शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

अभिज्ञानशाकुन्तल के देवनागरी पाठ में संक्षेपीकरण के पदचिह्न

अभिज्ञानशाकुन्तल के देवनागरी पाठ में संक्षेपीकरण के पदचिह्न


( शारदा पाण्डुलिपियों के विशेष सन्दर्भ में )

वसन्तकुमार म. भट्ट

निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद – 380 009

bhattvasant@yahoo.co.in

0 – 1 भूमिका : विश्वनाट्यसाहित्य में महाकवि कालिदास के अभिज्ञानशाकुन्तल का नाम अपरिहार्य एवं अग्रगण्य है इस अभिमत में कोई विवाद नहीं है । लेकिन पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ उसका पाठ सर्वांश में "कवि-प्रणीत" ही है ऐसा कहेना विवाद से परे नहीं है ! क्योंकि पाण्डुलिपिओं में मिल रहा इस नाटक का पाठ एकरूप नहीं है, अनेकरूप है । जिसका प्रमुख कारण यही है कि दो हज़ार वर्षों की सुदीर्घ कालावधि में इस नाटक का मूलपाठ बार बार के प्रतिलिपिकरण, लिप्यन्तरण एवं मंचन के आवर्तनों से गुजरता हुआ हम तक पहुँचा है । परिणामतः वह अपने मूल रूप से काफी हद तक विचलित हो गया है । आज उपलब्ध होनेवाली पाण्डुलिपिओं में मिल रहे विविध पाठान्तरों का अवलोकन करके विद्वानों ने देखा है कि इस नाटक का एक लघु पाठ चल रहा है, और दूसरा बृहत्पाठ भी है । इनमें से लघुपाठ तो विशेष रूप से लोकप्रिय भी है, और वही सुप्रचलित भी है । बृहत्पाठवाले इस नाटक का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तलम्" है । मतलब कि जिसमें अभिज्ञान से संस्मृता, अथवा ज्ञाता शकुन्तला केन्द्र में है, ऐसी नाट्यकृति । इस बृहत्पाठ परम्परा में तीन वाचनायें निर्धारित की गई हैं । जैसे कि, 1) काश्मीरी वाचना, 2) मैथिली वाचना और 3) बंगाली वाचना ।। इसके प्रतिपक्ष में दूसरी लघुपाठ परम्परा है, जिसमें इस नाटक का शीर्षक "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" है । इसका अर्थ होता है कि जिसमें अभिज्ञान से संस्मृत शकुन्तला और शाकुन्तल ( अर्थात् शाकुन्तलेय ) केन्द्र में है ऐसी नाट्यकृति । इस पाठपरम्परा में दो वाचनायें निर्धारित की गई हैं : जैसे कि, 4) संमिश्रित एवं संक्षिप्त देवनागरी वाचना, तथा 5) दाक्षिणात्य वाचना ।।

देश-विदेश की बहुत सारी पाण्डुलिपिओं को एकत्र करके जब इन सब की निम्न स्तरीय पाठालोचना की गई तब मालुम हुआ है कि इस देश के कम से कम पाँच प्रदेशों में जो पाठ प्रवाहित हुआ है वह बहुत स्थानों में परस्पर से भिन्न है । जिसको उपर्युक्त पञ्चविध वाचनाओं के नाम से पृथक्कृत किया गया है । लेकिन इस तरह की प्राथमिक पाठालोचना से ज्ञात हुई विभिन्न वाचनाओं की पहेचान मात्र से पाठालोचना का कार्य संपूर्ण हो गया है ऐसा हम नहीं मान सकते है । क्योंकि एक ही नाट्यकृति की पञ्चविध वाचनाओं का प्रचलन होना वही तो अपने आप में इस बात का प्रमाण बनता है कि मूलभूत रूप से जो कृति एक ही नाट्यकार की रचना है , अर्थात् जो "एककर्तृक रचना" है उसके एकाधिक प्रचलित स्वरूपों में से कोई एक अधिकृत पाठ ( जो सम्भवतः महाकवि कालिदास ने ही लिखा हो ऐसा ) निश्चित करने का कार्य अभी तक हुआ ही नहीं है । लोकप्रियता और अधिकतया प्रचारित होने के मानदण्ड से दिखेंगे तो आम तौर पर देवनागरी वाचना का लघुपाठ ही साहित्यरसिकों के हाथों में विराजमान है । पुराने जमाने के टीकाकारों ने भी लघुपाठ पर ही सब से अधिक टीकायें लिखी है । लघुपाठ की तुलना में बृहत्पाठ बहुशः अनजान या अप्रचलित ही रहा है, क्योंकि विद्वानों ने उसे "प्रक्षेपों से भरा पाठ" कह कर उपेक्षित किया है । संस्कृत साहित्य के चूडामणिभूत इस नाटक की पाँच वाचनायें देख कर वहीं पर हम विरत नहीं हो सकते । क्योंकि जब तक कालिदासीय पाठ का सही स्व-रूप हमारे सामने उजागर नहीं होगा तब तक हम सब "अनवाप्तचक्षुःफल" ही रहेंगे । अतः पाठालोचना के अन्तिम, चतुर्थ चरण पर इन वाचनाओं के पाठ की उच्च स्तरीय समीक्षा करने का कार्य करना ही चाहिए । इस दिशा में प्रवृत्त होने के लिए जो पूर्वभूमिका रूप कार्य है वह यह है कि –मूलभूत रूप से कवि ने अपने हाथ से पहले बृहत्पाठ लिखा होगा या पहले लघुपाठ लिखा होगा ? इस प्रश्न का निर्णय किया जाय । यद्यपि इन दोनों में किसी एक में सर्वांश में मौलिकता सुरक्षित रही होगी – ऐसी अवधारणा भी हम नहीं कर सकते है । क्योंकि इस नाटक का मूल पाठ तो अनेकबार के प्रतिलिपिकरणों की लम्बी परम्परा में एवं मंचन की भी सुदीर्घ परम्परा के दौरान निरन्तर बदलता ही रहा होगा । अतः तिर्यक् दृष्टि से इस प्रश्न की समीक्षा करनी चाहिए : (क) सब से पहेले लघुपाठ की परीक्षा करके उसमें अखण्डता है या नहीं वह निश्चित करना चाहिए । लघुपाठ यदि संक्षिप्त किया गया है ऐसा सिद्ध होता है, तो फिर (ख) बृहत्पाठ मौलिकता के नज़दीक है या नहीं ? उसकी परीक्षा करनी चाहिए । तत्पश्चात् (ग) उस बृहत्पाठ में प्रदूषणता प्रविष्ट हुई है या नहीं उसकी भी समीक्षा करनी होगी । इन तीनों प्रश्नों का यदि सर्वमान्य समाधान हो सकता है तो (घ) उस बृहत्पाठ या लघुपाठ की "उच्चतर समीक्षा" करके एक अधिकृत पाठ का निर्धारण करने का मार्ग प्रशस्त हो सकता है ।।

0 – 2 अब तक हुई पाठालोचना में प्राधान्येन बहुसंख्य समान-वंशज पाण्डुलिपिओं के आधार पर विभिन्न प्रान्तों की अलग अलग वाचनाओं का निर्धारण हो पाया है । लेकिन इसके आगे का कार्य, जिसमें "कवि-प्रणीत" प्रतीत होनेवाले एक अधिकृत पाठ का अनुमान / निश्चय करना अवशिष्ट ही है । इस सन्दर्भ में, अद्यावधि हुई पाठालोचनाओं में भी जो कुछ विकलताएँ दिख रही है उससे भी अवगत होना सब से पहले आवश्यक है । जैसे कि,

(1) बंगाली (Pischel, 1876, ( Second edition - 1922 )), मैथिली (रमानाथ, 1957) और देवनागरी (Patankar,1902) वाचनाओं के पाठ की समीक्षितावृत्ति ( Critical Text-Edition ) प्रकाशित हुई है । किन्तु दाक्षिणात्य वाचना के पाठ की समीक्षितावृत्ति अभी तक किसी ने नहीं निकाली है । यद्यपि दाक्षिणात्य वाचना के पाठ का आश्रयण करके काटयवेम ने कुमारगिरिराजीया नामक जो टीका लिखी है (रङ्गाचार्य, 1982), उसमें प्रसिद्ध हुए पाठ को हम दाक्षिणात्य पाठ मान कर चल सकते है । क्योंकि उपलब्ध टीकाओं में वही सब से पुरानी 15वीं शती की टीका है ।

(2) काश्मीरी वाचना का समीक्षित पाठसम्पादन करने का प्रारम्भ श्रद्धेय डॉ. एस. के. बेलवालकर जी ने किया था, लेकिन जीवनसन्ध्या के समय पर स्वास्य्र की प्रतिकूलताओं के कारण उस सम्पादन में बहुत कमियाँ रह गई है । उनके देहावसान के बाद डॉ. वी. राघवन् जी ने साहित्य अकादेमी, दिल्ली से उस सम्पादन का जो प्रकाशन (Belvalkar, 1965) किया है वह किसी काम का नहीं है । क्योंकि उसमें (क) कौन सी पाण्डुलिपि या पाण्डुलिपिओं का विनियोग किया गया था, वह निर्दिष्ट नहीं है । (ख) उसमें एक भी पाठभेद का निर्देश नहीं है । (ग) डॉ. बेलवालकर जी ने उसकी प्रस्तावना नहीं लिखी है । (घ) ऑक्सफर्ड से प्राप्त की गई दो शारदा लिपि में लिखित पाण्डुलिपिओं में जो पाठ है उनसे कुत्रचित् हटके दूसरे तरह का पाठ बेलवालकर जी ने सम्पादित किया है । अर्थात् उनके द्वारा सम्पादित किये गये पाठ को हम पूर्ण रूप से शारदा-परम्परा का प्रतिनिधित्व करनेवाला पाठ नहीं कह सकते है । (घ) विदेशों में संगृहीत शारदा-लिपि में निबद्ध पाण्डुलिपिओं को प्राप्त करके काश्मीरी पाठ का पुनः सम्पादन करने का कार्य भी किसी ने किया नहीं है ।

(3) श्री पी. एन. पाटणकर जी ने ( 1902 में ) देवनागरी वाचना का शुद्धतर समीक्षित पाठसम्पादन प्रस्तुत करने का दावा किया है । लेकिन उन्होंने कृति का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तलम्" ऐसा दिया है, जो वस्तुतः बृहत्पाठ परम्परा में स्वीकृत हुआ शीर्षक है । ऐसा होने का कारण यही है कि कार्ल बुरखड ने ( ब्युल्हर को प्राप्त हुई ) शारदा-पाण्डुलिपि का रोमन स्क्रिप्ट में जो लिप्यन्तरण 1884 में जर्मनी से प्रकाशित किया था, वह प्रॉफे. भाण्डारकर जी ने श्री पाटणकर को भेजा था । श्रीपाटणकर ने उसी शारदा-पाठ को भी ध्यान में लेकर देवनागरी पाण्डुलिपिओं में संचरित हुए देवनागरी पाठ का निर्धारण किया था । अतः श्रीपाटणकर जी की "शुद्धतर देवनागरी वाचना" की समीक्षितावृत्ति में भी कुत्रचित् काश्मीरी पाठान्तरों का प्रभाव प्रतिबिम्बित हो गया है !!

(4) अभी तक इस नाटक के जो भी समीक्षित पाठसम्पादन या स्थानीय संस्करण निकले है उसमें किसीने भी पाण्डुलिपिओं में संचरित होके हम तक पहुँचे पाठ में रंगमंचीय पाठभेद ( प्रक्षिप्त या संक्षिप्त किये गये पाठ ) के स्वरूप पर शायद विचार ही नहीं किया है ।

(5) डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल ने अभिज्ञानशकुन्तल के जो पुनर्गठित (बंगाली)पाठ का प्रकाशन किया है, उसकी प्रस्तावना में यद्यपि अलंकारशास्त्रीय ग्रन्थों में आये हुए अभिज्ञानशकुन्तल के उद्धरणों का अभ्यास करके दिखाया है कि ये सभी उद्धरण बृहत्पाठानुसारी ही है । जिससे यह फलित होता है कि देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के लघुपाठ की अपेक्षा से बृहत्पाठ निश्चित रूप से पुरोगामी है । किन्तु उन्होंने (क) पाँचो वाचनाओं में बिखरी हुई मौलिकता को ढूँढने का उपक्रम नहीं रखा है । केवल बंगाली पाठ को ही आद्य एवं मौलिक मान कर उसका मान्य-पाठ के रूप में ग्रहण करने का विचार पुरस्कृत किया है । तथा (ख) देवनागरी पाठ में कहाँ संक्षेपीकरण दिख रहा है, उसकी सप्रमाण चर्चा नहीं की है । एवमेव, (ग) ऑक्सफर्ड की तीन शारदा पाण्डुलिपिओं के पाठभेदों का पादटीप में प्रदर्शन जरूर किया है, लेकिन इस नाटक के पाठ का संक्रमण-क्रम और तदनुसारी उपलब्ध पाण्डुलिपिओं के सम्भवित वंशवृक्ष की उन्होंने जो परिकल्पना की है वह विवादास्पद है । जिसका ऊहापोह अद्यावधि किसीने किया भी नहीं है ।।

सर विलीयम जोन्स ने ई. सन् 1789 में अभिज्ञानशकुन्तल का प्रथम आङ्ग्ल अनुवाद प्रकाशित किया है तब से अद्यावधि ( मतलब की दो सौ साल के अन्तराल में ) पाँच-छः विद्वानों से अधिक किसीने भी पद्धति-पुरस्सर की पाठालोचना नहीं की है । अखिल भारतीय प्राच्यविद्या परिषद् ( पूना, 1919 ) के प्रथम अधिवेशन में प्रॉफे. श्रीबलवन्तराय ठाकोर ( गुजरातीभाषा के संमान्य कवि ) ने The Text of S’akuntala शीर्षक से प्रस्तुत किये शोध-आलेख (Thakore, 1922) में इस नाटक का पाठ कैसे निर्धारित किया जाना चाहिए उसकी विचार-प्रेरक चर्चा ऊठाई थी । लेकिन वह चर्चा अरण्यरुदन के समान एकान्त में शान्त हो गई । उसके पश्चात् कतिपय विरल विद्वान् इस कार्य में लगे, जिसमें से सर्वप्रथम उल्लेखनीय श्रद्धेय डॉ. श्रीपाद कृष्ण बेलवालकर जी, जिन्होंने ( 1923,1929,1965 में ) अभिज्ञानशकुन्तल के पाठ की उच्चतर समीक्षा की है, किन्तु कतिपय चुने हुए स्थानों की ही है ।।

पाठालोचनाओं की इस तरह की विकलताओं को जानकर, उपलब्ध पञ्चविध वाचनाओं का तौलनिक अभ्यास करना जरूरी है । ततः बृहत्पाठ या लघुपाठ में से जो भी मौलिकता के नझदीक सिद्ध होता हो उसकी सर्वतोग्राही उच्चतर समीक्षा करने की कोशिश करनी चाहिए ।

0 – 3 पहेले यह निश्चित करना उपयुक्त होगा कि उपर्युक्त बृहत् एवं लघु पाठों में से कौन प्राचीनतर काल से प्रचलित हुआ दिख रहा है । इस प्रश्न का समाधान करने लिए "इस नाटक की आज उपलब्ध हो रही पाण्डुलिपिओं में से कौन सब से पुरानी है ?" यह देखने की अपेक्षा से बहेतर वही होगा कि इन पञ्चविध वाचनाओं के बहुविध पाठान्तरों में से कौन सा पाठ प्राचीनतर काल के आलङ्कारिकों के ग्रन्थों में उद्धृत हुआ है, वह देखा जाय । ( इस सन्दर्भ में, उपलब्ध टीकाओं में कौन सा पाठ समादृत हुआ है वह परीक्षणीय नहीं है । क्योंकि 15वीं शती के काटयवेम से अधिक पुराना कोई टीकाकार मिलता नहीं है । तथा विद्यमान पाण्डुलिपियाँ भी बहुत पुराने काल की नहीं मिलती है । जब कि आलङ्कारिकों की परम्परा तो 7वीं शती के भामह या वामन से मिल रही है ।। ) निदर्श : (1) तृतीयाङ्क के प्रवेशक के बाद रंगमंच पर राजा दुःषन्त का प्रवेश होता है । वहाँ काश्मीर की शारदा पाण्डुलिपियों में रंगसूचना देते हुए लिखा है कि ततः प्रविशति कामयानावस्थो राजा । मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में ततः प्रविशति मदनावस्थो राजा । तथा, देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं में ततः प्रविशति कामयमानावस्थो राजा । इन पाठान्तरों में से सब से पुराना पाठभेद कौन है उसका निश्चय एक बहिरंग प्रमाण से होता हैः काश्मीर के आलंकारिक वामन ने ( 8वीं शती में ) काव्यालंकारसूत्रवृत्ति में लिखा है कि – "कामयानशब्दः सिद्धोऽनादिश्चेत्" । ( 5-2-83 ) अर्थात् वामन के इस सूत्र से शारदा पाण्डुलिपिओं में मिल रहे कामयान-अवस्था वाले पाठान्तर का ही समर्थन किया है । एवमेव, पण्डितप्रवर श्रीरेवाप्रसादजी ने कहा है कि स्वयं कालिदास ने रघुवंश (19-50) में कामयान शब्द का विनियोग किया है । निदर्श – (2) शारदा पाण्डुलिपिओं में, अस्याः कथमप्युन्नमितं न चुम्बितं तु । ( अङ्क – 3 / 34 ) ऐसा जो पाठ मिलता है वही उद्धरण के रूप में आनन्दवर्धन (विश्वेश्वर, 1985) ने ध्वन्यालोक (16 / 3) में दिया है । ( आनन्दवर्धन का समय 850 ईसा है । ) उसके प्रतिपक्ष में मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं के पाठ में अस्याः कथमप्युन्नमितं न चुम्बितं तत् । ( अङ्क – 3 / 34 ) ऐसा प्राप्त हो रहा है । इससे सिद्ध होता है कि काश्मीर की शारदा पाण्डुलिपिओं में संचरित हुआ जो पाठ है वही प्राचीनतम हो सकता है ।। डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल ने भी कुछ ऐसे ही अन्य बहिरंग प्रमाण दिये है, जिससे भी सिद्ध होता है कि लघुपाठ की अपेक्षा से बृहत्पाठ ही पुरोगामी और प्राचीनतर पाठ है । निदर्श – (3) रूप से, गणरत्नमहोदधि (2-70) में आये शाकुन्तल के उद्धरणों का पाठ, उदा. मणिबन्धन-गलितम् इदं संक्रान्तोशीरपरिमलं तस्याः । हृदयस्य निगडमिव मे मृणालवलयं स्थितं पुरतः ।। ( अ. शकु. 3-31 ) यह श्लोक बृहत्पाठानुसारी है । ( यह श्लोक लघुपाठ परम्परा के शाकुन्तलों में कहीं पर भी नहीं है ) ।।

उपर्युक्त सन्दर्भों से बृहत्पाठ परम्परा प्राचीनतर है यह तो सिद्ध होता ही है, किन्तु इसके साथ-साथ यह भी दिखता है कि बृहत्पाठ का संचरण करनेवाली तीनों वाचनाओं में भी जो काश्मीरी वाचना है, और जिसका परम्परागत पाठ शारदा-पाण्डुलिपिओं में सुरक्षित रहा है वही सब से प्राचीनतम है ।।

1 – 0 – 1 प्रस्तुत आलेख में, ऑक्सफर्ड से प्राप्त की गई दो शारदा पाण्डुलिपियाँ, एवं उनके साथ में कार्ल बुरखड के द्वारा रोमन स्क्रिप्ट में रूपान्तरित की हुई तीसरी शारदा पाण्डुलिपि का विनियोग करके, देवनागरी वाचना के पाठ में संक्षेपीकरण हुआ है – ऐसा सिद्ध करनेवाले जो असंदिग्ध पदचिह्न दिख रहे हैं उनकी चर्चा करनी अभीष्ट है । इस चर्चा के अन्तर्गत 1. तृतीयांक में हुआ संक्षेप उद्घाटित करनेवाले पदचिह्न, जो सब से पहेले डॉ. बेलवालकर जी ने दिखाये थे, उनकी चर्चा होगी । ततः 2. तृतीयांक के उपान्त्य श्लोक में विद्यमान एक प्रकट पदचिह्न की ओर ध्यान आकृष्ट किया जायेगा, जिससे इस अङ्क में हुए संक्षेप का साधक दूसरा प्रमाण मिल जाता है । एवमेव, 3. इस नाटक में साद्यन्त प्रयुक्त हुई एक निश्चित नाट्य-शैली का अन्तःसाक्ष्य के रूप में विनियोग करके बृहत्पाठ में संचरित हुए ( लेकिन लघुपाठ में अनुपलब्ध ऐसे ) दो दृश्यों की मौलिकता उजागर की जायेगी । तथा 4. वर्णनात्मक अंशों में जहाँ जहाँ पर श्लोकात्मक निरूपण है वहाँ कवि के द्वारा प्रयुक्त "अपि च", एवं "अथवा" जैसे निपातों का स्वारस्य उद्घाटित करके, इस नाट्यकृति के वाचिक (पाठ्यांश) में मंचन के दौरान जो संक्षेप-प्रक्षेप की लीला खेली गई है वह प्रदर्शित की जायेगी ।।

1 – 0 – 2 अभिज्ञानश(शा)कुन्तल के मौलिक पाठ सम्बन्धी दो पक्ष : (क) इस नाटक का लघुपाठ जिसमें चल रहा है वह देवनागरी वाचना का पाठ ही मौलिक पाठ हो सकता है । इस प्रथम मत के पक्षधर विद्वान् श्री जीवानन्द विद्यासागर, प्रॉ. शारदारंजन राय, श्री पी. एन. पाटणकर, एवं प्रॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी जी आदि का विद्वत्समूह है । (ख) बृहत्पाठ परम्परा का पाठ मौलिक हो सकता है, इसमें भी बंगाली वाचना का पाठ ही मौलिकता के सब से अधिक नझदीक है ऐसा कहनेवालों में डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल जैसे विरल विद्वान् है । यद्यपि डॉ. एस. के. बेलवालकर जी ने भी बृहत्पाठ परम्परा के पाठ को ही श्रद्धेय माना था । लेकिन सिल्वाँ लेवी के विचारों से प्रभावित होके उन्होंने काश्मीरी पाण्डुलिपिओं में से चयनित हो ऐसा नातिलघु एवं नातिदीर्घ समीक्षित पाठ प्रस्तुत करने का संकल्प किया था, स्वप्न देखा था । किन्तु जीवनसन्ध्या की वेला में नादुरस्त स्वास्थ्य से वह कार्य अधुरा रह गया । परिणाम स्वरूप इस नाटक के एक सर्वसम्मत बन सके ऐसे अधिकृत पाठ का निर्णय नहीं हो पाया है । अब हमें महाकवि कालिदास के "सन्तः ( विद्वांसः ) परीक्ष्यान्यतरद् भजन्ते ।" ( मालविकाग्निमित्रम् ) इन शब्दों का स्मरण करते हुए, पुनः प्रयास करना जरूरी है ।। इस पूर्वपीठिका के साथ, ऑक्सफर्ड से प्राप्त हुई तीन शारदा-पाण्डुलिपिओं का सहारा लेकर देवनागरी वाचना के पाठ में जो संक्षेपीकरण के पदचिह्न मिल रहे है उसको पहले उजागर किया जाता है ।।

2 – 0 अभिज्ञानशाकुन्तल का सर्वाधिक विवादास्पद पाठ्यांश तृतीयाङ्क में ही है । जिसके सन्दर्भ में ही "लघुपाठ" और "बृहत्पाठ" ऐसी यथार्थ संज्ञाएँ मुख्य रूप से प्रयुक्त की गई है । लघुपाठवाली देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनाओं के तृतीयाङ्क में 24 ( या 26 ) श्लोकों का विस्तार है । और बृहत्पाठवाली वाचनाओं में 35 से लेकर 41 श्लोकों का विस्तार मिलता है । इस बृहत्पाठ परम्परा के तृतीयाङ्क में न केवल श्लोक-संख्या ही अधिक है, लेकिन इन अधिक श्लोकों से जुडे गद्य संवादों के द्वारा सम्पन्न किये गये दो दृश्य भी अधिकतया निरूपित है । जैसे कि – 1. दुःषन्त शकुन्तला के हाथ में मृणाल-वलय पहनाता है, और 2. शकुन्तला की पुष्परज से कलुषित हुई दृष्टि को वह अपने वदनमारुत से प्रमार्जित करता है । स्वाभाविक रूप के इस प्रेमसहचार के प्रसंगों में नायक-नायिका एक-दूसरे को "जीवितेश्वरी" एवं "आर्यपुत्र" शब्दों से सम्बोधित करते है । इन दो प्रसंगों को लेकर सीधा प्रश्न ऊठता है कि इनको हटाके लघुपाठ परम्परा में 24 श्लोकवाला पाठ्यांश बनाया होगा ? या फिर, पहेले से जो लघुपाठ चला आ रहा होगा उसमें इन दोनों प्रसंगों का प्रक्षेप किया गया होगा ? । तो सब से पहेले यह याद दिलाया जाता है कि आरम्भ में दिखाया है कि बृहत्पाठ ही 8वीं से लेकर 12वीं शती तक के आलङ्कारिकों में प्रचलित रहा है । अतः बहिरंग प्रमाणों से जिस बृहत्पाठ का पुरोवर्तित्व सिद्ध होता है उसको हमें नहीं भूलना है । इस दिशा में अब ऐसे दो तर्क रखे जाते हैं कि जिससे (क) देवनागरी-दाक्षिणात्य वाचनाओं में संक्षेपीकरण का उपक्रम किया गया है वह प्रकट रूप से दिख रहा है । ( इस बात को सिद्ध करनेवाले दो पदचिह्न दिखाने हैं । ) एवमेव, (ख) उपर्युक्त जिन दो दृश्यों को हटाके संक्षेप किया गया है उन दोनों प्रसंगों की मौलिकता भी सिद्ध करनेवाला कृतिनिष्ठ आन्तरिक प्रमाण प्रस्तुत करना है ।।

2 – 1 डॉ. एस के. बेलवालकर जी ने तृतीयाङ्क में आयी हुई समयसूचक रंगसूचनाओं की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया है । मृगपोतक को उनकी माँ से संयोजित करवाने का बहाना बना के दोनों सहेलियाँ रंगभूमि से बाहर चली जाती है । तब रंगभूमि पर केवल नायक-नायिका ही है, तब निम्नोक्त केवल छः वाक्यों की संवाद-शृङ्खला रखी गई हैः--

राजा – सुन्दरि, अनिर्वाणो दिवसः । इयञ्च ते शरीरावस्था,

उत्सृज्य कुसुमशयनं नलिनीदलकल्पितस्तनावरणम् ।

कथमातपे गमिष्यसि परिबाधा[कोमलैर/ पेलवै]रङ्गैः ।। (बलादेनां निवर्तयति)

शकु. – पौरव रक्षाविनयम्, मदनसंतप्तापि न खल्वात्मनः प्रभवामि

राजा – भीरु, अलं गुरुजनभयेन । दृष्ट्वा ते विदितधर्मा तत्रभवान्न दोषं ग्रहीष्यति कुलपतिः ।

अपि च, गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो राजर्षिकन्यकाः ।

श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चाभिनन्दिताः ।। 20 ।।

शकु. – मुञ्च तावन्माम् । भूयोऽपि सखीजनमनुमानयिष्ये ।

राजा – भवतु, मोक्ष्यामि ।

शकु. – कदा ।

राजा – अपरिक्षतकोमलस्य यावत् कुसुमस्येव नवस्य षट्पदेन ।

अधरस्य पिपासता मया ते सदयं सुन्दरि, गृह्यते रसोऽस्य ।। 21 ।।

नेपथ्ये – चक्रवाकवधूके, आमन्त्रयस्व सहचरम्, उपस्थिता रजनी ।।

इसमें, दिवस अभी पूरा नहीं हुआ है और लताकुञ्ज से बहार आतप है – ऐसा मध्याह्न के समय का प्रकट निर्देश राजा ने पहले किया है । उसके बाद छोटे छोटे केवल छः गद्य वाक्यों का संवाद आता है, और तुरंत उसके पीछे नेपथ्योक्ति से कहा जाता है कि रात्रि का आगमन हो गया है, हे चकवी ! तुम अपने प्रियतम से बिदा लेलो ।। इस तरह से मध्याह्न और रात्रि के बीच आयी ये छः उक्तिओं का संवाद ही इस बात का द्योतक बनता है कि इन दो समयावधि के बीच में कोई दृश्यावली रही होगी, जिसको संक्षेप करने के आशय से हटाई गई है ।। उसके प्रतिपक्ष में, बृहत्पाठ के पाठ्यांश में मध्याह्न, सायंकाल और रजनी – इन तीनों समय-सूचक शब्दावली का प्रयोग सुरक्षित रहा है । देवनागरी पाठ में आयी हुई समय-दर्शक सूचनाओं की विसंगति ही उच्च स्तरीय पाठालोचना की दृष्टि से हमारे लिए संक्षेप-साधक प्रमाण बनती है, जो कृतिनिष्ठ आन्तरिक प्रमाण होने से सब को मान्य होना ही चाहिए । मूल पाठ में कटौती होने का यह सटीक प्रमाण देनेवाले डॉ. एस. के बेलवालकर जी पहले विद्वान् थे ।।

2 – 2 तृतीयाङ्क के पाठ में किस प्रसंग को लेकर कटौती हुई है उसका प्रमाण भी उपलब्ध हो रहा है । जैसे कि, तृतीयाङ्क के आरम्भ में ही कहा गया है कि शकुन्तला प्रेमासक्त हुई है और वह अस्वस्थता का अनुभव कर रही है । दोनों सहेलियाँ विषादग्रस्त है और उसे पवन झल रही है । राजा शकुन्तला को देख कर सोचता है कि क्या यह आतपदोष हो सकता है कि जैसा मेरा मन सोच रहा है ? यहाँ राजा "अथवा कृतं सन्देहेन" कह के एक श्लोक में शकुन्तला का वर्णन करता हैः—स्तनन्यस्तोशीरं शिथिलित-मृणालैकवलयं प्रियायाः साबाधं, किमपि कमनीयं वपुरिदम् । इत्यादि ।। (3/6, यह श्लोक सभी वाचनाओं में स्वीकृत है ।) इसमें कहा गया है कि शकुन्तला ने हाथ में पहेना हुआ जो एक मृणाल-वलय है, वह "शिथिल हुआ" है । नाटक में जिसका भी निर्देश किया जाता है वह साभिप्राय, सप्रयोजन ही होता है – इस गृहीत नियम को स्मरण-पथ में रखते हुए सोचेंगे तो, इस मृणाल-वलय से जुडा हुआ कोई प्रसंग तृतीयांक में होना अपेक्षित है । और जब हम इसी अङ्क के उपान्त्य ( 3 / 23 ) श्लोक की ओर गति करते है तो उसमें निम्नोक्त तीन चीजों का निर्देश मिलता हैः—

तस्याः पुष्पमयी शरीरलुलिता शय्या शिलायामियं, क्लान्तो मन्मथलेख एष नलिनीपत्रे नखैरर्पितः ।

हस्ताद् भ्रष्टमिदं बिसाभरणम् इत्यासज्यमानेक्षणो, निर्गन्तुं सहसा न वेतसगृहाच्छक्नोमि शून्यादपि ।।

शकुन्तला जिस पर लेटी थी वह पुष्पमयी शय्या, उसने अपने नाखूनों से लिखा मन्मथलेख, तथा उसके हाथ से निकल गया, गिर गया बिसाभरण, अर्थात् मृणाल-वलय ! जिस मृणाल-वलय का निर्देश इस अङ्क के आरम्भ में आता है वही चीज अङ्क के अन्त भाग में भी उल्लिखित है । किन्तु इस देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में कहीं पर भी मृणाल-वलय से जुडा कोई प्रसंग मिलता ही नहीं है । इससे निःशङ्कतया स्पष्ट होता है कि दुःषन्त शकुन्तला के हाथ से गिरा मृणाल-वलय उसको दो बार पहनाता है ऐसा प्रसंग, जो बृहत्पाठ परम्परा की तीनों वाचनाओं में मिलता है, वह इन देवनागरी-दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में से हटाया गया है ।। देवनागरी और दाक्षिणात्य पाठ में संक्षेप किया गया है उसका यह दूसरा प्रकट पदचिह्न है, जिसके सामने हम गज-निमीलिका नहीं कर सकते है ।।

2 – 3 जब भी किसी नाटक को अल्प समयावधि में प्रस्तुत करने के आशय से उसमें कुत्रचित् संक्षेप किया जाता है तब कहाँ से कटौती की जाय, और कैसे प्रस्तुत पाठ के साथ पुनः अनुसन्धान किया जाय ? यह भी समस्या होती है । अर्थात् संक्षेपीकरण का मार्ग प्रशस्त कैसे हुआ होगा यह भी प्रश्न तो है ही । क्योंकि कालिदास जैसे कविकुलगुरु की रचना में जो भी होगा वह निश्चित रूप से "पर्यायपरिवृत्त्यसह" के स्तरवाला ही होगा । फिर संक्षेप कैसे हो ही सकेगा ? यह शङ्का बिलकुल समीचीन है । लेकिन सूक्ष्मेक्षिका से देखने पर मालुम होता है कि महाभारत के शकुन्तलोपाख्यान से प्रेरित होकर (मैथिली परम्परा में) किसी अज्ञात रसिक ने गान्धर्वेण विवाहेन0वाला श्लोक प्रक्षिप्त कर दिया । इसी श्लोक के आगमन से ही, जो सहज सुन्दर प्रेमप्रसंग मूल (बृहत्पाठ परम्परा) में था उसको हटाके नायक दुःषन्त एक मुग्ध आरण्यक कन्या को सद्यो विवाह के लिए उकसाने में सफल होता है, ऐसा दिखाना सरल हो जाता है ।

गान्धर्वेण विवाहेन0वाला श्लोक प्रक्षिप्त है ऐसा किस आधार पर कहा जाता है ? तो इस को समझने के लिए कथा-प्रवाह का पूरा सन्दर्भ बारिकी से देखना होगा । जैसा कि, तृतीयांक में प्रियंवदा और अनुसूया मृगबाल को उनकी माता के पास पहुँचाने का बहाना बना के लतामण्डप से दूर चली जाती है । अब रंगमंच पर दुःषन्त और शकुन्तला अकेले हैं । अब दुःषन्त सखीजनों की भूमिका पर खड़ा है । मध्याह्न का समय होने से वह शकुन्तला को नलिनीदल से आर्द्र वायु का संचार करने का इच्छुक है, और शकुन्तला कहे तो उसके चरणों का संवाहन करने को भी तैयार है ! किन्तु शकुन्तला माननीय व्यक्ति से ऐसी सेवा लेना उचित नहीं समझती है । अतः वहाँ से उठ के चली जाती है । दुःषन्त उसके पीछे चल पड़ता है और उसका पल्लू पकड कर रोकने की चेष्टा करता है । शकुन्तला कहती है कि – पौरव, रक्ष विनयम् । इतस्ततः ऋषयः संचरन्ति ।। इस संवाद के बाद राजा की जो उक्ति है, उसकी मौलिकता संदेहास्पद हैः –

राजा – सुन्दरि, अलं गुरुजनाद् भयेन । न ते विदितधर्मा तत्रभवान् कण्वः खेदमुपयास्यति ।

गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्योSथ मुनिकन्यकाः ।

श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चानुमोदिताः ।। 3 – 28 ।।

( दिशोऽवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोSस्मि । ( शकुन्तलां हित्वा पुनस्तैरेव पदैः प्रतिनिवर्तते । )

शकुन्तला – ( पदान्तरे प्रतिनिवृत्य साङ्गभङ्गम् ) पोरव, अणिच्छापूरओ वि संभासणमेत्तएण परिचिदो

अअं जणो ण विसुमरिदव्वो ।।

यहाँ, लतामण्डप से बाहर निकल के जा रही शकुन्तला के पीछे दुःषन्त भी चल पड़ता है तब उसको सावधान करने के लिए शकुन्तला ने "यहाँ वहाँ ऋषिमुनि लोग घुम रहे होगें" ऐसा कहा है । इस सन्दर्भ में दुःषन्त कहता है कि गुरुजनों से भय रखने की आवश्यकता नहीं है, कण्व भी ( तुझे प्रेमासक्त या विवाहित जान कर ) खेद का अनुभव नहीं करेंगे । अर्थात् तेरे पर नाराज़ नहीं होगें । दुःषन्त यहाँ विशेष में यह भी कहता है कि गान्धर्व-विवाह से विवाहित हुई बहुत सी मुनिकन्यायें ( या राजर्षिओं की कन्याएँ ) है, जो (बाद में) पिताओं के द्वारा अनुमोदित ( अभिनन्दित ) भी की गई है । इस श्लोक पर किसी विद्वान् ने नुकताचीनी शायद नहीं की है । लेकिन सम्भव है कि किसी साहित्यरसिक की दृष्टि में, दुःषन्त ने यहाँ शकुन्तला को गान्धर्व-विवाह के लिये उकसाया है – ऐसा भाव उठ सकता है । ऐसी संवित्ति मुखर हो के सामने आये या न आये, लेकिन शकुन्तला जब कह रही है कि आसपास में ऋषि-मुनि घुम रहे होंगे, तब तो विनीत वर्ताव की ही अपेक्षा है । उससे विपरित दुःषन्त गुरुजनों से डर ने की कोई ज़रूरत नहीं है ऐसा समझाने का उपक्रम शुरु करे वह दुःषन्त के धीरोदात्त चरित के अनुरूप नहीं है । अतः दुःषन्त के मुख में रखा गया प्रथम वाक्य एवं "गान्धर्वेण विवाहेन"0 वाला श्लोक बीच में से हटाया जाय तो, जो रंगसूचना-पुरस्सर का जो अनुगामी वाक्य है "( दिशोSवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोSस्मि । ( शकुन्तलां हित्वा पुनस्तैरेव पदैः प्रतिनिवर्तते । )", वह बिलकुल सही सिद्ध होता है । इसमें विचार-सातत्य भी है, और दुःषन्त का लतामण्डप में वापस चला जाना भी शकुन्तला की उक्ति से सुसम्बद्ध है ।। महाभारत के शकुन्तलोपाख्यान में दुःषन्त गान्धर्व-विवाह के लिए बहुत उतावला हो गया है । उस मूल कथा में सुधार के लिये उद्यत हुए महाकवि के लिए प्रेम का उदात्त चित्र खिंचना मुनासिब है, तो उसको अपनी कलम से गान्धर्व-विवाह का प्रस्ताव कराके किसी मुग्धा मुनिकन्या को उकसाने की ज़रूरत नहीं थी । इसे, अर्थात् गान्धर्वेण विवाहेन0 वाले श्लोक को प्रक्षिप्त मानके, हटा देने से दुःषन्त के उदात्त चरित की भी रक्षा होती है और शकुन्तला की उक्ति के साथ "कथं प्रकाशं निर्गतोSस्मि" जैसा दुःषन्त का प्रतिभाव भी सुसंगत ठहरता है ।। कहने का तात्पर्य यही है कि शकुन्तला का लतामण्डप से बाहर चले जाने के बाद, दुःषन्त भी जब वहाँ से बाहर आ जाता है तब "यहाँ वहाँ ऋषिमुनि लोग घुम रहे होगें" ऐसी प्रिया शकुन्तला की चेतावनी के साथ तो, "( दिशोSवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोऽस्मि ।" का सन्धान ही मौलिक प्रतीत होता है ।।

यह श्लोक बंगाली, मैथिली, देवनागरी एवं दाक्षिणात्य – इन चारों वाचनाओं में संचरित हुआ है । किन्तु उपर्युक्त सन्दर्भ में वह प्रक्षिप्त प्रतीत हो रहा है तो स्वाभाविक रूप से कोई भी पाठालोचक "किसी एक भी पाण्डुलिपि का क्या साक्ष्य मिलता है ?" ऐसा प्रश्न हमसे पुछेगा ही । तो इस प्रश्न का उत्तर हाँ-में है । ऑक्सफर्ड युनि. की बोडलीयन लाईब्रेरी से प्राप्त की गई पूर्वोक्त तीन शारदा पाण्डुलिपिओं में गान्धर्वेण विवाहेन0 वाला श्लोक नहीं है !! उसका न होना भी इसी बात को सर्वथा प्रमाणित करता है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त ही है । तथा इस श्लोक के "ताः" पद का अन्वय चतुर्थ-चरण में जाता है वह भी अनुष्टुप् की क्षति रूप है, जो भी कालिदास की रचना न होने का समर्थन करता है ।।

तीसरा ध्यातव्य बिन्दु यह है कि इस श्लोक के बाद जो दृश्यावली प्रस्तुत होती है उसमें नायक-नायिका के बीच मृणालवलय पहनाने का प्रेमभरा जो सहचार है, एवं उसी के सिलसिले में पुष्परज से कलुषित हुई शकुन्तला की दृष्टि को स्वच्छ कर देने की दुःषन्त की चेष्टावाला दृश्य, सही स्वरूप में मदनलेखादि के पूर्वप्रसंगों के अनुसन्धान में समुचित लगता है, जिसके आधार पर ही ( बिना किसी तरह से उकसाये ) दोनों का प्रेममिलन नैसर्गिक प्रतीत होता है ।।

2 – 4 पहले यह कहा गया है कि मूल पाठ में कटौती की जाने के बाद कथा-प्रवाह की अक्षुण्णता बनाये रखना भी परम आवश्यक है । अतः यह भी गवेषणीय है कि बृहत्पाठ में से दो दृश्यों को हटाके संक्षिप्त किये गये पाठ का पुनःसन्धान कहाँ पर कर लिया गया है ? । दोनों सहेलियाँ शकुन्तला को राजा के पास छोड़ के रंगभूमि से बिदा लेती हैं । राजा शकुन्तला को गान्धर्व-विवाह का मार्ग सूचित करके पितृ-अनुमति के विचार से मुक्ति दिलवाता है, किन्तु शकुन्तला फिर भी सहेलियों की राय लेने का सोचती है । पहले देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं का इस क्षण का संवाद द्रष्टव्य है :

शकुन्तला – मुञ्च तावन्माम् । भूयोऽपि सखीजनमनुमानयिष्ये ।

राजा – भवतु, मोक्ष्यामि ।

शकुन्तला – कदा ।

राजा – अपरिक्षतकोमलस्य यावत्, कुसुमस्येव नवस्य षट्पदेन ।

अधरस्य पिपासता मया ते सदयं सुन्दरि, गृह्यते रसोऽस्य ।।

( इति मुखमस्याः समुन्नयितुमिच्छति । शकुन्तला परिहरति नाट्येन )

नेपथ्ये – चक्रवाकवधूके, आमन्त्रयस्व सहचरम् । उपस्थिता रजनी ।

यह श्लोक केवल देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं में ही है । ( बृहत्पाठ परम्परा में तो यहाँ एक अलग ही श्लोक हैः—जैसे कि, इदमुप्युपकृतिपक्षे सुरभि मुखं ते मया यदाघ्रातम् । ननु कमलस्य मधुकरः संतुष्यति गन्धमात्रेण ।। ) लघुपाठ परम्परा में ही मिलनेवाला यह श्लोक "मालभारिणी" छन्द में लिखा गया है, जो गुजरात के हेमचन्द्राचार्य ( 11वीं शतीं में ) ने पहलीबार परिभाषित किया था । दूसरी ओर यह श्लोक बृहत्पाठ परम्परा में ( काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली ) है नहीं । इन दो कारणों से सिद्ध होता है कि संक्षेपीकरण के बाद जो अपेक्षित सन्धान करना था, वो इस नवीन छन्द में निबद्ध श्लोक से यहाँ पर किया गया है ।।

इस तरह से प्रस्तुत नाटक के पाठ्यांश में संक्षेप हुआ ही है उसके साधक ( कृतिनिष्ठ आन्तरिक ) प्रमाणों की चर्चा की गई है ।। अब बृहत्पाठ में मिल रहे दो दृश्यों, जिसको हटाया गया है, उसी पाठ्यांश की मौलिकता के साधक प्रमाणों की भी उपस्थापना करनी आवश्यक है । इस विषय की चर्चा प्रस्तुत नाट्यकृति में साद्यन्त प्रयुक्त की गई विशिष्ट नाट्यशैली के मानदण्ड से सिद्ध की जायेगी । नाट्य जैसे अभिनेय काव्यों की पाठालोचना में किसी भी पाठ्यांश में संक्षेप एवं प्रक्षेपादि, या पाठ्यांश की मौलिकता सम्बन्धी ऊहापोह पाण्डुलिपिओं के साक्ष्य पर निर्भर नहीं होता है । पाठालोचक को उच्चतर समीक्षा के क्षेत्र में, बहुसंख्य पाण्डुलिपिओं में क्या मिल रहा है या क्या नहीं मिल रहा है ? इस दृष्टि का त्याग करके ऐसा तर्क प्रस्तुत करना है जिसमें अन्तःसाक्ष्य के रूप में कृतिनिष्ठ कुछ योजना से समर्थन उपलब्ध होता हो ।। इतनी सैद्धान्तिक पृष्ठभूमिका के साथ अनुगामी चर्चा रखी जाती है ।।

3 – 0 देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के तृतीयाङ्क में 24 ( या 26 ) श्लोकों का विस्तार है । उसके प्रतिपक्ष में, बृहत्पाठ परम्परावाले अभिज्ञानशकुन्तल में 35 से लेकर 41 श्लोकों का विस्तार दिखता है । इन विस्तृत भाग में दो दृश्यों का संनिवेश किया गया है । जैसे कि, (क) रंगभूमि से सखियों का निष्क्रमण होने के बाद नायक-नायिका रंगमंच पर अकेले हैं । नायक शकुन्तला के हाथ से गिरे मृणाव-लवय को पहनाता है । और तत्पश्चात् (ख) दुःषन्त शकुन्तला को वह मृणाल-वलय कैसा लगता है ? ऐसा प्रश्न करता है, उसी क्षण पवन की लहर चलने पर उसके नेत्र में कर्णोत्पल की रज गिरती है । अब उसकी दृष्टि कलुषित होने पर दुःषन्त अपने वदनमारुत से उसे निर्मल कर देता है । शकुन्तला के करीब आने पर दुःषन्त को उसके अधरपान की इच्छा होती है, किन्तु शकुन्तला मुख को घुमा लेती है । तब अचानक नेपथ्य से उक्ति सुनाई देती है कि हे चकवी, तुम अपने प्रिय सहचर से बिदा लेलो, रात्रि का आगमन हो गया है । रंगमंच पर गौतमी का आगमन होता है और वह शकुन्तला को लेकर चली जाती है, तब अङ्क समाप्त होता है । अब, इन दो दृश्यों की मौलिकता हमारी परीक्षा का विषय है ।।

3 – 1 देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में से उपर्युक्त दोनों दृश्यों मिलता नहीं हैं । लेकिन जो विद्वान् देवनागरी के पाठ में संक्षेपीकरण हुआ ही नहीं है ऐसा पूर्वाग्रह बनाके बैठे है वे ऐसा प्रश्न पुछ सकते हैं कि उपर्युक्त दोनों ही दृश्य मौलिक पाठ के रूप में इस नाट्यकृति में पहले से ही थे ऐसा कैसे सिद्ध हो सकेगा ? तो तीसरे अङ्क के उपान्त्य श्लोक में जो बिसाभरण ( अर्थात् लीलाभरण या मृणालवलय ) का निर्देश आता है उनसे ही सिद्ध होता है पहलेवाला दृश्य मूल में था । यदि शकुन्तला के हाथ में मृणाल-वलय पहनाने का प्रसंग कवि ने लिखा ही नहीं था तो फिर उपान्त्य श्लोक में वे शकुन्तला की जिन तीन चीजों का परिगणन दुःषन्त के मुख से करवाते है उसमें बिसाभरण(=मृणालवलय) का उल्लेख ही नहीं करते । एवमेव, इस मृणालवलय का बार बार गिरना भी अवश्यंभावि था, क्योंकि इस अङ्क के आरम्भ में ही, जब शकुन्तला रंग पर प्रविष्ट हुई है तब से दुःषन्त ने ही कहा है कि उसने अपने हाथ में एक मृणाल-वलय पहना है, जो शिथिल भी है ।।

इस मृणाल-वलय का प्रसंग मूलगामी पाठ में होना एक अन्य आन्तरिक सम्भावना से भी समर्थित होता हैः--- जिस लतामण्डप में दुःषन्त-शकुन्तला का एकान्त मिलन होता है वहाँ आरम्भ में शकुन्तला लतामण्डप से बाहर चली जाती है । तब दुःषन्त शकुन्तला के मणिबन्धन से गलित हुए मृणालवलय को देखता है, जिसको वह “हृदयस्य निगडम् इव ” कहता है , फिर उसको उठा लेता है और अपने गले लगाता है । उस वलय को वापस लेने के बहाने शकुन्तला लतामण्डप में जब पुनःप्रविष्ट होती है वहाँ प्रिया शकुन्तला को देखते ही दुःषन्त सहर्ष बोलता हैः- “अये, जीवितेश्वरी मे प्राप्ता ।” इसके बाद, दुःषन्त ने जब शकुन्तला के हाथ में उसे पहनाया तब शकुन्तला के मुख से “त्वरताम् त्वरताम् आर्यपुत्रः ।” ऐसा सम्बोधन निकल जाता है । कङ्कण-स्वरूप मृणाल-वलय पहनाने के अवसर पर शकुन्तला के मन में दुःषन्त के लिये पतिभाव प्रकट हुआ हो यह अत्यन्त स्वाभाविक है । इस दृष्टि से, मृणाल-वलय प्रसंग में नायक-नायिका ने परस्पर जो “जीवितेश्वरी” और “आर्यपुत्रः” कहा है, जिससे मालुम होता है कि इन दोनों के दिल में दाम्पत्य भाव प्रकट हुआ है । यह क्षण प्रेक्षकों को दिखाना ज़रूरी था । क्योंकि मुद्रिका मिल जाने के बाद अन्तःपुर की अन्य स्त्रियों के सामने दुःषन्त के मुख से कदाचित् “गोत्र-स्खलन” हो जाता है, ऐसा षष्ठाङ्क में निरूपण आता है तो ( दाक्षिण्येन ददाति वाचमुचिताम् अन्तःपुरेभ्यो यदा, गोत्रेषु स्खलितस्तदा भवति च व्रीडाविलक्षिश्चिरम् । शाकु. 6, ) वह बिलकुल निराधार है ऐसा नहीं लगता है ।।

किन्तु देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में तो यह मृणाल-वलय का प्रसंग नहीं है । अतः वहाँ षष्ठाङ्क में गोत्र-स्खलन का जब निर्देश आता है तब उसका कोई पूर्व-निर्दिष्ट आधार नहीं मिलता है । कहने का तात्पर्य यही है कि बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में मृणाल-वलय का प्रसंग है और उस प्रसंग के निमित्त से दोनों के चित्त में जो सहज दाम्पत्यभाव प्रकट हुआ था, उससे ही षष्ठाङ्क में दुःषन्त से अनजान में होनेवाले गोत्र-स्खलन की स्वाभाविकता प्रतीतिकर बनती है । और इस तरह से, बृहत्पाठ में आया हुआ मृणाल-वलय का प्रसंग षष्ठाङ्क में आनेवाले गोत्र-स्खलन के निर्देश को उपकारक भी प्रतीत होता है ।।

3 – 2 बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं के तृतीयाङ्क में प्रक्षिप्त माने गये दूसरे प्रसंग की, अर्थात् शकुन्तला की दृष्टि पुष्परज से कलुषित होने पर दुःषन्त उसे अपने वदन-मारुत से निर्मल कर देता है, उस प्रसंग की मौलिकता भी कृति-निष्ठ अन्तःसाक्ष्य से समर्थित होती है । यहाँ प्रथमतः यही बात विचारणीय है कि शकुन्तला की दृष्टि कलुषित होने जैसे कोई प्रसंग की हम अपेक्षा रख सकते है या नहीं ? प्रथमाङ्क में वृक्षसेचन के दौरान परिश्रान्त हुई शकुन्तला का दुःषन्त ने जो वर्णन किया है, इस श्लोक में कहा गया है कि, स्रस्तं कर्णशिरीषरोधि वदने घर्माम्भसां जालकं, बन्धे स्रंसिनि चैकहस्तयमिताः पर्याकुला मूर्धजाः ( शाकु. 1-26, (राघवभट्ट, 2004) पृ. 47 ) अर्थात् शकुन्तला अपने कर्णों में शिरीष पुष्पों को लगाती थी । और इसी लिये षष्ठाङ्क में शकुन्तला का चित्र अंकित करते हुए दुःषन्त ने फिर से कहा भी है कि – कृतं न कर्णार्पितबन्धनं सखे, शिरीषमागण्डविलम्बिकेसरम् । न वा शरच्चन्द्रमरीचिकोमलं मृणालसूत्रं रचितं स्तनान्तरे ।। ( शाकु. 6-18, राघवभट्ट, पृ. 213 ) इस तरह शकुन्तला अपने कानों में प्रसाधन के रूप में पुष्प लगाती थी, और इसी लिये कदाचित् उसके नेत्र में पुष्परेणु गिरने की सम्भावना (एवं नाटकीय अपेक्षा) तो थी ही । लेकिन यहाँ ऐसा प्रश्न उठाया जा सकता है कि क्या ऐसा कोई प्रसंग महाकवि ने ही अपने हाथों से लिखा होगा ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिये उच्चतर समीक्षा को मान्य हो ऐसा कोई प्रमाण देना आवश्यक है : --

महाकवि कालिदास ने इस नाट्यकृति की दृश्यावली में सर्वत्र एक रूप के सामने दूसरा प्रतिरूप खडा करने की जिस नाट्यकला का साद्यन्त विनियोग किया है उसकी ओर सब का ध्यान आकृष्ट करने की जरूरत है । उदाहरण के रूप में,

(1) प्रथमाङ्क में पिनाकी स्वरूप दुःषन्त का मालिनी नदी की उपत्यका में मृगया के लिए प्रवेश होता है । वैसे ही सप्तमाङ्क के आरम्भ में इन्द्रसखा दुःषन्त मारीच के आश्रम में प्रवेश करता है । यहाँ प्रथमाङ्क में शिकारी दुःषन्त का जो एक रूप प्रस्तुत किया था, उसका ही दूसरा प्रतिरूप दानवहन्ता के रूप में खडा किया गया है ।

(2) द्वितीयांक में मृगया से विषण्ण और रोता हुआ विदूषक हमारे सामने आता है, तो षष्ठांक के आरम्भ में अकारण ताडित हो रहा दयनीय धीवर हमारे सामने खड़ा किया जाता है । दोनों दृश्य हास्यप्रेरक है और दोनों पात्र प्रेक्षकों की सहानुभूति प्राप्त करते है । अन्त में एक युवराज होके हस्तिस्कन्ध पे आरूढ होता है, तो दूसरा भी शूली से उतार कर हस्तिस्कन्ध पर आरोपित होने जैसा सुख प्राप्त करता है ।

(3) इसी अङ्क में राजमाताएँ पुत्रपिण्डपालन ( पुत्रपिण्डपर्युपासन ) व्रत कर रही हैं ऐसी खबर लेके करभक आता है, तो उसके सामने षष्ठाङ्क में धनमित्र की विधवा निर्वृत्तपुंसवना है ऐसा सूना जाता है ।

(4) राजा ने कनक-वलय पहना है, तो शकुन्तला ने मृणाल-वलय पहना है । दुःषन्त अपनी भुजाओं पर उसको बार बार उपर उठाता है , तो शकुन्तला का मृणाल-वलय भी बार बार नीचे गिर जाता है !

(5) प्रथमांक में दुःषन्त भ्रमर की असूया करता हुआ उसके प्रतिस्पर्धी के रूप में सामने आता है, तो वही दुःषन्त षष्ठाङ्क में भ्रमर का उपदेष्टा एवं शास्ता बन जाता है ।

(6) तृतीयाङ्क के अन्त में प्रेमाविष्ट नायक को रंगभूमि से बाहर ले जाने के लिए यज्ञ में बाधा डालनेवाला राक्षसोपद्रव होता है, और राजा धनुष्य उठाके रंगभूमि से निष्क्रमण करता है । तथैव, षष्ठाङ्क के अन्त में भी विदूषक को किसी अज्ञात शोणितार्थी से बचाने के लिए विरहसंतप्त नायक धनुष्य उठाके रंगभूमि से बाहर जाता है ।

(7) प्रथमाङ्क में शकुन्तला के दुर्दैव का शमन करने एक ऋषि कण्व सोमतीर्थ की यात्रा पर दूर चले जाते है, तो चतुर्थाङ्क में दूसरे ऋषि दुर्वासा शकुन्तला के दुर्भाग्य का विधाता बनके सामने आते है ।

इस तरह महाकवि ने सम्पूर्ण कृति में एक रूप के सामने दूसरा प्रतिरूप ( एक दृश्य के सामने दूसरा प्रतिदृश्य ) खड़ा करने की स्पृहणीय नाट्य-शैली का मार्ग अपनाया है । यह शैली भी हमारे लिये कृति-निष्ठ अन्तःसाक्ष्य बनती है, और उसके आधार पर काश्मीरी, मैथिली और बंगाली वाचनाओं के तृतीयाङ्क में शकुन्तला की दृष्टि कर्णोत्पल रेणु से कलुषित होने का जो प्रसंग वर्णित किया है उसका समर्थन किया जा सकता है । जैसे कि – तृतीयाङ्क में दुःषन्त ने अपने वदन-मारुत से शकुन्तला की दृष्टि निर्मल कर दी थी – उसी एक दृश्य के सामने, षष्ठाङ्क में कवि ने दूसरा प्रतिदृश्य भी खड़ा किया है । मुद्रिका मिल जाने पर जब दुःषन्त को शकुन्तला का पुनःस्मरण हो जाता है तब वह शकुन्तला का चित्राङ्कन करते हुए एक श्लोक बोलता हैः—

कार्या सैकतलीनहंसमिथुना स्रोतोवहा मालिनी,

पादास्तामभितो निषण्णचमरा गौरीगुरोः पावनाः ।

शाखालम्बित-वल्कलस्य च तरोर्निर्मातुम् इच्छाम्यधः,

शृङ्गे कृष्णमृगस्य वामनयनं कण्डूयमानां मृगीम् ।। 6 – 17 ।।

इसमें कहा गया है कि मुझे ( दुःषन्त को ) इस चित्र में बह रही मालिनी नदी की बालुका में बैठा एक हंस-मिथुन आकारित करना है । हिमालय की उपत्यका में बैठे चमरों के समूह को बनाना है । वृक्ष की डालियाँ पर वल्कल वस्त्र टाँगे हो, एवं उस वृक्ष के अधोभाग में कृष्णमृग के शृङ्ग पर अपना वाम-नेत्र खूजलाती हुई एक हरिणी भी चित्रित करने की चाहत हो रही है । - यहाँ “कण्डूयमानां मृगीम्” का जो चित्र बनाने की इच्छा प्रकट की गई है वह निरतिशय व्यञ्जना पूर्ण है । षष्ठाङ्क में वर्णित इस प्रसंग का सम्बन्ध स्पष्ट रूप से तृतीयाङ्क में पुष्परज से कलुषित हुए शकुन्तला के नेत्रवाले प्रसंग के साथ ही है । वहाँ पर दुःषन्त ने जब अपने वदन-मारुत से शकुन्तला की दृष्टि को निर्मल कर देने का प्रस्ताव रखा था, तब शकुन्तला ने कहा था कि मेरे मन में तुम्हारे लिये विश्वास नहीं है । किन्तु दुःषन्त इस चित्र से व्यंजित करना चाहता है कि वह अब शिकारी के रूप में शकुन्तला को प्राप्त करना नहीं चाहता है । परन्तु हरिणी स्वरूपा शकुन्तला का "सगन्ध" और विश्वसनीय हरिण बनके, शकुन्तला का जीवनाधार बनना चाहता है । दुःषन्त ने तृतीयाङ्क के वही प्रसंग को स्मरण-पट में रख कर एक प्रतिदृश्य के रूप में, यह “ कण्डूयमानां मृगीम् ” का चित्र बनाने की इच्छा प्रकट की है । इस तरह एक दृश्य के सामने दूसरा प्रतिदृश्य खड़ा करने की जो नाट्य-शैली समग्र कृति में बार बार दिखाई देती है उसको तार्किक दृष्टि से आन्तरिक सम्भावना के रूप में स्वीकारना ही चाहिये । और इसके आधार पर पुष्परज से शकुन्तला के नेत्र कलुषित होने का जो प्रसंग है वह प्रक्षिप्त नहीं है, बल्कि सर्वथा मौलिक है – ऐसा स्वीकारना ही चाहिए ।।

एवमेव, सप्तमाङ्क में शकुन्तला दुःषन्त को पूछती है कि यह दुःखभागी व्यक्ति की याद आपको कैसे आयी ? तब दुःषन्त कहता है कि पहेले तुम्हारी आंसु-भीगी आँखों को पोंछने दो, बाद में अङ्गुठी कैसे मिली उसकी कहानी सुनाउँगा । यहाँ पर फिर से शकुन्तला के अश्रु भरे नेत्रों का परिमार्जन करने का जो निर्देश आया है वह भी एक रूप के सामने दूसरा प्रतिरूप खडा करने की नाट्यशैली का ही अनुमोदन एवं दृढीकरण करता है ।।

4 – 0 देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के मुख्य स्थान में, अर्थात् तृतीयाङ्क के पाठ में संक्षेपीकरण हुआ है इतना सयुक्तिक सिद्ध करने के बाद, अन्य अङ्कों में भी बृहत्पाठ की अपेक्षा से लघुपाठवाली वाचनाओं में कम-ज्यादा श्लोक मिल रहे है उसकी भी चर्चा करनी आवश्यक है । क्योंकि अल्प कालावधि में नाट्य-प्रस्तुति करने के लिए संक्षेपीकरण की प्रवृत्ति शूरु होती है तब केवल एक ही अङ्क में तो कटौती नहीं की जाती है । अतः इस नाटक की अन्य कौन सी दृश्यावली में, तथा अन्य वर्णनात्मक श्लोकों में कहाँ कटौती की गई है वह भी विवेचनीय बिन्दु है । एवमेव, प्रतिलिपिकरण के दौरान या मंचन के अवसर पर मूल पाठ्यांश में न केवल अशुद्धियाँ ही प्रविष्ट होती है, किन्तु कदाचित् संक्षेप भी होता है, और प्रक्षेप भी होते है । अतः अभिज्ञानशकुन्तल में संक्षेपीकरण की चर्चा करने के साथ साथ प्रक्षेपों की चर्चा भी अविनाभाव सम्बन्ध से आगन्तुक रहेगी, किन्तु विस्तारभय से हम उसे श्लोकात्मक भाग पर्यन्त ही मर्यादित रखेंगे ।।

4 – 1 चतुर्थाङ्क में कन्या-विदाय का प्रसंग आलिखित है । शकुन्तला की बिदाई के समय आश्रमस्थित सभी पेड़-पौधे और पशु-पक्षी आदि संतप्त है । यहाँ पर अनुसूया कहती है कि इस आश्रम में ऐसा कोई नहीं है जो तेरे विरह से दुःखी न हो । देख यह चक्रवाक की स्थिति ..... इत्यादि । इस प्रसंग में केवल अनसूया की ही चक्रवाक पक्षी सम्बन्धी एक उक्ति मिलती है । रिचार्ड पिशेल के द्वारा सम्पादित बंगाली वाचना के पाठ में अनुसूया की मूल प्राकृत उक्ति इस तरह की है : "सहि, ण णो अस्समपदे अत्थि को वि चित्तवन्तो जो तए विरहीअन्तो अज्ज ण ऊसुओ ण किदो । पेक्ख,

पुडइणिवत्तन्तरिदं वाहरिदो णाणुवाहरेइ पिअं ।

मुहउव्वूढमुणालो तइ दिट्ठिं देइ चक्काओ ।। 4 – 18 ।।

( सखि, न नः आश्रमपदे अस्ति कोSपि चित्तवान् यः त्वया विरह्यमाणः अद्य न उत्सुकः कृतः । प्रेक्षस्व – पुटकिनीपत्रान्तरितां व्याहृतः नानुव्याहरति प्रियाम् ।

मुखोद्व्यूढमृणालः त्वयि दृष्टिं ददाति चक्रवाकः ।। )"

बंगाली पाठ में अनुसूया के मुख में रखी चक्रवाक-सम्बन्धी यह एक ही उक्ति मिलती है । और जिसको सूनके शकुन्तला ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है । दूसरी ओर, देवनागरी एवं दाक्षिणात्य पाठ में इस सन्दर्भ में शकुन्तला एवं अनसूया के द्वारा बोली गई दो उक्तियाँ मिलती हैं । जो निम्न स्वरूप में मिलती है, यहाँ शकुन्तला की उक्ति से आरम्भ हो रहा हैः—

शकुन्तला – हला, पश्य, नलिनीपत्रान्तरितमपि सहचरम् अपश्यन्त्यातुरा चक्रवाक्यारौति, दुष्करमहं

करोमीति ।

अनसूया – सखि, मा मैवम् मन्त्रय ।

एसा वि पिएण विणा गमेइ रअणिं विसाअदीहअरं ।

गरुअं पि विरहदुक्खं आसाबन्धो सहावेदि ।।

( एषापि प्रियेण विना गमयति रजनीं विषाददीर्घतराम् ।

गुर्वपि विरहदुःखम् आशाबन्धः साहयति ।। )

यानें यहाँ पर (बंगाली वाचना में आयी हुई) अनुसूया की उपर्युक्त उक्ति को संक्षेप करने के आशय से देवनागरी में से हटाई गई है । और एक नयी उक्ति अनसूया के मुख में रखी गई है वह मिलती है । किन्तु बंगाली वाचना में से शकुन्तला एवं प्रियंवदा की एक एक उक्ति का संक्षेप किया गया है । देवनागरी में अनसूया की पहेली उक्ति हटाई गई है और (शकुन्तला की उक्ति के बाद) जो प्रियंवदा की उक्ति थी उसे अनसूया की उक्ति बनाके रखी है । वस्तुतः चक्रवाक-पक्षी के सन्दर्भ में तीनों सहेलियाँ की एक एक उक्ति मूल में थी, जिसमें संक्षेप किया गया है, और उसकी जानकारी हम जब काश्मीरी वाचना की शारदा-पाण्डुलिपिओं में देखते है तब मिलती है । क्योंकि उसमें तीनों सहेलियों कि तीन उक्तिओंवाला अखण्ड पाठ सुरक्षित रहा हैः—

अनसूया – सहि, ण सो अस्समपदे अत्थि को वि चित्तवन्तो जो तए विरहअन्तीए ण उस्सुओ किदो अज्ज

। पेक्ख दाव,

पुडइणिवत्तन्तरिदं वाहरिदो णाणुवाहरेइ पिअं ।

मुहउव्वूढमुणालो तइ दिट्ठिं देइ चक्काओ ।। 4 – 18 ।।

( सखि, न सः आश्रमपदे अस्ति कोSपि चित्तवान् यः त्वया विरह्यमाणया न उत्सुकः कृतः

अद्य । पश्य तावत् –

पद्मिनीपत्रान्तरिताम् व्याहृतः नानुव्याहरति प्रियाम् ।

मुखोदूढमृणालः त्वयि दृष्टिं ददाति चक्रवाकः ।। ) ।

शकुन्तला – (जनान्तिकम्) हला पेक्ख, नलिनीपत्तन्तरिदंपि सहअरं अदेक्खन्ती आदुरं चक्कवाई आरडइ

। दुक्करं खु अहं करेमित्ति । ( हला, पश्य, नलिनीपत्रान्तरितमपि सहचरम् अपश्यन्त्यातुरा

चक्रवाक्यारटति, दुष्करं खलु अहं करोमीति । )

प्रियंवदा – सहि, मा एव्वं मन्तेहि । ( सखि, मा मैवम् मन्त्रय । )

एसा वि पिएण विणा गमेइ रअणिं विसूरणादीहं ।

गरुअं पि विरहदुक्खं आसाबन्धः सहावेदि ।।

( एषापि प्रियेण विना गमयति रजनीं विसूरणादीर्घाम् ।

गुर्वपि विरहदुःखम् आशाबन्धः साहयति ।। )

जिस तरह से चक्रवाकी से सम्बद्ध तीनों उक्तियाँ काश्मीरी में सुरक्षित रही है वैसे ही मैथिली वाचना में भी ये तीनों सुरक्षित रही है, और हम तक पहुँची भी है । ( जिसका उल्लेख डॉ. बेलवालकर जी ने नहीं किया है । ) यद्यपि चक्रवाक की उक्तिओं में कटौती हुई है इसकी ओर सब से पहले ध्यान आकृष्ट करनेवाले मूर्धन्यविद्वान् श्री एस. के. बेलवालकर जी ही थे । (निसर्ग कन्या शकुन्तला, 1962 (वि. सं. 2019)) उन्होंने शकुन्तला की एक "निसर्ग कन्या" के रूप में पहेचान प्रस्थापित करके ऐसी अपेक्षा व्यक्त की है कि शकुन्तला जब पतिगृह की ओर प्रस्थान कर रही है तब भले ही सहेलियों ने एवं पिता कण्व ने दुर्वासा के शाप की जानकारी शकुन्तला को न दी हो, किन्तु प्रकृति-समस्त में से किसी वनस्पति ने या पशु-पक्षी ने क्यूँ शकुन्तला को इस शाप के सन्दर्भ में सावधान नहीं की ? यही एक बडी समस्या है । ऐसा कुछ होना न केवल अपेक्षित था, अनिवार्य भी था । काश्मीरी वाचना में, चक्रवाकवाले प्रसंग में यह आकारित किया गया है । किन्तु दुर्भाग्य से बंगाली एवं देवनागरी वाचनाओं में कुल तीन उक्तियों में से एक एवं दो उक्तियाँ ही हम तक संचरित हो के आई है । यदि काश्मीरी वाचना की (तथा मैथिली वाचना की) पाण्डुलिपियाँ प्राप्त करके देखा जाय तो तीनों उक्तियाँवाला पूर्ण संवाद, जो उपर्युक्त अवतरण में दिया है वह हम तक संचरित होके आया ही है । चक्रवाक के इस प्रसंग में (तीनों संवादों के द्वारा) शकुन्तला को दुष्यन्त की ओर से नकारात्मक प्रतिभाव ही मिलेगा और शकुन्तला को कुछ कालावधि तक पुनर्मिलन की प्रतीक्षा करनी होगी ऐसा व्यंजित किया गया है ।।

श्री बेलवालकर जी के शब्दों में देखे तो – "यहाँ पर पूरी घटना शकुन्तला को यह समझाने के लिए लाई गई है कि आगे तुम्हारे भाग्य में क्या बदा है ?? । चकवी पुकारती है किन्तु चक्रवाक उत्तर नहीं देता, क्योंकि उत्तर न देने के कारणों पर उसका कोई वश नहीं है, उसका हृदय शकुन्तला के वियोग से भरा हुआ है । इसी प्रकार शीघ्र ही शकुन्तला भी पुकारेगी और दुष्यन्त भी उसका उत्तर नहीं देगा । अनसूया अपनी सखी को सान्त्वना देती है और वह विश्वास के साथ सान्त्वना दे भी सकती थी क्योंकि उसके हाथ में शाप का अन्त करानेवाली अँगूठी तो थी ही । इसीलिए ठीक इस घटना से अगले संवाद में ये सखियाँ शकुन्तला को अँगूठी का स्मरण करा देती है । दूसरी दृष्टि से हम कह सकते है कि कण्व ने अपने जिस शोक को प्रकट नहीं होने दिया उसी को चक्रवाक ने एक प्रकार के दैवी परिज्ञान से समझकर शकुन्तला को भावी विपत्ति और दुःख की चेतावनी दे दी । " इस उच्च स्तरीय पाठालोचना से यह सुदृढ हो जाता है कि बंगाली वाचना में और देवनागरी वाचना में संचरित होके जो पाठ हम तक पहुँचा है वह प्रकृत सन्दर्भ में संक्षिप्त किया गया पाठ है ।।

सामान्यतया तो देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में ही संक्षेप के पदचिह्न मिलते है । लेकिन प्रस्तुत सन्दर्भ में बंगाली वाचना के पाठ में भी कुत्रचित् संक्षेप हुआ है ऐसा सिद्ध होता है । ( इस विषय की चर्चा डॉ. दिलीपकुमार ने नहीं की है ।। )

4 – 2 अभिज्ञानशकुन्तल का पाठ पञ्चविध वाचनाओं में संचरित होके हम तक पहुँचा है । उन सब में तीसरे अङ्क के पाठ में जो सब से बडा विवादास्पद भाग था उसकी चर्चा हो गई । किन्तु इसके साथ साथ पूरे नाटक में आये हुए श्लोकों के सन्दर्भ में भी व्यापक विमति प्रवर्तमान है । निम्नोक्त श्लोक-सरणी देखने से मालुम होता है कि प्रत्येक वाचना में श्लोक-संख्या कम-ज्यादा मिल रही है । तो वह भी संक्षेप या प्रक्षेप का ही परिणाम होगा । अब किस दृष्टि से इस संक्षेप एवं प्रक्षेप को पकडे जा सकते है उसकी चर्चा की जाती है : -



बृहत्पाठ परम्परा में लघुपाठ परम्परा में

अङ्क काश्मीरी मैथिली बंगाली देवनागरी दाक्षिणात्य

1 30 33 33 30 31

2 19 19 19 18 18

3 35 40 41 24 24

4 26 26 24 21 22

5 33 34 32 32 32

6 34 37 37 32 32

7 36 36 35 34 35

योग 213 225 221 190 193



यहाँ पर विभिन्न वाचनाओं में जो कम-ज्यादा श्लोकसंख्या दिख रही है वह ज्यादा तौर पर वर्णनात्मक श्लोकों को लेकर ही है । लेकिन यहाँ अमुक श्लोक "कालिदासीय काव्य-स्वरूप" में लिखा गया है या नहीं लिखा गया है ? ऐसे अभिप्रायों से प्रेरित होके उसकी मौलिकता निर्धारित नहीं करनी चाहिए । क्योंकि उसमें आत्मलक्षिता प्रविष्ट होनी अनिवार्य है, जो विवाद का घर है ।। अतः इस नाटक में जहाँ पर भी "अपि च" एवं "अथवा" जैसे निपातों का विनियोग करके दो दो, अथवा तीन-चार श्लोकों को प्रस्तुत किये है उसकी परीक्षा पर ध्यान केन्द्रित करना व्याकरणनिष्ठ रहेगा ।।

प्रस्तुत पाँचों वाचनाओं के तुलनात्मक अभ्यास से ऐसा मालुम होता है कि "अपि च" एवं "अथवा" जैसे निपातों से बांधे गये दो दो श्लोकों में ही संक्षेप एवं प्रक्षेप की लीला खेली गई है । अतः शाकुन्तल में प्रयुक्त इस समुच्चयार्थक "अपि च" के प्रयोग का स्वारस्य सर्व प्रथम गवेषणीय बनता है । उदाहरण के रूप में भ्रमरबाधा प्रसंग को हम लेते हैः—यहाँ पर बंगाली एवं मैथिली वाचना में "अपि च" से सम्बद्ध किये गये दो श्लोक है । :-

"राजा – ( सस्पृहम् ) यतो यतः षट्चरणोSभिवर्तते, ततस्ततः प्रेरितवामलोचना ।

विवर्तितभ्रूरियमद्य शिक्षते भयादकामापि हि दृष्टिविभ्रमम् ।। 1 – 22 ।।

अपि च – ( सासूयमिव )

चलापाङ्गां दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमतीं

रहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकचरः ।

करं व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वम् अधरं

वयं तत्त्वान्वेषान् मधुकर, हतास्त्वं खलु कृती ।। 1 – 23 ।।"

इन शब्दों से वर्णित भ्रमरबाधा प्रसंग में, पहले (22) श्लोक में भ्रमर से संत्रस्त हो रही शकुन्तला का चित्र खिंचा गया है । तत्पश्चात् दूसरे (23) श्लोक में शकुन्तला के मुखारविन्द पर घुम रहे ईर्ष्याजनक भ्रमर का चित्र खिंचा गया है । यहाँ एक ही दृश्य की द्विपार्श्वी रमणीयता को दो अलग अलग श्लोक में वर्णित करने की आवश्यकता है । अतः कालिदास ने यहाँ समुच्चयार्थक " अपि च " का प्रयोग करके इन दोनों को परस्पर बांधे है । नायक के द्वारा भ्रमरबाधा प्रसंग की प्रथम क्षण में नायिका के लोचन का सौन्दर्य प्रेक्षणीय है, और इसी लिये कवि ने भी "सस्पृहम्" ऐसी रंगसूचना लिखी है । दूसरी क्षण में, नायक के मन में भ्रमर के प्रति प्रतिस्पर्धी का भाव जाग उठता है, इस लिए उस भाव को भी अभिव्यक्त करने के लिए "अपि च" से दूसरे श्लोक का अवतार किया जाता है । और वहाँ पर "सासूयम्" ऐसी रंगसूचना दी जाती है । यहाँ दोनों श्लोकों में दृष्टिकोणों का ही भेद होने से उसमें पुनरुक्ति का कोई अवकाश ही नहीं है । अतः दो श्लोकों से प्रस्तुत हुआ यह वर्णन मूलगामी पाठ हो सकता है, जो बंगाली एवं मैथिली वाचना में संचरित होता रहा है । लेकिन समय-मर्यादा की बाधा से पीडित सूत्रधारों ने उन दोनों में से पहलेवाले श्लोक को हटा दिया होगा । परिणामतः देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचना की पाठपरम्परा ने केवल चलापाङ्गां 0 वाला श्लोक ही सुरक्षित रखा है ।।

बंगाली वाचनानुसारी चतुर्थांक के पाठ में दूसरे स्थान पर एक श्लोक का जो संक्षेप मिलता है वह इस तरह का हैः— शकुन्तला पतिगृह की ओर प्रस्थान कर रही है तब ( बंगाली वाचनानुसारी चतुर्थांक के पाठ में ) इस तरह का संवाद हैः— शकुन्तला कण्व को पूछती है कि मैं पति के घर जा रही हुँ, लेकिन पिताजी आपका विरह कैसे सह पाउँगी ? तब पिता कण्व श्लोक 4-22 से उत्तर देते है कि कुलीन व्यक्ति के घर में गृहिणी पद प्राप्त होने के बाद तुँ बहुविध कार्यकलाप में व्यस्त हो जायेगी और तेरे अङ्क में पुत्र का आगमन हो जाने के बाद तो सुख ही सुख होने से तुँ मेरे विरह से उत्पन्न होनेवाले दुःख को भूल जायेगी । इतना सूनने के बाद शकुन्तला पिता के चरणों में प्रणाम करती है ( ऐसी रंगसूचना है ) । अर्थात् बंगाली में कण्वमुनि एक ही श्लोक बोलते है । किन्तु इस सन्दर्भ का काश्मीरी एवं मैथिली पाठ निम्नोक्त है, जिसमें कण्व दो श्लोक बोलते हैः—

शकुन्तला – कधं तादस्स अङ्कादो परिब्भट्ठा मलअपव्वदुम्मूलिदा विअ चन्दणलदा देसन्तरे जीविदं धारइस्सं । ( इति रोदिति ) ( तातस्याङ्कात् परिभ्रष्टा मलयपवनोन्मूलिता इव चन्दनलता देशान्तरे जीवितं धारयिष्ये ।। )

कण्वः – वत्से, किमेवं कातरासि ।

अभिजनवतो भर्तुः श्लाघ्ये स्थिता गृहिणीपदे, विभवगुरुभिः कृत्यैरस्य प्रतिक्षणमाकुला ।

तनयमचिरात् प्राचीवार्कं प्रसूय च पावनं, मम विरहजं न त्वं वत्से शुचं गणयिष्यसि ।। 4 – 22 ।।

अपि च, इदमवधारय –

यदा शरीरस्य शरीरिणश्च पृथक्त्वमेकान्तत एव भावि ।

आहार्ययोगेन वियुज्यमानः परेण को नाम भवेद् विषादी ।। 4 – 23 ।।

शकुन्तला – ( पितुः पादयोः पतित्वा ) ताद वन्दामि ।

यहाँ श्लोक 22 के नीचे, "अपि च" निपात से बांधा गया एक श्लोक – 23 दिख रहा है, जो केवल काश्मीरी एवं मैथिली वाचना के पाठ में ही उपलब्ध होता है । बंगाली, देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं में वह नहीं मिलता है । ( तथा डॉ. एस. के. बेलवालकर जी के द्वारा सम्पादित अभिज्ञानशाकुन्तल में भी वह श्लोक नहीं मिलता है, किन्तु ) ऑक्सफर्ड लाईब्रेरी में सुरक्षित दो शारदा पाण्डुलिपियों में यह श्लोक "अपि च" निपात से अवतारित किया गया है । अतः विचारणीय है कि क्या "अपि च" के विनियोग से दूसरा श्लोक काश्मीरी-मैथिली में प्रक्षिप्त किया गया होगा ?, या फिर वह मौलिक होते हुए भी बंगाली, देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं में से उसे हटाया गया है ?। यहाँ पूर्वधारणा के रूप में मान लिया जाय कि मूल पाठ में पहलेवाला एक ही श्लोक रचा गया था । अब, पहेले श्लोक 22 में शकुन्तला को पिता की याद नहीं आयेगी उसके बहुत प्रतीतिकारक कारण पेश किये गये है । फिर भी यह चिन्त्य तो है ही कि पुत्री को ससुराल में कितना भी सुख मिल जाय तो भी क्या वह अपने पिता को भूला सकती है ?। सब का अनुभवजन्य उत्तर यही है कि ढेर सारे सुख में भी पुत्री अपने पिता को कदापि नहीं भूला सकती है । अतः प्रश्न होगा ही कि क्रान्तद्रष्टा महाकवि ने यहाँ सर्वजनानुभव-विरुद्ध क्यों लिखा है । क्या सचमुच में शकुन्तला सुखातिशय में भी पिता कण्व को भूला देगी ?। वृद्ध पिता के स्वास्थ्यादि को लेकर कोई चिन्ता उसे नहीं सताती रहेगी ? । इस प्रश्न का एक ही उत्तर सभी रसिकों के मन में होगा कि शकुन्तला अपने पिता को हरगिझ नहीं भूल सकती है । यह बात कण्व भी जानते होंगे, अतः यहाँ उनको कुछ अधिक कहने की आवश्यकता होगी । यदि मूल पाठ में पहलेवाला एक ही श्लोक था ऐसी पूर्वधारणा को छोडके, काश्मीरी और मैथिली वाचना में आया हुआ दूसरा श्लोक भी मूल में होगा ऐसा स्वीकारते है तो उपर्युक्त क्षति का विसर्जन होता है ।

प्रस्तुत चर्चा में पहले कहा गया है कि इस नाट्यकृति में एक श्लोक के बाद "अपि च" से अवतारित दूसरे श्लोक में प्रवर्तमान दृश्य या विचार का दूसरा पहलु रखा जाता है तो वह दूसरा श्लोक मौलिक होगा । क्योंकि समुच्चयार्थक "अपि च" का प्रयोग तभी हो सकता है कि जब प्रस्तुत विचार का दूसरा पहलु भी सम्मीलित करना हो । इस दृष्टि से सोचा जायेगा तो पहले श्लोक में शकुन्तला को ससुराल में सुख मिलने पर वह पिता को भूल जायेगी ऐसा कहा जाता है । तत्पश्चात् दूसरे ही श्लोक में कहा जाता है कि इन ऐहिक सुखों के बीच में भी शकुन्तला के हृदयाकाश में पिता के वार्धक्य को लेकर सदैव चिन्ता विद्यमान रहनेवाली है । तो उसका निरसन करने के लिए क्रान्तद्रष्टा कालिदास ने ऋषि कण्व से निम्नोक्त दूसरा श्लोक कहलाया हैः—

अपि चेदमवधारय –

यदा शरीरस्य शरीरिणश्च पृथक्त्वमेकान्तत एव भावि ।

आहार्ययोगेन वियुज्यमानः परेण को नाम भवेद् विषादी ।। 4 – 23 ।।

शकुन्तला – ताद वन्दामि । ( पितुः पादयोः पतति । )

अर्थात् कण्व ने शकुन्तला को आश्वासन देते हुए "अपि च" से अवतारित 23 वें श्लोक से यह भी कह दिया है कि शरीर और शरीरी का पृथक्त्व अवश्यंभावि है । जैसे कोई नट अपनी पहनी हुई मुकुटादि आहार्य चीजों का त्याग करते समय दुःखी नहीं होता, ( वैसे ही कल कण्वमुनि के देहावसान की खबर मिले तो भी शकुन्तला को दुःखी नहीं होना चाहिए । ) ।। यहाँ "अपि च" का प्रयोग यथार्थ सिद्ध होता है । अतः काश्मीरी और मैथिली वाचना में दृश्यमान यह दूसरा श्लोक मौलिक होने में संदेह नहीं रहता है ।। उपर्युक्त दो श्लोकोंवाला काश्मीरी पाठ, जो पहले मैथिली पाठ में संक्रान्त हुआ होगा वह वहाँ पर सुरक्षित रहा है । लेकिन तीसरे स्तर पर उसे अन्य तीन वाचनाओं में से हटाया गया होगा ।।

4 – 3 इसी तरह से "अपि च" से बांधे गये श्लोकों में प्रक्षेप होने की भी सम्भावना होती है । जिसका उदाहरण चतुर्थाङ्क के आरम्भ में आये चार श्लोकों में मिलता है । यहाँ पर 1. यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरोषधीनाम्0 ।, 2. अन्तर्हिते शशिनि सैव कुमुद्वती0 ।, 3. कर्कन्धूनाम् तुहिनुंपरि0 । और 4. पादन्यासं क्षितिधरगुरोः0 । ऐसे चार श्लोकों को"अपि च", "अपि च" करके प्रस्तुत किये है । किन्तु प्रभातवेला का समय नापने के लिए झोंपडी से बहार निकला शिष्य ( जब स्नान-ध्यान सब कुछ बाकी है तब ) चार चार श्लोकों में प्रभात का वर्णन करें वह चिन्त्य है । पहले दो श्लोकों में व्यंजना से शकुन्तला का भावि जीवन पतन की ओर जा रहा है वह सूचित जरूर करता है, लेकिन (क) उसमें पुनरुक्ति है । तथा (ख) उसमें प्राकरणिक अर्थ व्यंजित होते हुए भी वह निश्चित रूप से अप्रासंगिक तो है ही । एवं (ग) "अपि च" के प्रयोग का जो पूर्वोक्त स्वारस्य है वह इन पहले दो श्लोकों में घटित नहीं होता है ।। अब तीसरे चौथे श्लोकों का विचार किया जाय तो उसमें "अपि च" के प्रयोग का स्वारस्य घटित होता है । शिष्य पहेले कर्कन्धूनाम्0 वाले श्लोक से अपने सामने स्थित वनस्पति एवं मयूर की अङ्गडाई का अवलोकन करे, तत्पश्चात् चौथे श्लोक में, दृष्टि उठाके सामनेवाले आकाश में अस्त होता हुआ चन्द्रमा देखे तो उसमें द्विपार्श्वी दृश्य का निरीक्षण प्रस्तुत हो रहा है इस लिए उसमें पुनरुक्ति भी नहीं है । तथा ऐसे वर्णन में ही प्रासंगिकता भी झलकती है । सही स्वरूप में तो तीसरे चौथे श्लोक में ही प्रभात का वर्णन मिलता है । अतः जहाँ "अपि च" के प्रयोग से किसी दृश्य की द्विपार्श्वी रमणीयता वर्णित नहीं होती है वहाँ प्रक्षेप का होना सर्वथा सम्भव है ।।

5 – 0 कालिदास के काव्यों में "अथ वा" निपात का विनियोग भी परीक्षणीय है । व्याकरण की दृष्टि से पहले सोचे तो "अथ" का अर्थ प्रारम्भ होता है, एवं "वा" से विकल्प या पक्षान्तर दिखाया जाता है । जहाँ दोनों की सहोपस्थिति है वहाँ नये पक्ष का आरम्भ प्रस्तुत करने का खयाल होता है । कालिदास जब ऐसे"अथ वा" निपात का प्रयोग करते है तो वहाँ केवल नये पक्षान्तर की प्रस्तुति ही नहीं होती है, वहाँ नये, लेकिन अभीष्ट हो ऐसे नये पक्षान्तर की प्रस्तुति की जाती है । उदाहरण के रूप में, इस नाटक में कण्वाश्रम में प्रविष्ट हुआ दुःषन्त बोलता है कि, इदमाश्रमद्वारम् । यावत् प्रविशामि । ( प्रविश्य, निमित्तं सूचयन् ) शान्तमिदमाश्रमपदं, स्फुरति च बाहुः, कुतः फलमिहास्य । अथवा भवितव्यानां द्वाराणि भवन्ति सर्वत्र ।। ( अभि. शाकु. 1 – 15 ) कालिदास कथाप्रवाह में जहाँ पर भी अभीष्ट पक्षान्तर को उपस्थापित करना चाहते है वहाँ "अथ वा" निपात का विनियोग करते है । इस स्वारस्य को याद रखेंगे तो हम अभिज्ञानशकुन्तल नाटक के श्लोकों में कहाँ संक्षेप हुआ है वह जान सकेंगे ।।

5 – 1 "अथवा" निपात से बांधे गये दो श्लोकों में जहाँ संक्षेप-लीला खेली गई है उसका उदाहरण नीचे दिया गया हैः— ( बंगाली वाचना के पाठ में ) शकुन्तला के वल्कल के लिए निम्नोक्त संवाद-शृङ्खला प्रस्तुत होती हैः—



राजा – ( आत्मगतम् ) कथमियं सा कण्वदुहिता शकुन्तला । ( सविस्मयम् ) अहो असाधुदर्शी तत्रभवान् कण्वो य इमां वल्कलधारणे नियुङ्क्ते ।

इदं किलाव्याजमनोहरं वपु-

स्तपःक्लमं साधयितुं य इच्छति ।

ध्रुवं स नीलोत्पलपत्रधारया

शमीलतां छेत्तुमृषिर्व्यवस्यति ।। 1 – 17 ।।

भवतु, पादपान्तरितो विश्वस्तां तावदेनां पश्यामि । ( इत्यपवार्य स्थितः )

शकुन्तला – हला, अणुसूए, अदिपिणद्धेण एदिणा वक्कलेण पिअंवदाए दढं पीडिद म्हि । ता सिढिलेहि दाव णं । ( अनुसूया शिथिलयति ), ( सखि अनुसूये, अति पिनद्धेनैतेन वल्कलेन प्रियंवदया दृढं पीडिताSस्मि । तत् शिथिलय तावदेनम् । )

प्रियंवदा – ( विहस्य ) – एत्थ दाव पओहरवित्थारइत्तअं अत्तणो जोव्वणारम्भं उवालहसु ।

( अत्र तावत् पयोधरविस्तारयितृकमात्मनो यौवनमुपालभस्व । )

राजा – सम्यगियमाह –

इदमुपहितसूक्ष्मग्रन्थिना स्कन्धदेशे

स्तनयुगपरिणाहाच्छादिना वल्कलेन ।

वपुरभिनवमस्याः पुष्यति स्वां न शोभां

कुसुममिव पिनद्धं पाण्डुपत्रोदरेण ।। 1 – 18 ।।

अथ वा काममप्रतिरूपमस्य वयसो वल्कलं न पुनरलङ्कारश्रियं न पुष्णाति । कुतः

सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं

मलिनपि हिमांशोर्लक्ष्म लक्ष्मीं तनोति ।

इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी

किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ।। 1 – 19 ।।

बंगाली वाचना के पाठ में उपर्युक्त चारों श्लोक मिलते है । ( टीकाकार चन्द्रशेखर ने भी इन पर टीका लिखी है । ) किन्तु राघवभट्ट द्वारा जिस पर टीका लिखी गई है उस देवनागरी वाचना में दो ही ( पहेला और तीसरा ) श्लोक है । ( अर्थात् इदमुपहितसूक्ष्मग्रन्थिना0 वाला श्लोक देवनागरी में नहीं मिलता है ) अतः चर्चा करनी आवश्यक हो जाती है कि बंगाली पाठ्यांश में उपरि स्थित दूसरा श्लोक प्रक्षिप्त है या फिर देवनागरी पाठ में उसका संक्षेप हुआ है ? । जैसा कि पहले कहा गया है कालिदास जब एक विचार की प्रस्तुति करते है तो वहाँ तर्क की दृष्टि से प्रतिपक्ष में भी कोई विरोधी, किन्तु अभीष्ट विचार प्रस्ताव के योग्य होगा तो उसको तुरन्त "अथवा" निपात से अवतारित कर ही देते है । उदाहरण के रूप में – क्व सूर्यप्रभवो वंशः, क्व चाल्पविषया मतिः । इत्यादि ( रघुवंशम् 1 – 2, 3 ) लिखने के बाद तो, काव्यसर्जन के लिये उद्यत हुए कवि को उस कर्म से विरत ही हो जाना चाहिये । लेकिन हमारे कवि यहाँ तुरन्त "अथवा" निपात का प्रयोग करते हुए पक्षान्तर को प्रस्तुत कर देते है कि – अथवा कृतवाग्द्वारे वंशेSस्मिन् पूर्वसूरिभिः ।

मणौ वज्रसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवास्ति मे गतिः ।। ( रघुवंशम् 1 – 4 )

इस तरह से, सूर्यवंश अतिमहान् होते हुए भी उनके द्वारा रघुवंश का वर्णन कैसे सम्भव है वह लिख देते है ।।

( बंगाली पाठ के अनुसार ) शकुन्तला की सहेलियों के ऐसे उपर्युक्त संवाद को सून कर वृक्ष के पीछे खडे दुःषन्त ने दो (18 एवं 19) श्लोकों का उच्चारण किया है । और इन दोनों के बीच में "अथवा" निपात का विनियोग किया है । श्लोक – 18 में पहले कहा गया है कि स्तन-युगल के विस्तार को वल्कल से बांधा गया है, जिससे शकुन्तला का अभिनव शरीर अपनी निजी शोभा को नहीं बढाता है । जैसे कि पाण्डु पर्णों के अन्दर बांधे गये पुष्प शोभा नहीं देते है । इतना कह देने के बाद नायक को अपने विचार में रहा एक सूक्ष्म दोष भी दिखाई देता है । अभी जो कहा गया है उसका मतलब तो यही होगा कि शकुन्तला के सौन्दर्य को निखार ने के लिए वल्कल नहीं, किन्तु कुछ अच्छे वस्त्र होने चाहिये । नायक तुरन्त अपने वाग्दोष को सुधार ने लिए, (स्वोक्तिम् आक्षिपति – अथवेति ।) "अथ वा" शब्द का प्रयोग करता हुआ, इस सन्दर्भ में एक नया पक्षान्तर प्रस्तुत करता है कि शकुन्तला के वल्कल भी उसकी शोभा नहीं बढाते है ऐसा नहीं है । क्योंकि जो मधुर आकृतिवाले लोग होते है उसको तो सब कुछ अच्छा ही लगता है ।।

इस तरह से पूरे नाटक में, जहाँ जहाँ पर अमुक विचार को प्रस्तुत करने के बाद पक्षान्तर में दूसरा विचार भी कहना तर्क की दृष्टि से अनिवार्य लगता है तो कवि ने वहाँ "अथवा" का प्रयोग किया है । अर्थात् "अथवा" निपात से अवतारित किये दो दो श्लोकों का (बंगाली पाठ में) जो भी सन्दर्भ है वह मौलिक होने की सम्भावना बहुत है । तथा देवनागरी (एवं दाक्षिणात्य)वाचना के पाठ के संक्षिप्त करनेवालों ने ऐसे "अथवा" निपात से जूडे दो दो श्लोकवाले सन्दर्भों को ही कटौती करने के लिए प्रायः पसंद किये है ।। राघवभट्ट के द्वारा स्वीकृत पाठ में उपर्युक्त श्लोक – 18 इसी कारण से नहीं मिलता है । तथा "अथवा" से शूरु होनेवाली (बंगाली वाचना के पाठ की ) वाक्य-रचना भी बदल दी गई है । इस तरह से देवनागरी में इदमुपहितसूक्ष्मग्रन्थिना 0 । श्लोक का न होना संक्षेपीकरण का परिणाम है ऐसा सिद्ध होता है ।।

6 – 0 उच्चतर समीक्षा का निष्कर्ष : (1) अनेक बहिरंग प्रमाणों से सिद्ध होता है कि बृहत्पाठ परम्परा प्राचीनतर है । (2) उसमें भी शारदा-पाण्डुलिपिओं में संचरित हुई काश्मीरी वाचना का पाठ प्राचीनतम प्रतीत होता है । (3) देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के तृतीयाङ्क के पाठ में संक्षेप के दो असंदिग्ध पदचिह्न दिख रहे है । (4) काश्मीर की शारदा-पाण्डुलिपिओं में गान्धर्वेण विवाहेन0 श्लोक का न होना अत्यन्त महत्त्व पूर्ण है । बृहत्पाठ की रंगसूचनाओं से भी यह सिद्ध होता है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त है । इस एक प्रक्षिप्त श्लोक ने शाकुन्तल नाटक के मूल पाठ में दो तरह से क्षति पहुँचाई है : (क) शकुन्तला को मृणाल-वलय पहनाना एवं शकुन्तला के नेत्रकलुषित होने का जिसमें निरूपण है वैसे दो दृश्यों की कटौती का मार्ग प्रशस्त किया, (और लघुपाठ परम्परा का जन्म हुआ) तथा (ख) यह श्लोक मैथिली एवं बंगाली पाठ में भी गया । जिसके कारण उनमें सुरक्षित रहा नैसर्गिक प्रेम का चित्र प्रदूषित भी हो गया । (5) इस नाटक में साद्यन्त प्रयुक्त हुई रूप-प्रतिरूप की नाट्यशैली ही आन्तरिक प्रमाण बनती है, जिससे बृहत्पाठ परम्परा के दो अधिक दृश्यों की मौलिकता प्रमाणित होती है । (6) "अपि च", एवं "अथवा" की यथार्थता परखने से अन्यान्य श्लोकों के सन्दर्भ में खेली गई संक्षेप-प्रक्षेपलीला निश्चित की जाती है । (7) प्राचीनतम सिद्ध होनेवाली काश्मीर की शारदा-पाण्डुलिपिओं के साक्ष्य से एवं कृतिनिष्ठ आन्तरिक प्रमाणों से परिपुष्ट होनेवाली उच्चतर समीक्षा से एक "अधिकृत पाठ" तैयार हो सकेगा । (9) ऐसे अधिकृत पाठ में आविष्कृत हुए बृहत्पाठ को लेकर इस कृति की अभिनव साहित्यालोचना की जायेगी तो सर्वथा नवीन काव्यार्थ अभिव्यक्त होगा, और वह अपूर्व रसानुभव करायेगा ।।

---------- 8888888 -----------



Bibliography

Belvalkar, S. (1965). The Abhijnanas'akuntala. Delhi: sahitya Akademi.

Patankar, P. N. (1902). The Abhjnan-s'akuntalam, A purer Devanagari recension,. Poona: Shiralkar & Co., Boodhwara Peth,.

Pischel, R. (1876, ( Second edition - 1922 )). Kalidasa's S'akuntala, an ancient Hindu drama,. Cambridge: Harvard University Press.

Thakore, B. (1922). The Text of the S'akuntala. Bombay: D.B. Taraporewala Sons & Co., Fort, Bombay.

बेलवालकर, एस. के. (1962 (वि. सं. 2019)). निसर्ग कन्या शकुन्तला. In अ. -श. चतुर्वेदी, कालिदास ग्रन्थावली ( हिन्दी अनुवाद के साथ ) (pp. तीसरा खण्ड, समीक्षा निबन्ध, पृ. 59 - 70). अलीगढ: भारत प्रकाशन मन्दिर.

भट्ट, राघव. (2004). अभिज्ञानशाकुन्तलम् ( अर्थद्योतनिकया टीकया समेतम् ). दिल्ली: राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान,.

रङ्गाचार्य, च. (1982). अभिज्ञानशाकुन्तम् ( काटयवेमविरचितया कुमारगिरिगाजीया व्याख्यया समेतम् ). हैदराबाद: आन्ध्रप्रदेश साहित्य अकादेमी.

रमानाथ, झा. (1957). अभिज्ञानशकुन्तलम् ( मैथिल पाठानगम ), शंकर-नरहरिकृतटीकाभ्यां समलंकृतम् ।. दरभङ्गा: मिथिला विद्यापीठ.

विश्वेश्वर. (1985). ध्वन्यालोकः ( हिन्दी अनुवाद के साथ ). वाराणसी: ज्ञान-मण्डल लिमिटेड.

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें