मंगलवार, 18 अगस्त 2015

अभिज्ञानशाकुन्तल - देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं की पाठालोचना ।

अभिज्ञानशाकुन्तलम् : देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं की पाठालोचना वसन्तकुमार म. भट्ट निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद– 9 0 : 1 भूमिका : महाकवि कालिदास के द्वारा प्रणीत अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक का मूल पाठ प्रायः दो हजार वर्ष पहले लिखा गया था ।कवि का वह स्वहस्तलेखआज कालग्रस्त हो गया है । लेकिन उसमें से शुरू हुई प्रतिलिपिकरण की सुदीर्घ परम्परा मेंलिखी गई पाण्डुलिपियों में वह पाठ जिस स्वरूप में विद्यमान है वह सर्वत्र एक समान नहीं है । इन पाण्डुलिपिओं में उपलब्ध हो रहे इस नाटक के पाठ में अनेक पाठान्तर, प्रक्षेप-संक्षपादि एवं अशुद्धियाँ साफ दिखाई दे रही हैं । जिसका अभ्यास करके विद्वज्जगत् ने इतना जाना है कि इस नाटक का पाठ मुख्य रूप से पञ्चविध वाचनाओं में संचरित हुआ है :-- 1. काश्मीरी, 2. मैथिली, 3. बंगाली, 4. देवनागरी एवं 5. दाक्षिणात्य ।। इन सब में उपलब्ध हो रहे विविध पाठान्तरों एवं प्रक्षेपादि का तुलनात्मक अभ्यास करके हमने इस नाटक के मूल पाठ में विचलन-क्रम की क्या आनुक्रमिकता रही होगी उसकी गवेषणा करके यह दिखाया है कि उपलब्ध पाँचों वाचनाओं में से काश्मीरी वाचनाही सब से प्राचीनतम है । इस काश्मीरी पाठ में परिवर्तन एवं प्रक्षेपादि करके मैथिली वाचना का जो पाठ तैयार हुआ है वह द्वितीय क्रमांक पर खडा है । तीसरे क्रमांक पर, कुछ नये परिवर्तन करकेबंगाली वाचना का पाठ बनाया गया है । इन तीनों में क्रमशः बृहत् से बृहत्तर, एवं बृहत्तर से बृहत्तम पाठ बनता गया है ।। हमने इस विषय की सप्रमाण उपस्थापना"अभिज्ञानशाकुन्तल के पाठविचलन की आनुक्रमिकता" शीर्षकवाले शोध-आलेख में की है । ( द्रष्टव्य : नाट्यम्, सम्पादक श्रीराधावल्लभ त्रिपाठी, सागर, अंक – 76, दिसेम्बर, 2014, पृ. 26 से 54 ) ।। इसमें यह भी बताया है कि देवनागरी वाचना एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में न केवल पाठ-परिवर्तन किये गये हैं, किन्तु उसमें भारी कटौती भी की गई है । अतः हम उसको रंगावृत्ति कापाठ कह सकते है । उस आलेख में यह भी दिखाया गया है कि देवनागरी वाचना के पाठ में कुत्रचित् काश्मीरी वाचना का पाठ ग्राह्य रखा गया है, तो कुत्रचित् बंगाली या मैथिली वाचनाओं के पाठ में से भी पाठान्तर स्वीकार्य रहे हैं । ( यही स्थिति दाक्षिणात्य पाठ की भी दिख रही है ) । किन्तु उस शोध-आलेख में हमने यह नहीं बताया है कि देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं के गठन में कौन सा पौर्वापर्य दिख रहा है ? । इस प्रश्न का उत्तर ढूँढना इस लिए आवश्यक है की कवि-प्रणीत मूल (बृहत्) पाठ में संक्षेपीकरण का कार्य सब से पहले किसने किया होगा? इतना निश्चित होने के बाद ही नाटक के बृहत् पाठ को रंगावृत्ति में बदलने में किस वाचना के पाठशोधकों का योगदान रहा है, यह हम कह पायेंगे । अतःप्रस्तुत शोध-आलेख में, लघुपाठ वाली दोनों ( देवनागरी तथा दाक्षिणात्य ) वाचनाओं में से कौन सी वाचना प्रथम क्रमांक पर खडी है, और किस वाचना दूसरे क्रमांक पर आकारित हुई है ? इस प्रश्न को लेकरविचारणा की जा रहीहै ।। 0 : 2 देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में साम्य-वैषम्य को देख कर कुछ विद्वानों ने अपने अपने अभिमत प्रकट किये हैं । जैसे कि, 1. काशी के मूर्धन्य विद्वान् श्री रेवाप्रसाद द्विवेदी जी ने कालिदास ग्रन्थावली ( द्वितीय संस्करण ) की प्रस्तावना में लिखा है कि उन्हों ने देवनागरी वाचना को स्वीकारा है, और यह वाचना दाक्षिणात्य वाचना के साथ 90 प्रतिशत साम्य रखती है । किन्तु इन दोनों वाचनाओं में से कौन सी वाचना प्रथम आकारित हुई होगी ? इस पर किसी भारतीय विद्वान् ने कुछ सोचा हो तो हमें उसकी जानकारी नहीं है ।। देवनागरी वाचना के शुद्धतर पाठ को सम्पादित करने का जिन्हों ने दावा किया है वे प्रॉफे. पी. एन. पाटणकर जी ने ( 1889 में ) कहा है कि डॉ. रिचार्ड पिशेल के मतानुसार "दक्षिण भारत में संस्कृत नाटकों का संक्षेपीकरण एवं ( पाठभेदों के सन्दर्भ में ) संमिश्रीकरण भी किया गया है" । किन्तु शाकुन्तल नाटक के सन्दर्भ में उनका क्या विशेष रूप से कहना है उसकी जानकारी हमारे पास नहीं हैं । अतः हमें स्वतन्त्रतया इस पर विचार करना होगा ।। [ 1] तुलनात्मक अभ्यास के लिए चुनी गई दो कृतिओं में ( वाचनाओं में ) क्या क्या साम्य है, या वैषम्य है ?इतना ही सामान्यतया देखा जाता है । लेकिन इस तरह के साम्य-वैषम्य का लेखा-जोखा करने के साथ साथ यदि उन दोनों तुलनीय कृतिओं( या वाचनाओं ) में ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्वापर भाव भी ढूँढा जायेगा तो किसी भी तरह के सुधार का यश किस कृति को दिया जाय, या बिगाड का उत्तरदायित्व किसका है वह भी निश्चित किया जा सकता है । पाठालोचना के क्षेत्र में, ऐसा प्रयास बहुत कम हुआ है, या नहीं के बराबर किया गया है ।। किन्तु इस दिशा में आगे बढते ही पहला प्रश्न होगा कि प्रतिलिपिकरण का एवं पाठ-परिवर्तन के सोपानों का जब कोई दस्तावेजी या पुरातत्त्वीय प्रमाण हीनहीं है तब यह कैसे निश्चित होगा कि किस वाचना का पाठ पहले आकारित हुआ है और किसका पाठ बाद में संगठित हुआ है ? । यह आशंका एक दम सही है । क्योंकि किसी भी पाठ्यकृति में हुए पाठपरिवर्तन का किसी भी तरह का साक्ष्यआज हमारे पास नहीं है । तथापिहम कुछ ऐसे तर्कसंगत प्रमाण जरूर सोच सकते है कि किस वाचना का पाठ समयानुक्रम में पहले हो सकता है, और किस वाचना का पाठ दूसरे क्रम में तैयार किया गया होगा । विशेष रूप से कालिदास जैसे प्रबुद्ध महाकवि के विषय में हम कह सकते है कि यह कवि ऐसे हैं कि जो पूर्वापर सन्दर्भ में सुसंगत पाठ लिखनेवाले कवि है ।अतः कालिदास की प्रस्तुत नाट्यकृति में जहाँ पर भी दो या तीन ( या इससे भी अधिक ) तरह के पाठान्तर प्रचलित हो चूके है वहाँप्रकरण-संगति की दृष्टि से सोचने पर जो पाठान्तर सटीक एवं आन्तरिक सम्भावना-युक्तसिद्ध होता हो वही पाठ मौलिक होसकता है । और जो पाठ मौलिकता के नज़दीक प्रतीत होगा वही प्राचीनतम भी कहलायेगा, यह बात भी निर्विवाद है ।। इस चर्चा के अनुसन्धान में निम्नोक्त उदाहरण विचारणीय है :-- (1) प्रथम अंक के अन्त भाग में, ( देवनागरी वाचना में ) राजा की उक्ति है :"(आत्मगतम्) अहो धिक्, पौरा अस्मदन्वेषिणस्तपोवनम् उपरुन्धन्ति ।" । इसके प्रतिपक्ष में, दाक्षिणात्य वाचना में राजा की उक्ति में ऐसे शब्द है :"(आत्मगतम्) अहो धिक्, सैनिका मदन्वेषिणस्तपोवनम् उपरुन्धन्ति ।" यहाँ मृगया-प्रसंग में राजा दुष्यन्त अपने सैनिकों को लेकर आया है, यह बात पहले कही गई है । इस समय हस्तिनापुर का नरेश दुष्यन्त सुदूर हिमालय की उपत्यका में आये हुए कण्वाश्रम में है। तथा नेपथ्योक्ति से कहा भी गया है कि "भो भोस्तपस्विनः ! सन्निहितास्तपोवनसत्तवरक्षायै भवत । प्रत्यासन्नः किल मृगयाविहारी पार्थिवो दुष्यन्तः ।" इस सन्दर्भ में, दुष्यन्त को ढूँढने के लिए उनके सैनिक ही यहाँ आ सकते है, उनके हस्तिनापुर के पौराः ( पुरवासी लोग ) यहाँ क्यूं आयेंगे ? । मतलब कि देवनागरी वाचना का पाठ पूर्वापर सन्दर्भ में बीलकुल विसंगत और अमौलिक सिद्ध होता है ।। (2) दूसरे अंक के अन्तभाग में, कण्वाश्रम के दो शिष्य राजा को बिनती करने के हेतु आते हैं । राजा को दूर से ही देख कर वे प्रशंसा में एक-एक श्लोक प्रस्तुत करते हैं । यहाँ दाक्षिणात्य वाचना के अनुसार द्वितीय शिष्य कहता हैः— नैतच्चित्रं यदयमुदधिश्यामसीमां धरित्रीमेकः कृत्स्नां नगरपरिघप्रांशुबाहुर्भुनक्ति । आशंसन्ते सुरयुवतयः त्यक्तभोगा हि दैत्यैरस्याधिज्ये धनुषि विजयं पौरुहूते च वज्रे ।। ( 2-15) किन्तु देवनागरी वाचना में एक पाठभेद हैः— 0आशंसन्ते सुरयुवतयः बद्धवैरा हि दैत्यैरस्याधिज्ये धनुषि विजयं पौरुहूते च वज्रे ।। इसमें कहा जाता है कि सुरयुवतियाँ इन्द्रसखा दुष्यन्त के विजय की कामना करती है । वे सुर-युवतियाँ कैसी ? तो यह कहने के लिए दाक्षिणात्य वाचना के श्लोक में "त्यक्तभोगाः" ऐसा एक विशेषण रखा गया है । दूसरी ओर देवनागरी वाचना में पाठभेद करके सुरयुवतिओं के लिए "बद्धवैराः" जैसा विशेषण दिया गया है । अब इन दोनों में से कौन सा पाठ कवि ने लिखा होगा ? यह विचारणीय है । सुरयुवतियाँ ने दैत्यों के साथ वैर बाँध लिया है, इस लिए वे दुष्यन्त के विजय की कामना करती है – ऐसा कहना तो ठीक नहीं लगता है । प्रत्युत, सुरयुवतियाँ को भोगों का त्याग करना पड रहा है, ( क्योंकि सुरों और असुरों के बीच सदैव संग्राम होता रहता है, और वे भोगों से वंचित हो जाती है ) इस लिए वे दुष्यन्त के विजय की कामना करती है, ऐसा कहना ही समुचित होगा ।मतलब कि उपर्युक्त दोनों पाठभेदों में दाक्षिणात्य वाचना का पाठ ही आन्तरिक सम्भावना के युक्त है । तथा देवनागरी वाचना का पाठ सुसंगत नहीं है ।। (3) तृतीयांक में, मदनसंतप्ता शकुन्तला कुसुमास्तरण पर लेटी हुई है और दुष्यन्त की प्राप्ति के बिना वह मर जायेगी ऐसा अपना सहेलियों से बताती है तब ( दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में ) दोनों सहेलियों की जनान्तिक उक्तियाँ निम्नोक्त स्वरूप में रखी गई हैः— प्रियंवदा– ( जनान्तिकम् ) अनसूये, दूरगतमन्मथाऽक्षमेयं कालहरणस्य । यस्मिन् बद्धभावैषा स ललामभूतः पौरवाणाम् । तस्माद् युक्तमस्या अभिलाषोऽभिनन्दितुम् । अनसूया– ( जनान्तिकम् ) सखि, यथा भणसि । ( प्रकाशम् ) सखि, दिष्ट्याऽनुरूपस्ते-ऽभिनिवेशः । सागरमुज्झित्वा कस्मिन् वा महानद्यवतरति । प्रियंवदा– को वेदानीं सहकारमन्तरेणातिमुक्तलतां पल्लविताम् अर्हति । राजा – किमत्र चित्रं यदि विशाखे शशाङ्कलेखामनुवर्तेते ।। यहाँ अनसूया जनान्तिक उक्ति से प्रियंवदा का जो सुझाव है उसको पहले सहमति प्रदर्शित करती है । तदनन्तर प्रकाशोक्ति से शकुन्तला को उद्देश्य करके उसके प्रेम-प्रसंग का अभिनन्दन करती है । जिसमें वह शकुन्तला को महानदी और दुष्यन्त को सागर की उपमा देती है । तब उसीके अनुसन्धान मेंप्रियंवदा भी दुष्यन्त-शकुन्तला के लिए सहकार और अतिमुक्त-लता का उपमान प्रयुक्त करती है ।। अब, इस तरह की दाक्षिणात्य वाचना की योजना से भिन्न जो स्थिति देवनागरी पाठ में मिल रही है, उसको देखते हैः— प्रियंवदा– ( जनान्तिकम् ) अनसूये, दूरगतमन्मथाऽक्षमेयं कालहरणस्य । यस्मिन् बद्धभावैषा स ललामभूतः पौरवाणाम् । तस्माद् युक्तमस्या अभिलाषोऽभिनन्दितुम् । अनसूया– ( जनान्तिकम् ) सखि, यथा भणसि । प्रियंवदा – ( प्रकाशम् ) सखि, दिष्ट्याऽनुरूपस्तेऽभिनिवेशः । सागरमुज्झित्वा कुत्र वा महानद्य-वतरति । क इदानीं सहकारमन्तरेणातिमुक्तलतां पल्लवितां सहते । राजा – किमत्र चित्रं यदि विशाखे शशाङ्कलेखामनुवर्तेते ।। इस तरह की योजना में अनसूया की पूरी सक्रियता नहीं दिखती है, क्योंकि उपर्युक्त संवाद-शृङ्खला में, दोनों ही उपमान प्रियंवदा के मुख में ही रखे गये हैं । मतलब किनायक-नायिका के प्रेमप्रसंग को आगे बढाने में प्रियंवदा ही अधिकतर सक्रिय है ऐसाचित्र उभर कर हमारे सामने आता है ।। एवमेव मंचन की दृष्टि से इन पाठभेदों को देखा जाय तो भी लगता है कि दाक्षिणात्य पाठ ही ज्यादा नाट्यक्षम सिद्ध होता है । तथा आन्तरिक सम्भावना की दृष्टि से समीक्षा की जाय तो, यहाँ जो राजा की अनुगामिनी उक्ति है वह तभी यथार्थ सिद्ध होगी कि जब एक उपमान का प्रयोग अनसूया के द्वारा किया गया हो, और दूसरा उपमान प्रियंवदा के द्वारा उच्चरित हो । मतलब कि दोनों सहेलियों के मुख में जब एक-एक उपमान रहेगा तब ही उन दोनों के लिए चित्रा-विशाखा नामक नक्षत्रयुग्म का उपमान, एवं "अनुवर्तेते"जैसे क्रियापद में द्विवचन का प्रयोग चरितार्थ हो सकेगा ।। (4) षष्ठांक के धीवर-प्रसंग में से एक सन्दर्भ लेते हैः—धीवर ने दुष्यन्त-नामधेयांकित अंगुलीयक कहाँ से मिला था उसका जो विवरण दिया था, वह प्रामाणिक सिद्ध होता है । परिणामतः राजाक्षा से उसे बन्धन में से मुक्त किया जाता है । इस प्रसंग में दाक्षिणात्य वाचना का पाठ निम्नोक्त हैः- द्वितीयः– एष यमसदनं प्रविश्य प्रतिनिवृत्तः । ( इति पुरुषमुन्मुक्तबन्धनं करोति ) पुरुषः– ( स्यालं प्रणम्य ) भट्टा तुम्हकेलए मे जीविदे । ( भर्तः, युष्मदीयं मे जीवितम् । ) स्यालः– एष भर्त्रा अङ्गुलीयक-मूल्य-सम्मितोऽर्थः पारितोषिकः प्रदापितः । ( इति पुरुषायार्थं प्रयच्छति ) यहाँ परधीवर के द्वारा प्राप्त हुई अंगूठी को देख कर राजा की जब शापनिवृत्ति हो जाती है और उसे शकुन्तला का स्मरण होता है तब वह प्रसन्न हो जाता है । इस लिए राजा ने धीवर को बन्धन से मुक्त कर देने की आज्ञा की है । नगर-रक्षकों की दृष्टि में धीवर बडा भाग्यवान् है, क्योंकि वह आज यमसदन जा कर भी वापस आया है ! इसको सुन कर धीवर राजस्यालक को नमस्कार करता हुआ कहता है कि यह तो आपकी ही कृपा है कि मैं जीवित रह पाया हूँ । अब स्याल राजा के द्वारा प्रेषित धनराशि पारितोषिक के रूप में धीवर को देता है । आगे बातचीत करते हुए स्याल ने यह भी कहा कि इस अंगूलियक को देख कर राजा के नेत्र अश्रुपूर्ण हुए थे । लगता है कि राजा को कोई अपनी अभिमत व्यक्ति की याद आ गई थी । तब सूचक नामका नगररक्षक कहता है कि तभी तो आपने ( स्याल ने ) राजा की सेवा ही की है । स्याल स्पष्ट करता है कि सच कहे तो यह सेवा तो इस माछीमार ने ही की है । इतना बोल कर स्याल तुंरत धीवर की ओर असूया से देखने लगता है । तब धीवर सद्यः ही अपने पारितोषक की राशि में से आधा भाग निकल कर स्याल के हाथों में सुप्रत करता है, तथा कहता है कि यह लिजीए आपने मेरी वध्यमाला बनाने के लिए संकल्पित पुष्पों का मूल्य । यहाँ स्याल ने माछीमार की ओर असूया करते हुए जो दृष्टिपात किया था, उसका तात्पर्य समझ कर धीवर ने गभराहट में अपने पारितोषिक का आधा भाग दे दिया है ।।इस प्रसंग में धीवर की दयनीय दशा का ही अंदाजा आ रहा है । राजा ने ही उसको बन्धन से मुक्त करने का आदेश दिया, फिर भी वह डर का मारा हुआ स्याल के प्रति अपनी कृतज्ञता वाचिक रूप से प्रकट करता हुआ, "आपके कारण मैं जिन्दा रहा हूँ" ऐसा कहता है । तथा आगे चल कर, राजा के द्वारा ही दिये गये पारितोषिक में से आधा स्याल को भेट कर देता है, क्यूंकि स्याल ईर्ष्याग्रस्त हो कर उसकी ओर देखता है । और देखने मात्र से वह गभरा जाता है ।। ऐसी दयनीय दशा के वर्णन से विरुद्ध कुछ और ही चित्र देवनागरी वाचना के पाठ में से मिलता है । जैसे कि, पुरुष ( याने धीवर ) की उक्ति में सर्वथा नवीन पाठान्तर उपलब्ध हो रहा हैः-- "पुरुषः– भट्टा, अह कीलिशे मे आजीवे । ( भर्तः, अथ कीदृशो मे आजीवः ।") जब राजाज्ञा से माछीमार को बन्धन से मुक्ति मिलती है तब वह नगर-रक्षकों से पूछता है कि अब आपको मेरी आजीविका कैसी लगती है ?। मतलब कि देवनागरी वाचना का माछीमार स्याल को एवं नगर-रक्षकों को मौका मिलने पर टोना भी मार सके इतना हिम्मतवाला है । यहाँ वह दयनीय या किसी भी तरह की गभराहटवाला नहीं दिखता है ।। किन्तु इस देवनागरी वाचना का पाठ पूर्वापर में सुसंगत नहीं सिद्ध होता है । क्योंकि माछीमार ने जब जान लिया है कि मेरे पर अब राजा जी का अनुग्रह, उनका वरदहस्त आ गया है, जिसके कारण वह स्याल को टोना भी मार सकता है तो, ऐसी हिम्मत दिखानेवाला माछीमार आगे चल कर, अपने पारितोषिक का आधा भाग स्याल के हाथों में नहीं थमा देगा ।। अतः देवनागरी की अपेक्षा से दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में ही आन्तरिक सम्भावना दिखती है । ऐसा पाठ ही प्रामाणिक एवं मौलिकता के नज़दीक होगा । तथा जो पाठ मौलिकता के नज़दीक है वही पाठ प्राचीनतर भी सिद्ध होता है ।। देवनागरी वाचना के अज्ञात पाठशोधकों ने यह नया पाठान्तर सर्व प्रथम दाखिल किया है, अतः उसका अन्यान्य वाचनाओं में कहीं पर भी दर्शन नहीं होता है । मतलब कि इसदूषित पाठान्तर को जन्म देने में केवल देवनागरी वाचना के पाठशोधकों का ही कर्तृत्व रहा होगा ।। (5) सप्तमांक में, दुष्यन्त स्वर्गलोक से वापस आ रहा है तब सारथि मातलि के साथ बातचीत करता है । दुष्यन्त यह जानना चाहता है कि तरह तरह के वायुमार्गों में से हम किस मार्ग से गुजर रहे है ?"राजा– मातले, आसुरसम्प्रहारोत्सुकेन पूर्वेद्युर्दिवमधिरोहता न लक्षितः स्वर्गमार्गः । कतमस्मिन् मरुतां पथि वर्तामहे ।।" यह दाक्षिणात्य वाचनानुसारी पाठ है । उसके सामने राघव भट्टानुसारी देवनागरी वाचना के पाठ में एक पाठान्तर इस तरह का मिलता हैः— "राजा– मातले, आसुरसम्प्रहारोत्सुकेन पूर्वेद्युर्दिवमधिरोहता न लक्षितः स्वर्गमार्गः । कतरस्मिन् मरुतां पथि वर्तामहे ।।" यहाँ "कतरस्मिन्" एवं"कतमस्मिन्"ऐसे दो पाठान्तर उपलब्ध हो रहे हैं । अतः प्रश्न होगा कि राजा दुष्यन्त "(कतर=) दो वायुमार्गों में से किस (एक) मार्ग से हम गुजर रहे हैं ?" पूछना चाहते हैं कि "(कतम=) तीन या तीन से अधिकवायुमार्गों में से किस मार्ग से हम गुजर रहे हैं ?"यह पूछना चाहते है ।महाकवि ने मूल में इन दोनों पाठान्तरों में से किस शब्द को लिखा होगा, यह हमारी जिज्ञासा है । देवनागरी पाठ के प्रमुख टीकाकार राघव भट्ट ने आवह-आदि सप्त वायुमार्गों की हमें जानकारी दी है, और उस सन्दर्भ में लिखा है कि "मरुतां पथि वायुस्कन्धे । तत्र सप्त वायुस्कन्धा आवहादयः । तन्मध्ये कतरस्मिन् मरुतां स्कन्धे वर्तामहे । (पृ. 234) । अर्थात् राघव भट्ट ने तो "कतरस्मिन्" शब्द को ही मान्यता दी है । किन्तु यदि वायुस्कन्धों की गिनती सात तक पहुँचती है, जिसकी वे स्वयं जानकारी रखते हैं, तोदुष्यन्त "कतरस्मिन्" शब्द से दो ही मार्गों के सन्दर्भ में क्यूं प्रश्न करेंगे ? ऐसा उन्हों ने सोचा ही नहीं है । यह चिन्त्य है ।। दूसरी ओर, दाक्षिणात्य वाचना के टीकाकार काटयवेम ने भी सात वायुस्कन्ध होने की बात लिखी है : आवहः प्रवहश्चैव संवहश्चोद्वहस्तथा । विवहाख्यः परिवहः परावह इति क्रमात् ।। सप्तैते मरुतस्स्कन्धाः महर्षिभिरुदीरिताः ।। इस सन्दर्भ के अनुकूल ही उन्हों ने "कतमस्मिन्" पाठ को मान्यता दी है । जो समुचित प्रतीत हो रही है ।। इन सभी सन्दर्भों को देख कर, देवनागरी पाठ की अपेक्षा से दाक्षिणात्य वाचना का पाठ आन्तरिक सम्भावनाओं से युक्त पाठ लगता है । अतः वह मौलिकता के नज़दीक तथा प्राचीनतर ही सिद्ध होता है ।। [ 2] अब, अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की लघुपाठ परम्परा जिनमें उपलब्ध हो रही है उन देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठभेदों का हम तुलनात्मक अभ्यास दूसरे दृष्टिबिन्दु से करेंगे । जैसा कि पहले कहा था, इन दोनों पाठपरम्पराओं में प्रायः साम्य है ऐसा सरसरी दृष्टि से देख कर विद्वज्जगत् ने संतोष माना है । तथा जो भी भेदक-अंश है उनकी गम्भीरता को समझने का शायद उपक्रम ही नहीं किया है । किन्तु हम इस नाट्यकृति के पाठान्तरों का केवल तुलनात्मक अभ्यास ही पेश करके वहीं पर रुकना नहीं चाहते है । हमारी उम्मीद तो इन दोनों के भेदक-अंशों के स्वरूप को पहचान कर, उन दोनों के पौर्वापर्य का निर्णय करने तक पहुँचना है । इस परिप्रेक्ष्य में निम्नोक्त उदाहरण द्रष्टव्य हैं :-- (1) प्रथम अङ्क में, प्रियंवदा ने शकुन्तला को राजा के पास से चली जाती हुई रोक लेने के लिए दो घट पानी का ऋण याद दिलाया । ( वृक्षसेचने द्वे मे धारयसि । ) तब राजा ने अपनी अंगूठी निकाल कर शकुन्तला को अनृण करने का उपक्रम किया । जिसको देख कर शकुन्तला की दोनों सहेलियाँ अंगूठी पर लिखा हुआ राजा का नाम पढती है और परस्पर का मुँह देखने लगती है । तब राजा दुष्यन्त की उक्ति है :"अलमन्यथा सम्भाव्य । राज्ञः परिग्रहोऽयम् ।"दाक्षिणात्य वाचना के इस पाठ में कुछ ज्यादा पाठ्यांश नया जोड कर देवनागरी में कहा गया है कि "0 राज्ञः परिग्रहोऽयमिति राजपुरुषं माम् अवगच्छथ ।" यहाँ पर दाक्षिणात्य पाठ में, अर्थबोध करने में जो दुविधा पैदा करने की गुँजाईश संनिहित थी, उसीका पल्लवन करते हुए एक नया अंश जोडा गया है । ( 1. राजा चासौ पुरुष इति राजपुरुषः । तथा 2. राज्ञः पुरुष इति राजपुरुषः । भी हो सकता है । इस तरह राजा अपनी पहचान देते हुए भी अपने श्रोतृगण को, प्रियंवदा एवं अनसूया को, संदिग्ध अवस्था में ही रखता है । ) इस तरह दाक्षिणात्य पाठ्यांश के ही आशय को पुनरुक्त किया जा रहा है ।। (2) द्वितीय अङ्क के आरम्भ में विदूषक की उक्ति है :"अयं मृगोऽयं वराहोऽयं शार्दूल इति मध्यंदिने ग्रीष्म-विरल-पादप-च्छायासु वनराजिष्वाहिण्ड्यते ।" यह दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है । इसके सामने देवनागरी पाठ को देखा जाय तो, "अयं मृगोऽयं वराहोऽयं शार्दूल इति मध्याह्नेऽपि ग्रीष्म-विरल-पादप-च्छायासु वनराजीष्वाहिण्ड्यतेऽटवीतोऽटवी ।" इन दोनों वाक्यों की तुलना से भी मालूम होता है कि देवनागरी वाचना का पाठ अधिक विस्तृत किया गया पाठ है । ( यहाँ हम ऐसी आशंका नहीं करेंगे कि संक्षेप करने के आशय से दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने देवनागरी पाठ में से "अटवीतो अटवी" इतने शब्दों को हटा दिये होंगे । क्योंकि इसी अंक में आगे चल कर हम देखते हैं कि विदूषक ने सेनापति को उद्देश्य कर कहा है :"त्वं तावद् अटवीतोऽटवीं भ्रमन् नर-मांस-लोलुपस्य कस्यापि जीर्ण-ऋक्षस्य मुखे निपतिष्यसि ।" । इसमें भी "अटवीतोऽटवीम्" जैसे शब्दों का उच्चार किया जाता है । अर्थात् देवनागरी के पाठ में"अटवीतोऽटवीम्" जैसे शब्दों की पुनरुक्ति की गई है । किन्तु दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में एक ही बार "अटवीतोऽटवीम्" जैसे शब्दों सुनाई पडते है । अतः कहना होगा कि यहाँ पर देवनागरी का पाठ प्रक्षिप्तांश युक्त है, जो पश्चाद्वर्ती काल की प्रवृत्ति है ।। तथा दाक्षिणात्य वाचना के "नर-मांस-लोलुपस्य" शब्दों के प्रतिपक्ष में देवनागरी पाठ में "नर-नासिका-लोलुपस्य" ऐसा पाठभेद करके विदूषक की हास्यकारिता बढाई गई है । ) (3) तीसरे अंक के आरम्भ में, (क) शिष्य की उक्ति है कि, तर्हि यत्नादुपक्रम्यताम् । सा हि कुलपतेः कण्वस्यो-च्छ्वसितम् । दाक्षिणात्य वाचना की उक्ति से कुछ विस्तृत पाठ देवनागरी में मिलता है । जैसे कि, "तर्हि त्वरितं गम्यताम् । सखि, सा खलु भगवतः कण्वस्य कुलपतेरुच्छ्वसितम् ।" यहाँ कण्व के लिए "कुलपतेः" के साथ में "भगवतः" जैसा एक अधिक विशेषण भी लगाया गया है ।। (ख) इसी अंक में आगे चल कर, ( दाक्षिणात्य वाचना में ) दोनों सखिओं की संयुक्त उक्ति है :"अतः एव निर्बन्धः । संविभक्तं खलु दुःखं सह्यवेदनं भवति ।" किन्तु देवनागरी वाचना में, "अत एव खलु निर्बन्धः । स्निग्धजनसंविभक्तं हि दुःखं सह्यवेदनं भवति ।" ऐसा विस्तृत पाठ मिल रहा है।। (ग) इस तरह शकुन्तला की उक्ति है :"तद्यदि वाम् अनुमतं तथा वर्तेथां यथा तस्य राजर्षे-रनुकम्पनीया भवामि । अथवा प्रसिञ्चत मे उदकम्" । यह दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है । उनके प्रतिपक्ष में देवनागरी वाचना में "0 अन्यथा सिञ्चतं मे तिलोदकम्" ऐसा परिष्कृत पाठ उपलब्ध होता है ।। (4) चतुर्थांक में, कन्याविदाय के प्रसंग में कण्व की उक्ति है :"वत्से, त्वमिदानीम् अनुशासनीयासि । वनौकसोऽपि सन्तो लोकज्ञा वयम् ।" यहाँ दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में हलका सा परिवर्तन करके देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने "0 वनौकसोऽपि सन्तो लौकिकज्ञा वयम् ।" ऐसा सरलीकृत पाठ आकारित किया है । तथा सूक्ष्मता से सोचने पर मालूम होता है किवनौकस शब्द के साथ लोकज्ञ शब्द ही समुचित है ।। (5) षष्ठांक के धीवर-प्रसंग में, द्वितीय रक्षक की उक्ति है :"एषोऽस्माकं स्वामी गृहीत्वा राजशासनम् इतोमुखं पश्यति । ततस्त्वं गृध्रबलिर्भविष्यसि ।" । यह दाक्षिणात्य पाठ है । जिसका विस्तार करके देवनागरी वाचना में "0 ततस्त्वं गृध्रबलिर्भविष्यसि, शुनः मुखं वा द्रक्ष्यसि ।" ऐसा पाठ दिया गया है ।। स्थालिपुलाक न्याय से दिये गये इन उदाहरणों से ऐसा इङ्गित हो रहा है कि दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने इस नाटक का जो संक्षिप्त पाठ पहले बनाया होगा, उनमें कुत्रचित् छोटे छोटे नवीन अंश दाखिल करके देवनागरी वाचना का पाठ कालान्तर में तैयार किया गया है, बल्कि तथाकथित रूप से परिष्कृत किया गया है । क्योंकि पाठालोचना का एक अधिनियम ऐसा है कि जिस कृति का सीधा सहज लघुपाठ होता हैउसकी अपेक्षा से अलंकृत एवं बृहत्पाठ उत्तरवर्ती काल का होता है । उपर्युक्त उदाहरणों में जैसा दिख रहा है वैसे देवनागरी वाचना का पाठ नवीन प्रक्षिप्तांशों से भरा है, तथा उसमें कहीं कहीं अधिकविस्तार के साथ सरलीकृत या विशदीकृत अथवा संक्षिप्ततर पाठ भी दिया गया है । इस दृष्टि से, वर्तमान में प्रचलित देवनागरी वाचना का पाठ उत्तरवर्ती काल का सिद्ध होता है । तथा उससे पुरोगामी पाठ के रूप में दाक्षिणात्य वाचना का पाठ सिद्ध होता है ।। [ 3] अब हम अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की श्लोक-संख्या के बिन्दु को लेकर उपर्युक्त दोनों वाचनाओं के पौर्वापर्य को निश्चित करना चाहेंगे । दाक्षिणात्य वाचना में 193 श्लोक हैं । उसके प्रतिपक्ष में, याने देवनागरी वाचना के पाठ में, ( जिस पर राघवभट्ट ने टीका लिखी है, उसमें ) 191 श्लोक का समावेश किया गया है । यहाँ किस किस श्लोक को लेकर असमानता है वह परीक्षणीय है :-- (1) प्रथम अंक में वैखानस के मुख में, "न खलु न खलु बाणः संनिपात्योऽयमस्मिन्0" । यह श्लोक रखा गया है । यद्यपि इस श्लोक पर, दाक्षिणात्य टीकाकारों में पहले और सुप्रसिद्ध टीकाकार काटयवेम (15वीं शती) एवं देवनागरी वाचना पर टीका लिखनेवाले प्रमुख टीकाकार राघव भट्ट (16वीं शती) ने टीका नहीं लिखी है । तथापि दाक्षिणात्य वाचना पर टीका लिखनेवाले अन्य टीकाकारों में से चर्चाकार एवं अभिराम ने भी इस श्लोक पर टीका नहीं लिखी है । किन्तु श्रीनिवासाचार्य एवं घनश्याम ने तो इस श्लोक पर टीका लिखी है । इन में से श्रीनिवास तो यह भी जानते है कि प्रकृत श्लोक में पुष्पराशौ के स्थान में तूलराशौ ऐसा पाठान्तर भी चल रहा है । तथा घनश्याम ऐसा भी बताते है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त है ऐसा भी कोई कहता है । याने दाक्षिणात्य वाचना की पुरानी पाठ परम्परा में यह श्लोक समाविष्ट ही नहीं था । केवल उत्तरवर्ती काल में हीइसको स्वीकारा गया है ।। (2) षष्ठांक के आरम्भ में दो उद्यानपालिकाएँ आती है । उनमें से परभृतिका नामक प्रथमा के मुख में एक आर्या रखी हैः—आताम्रहरितपाण्डुर0 । जिस पर राघव भट्ट ने टीका लिखी है । अर्थात् देवनागरी वाचना में यही आर्या प्रचलित है । किन्तु दाक्षिणात्य वाचना के प्रथम टीकाकार काटयवेम ने इसके स्थान पर दूसरे ही शब्दोंवाली आर्या दी हैः—चूतं हर्षित-पिककं जीवितसदृशं0 । चर्चा टीका के अज्ञात टीकाकार ने काटयवेम से विरुद्ध देवनागरी वाचना के पाठवाली आर्या पर टीका लिखी है । अभिराम एवं श्रीनिवास ने भी "आताम्रहरितपाण्डुर0" पाठ को ही माना है । केवल घनश्याम ने काटयवेम की परम्परा का अनुसरण करते हुए "चूतं हर्षित-पिककं जीवितसदृशं0" वाली आर्या पर टीका लिखी है । लगता है कि दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने उसको दाखिल की होगी, किन्तु दक्षिण में उसका सार्वत्रिक रूप से स्वीकार नहीं हुआ था ।। (3) सप्तमांक के अन्त भाग में, दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में, ( भरतवाक्य से पहले ) एक श्लोक आता हैः-- "तव भवतु बिडौजाः0 " । काटयवेम, अभिराम, श्रीनिवास एवं घनश्याम ने इस श्लोक पर टीका लिखी है । ( सप्तमांक पर चर्चा टीका नहीं मिलती है । ) याने दाक्षिणात्य वाचना में यह श्लोक सर्वमान्य बना है । किन्तु देवनागरी वाचना के पाठ में राघव भट्ट के द्वारा इस श्लोक पर टीका नहीं लिखी गई है ।। इस समग्र चर्चा का सारांश यही निकलता है कि, उपर्युक्त तीन श्लोकों में से पहले और तीसरे श्लोकों को गिनती में लेते हैं तो दाक्षिणात्य वाचना में कुल 193 श्लोकों का समावेश हुआ है । इसकी अपेक्षा से देवनागरी वाचना में 191 श्लोक है, क्योंकि उसमें "न खलु न खलु बाणः संनिपात्योऽयम्0" एवं "तव भवतु बिडौजाः0" । जैसे दो श्लोकों को हटाये गये हैं । अतः श्लोक-संख्या के सन्दर्भ में दाक्षिणात्य वाचना की अपेक्षा सेदेवनागरी वाचना का पाठ संक्षिप्ततर है, जो उत्तरवर्ती काल में तैयार की गई है ।। [ 4 ] देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने उपरि निर्दिष्ट दो श्लोकों को ज्यादा निकाल देने के साथ साथ, अन्यत्र भी कुछ कुछ स्थानों पर से छोटे छोटे गद्य वाक्यों को भी हटा दिये हैं । जिसके आधार पर भी कह सकते है कि देवनागरी वाचना का पाठ संक्षिप्ततर बनाया गया है । ऐसा करने से अनेक स्थानों पर प्रस्तूयमान दृश्य की नाटकीयता में विक्षेप भी पैदा होता है, जिसकी ओर विद्वज्जगत् का शायद ध्यान ही नहीं गया है । उदाहरण के रूप में कहे तो, (1) प्रथमांक में, भ्रमरबाधा-प्रसंग में ( दाक्षिणात्य वाचनानुसारी पाठ में ) राजा ने चलापाङ्गां दृष्टिं0 । श्लोक से भ्रमर-आक्रान्ता शकुन्तला का वर्णन किया है । उसके बाद शकुन्तला की उक्ति से आरम्भ करके जो संवादशृङ्खला है वह निम्नोक्त है :-- शकुन्तला– सख्यौ, परित्रायेथां परित्रायेथामिमामनेन दुर्विनीतेन मधुकरेणाभिभूयमानां माम् । उभे– ( सस्मितम् ) का वयं परित्रातुम् । दुष्यन्तमाक्रन्द । राजरक्षणीयानि तपोवनानि नाम ।। इससे कुछ भिन्न योजना देवनागरी वाचना के पाठ में दिख रही है। जैसे कि, शकुन्तला– न एष दुष्टो विरमति । अन्यतो गमिष्यामि । कथमितोप्यागच्छति । हला, परित्रायेथां मामनेन दुर्विनीतेन दुष्टमधुकरेण परिभूयमानाम् । उभे– ( सस्मितम् ) का आवां परित्रातुम् । दुष्यन्तम् आक्रन्द । राजरक्षितव्यानि तपोवनानि नाम ।। इन दोनों में प्रथम दृष्टि में कोई अन्तर नहीं दिख रहा है । किन्तु प्रस्तुत नाटक में तीनों सहेलियों की समरसता ( तादात्म्य ) इतनी सुदृढ थी कि जब शकुन्तला पर भ्रमर का भयजनक परिभ्रमण शुरू होवे उसी क्षण अन्य दोनों सहेलियाँ उसको साहाय्य करने सद्यः सक्रिय होयी जायेगी ।अथवा किसी भी तरह की आपत्ति आ जाने पर शकुन्तला तुरंत अपनी दोनों सहेलियों को ही पहले साहाय्य के लिए पुकारेगी । इस दृष्टि से देखेंगे तो दाक्षिणात्य पाठ में ही अपेक्षित योजना सुरक्षित है ।इस तरह का कृतिनिष्ठ औचित्य देवनागरी वाचना के उपर्युक्त पाठ में नहीं है । क्योंकि, देवनागरी पाठ में तो शकुन्तला पहले अपने आप ही अकेली भ्रमर का सामना करने लगती है । वह पहले से ही साहाय्य के लिए अपनी सहेलियों को नहीं पुकारती है, जो तीनों के तादात्म्य को देखते हुए अस्वाभाविक लगता है ।। (2) द्वितीय अंक में, राजा ने जब मृगया-कर्म में एक दिन का विश्राम घोषित करके सेनापति को वहाँ से रवाना कर दिया तब विदूषक राजा को "चिरं जीव" होने का आशीर्वाद देकर वहाँ से चले जाने का उपक्रम करता है । राजा ने उसको रोक लिया । उसको कहा कि मेरा वाक्य अभी पूरा नहीं हुआ है । विदूषक ने कहा कि आज्ञा दीजिए । यहाँ दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में, निम्नोक्त उक्तियाँ है :--- राजा– विश्रान्तेन भवता ममान्यस्मिन्नायासे कर्मणि सहायेन भवितव्यम् । विदूषकः– किं मोदकखण्डनेषु । राजा– यत्र वक्ष्यामि । विदूषकः– गृहीतः क्षणः । राजा– कः कोऽत्र भोः । इसके विरुद्ध देवनागरी वाचना में कुछ संक्षेप करके यही संवाद-शृङ्खला निम्नोक्त रीति से रखी गई है :-- राजा– विश्रान्तेन भवता ममाप्यनायासे कर्मणि सहायेन भवितव्यम् । विदूषकः– किं मोदकखण्डिकायाम् । तेन ह्ययं सुगृहीतः क्षणः । राजा– यत्र वक्ष्यामि । कः कोऽत्र भोः । इसमें हम देख सकते हैं कि राजा और विदूषक की दो दो उक्तियाँ, जो पृथक् पृथक् रूप से गिनती की जाय तो, ( दाक्षिणात्य वाचना में ) चार वाक्यों में रखी गई थी हैं, उसके स्थान में देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने संमिश्रित दो वाक्यों में ही रंगमंच पर प्रस्तुत करने की योजना बनाई है । मंचनलक्षिता की दृष्टि से यह योजना संक्षेपसाधक जरूर है, परन्तु नाटकीयता की घातक ही है ।। [ 5 ] उपर्युक्त परामर्श में प्रस्तुत किये गये प्रमाणों के आधार पर हम अनुमान कर सकते हैं कि लघुपाठवाली दो वाचनाओं में सेदाक्षिणात्य वाचना कालानुक्रम में पहले आकारित की गई होगी । तथा जो संक्षिप्ततर है वह देवनागरी वाचना सब से अन्त में तैयार की गई होगी ।इन दोनों का इस तरह का पौर्वापर्य निश्चित होने पर, इस नाटक का जो लघुपाठ प्रचलन में आया है, (जिसको हम एक रंगावृत्ति का पाठ कह सकते है ) उसके संग्रथन में दाक्षिणात्य वाचना का मुख्य रूप से क्या क्या योगदान है ? वह भी परिगणित करना होगा :-- (1) काश्मीरी वाचना में इस नाटक का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तला" था । ( मतलब कि अभिज्ञान-पूर्विका शकुन्तला जिसमें निरूपित की गई है ) । इसको परिवर्तित करके बंगाली वाचना के विद्वान् पाठशोधकों ने "अभिज्ञानशकुन्तलम्" बनाया था , उस शीर्षक को दाक्षिणात्य पाठशोधकों ने "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" के रूप में परिवर्तित किया है । अर्थात् इस नाटक के प्रतिपाद्य वस्तु में शकुन्तला के पुत्र ( शाकुन्तल ) के अभिज्ञान को महत्त्व दिया गया है । ( इस नाटक का संज्ञान विभिन्न कालखण्ड में अलग अलग रूप से होता रहा है, इसका यह प्रमाण है । ) (2) बंगाली वाचना में 222 श्लोकों का समावेश हुआ है, इस बृहत्तम पाठ में से दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने 191 श्लोकोंवाला पाठ सम्पादित किया है । (3) इस भारी कटौती का केन्द्रीभूत स्थान गान्धर्व-विवाह को वर्णित करनेवाला तृतीयांक है । इस 41 श्लोकोंवाले तृतीयांक में से दो दृश्यों की कटौती करके के 24 श्लोकोंवाला अंक बनाया गया है । तथा हटाये गये दो दृश्यों में (क) दुष्यन्त शकुन्तला के हाथ में मृणाल-वलय पहनाता है, तथा (ख) पुष्परज से कलुषित हुए शकुन्तला के नेत्र को दुष्यन्त अपने वदनमारुत से प्रमार्जित कर देता है इनका समावेश होता है । (4) पञ्चमांक के आरम्भ में, दृश्यावली का मूल में जो क्रम था उसको भी दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने बदल दिया है । जैसे कि, हंसपदिका-गीत से पञ्चमांक का आरम्भ होता है, तत्पश्चात् कञ्चुकी का प्रवेश एवं वैतालिकों का श्लोकगान रखा गया है । इस परिवर्तन के कारण दुष्यन्त को जननान्तर सौहृद याद आ जाने के बाद, वैतालिकों के श्लोकगान से उसकी धर्मबुद्धि को जागृत की जाती है । जिससे वह शकुन्तला का प्रत्याख्यान कर सकता है । (5) समग्र नाटक के प्रारम्भ में, दुष्यन्त को आश्रम-मृग को नहीं मारने के लिएवैखानस के द्वारा चक्रवर्ती पुत्र प्राप्त होने के आशीर्वाद दिये जाते है । दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने इसीको एक पद्य में प्रस्तुत किया है । जैसे कि, जन्म यस्य पुरोर्वंशे युक्तरूपमिदं तव । पुत्रमेवं गुणोपेतं चक्रवर्तिनमवाप्नुहि ।। इस श्लोक का देवनागरी वाचना में भी स्वीकार हुआ है । तथा रंगमंच पर वैखानस, जो दो शिष्यों के साथ आया है, उन दोनों के द्वारा इसी आशीर्वचन का पुनरुच्चारण किया जाता है । इस प्रकार से पूरा दृश्य नाटकीय स्वरूप धारण करता है । इस योजना से दोनों शिष्यों का रंगमंच पर आना अब सार्थक बनता है । यदि बृहत्पाठवाली काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में देखते है तो उसमें आशीर्वादात्मक पूर्वोक्त श्लोक नहीं है । ( जिसमें रंगमंच पर शिष्य का आना निर्थक ही लगता है । ) अतः यह प्रसंगोचित श्लोक का प्रक्षेप करने का यश दाक्षिणात्य वाचना को देना होगा ।। इसी तरह से मूल नाटक के तृतीयांक के पाठ में से पूर्वोक्त दो दृश्यों की कटौती करने के बाद, दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने कथाप्रवाह का पुनः सन्धान करने के लिएएक दूसरे श्लोक का भी प्रणयन किया है । वह है :- अपरिक्षतकोमलस्य यावत्कुसुमस्य नवस्य षट्पदेन । अधरस्य पिपासता मया ते सदयं सुन्दरि गृह्यते रसोऽस्य ।। इसका स्वीकार देवनागरी वाचना में भी किया गया है, जो अन्य किसी भी वाचना में नहीं मिलता है ।। (6) षष्ठांक के आरम्भ में, दो उद्यानपालिकायें कामदेवार्चन करने के लिए आम्रमंजरी का अवलोकन करते हुए एक आर्या का गान करती है :-- आताम्रहरितपाण्डुर जीवित सत्यं वसन्तमासस्य । दृष्टोऽसि चूतकोरक ऋतुमंगल त्वां प्रसादयामि ।। (6-2) यह आर्या सभी वाचनाओं में एक समान रूप से मिलती है । किन्तु केवल दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने एक सर्वथा नवीन आर्या बनाई गई है :-- चूतं हर्षितपिककं जीवितसदृशं वसन्तमासस्य । षट्चरणचरणभग्नमृतुमंगलमिव पश्यामि ।। यहाँ अनुमान करने का मन होता है कि इस नवीन आर्या का गान दूसरे ही आलापादि के साथ होता होगा । ( दक्षिण के मंचन सम्बन्धी संगीतप्रयोगों की जानकारी मिलने पर ही यहाँ कुछ अधिक प्रकाश डाला जा सकता है । ) (7) पुरोगामी तीन वाचनाओं में राजा की दासी मेधाविनी था एवं रानी वसुमती की दासी पिंगलिका था । ये दोनों नाम कालान्तर में परिवर्तित होते गये हैं । बंगाली वाचना में मेधाविनी के स्थान पर चतुरिका नाम लाया गया है । वहाँ पिंगलिका नाम यथावत् बना रहा है । किन्तु दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने इस दूसरे नाम के स्थान पर तरलिका नाम कल्पित कर लिया है । जिसका अनुसरण देवनागरी पाठ में भी हुआ है ।। (8) इसी तरह से, प्रथम बार दाक्षिणात्य वाचना ने ही राजा, जो संस्कृत भाषा में बोलनेवाला पात्र है, उसके मुख में विदूषक का नाम "माधव्य" नहीं, किन्तु "माढव्य" दाखिल कर दिया है ।। इस तरह से कालिदास के मूल नाटक की लघुपाठ परम्परा जहाँ से शुरू हुई है ऐसी दो वाचनाओं में से दाक्षिणात्य वाचना का क्रम पहला है । तथा उसको ही इस नाटक के बृहत्पाठ को रंगावृत्ति में परिवर्तित करने का यश देना चाहिए । एवमेव, उस संक्षिप्त किये पाठ को संक्षिप्ततर,विशदीकृत एवं परिष्कृत करने के आशय से पुनरपि सम्पादित करने का कार्य देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने किया है ।। [ 6 ] दक्षिण भारत में इस नाटक के पाठ को जो संक्षिप्त करके सम्पादित किया गया उसे दाक्षिणात्य वाचना कही जाती है । यद्यपि इस तरह का संक्षेपीकरण करनेवाले पाठशोधक का नाम हमारे लिए अज्ञात ही है, तथापि उसका समय 13वीं शती के आसपास का होगा ऐसा हम अनुमान कर सकते है । क्योंकि तेरहवी शती के दक्षिणावर्तनाथ ने इस संक्षिप्त पाठ पर ही अपनी टीका लिखी है । यह टीका अद्यावधि अप्रकाशित रही है । काटयवेम ने इस लघुपाठ पर जो कुमारगिरिराजीया टीका लिखी है उसका समय 15वीं शती है । इस टीकाकार के द्वारा स्वीकृत लघुपाठ को हम दाक्षिणात्य वाचना का पाठ कहते है, क्योंकि दक्षिण भारत की ग्रन्थ, तेलुगु, नन्दीनागरी, तमिळ, मळयाळम जैसी लिपियों में लिखी गई पाण्डुलिपियाँ एकत्र करके किसी विद्वान् ने उसकी समीक्षित आवृत्ति अद्यावधि बनाई नहीं है । अतः इसके अभाव में, दक्षिण भारत के टीकाकारों में प्रतिबिम्बित दाक्षिणात्य वाचना का अभ्यास करके इसमेंजो मुख्य मुख्य परिवर्तन किये गये हैं, उन सब का परिगणन उपरि भाग में किया गया है । इस तरह का लघुपाठ मंचन की दृष्टि से आकर्षक भी सिद्ध हुआ हैं, और देवनागरी वाचना तैयार करनेवाले पाठशोधकों के लिए अनुकरणीय भी बना है । किन्तु कालान्तर मेंदेवनागरी वाचना ने जब दाक्षिणात्य वाचना का अनुसरण किया तब पाठशोधकों ने अपने लघुपाठ में न केवल छोटे छोटे नये परिवर्तन ही किये हैं, उन लोगों ने कुत्रचित् दाक्षिणात्य वाचना को आदर्श न बना कर, काश्मीरी-आदि पुरोगामी वाचनाओं में से भी यथेच्छ अमुक अमुक पाठान्तरों का ग्रहण भी किया है । दाक्षिणात्य वाचना को बनानेवालों ने भी नाटक के पाठ को केवल संक्षिप्त करने का ही कार्य किया था ऐसा भी नहीं है । उन लोगों ने भी पुरोगामी काश्मीर-आदि बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में से ही यथेच्छ रूप से अमुक अमुक पाठान्तरों का स्वीकार किया हैं । अतः हमारे लिए अब यह परीक्षणीय बनता है कि दाक्षिणात्य एवं देवनागरी के पाठों की तुलना करने पर इन दोनों में ग्राह्य रखे गयें पाठान्तरों में क्या अन्तर है ? मतलब कि ऐसा भी नहीं है कि देवनागरी वाचना को तैयार करनेवालों ने दाक्षिणात्य वाचना के लघुपाठ को सर्वांश में ग्राह्य रखा है । देवनागरी के पाठशोधकों ने दाक्षिणात्य पाठ को पूर्ण रूप से अनुकरण नहीं किया है । श्री रेवाप्रसाद जी ने जो कहा है कि ये दोनों वाचनाओं का पाठ प्रायः 90 प्रतिशत आपस में मिलता-जुलता है, वह सही निरीक्षण है । किन्तु जो 10 प्रतिशत भी दोनों में भेद है, उसकी तुलनात्मक समीक्षा करके यह निश्चित करना चाहिए कि इन दो वाचनाओं के पाठान्तरों में जो वैषम्य है, उसमें कितने पाठान्तर कहाँ से लिए गये हैं, अथवा उन लोगों ने स्वतन्त्र रूप से कुछ नवीन पाठान्तरों की उद्भावना भी की है ।। निम्नोक्त उदाहरणों का अभ्यास करने से मालूम होगा कि किस वाचना ने कहाँ से अमुक पाठान्तर लिया है, और वे कौन से नवीन पाठान्तर है जो अमुक वाचना ने ही सब से पहले दाखिल किये हैं:-- (1) अभिज्ञानशाकुन्तल के नान्दी-पद्य में, दाक्षिणात्य वाचना के पाठानुसार "यामाहुः सर्वभूत-प्रकृति-रिति" ऐसा पाठ मिलता है । यदि अन्य चारों वाचनाओं में देखा जाय तो सर्वत्र "यामाहुः सर्वबीज-प्रकृतिरिति" ऐसा पाठ चल रहा है । मतलब कि यह "0सर्वभूतप्रकृति0" वाला पाठभेद दाक्षिणात्य परम्परा में ही आकारित हुआ है ।। इसी नान्दी-पद्य के चतुर्थ चरण में "प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु"शब्दों में "प्रपन्न" को रखनेवाली वाचना भी दाक्षिणात्य ही है । क्योंकि जो बृहत्पाठवाली तीन पुरोगामी वाचनाएँ हैं उनमें तो "प्रत्यक्षाभिः प्रसन्नः" ऐसा ही पाठ प्रचलन में रहा है । ( यहाँ विशेष रूप से उलेल्खनीय एक बात यह है कि दक्षिणावर्तनाथ की जो अप्रकाशित टीका है उसमें तो "प्रसन्नः" पाठ मान कर ही व्याख्या की गई है । ) (2) नान्दी-पद्य के बाद सूत्रधार की एक उक्ति है :"आर्ये, अभिरूपभूयिष्ठा परिषदियम् । कालिदास-ग्रथित-वस्तुना नवेन नाटकेनोपस्थातव्यमस्माभिः । तत्प्रतिपात्रमाधीयतां यत्नः ।।"इसमें नाट्यकृति का क्या नाम है ( उसका शीर्षक क्या है ) ? वह कण्ठतः उच्चरित नहीं है । वह तो नटी की प्राकृत-उक्ति में प्रस्तुत होता है :"णं अज्जमिस्सेहिं पढमं एव्व आणत्तं अहिण्णाणसाउन्दलं णाम णाडअं पओएण अलंकीअदु त्ति ।"यह काटयवेम ने स्वीकारा हुआ दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है । जो पाठ काश्मीरी वाचना की शारदा पाण्डुलिपिओं में मिल रहा पाठ है । अर्थात् सूत्रधार के मुख से नाट्यकृति का नाम प्रस्तुत नहीं करने की, तथा सूत्रधार को "आर्यमिश्र" कहने की काश्मीरी पाठपरम्परा को उठा कर दक्षिण भारत के पाठशोधकों ने अपने वहाँ स्वीकार लिया है ।किन्तु देवनागरी वाचना के पाठ को जब तैयार किया गया होगा तब उन लोगों ने मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में जैसे नाट्यकृति का नामोल्लेख किया गया है वैसे ही अपनी ( याने देवनागरी में ) वाचना में भी नाटक का शीर्षक प्रस्तुत कर दिया है । अलबत्त, उस समय देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने "अभिज्ञानशकुन्तलम्" नहीं दिया, किन्तु दाक्षिणात्य वाचनानुसारी "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" ऐसा दिया है । इस तरह देवनागरी का पाठ संमिश्रित हुआ है उसका पहला प्रमाण मिलता है ।। (3) आश्रम-मृग को नहीं मारने के लिए राजा दुष्यन्त को चक्रवर्ती पुत्र प्राप्त होने के जब वैखानस द्वारा आशीर्वचन दिये जाते है तब राजा ने उसके प्रतिभाव में प्रणामपूर्वक कहा कि "प्रतिगृहीतं ब्राह्मणवचनम्" । इस दाक्षिणात्य वाचना के पाठ का मूल कहाँ है ? तो प्राचीनतम काश्मीरी वाचना में "प्रतिगृहीतं तपोधनवचनम्"ऐसा पाठ मिल रहा है । मैथिली वाचना में, "गृहीतं ब्राह्मणवचनमस्माभिः" लिखा है, तथा बंगाली वाचना में "प्रतिगृहीतं ब्राह्मणवचः" कहा है । इन तीनों तरह के पाठान्तरों के देखने से अब निश्चित होगा कि दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने प्रकृत पाठ मैथिली और बंगाली पाठों का अनुसरण करते हुए लिखा है । परन्तु इसी सन्दर्भ में जब देवनागरी पाठ को देखते हैं तो वहाँ "प्रतिगृहीतम्" इतना एक ही शब्द रखा गया है । इसमें तपोधनवचन या ब्राह्मणवचन का निर्देश नही है । यह नया (संक्षिप्ततर) पाठान्तर देवनागरी की देन है ।। (4) जलसिंचन कर रही सहेलियाँ आपस में बातें कर रही हैं । वहाँ शकुन्तला की उक्ति है :"अनसूये, अदयपिनद्धेन स्तनवल्कलेन प्रियंवदया दृढं नियन्त्रितास्मि । शिथिलय तावदिमम् ।" यह दाक्षिणात्य पाठ है । लेकिन अन्य सभी वाचनाओं में "अनसूये, अतिपिनद्धेन0" ऐसा पाठान्तर मिलता है । मतलब कि दाक्षिणात्य वाचना ने यहाँ एक नये पाठभेद को जन्म दिया है । तथा देवनागरी पाठ ने यहाँ दाक्षिणात्य का अनुसरण नहीं किया है, बल्कि काश्मरी-आदि अन्य तीन बृहत्पाठवाली वाचनाओं का अनुसरण किया है ।। (5) भ्रमरबाधा प्रसंग में दुष्यन्त जब तीनों कखिओं के सामने प्रकट होता है तब अनसूया की उक्ति हैः- "आर्य, न खलु किंचिदत्याहितम् । इयं नः प्रियसखी मधुकरेण आकुलीक्रियमाणा कातरीभूता ।" यह दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है । एवमेव, अन्य काश्मीरी-आदि बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में भी वही पाठ है । किन्तु जो लघुपाठवाली देवनागरी वाचना है, केवल उसमें "आकुलीक्रियमाणा" के स्थान में "अभिभूयमाना" ऐसा नया पाठान्तर पेश किया गया है ।। (6) शकुन्तला की दोनों सहेलियों ने राजा का परिचय प्राप्त करने के लिए ( दाक्षिणात्य वाचनानुसार ) तीन प्रश्न किये है :"कतम आर्येण राजर्षिवंशोऽलंक्रियते । कतमो वा विरहपर्युत्सजनः कृतो देशः । किं निमित्तं वा सुकुमारोऽपि तपोवनपरिश्रमस्यात्मा पात्रतामुपनीतः ।"इसके विरोध में काश्मीरी वाचना का पाठ देखा जाय तो "कतमं पुनरार्यो वर्णम् अलंकरोति । किं निमित्तं वा सुकुमारेण आर्येण तपोवनगमन-परिश्रमस्यात्मा पात्रीकृतः ।" इस में केवल दो ही प्रश्न किये गये हैं । किन्तु मैथिली वाचना में तीन प्रश्न प्रस्तुत किये जाते हैं :"कदरो उण वण्णो अज्जेण अलंकरीअदि । कदमो वा पदेसो विरहपज्जुसुओ करीअदि । किंनिमित्तं अज्जेण कुसुमसुउमारेण अप्पा तवोवणपरिस्समस्स उअणीदो ।" यहाँ राजा दुष्यन्त ने किस प्रदेश के लोगों को विरहपर्युत्सुक किये हैं, अर्थात् राजा किस देश से पधारे हैं ? यह एक प्रश्न अधिक है ।। बंगाली वाचना के पाठशोधकों नें भी मैथिली का अनुसरण करते हुए तीन प्रश्न प्रस्तुत किये हैं । किन्तु उन्होंने "वर्ण" शब्द को बदल कर, "राजर्षिवंश" शब्द रख दिया है । ( इस तरह तीन प्रश्न प्रस्तुत करने की पाठपरम्परा दाक्षिणात्य और देवनागरी दोनों ने समान रूप से अनुसृत की है । तथा इन दोनों ने बंगाली वाचना का अनुसरण करते हुए "वर्ण" शब्द के स्थान पर, "राजर्षिवंश" शब्द स्वीकार लिया है । ) किन्तु तर्कदृष्टि से सोचा जाय तो दोनों सहेलियाँ ने प्रथम क्षण में ही कैसे जान लिया कि यह व्यक्ति किसी राजर्षिवंश का ही है ? क्योंकि सखियों ने दुष्यन्त के साथ बैठ कर बातचीत अभी अभी शुरू ही की है, और शकुन्तला को जलपूर्ण दो घटों के ऋण से मुक्त करते समय राजा ने अपने आपको छिपाने के लिए जो "राज्ञः परिग्रहोऽयम्" कहा है, वह प्रसंग तो बहुत पीछे आनेवाला है । इस उक्ति को देख कर लगता है कि प्रकरण-संगति को देखते हुए काश्मीरी एवं मैथिली का "वर्ण" शब्दवाला पाठ ही मौलिक प्रतीत होता है । यहाँ बंगाली वाचना ने किया ( "राजर्षिवंश" ) पाठभेद अमौलिक सिद्ध होता है । तथा इसके ही अनुसन्धान में कहना होगा कि मैथिली वाचना ने दाखिल किया तीसरा प्रश्न ( कतमो वा विरहपर्युत्सजनः कृतो देशः ) भी अमौलिक हो सकता है ।। (7) द्वितीयांक के प्रारम्भ में, विदूषक की उक्ति है :"एष बाणासनहस्ताभिः वनपुष्पमालाधारिणीभिः यवनीभिः परिवृत इत एवागच्छति वयस्यः ।" इस दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में यवनिओं का निर्देश है । जिसका अनुसरण देवनागरी वाचना में भी देखा जा सकता है । ऐसा पाठ काश्मीरी वाचना में से आरम्भ हुआ था, लेकिन बीच में मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं के पाठ में से वह शब्द निकाल दिया गया है । अर्थात् इस स्थान में दाक्षिणात्य वाचना ने काश्मीरी पाठ को स्वीकारा है, और मैथिली-बंगाली पाठ को अग्राह्य माना है ।। (8) विदूषक की प्रथम उक्ति के अन्त भाग में, दाक्षिणात्य तथा देवनागरी वाचनाओं के पाठ में "इति प्रवेशकः" ऐसा घोषित किया गया है । लेकिन काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में ऐसा कोई प्रवेशक होने का उल्लेख नहीं है । मतलब कि दाक्षिणात्य परम्परा में ही सब से पहले विदूषक की उक्ति को प्रवेशक के रूप में प्रस्तुत की गई है ।। (9) गाहन्तां महिषा निपानसलिलम्0 । श्लोक में, केवल दाक्षिणात्य वाचना में ही "वराहततिभिः" ऐसा नवीन पाठभेद प्रस्तुत किया गया है । अन्य चारों वाचनाओं में "वराहपतिभिः" ऐसा ही पाठ चल रहा है । इससे मालूम होता है कि देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने यहाँ दाक्षिणात्य वाचना का अनुसरण नहीं किया है ।। (10) विदूषक ने राजा को "स्त्रीरत्नपरिभाविन्" कहा है । दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचनाओं मेंयही शब्द है । किन्तु मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं के पाठ में राजा को "स्त्रीरत्नपरिभोगिन्" कहा गया है । अतः प्रश्न होता है कि इन दोनों पाठान्तरों में से कौन सा पाठ प्राचीनतम है ?। काश्मीरी वाचना में देखने से मालूम होता है कि उसमें "स्त्रीरत्नपरिभाविन्" शब्द है । अतः दाक्षिणात्य वाचना ने काश्मीरी पाठ का अनुसरण किया है ।। (11) दर्भाङ्कुरेण चरणः क्षत इत्यकाण्डे0 श्लोक को सुन कर विदूषक ने राजा को कहा :"यद्येवं गृहीतपाथेयो भव । कृतं त्वयोपवनं तपोवनमिति पश्यामि ।" यह वाक्य दाक्षिणात्य में भी है और देवनागरी में भी है । किन्तु काश्मीरी वाचना में "भोः गृहीतपाथेयो भवसि । कथं पुनः पुनस्तपोवनगमनमिति प्रेक्षे ।" ऐसा वाक्य है । जिसके अनुसन्धान में राजा बोलता है कि "सखे, चिन्तय तावत् केनोपायेन पुनराश्रमपदम् गच्छामः" ।( उसके बाद विदूषक चिन्तन करने के लिए रंगमंच पर समाधि लगाता है ) किन्तु मैथिली वाचना ने काश्मीरी वाचना के पाठ को बदल कर, "गृहीतपाथेयो भवान् कृतः तया । अनुरंजितं तपोवनमिति तर्कयामि ।" अब बंगाली वाचना के पाठशोधकों ने कैसा परिवर्तन किया वह भी द्रष्टव्य है :"गृहीतपाथेयः कृतोऽसि तया । तर्हि अनुरक्तं तपोवने त्वम् इति तर्कयामि ।" इस वाक्य का जो अन्तिम परिवर्तन किया गया वह दाक्षिणात्य एवं देवनागरी में उपलब्ध हो रहा है । पाँचों वाचनाओं में कहीं पर भी समानता नहीं है । जिससे यही फलित होता है कि रंगकर्मिओं ने समय समय पर उस वाक्य में परिवर्तन करने की गुंजाईश देखी है, जिसके साथ साथ विदूषक का आङ्गिक भी वैविध्यपूर्ण बनाया गया होगा ।। प्रस्तुत तुलनात्मक अभ्यास को विस्तारभय से यहीं रोक लेते हैं । किन्तु स्थालिपुलाक न्याय से जितना भी कहा गया है वह हमें निम्नोक्त निष्कर्ष की ओर तो ले जाने के लिए पर्याप्त है ।। [ 7] निष्कर्ष: महाकवि कालिदास के इस नाटक का पाठ दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचाओं में जो प्रवहमान हुआ है वह परस्पर में कैसा पौर्वापर्य रखता है, उन दोनों में अपेक्षाकृत प्राचीनतरता किसमें है, और किसमें अमुक पाठान्तर कहाँ से अवतारित किया गया है, तथा किस वाचना के पाठ की मंचन की दृष्टि से उपादेयता अधिक है उसकी चर्चा हमने देखी । प्रस्तुत विमर्श के उपसंहार में जो ध्यातव्य बिन्दुएँ हमारे सामने आ रहे हैं वह इस तरह के हैं :— 1. देवनागरी वाचना के पाठ की अपेक्षा से दाक्षिणात्य वाचना का पाठ प्राचीनतर है । मतलब कि दोनों वाचनाओं के बीच पौर्वापर्य सोचा जाय तो दाक्षिणात्य वाचना के पाठ का संस्करण पहले तैयार हुआ है, और तत्पश्चात् ही ( सब से अन्त में ) देवनागरी वाचना का पाठ संग्रथित किया गया होगा ।। 2. इस नाटक की बृहत्पाठ परम्परा के ( काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में ) प्रचलित पाठ में भारी कटौती करके, उसको लघुपाठ में परिवर्तित करने का ( उसे रंगावृत्ति में परिवर्तित करने का ) यश दाक्षिणात्य वाचना के अज्ञात पाठशोधकों को देना चाहिए ।। 3. इस दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में विशदीकरण, सरलीकरण एवं विस्तारादि का परिष्कार देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने किया है । जिसमें थोडा अधिक पाठ्यांश हटाया गया है । जिसके कारण देवनागरी वाचना का पाठ संक्षिप्ततर बना है ।। 4. तथा देवनागरी वाचना में कुत्रचित् तर्कविरुद्ध पाठ्यांश भी प्रचालित किया गया है । ऐसी विसंगतियों से भरा पाठ ग्राह्य रखने से पहले सोचना चाहिए ।। 5. संक्षिप्तीकरण के आयाम को छोड कर, छोटे छोटे पाठान्तरों को ग्राह्याग्राह्य रखने में दोनों ने समान रूप से काश्मरी पाठ को ग्राह्य रखना पसंद किया है । एवमेव, कदाचित् उन्हों ने मैथिली-बंगाली वाचनाओं के नवीन पाठान्तरों को भी ग्राह्य रखें हैं । फलतः इन दोनों वाचनाओं के पाठ को संमिश्रित किये गये पाठ के रूप में भी पहचानना चाहिए ।। 6. साथ में यह भी कहना होगा कि देवनागरी पाठ की अपेक्षा से दाक्षिणात्य पाठ में कुत्रचित् नाटकीयता अधिकतर प्रतीत हो रही है ।। 7. प्रस्तुत अभ्यास से निकले इस निष्कर्ष से ऐसा भी प्रश्न खडा होता है कि मंचन एवं पठन-पाठन में क्यूं हम अनुत्कृष्ट देवनागरी पाठ को सार्ध-शताब्दि से ढो रहे हैं ??? ------ 8888 ------ सन्दर्भ ग्रन्थों की सूचि (1) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( राघवभट्टकृतार्थद्योतनिकासमेतम् ), सं. नारायण राम । प्रकाशकः राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, दिल्ली, 2006 । ( इसमें देवनागरी वाचना का पाठ है ) (2) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( काटयवेमकृत-कुमारगिरिराजीया-टीकया सहितम् ), प्रका. आन्ध्रप्रदेश संस्कृत अकादेमी, हैदराबाद, 1982 ( इसमें दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है ) (3) अभिज्ञानशकुन्तलम् । सं. रिचार्ड पिशेल, हार्वर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रीज, द्वितीय संस्करण, 1922, ( इसमें बंगाली वाचना का पाठ है ) (4) अभिज्ञानशकुन्तलम् । सं. रमानाथ झा । प्रका. मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, 1957, ( इसमें मैथिली वाचना का पाठ है ) (5) अभिज्ञानशकुन्तलम् । सं. प्रोफे. पी. एन. पाटणकर, शिरालकर एन्ड कुं. पुना, द्वितीय संस्करण, 1902 ( इसमें शुद्धतर देवनागरी वाचना का पाठ पर्स्तुत करने का दावा किया गया है, किन्तु उसमें अनेक स्थानों पर काश्मीरी वाचना के पाठों को संमिश्रित किये हैं । ) (6) अभिज्ञानशकुन्तलम् । सं. डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल, संस्कृत कॉलेज, कोलकाता, 1980 ( इसमें बंगाली वाचना का पाठ है ) (7) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( अभिराम-विरचित-दिङ्मात्रदर्शनव्याख्यायया संभूषितम् ), प्रका. श्रीवाणी विलास मुद्रायन्त्रालयः, श्रीरंगम्, 1917 (8) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( घनश्यामकृत-संजीवनाख्यटिप्पणसमेतम् ), सं. पूनम पंकज रावळ, प्रका. सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदावाद, 1999 (9) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( श्रीनिवासाचार्यकृतटीकया सहितम् ), निर्णय सागर प्रेस, 1966 (10) अभिज्ञानशकुन्तला । ( काश्मीरी वाचना के पाठ का समीक्षित सम्पादन ), सं. वसन्तकुमार भट्ट, ( मुद्रणाधीन – 2015 ) (11) कालिदास ग्रन्थावली । सं. श्रीरेवाप्रसाद द्विवेदी जी, प्रका. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, 1986 (12) नाट्यम्, सम्पादक : श्री राधावल्लभ त्रिपाठी, सागर, अंक – 76, दिसेम्बर, 2014