है । प्रॉफे. एस. के. बेलवालकर जी को यहाँ लगता है कि जो एकान्त-मिलन मध्याह्न में अभी शूरु ही हुआ था, वहाँ केवल छह वाक्यों में ही रात्रि कैसे उपस्थित हो गई ? । यहाँ समयनिर्देशन की दृष्टि से जो सुसंगति का अभाव है उससे अनुमित होता है कि यहाँ पर कुछ पाठ्यांश में कटौती हुई है । (ख) इसी दिशा में आगे चल कर, हमने इसी तीसरे अङ्क के उपान्त्य श्लोक की ओर विद्वज्जगत् का ध्यान आकृष्ट किया है कि नाटक के मूलपाठ में हुई कटौती के पदचिह्न इस श्लोक में प्रकट रूप से अङ्कित हो गये हैं । जैसा कि, यहाँ दुष्यन्त ने शकुन्तला की तीन चीजों का परिगणन करवाया है । 1. पुष्पमयी शय्या, 2. मदनलेख और 3. उसके हाथ से निकल गया बिस तंतु का वलय ( जिसको बिसाभरण या मृणालवलय कहा गया है । ) ।। इनमें से पहले दो पदार्थों से जुडे प्रसंग तो इस तीसरे अङ्क में दृश्यमान हुए हैं, [ अङ्क के आरम्भ में ही कहा गया है कि शकुन्तला कामज्वर से पीडित होने के कारण कुसुमास्तरणवाले शिलापट्ट पर लेटी हुई है, तथा प्रियंवदा के कहने पर उसने कमलदल पर अपने नाखून से मदनलेख लिखा है ] । किन्तु इस श्लोक में जो बिसाभरण का निर्देश मिलता है उसके साथ जुडा हुआ कोई दृश्य देवनागरी वाचना में मिलता ही नहीं है । मंचन की दृष्टि से नाटक में किसी भी चीज का निर्देश अहैतुक नहीं हो सकता है । इससे भी अनुमित होता है कि इस तीसरे अङ्क में कोई दृश्य पहले रहा होगा, जो किसी अज्ञात रंगकर्मी के द्वारा हटाया गया है । दुष्यन्त ने शकुन्तला के हाथ में एक मृणालवलय ( बिसाभरण ) पहनाया है और उसको देखते समय ही शकुन्तला के नेत्र में पुष्पों की रज गिरने से उसकी दृष्टि कलुषित होती है । तब दुष्यन्त उसके नेत्र को अपने वदनमारुत से परिमार्जित कर देता है । ऐसे दो दृश्यों का निरूपण करनेवाला पाठ्यांश काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में विद्यमान है ।। (ग) प्रथमांक के भ्रमरबाधा प्रसंग में देखा जाय तो ( राघवभट्ट के द्वारा स्वीकृत देवनागरी वाचना के पाठ में ) राजा के मुख में "चलापाङ्गां दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमतीम्0।" श्लोक को "सस्पृहम्" जैसी रंगसूचना के साथ रखा गया है । तथा इस पाठ में "यतो यतः षट्चरणोऽभिवर्तते0" वाला दूसरा श्लोक मिलता ही नहीं है । यहाँ नायक के मन में भ्रमर के प्रति ईर्ष्याभाव उदित हुआ है ऐसा दिखाना अभिप्रेत है । अतः राजा ने जो "चलापाङ्गां दृष्टिं0" वाला श्लोक प्रस्तुत किया है, उसको तो "सासूयम्" जैसी रंगसूचना के साथ होना अनिवार्य था । किन्तु देवनागरी वाचना के पाठ में संक्षेपीकरण करते समय यह बात किसी अज्ञात पाठशोधक के ध्यान में नहीं आई । इस लिए "सस्पृहम्" जैसी रंगसूचना के साथ जो "यतो यतः षट्चरणोऽभिवर्तते0" वाला श्लोक मूल में था, उस श्लोक की कटौती की जाने के बाद भी वह "सस्पृहम्" रंगसूचना यथावत् बनी रही ! तथा वह अनुगामी "चलापाङ्गां दृष्टिं0" वाले श्लोक के साथ जुड गई !! ( रंगसूचना सम्बन्धी ऐसी विसंगति की ओर किसी भी पाठसम्पादक का अद्यावधि ध्यान गया ही नहीं है !!! ) इससे सिद्ध होता है कि वर्तमान देवनागरी वाचना के पाठ में अनेक स्थानों पर संक्षेप किया गया है ।। (घ) वर्तमान देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनाओं में स्त्रीवर्ग एवं विदूषकादि की प्राकृत उक्तिओं में महाराष्ट्री प्राकृत का ही ध्वनिरूप बहुशः दिखाई दे रहा है, इस तरह की प्राकृत कालिदास के समय में विद्यमान ही नहीं था । इसके प्रतिपक्ष में, याने काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में शौरसेनी प्राकृत का ध्वनि रूप सुरक्षित रह पाया है । भरत मुनि ने स्त्रीपात्रों के लिए शौरसेनी ( और मागधी ) का विधान किया है, अतः कवि कालिदास के द्वारा भी वही शौरसेनी का विनियोग किया गया होगा ऐसा मानना विसंगत नहीं होगा ।। यदि देवनागरी तथा तदनुसारिणी दाक्षिणात्य वाचना में संक्षेप हुआ है, तथा शौरसेनी प्राकृत का स्वरूप ही परिवर्तित किया गया है ऐसा सप्रमाण सिद्ध होता है तो स्वाभाविक क्रम में यह स्वीकारना होगा कि जिसमें इस नाटक का बृहत्पाठ सुरक्षित रहा है वैसी काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनायें ही पुरोगामिनी वाचनाओं के रूप में प्रचलित रही होगी ।। निष्कर्षतः कहा जाय तो इस नाटक का लघुपाठ जिसमें संचरित हुआ है वे दोनों वाचनाओं का जन्म उत्तरवर्ती काल में हुआ है । तथा बृहत्पाठ जिसमें संचरित हुआ है वैसी तीनों वाचनाओं पुरोगामिनी हैं ।। [ 2 ] काश्मीरी वाचना की प्राचीनतमता अब कालिदास के इस नाटक की बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में से कौन सी वाचना प्राचीनतम है ? यह विचारणीय बिन्दु है । क्योंकि पाठालोचना का प्रथम लक्ष्य यही होता है कि प्राचीन से प्राचीनतर, एवं प्राचीनतर से प्राचीनतम पाठ की पहले गवेषणा की जाय । अतः लघुपाठ की अपेक्षा से यदि बृहत्पाठवाली तीनों वाचनायें पुरोवर्तिनी है, तो उन तीनों में से कौन सी वाचना सब से पुरानी है ? यह सोचना चाहिए । क्योंकि किसी एक वाचना की प्राचीनतमता निश्चित हो जाने के बाद ही अन्यान्य वाचनाओं में पाठविचलनक्रम की आनुक्रमिकता निर्धारित हो सकती है । वर्तमान में उपलब्ध हो रही इस नाटक की पाण्डुलिपियाँ नेवारी, मैथिली, बंगाली, शारदा, नन्दिनागरी, देवनागरी, ग्रन्थ, तेलुगु आदि लिपियों में लिखी हुई मिलती हैं । लिपियों के इतिहास की दृष्टि से सोचा जाय तो शारदा लिपि ही प्राचीनतम है । अतः उस शारदालिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ पाठ ही प्राचीनतम हो सकता है । मतलब कि काश्मीरी वाचना का पाठ, जो कि शारदा लिपि में लिखी हुई चार पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहा है, उसीको प्राचीनतम वाचना माननी चाहिए । क्योंकि ई. स. 850 में लिखा हुआ राजा मेरु वर्मा का एक शिलालेख शारदा लिपि में उत्कीर्ण किया गया है । अतः शारदा लिपि का प्रचलन 6 या 7 वीं शती में भी होगा, तो आज उपलब्ध हो रही शारदा पाण्डुलिपियों में जो पाठ परम्परागत रीति से संचरित होकर हम तक पहुँचा है, उसको हमें 7वीं शती का तो मानना ही चाहिए । यद्यपि केवल लिपियों के पुरातत्त्वीय प्रमाण से ही किसी एक वाचना की प्राचीनतमता घोषित करना पर्याप्त नहीं है । इस लिए इस नाटक की जो चार शारदा पाण्डुलिपियाँ मिल रही हैं, उनमें से कुछ पाठान्तरों की ओर विद्वज्जगत् का ध्यान आकृष्ट करना चाहेंगे । जिनसे इस वाचना की प्राचीनतमता का दृढीकरण हो सकता है । तद्यथा, (क) काश्मीरी वाचना में, तृतीयांक के आरम्भ में रंगसूचना है कि "ततः प्रविशति कामयानावस्थो राजा विदूषकश्च ।" किन्तु मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में इसी सन्दर्भ में "ततः प्रविशति मदनावस्थो राजा विदूषकश्च ।" देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनाओं में यहाँ "ततः प्रविशति कामयमानावस्थो राजा विदूषकश्च ।" इन पाठान्तरों में से कौन सा पाठान्तर सब से प्राचीनतम होगा ?। आचार्य वामन ने काव्यालंकारसूत्रवृत्ति में "कामयानशब्दः सिद्धोऽनादिश्चेत् । ( 5-2-82 )" इस सूत्र से लिखा है कि कामयान शब्द ( व्याकरण से सिद्ध करना मुश्कील है, तथापि ) यदि वह अनादि काल से चला आ रहा है तो उसे सिद्ध शब्द ही मानना होगा । काशी के मूर्धन्य आलंकारिक पं. श्री रेवाप्रसाद द्विवेदी जी ने हमारा ध्यान आकृष्ट किया है कि स्वयं कालिदास ने रघुवंश ( 19-50 ) में भी इस शब्द का प्रयोग किया है । अतः मैथिली, बंगाली या देवनागरी वाचनाओं में जो पाठान्तर मिलते हैं वे सभी परवर्ती काल के सिद्ध होते है । केवल काश्मीरी वाचना में सुरक्षित रहा "कामयान" शब्द ही प्राचीनतम सिद्ध होता है ।। इस तरह से काश्मीरी वाचना में "0कथमप्युन्नमितं, न चुम्बितं तु । (3-32)" श्लोक आता है । इसका मैथिली एवं बंगाली वाचना में जो पाठ है वह "0कथमप्युन्नमितं, न चुम्बितं तत् । ( 3-37, एवं 3-38 )" ऐसा है । इस तरह के दो पाठभेदों में से कौन पाठ प्राचीनतम होगा ? यह प्रश्न है । तो आनन्दवर्धन ने निपातों की व्यंजकता के बारे में चर्चा करते हुए इस श्लोक का उद्धरण दिया है, जिसमें काश्मीरी वाचना के अनुसार ही "0कथमप्युन्नमितं, न चुम्बितं तु ।" पाठ रखा गया है । आनन्दवर्धन का सर्वमान्य समय 840 890 ई. स. अनुमाना गया है । इस दूसरे बहिरंग प्रमाण से भी सिद्ध होता है कि काश्मीरी वाचना में संचरित हुआ पाठ ही प्राचीनतम है ।। (ख) तृतीयांक में, दुष्यन्त मध्याह्न की वेला में प्रिया शकुन्तला को ढूँढ़ता हुआ मालिनी नदी के तट पर पहुँचता है । लतावलय में सखियों के साथ शकुन्तला को देख कर उसके मुख में से वाक्य निकलता है : "अये लब्धं मया नेत्रनिर्वाणम् ।" यह पाठ सभी वाचनाओं में एक समान है । केवल काश्मीरी वाचना में "अये लब्धं मया नेत्रनिर्वापणम् ।" ऐसा पाठभेद मिल रहा है । पाण्डुलिपियों के प्रतिलेखन की सुदीर्घ परम्परा में, किसी भी लिपिकार के द्वारा "निर्वापण" या "निर्वाण" लिखने में अनवधान से या दृष्टिभ्रम से एक के स्थान में दूसरा शब्द स्थानापन्न हो सकता है । ( इसी को अनुलेखनीय सम्भावनायुक्त पाठभेद कहा जाता है । ) अतः इन दोनों में से कौन सा पाठभेद मूल में होगा यह निश्चित करना कठिन है । किन्तु इसी अङ्क के आरम्भ में, कण्वाश्रम का शिष्य प्रियंवदा को आकाशोक्ति से पूछता है कि अरे, तुम किसके लिए यह उशीरानुलेप और नलिनीपत्र ले जा रही हो ? तब प्रियंवदा उसका प्रत्युत्तर देती है कि "आतपलङ्घनाद् बलवदवस्था शकुन्तला, तस्याः शरीरनिर्वापणायेति ।" यहाँ पर सभी वाचनाओं में एक समान "शरीरनिर्वापणायेति" ऐसा ही पाठ है, इसमें अन्य कोई पाठान्तर नहीं है । एवमेव, आगे चल कर दुष्यन्त की उक्ति है कि "स्मर एव तापहेतुर्निर्वापयिता स एव जातः ।" उसमें भी "निर्वापयिता" शब्द ही है । इस तरह से इसी कृति के आन्तरिक प्रमाणों से सिद्ध होता है कि काश्मीरी वाचना में मौलिक पाठ बहुशः सुरक्षित रहा है । अतः इस वाचना को ही प्राचीनतम होने का गौरव प्राप्त हो रहा है ।। (ग) शकुन्तला प्रियंवदा को कहती है कि "हला, अलं वः अन्तःपुरविरहपर्युत्सुकेन राजर्षिणा उपरुद्धेन ।" यह वाक्य काश्मीरी वाचना को छोड कर अन्य सभी वाचनाओं में एक समान है । काश्मीरी वाचना में इस वाक्य का स्वरूप ऐसा है : "हला, अलं वः अन्तःपुरविहारपर्युत्सुकेन राजर्षिणा उपरोधेन ।" यहाँ पर भी किसी भी लिपिकार के द्वारा पाण्डुलिपियों के प्रतिलेखन के दौरान विरह के स्थान पर विहार हो सकता है, अथवा विहार के स्थान में विरह हो सकता है । अतः मूल में कौन सा पाठ कवि ने अपने हाथों से लिखा होगा ? उसका निर्णय करना मुश्कील है, एवं विवादास्पद भी है । तथापि प्रकृत में पूर्वापर सन्दर्भ में कहे गये वाक्यों को बारिकी से देखा जाय तो अनसूया की उक्ति महत्त्व-पूर्ण है । उसने कहा है कि वयस्य, बहुवल्लभा राजानः श्रूयन्ते । यथा नः सखी बन्धुजनशोचनीया न भवति, तथा निर्वाहय । इसमें राजाओं को बहुसंख्यक वल्लभाओं वाले कहे गये हैं, इसको यदि ध्यान में लिया जाय तो "बहु" शब्द का "विहार" शब्द के साथ ही सामञ्जस्य ठीक बैठता है । मतलब कि काश्मीरी वाचना के पाठ में ही आन्तरिक सम्भावनापूर्ण पाठ संचरित होकर हम तक सुरक्षित स्वरूप में पहुँचा है । अतः काश्मीरी वाचना के पाठ को प्राचीनतम मानना प्रमाणसिद्ध है ।। (घ) चतुर्थांक में, शकुन्तला पिता कण्व से पूछती है : कथमिदानीं तातेन विरहिता करिसार्थपरिभ्रष्टा करेणुकेव प्राणान् धारयिष्ये । ( इति रोदिति ) । यह काश्मीरी वाचना का पाठ है । लेकिन मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में एक नया ही उपमान रखा गया है । जैसे कि, कथमिदानीं तातस्य अङ्काद् परिभ्रष्टा मलयपर्वतादुन्मूलिता इव चन्दनलता देशान्तरे जीवितं धारयिष्यामि ।। इन दोनों पाठान्तरों की उच्चतर समीक्षा की जाय तो मालूम होगा कि कण्वाश्रम हिमालय की गोद में अवस्थित था । अतः वहाँ शकुन्तला के सामने करिसार्थ का होना ही भौगोलिक सत्य है । उस स्थान में चन्दनलता का होना सम्भव ही नहीं है । इस तरह सोचा जायेगा तो काश्मीरी वाचना का पाठ प्राचीनतम एवं मौलिकता के नज़दीक सिद्ध होता है ।। (ङ) षष्ठांक में, राजा दुष्यन्त अपनी परिचारिका मेधाविनी के द्वारा शकुन्तला का चित्र मंगवाता है । उस चित्र को देख कर विरही राजा अपने मन के भावों को व्यक्त कर रहे थे । तब सूचना मिलती है कि मेधाविनी के हाथ में से वर्तिका-करण्डक छिन कर, रानी वसुमती स्वयं आ रही है । अतः राजा उस चित्र को सुरक्षित करने के लिए विदूषक को विनति करते है । विदूषक चित्रफलक को उठा कर भागता है, लेकिन (1) मैथिली पाठ के अनुसार, ऐसा कह कर जाता है कि राजा जब "अन्तःपुर के कूटपाश" से मुक्त हो सके तब मुझे मेघछन्दप्रासाद से बुला लेना । (2) बंगाली पाठ के अनुसार, राजा जब "अन्तःपुर की वागुरा से" मोक्ष प्राप्त करे तब मुझे मेघछन्नप्रासाद से बुला लेना । (3) और देवनागरी पाठ के अनुसार, राजा जब "अन्तःपुर के कालकूट से" मोक्ष प्राप्त करे, तब मेघप्रतिछन्न प्रासाद से मुझे बुला लेना । (4) दाक्षिणात्य वाचना के अनुसार, राजा जब "अन्तःपुर के कलह से" मुक्त हो जाय, तब मुझे मेघप्रतिछन्द प्रासाद से बुला लेना । रानी के आगमन से सम्बद्ध विदूषक की ऐसी टीका सभी वाचनाओं में है, केवल काश्मीरी वाचना में नहीं है । काश्मीरी वाचना के पाठ में रानी का नाम कुलप्रभा है, और वह राजा का शकुन्तला-विषयक प्रेमप्रसंग जान कर किसी भी तरह से ईर्ष्या-कषायिता नहीं होती है । राजा को अधिक प्रिय बनने की स्पर्धा में भी वह मेधाविनी के हाथ में से वर्तिका-करण्डक छिन कर स्वयं अपने हाथ से राजा को पहुँचाने का मनोरथ भी नहीं करती है । काश्मीरी वाचना में जो स्पर्धा का चित्र मिलता है वह तो राजा की परिचारिका मेधाविनी और रानी की दासी पिङ्गलिका के बीच चलता है ।। यहाँ विचार करने पर एक गम्भीर बात प्रकट होती है । कालिदास ने जब इस अपूर्व और नवीन कहे गये नाटक में पूर्वपरिणीताओं की ओर से उपस्थित होनेवाले अन्तराय ( या संघर्ष ) को प्रदर्शित करने का मार्ग छोड कर, दुर्वासा के शाप को अन्तराय के रूप में उद्भावित किया है, तब परोक्ष रूप में भी पूर्वपरिणीता रानी कुलप्रभा या वसुमती की ओर से किसी तरह के ईर्ष्याभाव को, स्पर्धा को प्रदर्शित करना अनुचित ही है । अतः काश्मीरी वाचना का पाठ मौलिकता के नझदीक है ऐसा सिद्ध होता है, और जो पाठ मौलिकता के नज़दीक है ऐसा सिद्ध होता है वही पाठ प्राचीनतम कहना होगा ।। निष्कर्षतः कहा जाय तो बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में काश्मीरी वाचना का पाठ ही प्राचीनतम सिद्ध होता है । अर्थात् इस नाटक के पाठविचलन का क्रम निर्धारित करते समय यह बात ध्यान में रखनी है कि मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं की अपेक्षा से काश्मीरी वाचना का पाठ पुरोवर्ती है । तथा अन्य दो वाचनाओं का पाठ पश्चाद्वर्ती है ।। [ 3 ] द्वितीय क्रम पर मैथिली, एवं तीसरे क्रम पर बंगाली वाचना का समुद्भव काश्मीरी वाचना का पाठ ही प्राचीनतम होने के कारण "अभिज्ञानशकुन्तला" नाटक प्रथम क्रम में आता है । अब प्रश्न होगा कि बृहत्पाठ की अन्य दो, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में कौन सा पौर्वापर्य होगा ? । यद्यपि यह प्रश्न सुलझाना बहुत कठिन है । क्योंकि इन दोनों वाचनाओं में इस नाटक का शीर्षक "अभिज्ञान-शकुन्तलम्" है । तथा विद्वानों के द्वारा ऐसा कहा गया है कि मैथिली वाचना का स्वतन्त्र अस्तित्व मानना उचित नहीं है । प्रॉफे. वी. राघवन् ने कहा है कि मैथिली वाचना का पाठ कदाचित् बंगाली की ओर झुकता है, एवं कदाचित् काश्मीरी पाठ की ओर झुकता है । यही बात डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल ने भी कही है । इस तरह के निरीक्षण में सच्चाई अवश्य है । किन्तु मैथिली वाचना का इस तरह का उभयत्र साम्य कुछ राझ की बात कह रहा है । जैसे कि, (1) मैथिली वाचना के पाठ का जहाँ जहाँ बंगाली वाचना के साथ वैषम्य है और काश्मीरी पाठ के साथ साम्य है, वहाँ उस मैथिली पाठ को पाठविचलन के द्वितीय क्रमांक पर रखना होगा । एवमेव, (2) जहाँ मैथिली पाठभेदों का काश्मीरी पाठ के साथ वैषम्य है, एवं बंगाली पाठभेदों के साथ साम्य है वहाँ ऐसा अनुमान करना होगा कि जो पाठभेद एवं प्रक्षेप ( पहले काश्मीरी वाचना में नहीं थे, ) वे सब पहले मैथिली में दाखिल हुए होंगे । तथा उन सब पाठभेदादि उत्तरवर्ती काल में ( यानें तृतीय स्तर पर ) बंगाली वाचना में प्रविष्ट हुए होंगे ।। ऐसे मैथिली वाचना के पाठ को काश्मीरी से पश्चाद्वर्ती काल का, और बंगाली वाचना से पुरोगामी काल का मानने से, मैथिली के उस उभयत्र दिख रहे साम्य-वैषम्य को हम सटीक समझा सकते हैं ।। इस सन्दर्भ में निदर्श रूप कुछ उदाहरण देखना जरूरी है : -- (क) तीसरे अङ्क में दुष्यन्त-शकुन्तला का गान्धर्व-विवाह होता है । इसमें शृङ्गारिक दृश्यावली होने के कारण रंगकर्मिओं के द्वारा अनेक श्लोकों का प्रक्षेप हुआ हैं । काश्मीरी वाचना में इस अङ्क के 35 श्लोक हैं । मैथिली वाचना के पाठ में 40 श्लोक है, तथा बंगाली वाचना में 41 श्लोक है । यहाँ श्लोकों की संख्या में जो क्रमिक वृद्धि दिखाई रही है, उसमें भी ये तीन वाचनाओं की क्रमिक पाठयात्रा स्पष्ट हो रही है । जैसे कि, काश्मीरी वाचना में "तव कुसुमशरत्वं शीतरश्मित्वम्0" (3-4) श्लोक के पीछे, पाँचवे श्लोक के रूप में "शक्योऽरविन्दसुरभिः0" आता है । किन्तु इसी सन्दर्भ में, मैथिली वाचना की श्लोकशृङ्खला देखते है तो वहाँ पर तीन श्लोकों का प्रक्षेप मिलता है :-- 1."अनिशमपि मकरकेतु0", 2. "वृथैव संकल्पशतैर0", तथा "संमीलन्ति न तावद् बन्धनकोषाः0" । । बंगाली वाचना ने इन्हीं तीन श्लोकों को स्वीकार लिये हैं । एवमेव आगे चल कर एक चौथे श्लोक का नया प्रक्षेप भी किया है । यह चौथा श्लोक मैथिली वाचना में नहीं था । "स्तनन्यस्तोशीरं प्रशिथिलमृणालैकवलयं0", एवं "क्षाम-क्षाम-कपोलमाननमुरः काठिन्यमुक्तस्तनं0" इन दोनों के बीच में बंगाली पाठशोधकों ने एक नया श्लोक दाखिल किया, तथा उस श्लोक के पूर्व में प्रियंवदा और अनुसूया की दो नवीन उक्तिओं को भी प्रक्षिप्त की हैं । इस नये प्रक्षिप्तांश का पाठ इस तरह का हैः— "प्रियंवदा – ( जनान्तिकम् ) अणुसूये, तस्स राएसिणो पढमदंसणादो आरम्भिअ पज्जुस्सुअमणा सउन्तला । ण क्खु से अण्णणिमित्तो आदङ्को भवे ।। अनुसूया – ममावि एरिसी आसङ्का । भोदु । पुच्छिस्सं । सहि, पुच्छिदव्वा सि किं पि । बलीओ क्खु अङ्गसंतावो ।। राजा – वक्तव्यमेव, शशिकरविशदान्यस्यास्तथा हि दुःसहनिदाघशंसीनि । भिन्नानि श्यामिकया मृणालनिर्माणवलयानि ।। (3-12) ।।" इस पूरे सन्दर्भ में हम देख सकते हैं कि मैथिली वाचना के द्वारा प्रक्षिप्त किये तीन श्लोकों का बंगाली पाठशोधकों ने पहले अनुगमन किया है । तदनन्तर उसी दिशा में आगे बढते हुए, एक नवीन चौथे श्लोक का प्रक्षेप भी अपनी ओर से कर दिया है । अतः इस नाटक के पाठविचलन की आनुक्रमिकता में काश्मीरी वाचना के तुरंत पीछे, याने दूसरे क्रम में, मैथिली वाचना खडी है । तथा मैथिली के पीछे, यानें तीसरे क्रम में, बंगाली वाचना का पाठ आता है । कवि के द्वारा प्रणीत जो पाठ था वह इस तरह से बृहत् से बृहत्तर, और बृहत्तर से बृहत्तम बनता चला है । ( रिचार्ड पिशेल द्वारा सम्पादित अभिज्ञानशकुन्तल की समीक्षितावृत्ति में 221 श्लोकों को मान्य किये गये हैं । किन्तु बंगाली पाठ के टीकाकार चन्द्रशेखर चक्रवर्ती ने 225 श्लोकों पर टीका लिखी हैं । सारांशतः बंगाली वाचना में ही इस नाटक का कलेवर सब से बडा है ! ) ।। (ख) काश्मीरी पाठ के द्वितीयांक का एक स्थान परीक्षणीय है । विदूषक के कहने से राजा ने मृगया-कर्म से विरत होने का सोच लिया और अपने सेनापति को बुलाया । दुष्यन्त सूचना देना चाहता है कि मृगया के लिए एकत्र किये जंगल के प्राणिओं को मुक्त किये जाय । दौवारिक जा कर सेनापति को ले आता है । रंगमंच पर आकर सेनापति ने राजा के शरीर को देखा । मृगया के कारण राजा जी को जो शारीरिक लाभ हुआ था उसका गुण-वर्णन वह शूरु करता है । जैसे कि, "अनवरतधनुर्-ज्यास्फालन-क्रूरपूर्वम्0" । काश्मीरी वाचना में यहाँ पर दौवारिक की एक उक्ति हैः- अय्य, एसो क्खु अणुवअणदिण्णकण्णो इदो दिण्णदिठ्ठि येव भट्टा तुमं पडिवालेदि । ता उवसप्पदु अय्यो । ( आर्य, एष खल्वनुवचनदत्तकर्ण इतो दत्तदृष्टिरेव भर्ता त्वां प्रतिपालयति । तस्माद् उपसर्पत्वार्यः । ) पूर्वापर सन्दर्भ में इस उक्ति को देखेंगे तो मालूम होगा कि राजा जी ने सामने से आ रहे सेनापति के शब्दों को ध्यान से सुने थे, और वे उसकी प्रतीक्षा भी कर रहे थे । मतलब कि यहाँ राजा के लिए प्रयुक्त "अनुवचनदत्तकर्ण" एवं "इतो दत्तदृष्टिः" ये दोनों विशेषण राजा के आङ्गिक अभिनय के साथ ही जुडे हुए है । नाट्यप्रयोग के दौरान ही राजा के आङ्गिक अभिनय से समझ में आयेगा कि ये दोनों शब्द सर्वथा उपयोगी है ।। इसी उक्ति का मैथिली वाचना में जो स्वरूप है वह निम्नोक्त हैः- एदु एदु अज्जो । एसो अणुवअण-दिण्णकण्णो भट्टा तुमं जेव्व पडिवालेदि, ता उअसप्पदु अज्जो । यहाँ मैथिली पाठ में "इतो दत्तदृष्टिः" इतने शब्द नहीं है । अर्थात् नाट्यप्रयोग के दौरान राजा के आङ्गिक अभिनय से स्पष्ट होगा कि राजा जी केवल सेनापति के शब्दों को सुन रहे थे, किन्तु उनकी दृष्टि सेनापति के आने की दिशा में नहीं घुमाई गई थी ।। बंगाली वाचना में इस सन्दर्भ की उक्तियाँ परीक्षणीय है । जिसमें सब से पहले यह ज्ञातव्य है कि राजा की आज्ञा से दौवारिक जब सेनापति को लेकर रंगमंच पर आता है, तो वहाँ किसी रंगकर्मी ने समय की बचत करने के लिए "निष्क्रम्य- प्रविश्य" की युक्ति का विनियोग किया है, और सेनापति की उक्ति को स्थानान्तरित करके पीछे ले ली है । अब बंगाली वाचना का पाठ्यांश प्रथम द्रष्टव्य हैः- राजा – रैवतक, सेनापतिस्तावद् आहूयताम् । दौवारिकः – तधा । ( इति निष्क्रम्य पुनः सेनापतिना सह प्रविश्य ) एदु एदु अज्जो । एस आलावदिण्णकण्णो भट्टा इदो जेव चिठ्टदि । उवसप्पदु णं अज्जो । ( तथा । एतु एतु आर्यः । एष आलापदत्तकर्णो भर्ता इत एव तिष्ठति । उपसर्पतु एनमार्यः । ) सेनापतिः – ( राजानमवलोक्य स्वगतम् ) कथं दृष्टदोषापि मृगया स्वामिनि केवलं गुणायैव संवृत्ता । तथा हि देवः, अनवरतधनुर्ज्यास्फालनक्रूरकर्मा रविकिरणसहिष्णुः स्वेदलेशैरभिन्नः । अपचितमपि गात्रं व्यायतत्वादलक्ष्यं, गिरिचर इव नागः प्राणसारं बिभर्ति ।। (2-4) इसमें सेनापति के मुख में रखा गया जो श्लोक है, वह अन्य सभी वाचनाओं में, दौवारिक उसको बुला कर साथ में ला रहा है तब सेनापति के मुख में है । वह आते समय रास्ते में ही इस श्लोक के द्वारा राजा का शरीर, जो मृगया के व्यायाम से कसा गया है, उसका निरूपण करता है । इस श्लोक का उच्चारण ( या गान ) पूरा हो जाने पर ही दौवारिक उसको कहता है कि राजा आपके कथन को सुन रहे है, अतः आप उसके निकट में जा सकते हो । लेकिन बंगाली पाठ में इस श्लोक को पीछे कर देने से दौवारिक जब कहता है कि राजा, जो आलापदत्तकर्ण है, वह यहीं खडे है और अब आप उसके निकट जा सकते है, तो वह वाक्य विसंगत लगता है ।क्योंकि इस बंगाली पाठ में तो अभी तक सेनापति ने रास्ते में आते समय यह श्लोक बोला ( या गाया ) ही नहीं है ! तो फिर दौवारिक कैसे कह सकेगा कि राजा आपके आलाप की ओर ध्यान देकर सुन रहे है ? बंगाली पाठ की इस तरह की नवीन पाठयोजना असम्बद्ध है उसमें कोई शक नहीं है ।। काश्मीरी और मैथिली पाठों में इस तरह की विसंगति नहीं है । तथा देवनागरी वाचना ने यद्यपि बंगाली वाचना की नवीन पाठयोजना का अनुसरण किया है, किन्तु उपर्युक्त विसंगति से बचने के लिए दौवारिक की पूर्वोक्त उक्ति में "आलापदत्तकर्ण" शब्द के स्थान में, [ एसो आण्णावअणुक्कंठो भट्टा इदो दिण्णदिठ्ठी एव्व चिठ्ठदि । उवसप्पदु अज्जो । ( एष आज्ञावचनोत्कण्ठो भर्ता इतो दत्तदृष्टिरेव तिष्ठति । उपसर्पतु आर्यः । ) ] "आज्ञावचनोत्कण्ठ" शब्द से नया ही ( चौथा ) पाठान्तर अवतारित किया है ।। उपर्युक्त चर्चा में पाठविचलन की यात्रा भी स्पष्टतया उद्भासित हो रही है । जैसे कि, उपलब्ध प्राचीनतम काश्मीरी वाचना के शारदा पाठ में पहले "अनुवचनदत्तकर्णः, इतो दत्तदृष्टिः" ऐसे दो शब्द थे ।, द्वितीय क्रम में, मैथिली वाचना ने काश्मीरी पाठ का अनुसरण जरूर किया, लेकिन एक शब्द "इतो दत्तदृष्टिः" को कम कर दिया । तथा सेनापति के श्लोक को, राजा के सामने लाने से पहले, प्रस्तुत करनेवाली मूलयोजना को नहीं बदली । तीसरे क्रम में, बंगाली पाठ में सेनापति के मुख में रखे श्लोक को स्थानान्तरित किया गया । तथा "आलापदत्तकर्णः" जैसे तीसरे पाठान्तर को जन्म दिया । लेकिन उसमें पूर्वोक्त प्रकार की विसंगति आने के कारण देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनाओं में एक चौथे पाठान्तर ने जन्म लिया, जिसमें "आज्ञावचनोत्कण्ठः" शब्द आ गया ।। यद्यपि इस चौथे पाठान्तर के कारण भी एक नयी विसंगति पैदा हो रही है । जैसे कि, दौवारिक ने जब राजा की मानसिकता को "आज्ञावचनोत्कण्ठः" से शब्दबद्ध की है तब सेनापति के मुख में मृगया की प्रशंसा करनेवाला श्लोक असामयिक बन जाता है ! यदि उसने सुना है कि राजा कुछ आज्ञा देने के लिए उत्कण्ठित है तो सेनापति को तुरंत ही "जयतु जयतु स्वामी, गृहीतश्वपदमरण्यम्0" इत्यादि बोलते हुए सीधे राजा के सामने प्रस्तुत होना ही उचित लगता है ।। (ग) काश्मीरी पाठ में राजा के परिजन-वर्ग में लिपिकरी मेधाविनी नामक दासी है । और देवी कुलप्रभा के परिजन-वर्ग में एक दासी पिङ्गलिका है । काश्मीरी पाठ में, इन दोनों दासियों के बीच में टकराव होता है । इसमें कुलप्रभा ईर्ष्या-कषायित हो कर कुछ सक्रियता नहीं दिखाती है । मैथिली पाठ में, मेधाविनी एवं पिङ्गलिका की उपस्थिति तो यथावत् रूप में मिलती है । किन्तु जो पहला परिवर्तन आया है वह ऐसा है कि पिङ्गलिका को साथ में लेकर आ रही रानी वसुमती स्वयं ईर्ष्याग्रस्त होकर, मेधाविनी के हाथों में से वर्तिका-करण्डक छिन लेती है । राजा को अधिक प्रिय होने की स्पर्धा में वह अपने आप राजा के पास जा कर वर्तिका देना चाहती है ।। तीसरी ओर, बंगाली पाठ में देखा जाय तो, राजा के परिजन-वर्ग में अब मेधाविनी के स्थान पर "चतुरिका" आ जाती है ! जो राजा के लिए चित्रफलक ले आती है, और बाद में वर्तिका-करण्डक को लेने भी जाती है । तथा रानी वसुमती की दासी के रूप में पिङ्गलिका यथावत् रूप में विद्यमान है । किन्तु बंगाली पाठ में जो एक असाधारण विसंगति प्रकट रूप में अद्यावधि विद्यमान दिख रही है वह यह है कि मेधाविनी को बदल कर चतुरिका का बंगाली पाठ में नया प्रवेश करवाने के बावजुद भी, पाठशोधक लोग एक स्थान पर पुरानी मेधाविनी को बदल देना भूल गये हैं ! जैसे कि, विदूषकः— ( कर्णं दत्त्वा ) भो अहिधावन्ती एसा अन्तेउरवग्घी मेधाविणिं मइं विअ कवलिदुं उवत्थिदा । ( देखो रिचार्ड पिशेल, द्वितीय संस्करण, 1922, पृ. 86, तथा डॉ. दिलीपकुमार कांजीलाल, 1980, पृ. 324 ) यदि बंगाली पाठ में मेधाविनी के स्थान पर "चतुरिका" नया नाम प्रस्तुत करना ही था, तो उसको षष्ठांक में सर्वत्र क्यूं नहीं बदला ? । लेकिन यह असावधानी हमारे लिए बडी कामकी सामग्री बन गई है । यह विसंगति इस बात की गवाह दे रही है कि मैथिली पाठ का अनुगमन करनेवाला ( आज का ) बंगाली पाठ तृतीय क्रमांक पर ही तैयार किया गया है ।। देवनागरी पाठ में, बंगाली पाठ की उपर्युक्त विसंगति सम्पूर्णतया हटाई गई है । उसमें सर्वत्र "चतुरिका" ही मिलती है । तथा देवनागरी पाठ में, पिङ्गलिका को बदल करके "तरलिका" नाम की दासी दाखिल की गई है । अतः वह चतुर्थ क्रमांक पर तैयार किया गया पाठ सिद्ध होता है ।। (घ) चतुर्थ अङ्क के प्रारम्भ में दुर्वासा का शाप-प्रसंग निरूपित है । देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में शापमोचन का उपाय मांगने के लिए प्रियंवदा जाती है, और उस शापवृत्तान्त को गुप्त रखने का प्रस्ताव अनसूया करती है । किन्तु तीन अङ्कों के कार्यकलाप के दौरान इन दोनों सहेलियों के व्यक्तित्व का जो परिचय दर्शकों ( या पाठकों ) को मिला है उसको देखते हुए तो यह प्रतीतिकर नहीं है । अतः अन्य वाचनाओं में क्या स्थिति है उसका तुलनात्मक अभ्यास करना जरूरी है । काश्मीरी वाचना में शापमोचन की याचना के लिए अनसूया जाती है, और शापगुप्ति का प्रस्ताव प्रियंवदा ने किया है । इस तरह का वक्त्री-क्रम समुचित लगता है । जब मैथिली वाचना को देखते है तो उसमें शापमोचन की याचना करने के लिए जाती तो है अनसूया ही । लेकिन शाप वृत्तान्त को शकुन्तला से छिपा कर रखने का प्रस्ताव भी अनसूया ही करती है ! यह कैसे हो गया ? तो प्रियंवदा ने जब कहा कि राजा के द्वारा दी गई अंगुठी शकुन्तला के पास है, इस लिए वह स्वाधीनोपाय है । तब अनसूया ने कहा कि चलो, हम देवकार्य का निर्वतन कर ले । ( उसके बाद मैथिली वाचना के पाठ में रंगसूचना है : इति परिक्रामतः । ) यह उक्ति पहले काश्मीरी वाचना में नहीं थी । किन्तु किसी अज्ञात रंगकर्मी ने उसे नयी दाखिल की । क्योंकि पुष्पचयन करने के स्थान से चल कर शकुन्तला की कुटिर पर पहुँचने के लिए रंगमंच पर परिक्रमण दिखाना आवश्यक था । और उस समय अनसूया के मुख में कुछ वाक्य होना चाहिए ऐसा सोच कर एक नये वाक्य का प्रक्षेप किया गया । अब, याने अनसूया की उक्ति के बाद जो दूसरी उक्ति होगी वह प्रियंवदा को बोलनी होगी । बस ऐसा होने के कारण, उपर्युक्त नये वाक्य के प्रक्षेप के कारण, अनुगामी संवादों की वक्त्रियाँ उलटापुलटा हो गई । वक्तृविशेष का क्रम बदल जाने के कारण जो कार्य जिस व्यक्तित्व के साथ सुसंगत लगता था वह पश्चाद्वर्ती समय में विकृत हो जाता है । मैथिली वाचना का अनुसरण करते हुए बंगाली वाचना में भी उपर्युक्त दोनों बातें अनसूया के ही मुख में रखी गई है ।। जब इसी सन्दर्भ में देवनागरी पाठ का अवलोकन किया जाता है तो एक और नया परिवर्तन मिल रहा है ! वहाँ पर शाप-मोचन की याचना के लिए प्रियंवदा जाती है, और शाप-वृत्तान्त को संगोपित रखने का प्रस्ताव अनसूया ने किया है ।। इस नाटक की पाँचों वाचनाओं में मिल रहे विविध पाठान्तरों का इस तरह से तुलनात्मक अभ्यास करने से, काश्मीरी से शूरु हुई पाठयात्रा प्रथम मैथिली वाचना में संक्रान्त होकर, द्वितीय क्रम पर बंगाली वाचना में प्रवेश करती है । वहाँ आगे बढती हुई पाठयात्रा चतुर्थ क्रम में देवनागरी वाचना में जाती है, और अन्त में दाक्षिणात्य वाचना में पहुँचती है । किन्तु प्रत्येक स्तर पर उसमें ( काव्यतत्त्वीय पक्ष को कम से कम हानि पहुँचाई गई है, परन्तु ) रंगमंचीय परिवर्तन ही प्रायः ज्यादा होते रहे हैं ।। [ 4 ] काश्मीरी वाचना को विरासत में मिले कुछ प्रक्षेपादि जैसा कि पहले कहा गया है इस नाटक का काश्मीरी वाचना में सुरक्षित रहा पाठ ही प्राचीनतम पाठ है, और यह वाचना ई. स. 700 के आसपास में ग्रथित हुई होगी । कवि कालिदास के समय से लेकर, अर्थात् प्रथम शताब्दि से सातवी शताब्दि तक के अन्तराल में इस पाठ में कौन से परिवर्तन, प्रक्षेपादि हुए होंगे वह भी विचारणीय है । क्योंकि काश्मीरी वाचना प्राचीनतम सिद्ध होती है इस लिए उसमें ही सर्वथा मौलिक पाठ संगृहीत हुआ है, या सुरक्षित रहा है ऐसा मान लेने की जल्दबाजी हम नहीं कर सकते है । कालिदास और शारदा पाण्डुलिपियों में संचरित हुए पाठ के बीच में जो 700 वर्षों का सुदीर्घ कालखण्ड पड़ा है, वह हमारे लिए अन्धकारग्रस्त है । शारदालिपि में लिखी गई भूर्जपत्रवाली ( क्रमांक : 192 ) पाण्डुलिपि की भाग्यवशात् प्राप्ति हो जाने से उस अन्धकार भरे समय में क्या क्या हुआ होगा, तथा उसके बाद क्या होता रहा है उसका कुछ अन्दाजा लगाया जा सकता है । क्यूंकि, अब ऑक्सफर्ड युनिवर्सिटी की दो शारदा पाण्डुलिपियाँ ( क्रमांक : 159 एवं 1247 ), तथा श्रीनगर की शारदा पाण्डुलिपि ( क्रमांक : 1345 ) की भी प्राप्ति हो गई है । इसके लिए निदर्श के रूप में तृतीयांक का कुसुमशयना शकुन्तला वाला दृश्य बारिकी से देखने की जरूरत है ।। तृतीयांक के आरम्भ में कहा गया है कि कामज्वर से पीडित शकुन्तला बलवद्-अस्वस्थ अवस्था में है । प्रियंवदा उसके शरीरदाह के निर्वापण के लिए उशीर का लेप और नलिनीपत्रादि को ले जा रही है । तब कण्वाश्रम का एक शिष्य भी प्रियंवदा को कहता है कि शकुन्तला तो कण्व मुनि का श्वासोच्छ्वास है, अतः उसको बहुत सम्भाल के रखना । दृश्य का आरम्भ होते ही, मालिनी नदी के तट उपर लतावलय में एक शिलातल पर बिछाये कुसुमास्तरण में वह लेटी हुई है । दोनों सहेलियाँ उसको नलिनीदल से पंखा झल रही हैं । यहाँ कालिदास की मूलयोजना तो यही रही है कि दृश्य के आरम्भ में शकुन्तला पुष्पमयी शय्या पर लेटी हो और मदनलेख लिखते समय भी वह लेटी रहे । तथा मदनलेख के शब्दों को सुन कर राजा प्रकट हो जाय और उसको उसी शिलातल पर बिठाया जाय, जिस पर शकुन्तला लेटी हो, तब भी वह वहीं पर लेटी रहे । जब दोनों सहेलियाँ रंगमंच से बिदा ले और दुष्यन्त शकुन्तला को कहे कि तुम आवेग में मत आओ । तेरी सखियों की भूमिका में रहा मैं तेरा आराधयिता व्यक्ति बन कर तेरे पास में हूँ । "0अङ्के निधाय चरणावुत पद्मताम्रौ, संवाहयामि करभोरु यथासुखं ते । (3-20)" तब, वह अपनी मदनावस्था के अनुरूप धीरे से, कष्ट के साथ कुसुमास्तरण से उठ कर चलने का आरम्भ करें । ( यहाँ शारदा पाण्डुलिपियों में रंगसूचना है : अवस्थासदृशमुत्थाय प्रस्थिता । ) नायिका शकुन्तला कहाँ से लेकर, कहाँ तक कुसुमास्तरण पर लेटी रहे इसकी कविनिर्धारित योजना यही है । लेकिन वर्तमान में उपलब्ध हो रहे शारदा-पाठ का गठन होने से पूर्व में, अतीत के रंगकर्मिओं ने, नायिका की उस लेटी हुई अवस्था का तथा लतावलय में एकान्त की स्थिति का अनुचित फायदा उठा कर अश्लिल श्लोकयुक्त कुछ पाठ्यांशों का प्रक्षेप किया है । ऐसे स्थान का प्रतीकात्मक निर्देश करें तो, "अपराधमिमं ततः सहिष्ये रम्भोरु तवाङ्गरेचितार्धे । कुसुमास्तरणे क्लमापहं मे सुजनत्वादनुमन्यसेऽवकाशम् ।। (3-19)" ।। ऐसा अश्लिल पाठ्यांश बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में कुछ पाठभेद के साथ उपलब्ध होता है । इसी लिए अनुमान किया जाता है कि ऐसे पाठ्यांश का प्रक्षेप काश्मीरी वाचना की शारदा पाण्डुलिपियों का गठन होने से पहले, सुदूर अतीत में, हुआ होगा । स्वयं कवि कालिदास ने नायिका को रंगमंच पर लेटी हुई अवस्था में प्रस्तुत की वही पाठविचलन का प्रथम उद्गम बिन्दु बन गया है । यद्यपि हमारे लिए यह आशाजनक बात है कि इन्हीं चार शारदा पाण्डुलिपियों में कुछ अंश ऐसे भी मिलते हैं कि हम उन प्रक्षिप्तांशो को पहचान भी सके । उदाहरण के रूप में, (क) उपर्युक्त 3-19 श्लोक के पहले, ( श्लोक 3-17 से भी पहले ) अनसूया ने कहा है कि देखो देखो, मेघ-नाद से आहत मयूरी की तरह हमारी प्रियसखी के जीव में जीव आ गया ! उसके बाद रंगसूचना है : "शकुन्तला सलज्जा तिष्ठति ।" इस तरह, नायिका को लेटी हुई अवस्था से पहले ही सलज्जा खडी की गई है, उसके पास उपर्युक्त शब्दों के द्वारा सहशयन की याचना कैसे की जाय ? तथा श्लोक 3-20 के नीचे जो रंगसूचना "अवस्थासदृशम् उत्थाय प्रस्थिता" है, उसके साथ "शकुन्तला सलज्जा तिष्ठति ।"वाली रंगसूचना भी विसंगति पैदा करती है ! अतः शारदालिपि में लिखी पाण्डुलिपियों में ही रंगसूचना-सम्बन्धी जो विसंगतियाँ हैं, वही इस बात की गवाह देती हैं कि शकुन्तला की लेटी हुई अवस्था की मूलदृश्य-योजना बदलने की चेष्टा 700 ई. स. से पहले से हो चूकी थी । (ख) इस सन्दर्भ में दूसरा उदाहरण भी देखना रसप्रद होगा : प्रियंवदा के सुझाव पर शकुन्तला जब मदनलेख लिखने के लिए मानसिक रूप से तैयार होती है तब, कवि की मूल दृश्य-योजना के अनुसार वह लेटी हुई रह कर ही गीत के अक्षर सोचती है और लेटी हुई रह कर ही लिखती है । भूर्जपत्रवाली शारदा-प्रति में "आसीना चिन्तयति" या "उपविष्टा चिन्तयति" जैसी एक भी रंगसूचना नहीं है । किन्तु परवर्ती काल में, ऑक्सफर्ड की 159 क्रमांकवाली पाण्डुलिपि में केवल "चिन्तयति" ऐसी रंगसूचना प्रविष्ट होती है । तदनन्तर, ऑक्सफर्ड की 1247 क्रमांक वाली तथा श्रीनगर की 1435 क्रमांकवाली पाण्डुलिपिओं में "आसीना चिन्तयति" ऐसी रंगसूचना दाखिल की गई है । जैसा कि पहले कहा गया है, यहाँ पर हमें याद रखना है कि दुष्यन्त जब तक शकुन्तला के पादसंवाहन का प्रस्ताव न करे तब तक नायिका को लेटे ही रहना है । क्योंकि पादसंवाहन का प्रस्ताव होने के ( श्लोक 3-20 ) बाद जो "अवस्थासदृशम् उत्थाय प्रस्थिता" ऐसी रंगसूचना है, उसका इङ्गित यही है कि मदनलेख-प्रसंग में भी नायिका लेटी रहे ।। रंगमंच पर शकुन्तला को लेटी हुई स्थिति में प्रस्तुत करने का कालिदास का विचार पश्चाद्वर्ती काल में रंगकर्मिओं के लिए चुनौती रूप बना है, और कहना होगा कि प्रायः सभी काल के रंगकर्मी लोग उसमें निष्फल रहे हैं । इस बात का अन्दाजा शकुन्तला को कब बिठाई जाय, कब खडी की जाय, एवं कब उसे चलाई जाय ? इस विषय को लेकर रंगसूचना-सम्बन्धी जो विसंगति प्रायः सभी वाचनाओं में फैली हुई आज भी मिलती है, उससे देखा जा सकता है :-- (क) भूर्जपत्रवाली प्राचीनतम शारदा पाण्डुलिपि में, राजा को जब शिलातल पर बिठाया जाता है तब, शकुन्तला को मेघनादाहत मयूरी का उपमान देकर लज्जा के साथ खडी की जाती है वही एक विसंगति है । किन्तु यह उपमान रमणीय होते हे भी प्रक्षिप्त है ऐसा निश्चित हो सकता है । (ख) ऑक्सफर्ड की 1247 क्रमवाली एवं श्रीनगर की 1435 क्रमवाली पाण्डुलिपियों में ( और तदनुसारिणी मैथिली वाचना में ) एक दूसरी विसंगति ने प्रवेश किया है । जैसे कि, इन दो शारदा पाण्डुलिपिओं में लेटी हुई शकुन्तला को खडी करने से पहले, मदनलेख लिखवाते समय "आसीना चिन्तयति" जैसी रंगसूचना से बिठाई जाती है । तथा मदनलेख को सुन कर सहसा प्रकट हुए राजा को शिलातल पर बिठाया जाता है, तब "पादौ अपसारयति" नवीन रंगसूचना से, बैठी हुई शकुन्तला के दो पाँव को थोडे से सीकुडने का कहा जाता है । उक्त दो शारदा प्रतिओं में बैठी हुई शकुन्तला के पाँव को सीकुडने की सूचना है, किन्तु मैथिली पाठ में मदनलेख लिखवाते समय शकुन्तला को "आसीना चिन्तयति" नहीं बताई है, उसमें तो शकुन्तला को केवल "चिन्तयति" रंगसूचना से, लेटी रह कर ही चिन्तन करने का कहा है । परिणामतः मैथिली वाचना में "पादौ अपसारयति" रंगसूचना का फलितार्थ यही होगा कि जिस शिलातल पर शकुन्तला लेटी है उसी पर राजा को बिठाने के लिए, लेटी हुई स्थिति में ही वह अपने दोनों पाद को अपसारित करती है । (ग) बंगाली वाचना में मैथिली वाचना जैसा ही पाठ संचरित हुआ है, किन्तु उसमें एक परिष्कार भी किया गया है । जैसे कि, इसमें "सलज्जा तिष्ठति"वाली रंगसूचना नहीं है । अर्थात् इस वाचना के अनुसार, जब से लेटी हुई शकुन्तला का दृश्य शूरु हुआ है वहाँ से लेकर राजा ने पाद-संवाहन का प्रस्ताव रखा तब तक वह सातत्यपूर्वक रंगमंच पर लेटी ही रहती है, जो कवि की मूलयोजना थी । किन्तु ऐसा पाठ बाद में परिष्कृत किया गया है उसका क्या प्रमाण ? ऐसा प्रश्न हमें कोई भी कर सकता है । इसके प्रत्युत्तर में कहेंगे कि, ( भूर्जपत्रवाली पाण्डुलिपि में आये हुए ) मेधनादाहत मयूरी के उपमान का प्रयोग करते हुए शकुन्तला को सलज्जा खडी करनेवाली जो उक्ति है, वह बंगाली वाचना में भी है । लेकिन उसके साथ में जुडी "सलज्जा तिष्ठति"वाली रंगसूचना को ही केवल हटाई गई है । तथा उस उक्ति को स्थानान्तरित करके, जब राजा के द्वारा "परिग्रहबहुत्वेपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य नः0" वाले श्लोक से शकुन्तला को कुलप्रतिष्ठा कही जाती है तब, रखी गई है । प्रियंवदा जनान्तिक उक्ति से कहती है : "अणुसूये, पेक्ख पेक्ख मेहवादाहदं विअ गिम्हे मोरिं खणे खणे पच्चाअदजीविदं पिअसहिं ।" लेकिन इसके बाद शकुन्तला के किसी भी तरह के अनुभावों का प्रदर्शन नहीं है । बल्कि वह सहेलियों को राजा की क्षमायाचना करने को कहने लगती है, जिसके अनुसन्धान में, काश्मीरी वाचना को विरासत में मिले एक अश्लिल अंश का प्रक्षेप स्वीकार लिया गया है ।। (घ) इस सन्दर्भ में, देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनाओं में कैसी विसंगति अनुसंचरित हुई है वह भी द्रष्टव्य है : दृश्य के आरम्भ में शकुन्तला कुसुमास्तरण पर लेटी हुई थी । मदनलेख लिखते समय, देवनागरी पाठ में, उसे "आसीना चिन्तयति" की रंगसूचना से बिठाई जाती है । तत्पश्चात् राजा को उसी शिलातल पर बिठाया जाता है तब वह सलज्जा खडी हो जाती है । किन्तु आगे चल कर दुष्यन्त जब एकान्त में, उसका पादसंवाहन करने की तत्परता दिखाता है तब ( देवनागरी पाठ में ) एक नवीन रंगसूचना के माध्यम से हमें कहा जाता है कि "इत्युत्थाय गन्तुमिच्छति" । जिसको देख कर तुरंत प्रश्न होता है कि जो शकुन्तला पहले से सलज्जा खडी है, तो अब "खडी होकर जाने की इच्छा कर रही है" ऐसी रंगसूचना कैसे दी जा रही है ? । एवमेव, खडी हुई शकुन्तला को राजा ऐसा कहे कि मैं क्या तुम्हें शीतल नलिनीदल से पवन झलुं, या पद्म जैसे ताम्रवर्णवाले पाँव को मेरे अङ्क में लेकर क्या मैं संवाहन करुं ? तो इन शब्दों का सन्दर्भगत औचित्य बीलकुल नहीं रहता । अतः सिद्ध होता है कि कुसुमशयना शकुन्तला का दृश्य अपने मूल स्वरूप में से बहुत पुराने समय से विचलित हो गया है । तथा यह विसंगति काश्मीरी वाचना को विरासत में मिली है । कालिदास के समय से, याने प्रथम शताब्दि से लेकर सप्तम शताब्दि के बीच में इस नाटक का जो रंगमंचीय इतिहास अन्धकारग्रस्त है, उसमें दृष्टिपात कराने वाली यह विसंगतियाँ है । एवं देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनाओं के सभी सम्पादनों और संस्करणों में आज भी वह मौजुद है !! काश्मीरी वाचना को विरासत में मिले कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों में चतुर्थाङ्क के आरम्भ में आये चार श्लोकों का भी परिगणन करना चाहिए । इन श्लोकों में कण्वाश्रम का एक शिष्य कितनी प्रभात-वेला हुई है उसका अन्दाजा लगाने के लिए रंगमंच पर आया है और प्रभात का वर्णन करता है । इन श्लोकों में 1. कर्कन्धूनाम् उपरि तुहिनम् 0 ।, 2. पादन्यासं क्षितिधरगुरोर् 0 ।, 3. यात्येकतोऽस्तशिखरं0 ।, एवं 4. अन्तर्हिते शशिनि सैव0 । का समावेश होता है । मैथिली वाचना में भी इन सब का ( और इसी क्रम में ) संग्रह किया गया है । किन्तु बंगाली वाचना के पाठशोधकों ने तीसरे-चौथे क्रमांक के श्लोकों को पहला-दूसरा श्लोक बना दिया है, और पहले-दूसरे श्लोकों को तीसरे-चौथे क्रम में रखे हैं ।। तथा देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं में जब संक्षेपीकरण की प्रवृत्ति होती है तब 1. कर्कन्धूनाम् उपरि तुहिनम् 0 ।, 2. पादन्यासं क्षितिधरगुरोर् 0 । श्लोकों को निरस्त किये गये हैं । हमने इन श्लोकों की मौलिकता सम्बन्धी चर्चा की है , जिसमें यह बताया है कि काश्मीरी वाचना के पहले दो श्लोकों को जो देवनागरी में से हटाये गये हैं वही मौलिक श्लोक हो सकते हैं ।। किन्तु "अपि च" जैसे समुच्चयार्थक निपात का विनियोग करके, इस नाटक के पाठ में अनेक स्थानों में प्रक्षेप करने की प्रवृत्ति बहुत पुराने समय से कार्यरत हुई थी । इस विमर्श से सिद्ध किया गया है कि उपर्युक्त चार श्लोकों में से तीसरा-चौथा श्लोक काश्मीरी वाचना में प्राचीन काल के प्रक्षेपों की विरासत के रूप में मिले होंगे ।। [ 5 ] नाटक के पाठ्यांश में कटौती करने का मार्ग जतानेवाला प्रक्षेप कवि के द्वारा ही मूल में नायिका की लेटी हुई अवस्था और लतावलय के एकान्त की जो परिस्थितियों का निर्माण किया गया है वह शृङ्गार रस का परिपोषक उद्दीपन विभाव है । लेकिन कमजोर रंगकर्मिओं के हाथों में जब ऐसा पाठ्यांश अभिनीत करने के लिए जाता है तो शृङ्गार जैसे अतिमसृण रस को अश्लिलता में फिसल जाने की भारी सम्भावना रहती है । परिणामतः तीसरे अङ्क में 1. अप्यौत्सुक्ये महति न वरप्रार्थनासु प्रतार्याः, काङ्क्ष्यन्त्योऽपि व्यतिकरसुखं कातराः स्वाङ्गदाने0 । (3-22), एवं 2. यदा सुरतज्ञो भविष्यामि । जैसे अश्लिल पाठ्यांश भी बहुत पहले से प्रविष्ट हो गये हैं । शारदा पाठपरम्परा को ऐसे प्रक्षिप्त पाठ्यांश विरासत में मिले थे, उसका संचरण ( कुछ परिवर्तनों के साथ ) मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं के पाठों में भी होता रहा हैं । जिसके कारण बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाएँ निन्दनीय एवं अग्राह्य बनी रही ।। किन्तु बात यहाँ तक सीमित भी नहीं रही । सुरुचि का भङ्ग करनेवाले उपर्युक्त अश्लिल पाठ्यांशों को हटाने के लिए, या फिर इस नाटक को अल्प कालावधि में प्रस्तुत करने के लिए, अथवा उभयविध कारणों से प्रेरित होकर जब भी इस नाटक के बृहत्पाठ में संक्षेप करने का सोचा गया होगा तब कौन सा वह स्थान था कि जो संक्षेपीकरण के लिए काम आया ? क्योंकि विरासत में मिले अश्लिल पाठ्यांश शारदा पाण्डुलिपियों में से अन्य दो वाचनाओं में भी प्रविष्ट हुए थे । उसको तो संक्षेपीकरण के दौरान सीधे उठा लेने से प्रणय-प्रसंग में कोई बाधा नहीं आती है । किन्तु बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में जो नैसर्गिक प्रेमसहचार की दृश्यावली थी उसमें कहीं पर भी विच्छेद करने की सम्भावना ही नहीं थी । इस लिए यह खोजना अतीव आवश्यक है कि इस नाटक के संक्षेपीकरण का मार्ग प्रशस्त करनेवाला स्थान कहाँ से मिला ? शारदा पाण्डुलिपियों की उपलब्धि होने से, एवं उपर्युक्त चर्चा से प्रस्थापित की गई पाठविचलन की आनुक्रमिकता को ध्यान में लेने से यह बात प्रकाश में आ सकती है । जैसा कि पहले यह सयुक्तिक सिद्ध किया गया है कि प्राचीनतम काश्मीरी वाचना के बाद ही, द्वितीय क्रम में मैथिली वाचना का उद्भव हुआ है । तो अब जो श्लोक काश्मीरी वाचना में कहीं पर न हो, और प्रथम बार मैथिली वाचना में दाखिल किया गया हो उसको ढूँढना चाहिए । वैसा एक श्लोक है, जो अन्य सभी वाचनाओं में स्वीकृत हुआ है : गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः । श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चानुमोदिताः ।। ( मै. वा. 3-27 ) । यह श्लोक सब से पहली बार मैथिली वाचना के पाठशोधकों ने प्रक्षिप्त किया है ऐसा सिद्ध होता है । पाठविचलन की पूर्वोक्त आनुक्रमिकता से जब हम देखते है कि यह श्लोक पहले काश्मीरी वाचना की एक भी शारदा-पाण्डुलिपि में मिलता नहीं है, और बाद में वह मैथिली वाचना में दृष्टिगोचर होता है तो हम कह सकते है कि यह मैथिली परम्परा का अवदान है । यहाँ ( ऐसा नहीं है कि काश्मीरी वाचना के पाठ में लिपिकारों के प्रमाद से यह श्लोक निकल गया होगा, ) उच्चतर समीक्षा से भी सिद्ध होता है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त ही है । शकुन्तला दुष्यन्त को जब सावधान करती है :-- शकुन्तला – ( कृतकृतककोपा ) पोरव रक्ख अविणअं । इदो तदो इसिओ संचरन्ति । राजा – सुन्दरि, अलं गुरुजनाद् भयेन । न ते विदितधर्मा तत्रभवान् कण्वः खेदमुपयास्यति । गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः । श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चानुमोदिताः ।। ( 3 – 27 ) ( दिशोऽवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोऽस्मि । ( ससम्भ्रमम् शकुन्तलां हित्वा तेनैव पथा पुनर्निवर्तते ) शकुन्तला – ( पदान्तरे प्रतिनिवृत्य ) पोरव, अणिच्छापूरओ वि खणमेत्तपरिचिदो अअं जणो ण विसुमरिदव्वो ।। ( मैथिली वाचना, पृ. 52 ) उपरि भाग में दिये गये पाठ्यांश को देखने से मालूम होगा कि, शकुन्तला जब दुष्यन्त को सावधान करती है कि "यहाँ वहाँ ऋषिमुनि लोग घूम रहे होंगे", तब दुष्यन्त कहता है कि गुरुजनों से भय रखने की आवश्यकता नहीं है, कण्व भी तुझे प्रेमासक्त या विवाहित जान कर खेद का अनुभव नहीं करेंगे । अर्थात् तेरे पर नाराज़ नहीं होगें । दुष्यन्त यहाँ विशेष में यह भी कहता है कि गान्धर्व-विवाह से विवाहित हुई बहुत सी मुनिकन्यायें ( या राजर्षिओं की कन्यायें ) है, जो ( बाद में ) पिताओं के द्वारा अनुमोदित ( अभिनन्दित ) भी की गई है । लेकिन शकुन्तला जब कह रही है कि आसपास में ऋषिमुनि घूम रहे होंगे, तब तो विनीत वर्ताव की ही अपेक्षा है । उससे विपरीत दुष्यन्त गुरुजनों से डर ने की कोई ज़रूरत नहीं है ऐसा समझाने का उपक्रम शुरु करे वह दुष्यन्त के धीरोदात्त चचरित के अनुरूप नहीं है । अतः दुष्यन्त के मुख में रखा गया प्रथम वाक्य एवं "गान्धर्वेण विवाहेन0" वाला श्लोक बीच में से हटाया जाय तो, जो रंगसूचना-पुरस्सर का अनुगामी वाक्य है : ( दिशोऽवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोऽस्मि । ( शकुन्तलां हित्वा पुनस्तैरेव पदैः प्रतिनिवर्तते ), वह बिलकुल सही सिद्ध होता है । इसमें विचार-सातत्य भी है और दुष्यन्त का लतामण्डप में वापस चला जाना भी शकुन्तला की उक्ति से सुसम्बद्ध है ।। महाभारत के शकुन्तलोपाख्यान में दुःषन्त बहुत उतावला हो गया है । उस मूल कथा में सुधार के लिए उद्यत हुए महाकवि के लिए प्रेम का उदात्त चित्र खींचना मुनासिब है, तो उसको अपनी कलम से गान्धर्व-विवाह का प्रस्ताव कराके किसी मुग्धा मुनिकन्या को उकसाने की ज़रूरत नहीं थी । इसे, अर्थात् गान्धर्वेण विवाहेन0 वाले श्लोक को प्रक्षिप्त मान कर, बीच में से हटा देने से दुष्यन्त के उदात्त चरित की भी रक्षा होती है और शकुन्तला की उक्ति के साथ "कथं प्रकाशं निर्गतोऽस्मि" जैसा दुष्यन्त का प्रतिभाव भी सुसंगत ठहरता है । इस तरह की उच्चतर समीक्षा का निष्कर्ष यही है कि शकुन्तला का लतावलय से बाहर चले जाने के बाद, दुष्यन्त भी जब वहाँ से बाहर आ जाता है तब "यहाँ वहाँ ऋषिमुनि लोग घूम रहे होंगे" ऐसी प्रिया शकुन्तला की चेतावनी के साथ तो, "( दिशोऽवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोऽस्मि" का सन्धान ही मौलिक प्रतीत होता है ।। तथा मैथिली वाचना ने किया "गान्धर्वेण विवाहेन0" श्लोक का प्रक्षेप सिद्ध होता है ।। अब यह बताना है कि अतीत के कोई अज्ञात रंगकर्मी ने इस नाटक के पाठ्यांश में कटौती करने का जब सोचा होगा तब उसके लिए दो तरह के लक्ष्य रहे होंगे : (क) परापूर्व से चले आ रहे अश्लिल पाठ्यांशो की कटौती की जाय, और (ख) इस नाटक की रंगमंच पर अल्प समयावधि में प्रस्तुति करने के लिए कौन से दृश्यों की कटौती की जाय, एवं प्रवर्तित कथा का कहाँ से पुनःसन्धान कर लिया जाय ? उस स्थान को पसंद करना । इन दोनों में से पहला लक्ष्य सिद्ध करना तो सरल था, जो भी सुरुचि का भङ्ग करनेवाले अश्लिल पाठ्यांश काश्मीरी आदि तीन वाचनाओं में चले आ रहे थे उनको चुन चुन कर हटा लिया होगा । तदनन्तर, इस नाटक के तीसरे अङ्क में जहाँ से नायक-नायिका का सहज सुन्दर नैसर्गिक प्रेमसहचार शूरु होता है, ( जिसमें दुष्यन्त शकुन्तला के हाथ में मृणाल-वलय पहनाता है, तथा दुष्यन्त शकुन्तला को पास में बिठा कर पुष्परज से कलुषित हुए उसके नेत्र को अपने वदनमारुत से प्रमार्जित कर देता है ) ऐसे दो दृश्यों को हटा दिये है । ऐसे सुन्दर प्रेमभरे दो दृश्यों को हटाने का साहस वह इस लिए कर सका है कि उसके हाथ में मैथिली वाचना ने प्रक्षिप्त किया "गान्धर्वेण विवाहेन0" वाला श्लोक था । स्वाभाविक प्रेमोपचार के विकल्प में शास्त्रसम्मत गान्धर्व-विवाह का नामशः निर्देश करके नायक एक आश्रम-कन्या को उकसाने में सफल रहा ऐसा निरूपण कार्यरत किया गया, और दुर्भाग्यवशात् वह अद्यावधि कामयाब भी रहा है ।। देवनागरी वाचना में उक्त श्लोक के बाद केवल चार-पाँच संवाद आते हैं और तुरंत नेपथ्योक्ति से अङ्क समाप्त करने की दिशा में अवशिष्ट पाठ उपयुक्त किया गया है ।। हाँ, एक बात और बताना जरूरी है कि नाटक के पाठ्यांश में यह जो कटौती की गई है, उसका अन्दाजित समय 14 या 15वीं शती से पूर्व नहीं होगा । इस तरह का अन्दाजा लगाने के पीछे दो हेतु हमारे पास है : (1) इस नाटक के उपलब्ध टीकाकारों में से सब से पहले काटयवेम को रखे जाते है, और उनका अनुमानित समय 15वीं शती है । अतः उससे पचास या सो साल पूर्व में ही देवनागरी वाचना का पाठ संक्षिप्त किया गया होगा । और उस नवीन संक्षिप्त रंगावृत्ति का दाक्षिणात्य पाठपरम्परा ने सद्यः अनुसरण भी किया होगा । (2) जोधपुर की राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से 21422 क्रमांक की एक पुरानी शैली के देवनागरी अक्षरों में लिखी पाण्डुलिपि मिल रही है , ( जिसका लेखनकाल 1684 विक्रम संवत्, याने 1627 ई. स. है ) उसमें काश्मीरी एवं बंगाली वाचनाओं जैसा ही बृहत्पाठ सुरक्षित है । मतलब कि 16वीं शती तक तो देवनागरी पाण्डुलिपियों की परम्परा में भी इस नाटक का बृहत्पाठ भी चल रहा था । अतः देवनागरी के संक्षेपीकरण का काल 14वीं या 15वीं शती से अधिक पूर्व में नहीं माना जा सकता है ।। [ 6 ] देवनागरी वाचना में संक्षेपीकरण के साथ साथ अन्य वाचनाओं के पाठान्तरों का संमिश्रण "देवनागरी वाचना में व्यञ्जनापूर्ण पाठ समुपलब्ध होता है और इसलिए वही मौलिक हो सकता है" ऐसा माननेवाले विद्वान् आज सर्वाधिक है । किन्तु जब इस नाटक की पाठालोचना उच्चतर समीक्षा के मानदण्ड से की गई है, ( और उससे ऐसा सिद्ध हो रहा है कि में वह संक्षिप्त किया गया पाठ है ) तब मालूम होता है कि यह रंगावृत्ति स्वरूप का पाठ है । प्रस्तुत नाटक के देवनागरी पाठ का इस तरह का नया अभिज्ञान प्राप्त करने के साथ एक दूसरी बात भी ज्ञातव्य है । देवनागरी वाचना का पाठ न केवल संक्षिप्त किया गया पाठ है, उसमें तो अन्यान्य वाचनाओं के पाठान्तरों को भी संमिश्रित किये गये हैं । इससे यह भी सिद्ध होता है कि देवनागरी वाचना का वर्तमान स्वरूप पाठविचलन के चतुर्थ क्रमांक पर खडा है । अब पाठान्तरों के संमिश्रण के कतिपय उदाहरण देखेंगे । (क) प्रथमांक में, काश्मीरी वाचना के पाठ का अनुसरण करते हुए देवनागरी पाठ में "तदिदानीं कतमत् प्रकरणमाश्रित्यैनमाराधयामः ।" वाक्य में प्रकरण शब्द माना है । इसी सन्दर्भ में मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में "तत् कतमं प्रयोगमाश्रित्यैनमाराधयामः ।" ऐसा पाठान्तर है ।। (ख) देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं ने "न खलु न खलु बाणः सन्निपात्योऽयमस्मिन्0" श्लोक का स्वीकार किया है । यह श्लोक मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में से लिया गया है । क्योंकि यह श्लोक काश्मीरी वाचना में नहीं है ।। ( यद्यपि राघवभट्ट ने इस श्लोक पर टीका नहीं लिखी है । ) (ग) द्वितीयांक में, देवनागरी वाचना के पाठ में विदूषक की उक्ति है कि "0 तथा स्त्रीरत्नपरिभाविनो भवत इयमभ्यर्थना" ।, किन्तु मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में तो "स्त्रीरत्नपरिभोगिनः" ऐसा पाठभेद मिलता है । तो यहाँ पर देवनागरी वाचना ने जो पाठ स्वीकारा है वह काश्मीरी वाचनानुसारी है । (घ) देवनागरी वाचना में राजा की उक्ति है कि किस उपाय से फिर से कण्वाश्रम में जाया सकता है ? तो विदूषक कहता है : "को अवरोऽपदेशस्तव राज्ञः ।" मैथिली एवं बंगाली वाचनों में इस सन्दर्भ में "कः अवर अपदेशः । ननु भवान् राजा ।" ऐसा सद्यः प्रत्युत्तर दिया जाता है । किन्तु काश्मीरी वाचना में तो विदूषक रंगमंच पर समाधि लगा के सोचने लगता है । "एष चिन्तयामि, मा खल्वस्यालीकपरिदेवितैः समाधिं भाङ्क्षीः" । अर्थात् इस स्थान में देवनागरी वाचना ने काश्मीरी वाचना के पाठ का अनुसरण नहीं किया है । किन्तु बंगाली पाठ का अनुसरण किया है ।। (ङ) तीसरे अङ्क में, शकुन्तला दुष्यन्त में अनुरक्त हुई है ऐसा जान कर प्रियंवदा बोलती है "सागरमुज्झित्वा कुत्र वा महानद्यवतरति । क इदानीं सहकारमन्तरेण अतिमुक्तलतां पल्लवितां सहते ।" देवनागरी वाचना में, इसको सुन कर राजा कहते है कि "किमत्र चित्रं यदि विशाखे शशाङ्कलेखामनुवर्तेते ।" राजा की इस तरह की उक्ति मैथिली या बंगाली वाचना में नहीं मिलती है । ऐसी उक्ति तो काश्मीरी वाचना में से ली गई है । "किमत्र चित्रम् । यदि चित्राविशाखे शशाङ्कलेखाम् अनुवर्तेते ।" (च) शकुन्तला ने प्रियंवदा को कहा है, "हला, किमन्तःपुरविरहपर्युत्सुकस्य राजर्षेरुपरोधेन ।" यह देवनागरी वाचना का पाठ है । यह पाठ मैथिली और बंगाली वाचनाओं में मिलता है, अतः देवनागरी वाचना वालों ने उसे वहाँ से स्वीकारा है । इन सब के प्रतिपक्ष में काश्मीरी वाचना में "हला, अलं वोऽन्तःपुर-विहारपर्युत्सुकेन राजर्षिणा उपरोधेन ।" ऐसा सर्वथा भिन्न पाठ सुरक्षित है ।। (छ) चतुर्थांक में, शकुन्तला-विदाय प्रसंग में ( देवनागरी पाठ में ) काश्यप मुनि ने शकुन्तला को ससुराल में कैसे रहना है उसका उपदेश करते हुए कहा है कि "भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भाग्येष्वनुत्सेकिनी" । यह पाठ काश्मीरी वाचना में से लिया गया है । उसके सामने मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में जो पाठ है वह, "भूयिष्ठं भव दक्षिणा परिजने भोगेष्वनुत्सेकिनी" है । (ज) शकुन्तला पिता कण्व से पूछती है : "कथमिदानीं तातस्याङ्कात् परिभ्रष्टा मलयतरुन्मूलिता चन्दनलतेव देशान्तरे जीवितं धारयिष्ये ।" इस तरह का देवनागरी पाठ मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में से लिया गया है । क्योंकि यहाँ जो काश्मीरी वाचना का पाठ है उसमें सर्वथा पृथक् उपमान मिल रहा है । जैसे कि, "कथमिदानीं तातेन विरहिता करिसार्थपरिभ्रष्टा करेणुकेव प्राणान् धारयिष्ये ।" (झ) पञ्चमांक में, राजा ने गौतमी को कहा कि, "तापसवृद्धे, स्त्रीणाम् अशिक्षितपटुत्वममानुषीषु .... अन्यै-र्द्विजैः परभृताः खलु पोषयन्ति ।।" तब उसको सुन कर शकुन्तला रोषपूर्वक कहती है : "अनार्य, आत्मनो हृदयानुमानेन पश्यसि" इत्यादि । यहाँ देवनागरी वाचना में दुष्यन्त को जो "अनार्य" शब्द से सम्बोधित किया है, वह मैथिली एवं बंगाली वाचना में से लिया गया है । क्योंकि काश्मीरी वाचना में ऐसा कोई सम्बोधन शकुन्तला ने नहीं किया है । (ञ) राजा ने निष्ठुरतापूर्वक शकुन्तला का प्रत्याख्यान कर दिया । शकुन्तला रोने लगती है, तब गौतमी पूछती है : "वत्स शार्ङ्गरव, अनुगच्छतीयं खलु नः करुणपरिदेविनी शकुन्तला । प्रत्यादेशपरुषे भर्तरि किं वा मे पुत्रिका करोतु ।" देवनागरी का यह पाठ काश्मीरी वाचना में से लिया गया है । क्योंकि मैथिली एवं बंगाली पाठ में शकुन्तला को पुत्रिका शब्द से उल्लिखित नहीं की है । वहाँ तो "प्रत्यादेश-पिशुने भर्तरि किं कुर्याद् तपस्विनी ।" ऐसा तपस्विनी शब्द रखा गया है । (ट) षष्ठांक में, धीवर कहता है कि, "0पशुमारणकर्मदारुणोऽनुकम्पामृदुरेव श्रोत्रियः ।" देवनागरी वाचना का यह पाठ काश्मीरी में से लिया गया है । काश्मीरी में भी श्रोत्रिय शब्द मिलता है । किन्तु इस स्थान में बंगाली वाचना में "पशुमारणं करोति दारुणमनुकम्पामृदुलः अपि सौनिकः ।" ऐसा परिवर्तन करके सौनिक शब्द रखा गया है । (ठ) देवी वसुमती स्वयं वर्तिका-करण्डक लेकर आ रही है, ऐसा सुन कर विदूषक कहता है कि "यदि भवान् अन्तःपुरकालकूटान्मोक्ष्यते तदा मां मेघप्रतिच्छन्दे प्रासादे शब्दापय ।" देवनागरी वाचना का यह पाठ मैथिली एवं बंगाली पाठों से प्रभावित है । मैथिली में देवी वसुमती के लिए "अन्तःपुरकूटपाश" शब्द दिया है । एवं बंगाली में "अन्तःपुरवागुरातः" शब्द मिलता है । किन्तु काश्मीरी वाचना में अन्तःपुर की देवी कुलप्रभा ईर्ष्याकषायिता होती ही नहीं है, और उसके लिए विदूषक ने कुछ कहा भी नहीं है ।। इन उदाहरणों से इतना स्पष्ट होता है कि देवनागरी वाचना के पाठ को संक्षिप्त कर देने के साथ साथ पूरी नाट्यकृति का जो पाठसम्पादन किया गया है उसमें जगह जगह पर जो पाठान्तर चुने गये हैं, वे कुत्रचित् काश्मीरी वाचना में से संगृहीत किये गये हैं, अथवा कुत्रचित् मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में से लिये गये हैं ।। कहने का तात्पर्य यह है कि देवनागरी वाचना न केवल संक्षिप्त की गई वाचना है, वह संमिश्रित की गई वाचना भी कहने योग्य है । हाँ, इसके साथ साथ यहाँ अनतिविलम्बेन यह भी कहना आवश्यक है कि देवनागरी वाचना के अज्ञात सम्पादक ने अपनी स्वतन्त्र सम्पादनदृष्टि भी कार्यान्वित की है । जिसके फल स्वरूप पञ्चम अङ्क का आरम्भ अन्य वाचनाओं से सर्वथा पृथक् ही है । एवमेव, षष्ठांक में अप्सरा का नाम सानुमती दिया है, जो काश्मीरी एवं मैथिली-बंगाली से भिन्न ही है । विस्तारभय से इस चर्चा को रोक लेते है । किन्तु देवनागरी वाचना का पुनर्मूल्यांकन करना अतीव आवश्यक है ।। इति दिक् ।। [ 7 ] उपसंहार : प्रस्तुत शोध-आलेख में कालिदास के अभिज्ञानशकुन्तला ( अभिज्ञानशकुन्तलम् या अभिज्ञान-शाकुन्तलम् ) नाटक के पाठविचलन की आनुक्रमिकता प्रस्थापित करने का उपक्रम सप्रमाण किया गया है । इसमें इस नाटक का प्राचीनतम पाठ काश्मीर की शारदालिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहा है ऐसा दिखलाया है । तथा उस काश्मीरी वाचना में भी परापूर्व से चले आ रहे कुछ प्रक्षेप विरासत में मिले हैं ऐसा दिखला कर, यह भी स्पष्ट किया है कि प्राचीनतम होने मात्र से काश्मीरी वाचना के पाठ को ही सर्वथा मौलिक नहीं मानना चाहिए । उसके पाठ का भी उच्चतर समीक्षा से परीक्षण करने की आवश्यकता है ।। काश्मीरी वाचना में से द्वितीय क्रमांक पर मैथिली वाचना निकली है, तत्पश्चात् तृतीय क्रमांक पर बंगाली वाचना को बनाई गई है ऐसा उदाहरणों से सिद्ध किया गया है । चतुर्थ एवं पञ्चम क्रमांक पर देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनायें गठित की गई है । इस तरह की आनुक्रमिकता में यह भी देखा जाता है कि कविप्रणीत मूल पाठ क्रमशः बृहत् से बृहत्तर, और बृहत्तर से बृहत्तम बनता गया है । जिसमें तीनों वाचनाओं का पौर्वापर्य भी प्रतिबिम्बित हो रहा है । ऐसा होने के बाद, उस पाठ में भारी कटौती करके देवनागरी वाचना का संक्षिप्त पाठ तैयार किया गया है । अल्प समयावधि में इस नाटक को रंगमंच पर प्रस्तुत करने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ऐसी रंगावृत्तियाँ बनाने की प्रवृत्ति सदैव कार्यरत रहती है । इस संक्षिप्तीकरण के साथ साथ उसमें जिन पाठभेदों को स्वीकारे गये हैं वे कुत्रचित् काश्मीरी वाचना में से लिये गये हैं, तो कुत्रचित् मैथिली-बंगाली वाचनाओं में से संगृहीत किये गये हैं, याने देवनागरी वाचना न केवल संक्षिप्त वाचना है, उसे संमिश्रित वाचना भी कहनी होगी ।। इस पाठविचलन के क्रम को निम्नोक्त रीति से चित्रबद्ध किया जा सकता है :-- सन्दर्भ ग्रन्थसूचि ।। 1. अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( राघवभट्टकृतार्थद्योतनिकया टीकया समेतम् ), सं. नारायण राम, प्रकाशकः राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नयी दिल्ली, 2006 2. अभिज्ञानशकुन्तलम नाटकम् । ( मैथिलपाठानुगम् ), ( शङ्कर-नरहरिकृताभ्यां टीकाभ्याम् अलङ्कृतम् ), सं. रमानाथ झा, प्रकाशकः मिथिला-विद्यापीठ, दरभङ्गा, 1957 3. अभिज्ञानशकुन्तलम् । ( बंगाली वाचनानुसारि ), सं. दिलीपकुमार काञ्जीलाल, संस्कृत कॉलेज, कोलकाता, 1980 4. अभिज्ञानशकुन्तलम् । ( चन्द्रशेखर-चक्रवर्तिनः सन्दर्भदीपिकया समेतम् ), सं. वसन्तकुमार म. भट्ट, प्रकाशकः - राष्ट्रिय पाण्डुलिपि मिशन, नई दिल्ली, 2013 5. Kalidasa’s Sákntala, the Bangali Recension, Ed. Richard Pischel, Harvard University Press, second edition, 1922 6. Sharda Manuscripts, No. 192, written on Brich bark., & No. 1247, & 159 ( from Oxford Uni. ), No. 1435 from Shrinagar.