शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

अभिज्ञानशाकुन्तल में प्रतीकों से व्यक्त होनेवाला नाट्यकार्य

।। अभिज्ञानशाकुन्तल में प्रतीकों से व्यञ्जित होनेवाला नाट्यकार्य ।।
वसन्तकुमार म. भट्ट
निदेशक, भाषासाहित्यभवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद – 380 009
bhattvasant@yahoo.co.in

0 – 1 भूमिकाः- कविओं ने ब्रह्माण्ड के कईं पदार्थों में मानवीय संवेदनाओं और स्वभाव का प्रतिबिम्ब देखा है, अतः वे उसका प्रतीक के रूप में विनियोग करके भी नव-नवीन काव्य-सर्जन करते है । काव्यों में निसर्ग-व्याप्त पदार्थों की विशिष्टतया बूनावट करने से मानवीय संवेदनाओं को अच्छी तरह से वाचा दी जाती है, यह सभी कविओं ने जाना है । लेकिन ऐसा लगता है कि इस विषय में कालिदास का दर्शन कुछ गहेरा है । कालिदास की दृष्टि में, इस ब्रह्माण्ड में मनुष्य और प्रकृति जैसे दो पृथक् पृथक् अस्तित्व नहीं है । कालिदास के लिये तो मनुष्य भी प्रकृति का ही अपृथक् अङ्ग है । इस लिये अभिज्ञानशाकुन्तल में मानवीय प्रेम के आलेखन में प्रकृति न केवल मानवीय संवेदनाओं को उद्दीपित करती है, या न केवल मानवीय संवेदनाओं का प्रतिबिम्ब ग्रहण करती है, किन्तु वह मानवीय प्रेम-प्रसंगो में अपरोक्ष सहभागिता भी दिखाती है । प्रस्तुत नाट्यकृति में आदि से अन्त तक प्रकृति के जो भी विविध पशु, पक्षी एवं पुष्पादि का विनियोग हुआ है, वे सब नाटक की पात्रसृष्टि के अभिन्न अङ्ग है । लेकिन अभिज्ञानशाकुन्तल में हरिण, हंस और कमलादि का प्रतीकों के रूप में भी विनियोग हुआ है । अतः प्रस्तुत आलेख में अभिज्ञानशाकुन्तल (कालिदास, 2006) की प्रतीक-योजना एवं इन से व्यक्त होनेवाले नाट्यकार्य का सर्वाङ्गीण रूप से अवलोकन करना अभीष्ट है ।।
0 – 2 अभिज्ञानशाकुन्तल ने विश्व-नाट्यसाहित्य में प्रथम पङ्क्ति में जो अपना स्थान सुनिश्चित किया है, उसका एक अनुल्लिखित कारण महाकवि कालिदास की अप्रतीम प्रतीक-योजना है । यद्यपि इस नाट्यकृति में प्रयुक्त प्रतीकों को प्राचीन काल से ही परम्परागत टीकाकारों ने पहेचाने थे । जैसे कि घनश्याम ने ‘हरिण’ और ‘भ्रमर’ को अनुक्रम से शकुन्तला एवं दुष्यन्त के प्रतीक के रूप में अवश्य देखे थे (घनश्याम, 1997) । परन्तु इन प्रतीकों का प्रस्तुत कृति में कैसे सातत्यपूर्ण विनियोग हुआ है, और कालिदास ने उसीके द्वारा कौन सा नाट्यकार्य सिद्ध होता हुआ दिखलाया है इसका चिन्तन किसीने किया हो ऐसा ज्ञात नहीं है । आधुनिक काल में कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने दुष्यन्त के लिये प्रयुक्त भ्रमर के प्रतीक को लक्षित करते हुए, दुर्वासा के शाप का हृदयङ्गम प्रयोजन उद्घाटित किया है । किन्तु 1. उन्होंने केवल दुष्यन्त के लिये प्रयुक्त अकेले भ्रमर के ही प्रतीक को लेकर नाटक के मर्म को उद्घाटित करने का मार्ग अपनाया है (Tagore, 1953) । और 2. दुष्यन्त को भ्रमरवृत्तिवाला कहने से उसके चरित में धर्मभीरुता और तत्त्वान्वेषिता कृत्रिम थी यह भी कहना होगा । वस्तुतः दुष्यन्त के सन्दर्भ में कुल मिलाके पाँच बार भ्रमर का उल्लेख होता है । अतः इन पाँचों सन्दर्भों को लेकर भ्रमर की प्रतीकात्मकता पर पुनर्विचार की आवश्यकता है । 3. तथा शकुन्तला को शाप मिलने का कवि ने निर्दिष्ट किया हुआ कारण तो शकुन्तला का प्रतिकुल दैव था । जिसके शमन के लिये पिता कण्व सोमतीर्थ की यात्रा पर पहले से ही चल पडे थे । 4. जैसा कि पहले कहा गया है कालिदास ने तो यहाँ अनेकविध प्रतीकों का गुम्फन किया है । महाकवि ने दुष्यन्त के लिये गज और भ्रमर जैसे प्रतीकों का प्रयोग करने के साथ साथ शकुन्तला के लिये भी हरिणी, कमल और हंस जैसे त्रिविध प्रतीकों का सन्निवेश किया है । अतः इन सभी प्रतीकों को भी ध्यान में लेकर, अभिज्ञानशाकुन्तल के नाट्यकार्य को दुबारा सोचने की अपरिहार्य आवश्यकता लगती है ।
0 – 3 महाकवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक में प्रयुक्त विभिन्न प्रतीकों की चर्चा शूरु करने से पहले इस नाटक की पूर्वनिर्धारित गति क्या है ? यह भी ज्ञातव्य है । सामान्यतः सभी सहृदय पाठक जानते ही है कि दुष्यन्त को चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति होना ही इस नाटक का चरम लक्ष्य है । लेकिन, कालिदास ने प्रथम अङ्क में ही अन्य दो सन्दर्भों में भी नाटक की अन्य गति-विधियों का निर्देश किया है । अतः कवि-निर्दिष्ट कुल त्रिविध गति-निर्देशों के साथ शकुन्तला के लिये प्रयुक्त 1. हरिणी, 2. हंस तथा 3. कमल जैसे त्रिविध प्रतीकों का संयोजन ध्यान में लेना नितान्त आवश्यक है । इस दृष्टि से समीक्षा करने पर अभिज्ञानशाकुन्तल के प्रतीकों से अभिव्यक्त होनेवाला नाट्यकार्य यथार्थ रूप में प्रकट होगा ।।
1 – 1 इस नाटक के आरम्भ में, सूत्रधार के सुझाव पर नटी ने ग्रीष्म-ऋतु का गीत गाया हैः---
"क्षणचुम्बितानि भ्रमरैः सुकुमारकेसरशिखानि ।
अवतंसयन्ति दयमानाः प्रमदाः शिरीषकुसुमानि ।।"
यहाँ कहा गया है कि भ्रमरों के द्वारा एक क्षण के लिये (ही) चुम्बित ( और बाद में त्यक्त ) शिरीषपुष्पों को उसके प्रति दया दिखानेवाली प्रमदायें ( अपने कानों में ) धारण करके अपने आपको सुशोभित करती है । अथवा कहो कि, उन पुष्पों को आभूषणों का गौरव प्रदान करती है । टीकाकार राघवभट्ट कहते है कि यहाँ शिरीषपुष्पों को धारण करनेवाली प्रमदाओं से शकुन्तला का ही निर्देश करना अभीष्ट है । परन्तु यहाँ पर कुछ गम्भीर अर्थ भी छीपा हुआ दिखता है । कालिदास शकुन्तला के लिये आगे चल कर कहनेवाले है कि उसको सुशोभन प्रिय था, तथापि वह वृक्षों के एक पर्ण को भी कदापि नहीं तोडती थी । यहाँ प्रश्न होता है कि तो फिर वह अपने कानों में क्यूँ शिरीषपुष्पों को धारण करती थी ? इस प्रश्न का मार्मिक उत्तर नटी-गीत में दिया गया है । भ्रमर पुष्पों पर एक क्षण के लिये बैठते है और रसपान करके उसको तुरन्त छोड देते है । संसार में जो भी स्त्री के जीवन में ऐसी घटना घटित होती है, उसका विचार शकुन्तला करती है, और उसके चित्त में बेसुमार वेदना होती है । इसी लिये वह ऐसे शिरीष-पुष्पों को अपने कानों में धारण करके उसको सम्मानित करती है । राजर्षि विश्वामित्र ने मेनका को क्षण भर के लिये अपनाया, और तुरन्त ही उसका परित्याग भी कर दिया । लेकिन क्षणिक संयोग से जो संतति पैदा हुई वह थी शकुन्तला । इस तरह, नायिका जो शिरीषपुष्प धारण करती है उसके पीछे छीपी हुई उक्त भावना उसके जन्म की कहानी से जुडी हुई है । कोई भी स्त्री किसी भी पुरुष का क्षणिक प्रेम प्राप्त के, यदि उसके द्वारा परित्यक्त हो जाती है, तो उस स्त्री का जीवन तो निश्चित रूप से करुणाजनक हो ही जाता है । किन्तु उस क्षणिक संयोग से जो संतति पैदा होती है, उसके अभिज्ञान की भी समस्या खडी हो जाती है, जो दुःसाध्य होती है । स्त्रीजीवन में कदाचित् पैदा होनेवाली ऐसी पीडाजनक नियति, जिसको इस नटी-गीत में व्यक्त की गई है उसको दुष्यन्त कब समझता है ? वह हमें देखना है । और, शकुन्तला के पुत्र भरत का "दौष्यन्ति" के रूप में अभिज्ञान कब सिद्ध होता है ? वह भी आनुषंगिक रूप से देखना है । नाटक की गति का यह प्रथम निर्देश नटीगीत में रखा गया है और शीर्षक में आये हुए "अभिज्ञान" शब्द के साथ उसका सम्बन्ध है । महाभारत में वर्णित शकुन्तलोपाख्यान में भी शकुन्तला के पुत्र के अभिज्ञान की ही समस्या केन्द्र में थी । अतः प्रकृत में नटी-गीत का गहेरा मर्म समझना अत्यावश्यक है । इसी सन्दर्भ में, इस नाटक में दुष्यन्त के लिये प्रयुक्त भ्रमर का प्रतीक, एवं नायिका(ओं) के लिये प्रयुक्त शिरीष, आम्रमञ्जरी और कमल जैसे विविध पुष्पों के प्रतीकात्मक निर्देश विचारणीय बन जाते है ।।
1 – 2 प्रथम अंक के आरम्भ में मृगयाविहारी राजा दुष्यन्त का प्रवेश होता है । तब नेपथ्य से आवाज आती है कि 'न हन्तव्यो, न हन्तव्यः, आश्रममृगोSयम्' इति । दुष्यन्त को कहा जाता है कि- तत् साधुकृतसन्धानं प्रतिसंहर सायकम् । आर्तत्राणाय वः शस्त्रम्, न प्रहर्तुमनागसि । ( अ.शा. 1 – 10 ) कण्वमुनि के शिष्यों की यह ध्वनि सूनकर मृगया के लिये निकला राजा दुष्यन्त तुरन्त ही अपने बाण का संहरण कर लेता है । तब उसके प्रतिभाव में मुनिजन राजा को आशीर्वचन देते है कि-
जन्म यस्य पुरोर्वंशे युक्तरूपमिदं तव ।
पुत्रमेवंगुणोपेतं चक्रवर्तिनम् अवाप्नुहि ।। ( अ.शा. 1 – 11 )
पुरुवंश में उत्पन्न हुए आपके लिये यही समुचित है । क्योंकि आप के बाण तो आर्त (दुःखी) व्यक्ति की रक्षा के लिये ही हो सकते है, इनसे कोई निष्पाप व्यक्ति पर आघात नहीं होना चाहिये । और, चूँकि आपने बाण का संहरण कर लिया है, आपको आपके जैसे ही गुणोंवाले चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति हो । इस आशीर्वचन में अभिज्ञान-शाकुन्तल नाटक का चरम लक्ष्य कहा गया है । इस लिये अब हमें देखना है कि समग्र नाटक की गति कैसे पुत्रप्राप्ति पर्यन्त चलती रहती है ? । यहाँ पर, ऋषिकुमारों के कहने पर दुष्यन्त ने बाण का तो संहरण कर लिया था । परन्तु हरिण के पीछे दौडता आ रहा दुष्यन्त प्रथमाङ्क के अन्त तक शकुन्तला का प्रेम जित ही लेता है । उससे मालुम होता है कि महाकवि ने यहाँ हरिण को शकुन्तला के प्रतीक के रूप में रखा है । जैसे जैसे नाटक आगे बढता है वैसे वैसे प्रेक्षकों को स्पष्ट होता जाता है कि नायिका शकुन्तला की जीवनकथा भी इस हरिण के प्रतीक से ही कही जा रही है । एवं आगे जाकर उसी के निमित्त से वह कथा परिणत भी होती है । शिकारी एवं हरिणी के व्यक्तित्व में सहज रूप से ही विसंवाद अन्तर्निहित है । अथवा कहिए कि इन दोनो में भोक्ता-भोग्य भाव दिखाई देता है । किन्तु आदर्श दाम्पत्य जीवन में तो वही स्पृहणीय है कि पति-पत्नी दोनों परस्पर के लिये भोक्ता-भोग्य हो । अतः नाटक में ऐसी आदर्श स्थिति का निर्माण कब होता है वह द्रष्टव्य है । अब प्रेक्षकों का ध्यान उस ओर ही आकृष्ट होगा कि नायक-नायिका के बीच ऐसी समान भूमिका का निर्माण होने के बाद ही दुष्यन्त को पुत्र भरत की प्राप्ति हो । क्योंकि कण्व मुनि के शिष्यों ने जो आशीर्वाद दिये थे वह तो शब्दान्तर से, हरिणी को नहीं मारने की शर्त पर दिये थे । इस तरह नटीगीत से निर्दिष्ट अभिज्ञान की समस्या के साथ जब पुत्रप्राप्ति रूप दुसरा लक्ष्य जुडता है तब अकथित रूप से नायक-नायिका के दाम्पत्य-जीवन की समाधि पहले सिद्ध होना इदं प्रथमतया आवश्यक बन जाता है । प्रेक्षकों के कौतुक का सीलसिला तार्किक दृष्टि से इस क्रम में अभिव्यक्त होना अपेक्षित है ।
अलबत्ता, यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से यह स्पष्ट करना जरूरी है कि महाभारत-प्रोक्त शकुन्तलोपाख्यान ( आदिपर्व – अ. 68 – 69 ) में केवल शकुन्तला-पुत्र भरत के (पैतृक) अभिज्ञान का एक ही प्रश्न था । लेकिन महाकवि कालिदास ने तो प्रस्तुत नाटक में, शकुन्तला के पुत्र के अभिज्ञान की समस्या प्रस्तुत करने के साथ साथ, नायिका शकुन्तला की आभ्यन्तर पहेचान का भी बिन्दु रखा है । एवञ्च, पुत्रप्राप्ति को आश्रममृग का शिकार नहीं करने की शर्त के साथ जोडी गई है । इस लिये शिकारी एवं हरिणी के बीच में जो विसंवादिता है, उसका पहले विगलन होना आवश्यक है । अब नाटक के निर्वहण का क्रम ऐसा निश्चित होता है कि पहले दुष्यन्त को शकुन्तला की सही आन्तरिक पहेचान मिले, और उसके बाद (ही) उसको भरत की "अपने पुत्र" के रूप में पहेचान ( अभिज्ञान ) मिले । तदनन्तर पत्नी सहित के पुत्र की प्राप्ति हो ।।
1 – 3 ऋषिकुमारों ने बताया कि नजदीक में ही कण्वमुनि का आश्रम है, अतः राजा को यदि अन्य कार्यातिपात न हो तो अतिथिसत्कार ग्रहण करने के लिये वे आश्रम में पधारें । यद्यपि कण्वमुनि आश्रम में नहीं है, वे तो शकुन्तला को अतिथिसत्कार के लिये नियुक्त करके, उसी कन्या के प्रतिकूल दैव का शमन करने के लिये सोमतीर्थ की यात्रा पर गये है । इस वाक्य को सूनते ही सभी दर्शकों के मन में तीसरा कौतुकाधान होता है कि शकुन्तला के भाग्य में कौन से दुर्दैव का योग होनेवाला है, जिसके शमन के लिये पिता कण्व सोमतीर्थ की यात्रा पर चल पडे है । और साथ में यह भी जानना आवश्यक बन जाता है कि सोमतीर्थ की यात्रा का अन्त में क्या फल आता है ? क्योंकि नाटक जैसी समयबद्ध कलाकृति में कुछ भी निरर्थक तो नहीं होता है । इस में जो भी कहा जाता है वह साभिप्राय ही होता है । इस सिद्धान्त के अनुसार कण्वमुनि ने अरण्य में परित्यक्त इस अनाथ कन्या का "शकुन्तला" ऐसा जो नाम रखा है वह भी हमारे लिये ध्यानास्पद है । इस नाम का इतिहास ऐसा है कि अप्सरा मेनका ने पुत्री को जन्म देकर, उसको कण्वमुनि के आश्रम के पास निराधार छोड दी । सद्यः प्रसूता इस कन्या को पक्षिओं ने ( शकुन्तों ने ) सुरक्षित रखी और कलरव करके कण्वमुनि को इस पुत्री के पास खींचकर ले आये । अतः पक्षिओं से परिरक्षित देखकर कण्व मुनि ने उस कन्या का नाम "शकुन्तला" रख दिया (अभिज्ञानशकुन्तलम् (मैथिलपाठानुगम् ), 1957) । कण्व मुनि ने शायद ऐसे नामकरण के समय पर ही उसका भावि जान लिया था । यदि यह कन्या पक्षी-सम्बन्ध से "शकुन्तला" नामधारिणी बनी है तो इसी सन्दर्भ में, महाकवि ने उसके जीवन की कहानी बताने के लिये इस नाटक में क्रमशः कोकिल ( परभृतिका ), चक्रवाक- युगल, एवं हंस-मिथुन, तथा ( मृत्तिका )मयूर जैसे पक्षिओं का जो विनियोग किया है – यह ध्यानास्पद बन जाते है । अतः शकुन्तला के भावि में अन्तर्निहित दुर्दैव एवं कण्व की तीर्थयात्रा का फलोदय समझने के लिये विविध पक्षिओं के प्रतीक भी सहायक होंगे ।।
1 – 4 प्रथमाङ्क में ही कवि ने पूरे नाटक का चरमोत्कृष्ट शिखर भी प्रतीकात्मक रूप से कह रखा हैः-- अनसूया की एक उक्ति के द्वारा शकुन्तला के लिये ‘स्वयंवरवधू वनज्योत्स्ना’ और नायक दुष्यन्त के लिये ‘सहकार-वृक्ष’ का प्रतीकात्मक निर्देश किया है । यद्यपि यहाँ स्वयंवरवधू शब्द से इन दोनों के आसन्न(गान्धर्व) विवाह का ही सूचन किया गया है । किन्तु अन्ततोगत्वा तो, सहकारवृक्ष पर आश्रित वनज्योत्स्ना नामक लता के चित्र से एक स्पृहणीय दाम्पत्य जीवन का चिर अभिलषित आदर्श भी अभिव्यक्त हो रहा है, यह भी ध्यानार्ह है ।।
इस तरह से, समग्र नाट्यकृति की गति किस दिशा की ओर उन्मुख की गई है यह जानने के लिये उपर्युक्त सभी सन्दर्भों को स्मरणपथ में रखना है । तथा इन सब के साथ, शकुन्तला के लिये कृति में साद्यन्त प्रयुक्त हरिणी, कमल तथा हंस जैसे त्रिविध प्रतीकों का अभ्यास करना अनिवार्य है । पूर्वोक्त गतिविधियाँ के साथ ही इन प्रतीकों का इतना सहज सुन्दर संयोजन किया गया है कि नाट्यकार्य को आत्मसात् करने के लिये ये महत्त्वपूर्ण भी सिद्ध होते है और अनुपेक्ष्य भी बने रहते है ।।
2 – 0 नाटक के शीर्षक में जो "अभिज्ञान" शब्द रखा गया है उसके साथ सम्बन्ध रखनेवाली गति का जहाँ निर्देश है उस नटी-गीत का पहले विचार करेंगे । नटी-गीत के शब्दों से जो ध्वनि निकलती है उसको यथार्थ रूप में समझने के लिये पूरे नाटक में स्थान स्थान पर जो शिरीषपुष्प, आम्रमञ्जरी एवं कमल जैसे पुष्पों के प्रतीकात्मक निर्देश आते है उसको भी ध्यान में लेना आवश्यक है । और पुष्पों से जुडे भ्रमर के प्रतीक का भी साथ में ही विचार करना होगा ।
2 – 1 प्रस्तावना में रखे गये नटी-गीत का गान हो रहा हो तब तक प्रेक्षागार में कुछ देरी से पहुँचे लोग भी आकर बैठ जाय, एवं उपस्थित सभी प्रेक्षक शान्त होके एकाग्र हो जाय – यही इस गीत का प्राथमिक प्रयोजन लगता है । नाटक में गीत-संगीत का इस दृष्टि से भी उपयोग होता है । लेकिन अभिज्ञानशाकुन्तल में नटी द्वारा प्रस्तुत हुए गीत में केवल श्रुतिमाधुर्य ही ध्यानाकर्षक नहीं है । यहाँ पर शिरीष-पुष्प एवं भ्रमर का एक साथ जो उल्लेख हुआ है उसमें एक गेहरा ध्वनि है । यहाँ केवल भ्रमर शब्द को देख कर, इससे दुष्यन्त का सूचन होता है ऐसा कोई साहसिक कहे सकता है । किन्तु राघवभट्ट जैसे प्रौढ टीकाकार ने कहा है कि शिरीष-पुष्पों के प्रति दया दिखानेवाली प्रमदाओं से शकुन्तला का सूचन हो रहा है । क्योंकि शिरीष-पुष्पों को शकुन्तला अपने कर्णाभूषण के रूप में धारण करती है ऐसा आरम्भ से ही कहा गया है । यह एकदम सही है । लेकिन उन्होंने जो कहा है कि यहाँ "प्रमदाः" शब्द में प्रयुक्त बहुवचन पूजार्थक है । उसमें कुछ अधिक मार्मिक बात छीपी हुई लगती है । शकुन्तला के पक्ष से सोचा जाय तो इस गीत में स्त्रीजीवन में कदाचित् आनेवाली करुणासभर नियति को भी हम देख सकते है । एक क्षण के लिये भ्रमर स्वरूप प्रियतम का चुम्बन प्राप्त करके परित्यक्त होनेवाले शिरीषपुष्प हो या कोई भी स्त्रीपात्र हो, वह सभी दयनीय अवस्था में आ जाते है । मेनका के साथ क्षणिक सङ्ग करके राजर्षि विश्वामित्र ने उसका त्याग कर दिया था – यह बात शकुन्तला के अन्तःकरण में गूढ रूप से अङ्कित हो गई है । अतः वह अपने कर्णाभूषण के रूप में शिरीषपुष्प को सदैव धारण कर रही है । इस तरह से नटीगीत की व्यंजना शकुन्तला के जन्मवृत्तान्त का मर्मभेदन करनेवाली है । माता मेनका जैसी जो भी स्त्रियाँ समाज में अपने पति से परित्यक्त है उसके प्रति दया प्रदर्शित करने का यही एक सुकुमार मार्ग था । षष्ठाङ्क में, नाट्यकार्य का विकास होने पर हम देखेंगे कि नायक दुष्यन्त को शकुन्तला के संवित् में अङ्कित इस भाव का पूर्ण रूप से ज्ञान हो गया है । अतः वहाँ (षष्ठाङ्क में) वह कहता है कि चित्र में आलिखित शकुन्तला के कानों में शिरीष पहेने हो ऐसा मुझे दिखाना अभी अवशिष्ट रहा है ।
नटी के द्वारा प्रस्तुत हुए इस गीत में शिरीष पुष्प, दयमाना प्रमदायें और भ्रमर – इन तीनों का निर्देश होते हुए भी कुछ विद्वानों ने "दयमाना प्रमदाओं" से माता मेनका का सूचन हो रहा है ऐसा कहा है । लेकिन यह मत एकदेशीय प्रतीत होता है । अन्य विद्वानों ने केवल भ्रमर की ओर ध्यान देते हुए उसमें दुष्यन्त का चरित व्यंजित हो रहा है ऐसा माना है । किन्तु " भ्रमरों से क्षण के लिये चुम्बन प्राप्त करनेवाले शिरीषपुष्पों के प्रति दया दिखाने वाली प्रमदायें " यहाँ उद्देश्य कोटि में है । अतः नायिका के पक्ष से साकल्येन स्त्रीजीवन की करुणासभर नियति को ही देखना अनिवार्य है ऐसा प्रतीत होता है । तथा परित्यक्त शिरीषपुष्पों पर दया दिखानेवाली प्रमदा से यदि मेनका का सूचन हो रहा है ऐसा माना जाय तो भी, व्यंजना का व्यापार तो दीर्घ, दीर्घतर होके विस्तरता ही जाता है । अतः यहाँ इतना जोडना चाहिये कि मेनका का सूचन होने के उपरान्त यहाँ स्त्रीमात्र के जीवन की करुणापूर्ण नियति को उद्दिष्ट करके शकुन्तला के चित्त में जो भावना उदित हुई है, या कहो कि प्रदीप्त है, उसी को वाचा देने के लिये कवि ने ही कहा है कि नायिका कर्णाभूषण के रूप में शिरीषपुष्पों को धारण कर रही है । इसका समर्थन करने के लिये कुछ अन्य सन्दर्भों का स्मरण भी करवाना आवश्यक है । जैसे कि- तृतीय अङ्क में, शकुन्तला को इस बात की जानकारी है कि राजा लोग बहुवल्लभाओं वाले होते है । तथा चतुर्थ अङ्क में, पिता कण्व राजगृह ( ससुराल ) को जा रही अपनी पुत्री को गृहिणी के रूप में सफल होने के लिये जो उपदेश देते है उसमें कहा है कि तुम अपने सपत्नीजनों के प्रति प्रिय सखी जैसा व्यवहार करना । हस्तिनापुर के अन्तःपुर में राजरानी बन के जा रही अपनी पुत्री को पिता ने उपर्युक्त सलाह देकर, प्रकृति में पली शकुन्तला में जो संवेदना सहज रूप से अनुस्यूत थी, उसी का दृढीकरण किया है ।
2 – 2 महाकवि कालिदास ने शिरीष-पुष्प एवं चूतमञ्जरी के दुःख को समझनेवाली और इन सबको अपने कर्णों का आभूषण बनानेवाली नायिका के लिये कमल का प्रतीक रखा है । प्रथमाङ्क में ही नायिका को वल्कल से परिवेष्टित देखकर दुष्यन्त ने उसके लिये सिवार से घीरे कमल की उपमा दी है । और, तत्पश्चात् जब भ्रमरबाधा प्रसंग का निरूपण होता है तब स्पष्ट हो जाता है कि कवि ने शकुन्तला के लिये कमल का प्रतीक ही प्रयुक्त किया है । राघवभट्ट कहते है कि भ्रमरबाधा प्रसंग से नायिका का पद्मिनीत्व व्यंजित हो रहा है । भारतीय जनमानस जानता है कि राजलक्ष्मी कमल में ही प्रतिष्ठित होती है । पञ्चमाङ्क के आरम्भ में आनेवाले हंसपदिका के गीत में , भ्रमर से चुम्बित "चूतमञ्जरी" हंसपदिका का प्रतीक बनती है । क्योंकि दुष्यन्त का मात्र कमल में ही निवास करने का जो उल्लेख हो रहा है, उसको सूनकर नाटक को देख रहे प्रेक्षकों के अन्तःकरण में तो " कमल " याने शकुन्तला ही ऐसा अर्थबोध प्रकट होता है । ( अलबत्ता, शापग्रस्त दुष्यन्त के चित्त से शकुन्तला विस्मृत हो गई है, इस लिये रङ्गभूमि पर स्थित दुष्यन्त को अकल्प्य भ्रान्ति में, कमल याने रानी वसुमती ऐसा विकृत अर्थबोध होता है । ) दुष्यन्त रूप भ्रमर शकुन्तला रूप कमल को प्राप्त करके, उसमें कैद ( सुस्थिर ) हुआ ही है, और उसकी साक्षी तो हंसपदिका का गीत ही दे रहा है । क्योंकि इस गीत को सूनकर ही उसको जो जननान्तर का सौहृद याद आ रहा है वह भी शकुन्तला के प्रेम को ही लक्षित कर रहा है । जब दुष्यन्त धीवर से अङ्गुलीयक प्राप्त करके, षष्ठाङ्क में शकुन्तला की याद में उसका चित्राङ्कन करता है, तब प्रथमाङ्क में उसने जो भ्रमरबाधा प्रसंग की क्षणों का अनुभव किया था, उसी का वह पुनःस्मरण करता हुआ चित्र आलिखित करता है । इस मौके पर राजा के भाव में आकर दुष्यन्त आदेशात्मक वाणी में भ्रमर को कहता है कि रतोत्सव में जिन अधरोष्ठ का मैंने रसपान किया था उसको तुं यदि चुम्बन करेगा तो मैं तुम्हें कमलोदर के बन्धन में डाल दुँगा ( अ.शा. 6 / 20 ) । तीसरे अङ्क में कवि ने शकुन्तला के प्रसाधनों का वर्णन किया है, उसमें भी कहा है कि शकुन्तला मृणाल-वलय पहेनती थी । दुष्यन्त भी चित्र में आलिखित शकुन्तला के स्तनान्तर में मृणाल-वलय पहेनाना बाकी है ऐसा कहता है । ऐसे अनेक सन्दर्भों से यह सिद्ध होता है कि समग्र नाटक में शकुन्तला के लिये कमल का प्रतीक ही प्रयुक्त किया गया है ।।
बंगाली वाचनावाले अभिज्ञानशकुन्तल में, गान्धर्व-विवाह को वर्णित करनेवाले तृतीयाङ्क में शकुन्तला ने अपने कानों में उत्पल को धारण किया है – ऐसा कहा गया है । सामान्यतः शकुन्तला अपने कानों में शिरीष-पुष्प पहेनती थी, तो फिर उसने आज क्यूँ उत्पल को धारण किया था ? ऐसा कौतुक-पूर्ण प्रश्न होगा ही । इसका उत्तर यही है कि जिस दिन उसका गान्धर्व-विवाह होनेवाला है उस दिन तो दुष्यन्त रूप भ्रमर को सुबद्ध करने के लिये कमल ही होना आवश्यक था । अतः कवि ने वहाँ जिस पुष्प की परागरज से शकुन्तला की दृष्टि कलुषित होती है ऐसा कहा है, वह कर्णोत्पलरेणु के गिरने से दृष्टि को कलुषित होने का कहा है ।
2 – 3 इस नाट्यकृति में प्रयुक्त विविध पुष्पों के प्रतीकों को समझने के बाद, अब नटीगीत से आरम्भ करके अनेक स्थान पर जो भ्रमर का उल्लेख हुआ है उसकी पर्यालोचना करनी चाहिये । विद्वन्मतानुसार दुष्यन्त को भ्रमर ही कहा गया है । लेकिन समग्र कृति में बार बार उल्लिखित भ्रमर का प्रतीक सार्वत्रिक रूप से क्या सचमुच में नायक के किसी एक ही स्वभाव का द्योतन करता है ? यह प्रष्टव्य है । क्योंकि महाकवि ने सर्वत्र भ्रमर का दुष्यन्त के साथ सर्वथा अभेद करके निरूपण नहीं किया है । इस नाट्यकृति में कुल मिलाके पाँच बार भ्रमर का उल्लेख हुआ है । अतः इन सभी उल्लेखों के उपलक्ष्य में भ्रमर के प्रतीक से व्यक्त होनेवाले व्यङ्ग्यार्थ का पुनर्विचार करना जरूरी है ।
नटी-गीत में तथा हंसपदिका के गीत में जो भ्रमरोल्लेख है वह उसके चञ्चल ( व्यभिचरित होनेवाले ) स्वभाव का द्योतक है । लेकिन नटी-गीत का भ्रमर राजर्षि विश्वामित्र है । अथवा वह पुरुषमात्र का वाचक है । कवि ने इस उल्लेख से आमसमाज की एक समस्या की ओर प्रेक्षकों का ध्यान आकृष्ट किया है । नायक रूप भ्रमर यदि नायिका के साथ एक क्षण का ही संयोग करके उसको छोड देता है, तो उस क्षणिक संयोग से पैदा होनेवाली संतति के अभिज्ञान का प्रश्न खडा होता है । स्त्री-जीवन की यह सब से बडी समस्या है । अतिगूढ आशयवाले इस भ्रमरोल्लेख की समाधि षष्ठाङ्क में सिद्ध होती है । विरहसंतप्त दुष्यन्त शकुन्तला का चित्र बना रहा है । वहाँ, षष्ठाङ्क के श्लोक 18 में नायक दुष्यन्त कहता है कि मुझे चित्राङ्कित शकुन्तला के कानों में अभी शिरीषपुष्प पहेनाना बाकी है । दुष्यन्त के मन में जगी इस इच्छा का ध्वन्यर्थ ऐसा है कि शकुन्तला के चित्त में स्त्रियों के प्रति जो करुणापूर्ण भावना सदैव विलसित रहती थी ( और जो सब से पहले नटी-गीत में व्यक्त की गई थी, और इसी लिये शकुन्तला अपने कर्णाभूषण के रूप में शिरीषपुष्पों को धारण करती थी ) उस भावना को दुष्यन्त ने समझ लिया है । विकसित हुए नाट्यकार्य का यह एक उन्मेश है ।
दूसरी ओर हंसपदिका के गीत में जो अभिनवमधुलोलुप मधुकर (भ्रमर) है वह निश्चित रूप से दुष्यन्त है । किन्तु यह उल्लेख दुष्यन्त का स्वभाव स्थायि रूप से ही चञ्चल है ऐसा कहनेवाला सिद्ध नहीं हो सकता । क्योंकि यहाँ हंसपदिका के द्वारा दुष्यन्त को उपालम्भ देने के आशय से "मधुकर" कहा गया है । और उपालम्भ के रूप में कही गई बात सर्वदा सच्ची नहीं भी होती है ।
तीसरा स्थान है प्रथमाङ्क का भ्रमरबाधा-प्रसंग । कवि ने यहाँ पर भ्रमर को दुष्यन्त के प्रतिस्पर्धी के रूप में प्रस्तुत किया है । मतलब कि कवि यहाँ ईर्ष्या रूप संचारी भाव प्रदर्शित करके शृङ्गार का परिपोषण करना चाहते है । नायिका को प्राप्त करने में जहाँ स्पर्धा का भाव होता है वहाँ नायक और प्रतिनायक में सदैव भेद ही रहता है । जिस निरूपण में दुष्यन्त और भ्रमर के बीच में अभेद नहीं दिखाया है, वहाँ भ्रमर दुष्यन्त का प्रतीक बनता है ऐसा नहीं कहा जायेगा । अतः भ्रमरबाधा-प्रसंग में आया भ्रमर दुष्यन्त के चञ्चल स्वभाव का द्योतक नहीं बन सकता है । यह बात दूसरी तरह से भी, अर्थात् चौथे स्थान पर आये भ्रमरोल्लेख से भी समर्थित होती है । प्रथमाङ्क के भ्रमरबाधा दृश्य के सामने षष्ठाङ्क में इसीका एक प्रतिदृश्य कवि ने खडा किया है, वह द्रष्टव्य है । षष्ठाङ्क में, अङ्गुलीयक मिलने से राजा को शकुन्तला का स्मरण हो जाता है । तब वह उसका एक चित्र बनाता है, उस चित्र में भी भ्रमर उपस्थित है । यहाँ पर भ्रमर को सम्बोधित करते हुए दुष्यन्त दो श्लोक बोलता है । उनमें से एक ( 6 / 20 ) श्लोक में वह भ्रमर को कहता है कि शकुन्तला के जिस अधरोष्ठ का मैंने रसपान किया है, उसको तुँ यदि स्पर्श करेगा तो मैं तुम्हें कमलोदर के बन्धन में डालुँगा । यहाँ पर देखेंगे तो विरह की स्थिति में ईर्ष्या रूप संचारी भाव का ही आलेखन करने के लिये भ्रमर को प्रतिनायक के रूप में फिर से निरूपित किया है । अर्थात् यहाँ पर भी दुष्यन्त के चञ्चल स्वभाव की ओर ध्यान आकृष्ट करने के लिये भ्रमर का उल्लेख नहीं हुआ है ।
पाँचवे स्थान पर, ( याने षष्ठाङ्क के ही श्लोक 6 / 19 में भी ) जो भ्रमरोल्लेख है उसको देखने से भी मालुम होगा कि प्रथमाङ्क में जो नायक (दुष्यन्त) शकुन्तला के वदन पर फिरते हुए भ्रमर का प्रतिस्पर्धी बना था, वही नायक अब षष्ठाङ्क में भ्रमर का उपदेष्टा बनके खडा है । दुष्यन्त चित्र में आलिखित भ्रमर का इस बात की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहता है कि,
एषा कुसुमनिषण्णा तृषितापि सती भवन्तमनुरक्ता ।
प्रतिपालयति मधुकरी न खलु मधु विना त्वया पिबति ।। अ.शा. 6 / 19
कुसुम पर बैठी हुई तेरी मधुकरी तृषित होने के बावजूद भी मधु का रसपान नहीं कर रही है । विपरित लक्षणा से यहाँ सोचेंगे तो स्पष्ट होगा कि दुष्यन्त को अब अपनी शकुन्तला का ही स्मरण हो रहा है । अतः भ्रमर के उपदेष्टा बने दुष्यन्त ने एकाकी घुम रहे उस भ्रमर को, बल्कि मधुकर को, उसकी मधुकरी की ओर ध्यान देने की सलाह दी है । कवि के उपर्युक्त शब्दों को देखते हुए, रसज्ञ भ्रमर को अपनी तृषिता मधुकरी का सम्यक् दर्शन एवं पुनःस्मरण हो गया है ऐसा कहना ही अधिक उचित है । ऐसा व्यङ्ग्यार्थ टीकाकार नरहरि के अन्तःकरण में स्फुरित हुआ भी था । उन्होंने लिखा है कि शकुन्तला भी भ्रमरी की तरह दुष्यन्त की अपेक्षा रखती है । इस तरह प्रस्तुत मधुकर को रसपान में यदि मधुकरी का साहचर्य अपेक्षित है ऐसा ध्यान में आ गया हो तो उसमें दुष्यन्त के ही दाम्पत्य जीवन का प्रारम्भ देखना चाहिये । विकसित हुए नाट्यकार्य की यह धन्य क्षण है कि जिसमें दुष्यन्त स्वरूप मधुकर मधुकरी के स्वरूप में शकुन्तला को ही याद कर रहा है । सामान्यतः भ्रमर को चञ्चल स्वभाव का ही प्रतीक माना गया है, किन्तु महाकवि को इस तरह से भ्रमर का उपयोग करना जहाँ अभीष्ट है ( नटी-गीत एवं हंसपदिका-गीत में ), वहाँ ( अनुक्रम से ) शिरीषपुष्प एवं आम्रमञ्जरी के साथ भ्रमर का उल्लेख किया है । किन्तु 6 / 19 श्लोक में तो कोई पुष्प-विशेष का निर्देश नहीं है, केवल "कुसुम" शब्द का ही प्रयोग है । यहाँ, अङ्गुलीयक मिल जाने के बाद, दुष्यन्त को शकुन्तला का पुनःस्मरण हो गया है, तथा उसकी याद में उसने चित्राङ्कन के दौरान जो हृद्-गत भावनायें व्यक्त की है उसको सून कर सानुमती को भी लगता है कि शकुन्तला का प्रत्याख्यान करने का दुःख प्रमार्जित कर दिया है ।
इस तरह भ्रमरोल्लेख के पाँचों सन्दर्भों को ध्यान में लेकर सोचेगें तो प्रतीत होगा कि महाकवि को भ्रमर का उल्लेख सर्वत्र चाञ्चल्य के प्रतीक के रूप में ही करना अभिप्रेत नहीं है । उसका सही सम्बन्ध तो मात्र नटी-गीत में बूनी गई शकुन्तला की गूढ संवेदना के साथ ही जोडना उचित है । तथा षष्ठाङ्क में विकसित हुए नाट्यकार्य के अनुसार, चतुर्थ एवं पञ्चम बार का भ्रमरोल्लेख – मधुकरोल्लेख – ही दुष्यन्त के चरित को समझने के लिये निर्णायक बनता है ।।

3 – 0 नाटक के तीन गति-निर्देशों में से नटी-गीत का विचार करने के बाद, अब प्रथमाङ्क में नाटक का जो चरम लक्ष्य प्रकट रूप में कहा गया है उसीकी ओर ध्यान देंगे । मृगयाविहारी राजा दुष्यन्त के प्रवेश से प्रथम दृश्य का आरम्भ होता है । दुष्यन्त मालिनी नदी के तट पर घुमते फिरते मृग पर शर-सन्धान करता है । किन्तु कण्व मुनि के शिष्यों ने राजा को सावधान किया कि यह आश्रम का मृग है, उसका वध नहीं करना चाहिये । धर्मभीरु दुष्यन्त ने इनकी बात का स्वीकार किया और अपने बाण का संहरण कर लिया । इस सत्कृत्य के लिये राजा को चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति हो ऐसे आशीर्वचन दिये जाते है । यहाँ दुष्यन्त आश्रम के मृग का शिकार तो नहीं करता है, लेकिन कण्व की पोषिता कन्या शकुन्तला को देख कर उसकी ओर आकृष्ट तो जरूर होता है । और तीसरे अङ्क तक जाते जाते इन दोनों का प्रणय गान्धर्व-विवाह में परिणत भी होता है । इस तरह सभी काव्यरसिकों को शूरुआत से ही मालुम हो जाता है कि महाकवि ने शकुन्तला के लिये हरिणी का प्रतीक उपयोग में लिया है । यहाँ इस हरिण के प्रतीक के द्वारा महाकवि ने 1. दुष्यन्त के सामने उपस्थित होनेवाली शकुन्तला के स्वभाव की अभिव्यञ्जना की है , और 2. आगे चल कर शकुन्तला और हरिण के जीवन की पूर्ण रूप से समरसता खडी करके, चतुर्थाङ्क में करुण रस की वेदना को तीव्रतर बनाई है ।।
3 – 1 प्रथमाङ्क में, जहाँ दुष्यन्त को चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति के आशीर्वाद दिये जाते है वहाँ आश्रम के मृग के लिये जो "अनागस" ( निष्पाप ) शब्द का प्रयोग किया गया है, वह साभिप्राय है । साहित्यकृति में पात्रों के निश्चित प्रकार के स्वभाव को व्यक्त करने के लिये कविओं के द्वारा कदाचित् प्रतीकों की योजना की जाती है । महाकवि कालिदास ने भी यहाँ नायिका शकुन्तला का स्वभाव निष्पाप, निष्कपट और भला-भोला है यह व्यंजित करने के लिये मृग के लिये अनागस शब्द का प्रयोग किया है । उसके बाद, समग्र कृति में इसी प्रतीक का सातत्यपूर्वक विनियोग करके शकुन्तला के जीवन को वर्णित भी किया है । इस लिये नाटक की पात्रसृष्टि के एक पात्र के रूप में रङ्गभूमि पर हरिण का बार बार प्रवेश होता है । कवि की इस प्रतीक-योजना को बारिकी से समझने के लिये इन सभी रसप्रद प्रसंगो का अवलोकन करना चाहिये । तृतीयाङ्क में, लता-वलय में नायक-नायिका को एकान्त प्रदान करने के लिये प्रियंवदा और अनसूया वहाँ घुम रहे एक मृगशिशु को देखकर कहते है कि यह अपनी माता से बिछडा हुआ लगता है, चलो हम उसकी मा के साथ उसका संयोजन करवाते है । यहाँ संयोजन करवाने की बात ध्वनिपूर्ण है । चतुर्थ अङ्क में, पतिगृह की ओर प्रस्थान कर रही शकुन्तला मुनि की झोंपडी के पास मन्थरगति से फिरती हुई एक सगर्भा मृगी को देखती है । वह अपने पिता से कहती है कि इस मृगी को जब सुखपूर्वक प्रसव हो जाय तब इस प्रिय वृत्तान्त का निवेदन करने के लिये किसी को मेरे पास भेज देना । महाकवि ने यहाँ नाट्यात्मक वक्रता का विधान करने के लिये रङ्गभूमि पर मृगी को उपस्थित की है । जो निसर्ग-कन्या स्वयं आपन्नसत्त्वा है, फिर भी आश्रम के मृगों की इतनी चिन्ता में निमग्न रहती है, उसके भाग्य में तो कुछ विपरित ही लिखा है । इसीके दौरान उसको मालुम होता है कि उसका वस्त्र कोई पीछे से बार बार खींच रहा है । शकुन्तला पूछती है कि कौन मेरा पल्लु खींच रहा है ? तब पिताजी बताते है कि यह तुँने ही संवर्धित किया हुआ दीर्घापाङ्ग नामक मृगशिशु है, जिसको तृण खाते समय यदि कण्टक लग जाते थे तो तुँ उसको इङ्गुदी के तैल का लेपन कर देती थी । और जिसको तुँ निवार के दानें खिलाती थी । वह मृग आज तेरा मार्ग रोक रहा है । शकुन्तला इसको कहती है कि मैं तो तुम्हें छोड के जा रही हुँ, परन्तु पिताजी अब से तेरी देखभाल करेंगे । महाकवि ने यहाँ चतुर्थ अङ्क में, शकुन्तला-विदाय के प्रसंग में एक सगर्भा मृगी और दूसरा मातृसुख-वञ्चित दीर्घापाङ्ग नामक मृग को उपस्थित किये हैं । शकुन्तला के वर्तमान जीवन को निरूपित करने के लिये मृग के प्रतीक का इससे बहेतर प्रयोग ओर क्या हो सकता है ? इसी तरह से पञ्चम अङ्क में भी शकुन्तला जब गान्धर्व-विवाह का प्रत्यक्ष प्रमाण, अर्थात् दुष्यन्त-नामधेयाङ्कित अङ्गुलीयक उपस्थित नहीं कर सकती है, तब दुष्यन्त को प्रतीति करवाने के लिये शकुन्तला ने यही दीर्घापाङ्ग मृग को याद किया है । और कहा है कि एकदा वे दोनों जब साथ में बैठे थे और दुष्यन्त ने मृग को पानी पिलाने की कोशिश की थी तब दीर्घापाङ्ग ने दुष्यन्त के हाथ का पानी नहीं पिया था । इस तरह ये दोनों मृग नाट्यसृष्टि के वास्तविक पात्र के रूप में प्रस्तुत हुए है । साथ में वे शकुन्तला के प्रतीक भी है, अतः ये दोनों सन्दर्भ व्यंजना-सभर भी बनते है । जैसे कि शकुन्तला के ससुराल जाने से आश्रम-मृगी निराधार बन रही है वैसे ही वर्तमान में सगर्भा शकुन्तला की जींदगी भी असहाय होने जा रही है । दूसरा दीर्घापाङ्ग नामक मृग मातृसुख-वञ्चित शकुन्तला की भी जींदगी करुणापूर्ण है ऐसा व्यक्त कर रहा है । अर्थात् ये दोनों मृग यहाँ उद्दीपक विभाव बनके करुण रस का परिपोष करते है । एवम्, यही दीर्घापाङ्ग मृग ने जो शकुन्तला का पल्लु खींचा था ऐसा कहा गया है, और उसने दुष्यन्त के हाथ का पानी नहीं पिया है – उसमें से ऐसा ध्वनि निकलता है कि यह मृगशिशु जान गया है कि शकुन्तला का पति के गृह में स्वागत नहीं होगा (बेलवालकर, 1962)। अतः वह उसको वहाँ जाने से रोकने के लिये ही उसका पल्लु खींच रहा था । इस तरह पूरे नाटक में जहाँ जहाँ शकुन्तला के आसपास मृगों का निर्देश है, वहाँ वे नाटक की पात्रसृष्टि के जीवन्त पात्र के रूप में प्रयुक्त हुए है, एवं वे शकुन्तला के प्रतीक भी होने के कारण शकुन्तला के असहाय एवं निराधार जीवन की भाविकरुणता को भी अभिव्यक्त कर रहे है ।।
3 – 2 नाटक के आरम्भ में दुष्यन्त ने आश्रम के मृग को नहीं मारके चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति के आशीर्वाद प्राप्त किये थे । लेकिन यहाँ तात्त्विक दृष्टि से सोचे तो स्थूल मृग के शिकार को छोड देना पर्याप्त नहीं होगा । क्योंकि मृग यदि शकुन्तला का प्रतीक है तो दुष्यन्त ने जो शकुन्तला का प्रत्याख्यान किया है, वह आश्रम-मृग को मारने के समान ही कर्म था । अतः अब देखना यह होगा कि दुष्यन्त को कब शकुन्तला की, एवं चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति होती है । इस तरह के विकसित हुए नाट्यकार्य की झाँखी षष्ठाङ्क में होनेवाली है । अङ्गुलीयक की प्राप्ति हो जाने से दुर्वासा का शाप निवृत्त हो जाता है । और दुष्यन्त को शकुन्तला का पुनःस्मरण होता है । तब उस प्रत्याख्यान समय के शकुन्तला के शब्द, तिरस्कार दिखाती हुई शकुन्तला की आँखे – यह सब कुछ दुष्यन्त की दृष्टि के सामने आ जाते है । अब दुष्यन्त को भारी संताप हो रहा है, दुन्यवी कोई चीज उसको आनन्द नहीं देती है । शकुन्तला के बिना संसार असार लगता है, इस लिये उसने सभी उत्सव बंध करवा दिये है । इस तरह के विरहालेखन को देख कर ऐसा सोचना पर्याप्त नहीं होगा कि कवि ने तृतीयाङ्क में संभोग शृङ्गार का आलेखन करने के बाद, यहाँ षष्ठाङ्क में विप्रलम्भ शृङ्गार को वर्णित करने के लिये ही दुष्यन्त को शकुन्तला का स्मरण करवाया है । वस्तुतः षष्ठाङ्क को बारिकी से देखने से मालुम होता है कि कालिदास ने पहले तीनों अङ्कों में नायक-नायिका का बाह्यमिलन दिखाया है, लेकिन अब वे इन दोनों के आभ्यन्तर मिलन को सिद्ध करने के लिये सन्नद्ध हुए है । इस सन्दर्भ में षष्ठाङ्क के 1. कार्या सैकतलीनहंसमिथुना.... ( 6 / 17 ), 2. कृतं न कर्णार्पितबन्धनं सखे..... ( 6 / 18 ) एवं, एषा कुसुमनिषण्णा तृषितापि सती....( 6 / 19 ) – ये तीन श्लोकों को पुनःपुनः देखने की परम आवश्यकता है । क्योंकि महाकवि ने यहाँ हंस-मिथुन, हरिण-हरिणी, शकुन्तला के कर्णाभूषण बने शिरीषपुष्प तथा कमल एवं भ्रमर जैसे केन्द्रवर्ती सभी प्रतीकों का एक ही स्थान पर संनिवेश किया है । और एक ही स्थान पर सभी महत्त्वपूर्ण प्रतीकों का क्रमशः विनियोग करके, महाकवि ने विकसित हुए नाट्यकार्य का यहाँ पर हृदयस्पर्शी उद्घाटन किया है ।।
यहाँ आमतोर पर सभी विवेचकों ने ऐसा ही कहा है कि महाकवि ने षष्ठाङ्क में, विप्रलम्भ शृङ्गार का आलेखन करने के आशय से दुष्यन्त को शकुन्तला का चित्र बनाते हुआ वर्णित किया है । किन्तु इस चित्राङ्क के दौरान ही हम नायक-नायिका के अपेक्षित उत्कृष्ट आन्तरिक / आभ्यन्तर मिलन को सिद्ध होता हुआ देखते है । यहाँ विदूषक दुष्यन्त को पूछता है कि चित्र में दोनों सखियों के साथ शकुन्तला का चित्र तो बन गया, अब उसमें क्या क्या बनाना बाकी है ? तब दुष्यन्त कहता है कि ( इस चित्र में मुझे अभी ) जिसकी बालुका में हंसमिथुन रममाण हो ऐसी जल से भरी मालिनी नदी चित्रित करनी है । उस नदी के पृष्ठ भाग में ( माता ) पार्वतीजी के पावनकारी पिता हिमालय की गोदी में हरिण बैठे हो ऐसा दिखाना है । उसके साथ साथ, जिसकी शाखाओं पर ( शकुन्तला के ) वल्कल-वस्त्र टाँगे गये हो ऐसे वृक्ष के अधोभाग में ( स्थिर खडे ) कृष्णमृग के शींग पर (अपनी) बाँई आँख खूजलाती हुई मृगी भी चित्रित करने की मेरे मन में चाहत है ।। ( अ.शा. 6 / 17 ) यहाँ अभिलषित चित्र की सभी चीजों का वर्णन बहुत व्यंजना पूर्ण है । यह श्लोक अब नायक दुष्यन्त जिस स्वरूप में शकुन्तला को आत्मसात् कर रहा है उसी को वाचा प्रदान करनेवाला है । महाकवि ने इस नाटक के मुख्य नाट्यकार्य को समझने की गुरुचावी यहाँ रखी हैः-----
कार्या सैकतलीनहंसमिथुना स्रोतोवहा मालिनी,
पादास्ताम् अभितो निषण्णहरिणा गौरीगुरोः पावनाः ।
शाखालम्बितवल्कलस्य च तरोर्निमातुमिच्छाम्यधः,
शृङ्गे कृष्णमृगस्य वामनयनं कण्डूयमानाम् मृगीम् ।। अ.शा. 6 / 17
इस श्लोक की अन्तिम पङ्क्ति में कहा गया है कि जिस आश्रमवृक्ष की शाखाओं पर ( शकुन्तला के ) वल्कलवस्त्र टाँगे गये हो, वहीं पर ( वृक्ष की शीतल छाया में ) एक हरिण ऐसा बनाना है, जो न केवल अक्षुब्ध, परन्तु विश्वसनीय भी हो, ताकि उसीके शृङ्ग पर बगल में खडी हरिणी अपने वामनेत्र को विश्रब्ध होके खुजला सके ।। इन शब्दों के वाच्यार्थ से प्रेक्षकों के मनोजगत् में एक नयनरम्य चित्र तो खडा होता ही है । किन्तु उसका व्यङ्ग्यार्थ भी दुष्यन्त के हृद्गत मर्म को उद्घाटित करनेवाला है । एक मृगी के लिये मृग इतना विश्वसनीय होना चाहिये कि उसके नोंकिले शींग पर भी यदि वह अपना नाजुक नेत्र खुजलायेगी तो भी वह मृग तनिक भी नहीं हिलेगा, और अपने नेत्र को हानि नहीं होने देगा । ऐसी उसके अन्तःकरण की दृढ प्रतीति होने पर ही वह मृगी अपने पास खडे मृग के शींग पर नेत्र की खुजलाहट को दूर करेगी । यहाँ एक विश्वसनीय हो ऐसे मृग का चित्र बनाने की जो चाहत दुष्यन्त को हो रही है वह मृग ओर कोई नहीं है, वह दुष्यन्त ही है । मृग के निमित्त से दुष्यन्त ही अपनी नयी पहेचान बनाना चाहता है ।।
अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक के नाट्यकार्य को समझने के लिये उपर्युक्त सन्दर्भ न केवल ध्यानार्ह ही है, अनिवार्य भी है । इस श्लोक से सूचित होता है कि अङ्गुलीयक मिल जाने के बाद, विरहसंतप्त दुष्यन्त को अब शकुन्तला का नया, अथवा कहो कि सही अभिज्ञान ( पहेचान) मिल गया है । आश्रम के इस मृग का हनन तो करना ही नहीं है, उसका तिरस्कार ( प्रत्याख्यान) भी नहीं करना है । बल्कि उसके जीवन को पूरा सहारा ही देना है । यह बात ठीक तरह से दुष्यन्त को अवगत हो गई है । जीवन की यह नयी समझदारी उपर्युक्त श्लोक के अन्तिम चरण से ध्वनित होती है । प्रथमाङ्क में शकुन्तला ने जिस नवमालिका, अपर नाम वनज्योत्स्ना को सहकार वृक्ष का अवलम्बन मिलने की बात से प्रसन्नता दिखाई थी उसीकी परिणति अब नायक-नायिका के जीवन में सिद्ध होती यहाँ दिखाई गई है । शिकारी बनके तो दुष्यन्त कदापि नायिका शकुन्तला को प्राप्त नहीं कर सकेगा । हरिणी स्वरूपा शकुन्तला को प्राप्त करने के लिये तो उसे विश्वसनीय हरिण ही बनना पडेगा । क्योंकि " सर्वः सगन्धिषु विश्वसिति " ऐसा दुष्यन्त ने ही उच्चरित किया हुआ जो सत्य था, वह अब उसको पूर्ण रूप से आत्मसात् हो गया है । अतः अनागस हरिणी जैसी प्रेम भरी शकुन्तला को सर्वथा आश्वस्त जीवन प्रदान करनेवाला पति बनने को अब वह उद्यत हो गया है । उसको दाम्पत्य जीवन में पति के रूप में अपनी भूमिका कैसी होनी आवश्यक है वह समझ में आ गया है । दुष्यन्त को शकुन्तला का एवं अपना इस तरह का अभिज्ञान जो मिला है वह अङगुलीयक रूप अभिज्ञान से अधिक सूक्ष्म एवं उन्नततर है, और कवि को भी यही अभिज्ञान आविष्कृत करना अभीष्ट है ।।
उपर्युक्त श्लोक में शार्दूलविक्रीडित वृत्त का विनियोग किया गया है । शार्दूल याने सिंह, सिंह की विक्रीडित गति याने चार कदम आगे चल के फिर वापस घुम के पीछे की ओर देखना – पश्चाद्वर्ती मार्ग का पुनःपरीक्षण कर लेना – ऐसी सतर्क गति दुष्यन्त में यहाँ देखी जाती है । अङ्गुलीयक मिल जाने के बाद दुष्यन्त भूतकाल में ( अङ्क पाँच में ) खुद से जो अनजान में गलतियाँ हुई थी उसका पुनरीक्षण करता है । और उसका अवमर्श करके अपने व्यक्तित्व में जिन बदलाव की आवश्यकता है उन सब को संकल्पित चित्र के बहाने वह शब्दबद्ध कर रहा है । महाकवि कालिदास ने इसी लिये उपर्युक्त श्लोक में "कार्या" ( विध्यर्थ कृदन्त ) शब्द का प्रयोग किया है , और उसीको पदक्रम की दृष्टि से भी सर्व प्रथम रखा है – वह बहुत सूचक है ।।
यहाँ समग्र निरुपण का मर्म ऐसा दिखता है कि दुष्यन्त को शिकारी बनने से हरिणी स्वरूपा शकुन्तला नहीं मिल सकेगी । शिकारी दुष्यन्त में रहे भोक्तृत्व भाव को कवि ने यद्यपि आरम्भ में ही शब्दबद्ध किया है, जो यहाँ स्मर्तव्य हैः-- " शकुन्तला तो अनाघ्रात पुष्प है, नखों से नहीं तोडा गया किसलय है, सूचि से अनाविद्ध रहा रत्न है, और अनास्वादित नया मधु है । यह निष्पाप रूप तो मानो कि अखण्ड पुण्यों के फल स्वरूप है । न जाने विधाता इस रूप के किस भोक्ता को उपस्थित करेगा । " इस श्लोक में कहे गये दुष्यन्त का जो भोक्तृत्व और शकुन्तला का भोग्यत्व रूप स्वरूप है, उसमें एक नया उन्मेश प्रकट होता हुआ दिखाई देता है । हरिण बनके खडे दुष्यन्त में भोक्तृत्व भाव अब विगलित हुआ है और वह स्वयं भोग्य की कोटि में आके खडा है । यहाँ शिकारी एवं हरिणी में जो विसंवाद था वह नितान्त रूप में विगलित हो के पूर्ण संवाद की भूमिका का निर्माण हुआ है । इस तरह से यहाँ हरिण के प्रतीक के द्वारा नये विकसित हुए नाट्यकार्य को व्यंजित होता हम देख सकते है । इस नव विकसित नाट्यकार्य के कारण ही नाटक के पूर्वनिर्धारित लक्ष्य की ओर आगे-कदम शूरु होता है । ( अनेक विद्वानों को षष्ठाङ्क बहुत लम्बा लगता है, लेकिन इसके कारणों की मीमांसा करने का धैर्य शायद किसे ने नहीं दिखाया है ) ।।
4 – 1 अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक के आरम्भ में आये 1. नटी-गीत, 2. चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति के आशीर्वाद और 3. पिता कण्व मुनि के द्वारा की गई सोमतीर्थ की यात्रा के निर्देश ध्यान में लेते हुए यहाँ प्रस्तुत कृति का नाट्यकार्य समझने का उपक्रम रखा है । उसमें अब सोमतीर्थ की यात्रा का कारण और उसका क्या फल है ? वह विवेचनीय है । इस नाटक में, दुष्यन्त शकुन्तला को देखे या मिले उससे भी पहले कहा गया था कि इस कन्या के प्रतिकुल दैव का शमन करने के लिये पिता कण्व सोमतीर्थ की यात्रा पर गये है । महाकवि ने प्रतिकुल दैव क्या है ? वह नहीं कहा है । किन्तु काल के गर्भ में छीपा हुआ कोई दुर्दैव है जरूर । इस तरह प्रथमाङ्क में जिसका कौतुकाधान किया था वह दुर्दैव चतुर्थ अङ्क के आरम्भ में सूनने को मिलता है । दुष्यन्त हस्तिनापुर के लिये चल पडा है तब, उसी दिन, उसके विचारों में तल्लीन शकुन्तला आश्रम के प्राङ्गण में अतिथि के रूप में आये दुर्वासा की आवाज नहीं सून पाती है । अतः सुलभकोप दुर्वासा " तुँ जिसके विचारों में खोई हुई है वह याद दिलाने पर भी तुझे याद नहीं करेगा " ऐसा शाप दे देते है । इस तरह दुर्वासा का शाप ही शकुन्तला के दुर्दैव का प्रतीकात्मक स्वरूप धारण करता है । किन्तु पिता कण्व की सोमतीर्थ की यात्रा का क्या फल ? ऐसी जिज्ञासा का जो उत्तर है वह शक्रावतार तीर्थ के जल में निवास करनेवाला मत्स्य है । इस मत्स्य ने शकुन्तला के अङ्गुलीयक को गहेरे जल के नीचे, घरातल में चले जाने से पहेले निगल लिया । यह मत्स्य ही पिता कण्व की शुभ-भावनाओं का मूर्तिमन्त प्रतीक बनता है । यदि यह अङ्गुलीयक उस मत्स्य के उदर में नहीं गया होता तो शकुन्तला का भावि हंमेशा हंमेशा के लिये अन्धेरे में चला गया होता । किन्तु कण्व की सोमतीर्थ की यात्रा का यह फल आता है कि वह अङ्गुलीयक मत्स्य के उदर में जाता है और पुण्यवशात् वहाँ से राजा दुष्यन्त के पास पहुँचता है । इस तरह प्रतीकात्मक दृष्टि से देखा जाय तो दुर्वासा का शाप शकुन्तला के दुर्दैव का प्रतीक बनता है और मत्स्य के माध्यम से अङ्गुलीयक की पुनःप्राप्ति होना वह सोमतीर्थ की यात्रा का फल बनता है ।
4 – 2 शकुन्तला के अनिर्दिष्ट दुर्दैव का दूसरा एक स्वरूप विविध पक्षिओं के प्रतीक से अभिव्यक्त हो रहा है उसकी भी आलोचना करनी आवश्यक है । शकुन्तला के जन्म की जो कथा है उससे हम जानते है कि माता मेनका ने शकुन्तला को जन्म देकर कण्व मुनि के आश्रम के पास तुरन्त ही त्याग दी थी । तब उस तपोवन के शकुन्तों ( पक्षिओं ) ने उसको सुरक्षित रखते हुए, कलरव करके कण्व मुनि को वहाँ खींच लाये । कण्व मुनि ने उस बच्ची को शकुन्तों से परिरक्षित देख कर उसका नाम "शकुन्तला" रख दिया । तत्पश्चात् मेनका के उस संतान को कण्व मुनि ने अपने आश्रम में ले जाकर, उसका पालन-पोषण किया । परिणामतः शकुन्तला को भी द्विजत्व आ मिला । अतः शकुन्तला के जीवन की कहानी निरूपित करने के लिये महाकवि ने नाटक में क्रमशः कोकिल ( परभृतिका ), चक्रवाक-युगल , हंस-मिथुन तथा ( मृत्तिका ) मयूर जैसे पक्षिओं का अनेकत्र उल्लेख किया है, जो सब प्रतीकात्मक बनते है । जैसे कि – तृतीयाङ्क में नायक-नायिका का जब एकान्त मिलन होनेवाला था तब गौतमी वहाँ आ जाती है । वहाँ नेपथ्य से कहा जाता है कि - "चक्रवाकवधूके, आमन्त्रयस्व प्रियसहचरम्, उपस्थिता रजनी" । यहाँ कवि ने चक्रवाक पक्षी का उपयोग करके दोनों का वियोग सिद्ध किया । चतुर्थ अङ्क में, शकुन्तला जब पतिगृह जा रही है तब उससे बिछडने का भाव सर्वत्र फैल गया है । सारा तपोवन शकुन्तला की बिदा हो रही है ऐसा देख के संतप्त हो रहा है । वहाँ भी एक चक्रवाक उन्मुख हो के शकुन्तला को देख रहा है और बगल में खडी चक्रवाकी उसको नहीं देख सकती है । क्योंकि उन दोनों के बीच में नलिनीपत्र आ गया था । चक्रवाकी को एक क्षण के लिये भी चक्रवाक का विरह सहन नहीं हो पाता, अतः वह रोने लगती है । उसको रोती देख कर शकुन्तला कहती है कि मुझे लगता है कि मैं भी पतिगृह जाने का दुष्कर कार्य ही कर रही हुँ । अर्थात् मेरा भी पतिगृह जाना मुश्कील सिद्ध होगा । यह सूनकर अनसूया उसे दिलासा देती है कि चक्रवाकी भी अपने प्रियतम के बिना ही, विषाद से दीर्घ रात्रि को कथमपि व्यतीत कर लेती है । उस तरह तुम भी बडे दुःख को पसार कर लोगी । मनुष्य को आशा का तन्तु ही सब कुछ सह लेने की शक्ति देता है । यहाँ शकुन्तला के जीवन में भी पति याद दिलाने पर प्रतिवचन नहीं देगा, और लम्बे विरह के बाद पुनर्मिलन होगा, यह चक्रवाक पक्षी के प्रतीक से ध्वनित किया जाता है ।। पञ्चम अङ्क में, दुर्वासा के शापवशात् दुष्यन्त को शकुन्तला विस्मृत हो गई है । शकुन्तला उसे बार बार याद दिलाने की कौशिश कर रही है, तब दुष्यन्त उद्विग्न हो के उसे "परभृतिका की तरह किसी दुसरे का संतान मेरे वहाँ संवर्धित करने आयी हुँ" ऐसा कह देता है । इन शब्दों से निर्दोष शकुन्तला के शिर पर निष्कारण परभृतिका का कलङ्क चढाया जाता है । जैसे माता मेनका ने उसे जन्म देकर कण्व मुनि के आश्रम के पास छोड दी थी, उसी तरह से वह भी किसी दुसरे के संतान को दुष्यन्त के वहाँ ले आयी है – ऐसा कटाक्ष व्यंजित होते ही शकुन्तला के लिये असह्य हो जाता है । वह राजा को " अनार्य " ऐसा सम्बोधन करती है । शकुन्तला के अज्ञात भावि में छीपा हुआ जो दुर्दैव था वह यह था कि वह दुष्यन्त की धर्मपत्नी होते हुए भी, और दुष्यन्त का ही तेज गर्भ में ले के पतिगृह आयी थी, फिर भी उसको एक क्षण के लिये तो "परभृतिका" शब्द का टोना सूनना पडा । किन्तु कण्व मुनि की सोमतीर्थ की यात्रा का फल उसे यह मिलता है कि वह दुष्यन्त के साथ हंस-मिथुन के रूप में रहने का सौभाग्य सिद्ध करती है । विरह में संतप्त दुष्यन्त षष्ठाङ्क में, मालिनी नदी की सिकता में रममाण हो ऐसे एक हंसमिथुन को चित्रित करने का जो अभिलाष व्यक्त करता है उसमें दुष्यन्त अपने भावि दाम्पत्य जीवन का स्वप्न देख रहा है । अथवा कहो कि जिस दुष्यन्त ने शापवशात् शकुन्तला को परभृतिका रूप में देखी थी, उसी को अब उसका हंसी के रूप में सही अभिज्ञान मिल जाता है । इस तरह महाकवि कालिदास ने परभृतिका, चक्रवाक एवं हंसमिथुन जैसे पक्षिओं का प्रतीकात्मक निर्देश करके, शकुन्तला के दुर्दैव से भरे वर्तमान को और भावि सद्-भाग्य को क्रमशः अभिव्यक्त किया है ।।
5 – 1 स्वयं महाकवि ने अभिज्ञानशाकुन्तल के आरम्भ में जिन त्रिविध गति-निर्देश दिये थे उसी को देखते है तो मालुम होता है कि अब शिकारी और हरिण के बीच का विसंवाद रहा ही नहीं है । दुष्यन्त अब विश्वसनीय हरिण बनके हरिणी स्वरूपा शकुन्तला के सामने खडा है । अतः आश्रम-मृग पर अब कोई अभिघात होने का सवाल ही नहीं पैदा होता है । भ्रमर भी कमल के अन्दर कैद हो गया है, अथवा अपने बिना मधुपान नहीं करनेवाली और प्रतीक्षा करती तृषित बैठी मधुकरी के विषय में सभान हो गया है । तथा सोमतीर्थ की यात्रा के फल स्वरूप अङ्गुलीयक मिल जाने पर, विरहसंतप्त दुष्यन्त को शकुन्तला का सही ( आन्तरिक ) अभिज्ञान मिल जाता है । उसके बाद, दुसरे स्तर पर पुत्र भरत के अभिज्ञान का कार्य अवशिष्ट रहता है । इस लिये सप्तमाङ्क में निर्वहण सन्धि शूरु होती है, जिसमें शकुन्तला के पुत्र का अभिज्ञान और उसकी प्राप्ति पर्यन्त का आवश्यक नाट्यकार्य आगे बढता है । महाकवि कालिदास ने नान्दी-श्लोक में भगवान् शिव के अभिज्ञान के रूप में उनकी आठ प्रत्यक्ष मूर्तियाँ प्रेक्षकों के सामने रखी थी, उसी तरह से शकुन्तला का पुत्र सर्वदमन भरत भी दुष्यन्त का ही पुत्र है उसके अभिज्ञान के रूप में आठ अभिज्ञान प्रस्तुत किये है (द्विवेदी, 2004) । जैसे कि, 1. मारीच ऋषि के आश्रम में सिंहशिशु के साथ खेल रहे पुत्र के हाथ में चक्रवर्ती बनने के लक्षण दिखाई पडते है । राजा दुष्यन्त को चक्रवर्ती पुत्र होगा ऐसा आशीर्वाद मिला था । अतः यह पुत्र दुष्यन्त का हो सकता है । ऐसा प्रथम अभिज्ञान मारीच ऋषि के आश्रम में प्रकट होता है । 2. यह बालक पुरुवंश का अङ्कुर है । तो दुष्यन्त भी पुरुवंश का ही था । 3. यह मनुष्य का बालक अप्सरा सम्बन्ध से यहाँ अन्तरिक्ष में पहुँचा है - ऐसा सूनके दुष्यन्त को याद आता है कि उनकी प्रिया शकुन्तला भी अप्सरा (मेनका) की पुत्री थी और प्रत्याख्यान के बाद उसको कोई अन्तरिक्ष में ऊठा के ले गया था । दुष्यन्त को यह द्वितीय आशाजनक एक अभिज्ञान लगता है । 4. दुष्यन्त पूछता है कि इस पुत्र की माता किस राजर्षि की पत्नी है ? तब ऋषिकन्याओं ने उत्तर दिया कि धर्मपत्नी का त्याग करनेवाले उस अभागी व्यक्ति का कौन नाम लेगा । यह संवाद भी, यह पुत्र शकुन्तला का ही होगा उसका अभिज्ञान देनेवाला है । 5. इस बालक को मृत्तिका-मयूर देते समय जैसे ही बोला जाता है कि "शकुन्तलावण्यं पश्य" वैसे ही, वह बालक पूछता है कि कहाँ है मेरी माता ? इससे भी राजा को अभिज्ञान मिल जाता है कि इस बालक की माता का नाम शकुन्तला ही है । 6. दुष्यन्त ने मार्ग पर गिरी अपराजिता औषधि से बनी बालक की अङ्गूठी ऊठा ली । फिर भी वह सर्प बनके दुष्यन्त को दंश नहीं देती है । इससे भी सिद्ध होता है कि दुष्यन्त ही उस बालक का पिता है । 7. सर्वदमन भरत कहता है कि तुम मेरे पिता नहीं हो, मेरे पिता तो दुष्यन्त है । किसी भी बालक को अपनी माता से अपने पिता का जो नाम जानने को मिलता है, वही प्रमाण माना जाता है । वही परम सत्य होता है । क्योंकि गान्धर्व विवाह का कोई ओर तो साक्षी था नहीं, इस स्थिति में माता का वचन ही अन्तिम प्रमाण बनेगा । 8. शकुन्तला ने इसी बालक को ही जन्म दिया था इस बात का प्रमाण मारीच प्रस्तुत करते है । वे पूछते है कि हे राजन् दुष्यन्त, आपने इस शाकुन्तलेय का अभिनन्दन किया या नहीं ? तब इसी बालक को शकुन्तला ने जन्म दिया था – यह स्पष्ट हो जाता है । इस तरह बालक भरत का "दौष्यन्ति" एवं "शाकुन्तल" के रूप में अभिज्ञान सर्वथा निःशङ्क हो जाता है । षष्ठाङ्क में अङ्गुलीयक मिलने से तो केवल शकुन्तला का ही अभिज्ञान स्पष्ट हुआ था । किन्तु उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण था पुत्र भरत का अभिज्ञान । जिसकी सिद्धि के लिये महाकवि कालिदास ने भगवान् शिव के आठ प्रत्यक्ष रूपों की तरह, सप्तम अङ्क में आठ आठ अभिज्ञान प्रस्तुत किये है ।।
5 – 2 अभिज्ञान शब्द का अर्थ 1. पहेचान का चिह्न, 2. पहेचानी गई व्यक्ति 3. और पहेचान क्रिया । इस नाटक में ये तीनों प्रकार के अभिज्ञान विलसित हो रहे है । किन्तु "यह शकुन्तला दुष्यन्त की परिणीता स्त्री है" – इस तरह के अभिज्ञान से भी अधिक सुन्दर एवं मनोहारी है सगन्ध हरिण बने दुष्यन्त का अभिज्ञान । जो विकसित हुए नाट्यकार्य का सर्वोत्तम परिणाम है ऐसा प्रतीत होता है । महाकवि ने इस नाटक को केवल नायिका शकुन्तला के अभिज्ञान से ही पूर्ण न करते हुए, पुत्र भरत का शाकुन्तल एवं दौष्यन्ति के रूप में अभिज्ञान दिखाने तक नाटक का विस्तार किया है, उससे यह भी स्पष्ट होता है कि बंगाली एवं मैथिल पाठपरम्परा अनुसार प्रस्तुत नाट्यकृति का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तल" नहीं हो सकता, किन्तु देवनागरी तथा दाक्षिणात्य पाठपरम्परा अनुसार "अभिज्ञानशाकुन्तल" ही हो सकता है ।। इस शीर्षक के अनुसार यहाँ अभिज्ञान, शकुन्तला एवं शाकुन्तल (भरत) – ये तीनों को आविष्कृत करके महाकवि ने सभी दर्शकों को शाश्वत काल के लिये चमत्कृत कर दिये है ।।

6 – 1 प्रस्तुत आलेख में प्रतीकों से व्यक्त होनेवाले नाट्यकार्य को स्पष्ट करने का उपक्रम रखा है, इस लिये पुत्र भरत का अभिज्ञान भी प्रतीकों के द्वारा भी दिखाया गया है यह कहना अनशिष्ट है । महाकवि ने शकुन्तला के लिये हरिणी का प्रतीक रखा है, तो उसके सामने दुष्यन्त के लिये ( प्रथमाङ्क के अन्त में ) धर्मारण्य में गज का प्रवेश हुआ है ऐसा कह कर नायक के लिये गज का प्रतीक रखा है । इसी के अनुसन्धान में सप्तम अङ्क में दुष्यन्त का पुत्र भरत जो चक्रवर्ती के लक्षणों को धारण कर रहा है, उसको सिंहबाल के साथ खेलता हुआ दिखा के कवि ने उसके लिये बालमृगेन्द्र का प्रतीक रखा है । तथा वह बालक शकुन्तला का भी पुत्र है इस लिये मयूर का प्रतीक उपयुक्त समझा है । सर्वदमन भरत के लिये रखे "बालमृगेन्द्र" तथा "मयूर" जैसे प्रतीकों से महाकवि ने अपनी हृदयस्पर्शी प्रतीक-योजना को पराकाष्ठा पर पहुँचा दी है ।।

निसर्ग के अङ्क में प्रसूता शकुन्तला के जीवन की कहानी कहेने के लिये महाकवि कालिदास ने समग्र निसर्ग में दृश्यमान 1. हरिण, हस्ती, सिंहशावक जैसे पशु,प्राणिओं, 2. शिरीष, आम्रमञ्जरी, कमलादि जैसे अनेकविध पुष्प एवं भ्रमर जैसा एक छोटा सा जन्तु , 3. और चक्रवाक, परभृतिका तथा हंस जैसे विभिन्न पक्षिओं का प्रतीकात्मक संनिवेश करके इस नाट्यकृति को रमणीय बनाने के साथ शाश्वतकाल के लिये सार्वभौम भी बना दी है । अलबत्ता, इनमें से ( नायक दुष्यन्त के लिये प्रयुक्त ) भ्रमर, एवं ( नायिका शकुन्तला के लिये प्रयुक्त ) हरिणी, कमल तथा हंस जैसे त्रिविध प्रतीकों का साद्यन्त विनियोग करके विकसित होते रहे नाट्यकार्य की अविस्मरणीय अभिव्यक्ति की है ।।
उपसंहारः
1. अभिज्ञानशाकुन्तल का उपर्युक्त विवरण देखकर प्रतीत होगा कि प्रेम जैसी नैसर्गिक संवेदना का आलेखन करने के लिये निसर्ग के ही प्रतीक हृदयस्पर्शी हो सकते है - यह परम रहस्य सब से पहले महाकवि कालिदास को ही प्राप्त हुआ है । शायद इसी बात को लेकर कविओं की गणना के प्रसंग में कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदास ने अनामिका को सार्थवती बनाई है ।।
2. परम्परागत समाज ने पुरुष और स्त्री में जो भोक्तृ-भोग्यभाव सम्बन्ध माना है, उसके प्रति कालिदास की निसर्गसिद्ध दृष्टि सर्वथा भिन्न है । क्योंकि जहाँ भोक्तृ-भोग्यभाव होता है वहाँ उच्चावचता भी अन्तर्निहित होती है । लेकिन महाकवि ने तो नायक-नायिका को हरिण और हरिणी के रूप में चित्रित करके, मधुकर – मधुकरी में साहचर्य का अभिलाष जगाके तथा दोनों को हंसमिथुन के रूप में रममाण दिखाके दोनों के बीच में समान रूप से भोग्यत्व एवं भोक्तृत्व आविष्कृत किया है ।
तथा स्त्री एवं पुरुष में, अथवा लता एवं वृक्ष में पारम्परिक दृष्टि से जो अवलम्ब्य–अवलम्बन-भाव सम्बन्ध देखा जाता है, उसके प्रति भी कालिदास की निसर्गसिद्ध दृष्टि स्पृहणीय है । शकुन्तला स्वरूपिणी वनज्योत्स्ना को दुष्यन्त स्वरूप सहकार वृक्ष का अवलम्बन अपेक्षित है, उसमें अवलम्बन-प्रदाता वृक्ष का चारितार्थ्य भी उसीमें होगा की वह अपना सहकारत्व प्रकट करें । इसी लिये कालिदास ने दुष्यन्त के लिये ओर कोई दूसरा वृक्ष न रखके, सहकार के वृक्ष को ही प्रतीक के रूप में चूना है ।।
3. नटी-गीत में जो ध्यानास्पद है वह तो क्षण भर के लिये चुम्बित और बाद में परित्यक्त शिरीषपुष्पों की दयनीय दशा है, उसमें उल्लिखित भ्रमर ध्यानाकर्षक नहीं है । महाभारत-प्रोक्त शकुन्तलोपाख्यान में केवल अभिज्ञान की समस्या थी और वह बेढंगी रूप से वर्णित थी । उसमें परिष्कार करते हुए महाकवि ने स्त्रीजीवन की करुणासभर नियति को भी शामिल किया है, तथा उसको समस्त प्रकृति मे फैले शिरीषादि पुष्पों के द्वारा वाचा दी है ।
4. अतः "दुष्यन्त में भ्रमरवृत्ति थी और उसके उन्मूलन के लिये दुर्वासा के शाप का कवि ने विधान किया है" ऐसा मन्तव्य आकर्षक होते हुए भी पुनरीक्षणीय लगता है । क्योंकि उपर्युक्त प्रतीक-चर्चा के अनुसार तो दुष्यन्त के लिये भ्रमर का प्रतीक सर्वांश में घटित नहीं होता है । प्रत्युत भ्रमर के विनियोग से कवि ने नाट्यकार्य का जो विकास प्रदर्शित किया है, वही ध्यानास्पद है ।
5. तथा "शकुन्तला में अतिथि-सत्कार की भावना नहीं थी, इस लिये उसको भी शाप का फल मिला है" ऐसा कहना भी उचित नहीं है । क्योंकि कवि ने कहीं पर भी शकुन्तला को पश्चात्ताप हो रहा है ऐसा कहा नहीं है । बल्कि शकुन्तला को तो अन्त तक यह मालुम भी नहीं है कि उसको कोई शाप मिला था । अतः पश्चात्ताप की बात प्रकृत में सङ्गत नहीं होती है ।
6. नाटक के आरम्भ में ही कहा गया है कि पिता कण्व शकुन्तला के प्रतिकुल दैव का शमन करने के लिये सोमतीर्थ की यात्रा पर गये है । इस के अनुसन्धान में दुर्वासा के शाप को दुर्दैव का प्रतीक ही कहना होगा । और शकुन्तला ने भी यही कहा है कि मेरे कोई पुराकृत के कारण ही आर्यपुत्र कुछ काल के लिये मुझ से विरस हो गये थे । इस तरह नाटक के उपक्रमोपसंहार को देखते हुए दुर्वासा के शाप को शकुन्तला के दुर्दैव का ही प्रतीक मानना तर्कयुक्त सिद्ध होता है ।
7. और शकुन्तला के लिये प्रयुक्त परभृतिका या चक्रवाक पक्षी के प्रतीक भी शकुन्तला के दुर्दैव का ही प्रकट रूप कहा जा सकता है ।।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. आपका यह ताज़ा शोध-पत्र निश्चित रूप से बहुत महत्त्वपूर्ण है.

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  2. श्रीशरदेन्दु जी, नमस्कार । आपका परिचय लिखने की कृपा करें ।
    धन्यवाद ।
    मैं आशा करता हुँ कि मेरा आलेख कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के विवेचन से हट कर है और उनका प्रतिवाद भी है । आपके विचार लिखे ।
    वसन्त भट्ट

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