अभिज्ञानशकुन्तल के मैथिली पाठ का वैशिष्ट्य, मंचन-निमित्त तथा संग्रथन-काल ।।
( कालिदास कैसे विक्रमादित्य से जुड़ गये हैं ? )
वसन्तकुमार म. भट्ट
पूर्व-निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद – 380 009
भूमिका:महाकवि कालिदास का अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक दो हजार वर्षों की कालावधि को पार करता हुआ हम तक पहुँचा है । लेकिन इस नाटक का कवि-प्रणीत स्वहस्तलेख तो आज कहीं से भी उपलब्ध होनेवाला नहीं है, क्योंकि वह कालग्रस्त हो चूका है । इस संसार में मुद्रणकला का आविष्कार ही करीब देढ़ सो से दोसो साल पहले ही हुआ है । अतः कवि के स्वहस्तलेख में से ही अन्य लेखकों के द्वारा दूसरी प्रतिलिपियाँ बनाई जाती रही है। तथा आदिकाल से प्रतिलिपिकरण का कार्य मानवकृत होने के कारण वह सदैव सदोष ही होता था । प्रतिलिपि-कर्ता अनवधान से, अशक्ति से, अज्ञान से, या कदाचित् जानबुझ कर भी कवि के मूल पाठ में विकृति पैदा करता ही है । जब कोई पाठ्यग्रन्थ नाट्य-स्वरूप में होता है तो उसके भाग्य में तो जन्मतः यह लिखा होता है कि प्रतिलिपि-कर्ताओं के उपरान्त नाट्यमञ्चन करनेवाले रंगकर्मी (सूत्रधार) लोग भी उसमें परिवर्तन करेंगे ही । अतः स्थानिक रंगकर्मी लोग किसी भी नाटक के मूलपाठ में मंचन-लक्षी सुविधा को बढाने या नवीन मंचनवैविध्य को आकारित करने के लिए कुछ न कुछ परिवर्तन एवं परिवर्धन या संक्षेपादि करते ही रहते हैं । अतः दो हजार वर्षों के लम्बे कालावधि में फैली इस नाटक के प्रतिलिपिकरण की परम्परा ने उसको अपने मूल स्वरूप से बहुत कुछ विचलित कर दिया है ।। लेकिन, जिस तरह पाण्डुलिपि बनानेवाला लिपिकर्ता (लहिया) उस प्रतिलिपिकरण का स्थल-काल, किस राजा के शासन में, किसके अभ्यासहेतु उसने अमुक पाण्डुलिपि लिखी है इत्यादि की सूचनाएं भी प्रायः लिखता है । इसी तरह से स्थानिक सूत्रधार भी अपनी रंगावृत्ति के प्रास्ताविक भाग में कदाचित् मंचनविशेष का सन्दर्भ सूचित करता है । रंगकर्मिओं के द्वारा दी गई ऐसी सूचनाओं को यदि परखी जाय तो नाट्यविशेष के मंचन का इतिहास भी अनावृत हो सकता है ।।
आज उपलब्ध हो रही विविध पाण्डुलिपियों से ज्ञात हुआ है कि इस अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक का पाठ पञ्चविध वाचनाओं में प्रवहमान हो कर हम तक पहुँचा है । जिसमें से तीन वाचनाओं में इस नाटक का बृहत्पाठ संचरित हुआ है, तथा अन्य दो वाचनाओं में लघुपाठ संचरित हुआ है । उपलब्ध हो रही इन पाँचों वाचनाओं का पौर्वापर्य यदि कोई जानना चाहे तो प्रथम क्रमांक पर शारदालिपि में लिखी पाण्डुलिपियों में काश्मीरी वाचना का पाठ उपलब्ध होता है, जो सब से प्राचीनतम पाठ है । ( काश्मीरी वाचना में इस नाटक का शीर्षक अभिज्ञानशकुन्तला है । ), द्वितीय क्रमांक पर मिथिला की लिपि में लिखा हुआ मैथिली वाचना का पाठ प्राचीनतर सिद्ध होता है । बंगाली लिपि में लिखा हुआ बंगाली वाचना का पाठ तृतीय क्रमांक पर तैयार किया गया है, जो प्राचीन है । ( मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में इस नाटक का शीर्षक अभिज्ञानशकुन्तल है । ), किन्तु दक्षिण भारत की ग्रन्थ, मळयाळम, नन्दीनागरी, तेलुगु आदि लिपियों में लिखी गई पाण्डुलिपियों में दाक्षिणात्य वाचना का पाठ मिलता है । यह पाठ अल्पसमयावधि में नाट्यप्रयोग करने के लिए संक्षिप्त किया गया लघुपाठ है, जो चौथे क्रमांक पर आकारित हुआ है । सब से अन्त में पञ्चम क्रमांक पर, देवनागरी वाचना का पाठ बनाया गया है, और जिसका स्वरूप संक्षिप्ततर है । ( इन दोनों वाचनाओं में इस नाटक का शीर्षक अभिज्ञानशाकुन्तल है । ) लघुपाठवाली इन वाचनाओं में नाटक के मूल पाठ का केवल संक्षेपीकरण ही नहीं किया गया है, परन्तु उसमें जिन पाठभेदों का स्वीकार किया गया हैं उनको देख कर लगता है कि वे दोनों ही संमिश्रित किये गये पाठवाली भी हैं ।।
यद्यपि इस नाटक की उपर्युक्त पाँच वाचनायें उपलब्ध हो रही हैं, और उनके संग्रथन-क्रम को देखा जाय तो मैथिली वाचना द्वितीय क्रमांक पर खड़ी है । तथापि इन पाँचों वाचनाओं में से मैथिली वाचना के स्वतन्त्र अस्तित्व को मानने के लिए डॉ. वी. राघवन् जी तैयार नहीं है । किन्तु ऐसा लगता है कि डॉ. वी. राघवन् जी जैसे धुरन्धर विद्वानों ने इस प्रश्न की गहराई में गये बिना ही मैथिली वाचना के स्वतन्त्र अस्तित्व को तिरस्कृत कर दिया गया है । जिसके कारण इस नाटक की पाठयात्रा का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण इतिहास अब तक अन्धेरे में ही पड़ा रहा है । हमारे अभिप्राय से डॉ. वी. राघवन् जी का उपर्युक्त विचार कथमपि ग्राह्य नहीं है । अतः उनके मत की पहले आलोचना करनी होगी । तत्पश्चात् प्रस्तुत शोध-आलेख में मैथिली वाचना का वैशिष्ट्य तथा उसके मंचन का गुप्त इतिहास उद्घाटित करना अभीष्ट है । इसके साथ इस वाचना के ग्रथन-काल पर भी विचार किया जायेगा, जिसके कारण कालिदास कैसे विक्रमादित्य के साथ जुड गये होंगे ? इसका उत्तर भी मिल जायेगा ।।
[ 1 ]
सम्पादक श्रीरमानाथ झा जी ने दरभङ्गा से प्रकाशित किये अभिज्ञानशकुन्तल का पाठ स्वतन्त्र रूप से मैथिली वाचना का प्रतिनिधित्व करनेवाला पाठ घोषित किया है, किन्तु डॉ. वी. राघवन् जी ने लिखा है कि हकीकत में ऐसी कोई पाँचवी वाचना का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है । श्रीरमानाथ झा ने सम्पादित किया यह पाठ तो बंगाली-काश्मीरी कुल की पाठपरम्परा से निकला हुआ प्रतीत होता है । क्योंकि यह पाठ कदाचित् बंगाली पाठ की ओर झुकता है, तो कदाचित् काश्मीरी पाठ की ओर झुकता है । डॉ. वी. राघवन् जी के इस कथन का गर्भितार्थ ऐसा है कि जो पाठ"मैथिल पाठानुग" के नाम से प्रकाशित किया गया है वह तो संमिश्रित किया गया पाठ है, जिसमें कभी बंगाली वाचना के पाठभेद दिखते हैं, तो कदाचित् काश्मीरी के पाठभेद मिल रहें हैं ।। इस तरह का अभिप्राय दो तरह से क्षतिग्रस्त मालूम होता हैः-- (1) डॉ. वी. राघवन् जी के सामने डॉ. एस. के. बेलवालकर जी का सम्पादित किया हुआ काश्मीरी वाचना का तथाकथित समीक्षित पाठ था । तथा (2) उन्होंने बंगाली एवं काश्मीरी वाचनाओं के पाठों में छिपे या तिरोहित हुए पौर्वापर्य का तो विचार ही नहीं किया है । जब तक बंगाली एवं काश्मीरी ( एवं मैथिली ) वाचनाओं के पाठों में निहित पूर्वापरभाव ढूँढा न जाय ( निश्चित न किया जाय ), तब तक मैथिली पाठ क्यूं कुत्रचित् काश्मीरी की ओर झूकता हुआ दिखता है, तथा क्यूं कुत्रचित् बंगाली पाठ की ओर झूकता हुआ मिलता है ?उसका निर्णय करना सम्भव ही नहीं है । इस दिशा में सोच कर हमने ऐसा प्रतिपादित किया है कि बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में से जो शारदा लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ काश्मीरी वाचना का पाठ है वही प्राचीनतम है । अतः उसको प्रथम क्रमांक पर रखना होगा । तदनन्तर, द्वितीय क्रमांक पर मैथिली वाचना का पाठ तैयार किया गया है । तथा तृतीय क्रमांक पर, बंगाली वाचना का पाठ आकारित हुआ है ।
इस सन्दर्भ में, यदि वस्तुनिष्ठ बात करनी हो तो पहले काश्मीर की शारदा लिपि में लिखी हुई एकाधिक पाण्डुलिपियों का अवलोकन करना आवश्यक है । तथा मैथिली पाठ का उभयत्र ( एक तरफ से बंगाली के साथ, तथा दूसरी ओर से काश्मीरी पाठ के साथ ) दिख रहे साम्य का गभीर रहस्य भी हस्तगत करना अनिवार्य है । हमने पहले बताया है कि मैथिली के जिन पाठान्तरों का साम्य काश्मीरी पाठ के साथ है, परन्तु बंगाली पाठ के साथ वैषम्य है वहाँ पर ऐसा अनुमान हो सकता है कि काश्मीरी वाचना के प्राचीनतम पाठ का मैथिली पाठ में अनुसरण हुआ होगा । तथा मैथिली के जिन पाठान्तरों का साम्य बंगाली पाठ के साथ है, परन्तु काश्मीरी पाठ के साथ वैषम्य है वहाँ पर ऐसा अनुमान करना है कि काश्मीरी के प्राचीनतम पाठ को बदल कर मैथिली वाचना के पाठशोधकों ने जिन जिन नये पाठभेदों को जन्म दिया होगा, उसका बंगाली पाठ में अनुसरण हुआ होगा । मतलब कि, इस नाटक के मूल कवि-प्रणीत पाठ का प्रथम विचलन काश्मीरी पाठ में देखा जाता है । तदनन्तर दूसरे क्रमांक पर, कुछ परिवर्तन-परिवर्धन के साथ मैथिली वाचना का पाठ तैयार हुआ होगा । ( प्रस्तुत आलेख में यह दिखाना अभीष्ट है कि किस मौके पर यह मैथिली वाचना का पाठ बनाया गया है । ) तथा तृतीय क्रमांक पर, बंगाल के अज्ञात पाठशोधकों ने मैथिली वाचना में हुए परिवर्तन-परिवर्धनादि को ग्राह्य रखने के साथ साथ, अपनी ओर से भी बंगाली वाचना में कुछ नवीन पाठभेद दाखिल किये होंगे । ऐसा अनुमान अनेक उदाहरणों से सिद्ध भी होता है ।। अतः श्री वी. राघवन् जी के पूर्वोक्त मत के साथ हम सहमत नहीं हो सकते हैं ।।
[ 2 ]
मैथिली पाण्डुलिपियों में कुछ विशेषताएँ ऐसी हैं कि जो मैथिल पाठ को एक स्वतन्त्र वाचना के रूप में स्वीकारने के लिए हमें बाध्य कर रही हैं । प्रधान रूप से एक विशेषता तो ऐसी है कि जिसकी ओर डॉ. एस. के. बेलवालकर जी, डॉ. वी. राघवन् जी, या डॉ. दिलीकुमार काञ्जीलाल जी आदि पाठालोचक एवं अन्य किसी भी विद्वान् का ध्यान नहीं गया है । जैसे कि, षष्ठाङ्क में, राजा दुष्यन्त ने शकुन्तला के चित्र में पूर्णता लाने के लिए अपनी दासी मेधाविनी से वर्तिका-करण्डक मंगवाया है । तब रास्ते में वापस आते समय रानी वसुमती ने ईर्ष्या-कषायिता होकर मेधाविनी के हाथ में से उस वर्तिका-करण्डक छिन लिया । विदूषक ने इस घटना-चक्र को "अन्तःपुर का कूटपाश"ऐसा नाम दिया है । लेकिन, यह जो प्रसंग मैथिली वाचना में है, वह उससे भी प्राचीनतम काश्मीरी वाचना में तो नहीं है । ( तथा इस घटना का अनुसरण बंगाली, दाक्षिणात्य एवं देवनागरी आदि सभी वाचनाओं में हुआ है । ) मतलब कि यह प्रसंग मैथिली वाचना में ही प्रथम बार प्रक्षिप्त हुआ है । कालिदास ने राजा ( नायक ) के नवीन प्रेम-प्रसंग में पूर्वपरिणीता रानिओं की ओर से आकारित होनेवाले अन्तरायों ( संघर्ष ) का प्रदर्शन तो अपने मालविकाग्निमित्र एवं विक्रमोर्वशीय जैसे दो पुरोगामी नाटकों में कर दिया था । अब अभिज्ञानशकुन्तला जैसा नवीन एवं अपूर्व नाटक का प्रणयन करते समय कालिदास ने उस पुराने अन्तरायों का निरूपण करने का मार्ग छोड देने का सोच लिया है । तथा उसी सन्दर्भ में, यदि दुर्वासा-शाप प्रसंग को देखा जाय तो, मैथिली वाचना के पाठशोधकों ने जो पूर्वपरिणीता वसुमती का अन्तराय उद्भावित किया है वही प्रक्षिप्तांश उसकी प्रधान विशेषता बन जाती है ।। काश्मीरी वाचना के पाठ में, पूर्वपरिणीता रानी ( कुलप्रभा ) की ओर से ऐसा अन्तराय पैदा नहीं किया गया है । वहाँ पर तो, राजा की दासी मेधाविनी और रानी की दासी पिङ्गलिका के बीच में ( याने इन दो दासिओं के बीच में ) ही वर्तिका-करण्डक छिन लेनी की घटना प्रदर्शित की गई है । तथा विदूषक के मुख में किसी"अन्तःपुर कालकूट"या "अन्तःपुर वागुरा"की बात नहीं रखी गई है ।। सारांश यही है कि काश्मीरी वाचना के पाठ में केवल दुर्वासा के शाप का ही अन्तराय निरूपित किया गया है, किन्तु मैथिली वाचना के पाठ में दुर्वासा के शाप के साथ साथ पूर्वपरिणीता रानी की ओर से आये अन्तराय का भी प्रक्षेपण किया गया है । यही प्रसंग मैथिली पाठ को स्वतन्त्र वाचना का दरज्जा दे रहा है ।।
मैथिली वाचना के पाठ में गौण रूप से भी कुछ अन्यान्य विशेषताएँ हैं, जो भी महत्त्वपूर्ण है और अन्यान्य वाचनाओं के साथ मैथिली पाठ की तुलना करते समय भेदक तत्त्व के रूप में उल्लेखनीय बनती हैं । इन विशेषताओं का निदर्श के रूप में परिगणन किया जाय तो, (1) इसमें नायक का नाम दुष्मन्त दिया है, (2) काश्मीरी पाठानुसारी नान्दी पद्य में "या स्रष्टुः सृष्टिराद्या पिबति विधिहूतं0"ऐसा पाठ है, किन्तु मैथिली वाचना के पाठशोधकों ने "या स्रष्टुः सृष्टिराद्या वहति विधिहूतं0"ऐसापरिवर्तन किया है, लेकिन पदक्रम तो काश्मीरी जैसा ही रखा है । उसके सामने बंगाली पाठ में "या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति विधिहूतं0"ऐसा पदक्रम का भी परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है ।, (3) मैथिली पाठ में, सूत्रधार कहता है कि "आर्ये, रसभाव-विशेष-दीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषद् ।"केवल इस मैथिली वाचना के पाठवाली पाण्डुलिपियों में ही विक्रमादित्य का नाम प्रकट रूप से दे कर कहा गया है कि यह नाटक किस राजा की सभा में अभिनीत किया जा रहा है ।, (4) केवल मैथिली और बंगाली वाचनाओं में ही प्रत्येक अङ्क का नामकरण किया गया है । तदनुसार, मैथिली पाठ के द्वितीयाङ्क का नाम "तपोवनानुगमन"दिया गया है, परन्तु बंगाली पाठ में वही नाम परिवर्तित करके "आख्यानगुप्तिः"रखा गया है ।, (5) मैथिली वाचना के पाठशोधकों ने काश्मीरी पाठ के श्लोकों का प्रायः अनुसरण करते हुए भी कुल मिला के 11 नवीन श्लोकों का प्रक्षेप किया है । जो अन्य सभी वाचनाओं की अपेक्षा से सब से अधिक सङ्ख्या में है । तथा उन 11 नवीन श्लोकों में एक "गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो मुनिकन्यकाः । श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चाभिनन्दिताः ।।"श्लोक भी प्रथमबार मैथिली पाठ में ही प्रक्षिप्त हुआ है, जिसने पुरुवंश जैसे उत्तमवंश में पैदा हुए धीरोदात्त नायक के प्रेम की गरिमा को नीचे उतार दिया है ।, (6) अन्त में, भरतवाक्य से पूर्व में, मारीच के मुख में "तव भवतु बिडौजाः प्राज्यवृष्टिः प्रजासु0" एवं "क्रतुभिरुचितभागांस्त्वं सुरान् प्रीणयालं0"ऐसे आशीर्वादार्थक दो श्लोकों का होना केवल मैथिली वाचना में ही दिखाई रहा है ।। इस तरह के अन्य वैशिष्ट्यों का परिगणन करवाया जा सकता है । किन्तु स्थालिपुलाक न्याय से इतना पर्याप्त है ।।
[ 3 ]
अब, मैथिली वाचना की जिन पाण्डुलिपियों में विक्रमादित्य की अभिरूप भूयिष्ठा परिषद् का निर्देश है, उनमें उस विक्रमादित्य के लिए "रसभावविशेषदीक्षागुरोः" तथा "साहसाङ्कस्य"जैसे शब्दों से दो विशेषणों का भी प्रयोग क्यूं हुआ है वह भी विचारणीय है । यह विक्रमादित्य कौन है, जिसके लिए साहसाङ्क बिरुद का विनियोग किया गया है?तो इस जिज्ञासा का शमन संस्कृत साहित्य एवं काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में बिखरे हुए कुछ सन्दर्भों से हो रहा है । जैसे कि,
(1) बाणभट्ट ने हर्षचरितम् ( उच्छ्वास :6 ) के अन्त भाग में, प्रमादवशात् किन किन राजाओं की मौत हुई थी उसका परिगणन किया है । वहाँ लिखा है कि "अरिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनीवेषगुप्तश्च चन्द्रगुप्तः शकपतिम् अशातयत् । "और इस पर टीकाकार शङ्कर ने स्पष्टता करते हुए लिखा है कि "शकानामाचार्यः शकाधिपतिः चन्द्रगुप्तस्य भ्रातृजायां ध्रुवदेवीं प्रार्थयमानः चन्द्रगुप्तेन ध्रुवदेवीवेषधारिणा स्त्रीजनपरिवृतेन व्यापादितः ।"
अर्थात् ( इतिहास-प्रसिद्ध गुप्तवंश में हुए समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त शकों के साथ लडते हुए उनसे पराजित हुआ । परन्तु राजसत्ता के लालचु उस रामगुप्त ने राज्य वापस लौटाने के लिए अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शकपति को दे देने का सोदा किया । इस प्रस्ताव से नाराज़ हुए उसके छोटे भाई ) चन्द्रगुप्त द्वितीय ने कामिनी का ( भ्रातृजाया ध्रुवदेवी का ) वेष धारण करके, उस परस्त्री-कामुक शकपति को उसीकी ही शिबिर में जा कर मार डाला था । इस प्रसंग के बाद वह जनसामान्य में"साहसाङ्क" नाम से भी विदित हुआ । [ डॉ. रामचन्द्र तिवारी, भोपाल कहते हैं कि यह साहसाङ्क शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख 10वीं शती में हुआ है । लेकिन इस घटना का निर्देश चन्द्रगुप्त– 2 के ( ई. स. 380 से 414ई. स. ) समय के बाद, ई. स. 648 में बाणभट्ट ने किया है, वह ध्यातव्य है ।।]
(2) इसी तरह से 12वीं शती के रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने अपने नाट्यदर्पण में विशाखदेव ( विशाखदत्त - ?) के देवीचन्द्रगुप्त नाटक से सात उद्धरण दिये हैं, उनमें भी इसी घटना की प्रतिध्वनि सुनाई देती है । उदाहरणतया, (क) यथा देवीचन्द्रगुप्ते - "राजा ( चन्द्रगुप्तमाह ) – त्वद्दुःखस्यापनेतुं सा शतांशेनापि न क्षमा ।, ध्रुवदेवी – ( सूत्रधारीम् आह ) – हञ्जे, इयं सा ईदृशी अज्जउत्तस्स करुणापराहीणदा ।, सूत्रधारी – देवि, पडंति चंदमंडलाउ वि चुडुलीउ किं एतु करिम्ह । ( देवि, पतन्ति चन्द्रमण्डलादपि उल्काः । किमत्र कुर्मः । - इति संस्कृतम् ) राजा – त्वय्युपारोपितप्रेम्णा त्वदर्थे यशसा सह । परित्यक्ता मया देवी जनोSयं जन एव मे ।।, ध्रुवदेवी – अहं पि जीविदं परिच्चयंती पढमयरं य्येव तुमं परिचइस्सं ।" अत्र स्त्रीवेषनिह्नुते चन्द्रगुप्ते प्रियवचनैः स्त्रीप्रत्ययात् ध्रुवदेव्या गुरुमन्यन्तापरूपस्य व्यसनस्य सम्प्राप्तिः ।। " (ख) यथा देवीचन्द्रगुप्ते - "चन्द्रगुप्तः – ( ध्रुवदेवीं दृष्ट्वा स्वगतमाह ) इयमपि देवी तिष्ठति । यैषा, रम्यां चारतिकारिणीं च करुणां शोकेन नीता दशां, तत्कालोपगतेन राहुशिरसा गुप्तेव चान्द्री कला । पत्युः क्लीबजनोचितेन चरितेनानेन पुंसः सतो, लज्जा-कोप-विषाद-भीत्यरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यति ।। "(ग) नाट्यदर्पण (पृ. 124) में त्रिगत का उदाहरण देते हुए कहा है : यथा देवीचन्द्रगुप्ते द्वितीयेङ्के प्रकृतीनामाश्वासनाय शकस्य ध्रुवदेवीसम्प्रदाने अभ्युपगते राज्ञा रामगुप्तेनारिवधार्थं यियासुः प्रतिपन्नध्रुवदेवीनेपथ्यः कुमारचन्द्रगुप्तो विज्ञपयन्नुच्यते ।।
(3) भोज ने भी शृङ्गारप्रकाश ( प्र. 12, पृ. 196-198 ) में देवीचन्द्रगुप्त नाटक से एक उद्धरण दिया है :चन्द्रगुप्तो विदूषकं प्रति – सद्वंश्यान् पृथुवर्ष्म-विक्रमबलान् दृष्ट्वाद्भुतान् दन्तिनो, हासस्येव गुहामुखादभिमुखं निष्क्रामतः पर्वतान् । एकस्यापि विधूतकेसरसटाभारस्य भीता मृगाः, गन्धादेव हरेर्द्रवन्ति बहवो, वीरस्य किं संख्यया ।। ( अर्थात् विदूषक जब स्त्रीवेष में अन्य सैनिकों को भी साथ में ले जाने का प्रस्ताव रखता है, तब चन्द्रगुप्त कहता है कि प्रचंड देह एवं दन्तशूलवाले हाथिओं की अवहेलना करता हुए और गुहा से बाहर निकलते हुए केसरी ( सिंह ) की गन्ध मात्र से ही सभी मृग इधर उधर भाग जाते हैं । ऐसी स्थिति में जो एकल शूरवीर होता है उसको अन्यों की साहाय्य की क्या आवश्यकता ?। )
(4) राजशेखर ने काव्यमीमांसा (अ. 9, पृ. 47) में वृत्तेतिवृत्त अर्थात् ऐतिहासिक वस्तु का एक मुक्तक का निदर्श दिया है । उसमें इस देवीचन्द्रगुप्त का श्लोक लिखा है:दातुं (दत्त्वा) रुद्धगतिः खसा(शका) -धिपतये देवीं ध्रुवस्वामिनीं, यस्मात् खण्डितसाहसो निववृते श्रीशर्म(राम)गुप्तो नृपः । तस्मिन्नेव हि हिमालये (रैवते) गुरुगुहाकोणक्वणत्-किंनरे(कीचके), गीयन्ते तव कार्तिकेय नगर(शबर)स्त्रीणां गणैः कीर्तयः ।। श्री केशव हर्ष ध्रुव जी कहते है कि राजशेखर ने यह श्लोक कहाँ से लिया है वह नहीं बताया है । लेकिन रामगुप्त (शक)शत्रुओं से पकडा गया, उसका साहस निष्फल हो गया तब उसने अपनी रानी को देने का सोदा किया । ऐसा होने पर वह शत्रुओं के हाथ से छुट पाया । फिर कुमार चन्द्रगुप्त ने उस कलंक को अपने साहस से धो दिया, तब गिरिनगर ( जूनागढ जिला, गुजरात) की पुरांगनाओं ने मिल कर उसके ( चन्द्रगुप्त के ) यश का रासगान किया – इस मतलब का यह श्लोक है ।।
(5) राजशेखर ने काव्यमीमांसा में ऐसा भी कहा है कि, "वासुदेव-सातवाहन-साहसाङ्कादीन् सकलान् सभापतीन् दानमानाभ्यामनुकुर्यात् । श्रूयते हि उज्जयिन्यां साहसाङ्को नाम राजा । तेन संस्कृतभाषात्मकमन्तःपुर एव प्रवर्तितं नियमन् ।।"
इस तरह संस्कृत साहित्य में पौनःपुन्येन उल्लिखित इस घटना-चक्र की स्वीकृति अपरिहार्य है । तथा चन्द्रगुप्त के पिता समुद्रगुप्त को यदि पराक्रमांक कहा गया हो तो, पूर्वोक्त घटनाचक्र के बाद प्रजामानस ने चन्द्रगुप्त द्वितीय को साहसाङ्क का बिरुद दिया हो तो वह स्वाभाविक प्रतीत होता है । जिसने कालान्तर में मालवा – उज्जयिनी – में भी जाकर शकों को परास्त करके अपने को विक्रमादित्य घोषित किया था । उसकी राजसभा में जब कालिदास का यह नाटक, कुछ नवीन प्रक्षेप एवं परिवर्तनादि के साथ प्रस्तुत किया गया होगा तब उस मौके पर सूत्रधार के मुख में ( वहाँ की मैथिली पाण्डुलिपियों में )"आर्ये, रसभावविशेष-दीक्षागुरो-र्विक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत्" ऐसी बिरुदावली सहित के शब्दों का विनिवेश होना नामुमकिन नहीं है ।।
कहने का तात्पर्य यही है कि, चन्द्रगुप्त द्वितीय के ( चौथा शताब्दी के ) समय में कालिदास पैदा नहीं हुए थे । बल्कि उस समय तो कालिदास के इस नाटक के पाठ में परिवर्तन-परिवर्धनादि करके मगध की या उज्जयिनी की रंगभमि पर उसका मंचन हुआ होगा । इस नवीनतम मैथिली संस्करण के मंचन के मौके पर "विक्रमादित्य एवं साहसाङ्क" ऐसे दो बिरुदों वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय के लिए"रसभाव-विशेष-दीक्षा-गुरोः"जैसे विशेषण का उपयोग करना भी बीलकुल समुचित लगता है । क्योंकि उन्होंने जब शकपति की हत्या करने के लिए स्त्रीवेष में ध्रुवदेवी बन कर शत्रु-शिबिर में जाना था तो उन्होंने उसके लिए आहार्य और आङ्गिक, तथा वाचिक अभिनय की विशेष तालीम भी ली होगी । एवमेव, जैसा टीकाकार शङ्कर ने लिखा है वैसे वह चन्द्रगुप्त अपने साथ कुछ सैनिकों को भी स्त्रीवेष पहनाकर, उन लोगों से परिवृत्त हो कर निकला था । तो उन सैनिकों को भी विशेष आहार्य-आङ्गिकादि अभिनयन की तालीम उसीने स्वयं दी होगी । यह बात स्वाभाविक तया अनुमान-गम्य है । एवमेव, ऐसा अनुमान करने पर ही मैथिली पाण्डुलिपियों में जो विशेषण"रसभावविशेष-दीक्षागुरोः"रखा गया है वह चरितार्थ हो सकता है ।।
इस तरह के अनुमान से यह स्पष्ट हो जाता है कि कतिपय पाण्डुलिपियोंमें एक नहीं, परन्तु दो दो ("साहसाङ्क"एवं"रसभावविशेषदीक्षागुरु"जैसे ) विशेषणों के साथ जो विक्रमादित्य का नामनिर्देश मिलता है वह तो मगध के चन्द्रगुप्त-2 के साथ ही संगत बैठते हैं । तथा उसकी राजसभा में मंचन करने के लिए अभिज्ञानशकुन्तल का नवीन मैथिली-संस्करण जब तैयार किया गया होगा तब वहाँ की पाण्डुलिपियों में ऐसे शब्दों का इदं प्रथमतया विनिवेश किया गया होगा ।।
[ 4 ]
मैथिली वाचना की उपर्युक्त विशेषताओं में से एक,"रसभावविशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषद्"ऐसी सूत्रधार की जो उक्ति है वह द्विविधतया ध्यानार्ह है । (क) इसमें आया हुआ रसभावविशेषदीक्षागुरु शब्द सहित का विक्रमादित्य साहसाङ्क शब्द गुप्तवंश के चन्द्रगुप्त द्वितीय के जीवन में आकारित हुई एक ऐतिहासिक घटना का सूचक है । ( जिसको अन्य संस्कृत ग्रन्थकारों के विधानों का समर्थन भी मिलता है । ) तथा (ख) इस नाटक की जो प्राचीनतम काश्मीरी वाचना का पाठ है, उसमें इन शब्दों का नहीं होना, तथा द्वितीय क्रमांक पर आविष्कृत हुई मैथिली वाचना में उसका इदं प्रथमतया होना–वह एक दूसरी बात का भी द्योतक बनता है । जैसे कि, चन्द्रगुप्त द्वितीय की राजसभा के सामने इस नाटक का मंचन करने के लिए ( काश्मीरी वाचना के पाठ में परिवर्तन एवं नवीन श्लोकादि का परिवर्धन करके ) यह मैथिल संस्करण तैयार किया गया होगा ।।
इतना स्पष्ट होने के बाद, अब यह भी विचारणीय है कि ई. स. पूर्व 57 में जिसके नाम से विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ है, वह जनश्रुतियों में सुविख्यात विक्रमादित्य ( व्यक्तिवाचक नामवाले ) राजा के साथ कालिदास का नाम कैसे जुड़ गया होगा?। तो सम्भवतः ऐसा लगता है कि मैथिली संस्करण का जब आविर्भाव चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में ( चौथी सदी में ) हुआ और उन मैथिल पाण्डुलिपियों में विक्रमादित्य साहसाङ्क का नाम संनिविष्ट किया जाने के बाद, कालान्तर में कुछ अज्ञात प्रतिलिपि-कर्ताओं ने बंगाली एवं देवनागरी आदि लिपिओं में लिखी जानेवाली पाण्डुलिपियों से साहसाङ्क शब्द को हटा दिया होगा । तथा केवल विक्रमादित्य उपाधि को सुरक्षित रखा होगा । जिसके कारण, ई. स. पूर्व हुए, उज्जयिनी की भूमि पर शासन करनेवाले, विक्रमी संवत् के प्रवर्तक (आदि) विक्रमादित्य के साथ कालिदास को जोड़ देना आसान हो गया !अन्यथा, जैसा कि डॉ. रामचन्द्र तिवारी जी ने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है वैसे, किसी भी तरह से विक्रमादित्य और कालिदास की जोड़ी सिद्ध होती ही नहीं है । यहाँ, यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि डॉ. रामचन्द्र तिवारी जी ने इन दोनों कि जोड़ी कथमपि सिद्ध नहीं होती है ऐसा सिद्ध करके, कालिदास गुप्तकालीन सिद्ध हो रहे है ऐसा अपना मत प्रकट किया है । किन्तु उनके ग्रन्थ का प्रतिपादन पढ़ते हुए यह जिज्ञासा तो बनी ही रहती है कि तो फिर जनश्रुति में विक्रमादित्य और कालिदास की जोड़ी बनी कैसे, प्रचलित बनी कैसे ?इस जिज्ञासा की अपेक्षित संतुष्टि डॉ. तिवारी जी के ग्रन्थ से प्राप्त नहीं होती है ।। अतः इसके लिए तो उपर्युक्त समाधान ही संगत बैठ जाता है । इस बात का समर्थन करने के लिए, प्रसंगानुरूप एक प्राथमिक सर्वेक्षण करना जरूरी बनता है । जैसे कि, अभिज्ञानशकुन्तला नाटक की किन किन पाण्डुलिपियों मंक विक्रमादित्य का अकेला या साहसाङ्क शब्द के साथ निर्देश हुआ हैः---
[क] जिन तीन मैथिली पाण्डुलिपियों में मैथिली वाचना का पाठ दिया हुआ है, उसका परिचय प्रथम देना आवश्यक हैः— (1) मिथिला विद्यापीठ, दरभङ्गा से ( 1957 में ) निकला संस्करण, जो दो ताडपत्रीय पाण्डुलिपिओं के आधार पर तैयार किया गया है । तथा इस मैथिल पाठ पर टीका लिखनेवाले शङ्कर एवं नरहरि ने भी इन रसभावविशेषादि शब्दों का स्पष्ट उल्लेख किया है ।, (2) नेशनल आर्काइव्झ ऑफ नेपाल, काठमण्डु के ताडपत्र, क्रमांक :9 - 421,वाली बंगाली लिपि में लिखी पाण्डुलिपि, तथा (3) श्रीधर्मानन्द कौशाम्बी ने नेपाल से प्राप्त की पाण्डुलिपि, जो वर्तमान में श्री काका साहेब कालेलकर के दिल्ली-स्थित संग्रह में है, उसका क्रमांक :1006 है ।। यह देवनागरी लिपि में है।। इन तीनों पाण्डुलिपियों में "आर्ये, रसभाव-विशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत् ।" इन शब्दों का संनिवेश हुआ है ।
[ख] बंगाली वाचना के पाठवाली बंगालीलिपि में लिखी हुई कतिपय पाण्डुलिपियों में भी "रसभाव-विशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषद् ।"ऐसे शब्द लिखे हुए मिले हैं । लेकिन उन पाण्डुलिपियों में मैथिली पाठ की पूर्वोक्त अन्य विशेषताएं नहीं है । उन सब में तो बंगाली पाठ की विशेषताएं ही प्रकट रूप में दिख रही है । अतः बंगाली वाचना की कतिपय पाण्डुलिपियों में भी विक्रमादित्य एवं साहसाङ्क का नाम क्यूं मिल रहा है ?ऐसा प्रश्न होगा ही । इसका कारण यह हो सकता है कि मिथिला प्रान्त की पड़ोस में ही बंगाल प्रदेश आया हुआ है !बंगाली पाठ में जब मैथिल पाठ के बहुत सारे प्रक्षेपों को यथावत् स्वीकार कर लिए हैं तो, इसके साथ साथ में विक्रमादित्य का नाम भी ग्राह्य रखते हुए, उसका भी बंगाली पाण्डुलिपियों में प्रवेश करवाना उन वाचना के पाठशोधकों के लिए सहज बात बनी होगी । यह असम्भावित नहीं लगता है ।।
बंगाली वाचना की जिन पाण्डुलिपियों में साहसाङ्क और विक्रमादित्यादि शब्द प्रविष्ट हुए हैं वे इस तरह की हैः—(1) रिचार्ड पिशेल ने छह बंगाली पाण्डुलिपियों के पाठभेदों का परिशिष्ट में निर्देश किया है । उनमें इस विक्रमादित्य एवं साहसाङ्क का पाठ देनेवाली तीन (आर-आई-डी संकेतवाली) पाण्डुलिपियाँ है । रिचार्ड पिशेल ने इन शब्दों को प्रक्षिप्त मान कर, अमान्य किये हैं और परिशिष्ट में रखें है । (2) उसी तरह से डॉ. दिलीपकुमार कांजीलाल ने बताया है कि नेपाल के राणा चन्द्र शम शेर जी ने ऑक्सफर्ड युनि. की बोडलियन लाईब्रेरी में भेंट की हुई क्रमांक :डी. 387 वाली पाण्डुलिपि में प्रथम पृष्ठ पर उसके लहिया ने ही स्वयं लिखा है कि "आर्ये, रसभावविशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्य अभिरूपभूयिष्ठा परिषदियमिति मैथिलपुस्तकपाठः"। (3) श्रीजीवानन्द विद्यासागर ने जो देवनागरी लिपि में, बंगाली वाचना का पाठ 1914 में प्रकाशित किया है, उसमें केवल विक्रमादित्य का निर्देश मिलता है । परन्तु उसमें साहसाङ्क का नाम नहीं लिया है । (4) तथा बंगाली पाठ पर टीका लिखनेवाले चन्द्रशेखर चक्रवर्ती की सन्दर्भदीपिका टीका में "रसभावदीक्षागुरोः साहसाङ्कस्या-भिरूपभूयिष्ठा परिषदिति क्वचित् पाठः ।"ऐसे शब्दों का स्पष्ट उल्लेख है । किन्तु उसमें विक्रमादित्य का नाम नहीं है !।। निष्कर्षतः कहा जाय तो, मैथिल वाचना की छाया पडने के कारण ही बंगाली वाचना के पाठ को धारण करनेवाली कतिपय पाण्डुलिपियों में कुत्रचित् अकेले विक्रमादित्य का नाम, या कुत्रचित् केवल साहसाङ्क का नाम, अथवा कुत्रचित् दोनों ही नामों का प्रवेश हुआ दिखता है । किन्तु जैसे चन्द्रशेखर चक्रवर्ती ने अपनी सन्दर्भदीपिका टीका में "रसभाव... इति क्वचित् पाठः"लिख कर इङ्गित कर ही दिया है कि यह पाठ मूलतः बंगाली वाचना का नहीं था । तथा इस बात का समर्थन बोडलियन लाईब्रेरी के चन्द्रशम शेर संग्रह की पाण्डुलिपि में उसके ही लहिया ने साफ बताया है कि यह पाठ मैथिल-पुस्तक का है, उससे मिल जाता है ।।
[ग] दाक्षिणात्य ( ग्रन्थ, तमिळ, तेलुगु, नन्दीनागरी आदि ) लिपियों में लिखी कतिपय ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों में भी इन दोनों शब्दों का, अथवा इनमें से किसी एक नाम का ही प्रवेश हुआ है ऐसा भी मालूम हो रहा है । जैसे कि, (1) रसभावविशेषदीक्षागुरोः विक्रमादित्यस्य । शब्द(( c ) , ( cy ), note ( N ), ( P N ( tnmarg ) R ), ( Pa F ) ) मिलते है । तथा (2) रसभावविशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्य । शब्द (( P DIN ( marg ) R )) मिलते हैं । ( द्रष्टव्यः-Complete collection of the various readings of the Madras mss., Editor :- T. Foulkes, 1904. ) ।।
[घ] जिसमें देवनागरी वाचना का पाठ संचरित हुआ है ऐसी भी कतिपय पाण्डुलिपियाँ हैं कि जिनमें भी पूर्वोक्त दोनों नामों का, या इन दोनों में से किसी एक ही नाम का निर्देश मिलता है । उदाहरणतया (1) होगटन कॉलेज, ( Houghton College ) हार्वर्ड युनिवर्सिटी, अमरिका, इन्डिक मेन्युस्क्रीप्ट क्रमांक :1086 में "आर्ये, रसभाव-विशेष-दीर्घ-गुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्या-भिरूप-भूयिष्ठा संसत् ।"लिखा है ।, (2) एशियाटीक सोसायटी, कोलकाता में संगृहीत एक देवनागरी पाण्डुलिपि, क्रमांक : जी. 340 है ।, उसमें भी पूर्ववत् पाठ है । केवल संसत् के स्थान पर परिषदियम् ऐसे शब्द हैं । ( इसके अन्त भाग में "चिन्तामणि-पाठार्थम् दिनमणिदाशेनलिखितमिदं पुस्तकम् । कारानगरे गंगातीरे" इसका लेखनवर्ष - 1669 लिखा है )।, (3) श्री सीताराम चतुर्वेदी की कालिदास ग्रन्थावली ( सं. 2019 ) में विक्रमादित्य का नामोल्लेख है, परन्तु उसमें साहसाङ्क शब्द नहीं है । तथा इस ग्रन्थावली के परिशिष्ट में डॉ. राजबली पाण्डेय जी ने एक देवनागरी पाण्डुलिपि की जानकारी दी है । जिसमें भी इन दोनों नामों सहित का पाठ मिल रहा है ।।
सारांशतः विक्रमादित्य एवं साहसाङ्क इन दोनों शब्दों का इदं प्रथमतया विनिवेश मैथिली वाचना के पाठ में हुआ है । तदनन्तर, द्वितीय सोपान पर बंगाली पाठ में उसका प्रवेश हुआ । जब तक इन दोनों शब्दों का बंगाली पाठ में स्वीकार हो रहा था, तब तक प्रतिलिपि-कर्ताओं को एवं टीकाकार चन्द्रशेखर चक्रवर्ती को साफ मालूम था कि यह मैथिली पाठ का अंश है । ( मतलब कि बंगाली पाठशोधकों ने मगध के विक्रमादित्य साहसाङ्क का अभेद उज्जयिनी के ई. पूर्व के विक्रमादित्य के साथ नहीं किया था । ) लेकिन तृतीय सोपान पर, जब उन शब्दों का दाक्षिणात्य एवं देवनागरी पाण्डुलिपियों में अनुप्रवेश हुआ तब कदाचित् दोनों शब्दों को या कदाचित् केवल विक्रमादित्य शब्द को स्वीकारा गया है । तथा जहाँ पर भी ( दाक्षिणात्य एवं देवनागरी पाण्डुलिपियों में ) साहसाङ्क शब्द को हटा कर, अकेले विक्रमादित्य शब्द को स्वीकारा गया है, वहाँ पर ई. पूर्व के विक्रमादित्य और कालिदास की जोड़ी होने का भ्रम पैदा करने की प्रवृत्ति अनजान में ही शूरु हुई है । ऐसा होने पर जनश्रुतियों में यह बात फैलाने लगी होगी कि कालिदास विक्रमादित्य की राजसभा के नवरत्नों में से एक थे !परम सत्य तो यही था कि संस्कृतानुरागी चन्द्रगुप्त-2 के समय में इस नाटक के नवीकृत पाठ के अनुसार मंचन करने के लिए बनाई गई मैथिली पाण्डुलिपिओं में ही उस ( चन्द्रगुप्त-2 ) के विक्रमादित्य साहसाङ्क जैसे दो बिरुदों का उपयोग पहलीबार किया गया था ।।
[ 5 ]
एक पूरक कथनीय बिन्दु यह भी है कि अभिज्ञानशाकुन्तल के प्रथम अङ्क के अन्तिम श्लोक में चीनांशुकमिव केतोः प्रतिवातं नीयमानस्य । ऐसी एक पङ्क्ति आती है । प्रश्न होता है कि यह चीनांशुक शब्द यहाँ कैसे आया?तो सब से पहले यह जान लेना उचित है कि अभिज्ञानशकुन्तला नाटक की प्राचीनतम वाचना के रूप में काश्मीरी वाचना ही सिद्ध होती है । उसमें तो चिह्नांशुकमिव ऐसा शब्द आया है । कालान्तर में जब मैथिली वाचना का तथाकथित परिष्कृत पाठ तैयार किया गया और विक्रमादित्य साहसाङ्क नाम से विदित बने चन्द्रगुप्त-2 की राजसभा में उसका मंचन हुआ था, उस मैथिल पाठ में ही इदं प्रथमतया चिह्नांशुक को चीनांशुक में परिवर्तित किया गया है । अब इतिहास इस बात का प्रमाण देता है कि चन्द्रगुप्त-2 के समय में ही फाहियान जैसा पहला चीनी यात्री भारत में आया था । तो उसके समय में आने लगे चीन के वस्त्रों का निर्देश भी मैथिली पाठ में प्रविष्ट करना तर्कसंगत प्रतीत होता है !इस नाटक का एक छोटा सा पाठान्तर भी यदि कब कहाँ दाखिल हुआ है ? वह सोचा जाय तो भी इस नाटक की पाठयात्रा पर निश्चित प्रकाश पड़ सकता है, उसका यह प्रमाण है !
[ 6 ]
श्रीसीताराम चतुर्वेदी जी ने कालिदास ग्रन्थावली ( भारत प्रकाशन मन्दिर, अलीगढ, 1963 ) में दिये हुए अभिज्ञानशाकुन्तल में भी अकेले विक्रमादित्य शब्दवाला पाठ स्वीकारा है । तथा उसके परिशिष्ट भाग में डॉ. राजबली पाण्डेय जी का आलेख दिया है । अतः प्रसंगवशात् उनके मत पर ऊहापोह कर लेना अपेक्षित हैः—डॉ. राजबली पाण्डेय जी ने कहा है कि मालवगण मुख्य विक्रमादित्य कालिदास के आश्रयदाता हो सकते है या नहीं ? अभिज्ञानशाकुन्तल की कतिपय प्राचीन प्रतियों में नान्दी के पश्चात् लिखा मिलता है कि इस नाटक का अभिनय विक्रमादित्य की अभिरूप भूयिष्ठ परिषद में हुआ था । जैसे कि, "आर्ये, इयं हि रसभावविशेषदीक्षागुरो,- र्विक्रमादित्यस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत् ।" ( जीवानन्द विद्यासागर संस्करण, कलकत्ता, 1914 ई.स. ) अभी तक विक्रमादित्य एकतान्त्रिक राजा ही समझे जाते रहे हैं । किन्तु काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के हिन्दी-विभागाध्यक्ष स्वर्गीय श्रीकेशवप्रसाद मिश्रजी के पास सुरक्षित अभिज्ञानशाकुतल की एक हस्तलिखित प्रति ने विक्रमादित्य का गण ( गणतन्त्र ) से सम्बन्ध व्यक्त कर दिया है । ( इस पाण्डुलिपि का प्रतिलेखन-काल अगहन सुदी 5, संवत् 1699 है ) उसके निम्नोक्त दो अवतरण ध्यान देने योग्य हैः—(अ) "आर्ये रसभावविशेषदीक्षागुरोः विक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्या-भिरूपभूयिष्ठा परिषत् । अस्यां च कालिदासप्रयुक्तेनाभिज्ञानशाकुन्तलेन नवेन नाटकेनोपस्थातव्यमस्माभिः । ( नान्द्यन्ते )" ।, एवं भरतवाक्य के उपर दिये हुए एक श्लोक में (आ) "भवतु तव बिडौजाः प्राज्यवृष्टिः प्रजासु, त्वमपि विततयज्ञो वज्रिण भावयेथाः । गणशतपरिवृतैरेवमन्योन्यकृत्यै,र्नियतमुभयलोकानुग्रहश्लाघनीयैः ।।" उपर्युक्त अवतरणों में रेखाङ्कित पदों से यह स्पष्ट जान पडता है कि जिन विक्रमादित्य का यहाँ निर्देश है उनका व्यक्तिवाचक नाम विक्रमादित्य है, और उपाधि "साहसाङ्क" है । भरतवाक्य का "गण" शब्द राजनीतिक अर्थ में गणराष्ट्र का द्योतक है ।" इत्यादि ।। इस तरह डॉ. राजबली पाण्डेय जी ने ई.पू. प्रथम सदी में हुए उज्जयिनी के विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता सिद्ध हो रही है ऐसा, केवल एक ही पाण्डुलिपि के साक्ष्य से घोषित किया है ।।
परन्तु, पाण्डुलिपियों के साक्ष्य को लेकर कुछ भी बताना है तो पाण्डुलिपियों के व्यापक सर्वेक्षण की पहले अनिवार्य आवश्यकता होती है । केवल एक हस्त-लिखित प्रति के आधार पर जो कहा जायेगा वह कालान्तर में अन्यथा सिद्ध हो सकता है । जैसा कि हमने देश-विदेश-व्यापी विभिन्न ( 70 से अधिक ) पाण्डुलिपियों का तुलनात्मक अध्ययन करके पीछले तीन वर्षों में कुछ गवेषणायें उपस्थापित की हैं । जिससे अद्यावधि अनजान रही इस नाटक की पाठयात्रा का चित्र सामने आ गया है । जिसमें मैथिली वाचना का पाठ द्वितीय क्रमांक पर आकारित किया गया है । तथा प्रस्तुत आलेख में जैसे कहा जा रहा है वैसे वह नवीकृत पाठ विक्रमादित्य एवं साहसाङ्क बिरुदधारी मगध के चन्द्रगुप्त द्वितीय के सामने इसका मंचन करने के लिए वहाँ के रंगकर्मिओं के द्वारा तैयार किया गया था । इस लिए डॉ. राजबली पाण्डेय जी की उपस्थापना का परिहार होई जाता है ।।
तथापि उस आलेख में जिस एक पाण्डुलिपि का प्रमाण दिया है, उसके सन्दर्भ में भी चर्चा करनी आवश्यक है । उसमें भरतवाक्य के उपर दिये गये दो श्लोकों में से एक श्लोक का उद्धरण दिया है, वह विवेच्य हैः- मिथिला रिसर्च इन्स्टीट्युट, दरभङ्गा से 1957 में जो मैथिलपाठ प्रकाशित हुआ है उसके भरतवाक्य के उपरि भाग में आशीर्वादात्मक दो श्लोक आये हुए हैं । जिसमें "गणशतपरिवतैः0"ऐसा पाठ नहीं है, उसमें तो"युगशतपरिवृतैः0"ऐसा पाठ दिया है । अतः चन्द्रगुप्त द्वितीय ने जो उज्जयिनी के तत्कालिक शकों को पराजित करके विक्रमादित्य का नाम धारण किया था, ( और इस तरह से उसने अपने आपको ई. सी.पूर्व के शकारि विक्रमादित्य का अनुकरण करनेवाला कहा था ), उसके सामने नवीकृत मैथिल पाठानुसारी नाटक प्रस्तुत हुआ होगा तब तो"युगशतपरिवृतैः0"पाठवाला ही श्लोक बोला गया होगा । क्योंकि यही पाठ उनके टीकाकार शङ्कर को भी मान्य है । किन्तु कालान्तर में जनश्रुतियों में प्रसिद्ध विक्रम-संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य के साथ साहसाङ्क विक्रमादित्य का अभेद करने के लिए किसी अज्ञात प्रतिलिपि-कर्ता ने जैसे अपनी प्रतिलिपि में से साहसाङ्क शब्द को हटा दिया होगा, वैसे ही उपरि निर्दिष्ट ( मैथिल वाचनानुसारी ) आशीर्वादात्मक श्लोक में आये हुए"युगशतपरिवृतैः0शब्द में नया पाठभेद करके"गणशतपरिवतैः0"ऐसा लिखा होगा । अतः केवल एक पाण्डुलिपि के साक्ष्य पर डॉ. राजबली पाण्डेय ने जो कहा था कि फलानी पाण्डुलिपि में आया गण शब्द राजनीतिक अर्थ में गणराष्ट्र का द्योतक है – वह अग्राह्य सिद्ध होता है । तथा प्राचीन टीकाकार शङ्कर ने दिया"युगशतपरिवतैः0"जैसा मैथिल पाठ ही मान्य हो सकता है ।।
[ 7 ]
उपसंहार :कालिदास किस समय में पैदा हुए?इस विषय को लेकर इतिहासविदों ने एवं संस्कृतविदों ने पौनःपुन्येन विवाद किया है । इन विवादों के उपरान्त, कालिदास गुप्तवंश के राजाओं के समय में ( याने चौथी या पाँचवी सदी में ) हुए हैं ऐसा पुराविदों ने अपना पक्ष रखा है । उनके प्रतिपक्ष में संस्कृतविदों ने कालिदास के काव्यों में वेद एवं यज्ञ की संस्कृति के विविध सन्दर्भों का निरूपण देख कर ईसा के पूर्व या ईसा की प्रथम शती में कालिदास पैदा हुए होंगे ऐसा दूसरा पक्ष स्थापित किया है । दोनों ही पक्ष अपने अपने प्रमाणों को दृढतर बनाते रहें है । इस माहोल में विशेष रंग तब चढता है जब उसमें "विक्रमादित्य के समय में कालिदास पैदा हुए थे"इस मत का प्रवेश होता है । क्योंकि भूतकाल में विक्रमादित्य नामधारी एवं बिरुदधारी अनेक राजाओं हुए हैं । इन सब में किस विक्रमादित्य के समय में कालिदास पैदा हुए होंगे ?इस प्रश्न के आधार पर तीसरा पक्ष आकारित हो जाता है !डॉ. रामचन्द्र तिवारी जी ने अपने "कालिदास की तिथि-संशुद्धि "ग्रन्थ में अनेक प्रमाणों के साथ ऐसा अभिमत प्रदर्शित किया है कि कालिदास और विक्रमादित्य की जोड़ी कथमपि सिद्ध नहीं होती है । तथापि यह जिज्ञासा तो बनी ही रहती है कि तो फिर जनश्रुतियों में इन दोनों के बीच आश्रित-आश्रयभाव प्रचलित हुआ कैसे ? इस जिज्ञासा का शमन प्रस्तुत शोध-आलेख से हो रहा है ।। इस आलेख में जिन बिन्दुओं पर विचार-विमर्श किया गया है वे निम्नोक्त हैः--
1. अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की विविध वाचनाओं में से मैथिली वाचना का स्वतन्त्र अस्तित्व सिद्ध होता है कि नहीं ?उस पर परामर्श किया गया है ।
2. मैथिली वाचना के पाठ की एकाधिक विशेषताएँ बताई गई हैं । जिनमें से सूत्रधार की उक्ति "आर्ये, रसभावविशेषदीक्षागुरोर्विक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषद्"विशेष रूप से ध्यानार्ह है । क्योंकि यह उक्ति मैथिली वाचना में ही इदं प्रथमतया दृश्यमान हो रही है ।
3. संस्कृत काव्य एवं काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में आये हुए उद्धरणों से सिद्ध होता है कि यह विक्रमादित्य साहसाङ्क बिरुदधारी राजा तो मगध के गुप्तवंश का चन्द्रगुप्त द्वितीय ही ( जो चौथी शताब्दि का ) है ।
4. चूकिं चन्द्रगुप्त-2 की मूल राजधानी मिथिला में थी, मिथिला के पाठशोधकों ने काश्मीरी वाचना के पाठ में परिवर्तन-परिवर्धन करके, चन्द्रगुप्त की सभा में उस मैथिल पाठानुसारी मंचन किया होगा । ( इस नाटक का मैथिल पाठानुसारी मंचन कहाँ, मगध या उज्जयिनी में हुआ होगा ?यह निश्चित नहीं हो सकता है । )
5. मैथिली वाचना की उपर्युक्त विशेषता जिन जिन पाण्डुलिपियों में संचरित हुई है उसका एक प्राथमिक परिगणन दिया गया है । तथा ईसा पूर्व के (आदि) विक्रमादित्य के साथ कालिदास का नाम कालान्तर में कैसे संयुक्त होने लगा होगा उसका अनुमान किया गया है ।
6. मैथिली वाचना के पाठ का संग्रथन-काल यदि चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में ( अर्थात् चौथी सदी में ) हुआ हो तो, शारदा-लिपि की पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ काश्मीरी वाचना का पाठ दूसरी-तीसरी सदी से प्रवाहित होता हुआ आ रहा है ऐसा भी मानना होगा ।
7. इस शोध-आलेख में प्रस्तुत किये गये अभिनव परामर्श से कालिदास गुप्तकाल में पैदा नहीं हुए थे, किन्तु उनके इस अभिज्ञानशकुन्तल नाटक का परिवर्तित पाठ गुप्तकाल के विक्रमादित्य (चन्द्रगुप्त-2) के साथ जुड़ा है - उन दोनों हकीकतों का सप्रमाण उपस्थापन हो गया है ।।
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सन्दर्भ-ग्रन्थ सूचि
1. अभिज्ञानशाकुन्तलम् । सं. एम. आर. काळे, प्रका. मोतीलाल बनारसी दा, दिल्ली, 10 संस्करण, 1969, ( देवनागरी पाठ )
2. अभिज्ञानशकुन्तलम् । (मैथिल-पाठानुगम), सं. रमानाथ झा, मिथिला विद्यापीठ, दरभङ्गा, 1957, ( शङ्कर-नरहरि की टीका के साथ )
3. अभिज्ञानशकुन्तलम् ( सन्दर्भदीपिकया सहितम् ), सं. वसन्तकुमार म. भट्ट, राष्ट्रीय पाण्डुलिपि मिशन, दिल्ली, 2013
4. कालिदास : अपनी बात ।, पं. रेवाप्रसाद द्विवेदी, कालिदास संस्थान, वाराणसी, 2004
5. कालिदास ग्रन्थावली, सं. सीताराम चतुर्वेदी, भारत प्रकाशन मन्दिर, अलीगढ, सं. 2019, तृतीय संस्करण
6. कालिदास ग्रन्थावली, सं. रेवाप्रसाद द्विवेदी, काशी हुन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, 1986, द्वितीय संस्करण
7. कालिदास की तिथि-संशुद्धि, डॉ. रामचन्द्र तिवारी, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, 1989
8. काव्यमीमांसा । सं. रामस्वामी शास्त्री, ओरिएन्टल इन्स्टीट्युट, बरोडा, 1934
9. ध्रुवस्वामिनी ( हिन्दी नाटक ) । जयशंकर प्रसाद, साहित्यागार, जयपुर, 1991
10. नाट्यदर्पणम् । रामचन्द्र-गुणचन्द्र-विरचितम् । सं. आचार्य विश्वेश्वर । दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, 1961, एवं नाट्यदर्पणम् । सं. जी. के. गोडेकर, ओरिएन्ट इन्स्टीट्युट, बरोडा, 1999 ।
11. नाट्यम्, ( अंकः – 71 – 74 ), सं. राधावल्लभ त्रिपाठी, ( रंगमंच एवं सौन्द्रयशास्त्र की त्रैमासिक शोध-पत्रिका ), सागर विश्वविद्यालय, सागर, 2011-12
12. नाट्यम्, ( अंकः – 76 ), सं. राधावल्लभ त्रिपाठी, ( रंगमंच एवं सौन्द्रयशास्त्र की त्रैमासिक शोध-पत्रिका ), सागर विश्वविद्यालय, सागर, 2014
13. नाट्यम्, ( अंकः – 77 ), सं. राधावल्लभ त्रिपाठी, ( रंगमंच एवं सौन्द्रयशास्त्र की त्रैमासिक शोध-पत्रिका ), सागर विश्वविद्यालय, सागर, 2015 ( प्रकाश्यमान अंक )
14. महाकवि कालिदास, ( प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय खण्ड ), डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, 1998,
15. विश्वकवि कालिदास, पं. सूर्यनारायण व्यास, हर्षिता प्रकाशन, दिल्ली, 2004
16. साहित्य अने विवेचन, केशव हर्ष ध्रुव, भो.जे. विद्याभवन, द्वितीयावृत्ति, अमदावाद, 1995
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18. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, द्वितीय संस्करण, 1964
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