गुरुवार, 8 मार्च 2012

शाकुन्तल की प्राचीनतर पाण्डुलिपियों की नयी जानकारी

।। पाटण में संगृहीत शाकुन्तल की प्राचीनतर पाण्डुलिपि ।।


वसन्तकुमार म भट्ट

निदेशक, भाषासाहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद – 38 009

bhattvasant@yahoo.co.in

भूमिकाः-- महाकवि कालिदास (ई.सा. पूर्व प्रथम शती) का अभिज्ञानशाकुन्तल संस्कृत-नाट्यसाहित्य की सर्वश्रेष्ठ कृति है । इस नाटक का पाठ हमारे देश की विभिन्न लिपियों में लिखी हुई ( भुर्जपत्र, ताडपत्र एवं कागज की ) पाण्डुलिपियों में संचरित होता हुआ हम तक पहुँचा है । लेकिन इन पाण्डुलिपियों में आज उपलब्ध हो रहा पाठ सर्वत्र एकरूप नहीं है । क्योंकि यह नाटक शूरु से हि लोकप्रिय बना है, अतः वह रंगमंच पर बार बार अभिनीत भी होता रहा है । परिणाम स्वरूप हर प्रदेश की नटमण्डली के सूत्रधारों ने उसके मौलिक पाठ में अनेक परिवर्तन भी किये है । शाकुन्तल में आये हुए प्राकृत संवादों का पाठ भी स्थल-काल के अनुसार निरंतर बदलता रहा है । कदाचित् एक प्रान्त की पाण्डुलिपि जब दूसरे प्रान्त की पाठकों के पास पहुँचती है, तब संभवतः दूसरे प्रान्त का पाठकवर्ग उसको अधिक श्रद्धेय मान कर उस पाठ का अनुकरण करता है । किन्तु इस तरह के पाठ-परिवर्तन एवं पाठसंचरण का निश्चित इतिहास किसी को ज्ञात नहीं है । हाँ, कुछ ठोस प्रमाण मिलने पर उसका अनुमान किया जा सकता है । देश के विभिन्न प्रान्तों से पाण्डुलिपियाँ एकत्र करके उनका पुनः परीक्षण करना आवश्यक है । क्योंकि शाकुन्तल की देवनागरी पाण्डुलिपियों का अभी तक सर्वग्राही व्यापक अभ्यास किसी ने किया हो ऐसा दिखता नहीं है । प्रस्तुत आलेख में देवनागरी वाचना की कतिपय पाण्डुलिपियाँ, जो गुजरात के गौरवास्पद ऐतिहासिक पाटण जिले से प्राप्त हो रही है, उनकी चर्चा करना अभीष्ट है ।।

शाकुन्तल का पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ पाठ सर्वत्र एक समान नहीं होने के कारण संस्कृत के विद्याजगत् में उसके मौलिक पाठ के सन्दर्भ में विवाद चल रहा है । पाण्डुलिपियों में देखे तो इस नाटक का पाठ कुल मिला के पाँच पाठ-परम्पराओं में ( वाचनाओं में ) प्रवहमान हैः—1. देवनागरी, 2. दाक्षिणात्य, 3. काश्मीरी, 4. मैथिली एवं 5. बंगाली वाचना ।। इन पाँचों में से कौन सी वाचना का पाठ मौलिकता के नझदीक है या अधिक श्रद्धेय है ? इस विषय में करीब दोसो साल से विवाद चल रहा है । किसी के मत से देवनागरी वाचना का पाठ अधिक श्रद्धेय है तो दूसरे विद्वानों के अभिप्राय से बंगाली वाचना का पाठ अधिक श्रद्धेय है । विद्वन्-मूर्धन्य श्री एस. के. बेलवालकर जी काश्मीरी वाचना के पक्षधर है ।। ( दाक्षिणात्य वाचना बहुशः देवनागरी से मिलती है, और मैथिली वाचना बंगाली की ओर ज्यादा झुकी हुई है । अतः इन दोनों का समावेश अनुक्रम से देवनागरी एवं बंगाली में कर लिया जाय तो उनकी स्वतन्त्र वाचना के रूप में गिनती क्यूँ नहीं की जाती है ऐसा कोई विवाद नहीं ऊठेगा । ) विगत 100-150 साल के अन्तराल में इन पाँचों वाचनाओं के आधार पर शाकुन्तल का "समीक्षित पाठ" ( Critically Edited Text ) सम्पादित करने के लिये कुछ विद्वानों ने प्रयास किये है । इनमें से बंगाली वाचना के पाठसम्पादन का प्रयास ध्यानास्पद है और प्रशंसनीय भी है । क्योंकि बंगालीलिपि में लिखी हुई ढेर सारी पाण्डुलिपियों का विनियोग करके डॉ. रिचार्ड पिशेल(1898) तथा डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल(1980) ने वह कार्य सम्पन्न किया है । काश्मीर की शारदा-लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों के आधार पर शाकुन्तल का काश्मीरी पाठ निर्धारित करने का कार्य डॉ. बेलवालकर जी ने शूरु किया था । किन्तु उनके देहावसान के कारण यह कार्य अधुरा रहा है । साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली से प्रकाशित उनकी तथाकथित समीक्षितावृत्ति में पाण्डुलिपियों का कोई ब्यौरा नहीं है । तथा पादटीप में एक भी पाठभेद का निर्देश नहीं है । उसी तरह से, देवनागरी वाचना के पाठसम्पादन का जो आरम्भिक कार्य मोनीयर विलियम्स तथा श्री पी. एन. पाटणकर ने किया है, वे भी सर्वथा संतोषप्रद नहीं है ।।

देवनागरी वाचना की पाण्डुलिपियों का विनियोग करके 19वीँ शती में श्री पी. एन. पाटणकर (Patankar, 1902) एवं मोनियर विलीयम्स (Williams, 1961, 3rd edition) ने अभिज्ञानशाकुन्तल की समीक्षित आवृत्तियाँ प्रकाशित की थी । किन्तु इन दोनों विद्वानों ने गुजरात के समृद्ध एवं प्राचीनतर जैन ग्रन्थभण्डारों की पाण्डुलिपियाँ देखी ही नहीं थी । जिसके कारण गुजरात में 11वीँ शताब्दी से प्रचलित, शाकुन्तल की जो देवनागरी पाठपरम्परा थी उसका उनमें प्रतिनिधित्व / प्रतिबिम्ब ही नहीं है । एक दूसरी हकीकत यह भी है कि देवनागरी वाचना के विभिन्न प्रवाहों की गतिविधियों का गहेरा अभ्यास भी शायद किसीने नहीं किया है । डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल ने देवनागरी पाठपरम्परा के तीन स्वरूप का निर्धारण किया हैः—1. देवनागरी, 2. मिश्रदेवनागरी एवं 3. संक्षिप्त की गई देवनागरी वाचना । लेकिन इस चर्चा में भी गुजरात की, विशेष रूप से हेमचन्द्राचार्य के समय की देवनागरी पाठपरम्परा का उल्लेख ही नहीं है । अतः प्रस्तुत आलेख में गुजरात की तीन प्रकाशाभिलाषी पाण्डुलिपियाँ का औपचारिक परिचय देकर, उसका वैशिष्ट्य उन्मिलीत किया जा रहा है । तथा उसकी प्राचीनतरता की ओर ध्यान आकृष्ट किया जायेगा ।।

1. देवनागरी शाकुन्तल की तथाकथित समीक्षित आवृत्तियाँ

अभिज्ञानशाकुन्तल की देवनागरी वाचना का समीक्षित पाठसम्पादन करनेवाले विद्वानों में मोनियर विलियम्स प्रथम है । उन्होंने (Williams, 1961, 3rd edition) 1857 ई.सा. में प्रथम बार शाकुन्तल का प्रकाशन किया था । तत्पश्चात् 1876 ई.सा. में दूसरा, और 1961 ई. सा. में तीसरा संस्करण निकला है । इस प्रकाशन के प्रथम पृष्ठ पर लिखा है कि वे देवनागरी वाचना के पाठ को प्रस्तुत कर रहे है । जिसमें उन्होंने भारत देश के पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण भाग से तीन-चार पाण्डुलिपियाँ प्राप्त करके, एवं दो बंगाली पाण्डुलिपियाँ लेकर अपनी समीक्षितावृत्ति तैयार की है । विशेष में उन्होंने काटयवेम, शंकर तथा चन्द्रशेखर की तीन टीकाओं का भी विनियोग किया था । वे कहते है कि किसी भी पाठान्तर का निर्णय करने से पहले उन्होंने ये तीन टीकाओं का अवलोकन भी अवश्य किया है ।। किन्तु दुर्भाग्य से इन तीनों में से एक भी टीका देवनागरी वाचना के पाठ पर नहीं लिखी गई है । काटयवेम ने दाक्षिणात्य पाठ को लिया था, शंकर ने मैथिल पाठ लिया था एवं चन्द्रशेखर ने बंगाली पाठ लिया था । ( और देवनागरी वाचना के शाकुन्तल पर जिन्होंने टीका लिखी है, वे राघवभट्ट की टीका मोनियर विलियम्स के समय में प्रकाशित नहीं थी और किसी को ज्ञात भी नहीं थी । ) परिणामतः मोनीयर विलियम्स के शाकुन्तल में अनेक स्थानों पर बंगाली वाचनाओं के पाठान्तरों का स्वीकार हो गया है । उदाहरण रूप में – आगामिनि चतुर्थदिवसे पुत्रपिण्डपालनो नामोपवासो भविष्यति । ( मो.वि. पृ. 90 ) यह बंगाली पाठानुसारी वाक्य है । देवनागरी वाचना के अनुसार तो यह वाक्य इस तरह का होना चाहिएः- आगामिनि चतुर्थदिवसे प्रवृत्तपारणो नामोपवासो भविष्यति । ( राघवभट्ट, पृ. 81 ) एवमेव, मोनियर विलियम्स के द्वारा एकत्र की गई जो पाण्डुलिपियाँ है वह पूर्ण रूप से देवनागरी लिपि के सभी प्रदेशों का सम्यक् प्रतिनिधित्व भी नहीं करती है । इसका निष्कर्ष यही है कि मोनियर विलियम्स ने जो देवनागरी वाचना का समीक्षित पाठ प्रस्तुत करने का दावा किया है, वह सर्वाङ्गीण दृष्टि से देखा जाय तो ग्राह्य नहीं हो सकता है ।।

देवनागरी वाचना के समीक्षित पाठसम्पादन करनेवाले दूसरे प्रशस्य विद्वान् श्री पी. एन. पाटणकर है । उन्होंने सम्पादित किये हुए शाकुन्तल की आवृत्ति 1902 ई. सा. में प्रकाशित हुई थी (Patankar, 1902) । पाटणकर जी ने दावा किया है कि उन्होंने शाकुन्तल का "शुद्धतर देवनागरी" पाठ सम्पादित किया है । किन्तु प्रथम ध्यातव्य बिन्दु यह है कि उन्होंने कृति का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तल" माना है । वस्तुतः यह शीर्षक बंगाली और काश्मीरी वाचना में चल रहा है, देवनागरी वाचना में तो "अभिज्ञानशाकुन्तल" ऐसा ही है । दूसरा परीक्षणीय बिन्दु जो है वह है उन्होंने एकत्र की हुई सामग्री का विश्लेषण । प्रस्तावना में वे लिखते है कि उन्होंने उपयोग में ली हुई पाण्डुलिपियाँ तथा प्रकाशित ग्रन्थों की संख्या कुल मिला के 19 है । इस सामग्री में 11 पाण्डुलिपियाँ है, जिनमें से 3 बंगाली पाण्डुलिपियाँ थी, 1 काश्मीर की शारदा पाण्डुलिपि थी । तथा प्रकाशित पुस्तकें कुल 8 थे । चार टीका ग्रन्थों में से एक आधुनिक टीकाकार श्रीकृष्णनाथ है ( जिन्होंने बंगाली पाठ पर टीका लिखी है ), दूसरे है – 1. काटयवेम, 2. राघवभट्ट एवं 3. श्रीनिवासाचार्य । इन तीनों में से राघवभट्ट को छोड के अवशिष्ट दोनों टीकाकार दाक्षिणात्य है ।। तथा तीसरा बिन्दु यह है कि इन में गुजरात के विश्व मान्य जैन ग्रन्थभण्डारों से एक भी देवनागरी पाण्डुलिपि प्राप्त नहीं की गई थी । एवमेव, राजस्थान(के जेसलमेर एवं बीकानेर) या वाराणसी के ग्रन्थभण्डारों का भी आलोडन नहीं किया गया था ।।

19वीँ शती के अन्त भाग में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने राघवभट्ट के पाठ को ही देवनागरी वाचना का सही प्रतिनिधिभूत पाठ माना था । किन्तु श्री पी. एन. पाटणकर (पूणें) इससे सहमत नहीं थे । उन्होंने शाकुन्तल के देवनागरीवाचना का समीक्षित पाठसम्पादन तैयार करने के लिये जो दृष्टिबिन्दु रखा था वह इस तरह का थाः-- " समालोचकों की दृष्टि में बंगाली वाचना का पाठ जब पुनरुक्ति एवं प्रक्षेपों से भरा हुआ होने से आघातजनक सिद्ध हुआ है तब नाटक के पाठ में ( बंगाली पाठ के प्रक्षेपों की ) कटौती एवं पुनर्व्यवस्थापन का कार्य ही स्वाभाविक रूप से मान्य हो सकता है ।। " एवमेव, श्रीपाटणकर जीने यह सयुक्तिक दिखाया है कि राघवभट्ट के द्वारा स्वीकृत पाठ में अनेक स्थानों पर विसंगतियाँ है । उन्होंने जो पाठ निर्धारित करके हमारे सामने रखा है वह राघवभट्ट के पाठ से प्राचीनतर है । ( लेकिन श्री पाटणकर जी ने जिसका निर्देश नहीं किया है वह हकीकत यह है कि राघवभट्ट द्वारा पुरस्कृत पाठ देवनागरी वाचना का संक्षिप्ततम है और उस वाचना के तृतीय सोपान का प्रतिनिधिभूत है । )

इसके अलावा, देवनागरी वाचना के शाकुन्तल का समीक्षित पाठ तैयार करनेवालों में कोलकाता के प्रॉफे. श्रीगौरीनाथ शास्त्री उल्लेखनीय है । उनका सम्पादित किया हुआ शाकुन्तल साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली ने (1983)प्रकाशित किया है । लेकिन इस विद्वान् ने शाकुन्तल के केवल प्रकाशित संस्करणों का ही उपयोग किया है । इन्होंने एक भी देवनागरी पाण्डुलिपि देखी नहीं थी । दूसरे विद्वन्मूर्धन्य पं. श्री रेवाप्रसाद द्विवेदीजी है । जिन्हों ने एशियाटिक सोसायटी, कोलकाता की एक पाण्डुलिपि ( क्रमांक- जी. / 340 ) का विनियोग किया था, और अवशिष्ट सभी सामग्री प्रकाशित थी । ( इस सामग्री में पी.एन.पाटणकर की आवृत्ति का उल्लेख नहीं है । ) कालिदास अकादेमी, उज्जैन से हिन्दी अनुवाद के साथ निकली कालिदास-ग्रन्थावली (2010) में उन्होंने एल.डी. इन्डोलोजी, अहमदावाद से प्राप्त की हुई एक ध्यानास्पद (क्रमांक-1948) पाण्डुलिपि का फोटोग्राफ दिया है । लेकिन उस पाण्डुलिपि के अन्दर तृतीय अङ्क का पाठ "विस्तृतपाठ" है, जो सम्भवतः बंगाली या काश्मीरी पाठपरम्परा के अनुसार है उसकी ओर ध्यान नहीं गया है ।। उसी तरह से गुजराती भाषा के गणमान्य कविश्री स्वर्गस्थ उमाशंकर. जे. जोशी ने भी अपने शाकुन्तल में कहा है कि उन्होंने भी पाटण से शाकुन्तल की दो हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ प्राप्त की थी । किन्तु उनके ग्रन्थ में कहीं पर भी इन पाण्डुलिपिओं में दिख रहे तृतीयांक के नवीन या अधिक पाठभेद का प्रकट या अप्रकट निर्देश नहीं किया गया है । मतलब की उन्होंने पाटण की पाण्डुलिपियाँ प्राप्त करने का कोई लाभ नहीं ऊठाया है । कालिदास-पाठसमीक्षा के इतिहास की यह एक दुर्भाग्यपूर्ण हकीकत है कि 11वीँ शती से गुजरात में संचरित हुए शाकुन्तल की देवनागरी पाण्डुलिपियों का वैशिष्ट्य अद्यावधि अन्धेरे में ही रहा है ।।

इस समग्र चर्चा से यही प्रतिफलित होता है कि शाकुन्तल का देवनागरी वाचना का समीक्षित पाठसम्पादन करने के जो भी प्रयास हुए है उसमें गुजरात के पाटण से मिल रही दो पाण्डुलिपियों ( एवं एल. डी. इन्स्टीट्युट ऑफ इन्डोलोजी, अहमदावाद की एक तीसरी प्रति ) का विनियोग अभी तक किसीने किया ही नहीं है । आधुनिक समय में जब पाण्डुलिपियाँ प्राप्त करने के संसाधन बढ गये है तब पाण्डुलिपियों एकत्र करने का उपक्रम प्रथमतया सर्वग्राही होना चाहिये ।। तथा देवनागरी लिपि का विकास लम्बे काल खण्ड में फैला हुआ है, उस इतिहास को देखते हुए शाकुन्तल की देवनागरी वाचना के पाठ में कालानुक्रम की दृष्टि से –

1. देवनागरी का प्राचीनतम,

2. प्राचीनतर एवं

3. प्राचीन या अन्तिम (संक्षिप्ततम)

ऐसे तीन स्तर भी निर्धारित करने चाहिये । एवमेव, देवनागरी वाचना के शाकुन्तल के पाठ में (ही) समय समय पर (संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया के कारण से) अनेक परिवर्तन होते रहे हैं ऐसा दिख रहा है । इस दिशा में एक कदम रखने के आशय से प्रस्तुत आलेख में गुजरात के ऐतिहासिक शिक्षानगर पाटण में से प्राप्त की गई दो पाण्डुलिपियों का परिचय दिया जाता है । तथा "प्रचलित देवनागरी पाठ" एवं एक शारदा पाण्डुलिपि के साथ उसका यथासम्भव तुलनात्मक अभ्यास दिया जाता है, जिसके आधार पर पाटण की 11वीँ शती की शाकुन्तल की देवनागरी पाठपरम्परा की महत्ता उजागर हो पायेगी ।।

2. पाटण ( गुजरात ) से प्राप्त की गई शाकुन्तल की पाण्डुलिपियाँ

विद्वानों ने गुजरात के पाटण की जिन देवनागरी पाण्डुलिपियों को शायद अभी तक देखा ही नहीं है अथवा देखने का बाद जिसका परीक्षण नहीं किया है उसका परिचय करवाया जाता है । पाटण शहर में 1. हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिर, 2. वाडी पार्श्वनाथ का जैन ज्ञानभण्डार, एवं 3. "भाभा नो पाडो" नामक जैन ग्रन्थभण्डार में जैनेतर साहित्य की भी बहुत पाण्डुलिपियाँ आज भी उपलब्ध हो रही है । जिसमें अभिज्ञानशाकुन्तल की देवनागरी पाण्डुलिपियाँ विशेष रूप से ध्यानास्पद है । तथा एल. डी. इन्स्टीट्युट ऑफ इन्डोलोजी, अहमदावाद के जैन ग्रन्थभण्डार से भी शाकुन्तल की एक देवनागरी प्रति मिल रही है, वह भी उसी की वंशज-प्रति है ऐसा दिखता है ।।

(क) श्रीहेमचन्द्राचार्य ज्ञान-मन्दिर, पाटण से 349 / 16630 क्रमांक की पाण्डुलिपि में 36 फोलियो ( 72 पृष्ठ ) है । देवनागरी लिपि में कागज पर लिखित है । मार्जिन में कुत्रचित् आवश्यक टिप्पण भी लिखी गई है । इसकी पुष्पिका में लिखा है कि – समाप्तमिदम् अभिज्ञानशकुन्तलं नाम नाटकं । लेखक-पाठ[क]योः शुभं भवतु । कल्याणमस्तु । श्रीधर्ममूर्तिसूरी द्विर्विधि-पक्षगणेन्दुभिः गुणसौभाग्य-सूरिभ्यो ... दात्रय प्रीताय प्रतिः ।। ग्र0 1251 ।। श्रीरस्तु ।। श्रीः ।। इस पुष्पिका से स्पष्ट है कि यह जैन मुनि महाराजों के समुदाय में प्रचलित / लिखित प्रति है । यहाँ कृति का जो शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तलम्" दिया गया है वह अतीव ध्यानास्पद है । क्योंकि यहाँ शाकुन्तल के स्थान पर शकुन्तल ऐसा शीर्षक है वह मूलतः बंगाली एवं मैथिली या काश्मीरी पाठपरम्परा में मिलनेवाला शीर्षक है । अतः यह परीक्षणीय है कि गुजरात के जैन साधुसमाज में देवनागरीलिपि में संचरित हुआ इस नाटक का पाठ किस स्वरूप का है ? गुजरात की इस देवनागरी शाकुन्तल के पाठ का साम्य बंगाली या काश्मीरी वाचना के साथ होने का कुछ ऐतिहासिक कारण होना चाहिये । पाटण की इन पाण्डुलिपियों के पाठ का तुलनात्मक अभ्यास 1. देवनागरी के प्रचलित पाठ, 2. बंगाली पाठ, तथा 3. शारदालिपिवाले काश्मीरी पाठ के साथ किया जायेगा ।। कतिपय उदाहरणों से इसकी चर्चा करना समुचित रहेगाः—



उक्ति वाक्य टिप्पण

नान्दीपद्य में या सृष्टिस्रष्टुराद्या पिबति, विधिहुतं ..... शारदा पाण्डुलिपि में ही इसी तरह का पाठ मिलता है ।

सूत्रधार तदद्य कालिदासग्रथितवस्तुना नवेन नाटकेनोपस्थातव्यम् अस्माभिस्तत्प्रतिपात्रमाधीयताम् ..... । यहाँ सूत्रधार के द्वारा कृति का नाम नहीं कहा गया है । शारदा पाण्डुलिपि में इसी तरह से पाठ चलता है ।

नटी-उक्ति णं अज्जमिस्स्महिं ... । अहिण्णाण-सउंतला णाम अपुरुवं नाडयं पउगे अहिकरीयदुत्ति ।। नटी ने बताया है कि अभिज्ञान-शकुन्तल नाटक खेलना है ।

आत्मना तृतीयो वैखानसः सदृशमेतत् पुरुवंशप्रदीपस्य भवतः ।

सर्वथा चक्रवर्तिनं पुत्रमवाप्नुहि ।। एक गद्य वाक्य ही बोलता है । जन्म यस्य पुरोर्वंशे ... ।। श्लोक से आशीर्वाद का पुनःकथन नहीं है ।

दूसरे अंक में राजा निराकृतनिमेषाभिः .... श्लोक । न च परिहार्येSपि वस्तुनि पौरवाणां मनः प्रवर्ततते । ललिताना संभवं.. । श्लोक बंगाली एवं शारदा में संचरित पाठ से साम्य है । प्रचलित (संक्षिप्त) देवनागरी में प्रथमश्लोक नहीं है ।

करभक-उक्ति आगामिनि चतुर्थदिवसे पुत्रपारणो नाम उपवासो भविष्यति । बंगाली एवं शारदा में संचरित पाठ से साम्य है । प्रचलित (संक्षिप्त) देवनागरी में "प्रवृत्तपारणो" ऐसा पाठ है ।

तृतीयांक मृणाल-वलय पहेनाने का एवं मुखमारुत से शकुन्तला के नेत्र से पुष्परज निकालने का विशेष प्रसंग अधिक है । बंगाली एवं शारदा में संचरित पाठ से साम्य है । प्रचलित (संक्षिप्त) देवनागरी में दोनों प्रसंग नहीं है ।

तृतीयांक श्लोक-संख्या 36 की है । बंगाली वाचना में 41 श्लोक है । शारदा पाण्डुलिपि में 35 श्लोक है ।

चतुर्थांक में शिष्य के मुख में अपि च से सम्बद्ध चार श्लोक

1.याति, 2.अन्तर्हिते, 3.कर्कन्धूनाम्, 4.पादन्यासं 0 मिलते है । बंगाली एवं शारदा में संचरित पाठ से साम्य है, किन्तु प्रचलित (संक्षिप्त) देवनागरी में 3 – 4 श्लोक नहीं है ।

पञ्चम अङ्क हंसपदिका–गीत से अङ्क का आरम्भ होता है । तत्पश्चात् कञ्चुकी का प्रवेश होता है । बंगाली एवं मैथिली वाचना में, तथा शारदा पाण्डुलिपि में भी कञ्चुकी के प्रवेश से अङ्क का आरम्भ होता है ।

षष्ठांक में विदूषक परिहास-विकल्पो एस ण भूदत्थो त्ति, मया वि पिंडबुद्धिणा तथेव गिहीदं । प्रचलित देवनागरी में मृत्पिण्डबुद्धिना ऐसा पाठभेद है । यह पाठ शारदा पाण्डुलिपि में उपलब्ध है ।



(ख) वाडी पार्श्वनाथ का जैन भण्डार, पाटण से ( क्रमांक – डा. 169 / 6654 की ) एक पाण्डुलिपि प्राप्त की है । इसमें 22 फोलियो है, और कुल 45 पृष्ठ है । सूक्ष्माक्षरों से लिखी गई है तथा एकार के लिये अग्रमात्रा का विनियोग किया गया है । अर्थात् पुरातन समय की लेखनशैली में होने से यह पुरानी है । यह पाण्डुलिपि सप्तमांक के अन्त भाग में खण्डित हुई है । "नमः सर्वज्ञाय" से उसका आरम्भ होता है ।। यद्यपि इस पाण्डुलिपि में जो पाठपरम्परा का अनुगमन किया गया है वह उपरि निर्दिष्ट हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिर की प्रति के साथ बहुशः साम्य रखता है । तथापि तीसरे अङ्क में विस्तृतांश के आरम्भ में कुछ संक्षिप्तीकरण भी है । अब इस पाण्डुलिपि में संचरित हुए पाठ से उदाहरण रूप में कतिपय वाक्यों को लेकर देवनागरी वाचना के प्रकाशित एवं प्रचलित पाठ के साथ तुलना की जाती हैः—

वक्ता उक्ति टिप्पण

नान्दीपद्य में या सृष्टिस्रष्टुराद्या पिबति, विधिहुतं ..... शारदा पाण्डुलिपि में ही इसी तरह का पाठ मिलता है ।

सूत्रधार तदद्य कालिदासग्रथितवस्तुना नवेन नाटकेनोपस्थातव्यम् अस्माभिस्तत्प्रतिपात्रमाधीयताम् ..... । शारदा पाण्डुलिपि में इसी तरह से पाठ चलता है । यहाँ सूत्रधार के द्वारा कृति का नाम नहीं कहा गया है ।

नटी-उक्ति णं अज्जमिस्स्महिं ... । अहिण्णाण-सउंतला णाम अपुरुवं नाडयं पउगे अहिकरीयदुत्ति ।। नटी ने बताया है कि अभिज्ञान-शकुन्तल नाटक खेलना है ।

आत्मना तृतीयो वैखानसः सदृशमेतत् पुरुवंशप्रदीपस्य भवतः ।

सर्वथा चक्रवर्तिनं पुत्रमवाप्नुहि ।। एक गद्य वाक्य ही बोलता है । जन्म यस्य पुरोर्वंशे ... ।। श्लोक से आशीर्वाद का पुनःकथन नहीं है ।

दूसरे अंक में राजा निराकृतनिमेषाभिः .... श्लोक । न च परिहार्येपि वस्तुनि पौरवाणां मनः प्रवर्ततते । ललिताना संभवं.. । श्लोक बंगाली एवं शारदा में संचरित पाठ से साम्य, प्रचलित (संक्षिप्त) देवनागरी में प्रथमश्लोक नहीं है ।

करभक-उक्ति आगामिनि चतुर्थदिवसे पुत्रपारणो नाम उपवासो भविष्यति । बंगाली एवं शारदा में संचरित पाठ से साम्य, प्रचलित (संक्षिप्त) देवनागरी में प्रवृत्तपारणो – ऐसा पाठ है ।

तृतीयांक मृणाल-वलय पहेनाने का एवं मुखमारुत से शकुन्तला के नेत्र से पुष्परज निकालने का प्रसंग उन्हीं शब्दों में है । बंगाली एवं शारदा में संचरित पाठ से साम्य, प्रचलित (संक्षिप्त) देवनागरी में दोनों प्रसंग नहीं है ।

तृतीयांक श्लोक-संख्या 32 की है । बंगाली वाचना में 41 श्लोक है । शारदा पाण्डुलिपि में 35 श्लोक है ।

चतुर्थांक में शिष्य के मुख में अपि च से सम्बद्ध चार श्लोक

1.याति, 2.अन्तर्हिते, 3.कर्कन्धूनाम्, 4.पादन्यासं 0 मिलते है । बंगाली एवं शारदा में संचरित पाठ से साम्य है, किन्तु प्रचलित (संक्षिप्त) देवनागरी में 3 – 4 श्लोक नहीं है ।

पञ्चम अङ्क हंसपदिका –गीत से अङ्क का आरम्भ होता है । तत्पश्चात् कञ्चुकी का प्रवेश होता है । बंगाली एवं मैथिली वाचना में, तथा शारदा पाण्डुलिपि में भी कञ्चुकी के प्रवेश से अङ्क का आरम्भ होता है ।

षष्ठांक में विदूषक परिहास-विकल्पो एस ण भूदत्थो त्ति, मया वि पिंडबुद्धिणा तथेव गिहीदं । प्रचलित देवनागरी में मृत्पिण्डबुद्धिना ऐसा पाठभेद है । शारदा पाण्डुलिपि में मृत्पिण्डबुद्धिना पाठ मिलता है ।



उपर जो निदर्शभूत वाक्य दिये है वे सभी पाटण की प्रथम पाण्डुलिपि के समान ही है । किन्तु वह सर्वथा साम्य रखनेवाली पाण्डुलिपि नहीं है । तीसरे अंक की श्लोक-संख्या में अन्तर है । जैसे कि (क) पाटण की इस दूसरी प्रति में, तीसरे अङ्क के जिन श्लोकों को हटाया गया है वह इस प्रकार से हैः- 1. वृथैव संकल्पशतैः0 ( रिचार्ड पिशेल की आवृत्ति में 6 क्रम से ), 2. संमीलन्ति न तावद् 0 (7), 3. शक्योरविन्दसुरभिः 0 (8), 4. अभ्युन्नता पुरस्ताहवगाढा 0 (9), 5. स्तन-न्यस्तोशीरं 0 (10), 6. शशिकरविशदान्य 0 (11), 7. अयं स यस्मात् 0 (17), 8. अपराधमिमं ततः 0 (24) और 9. रहप्रत्यासत्तिं 0 (40) ।। (ख) इस में मालभारिणी छन्द, जो परवर्ती काल में उद्भासित हुआ है, उसमें लिखित एक नया श्लोक ( अपरिक्षतकोमलस्य 0 ) भी समाविष्ट किया गया है । यह श्लोक बंगाली, मैथिली एवं काश्मीरी शारदा परम्परा में नहीं है । ( तथा देवनागरी वाचना में जो संक्षिप्तीकरण की प्रक्रिया चल रही है उसके इतिहास पर प्रकाश फेंकनेवाला यही श्लोक उपयुक्त हो सकता है । ) श्लोक-संख्या विषयक इन दो वैषम्य को देखसे लगता है कि पाटण की यह दूसरी प्रति में पाठ में कटौती करने की प्रवृत्ति शूरु हो गई है । क्योंकि पाटण की प्रथम प्रति में 36 श्लोक है और इस दूसरी प्रति में 32 श्लोक है ।।

(ग) लालभाई दलपतभाई प्राच्यविद्या मन्दिर, अहमदावाद के ग्रन्थभण्डार में से मिल रही पुरानी पाण्डुलिपि ( क्रमांक – 1948 ) में 23 फोलियो है, जिनमें से 16वाँ पृष्ठ अनुपलब्ध है । पाण्डुलिपि के मध्य भाग में कृति का मूल पाठ है और चारों ओर जो मार्जिन है उसमें आवश्यक वाक्यों पर छोटी छोटी टिप्पणी भी लिखी गई है । तथा कतिपय प्राकृत संवादों के संस्कृतछायानुवाद भी उसमें दिये गये है । बहुत सुन्दर हस्ताक्षरों से लिखी गई है और एकार के लिये अग्रमात्रा का विनियोग किया गया है । इसकी पुष्पिका में लिखा है कि – इति श्रीकालिदासविरचितस्य शकुन्तला-नाटकस्य सप्तमोSङ्कः ।। (यहाँ "शाकुन्तल" ऐसा नाम नहीं है । ) यहाँ पर प्रति का लेखनकाल या लेखक का नाम-निर्देश नहीं है । अब इस पाण्डुलिपि में संचरित हुए पाठ से उदाहरण रूप में कतिपय वाक्यों को लेकर देवनागरी वाचना के प्रकाशित एवं प्रचलित पाठ के साथ तुलना की जाती हैः—



उक्ति वाक्य टिप्पण

नान्दी या सृष्टिस्स्रष्टुराद्या पिबति, विधिहुतं .... । प्रत्यक्षाभिः प्रसन्नस्तनुभिरवतु ... ।। केवल काश्मीरी शारदा पाण्डुलिपि में ही पिबति एवं प्रसन्नः पाठ मिलता है । प्रसन्नः पाठ बंगाली में भी मिलता है । प्रचलित देवनागरी में इन दोनों में से एक भी पाठ नहीं है ।।

सूत्रधार कालिदासग्रथितवस्तुना नवेन नाटकेन उपस्थातव्यम् अस्माभिः । ( सूत्रधार ने कृति का नाम-निर्देश नहीं किया है । ) प्रचलित देवनागरी के पाठ में सूत्रधार ने कृति का नाम-निर्देश किया है । शारदा पाण्डुलिपि में भी कृति का नाम सूत्रधार के मुख में नहीं है ।

नटी अहिण्णाण-सउंतला णाम अपरुबं नाडअं पउगे अहिकरीयदु । (बंगाली – शारदा में भी ऐसा ही है । ) प्रचलित देवनागरी के पाठ में अहिण्णाणसाउंतदम् ऐसा नाम है ।

प्रथमांक अन्त में शकुन्तला के निष्क्रमण की रंगसूचना ही है । प्रचलित देवनागरी के पाठ में भी केवल रंगसूचना है । प्राकृतछायाओं में शकुन्तला का वाचिक भी है ।

विदूषक किं मोदकखण्डिकायां । .... । गिहीदो भावो । प्रचलित देवनागरी के पाठ में गिहीदः खणः – ऐसा पाठ है । प्राकृतछायाओं में गहीद जणः है ।

राजा निराकृतनिमेषाभिः0 श्लोक, न च सखे, परिहार्येपि पौरवाणां मनः प्रवर्तते । ललितान्यसंभवं किल मुनेरपत्यं0 श्लोक । प्रचलित देवनागरी के पाठ में पहेला श्लोक नहीं है । दूसरे श्लोक के आरंभ में सुरयुवतिसंभवं ऐसा पाठभेद है ।

करभक आगामि चउत्थ दियसे पुत्तपारणो णाम उवयासो भविस्सदि । प्रचलित देवनागरी के पाठ में पउत्तपारणो – ऐसा पाठ है ।

राजा दृष्ट्वा मणिबन्धनगलितमिव .... निगडमिव मे पुरस्तात् ।। प्रचलित देवनागरी के पाठ में यह श्लोक नहीं है । शारदा पाण्डुलिपि में यह है ।

राजा मृणालवलय ... । मुखमारुतेन चक्षुः सिंचति । प्रचलित देवनागरी के पाठ में यह प्रसंग नहीं है । शारदा पाण्डुलिपि में यह है ।

राजा हरकोपाग्निदग्ध0 । तथा अद्यापि नूनं हरकोप-वह्निस्त्वयि ज्वलत्यौर्व इवाम्बुराशौ 0 । दोनों श्लोक है । प्रचलित देवनागरी के पाठ में ये श्लोक नहीं हैं । शारदा पाण्डुलिपि में यह है ।

शिष्य 4 अंक के आरंभ में – कर्कन्धूनां0, पादन्यासं0, यात्येकतो0, अन्तर्हिते0 । इस क्रम में चार श्लोक है । प्रचलित देवनागरी के पाठ में पहेले दो श्लोक नहीं हैं । शारदा पाण्डुलिपि में इसी क्रम में 4 श्लोक है ।

षष्ठांक में विदूषक परिहास-विकल्पो एस ण भूदत्थो त्ति, मया वि पिंडबुद्धिणा तथेव गिहीदं । प्रचलित देवनागरी में मृत्पिण्डबुद्धिना ऐसा पाठभेद है । शारदा पाण्डुलिपि में मृत्पिण्डबुद्धिना पाठ मिलता है ।



उदाहरण के रूप में हमने जिन वाक्यों को लिये है उससे मालुम होता है कि एल. डी. इन्स्टीट्युट ऑफ इन्डोलोजी की इस प्रति में जो पाठपरम्परा संचरित हुई है वह पाटण की पूर्वोक्त दोनों प्रतियों के साथ बहुशः साम्य रखती है । किन्तु यहाँ यह भी कहना आवश्यक है कि तीसरे अँक की कुल श्लोक-संख्या का पाटण की दो प्रतिओं के साथ पूर्ण साम्य नहीं है । शारदा पाण्डुलिपि में 35 श्लोक है, तो पाटण की प्रथम प्रति में 36 श्लोक है एवं दूसरी प्रति में 32 श्लोक है । किन्तु एल. डी. इन्डोलोजी की प्रति में 40 श्लोक है ।। गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो राजर्षिकन्यकाः0 वाला श्लोक शारदा पाण्डुलिपि में नहीं मिलता है, जो उसकी निजी पहेचान रूप है । यह श्लोक पाटण की दोनों प्रतिओं में तथा एल.डी. इन्डोलोजी की प्रति में मिलता है । मतलब की जैन परम्परा की ये तीनों पाण्डुलिपियाँ बहुशः शारदा पाण्डुलिपि के साथ साम्य रखती है । किन्तु कालान्तर में संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति से भी प्रभावित होने के साथ साथ बंगाली पाठपरम्परा से भी कुत्रचित् प्रभावित हुई है ।।



3. पाटण की पाण्डुलिपियाँ का शारदा पाण्डुलिपि के साथ साम्य कैसे ?

पाटण की दो पाण्डुलिपियाँ और अहमदावाद की एक देवनागरी पाण्डुलिपि में जो पाठ संचरित हुआ है उसका बहुशः साम्य शारदा की पाण्डुलिपि के साथ है – ऐसा देखने बाद यह जिज्ञासा प्रादुर्भूत होती है कि यह साम्य कैसे है ? । इस सन्दर्भ में श्री आर. सी. परीख ने अपने काव्यानुशासन (Parikh, 1938) में कहा है कि गुजरात में संस्कृत विद्या की विकासयात्रा में 11वीँ शती महत्त्वपूर्ण है । उसमें भी सिद्धराज जयसिंहदेव का नाम अग्रगण्य है । अणहिलपुर पाटण के इस नरेश ने मालवा पर जित हांसिल करके वहाँ की धारा नगरी का ग्रन्थभण्डार गुजरात में ले आया । तत्पश्चात् भोज राजा की कीर्ति का अपकर्ष दिखाने के लिये जयसिंह देव ने आचार्य हेमचन्द्रजी को गुजरात की अस्मिता के प्रतीक स्वरूप संस्कृतभाषा का एक नया व्याकरण लिखने को आग्रह किया । हेमचन्द्र ने इसी क्षण बीडा ऊठा लिया, लेकिन साथ में यह भी मांगा कि वाग्देवी की नगरी काश्मीर से कुछ ग्रन्थ मंगवा लिया जाय तो यह कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न किया जायेगा । इस बात का प्रमाण प्रभावक-चरितम् (सं. जिनविजयजी, 1940) में संगृहीत किये गये "हेमचन्द्रसूरि-चरितम्" के निम्नोक्त श्लोक से मिलता हैः--

पाणिनेर्लक्षणं वेदस्याङ्गमित्यत्र च द्विजाः । अवलेपाद् असूयन्ति कोSर्थस्तैरुन्मनायितैः ।। 22 / 83 ।।

यशो मम, तव ख्यातिः पुण्यं च मुनिनायकः । विश्वलोकोपकाराय कुरु व्याकरणं नवम् ।। 22 / 84 ।।

इत्याकर्ण्याभ्यधात् सूरिर्हेमचन्द्रः सुधीनिधिः । कार्येषु नः किलोक्तिर्वः स्मारणायैव केवलम् ।। 22 / 85 ।

परं व्याकरणान्यष्टौ वर्तन्ते पुस्तकानि च । तेषां श्रीभारतीदेवीकोश एवास्तिता ध्रुवम् ।। 22 / 86 ।।

आनाययतु काश्मीरदेशात् तानि स्वमानुषैः । महाराजो यथा सम्यक् शब्दशास्त्रं प्रतन्यते ।। 22 / 87 ।।

इति तस्योक्तिमाकर्ण्य तत्क्षणादेव भूपतिः । प्रधानपुरुषान् प्रैषीद् वाग्देवी-देशमध्यतः ।। 22 / 88 ।।

प्रवराख्यपुरे तत्र प्राप्तास्ते देवतां गिरम् । वन्दनादिभिरभ्यर्च्य तुष्टुवुः पाठनस्तवैः ।। 22 / 89 ।।

यहाँ स्पष्ट कहा गया है कि गुजरात में काश्मीर से ( शारदा लिपि में लिखी ) संस्कृत ग्रन्थों की पाण्डुलिपियाँ मंगवाई गई थी । यह ऐतिहासिक हकीकत है ।। अतः पाटण के पूर्वोक्त ग्रन्थभण्डारों में से अभिज्ञानशकुन्तल की जो पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हो रही है उसके पाठ का साम्य काश्मीरी शाकुन्तल के साथ दिख रहा है तो वह कोई आकस्मिक या आश्चर्यजनक बात नहीं है । अब 11वीँ शती की गुजरात में प्रचलित हुई इस देवनागरी शाकुन्तल की पाठपरम्परा की उपयुक्तता अपने आप में कितनी महत्ता रखती है – यह स्वयं स्पष्ट हो जाता है । देवनागरी वाचना की आज उपलब्ध हो रही जितनी भी पाण्डुलिपियाँ है उसमें गुजरात के पाटण की पूर्वनिर्दिष्ट तीनों पाण्डुलिपियाँ में संचरित हुआ शाकुन्तल का पाठ प्राचीनतर सिद्ध होता है । दूसरा ध्यानार्ह बिन्दु यह भी है कि अभिज्ञानशकुन्तल का पाठ जो काश्मीर की शारदा लिपि में सुरक्षित रहा है वह बंगाली पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहे पाठ की अपेक्षा से अधिक प्राचीनतर एवं अधिक श्रद्धेय है । क्योंकि ब्राह्मीलिपि के विकासक्रम को देखा जाय तो प्रथमतया शारदालिपि का अवतार हुआ है और तत्पश्चात् ही बंगालीलिपि का अवतार हुआ है । इस दृष्टि से सोचा जाय तो मूल ब्राह्मी लिपि में लिखे गये कालिदास के पाठ का प्रथम संचरण शारदा में ही हुआ होगा । अतः उस शारदा परम्परा का पाठ यदि गुजरात में हेमचन्द्राचार्य के समय से प्रचलित हुआ है और आज पूर्वोक्त तीन पाण्डुलिपिओं में



4. देवनागरी वाचना के शाकुन्तल का पाठसंचरण करनेवाली अन्य पाण्डुलिपियाँ

अब महाराष्ट्र एवं राजस्थान जैसे प्रदेशों से प्राप्त की गई ( देवनागरी वाचना के ) शाकुन्तल की तीन-चार पाण्डुलिपियाँ का परिचय प्राप्त करते है । जिसमें संचरित हुआ देवनागरी वाचना का पाठ अतिसंक्षिप्त किया गया पाठ हैः—

1. भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट, पूणें से ( क्रमांक – 409 / 1886-87 ) एक प्रति प्राप्त की है । जिसमें 27 फोलियो है, 52 पृष्ठ है । उस पर "शाकुन्तल, टिप्पण के साथ" ऐसा नामकरण किया गया है । पाण्डुलिपि के मध्य भाग में मूल नाट्यकृति का पाठ है, और चौपास के मार्जिन में एक टिप्पण भी लिखी गई है । अतः यह "पञ्चपाठी" प्रकार की पाण्डुलिपि बनी है । सुवाच्य हस्ताक्षरों में वह लिखी गई है । उसकी पुष्पिका में लिखा है कि – वसुनवमुनिचन्द्रे वत्सरे पौषमासे शशिकरततपक्षे सप्तमीसौरियुक्ता सकल-भुवन-रम्ये पत्तने कामशत्रोरलिखद् अतिमनोज्ञं नाटकं कृष्णदासः ।। श्रीमद्रामकृष्णाभ्यां नमः ।। अर्थात् भगवान् शङ्कर, जो कामदेव के शत्रु है उनकी नगरी काशी में यह पाण्डुलिपि लिखी गई है । यह पाण्डुलिपि वो है जिसको श्री पी. एन. पाटणकर जी ने "बी" ऐसे सांकेतिक नाम दिया है ।। अब इस हस्तलिखित प्रति से उदाहरण के रूप में कुछ वाक्य प्रस्तुत किये जाते है, जिसके आधार पर शाकुन्तल की देवनागरी लिपि में लिखित अन्य पाण्डुलिपियों के साथ परस्पर में तुलना कर सके ।।



उक्ति वाक्य टिप्पणी

सूत्रधार कालिदास-ग्रथित-वस्तुना अभिज्ञानशाकुन्तल-नामधेयेन नवेन नाटकेन उपस्थातव्यम् अस्माभिः । पाटण की पाण्डुलिपिओं में सूत्रधार की उक्ति में कृति का नामनिर्देश नहीं है ।

वैखानस जन्म यस्य पुरोर्वंशे युक्तरूपमिदं तव । पुत्रमेवं गुणोपेतं चक्रवर्तिनमाप्नुहि ।। पाटण की पाण्डुलिपिओं में ऐसा श्लोक नहीं है ।

शकुन्तला अनसूए, अहिणवकुसुमसूइय परिक्खदं मेव चलणं, कुरबअ साखापरिलग्नं च वल्कलं परिपालेधा मा, जावणं मोआवेमि ।

राजानमवलोकयन्ती सव्याजं विलम्ब्य सह सखीभ्यां निष्क्रांता प्राकृतविवृति एवं प्राकृतछायाओं में इसी तरह का पाठ है । किन्तु पाटण की पाण्डुलिपिओं में केवल रंगसूचना देनेवाला वाक्य ही है ।

राजा निवारितनिमेषाभिः ... ।। (श्लोक) , सखे परिहार्ये वस्तुनि पौरवाणां मनः प्रवर्तते । सुरयुवतिसंभवं .... ।। (श्लोक) पाटण की पाण्डुलिपिओं में ऐसा श्लोक है । (राघवभट्ट में पहेला श्लोक हटाया गया है ।)

करभक आआमिणि चउत्थदिअहे पउत्तपालणो मे उववासो भविस्सदि । पाटण की पाण्डुलिपिओं में "पुत्रपालनो" ऐसा पाठभेद है ।

तीसरा अंक तीसरा अंक का पाठ विस्तृत नहीं है । (मृणालवलय पहेनाना एवं मुखमारुत से शकु. की दृष्टि विशद करने के प्रसंग नहीं है ।) पाटण की पाण्डुलिपिओं में विस्तृत पाठ है ।

चतुर्थांक आरम्भ में शिष्य दो श्लोक (याति0 – अन्तर्हिते0) बोलता है । पाटण की पाण्डु. में चार श्लोक है ।

विदूषक परिहासवितहव्यो एसो, ण भूदत्थो त्ति आचक्खिअ, मए मंदबुद्धिणा तह एव्व गिहिदं । पाटण की पाण्डु. में पिंडबुद्धिना पाठ है और शारदा पाण्डु. में मृत्पिंडबुद्धिना है ।

यह तुलना इस बात की ओर ईशारा दे रही है कि पाटण की पाण्डुलिपियों में पुरातन पाठ है । किन्तु भाण्डारकर ओरि. रिसर्च इन्स्टी. की प्रति ( जिसका विनियोग श्री पी.एन. पाटणकर जी ने प्रधान रूप से किया है ), का पाठ उत्तरवर्ती काल का है ।।

2. डेक्कन कॉलेज, पूणें से एक प्रति प्राप्त की है । जिसमें 59 पृष्ठ है और वह सातवें अङ्क के मध्य भाग से अपूर्ण है । परिणामतः उसमें न पुष्पिका मिलती है, न लेखक का नाम । उसका समय अज्ञात है, परन्तु यह बहुत पुरानी नहीं है । इस पाण्डुलिपि में शाकुन्तल का जो पाठ मिलता है वह राघवभट्ट के द्वारा स्वीकृत- (अतिसंक्षिप्त)पाठ से अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत है । कुछ उदाहरण लेकर पाटण की प्रतियों से तथा (राघवभट्ट के) प्रचलित पाठ से उसकी तुलना करनी आवश्यक हैः—

वक्ता वाक्य टिप्पणी

सूत्रधार अद्य खलु कालिदासग्रथितवस्तुना नवेन नाटकेन उपस्थातव्यम् अस्माभिः । पाटण की प्रतिओं में भी सूत्रधार कृति का नामोल्लेख नहीं करता है ।

नटी अहिणाण-साउंदलं-णाम अपुव्वं णाडअं पओए अधिकरी अदत्ति । पाटण की पाण्डुलिपिओं में अहिण्णाण-सउन्तलं ऐसा पाठ है, शारदा पाण्डुलिपि में भी यही है

शकुन्तला अनसूए, अहिणवकुसुमसूइय परिक्खदं मेव चलणं, कुरबअ साखापरिलग्नं च वल्कलं परिपालेधा मा, जावणं मोआवेमि ।

राजानमवलोकयन्ती सव्याजं विलम्ब्य सह सखीभ्यां निष्क्रांता प्राकृतविवृति एवं प्राकृतछायाओं में इसी तरह का पाठ है । किन्तु पाटण की पाण्डुलिपिओं में केवल रंगसूचना देनेवाला वाक्य ही है ।

राजा निवारितनिमेषाभिः ... ।। (श्लोक) , सखे परिहार्ये वस्तुनि पौरवाणां मनः प्रवर्तते । सुरयुवतिसंभवं .... ।। (श्लोक) पाटण की पाण्डुलिपिओं में ऐसा श्लोक है । (राघवभट्ट में पहेला श्लोक हटाया गया है ।)

करभक आआमिणि चउत्थदिअहे पउत्तपालणो मे उववासो भविस्सदि । पाटण की पाण्डुलिपिओं में “पुत्रपालनो” ऐसा पाठभेद है ।

राजा तृतीयांक के आरम्भ में दुष्यन्त की उक्ति में, अद्यापि नूनं हरकोपवह्निस्त्वयि0 श्लोक है । पाटण की पाण्डुलिपिओं में यह श्लोक है, बंगाली में भी है । राघवभट्ट में नहीं है ।

तृतीयांक बंगाली जैसा अतिविस्तृत पाठ नहीं है । संक्षिप्त पाठ ही है । पाटण की पाण्डुलिपिओं में तीसरा अंक विस्तृत है, जो शारदा पाण्डुलिपि के समान है ।

शिष्य 4अंक में कर्कन्धूनां, पादन्यासं, याति, अन्तर्हिते – 4 श्लोक है । पाटण की पाण्डुलिपिओं में भी 4 श्लोक है ।

जानुक किं खु शोभणे बम्हणे त्ति कलिअ रण्णा पडिगह दिण्णे । मागधी में रेफ का लकार नहीं हुआ है ।

विदूषक परिहासविअप्पओ एसो ... मए मप्पिंडबुद्धिणा तह एव्व गहिदं । पाटण की पाण्डु. में पिंडबुद्धिना पाठ है और शारदा पाण्डु. में मृत्पिंडबुद्धिना है ।

यहाँ तौलनिक अभ्यास के लिये जो वाक्य प्रस्तुत किये है उससे मालुम होता है कि डेक्कन कॉलेज की इस प्रति का पाठ भी पाटण की प्राचीनतर पाण्डुलिपिओं के उत्तरवर्ती काल में एवं राघवभट्ट के पाठ की पुरोवर्ती काल में प्रचलित रहा पाठ हो सकता है ।।

3. महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश-शोध केन्द्र, जोधपुर से देवनागरी लिपि में लिखित एक प्रति ( क्रमांक – 928 ) मिली है । जिसमें पत्र-संख्या 24 है । यह प्रति यद्यपि पूर्ण है, किन्तु उसमें लेखक का नाम नहीं है एवं पुष्पिका भी नहीं है । प्रथमांक के अन्त में लिखा है कि – इति कविराजश्रीकालिदासकृतौ शाकुन्तले प्रथमोSङ्कः ।। इस प्रति का पाठ बहुशः राघवभट्ट के द्वारा स्वीकृत पाठ से साम्य रखता है । अर्थात् नाटक के मूल पाठ में कटौती हुई दिखती है, किन्तु राघवभट्ट के पाठ की तरह पूर्ण कटौती नहीं दिखती है । उदाहरण के माध्यम से इस स्थिति का परिचय करेंगे ।

वक्ता वाक्य टिप्पणी

सूत्रधार या सृष्टिः स्रष्टुराद्या, वहति विधिहूतं, या हविर्या च होत्री...........। ऐसा नान्दी श्लोक है । पाटण की प्रतिओं में वहति क्रियापद के स्थान में पिबति ऐसा पाठभेद मिलता है ।

सूत्रधार अद्य खलु कालिदासग्रथितवस्तुना नवेन नाटकेन उपस्थातव्यम् अस्माभिः । पाटण की प्रतिओं में भी सूत्रधार कृति का नामोल्लेख नहीं करता है, जो शारदा के अनुरूप है ।

विदूषक किं मोदअ खंडिआए, तेण हि सुगहीदो अअं जणो । पाटण की प्रतिओं में गिहीदो भावः है । प्रचलित देवनागरी में जनः के स्थान में क्षणः पाठ है ।

करभक आआमिणी चउत्थ दिअहे पउत्तपारणो मे उपवासो भविस्सदि । पाटण की प्रतिओं में पुत्रपारणो ऐसा पाठ चलता है ।

राजा निराकृतनिमेषाभिः .... नवांमिन्दुकलां ... । श्लोक की कटौती हुई है । पाटण की प्रतिओं में यह श्लोक है

राजा आं ज्ञातम्, अद्यापि नूनं हरकोपवह्निस्त्वयि ..... कथमेवमुष्णः ।। श्लोक है । पाटण की प्रतिओं में यह श्लोक है

तृतीयांक बंगाली की तरह अतिविस्तृत पाठ नहीं है । पाटण की प्रतिओं में बंगाली जैसा विस्तार है ।

चतुर्थांक इसमें याति0, अन्तर्हिते0 ऐसे दो ही श्लोक है । पाटण की प्रतिओं में 4 श्लोक है

षष्ठांक में

विदूषक ण विसुमरामि, किंतु सव्वं कहिअ ... मए वि मन्दबुद्धिणा तएव गहिदं । पाटण की प्रतिओं में मयावि पिंडबुद्धिणा पाठ है । शारदा पाण्डुलिपि में मृत्पिण्डबुद्धिना पाठ था ।



यहाँ विदूषक की उक्ति रूप जो अन्तिम वाक्य है उसका तुलनात्मक अभ्यास से मालुम होता है कि पिंडबुद्धिना पाठ काश्मीरी परम्परा का है, जिसका अनुकरण पाटण की देवनागरी प्रतियों में दिखता है । लेकिन गुजरात की जैन परम्परा से बहार / अन्यत्र देवनागरी पाण्डुलिपियों में मन्दबुद्धिना पाठ चलता रहा है । परन्तु काश्मीरी परम्परा से आया हुआ (पिंडबुद्धिना / मृत्पिंडबुद्धिना) पाठ राघवभट्ट द्वारा अनुसृत देवनागरी पाण्डुलिपियों की परम्परा में भी चल रहा है । अर्थात् सम्भव है कि काश्मीर की शारदा परम्परा का पाठ गुजरात के पाटण की पाण्डुलिपियों में संचरित होने के बाद, राघवभट्ट जिस पाठपरम्परा का अनुसरण कर रहे है उन परम्परावालों ने उनके(काश्मीरी परम्परा के) पाठान्तरों का स्वीकार करते हुए, शाकुन्तल के पाठ में संक्षिप्तीकरण का कार्य किया हो । यह देवनागरी वाचना का अन्तिम (लघुतम) स्वरूप है, जिसको राघवभट्ट ने अपनी अर्थद्योतनिका टीका से विभूषित किया ।।

5. उपसंहारः—देवनागरी वाचना का अभिज्ञानशाकुन्तल निर्धारित करना हो तो प्राचीनतमादि त्रिविध कालखण्ड में क्रमशः विकसित / परिवर्तित हुआ पाठ निश्चित करना आवश्यक है । उसमें गुजरात के पाटण से मिल रही ( जैन ) देवनागरी पाठपरम्परा की पाण्डुलिपियाँ प्राचीनतर काल की है । क्योंकि इन पाण्डुलिपियों में (शाकुन्तल नाटक के) तीसरे अंक का जो पाठ संचरित हुआ है वह काश्मीर की शारदा पाण्डुलिपियों से बहुशः अनुकृत है । गुजरात की पाण्डुलिपियों पर शारदा पाण्डुलिपियों का प्रभाव विशेष रूप से हेमचन्द्राचार्य के समय से शूरु हुआ है । अतः देवनागरी वाचना के शाकुन्तल का प्राचीनतर स्वरूप निश्चित करने के लिये पाटण की पाण्डुलिपियाँ अनुपेक्ष्य है ।।

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