गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

सिद्धहेम-व्याकरण में वाक्य-विन्यास-पद्धति का विश्लेषण

हेमचन्द्राचार्य-निर्दिष्ट वाक्यविन्यास पद्धति का विश्लेषण
वसन्तकुमार म. भट्ट
निदेशक, भाषासाहित्यभवन
गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद- 380009

भूमिकाः- आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने ज्ञान की प्रत्येक शाखा में बडे या छोटे ग्रन्थ लिखे हैं। उन्होंने जो भी व्याकरण, प्रमाण, काव्यशास्त्र, कोश, पुराणादि विषयक अनेकानेक ग्रन्थ लिखें है, उनमें से व्याकरण विषयक “सिद्धहेमशब्दानुशासन” ग्रन्थ सबसे अधिक ध्यानाकर्षक है।
यह शब्दानुशासन के पांच अङ्ग है। जैसे कि 1.सूत्रपाठ, 2.धातुपाठ, 3.गणपाठ., 4.उणादिसूत्रपाठ और 5.लिङ्गानुशासन। इस पञ्चाङ्गी संस्कृत व्याकरण में जो अष्टम अध्याय है, उनमें विवध प्रकार की प्राकृत भाषाओं का भी व्याकरण दिया गया है। और इन संस्कृत-प्राकृत व्याकरण के सूत्रों से जो जो शब्द निष्पन्न होते है, उसको उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए आचार्य हेमचन्द्रजी ने ‘द्व्याश्रय-महाकाव्य’ एवं ‘कुमारपालचरितम्’ जैसे दो शास्त्रेतिहास-काव्य भी लिखें हैं। अतः आचार्य हेमचन्द्र सूरि का व्याकरणशास्त्र में जो अवदान है, उसकी मूल्यवत्ता गवेषणीय है।।
यद्यपि पूरे ‍’सिद्धशब्दानुशासन’ का परीक्षण करना यहाँ अभीष्ट नहीं है, फिर भी इस व्याकरण की हार्द रूप जो वाक्यविन्यास पद्धति है, उसकी समीक्षा तो अवश्य करनी चाहिए। जिसके फलस्वरूप यह बात उजागर हो पायेगी कि पाणिनीय व्याकरण की तुलना में यह ‘सिद्धहेमशब्दानुशासन’ का क्या वैशिष्ट्य है।।
पाणिनीय व्याकरण में वाक्य एवं वाक्यांश का निष्पादन करने के लिए ‘अष्टाध्यायी’ सूत्रपाठ में कुल दो स्थानों पर दो सूत्रसमूह रखें गये हैं। जैसा कि- (1) “कारकपाद” (1-4-23 से 54), और (2) “विभक्तिपाद” (2-3-1 से 77)। प्रथम ‘कारकपाद’ में क्रिया-निर्वर्तक विभिन्न कारकों का निरूपण किया गया है। भाषा में ‘वाक्य’ रूप इकाई ही, सही एवं कामयाब इकाई है। और इस ‘वाक्य’ का संघटन क्रियापद के बिना तो सम्भव ही नहीं है। दूसरे शब्द में कहे तो, किसी भी पदसमुदाय में यदि कोई क्रियापद नहीं है, तो वह पदसमुदाय ‘वाक्य’ नहीं कहा जाता है। अतः किसी भी वाक्य में “इदं प्रथमतया” क्रियापद का प्रवेश सबसे पहले ही होता है, परन्तु साथ में ही उस क्रिया, जो कि हंमेशा साध्यकोटि में होने के कारण, उसके साधनों, अर्थात् क्रियानिर्वर्तकों- ‘कारकों’ का भी निरूपण आवश्क बन जाता है। अतः पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’ के प्रथम अध्याय में ही ‘कारकपाद’ (1-4-23 से 54) में विभिन्न कारकसंज्ञाओं का निरूपण किया है। और उसके बाद, द्वितीय अध्याय के तृतीयपादमें ‘विभक्तिपाद’ (2-3-1 से 77) रखा है। ये दोनों प्रकार के पाद परस्पर में मिल कर ‘वाक्य’ कि सिद्धि दिखलाते है।
‘अष्टाध्यायी’ के ‘विभक्तिपाद’ (2-3-1 से 77) में जो सूत्र रखें हैं, वे अलग-अलग प्रकार की विभक्तिओं का विधान चार तरह से करते है, वह नीम्नोक्त रीति से हैः-
1. अभिहित कारक के लिए प्रथमा-विभक्ति का विधान,
2. अनभिहित कारकों के लिए द्वितीयादि विभक्तिओं का विधान,
3. अकारक- विभक्ति के रूप में-
(क) षष्ठी-विभक्ति का विधान, और
(ख) विशिष्टार्थों की अभिव्यक्ति के लिए (बिना कारक-संज्ञा के व्यवधान से) द्वितीयादि-विभक्तिओं का विधान
4. वाक्यांश के रूप में-
(क) उपपदविभक्तिओं का विधान, तथा
(ख) कर्मप्रवचनीय विभक्तिओं का विधान।।
यहाँ पर, पाणिनि-प्रोक्त वाक्यविन्यास की पद्धति में जो ध्यातव्य बिन्दुयें है वह इस तरह के है-
(1) पाणिनि ने लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः।....... सूत्र से सकर्मक धातुओं से क्रियापद की निष्पत्ति करते समय ‘कर्तृकारक’ को, या ‘कर्मकारक’ को “अभिहित” करने की विवक्षा को स्थान दिया है। और अभिहित कर्तृ / कर्म को प्रथमादि का विधान किया है (2-3-46)।।
(2) धातुमात्र से लगने वाले विभिन्न लकारों से जो कारक “अनभिहित” रहते है,
उसके लिए अनभिहिते। (2-3-1 से 45) अधिकारान्तर्गत आये हुए सूत्र से द्वितीयादि-विभक्तिओं का विधान किया है।
(3) अकारक-विभक्ति के रूप में जो (क) षष्ठी विभक्ति को (2-3-50) विधान किया
गया है, वह सम्बन्ध-रूप ‘शेष’ अर्थ को व्यक्त करने के लिए षष्ठी –विभक्ति कही गई है। तथा (ख) कतिपय विशिष्टार्थों को व्यक्त करने के लियें, पाणिनि ने (बिना कारकसंज्ञा को माध्यम बनायें ) सीधा ही विभक्तिविधान किया है । [ उदाहरण रूप से – कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे (द्वितीया) । 2-3-5, एवं अपवर्गे तृतीया । 2-3-6 इत्यादि।]
(4) वाक्य के क्रियापद से जिसका प्रत्यक्ष कोई सम्बन्ध न हो ऐसे पदसमूह, जो
कि एक ‘वाक्यांश’ के रूप में प्रधान वाक्य के बीच में प्रविष्ट होते है, उसको जन्म देनेवाली (क) उपपद-विभक्तिओं का विधान, तथा (ख) कर्मप्रवचनीय प्रकार के पाँचवे पद के योग में जन्म लेनेवाली द्वितीयादि विभक्तिओं का विधान किया है ।
इन चार तरह से विभक्ति-विधान करके पाणिनि ने पूरी वाक्यविन्यास कि पद्धति
हमारे सामने रखी है। परन्तु यहाँ आलोचनीय एक बात ध्यातव्य है कि इन चारों तरह से जो विभक्ति-विधान किया गया है, वह सब अनभिहिते । 2-3-1 के “अधिकार” के नीचे रखा गया है। यह एक अत्यन्त गम्भीर चिन्त्य स्थिति है । क्योंकि—
जो अधिकारसूत्र होता है, उसकी अनुवृत्ति तो अनवरत गति से अपने अनुगामी
सभी सूत्रोंमें होती है ऐसा पूरी ‘अष्टाध्यायी’ में माना गया है । परन्तु यहाँ पर तो – ‘अनभिहिते’(2-3-1) के नीचे जो कर्मणि द्वितीया । (2-3-2) सूत्र आया है, वह सुसंगत है, लेकिन-
(1) ‘अन्तराડन्तरेण युक्ते’ (2-3-4) जैसा उपपदविभक्ति का विधान करनेवाला सूत्र सुसंगत नहीं है। क्यों कि पूर्वसूत्र (2-3-3) से तृतीयादि पदों कि अनुवृत्ति आ जाने से 2-3-4 सूत्र लाघवपूर्ण बनता है, परन्तु 2-3-4 में ‘अनभिहिते’(2-3-1) पद की अधिकार-प्राप्त अनुवृत्ति नितान्त अप्रस्तुत है । अप्रासङ्गिक ही है। यही स्थिति नमः स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषट् योगाच्च । (2-3-16), या सहप्रयुक्तेડप्रधाने । (2-3-19) इत्यादि उपपदविभक्ति विधायक सूत्रों में भी देखी जाती है ।
(2) उसी तरह से, कालाध्वनोरत्यन्त संयोगे । (2-3-5) तथा अपवर्गे तृतीया । (2-3-6) जैसे सूत्रों से विशिष्टार्थों में (बिना कारक-संज्ञा के व्यवधान से) जो सीधा विभक्ति-विधान बताया गया है, उन सूत्रों में भी,‘अनभिहिते’(2-3-1) का जो अधिकार आ रहा है वह सर्वथा अप्रस्तुत ही बन जाता है ।

(3) एवमेव, कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया । (2-3-8) जैसे सूत्र से अमुक अमुक
कर्मप्रवचनीय- संज्ञक शब्दों के योग में जो (रुढिगत) विभक्ति-विधान होता है, वहाँ पर भी ‘अनभिहिते’। (2-3-1) सूत्र का अधिकार एकदम अनावश्यक सिद्ध होता है ।

पाणिनि के अनभिहिते। (2-3-1) सूत्र से, एक हाथ पर वक्ता की विवक्षा को स्थान
दिया गया है। जिसके कारण वह चाहे तो “कर्तृवाच्य” वाक्यरचना बना सकता है, या चाहे तो “कर्मवाच्य” वाक्यरचना बना सकता है। तो दूसरे हाथ पर जो पूर्वोक्त चतुर्विध विभक्ति-विधान है, उन में निःशेष रूप से ‘अनभिहिते’ का अधिकार सुसंगत नहीं बैठता है ।
पाणिनि की इस अनभिहिते । 2-3-1 सूत्रोक्त अधिकारान्तर्गत दी गई युक्तायुक्त
व्यवस्था की तुलना में, आचार्य हेमचन्द्र सूरिने अपने ‘सिद्धहेम-शब्दानुशासन’ में विभक्ति-विधान की क्या व्यवस्था प्रस्तुत की है, वह समीक्षणीय है ।।
आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने भी, पाणिनि की तरह, कारक-संज्ञाओं का विधान करने
के लिए शूरु में एक सूत्रसमूह द्वितीयाध्याय के आरम्भ में दिया है। जैसा कि—
[1] क्रियाहेतुः कारकम् । 2-2-1।
स्वतन्त्रः कर्ता । 2-2-2
कर्तुर्व्याप्यं कर्म । 2-2-3....... से ले कर
क्रियाश्रयास्यास्याधारोડधिकरणम् ।। 2-2-30 पर्यन्त
इन तीस सूत्रों के बाद,
[2] विभक्ति-विधान करनेवाले सूत्रों का समूह रखा गया है। जिस में स्पष्ट रूप से तीन विभाग दिखाई देते है-
(क) नाम्नः प्रथमैक-द्वि-बहौ । 2-2-3 सूत्र से “कर्मादि कारकों से परिशिष्ट अर्थमात्र में प्रथमा-विभक्ति होती है”—ऐसा कहा गया है । तत्पश्चात्-
(ख) गौणात् समया-निकषा-हा-धिगन्तराડन्तरेणाति-येन-तेनैर्द्वितीया । 2-2-33 सूत्र से आरम्भ करके, 2-2-119 सूत्र तक के सूत्रों से गौण नामों से परे द्वितीयादि विभक्तिओं का विधान किया गया है ।
(ग) अन्त में, 2-2-120 से 124 तक के सूत्रों से जिन जिन निपातों के योग में एकाधिक विभक्तियाँ प्रसूत होती है, एवं जातिवाचक शब्दोंसे जहाँ एकवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग होता है – उसका विधान किया गया है ।

विभक्तिविधान करनेवालें सूत्रों का उपर्युक्त त्रैविध्य देख कर, प्रथम दृष्टि में ही मालुम हो जाता है कि आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने पाणिनि से हट कर, अलग ही रास्ता अपनाया है । यहाँ पर, पाणिनि की तरह, (1) अभिहित-अनभिहित(कारक) का विभागीकरण नहीं है । (2) अकारक-विभक्ति के रूप में (क) षष्ठी विभक्ति का विधान नहीं है। तथा (ख) विशिष्टार्थों को भी सीधा विभक्ति-विधान नहीं है । (3) तथा वाक्यांश के रूप में एक अलग पदसमूह को जन्म देनेवाली (क) उपपदविभक्ति या तो (ख) कर्मप्रवचनीय-विभक्तियोँ का भी स्वतन्त्र निरूपण नहीं है ।।
अलबत्त, यहाँ जो “गौणात्.......2-2-33” से शूरु होनेवाला विभक्तिविधान है, वह अत्यन्त ध्यानास्पद है। क्योंकि पूर्वोक्त (क),(ख) एवं (ग)- इन सूत्रसमूहों में से, यही (ख) गौणात्.......(2-2-33 से 2-2-119) वाला सूत्रसमूह सब से बडा है। और आरम्भ में रखा गया ‘गौणात्’ शब्द अनुवृत्त होता हुआ 2-2-119 तक जाता है। पाणिनि ने जो अनभिहिते। 2-3-1 सूत्र से अभिहित(कारक) एवं अनभिहित (कारक) का विभागीकरण किया है, उसी सूत्र के विकल्प में आचार्य हेमचन्द्र ने यहाँ “गौणात्” पद रखा है । अतः हमारे लिए यह ‘अनभिहित’ पद, तथा तज्जन्य व्यवस्था, एवं ‘गौणात्’ पद, तथा तज्जन्य व्यवस्था जो प्राप्त होती है, वह तुलनीय बनती है ।

आचार्य हेमचन्द्र सूरी ने ‘गौणात्’ पद में मूलभूत रूप से जो ‘गौण’ शब्द है, उसकी व्याख्या करते हुए ‘स्वोपज्ञ-बृहद्वृत्ति’ में लिखा है कि—
आख्यातपदेन असमानाधिकरणं गौणम् । अर्थात्—वाक्यावस्था में, जिस नाम का क्रियापद के साथ समानाधिकरण्य नहीं होता है, उस नाम को “गौण” कहते है। ऐसे गौण नाम से परे द्वितीयादि सप्तम्यन्त (सारी) विभक्तियाँ प्रवृत्त होती है। आचार्य हेमचन्द्रजी ने इस ‘गौणात्’ पद के अधिकार से पूर्व में “ नाम्नः प्रथमैक-द्वि-बहौ । ” (2-2-31) सूत्र से प्रथमा विभक्ति का विधान कर दिया है। परन्तु यहाँ पर यह बात नहीं लिखी है कि प्रथमान्त पद का वाक्य में क्या स्थान होता है ? इस बात की जानकारी तो हमे -‘शेषे’। (2-2-81) सूत्र पर मिलती है – प्राधान्यं च अस्य आख्यातपदसामानाधिकरण्यम् । तेन ततः प्रथमैव भवति ।। अर्थात् जिस नाम का सामानाधिकरण्य क्रियापद के साथ रहता है, वह “प्रधान” गिना जाता है, और ऐसे ‘प्रधान-नाम’ को प्रथमा विभक्ति में रखा जाता है ।
इस का सार यह निकला की, हेमचन्द्र सूरिके मत में वाक्यान्तर्गत पदावली तीन तरह की होती है। जैसा कि 1. प्रधान नाम (प्रथमान्त-पद); , 2. गौण नाम (द्वितीयादि सप्तम्यन्त विभक्त्यन्त पदों) और 3. आख्यातपद (क्रियापद) ।। अर्थात् आचार्य हेमचन्द्र ने “कारक-विभक्ति” के विरोध में - 1. दो तरह की अकारक विभक्तियाँ (षष्ठी एवं विशिष्टार्थों में प्रयुक्त) द्वितीयादि ); 2. उपपद-विभक्तियाँ, तथा 3. कर्मप्रवचनीयविभक्तियाँ को अलगसा पृथक्करण ही नहीं किया है। इन सब को ‘गौणात्’ के एक ही अधिकार में रख दिये है ।
जिसके फल-स्वरूप वाक्यान्तर्गत नामपदों का ‘प्रधान नाम’ और ‘गौण नाम’ के रूप में दो तरह का ही विभाजन हो जाता है, और जो यथार्थ भी लगता है। क्योंकि वाक्यान्तर्गत इन दो तरह के नामपदों में से, जिसका सामानाधिकरण्य क्रियापद के साथ रहता है, वह प्रथमा-विभक्यन्त बनता है, और अन्य जो नामों का सामानाधिकरण्य क्रियापद के साथ नहीं रहता है, वे सभी द्वितीयादि-विभक्तिओं को धारण करते है ।
दूसरी एक फलदायी बात यह भी सिद्ध हो जाती है कि—पाणिनि के ‘अनभिहिते’ (2-3-1) सूत्रोक्त अधिकार, जो यथार्थ रूप में अनुगामी सभी सूत्रों में चरितार्थ नहीं हो पाता है, यह कठिनाई / या असङ्गति का सामना हेमचन्द्राचार्य को नहीं करना पडता है।
एक तीसरे फायदे की बात भी यहाँ दृष्टिगोचर होती है । जैसा कि – षष्ठ्यन्त पद नित्य साकाङ्क्षपद होता है । क्योंकि षष्ठी विभक्ति जो ‘सम्बन्ध’ रूप अर्थ का अभिधान करती है, वह सम्बन्ध तो हंमेशा के लिए द्विष्ठ होता है। अर्थात् - सम्बन्धमात्र दो सम्बन्धी पदार्थों में ही रहता है। अतः प्रश्न उठता है कि यदि सम्बन्धमात्र द्विष्ठ होता है, तो सम्बन्ध के प्रतियोगि पदार्थ को ही क्यूँ षष्ठीविभक्ति लगती है, और अनुयोगी पदार्थ को क्यूँ नहीं लगती है ? “राज्ञः पुरुषः” जैसे प्रयोगों में “राज्ञः पुरुषस्य” – ऐसा क्यूँ नहीं होता है ? इस तर्कनिष्ठ प्रश्न का उत्तर पाणिनीय व्याकरण में “रूढि के कारण ऐसा होता है।” या “ संस्कृत भाषा की यह यादृच्छिक-लीला है ” – ऐसा दिया जा सकता है । परन्तु हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में षष्ठी विभक्ति का विधान भी “गौणात्” के अन्तर्गत ही है, इस लिए ‘स्वोपज्ञ-बृहद्वृत्ति’ में लिखा है कि – गौणादित्येव – राज्ञः पुरुषः, अत्र सम्बन्धस्य द्विष्ठत्वेડपि प्रधानात् पुरुषान्न भवति ।।
प्राधान्यं च अस्य आख्यातपदसामानाधिकरण्यम्, तेन ततः प्रथमैव भवति, यदा पुरुषो राजानं प्रति गुणत्वं प्रतिपद्यते तदा “ पुरुषस्य राजेति ” भवत्येव ।। ( पृ.-274 ) अर्थात्-
राज्ञः पुरुषः ।। जैसे प्रयोगों में स्व-स्वामिभाव सम्बन्ध यद्यपि द्विष्ठ होता है (राजा में भी वह सम्बन्ध रहता है, और पुरुष में भी); तथापि ‘पुरुष’ ऐसे नाम में प्राधान्य आ जाता है; और वह प्रथमा विभक्ति ही धारण करता है। संक्षेप में कहे तो – पाणिनीय व्याकरण में ‘राज्ञः पुरुषस्य’ – ऐसा उभयत्र षष्ठ्यन्त प्रयोग क्यों नहीं होता है ? – इस प्रश्न का उत्तर नहीं है; परन्तु हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में इसका तर्कनिष्ठ उत्तर है ।। सूक्ष्म-सूक्ष्मतर शास्त्रीय चर्चाओं के प्रसङ्ग में ऐसी छोटी सी दिखनेवाली बात भी मेरु पर्वत जैसी गुरुतम बन जाती है । सिद्धहेमशब्दानुशासन कि यह एक अनुल्लिखित उपलब्धि है।।

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शनिवार, 25 अप्रैल 2009

उत्तररामचरित में शम्बूक-वध की मिथक का पुनर्निर्माण

उत्तररामचरित ’ में शम्बूक–वध की मिथक का पुनर्निर्माण
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वसन्तकुमार म. भट्ट
निदेशक, भाषासाहित्यभवन
गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद – 9
bhattvasant@yahoo.co.in
( भवभूति समारोह, फरवरी 2008, ग्वालियर में प्रस्तुत किया गया शोध-लेख )

1.0 प्राचीनतम धार्मिक मान्यताओं को व्यक्त करनेवाली अतिमानवीय कथाओं को ‘पुराकथा या पुराकल्पन’(अर्थात् Myth) ‘मिथक’ कहते है । कर्मफल के सिद्धान्त को विशद करने के लिए भी कदाचित् ‘मिथक’ का निर्माण किया जाता है । ऐसे मिथक प्रथम दृष्टि में तो नितान्त अवैज्ञानिक (या अर्धवैज्ञानिक) जैसे ही प्रतीत होते हैं । परन्तु ऐसे मिथकों के पीछे कोई संस्कृतिविशेष के लोगों की एक तिर्यक् दार्शनिक दृष्टि भी कार्यरत होती है । क्रान्तद्रष्टा कवि जब कोई काव्य का प्रणयन करते है तब वे प्रायः ऐतिहासिक ख्यात-इतिवृत्त का ही आश्रयण करते है, या तो कदाचित् अपूर्व-कल्पना मण्डित कथावस्तु लेकर सामने आते हैं । परन्तु जब ऐतिहासिक कथावस्तु का आश्रयण करके उसमें मूलतः उपनिबद्ध कोई मिथकीय तत्त्व का, अपनी निजी कविदृष्टि से, कोई अपूर्व अर्थघटन करके दिखलाते हैं तब वे मर्त्य कवि-व्यक्तित्व से उपर उठकर अमर महाकवि बन जाते है । ख्यात-इतिवृत्त का आश्रयण करनेवाले कवि से हम जो “कवि-न्याय” की उम्मीद रखते है उसमें भी मिथकीय अर्थघटन का समावेश किया जा सकता है ।

2.0 भवभूति की कविदृष्टि में राम के उत्तरजीवन में एक नहीं, दो घटनायें प्रमुख है -1. लोकापवाद से राम के द्वारा सीता का त्याग, एवं 2. अकालमृत्यु को प्राप्त हुए किसी ब्राह्मण के बालकपुत्र को पुनरुज्जीवित करने के लिए रामने किया हुआ शूद्र तापस – ‘शम्बूक’– का वध । इन दोनों घटनाओं को लेकर भवभूतिने ‘उत्तररामचरित’ की रचना की है । यहाँ पर (सीता-त्याग का) प्रथम घटनाचक्र तो पूरा ऐतिहासिक है, परन्तु जो दूसरी ( शूद्रतापस के वध द्वारा मृतपुत्र को पुनरुज्जीवित करने की ) घटना है, वह एक अवैज्ञानिक मिथक ही है । क्योंकि किसी शूद्र के तप करने से कोई ब्राह्मणपुत्र का अकाल मृत्यु हो जाय, या एक शूद्र-तापस का वध करने से वह बालक पुनरुज्जीवित हो जाय – यह दोनों बातें(मान्यतायें) आज के विज्ञानप्रधान युग में ग्राह्य नहीं हो सकती है । परन्तु महाकवि भवभूति ने सीतात्याग की ऐतिहासिक घटना को प्रथम अङ्क में रखी है, और शम्बूकबध की मिथकीय घटना दूसरे अङ्क में रखी है । तत्पश्चाद् अनुगामी (3 एवं 4-6) अङ्कों में इन दोनों घटनाओं के परिणाम क्रमशः दिखलाये हैं । जैसे कि– सीतात्याग की (प्रथमाङ्क की) घटना का परिणाम तृतीय अङ्क में साकार होता है । यहाँ पर सीता के निरवधि विरह एवं तज्जन्य-शोक से करुणरसमण्डित नाट्यसृष्टि प्रस्तुत की जाती है । तत्पश्चात् दूसरे अंक में घटी शम्बूकवध की घटना के परिणाम स्वरूप “ मृतपुत्रों के सजीवन होने ” का घटनाचक्र 4-5-6 अंकों में आकारित किया गया है । अर्थात् शूद्रतापस शम्बूक का वध करने से यदि मृत ब्राह्मणपुत्र सजीवन हो सकता है तो यही मिथकीय सत्य राम के व्यक्तिगत जीवन में भी कैसे शनैः शनैः मूर्तिमन्त होता है; यह 4-5-6 अङ्क में दिखलाया जाता है । शम्बूकवध के बाद उसी दिन राम अपनी वापसी यात्रा में ही माता सहित के दो पुत्रों को लेकर ही अयोध्या वापस लौटते हैं – यह नाट्यगत सत्य है । सीतात्याग के साथ ही जो गर्भस्थ संतानो का प्रसव भी संशयग्रस्त हो गया था, वह दोनों (कुश एवं लव) नाटक के उत्तरार्द्ध में (अङ्क 4 से 7) फिर से अपने मातापिता को मिलते हैं । इस तरह भवभूतिने ‘उत्तररामचरित’ नामक नाटक की जो रचना की है, वह करुणरसप्रधान होते हुए भी करुणान्त नहीं है । बल्कि स्वाभाविकरूप से ही शम्बूकवध रूपी कर्मका परिपाक दिखलानेवाली और सुखान्त में परिणत होनेवाली एक अनुपम नाट्यसृष्टि हमारे सामने रखी गई है ।।
3.0 वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड में जो शम्बूकवध की पुराकथा (Myth) प्रस्तुत हुई है, उसके अन्तस्तल में जाकर भवभूति ने राम के उत्तरचरित को बारिकी से देखा है । दूसरे शब्दों में कहें तो – भवभूतिने शम्बूकवध के फलितार्थ के रूप में राम के उत्तरजीवन को परिणत होता हुआ निरूपित किया है । अब हम यह देखेंगे कि शम्बूकवध के साथ सम्बद्ध घटनाचक्र को चार भाग में विभक्त करके भवभूतिने उसका एक तरह से रूपकात्मक अर्थघटन करके, उसे किस तरह ‘रूपक’ के रूप में प्रस्तुत किया है ।
3.1 शम्बूक की मिथक में कहा गया है कि शूद्र व्यक्ति को तप में अधिकार नहीं है । किन्तु प्रश्न होता है कि – यहाँ कौन से शूद्र की बात है ? अर्थात् यहाँ शूद्र कौन है ? विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि राम के उत्तर जीवन में प्रजाजन ने ही शूद्र के रूप में एक अनधिकृत दुष्कर्म किया है । जैसा कि अयोध्यावासी प्रजा ने किसीके व्यक्तिगत जीवन में झाँख कर जो निंदाकर्म शूरु किया [सीताविषयक अपवाद प्रचारित किया], वही शूद्रत्व था । परगृहवास करनेवाली स्त्री को, राजा को अपने घर में नहीं रखना चाहिए, सीता के उदर में किस के पुत्र पल रहे होंगे ? – इत्यादि दुर्वचन बोलकर प्रजा ने राजकर्तव्य में जो अनधिकृत हिस्सा लिया –वह था “शूद्र का तप में अनधिकार”। ऐसे शूद्रत्व का तो वध ही करना चाहिए । अन्यथा किसी द्विज का शिशु अवश्य ही अकाल मृत्यु को प्राप्त होगा । जो इस नाटक में भी हुआ है । जैसा कि – राम ने अपनी प्रजा को सीताविषयक गलत निंदा प्रसारित करते हुए नहीं रोकी, नहीं टोकी । तो उसके परिणाम स्वरूप, इनकी दोनों संतानों का प्रसव ही आशंकाग्रस्त हो गया । सीतात्याग के कारण राम की पैदा होनेवाली संतान, प्रसव होने से पहले ही, गर्भावस्था में ही मर जाय, ऐसी दारुण दशा का निर्माण होता है ।
3.2 अनधिकृत रूप से तप कर रहे शूद्र का राम ने वध कर दिया – इस मिथकीय घटनाक्रम के द्वितीय सोपान को, कविने नाटक में कैसे साकार होता हुआ दिखलाया है ? वह देखा जाय तो, तीन बातें ध्यानास्पद होती है । जैसी कि – राम ने प्रजानुरञ्जन के लिए सीता का त्याग कर दिया; और द्वादश वर्ष पर्यन्त मूक बनकर, राजकार्य में सदैव सन्नद्ध रहे । राजकर्तव्य का पालन करते समय वे कभी भी सीता के लिए जाहिर में, या एकान्त में, क्षण भरके लिये भी विलाप नहीं करते है ।। किन्तु जब अश्वमेध-याग करने का प्रसङ्ग आता है तब राम ने धर्मकार्यार्थ भी दूसरा विवाह नहीं किया; और सीता की ही हिरण्मयी प्रतिकृति बनवा कर अपनी ‘वामाङ्गी’ के रूप में सीता को ही (जाहिर में)पुनः प्रतिष्ठित करके, राम ने एक तरह से शूद्रत्व को प्राप्त हुई प्रजा के गाल पर थप्पड ही मार दी है । दूसरे विवाह के लिए राम की असम्मति रूप निर्णय से, राम ने जाहिर में यह सूचित कर दिया कि उनकी दृष्टि में तो सीता पवित्र ही है; और राम ने अपने हृदय से तो सीताजी का त्याग किया ही नहीं है । इस तरह से, राम ने जो हिरण्मयी सीता की प्रतिकृति की स्थापना की थी, वह सीताविषयक प्रजा की मान्यता का सीधा वध ही था ।।
राजा के व्यक्तिगत जीवन में झांखने कि चेष्टा एक तरह से प्रजा की शूद्रता ही थी । हमें किसी के व्यक्तिगत जीवन के बारे में जाहिर में बोलने की, निंदा करने की अनधिकृत चेष्टा नहीं करनी चाहिए । ऐसी शूद्रता सदैव वध्य होती है । राजा राम ने ऐसी शूद्रता का वध सीता की हिरण्मयी प्रतिकृति के द्वारा सूक्ष्म रूप में किया है ।।
3.3 शम्बूकवध प्रसङ्ग में, (तृतीयचरण में) राम के खड्गप्रहार के बाद शूद्र शम्बूक का दिव्य पुरूष के रूप में रूपान्तरण होता है । अब वह “अन्वेष्टव्यो यदसि भुवने भूतनाथः शरण्यः.........।” इत्यादि बोलता हुआ राम को प्रणाम करता हुआ, उनके सामने नतमस्तक खडा रहता है । बस, वही ढंग से, सप्तम अङ्क में गर्भाङ्क पूर्ण होने के बाद, अरुन्धती नगरजनों को पूछती है कि वैश्वानर अग्नि ने जिसके पुण्यशाली चारित्र्य का निर्णय किया है, और देवों ने जिसकी संस्तुति की है; तथा जो देवयजनभूमि से प्रादुर्भूत हुई है, ऐसी इस सीतादेवी का स्वीकार किया जाय या नहीं ? – इस विषय में आप सब की क्या राय है ? तब लक्ष्मण कहता है कि अरुन्धती के द्वारा उलाहना दिये गये यह पौरजानपद और सकल भूतसमूह आर्या सीता के सामने नतमस्तक खडा है; और सीता देवी को प्रणाम कर रहा है । - एक तरह से सीता देवी की क्षमायाचना कर रहे है ।
इस तरह से, अयोध्यावासीओं की सीता-विषयक मान्यता बदल गई; उनमें से शूद्रता चली गई । अयोध्या की प्रजा का यह ऊर्ध्वीकरण था । शूद्रत्व का वध होने पर प्रजामानस का यह दिव्यरूपान्तरण ही था । जिस तरह से अनधिकृत तप को रोकने के लिए राम ने शम्बूक का वध किया और शम्बूक का दिव्य पुरूष के रूप में जो परिवर्तन हुआ था, बस वैसे ही, यहाँ पर – नाटक के अन्त में सीता –विषयक लोकापवाद प्रसारित करने वाले प्रजामानस का लज्जित होकर, अन्त में दिव्यता में परिणमन किया गया है ।।
3.4 शम्बूकवध की मिथक में, राम ने किसी द्विज के मृत शिशु को पुनरुज्जीवित करने के लिए ( जीवातवे ) शम्बूक का वध किया; और उसके परिणाम स्वरूप मृतशिशु पुनर्जीवन प्राप्त करता भी है । तो इस ‘उत्तररामचरित’ नाटक में भी, प्रजामानस में परिवर्तन आने से जो कुश-लव ‘वाल्मीकि के अन्तेवासी’ के रूप में पहले प्रसिद्ध हुए थे, वही बाद में राम-सीता के संतान के रूप में नया-सही-अभिज्ञान प्राप्त करते है । दूसरे शब्दों में कहें तो – कुश-लव “ द्विजत्व” को प्राप्त करते है ।
करुणामय बनकर राम ने यदि किसी द्विज के मृतशिशु को पुनर्जीवित करने के लिए शम्बूक वध रूप कठोर पुण्यकर्म किया हो तो, राम के पुत्र, जो सीता के गर्भ में ही थे – और जन्म प्राप्त करने से पहेले ही अन्धेरे में तिरोहित हो गये थे – वह भी पुनःप्रादुर्भूत होने ही चाहिए । ऐसी कर्मफल के सिद्धान्त की अपेक्षा है ( या कवि-न्याय की अपेक्षा है ) - जो भवभूतिने इस प्रकार पूर्ण की है ।
4.0 नाटक के आरम्भ में कुलगुरु वसिष्ठने जो संदेश भेजा है, उसमें कहा गया है कि-
जामातृयज्ञेन वयं निरुद्धास्त्वं बाल एवासि नवं च राज्यम् ।
युक्तः प्रजानाम् अनुरञ्जने स्यास्तस्माद्यशो यत्परमं धनं वः ।। (1.11)
“ राम नये राजा है और प्रजाराधन रूप कर्तव्यपालन से जो यश अर्जित किया जाय वही उसके लिये परम धन होगा । ” वसिष्ठ की ऐसी आज्ञा से प्रेरित होकर राम ने प्रजाराधन का एक (सीतात्याग रूप एक) ही कार्य नहीं किया था, परन्तु दो कार्य किये है । राम के उत्तर जीवन में सीतात्याग के साथ साथ शम्बूक-वध प्रसङ्ग भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना है- ऐसा भवभूति का उपक्रम है । यदि यह दूसरी घटना का सही मायने में मूल्याङ्कन न किया जाय तो वह नाट्यविवेचन के लिए शोभास्पद बात नहीं होगी । क्योंकि नाटक जैसी समय की पाबन्दी स्वीकार ने वाली कला का जब कोई कवि अपने कथयितव्य को मूर्तिमन्त करने के लिए अवलम्बन लेता है तब, वह कुछ भी अनावश्यक चीज अपने नाटक में नहीं रख सकता है; और यह बात एक सिद्धान्त के रूप में सभी विवेचकों ने मानी है । तथापि दुर्भाग्य से शम्बूकवध प्रसङ्ग को अद्यावधि गंभीरता से नहीं देखा गया है । एवमेव, इसी प्रसङ्ग के सन्दर्भ में उत्तर रामचरित के संविधान की कतिपय क्षतियाँ भी उद्भावित की गई है । जैसा कि – डो. एस. के. बेलवालकरजी और डो. जी. के. भट ने कहा है कि - 1. शम्बूकवध प्रसंग के लिये एक पूरे स्वतन्त्र अंक की आवश्यकता नहीं थी, इस को विष्कम्भक में सूचित किया जा सकता था । 2. दो कुमारों के अभिज्ञान के लिये चार,पाँच और षष्ट अंक की भी आवश्यकता नहीं थी । उत्तररामचरित के 2, 4, 5, एवं 6 अंकों की आवश्यकता को नहीं समझने के कारण, सभी विद्वान् भावकों ने मिलकर भवभूति को बडा अन्याय किया है । क्योंकि राम को अपने उत्तर जीवन में सीतात्याग का जो कठोर निर्णय लेना पडा, वह यदि राजकर्म है; तो उनके द्वारा किया गया शम्बूकवध भी दूसरे एक राजकर्म का ही अंश था । सीता भी जब सुनती है कि – “आज राम शम्बूकवध के लिए पञ्चवटी में आये हैं” तब तुरंत वह बोलती है कि – दिष्ट्या अपरिहीन-राजधर्मः खलु स राजा ।(3-8 के उपर) । इस तरह सीताने ‘शम्बूकवध’ के कर्म को राम के एक राजकर्म के रूप में ही देखा है, और उसके लिए राम को अभिनन्दन भी दिया है ।
इसी तरह से, चतुर्थ अंक के आरम्भ में भी सौधातकि ने वसिष्ठ पर कटाक्ष करते हुये कहा है कि –“ इसने आते ही बछडेवाली कपिला गाय मडमडायिता ” (उदरस्थ) करली है, - इसका मतलब भी यही हो सकता है कि सीता-त्याग के लिये यही कुलगुरु जिम्मेदार है । ( चतुर्थांक का विष्कम्भक हास्यपूर्ण है, तथा रसान्तर के लिये प्रयुक्त है – ऐसा माना जाता है , परन्तु वह भी व्यंजनापूर्ण है । कपिला गाय से सीता की मौत ही व्यंजित की जा रही है । )
इस तरह राम के उत्तर जीवन में एक नहीं, दो घटनाओं को केन्द्र में रखकर नाटक का मूल्यांकन करना चाहिए । जिस तरह से सीतात्याग और तज्जन्य विरह, या शोक- यह नाटक का एक विषय बना है; उसी तरह से शम्बूकवध रूप राजकर्म और तज्जन्य पुण्य के बल पर राम को माता सहित के पुत्रों की प्राप्ति होती है (और नाटक सुखान्त में परिणत होता है) – यह भी इस नाटक का विषय मानना चाहिये । हमारे नाट्यकवि भवभूति उत्तररामचरित के सातों अंकों में जो प्रदर्शित कर रहे है उसका प्रयोजन ढूँढना ही चाहिये है ।
4.1 शम्बूकवध की मिथक का जो मार्मिक बिन्दु है, वह है – “मृतशिशु का पुनर्जीवन ।” अतः अब हमें यह देखना होगा कि क्या यह विषय ‘उत्तररामचरित’ के सातों अङ्कों में साद्यन्त-सुव्याप्त है या नहीं ?
‘उत्तररमाचरित’ नाटक के आरम्भ में सीतात्याग एक महत्त्वपूर्ण घटना के रूप में उभरकर सामने जरूर आती है, परन्तु अन्ततक जाते वही एक घटना का प्राधान्य नहीं बना रहता है । सीतात्याग के साथ साथ शूरु से ही, बल्कि उससे भी पेहले –चित्रवीथिका प्रसंग में ही प्रथम चित्र के रूप में जृम्भकास्त्रों को जब प्रणाम किया जाता है तब से, कथा के अन्तस्तल में चलने वाला दूसरा एक कथांश भी है; वह है मृतप्रायः शिशुओं का पुनर्जीवन एवं राम-सीता के पुत्रों के रूप में उन दोनों का अभिज्ञान । अन्तस्तल में प्रवाहमान यह दूसरे विषय का प्राधान्य क्रमशः बढता जाता है; जो नाटक के उत्तरार्द्ध में मुखरित होकर – जृम्भकास्त्र के प्रयोग के साथ हि मानों कि अज्ञातवास कि जृम्भा से मुक्त होकर 4-6 अङ्क की रङ्गभूमि उपर आकारित होता जाता है । सूक्ष्मता से देखा जाय तो कुश-लव का पुनर्जीवन एवं सीता-राम के पुत्रों के रूप में अभिज्ञान – यही एक घटनाचक्र ‘उत्तररामचरित’ के सातो अङ्कों मे साद्यन्त एवं सुग्रथित रूप से सुव्याप्त है ।
4.2 प्रथम अङ्क में वसिष्ठ के सन्देशवाहक अष्टावक्र जो आशीर्वाद देते है कि – तत् किम् अन्यद् आशास्महे ? केवलं वीरप्रसवा भूयाः ।। और तत्पश्चात् चित्रवीथिका प्रसङ्ग में, सबसे पहले ही चित्र में जृम्भकास्त्र को देखकर राम कहते हैं कि – सर्वथेदानीं त्वत् प्रसूतिम् उपस्थास्यन्ति । “यह जृम्भकास्त्र अब तेरी संतति की सेवा में उपस्थित रहेंगे ।” इस तरह से सीता-राम की संतति के पास जृम्भकास्त्र का स्वतःसिद्ध होना, एक प्रमाण के रूप में प्रथमाङ्क में ही कहा गया है ।
4.3 यही बात द्वितीय अङ्क के शुद्ध विष्कम्भक में अङ्कुरित हो उठती है । आत्रेयी वनदेवता वासन्ती से कहती है कि – किसी देवता ने आकर वाल्मीकि को कुश-लव नाम के दो शिशु समर्पित किये है; और उन दोनों को जृम्भकास्त्र तो आजन्मसिद्ध है । वे दोनों पढने में इतने तेज है कि मैं उन के साथ बैठकर पढ नहीं पाती हूँ । अतः मैं अगस्त्य-लोपामुद्रा का आश्रम ढूंढती हुई यहाँ तह आयी हूँ ।।
4.4 तृतीयाङ्क के विष्कम्भक में भी सीता को दो पुत्र होने की यही बात दूसरे शब्दों में पुनरावृत्त हुई है । तमसा-मूरला के संवाद से हमें ज्ञात होता है कि लक्ष्मण के चले जाने के बाद, प्राप्तप्रसववेदना सीता गङ्गाप्रवाह में गिरती है । लेकिन वहाँ पर ही उसने दो पुत्रों को जन्म दिया । और गङ्गाजी ने सीता की, एवं दो पुत्रों की भी रक्षा करते हुए बिगडती बाजी सम्हाली है ।
तृतीयाङ्क की प्रमुख दृश्यावली में करिकलभ का एवं मयूरनर्तन का जो प्रसङ्ग है, वह दोनों बडे सूचक है । तृतीयाङ्क में दो तरह के प्रमुख कार्य दिखाई पडते है –(1) बारह वर्षों से राम ने जो सीता को ‘नियतं विलुप्ता’ मानी है; और पञ्चवटी को देख कर वे जो बार बार मूर्च्छित हो रहे हैं उसको सीता के संजीवनी समान करस्पर्श से स-भानावस्था(शुद्धि) में लाया जाता है । और ऐसा करके “सीता कदाचित्/कुत्रचित् जीवित हो सकती है” ऐसी एक आशङ्का राम के चित्त में डाली जाती है । (2) तथा आर्यपुत्र राम की उपस्थिति में, करिकलभ एवं मयूरनर्तन के प्रसङ्ग द्वारा सीता के चित्त में अपने पुत्रों की स्मृति पुनः सञ्चारित करने का द्वितीय नाट्यकार्य भी सम्पन्न किया जाता है ।
4.5 उत्तररामचरित के चतुर्थ अङ्क में, वाल्मीकि के आश्रम में जनक और कौसल्या का मिलन होता है । लेकिन यहाँ पर वे सीता-राम के पुत्र लव को ‘आश्रमबटु’ के रूप में ही देखते है । परन्तु कौसल्या के मन में तो साश्चर्य प्रश्न होता ही है कि रामभद्र की आकृति को मिलनेवाला यह किशोर कौन है? उसी क्षण अरुन्धती भी एक ‘अपवार्य’ उक्ति में बोलती है कि – इदं नाम तद्भागीरथीनिवेदितरहस्यं कर्णामृतम् । न त्वेवं विद्मः कतरोડयम् आयुष्मतोः कुशलवयोरिति ।। - इस तरह चतुर्थ अङ्क में भी सीता के संतानो की बात पल्लवित होने लगती है ।
4.6 पञ्चम अङ्क में सीतापुत्र लव के साथ, अश्वमेध यज्ञ के अश्व को लेकर, लक्ष्मणपुत्र चन्द्रकेतु का युद्ध होने का संरम्भ शूरु हो जाता है । लव की बाणवृष्टि देखकर सारथि सुमन्त्र को बाल रघुनन्दन की स्मृति हो आती है । “धृतधनुषं रघुनन्दनं स्मरामि ।।” (5.4) इस युद्ध के दौरान लव ने तो जृम्भकास्त्र का प्रयोग भी कर दिया; और सब चकित हो ऊठे । यहाँ पर भी तिरोहित हुए राम-सीता के संतान क्रमशः आविर्भूत होते दिखाई पडते है । मानों शम्बूकवध के द्वारा एक अयोध्यावासी मृत द्विजशिशु को पुनः सजीवन करवाने का जो पुण्य होगा उसके ही फल-स्वरूप राम-सीता के तिरोहित संतान अब पुनःप्रादुर्भूत हो रहे है ।
4.7 षष्ठ अङ्क में लव एवं चन्द्रकेतु के युद्ध को आकाशमार्ग से अयाध्या की और वापस जा रहे श्रीराम देखते हैं । जृम्भकास्त्र के प्रभाव से राम की सेना तो निश्चेष्ट पडी है; परन्तु दो कुमारों का भयानक युद्ध देखकर, राम वाल्मीकि के आश्रम में नीचे उतर आते है । और वहाँ पर ही अपने पुत्रों को - लव एवं कुश को - क्रमशः देखने का सौभाग्य प्राप्त करते है । परन्तु यहाँ पर राम को दोनों कुमारों का कोई निश्चित अभिज्ञान नहीं होता है । क्योंकि “हम तो वाल्मीकि के हैं” “हमें हमारी माता का नाम भी ज्ञात नहीं है” इत्यादि वाक्यों को लव-कुश से सूनकर राम गुमराह हो जाते है । यद्यपि राम को अनेक कारणों से शङ्का तो हो ही रही थी कि यह दोनों मेरी ही संतति होगी । क्योंकि उन्होंने ही पहले सीता का गर्भ द्विधा ग्रन्थीभाव वाला है ऐसा जाना था ।
4.8 सप्तम अङ्क के गर्भाङ्क को देखने के बाद राम यह जान पाते हैं कि उनकी अलग-बगल में बैठे लव एवं कुश ही उनके दो पुत्र हैं । शम्बूकवध रूप एक विडम्बनापूर्ण राजकार्य से राम ने जो पुण्य अर्जित किया था, उसका प्रकटीकरण यहाँ होता है । (राम के उत्तर जीवन की एक विडम्बना यह थी कि जो अयोध्यावासी प्रजा ने राम की सन्तति को सकुशल प्रसूत नहीं होने दी, वही प्रजा के एक मृतशिशु को पुनर्जीवित करने के लिए राम को शम्बूक का वध करने के लिए जाना पडा था । अतः शम्बूकवध के बाद राम की जो वापसी यात्रा शूरु होती है उसमें ही राम को अपने दोनों पुत्र , उनकी माता (सीता) के साथ वापस मिल जाते है – यह ध्यानास्पद बात है । )

5.0 उपसंहार-
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राम ने अपने उत्तर जीवन में वसिष्ठ की आज्ञा के अनुसार मुख्य रूप से दो
राजकार्य (प्रथम दो अङ्कों में) किये है- (1) सीतात्याग एवं (2) शम्बूकवध । कवि भवभूति ने इन दोनों घटनाओं के नाट्यात्मक परिणाम, जैसे कि – (1) सीता का विरह एवं तज्जन्य शोक से करुणमण्डित तृतीय अङ्क; तथा (2) अनधिकृत तपश्चर्या कर रहे शूद्र का वध एवं तज्जन्य पुण्य से अपने ही मृतप्रायः शिशुओं को पुनर्जीवन प्राप्त होना – द्विजत्व प्राप्त होना – इन बातों को बडी कलात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है । और इस तरह उत्तररामचरित के द्वितीय एवं चतुर्थ, पञ्चम तथा षष्ठ अङ्क की जिस में सार्थकता बनी रहे ऐसी एक अनुपम नाट्यसृष्टि का निर्माण करके दिखलाया है ।।
भवभूति को शम्बूकवध की कथा एक मिथक के रूप में, वाल्मीकीय रामायण से प्राप्त हुई थी । परन्तु उसे सही अर्थ में राम के ही वर्तमान जीवन में साकार होती हुई दिखलाने का सफल कविकर्म केवल भवभूतिने ही किया है । इस तरह से उन्होंने अपना महाकवित्व सिद्ध किया है ।।
‘उत्तररामचरित’ का सुखान्त कोई नाट्यशास्त्रीय आज्ञा का कृत्रिम परिणाम नहीं है । परन्तु एक मिथकीय सत्य ही राम के जीवन में साकार होता है, इसीलिए वह सुखान्त बना है ऐसा दिखलाकर भवभूति ने राम के दुष्कर राजकर्म का सुफल इसी जन्म में परिणत होता हुआ सिद्ध किया है । “उत्तरे रामचरिते भवभूतिर्विशिष्यते” यह उक्ति का मर्म भी उसके सुखान्त होने में ढूँढना चाहिये ।।

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मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

पाठ-सम्पादन की विधायें ( संस्कृत पाण्डुलिपियाँ )- नवीन परामर्श

पाठसम्पादन की विधायें
और
सिद्धान्तों की सन्दर्भानुसारी प्रस्तुतता – एक पुनःपरामर्शन
वसन्तकुमार म. भट्ट
निदेशक, भाषासाहित्यभवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद – 380 009
bhattvasant@yahoo.co.in
भूमिकाः- आधुनिक विश्व में यान्त्रिक मुद्रणकला का आविष्कार सार्धशताब्दी-पूर्व ही हुआ था । उससे पेहेले तो मानवी अपने हाथ से ही, भूतकाल में लिखे गये ग्रन्थों का ताडपत्र या भूर्जपत्रादि पर पुनर्लेखन करता आया था । अतः प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों के द्वारा लिखे गये ज्ञान-विज्ञान के जो ग्रन्थ आज हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में उपलब्ध होते है, वह बारबार प्रतिलिपिकरण की प्रकिया से गुजरते हुये हम तक पहुँचे हैं । परन्तु मानवकृत प्रतिलिपिकरण के द्वारा पीढी दर पीढी संचरित होनेवाले इन ग्रन्थों का पाठ
( Text ) आकस्मिक कारणों से नष्ट-भ्रष्ट होता रहा है । तथा ये सभी पाठ पुनर्लेखन के दौरान भी लिपिकारों के हाथ से अनजान में और कभी कभी जानबुझ कर भी, अपने मूल रूप से विचलित किये गये है । अतः पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहे इन ग्रन्थों का पाठ आज कैसे सम्पादित किया जाय – यह विचारणीय है । यह प्रश्न केवल भारतीय ग्रन्थों के लिये ही नहीं है, यह बाईबल आदि जैसे अन्य धार्मिक ग्रन्थों के लिये भी है । युरोपीय देशों में प्राचीन काल की कृतियों का पाठसम्पादन करने के लिये बहुत चर्चायें हुई है । और हमारे वहाँ विदेशी-शासन करीब दो सो वर्ष रहा था, इसके कारण इन चर्चाओं का प्रभाव भी हमारे वहाँ होना अवश्यंभावी था ।।

प्रशिष्ट साहित्य की कृतियों की पाठालोचना और पाठसम्पादन में युरोपीय विद्वानोंने जो मार्ग प्रशस्त किया था, उसी मार्ग पर चल कर हमारे देश के विद्वानोंने “ महाभारत” तथा “रामायण” जैसे अतिप्राचीन काल के दो आर्ष महाकाव्यों (epics) का समीक्षित पाठसम्पादन ( Critical Text-editing ) किया है । समीक्षित पाठसम्पादन के निदर्श रूप ये दो महनीय कार्य आज तक हमारे लिये पथदर्शक रहे है । लेकिन भारत के प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य का वैविध्यपूर्ण व्याप इतना बडा है कि पाठसम्पादन की इस पद्धति का सर्वत्र एकसमान अनुगमन करना युक्तियुक्त नहीं लगता । लेकिन यह पद्धति केवल विदेशी होने के कारण ही त्याज्य है – ऐसा भी कहने का आशय नहीं है । क्योंकि जो भी पद्धति हो वह यदि तर्कनिष्ठ ( युक्तिसंगत ) हो तो अवश्य ग्राह्य बन सकती है । लेकिन युरोपीय पाठसम्पादन के इन विभिन्न सिद्धान्तों का भारतीय सन्दर्भ में कहाँ, कैसे विनियोग किया जाना चाहिये – इस का एक पुनःपरामर्शन यहाँ प्रस्तुत किया जाता है ।।
सब से प्रथम, प्राचीन भारतीय कृतियों के पाठ (Text) कितने प्रकार के है ? उसके पाठसंचरण का क्या इतिहास रहा है ?। इन सब का यथासम्भव विश्वतोमुखी विचार करना होगा । क्योंकि हमारे वहाँ साहित्यभेद से पाठ के स्वरूप का भेद है । पाठ-स्वरूप में भेद होने के साथ साथ पाठ-कर्तृता का भेद भी ध्यानास्पद है । और उसके साथ साथ पाठसंचरण की विभिन्न विधाओं ने भी पाठविकृति की भिन्न-भिन्न समस्याओं को जन्म दिया है । इन सब बिन्दुओं के साथ, पीढी दर पीढी संचरित हुये पाठ के अभिसाक्ष्यों
( witness ) की सङ्ख्या के भेद से भी, उनकी पाठसम्पादन-विधा में भेद करना अनिवार्य हो गया है ।
* * - 1 - * *
डो. एस. एम. कत्रेजी ने पाठों के तीन प्रकार बताये है+। 1.मूलग्रन्थकार का स्वहस्तलेख, 2.स्वहस्तलेख की तुरन्त की प्रतिलिपि, या 3.प्रतिलिपि की प्रतिलिपि की ....प्रतिलिपि की प्रतिलिपि..और उसकी भी प्रतिलिपि । परन्तु इसको हम पाठ के प्रकार नहीं कहेंगे., यह तो उपलब्ध पाठों के अभिसाक्ष्यों ( witness ) के भेद है । वस्तुतः भारतीय सन्दर्भ में सोचा जाय तो हमारे वहाँ पाँच प्रकार के संचरित-पाठ विद्यमान है ।
जैसा कि –
(1) दृष्टसाहित्यः- भारतीय मान्यता के अनुसार वेदों अपौरुषेय है., ऋषिमुनियों को वेदमन्त्रों का दर्शन हुआ था । अर्थात् भारत में एक ऐसा साहित्य है कि जिसका कोई कर्ता ही नहीं है और इसी लिये जिसका कोई स्वहस्तलेख भी कदापि नहीं था । क्योंकि वेदसाहित्य एक अकर्तृक-रचना है । ( वेदसाहित्य में मन्त्रसंहिताओं को छोड कर जो उपनिषद् है, उसका पाठ विवादाग्रस्त है ।)
(2) उत्कीर्णसाहित्यः- सम्राट् अशोक(ईसा पूर्व 283) से आरम्भ करके 18 शती पर्यन्त के शैललेख,शिलालेख,स्तम्भलेख और ताम्रलेख पर ( ब्राह्मीलिपि या देवनागरी-आदि लिपि में उत्कीर्ण ) जो पाठ पढने को मिलता है – वे सभी का पाठालोचन करके उसका समुचित पाठसम्पादन करना आवश्यक है । क्योंकि ऐसे उत्कीर्ण पाठों में भी कालान्तर में पैदा हुई अनेक विकृतियाँ दिखाई दे रही है । पर्वत या चट्टाने पर उत्कीर्ण किये गये इन लेखों का पाठ स्वहस्तलेख की तुरन्त की प्रतिलिपि कहे जाते है । क्योंकि ऐसे लेख को खुदवाने के बाद राजाओं के मन्त्रीलोग उस की पुनःपरीक्षा भी कर लेते थे । वेदों का मन्त्रपाठ और उत्कीर्ण लेखों का पाठसंचरण नियन्त्रित रूप से होता रहा है – यह सर्वस्वीकार्य हकीकत है ।।
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+ Now texts may be either autographs, or immediate copies of autographs, or copies of
copies , and this in any degree. – Chapter 2, Kinds of Texts., Introduction to
Indian Textual Criticism, Pune, 1954, S.M. Katre, ( p.19 )


(3) प्रोक्त-साहित्यः- रामायण, महाभारत एवं अष्टादश पुराणों का पाठ प्रोक्तसाहित्य के नाम से जानना चाहिये । क्योंकि इन कृतियों का पाठ आदिकाल से ही कथा-कीर्तन के अर्थात् प्रवचन के माध्यम से प्रवाहित होता रहा है । ऐसी कृति के प्रत्येक पारायण के दौरान अनेक कथाकारों के द्वारा उसमें बहुविध परिवर्तन एवं प्रक्षेपादि भी होते रहे है । परिणाम स्वरूप उसमें मूल पाठ यथावत् रहा ही नहीं है ।- ऐसा पाठ “ अनेककर्तृकपाठ ” कहा जाता है ।
(4) कृत-साहित्यः- कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति आदि कवियों., भामह, दण्डी, वामन, आनन्दवर्धन, मम्मट , शङ्कराचार्यादि शास्त्रकारों., तथा उनके अनेक टीकाकारों के द्वारा जो काव्य, नाटक, शास्त्रादि का प्रणयन हुआ है, वह ‘कृत-साहित्य’ कहना चाहिये । ऐसी कृतियों की पुष्पिका में लिखा होता है कि “ इति कालिदासकृतं अभिज्ञानशाकुन्तलं नाम नाटकं समाप्तम् ”। यहाँ पर कोई एक ही निश्चित कर्ता होता है । इसलिये ये कृत-साहित्य के पाठ को हम “ एककर्तृक रचना ” कहेंगे ।।
यहाँ पर प्रोक्त एवं कृतसाहित्य का पाठ हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में ही बहुशः संचरित हुआ है और सुरक्षित रहा है । लेखकों( लिपिकारों) के द्वारा बारबार उसका ( देश की विभिन्न लिपियों में) प्रतिलिपिकरण होने के कारण,( तथा मूल कवि या शास्त्रकार के दिवंगत हो जाने के कारण) इस के पाठ की मौलिकता की सुरक्षा नहीं हुई है । अतः ऐसे पाठों का संचरण अनियन्त्रित रूप से हुआ है ।। ( मध्यकालीन संतसाहित्य के रचयिता तुलसी, कबीर, मीराबाई, नरसिंह महेता, तुकाराम,ज्ञानेश्वरादि के पदों का पाठ भी अनियन्त्रित रूप से, पाण्डुलिपियों में एवं मौखिक रूप में संचरित होता रहा है । )
(5) श्रुत-साहित्यः- भगवान् बुद्ध एवं महावीर ने जो भी धर्मोपदेश दिया था वह आमप्रजा के बीच में जा कर दिया था । उन्हों ने कभी भी अपने धर्मोपदेश को हाथ से लिखा नहीं था । बुद्ध तथा महावीर के प्रत्यक्ष शिष्यों ने उसे सुन कर स्मृतिस्थ रखा था और पीढी दर पीढी संचरित किया है । अतः बुद्ध एवं महावीर की वाणी को “ श्रुत-साहित्य ” कहेंगे । लेकिन इस साहित्य का पाठसंचरण उभयात्मक था । क्योंकि बुद्ध-परिनिर्वाण के बाद बौद्धसाधुओं ने तीन-चार “ संगीतियों ” में एकत्रित हो कर अपने अपने स्मृतिस्थ बुद्धवचनों की परीक्षा कर ली थी । अशोक ने तो जिन बौद्धसाधुओं को बुद्धवाणी सही रूप में याद नहीं थी, इन सब को संघ से बहार नीकाल दिये थे । महावीर के परिनिर्वाण के बाद जैन साधुभगवन्तों ने भी ऐसे सम्मेलन बुलाये थे, और अपने अपने स्मृतिस्थ ज्ञान की परीक्षा कर ली थी । यानें इन दोनों परम्पराओं में कुछ शताब्दीयों तक तो श्रुतज्ञान नियन्त्रित रूप से संचरित हुआ था । परन्तु बाद में यह परम्परा अक्षुण्ण नहीं रही., और बुद्ध एवं महावीर के वचनों को भी लिपिबद्ध ( ग्रन्थस्थ ) कर लिये गये । अतः उसकी भी प्रतिलिपियाँ बनाना शुरू हुआ, परिणाम स्वरूप उसमें भी पाठविचलन होना शुरू हो गया ।
इस तरह से, भारतीय सन्दर्भ में देखा जाय तो- 1. दृष्टसाहित्य,2. उत्कीर्णसाहित्य, 3.प्रोक्तसाहित्य, 4.कृतसाहित्य तथा 5.श्रुतसाहित्य – ऐसे पाँच प्रकार का पाठ ( Text ) हमारे सामने विद्यमान है । इन पाँचों तरह के साहित्य का पाठ अलग अलग रूप से पीढी दर पीढी ( तथा नियन्त्रित-अनियन्त्रित रूप से ) संचरित होता रहा है । अब ध्यातव्य है कि पाठसंचरण का स्वरूप भिन्न भिन्न होने के कारण इन में प्रविष्ट होनेवाली अशुद्धियाँ – विकृतियाँ का स्वरूप भी भिन्न भिन्न है । और अतिप्राचीन काल की पाण्डुलिपियाँ भी मिलती ही नहीं है । आज उपलब्ध होनेवाली पाण्डुलिपियों का समय भी तीन सो या चार सो साल से अधिक पुराना नहीं है । अतः ऐसी स्थिति में, अर्थात् समस्याभेद के सन्दर्भ में पाठसम्पादन के उपायभेद सोचना चाहिये ।।

* * - 2 - * *
प्रशिष्ट भारतीय ( संस्कृत – पालि – प्राकृत ) भाषाओं में विद्यमान विपुल साहित्य का पाठ, जो अद्यावधि पाण्डुलिपियों में प्रवहमान हुआ है और इसलिये वह अपने मूल रूप से विचलित भी हो गया है, उसका “ समीक्षित पाठसम्पादन ”(Critical text-editing) किस तरह से किया जाय तो अधिक फलदायी होगा ?।– यह विचारणीय है । पश्चिमी देशों में जो विचारधारायें विकसित हुई है उनमें से प्रशिष्ट कृतियों के पाठसम्पादन के लिये तीन मार्ग उद्भावित किये गये हैः-

( क ) प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादन ( Copy-text editing )
( ख ) संदोहन पद्धति से पाठसम्पादन ( Eclectic text-editing )
( ग ) वंशवृक्ष पद्धति से पाठसम्पादन ( Stemma tic text-editing )

(क) प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादनः- ( Copy-text editing )
किसी भी कृति का ‘ पाठ ’ 1. केवल एक ही पाण्डुलिपि में उपलब्ध होता हो, या 2. कोई लेख शिला, पर्वत, स्तम्भ, या ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण हो., अथवा 3. कोई ग्रन्थकार का स्वहस्तलेख कहीं से उपलब्ध होता हो तो उपर्युक्त प्रथम प्रकार का “ प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादन ” करना चाहिये । यहाँ पर ‘ पाठ ’ के जो अवाच्यांश या त्रुटितांश होते है, उसका पाठ कैसे पुनःप्रतिष्ठित किया जाय ? यह चर्चा का विषय होता है । जो रूढिवादी पाठसम्पादक होते है वे उपलब्ध पाठ के त्रुटितांश को (.......) बिन्दुओं की लकीर से यथावत् रखने के पक्ष में होते है । दूसरे जो उदारतावादी पाठसम्पादक होते है वे असम्बद्ध या दुर्बोध या त्रुटित पाठ्यांश को असह्य मानते है । अतः वे ‘पूर्वापर सन्दर्भ में जो अनुकूल प्रतीत हो ऐसे नवीन शब्दों से पाठ का पुनर्गठन कर लेना चाहिये’ ऐसा सुझाव देते है । अर्थात् उदारतावादी पाठसम्पादक पाठसुधार को तथा पाठ के पुनर्गठन को पेहेले महत्त्व देते है । उसके विरुद्ध जो रूढिवादी पाठसम्पादक होते है वे परम्परागत पाठ को यथावत् रख कर ‘ स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया ’ के सिद्धान्त पर, उपलब्ध असम्बद्ध पाठ्यांश के अर्थघटन को पेहेले महत्त्व देते है । नाट्यशास्त्र की अभिनवभारती टीका का पाठ सम्पादित करते समय श्रद्धेय आचार्य श्रीविश्वेश्वरजी ने त्रुटित पाठों के पुनर्गठन को प्राधान्य दिया है और स्वकल्पित नवीन शब्दों का उपनिवेश करके वाक्यपूर्ति की है और प्रकरणसंगति बीठाई है । - यह उदारतावादी पाठसम्पादन है । यहाँ पर ध्यातव्य बिन्दु यह है कि ‘ प्रतिलेखन पद्धति ’ ( Copy text-editing ) के पाठसम्पादन में केवल एक ही पाण्डुलिपि में सुरक्षित रहे पाठ का सम्पादन करने की बात का समावेश होता है ।।

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कदाचित् ऐसा भी होता है कि किसी कृति की शताधिक पाण्डुलिपियाँ विद्यमान होते हुये भी, कोई सम्पादक केवल एक ही पाण्डुलिपि ( जो सरलता से, अनायास मिल गई हो उस)के आधार पर उसे पढके प्रतिलेखन के तौर पर उसका प्रकाशन कर देता है तो वह भी ‘ प्रतिलेखन पद्धति ’ ( Copy text-editing ) प्रकार का पाठसम्पादन कहा जायेगा । आलस्य के कारण या प्रसिद्धि के मोह में, उपलब्ध अन्य पाण्डुलिपियों को देखे बिना जब कोई पाठसम्पादन कर देता है तो उसे अनालोचनात्मक पाठसम्पादन कहा जायेगा ।।
अब, उपलब्ध अनेक पाण्डुलिपियों को देखे बिना केवल एक ही पाण्डुलिपि के आधार पर जो सम्पादन किया जाता है उसको ‘अनालोचनात्मक पाठसम्पादन’ ( Uncritical text-editing ) के नाम का कलङ्क लग जाता है । अतः दूसरे सम्पादक लोग इस कलङ्क से बचने के लिये, केवल एक प्राचीनतम पाण्डुलिपि ( Oldest manuscript school ) को आधार बनाके पाठसम्पादन करते है., या उपलब्ध अनेक पाण्डुलिपियों में से जो एक ‘उत्तम पाण्डुलिपि’ ( Best manuscript school ) होती है उसको ( अथवा किसी के द्वारा प्राचीन काल में ही परीक्षित हो ऐसी पाण्डुलिपि को ) आधार बनाके पाठसम्पादन करते है । इस दृष्टि से जो पाठसम्पादन किया जाता है उस में वस्तुलक्षिता ( objectivity ) जरूर है । लेकिन पाठ की सच्चाई का प्रमाण केवल प्राचीनता या उत्तमता नहीं होती है । और ‘उत्तम’ या ‘प्राचीनतम’ पाण्डुलिपि के आधार पर पाठसम्पादन करने का यह उपक्रम तभी मान्य हो सकता है कि जब उपलब्ध अनेक पाण्डुलिपियों में केवल “अनुलेखनीय सम्भावना” वाली ही अशुद्धियाँ हो ।
अतः शताधिक पाण्डुलिपियाँ मिलने पर भी केवल उत्तमता या प्राचीनतमता के आधार पर प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादन करने में दोष भी है, और उसमें मर्यादा भी है ।। - यह बात देख कर, नये प्रकार का पाठसम्पादन सोचा गया है ।।
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( ख ) संदोहन पद्धति से पाठसम्पादनः ( Eclectic text-editing )

पाठसम्पादन के क्षेत्र में एक दूसरा दृष्टिकोण भी विचारणीय है । न प्राचीनतम, और न उत्तम पाण्डुलिपि का शरण लेना.,क्योंकि यह मार्ग तो जब ( उपलब्ध होनेवाली अनेक पाण्डुलिपियों में ) केवल “अनुलेखनीय सम्भावना” वाली ही अशुद्धियाँ हो तब औचित्य रखता है । लेकिन जब (1) उपलब्ध शताधिक पाण्डुलिपियों में सार्थक पाठान्तर होते है तब पाठसम्पादन की एक ‘संदोहन पद्धति’ अधिक औचित्यपूर्ण लगती है । इस पद्धति में जो पाठ बहुसङ्ख्य पाण्डुलिपियों ( Majority of manuscripts ) में संचरित हुआ है – ऐसा देखा जाता है उस पाठ का चयन किया जाता है । और जो जो पाठ्यांश अल्पसङ्ख्यक पाण्डुलिपियों में ही संचरित हुआ दिखाई देता हो, उसको अस्वीकार्य माना जाता है । इस दृष्टि से जो पाठसम्पादन किया जाता है उस में जरूर वस्तुलक्षिता ( objectivity ) है – ऐसा कहना पडेगा । लेकिन यहाँ पर बहुसङ्ख्य पाण्डुलिपियों में मिलनेवाला पाठ ‘अर्वाचीन काल का है या प्राचीन काल का है’? – यह हम किसी भी तरह से नहीं जान सकेंगे । (2) इस संदोहन पद्धति के पाठसम्पादन में कभी कभी पाण्डुलिपियों की सङ्ख्या को नहीं, परन्तु जहाँ जहाँ से गुणवत्ता सभर पाठान्तर मिलते हो उसका चयन किया जा सकता है । यहाँ तरह तरह के सार्थक पाठान्तरों में से जो जो पाठान्तर अत्यन्त काव्यत्वपूर्ण या चमत्कृतिपूर्ण अर्थ देनेवाला हो, और कवि या ग्रन्थकार की शैली के अनुरूप हो, ऐसे पाठान्तरों का चयन करके भी पाठसम्पादन किया जा सकता है । इसको भी ‘संदोहन पद्धति’ से ( Eclectic principle ) किया हुआ पाठसम्पादन कहा जाता है ।।
परन्तु गुणवत्ता के आधार पर जो पाठ का चयन होता है उसमें सम्पादक की रुचि- अरुचि भी प्रतिबिम्बित होती है । अर्थात् ऐसा पाठसम्पादन आत्मलक्षिता( subjectivity) से भरा होगा । इस प्रकार के सम्पादन में यह सब से बडा दोष अन्तर्गभित रहता है । तथा एक दूसरी मर्यादा यह भी रहती है कि प्रस्तुत कृति कि कितनी पाठपरम्परायें
( वाचनायें – recencions - ) प्रवर्तमान है, या कौन सी पाठपरम्परा प्राचीनतर है या प्राचीनतम है ? –यह भी हम नहीं जान सकते है ।
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नीलकण्ठ ने जब महाभारत पर ‘ भारतभावदीप ’ नामक टीका लिखी है, तब देश के विभिन्न प्रान्तों से अनेकानेक पाण्डुलिपियाँ एकत्र की गई थी । और उनमें से जहाँ जो भी उत्तम ( अग्रगण्य ) पाठान्तर मिले, उसका चयन करके ( एक तरह से गुणोपसंहार-न्याय से पेहेले पाठसम्पादन करके, बाद में ) उस पर टीका लिखी गई थी ।+ ऐसे संदोहन पद्धति वाले ( Eclectic text-editing ) पाठसम्पादन में भी पाठान्तरों की गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाता है । परन्तु उपलब्ध पाण्डुलिपियों में से प्राचीनतर या प्राचीनतम पाठ्यांश की शोध की ओर ध्यान नहीं होता है । जो कृति का पाठ शताब्दीयों से संचरित होता रहा है, उसकी पाठपरम्परायें कितने प्रकार की है, तथा प्राचीनतर पाठ्यांश कौन सा है ? – यह ‘इदं प्रथमतया’ गवेषणीय होता है ।
‘कृत-साहित्य’ की कोई कृति का पाठ यदि सन्दोहन पद्धति से सम्पादित किया जायेगा तो उसमें निश्चित ही आत्मलक्षिता प्रविष्ट होती है, और इसी कारण से ऐसा पाठसम्पादन सर्वस्वीकार्य भी नहीं बनता है । इसी तरह से ‘श्रुत-साहित्य’ का पाठ भी यदि सन्दोहन पद्धति से सम्पादित किया जायेगा, तो वहाँ भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश-बुद्धि कार्यरत होगी । तथा प्राचीनतर या प्राचीनतम पाठपरम्पराओं का भी ज्ञान कदापि नहीं होगा । संक्षेप में कहे तो यह दूसरी पद्धतिवाले (Eclectic text-editing) पाठसम्पादन में अनेक भयस्थान दिखाई दे रहे है ।।
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( ग ) वंशवृक्ष पद्धतिवाला पाठसम्पादन ( Stemma tic Text-editing )
युरोपीय देशों में, प्रशिष्ट कृतियों के पाठसम्पादन के लिये जो विभिन्न विधायें विकसित हुई है, उसमें एक तीसरा प्रकार हैः- वंशवृक्ष पद्धतिवाला ( Stemma tic Text-editing ) पाठसम्पादन । यह पद्धति सारे संसार में बहुत प्रचलित हुई है । इस पद्धति में 1. अनुसन्धान (Heuristics), 2. संशोधन ( Recensio ), 3. पाठसुधार एवं संस्करण
( Emendatio ) तथा 4. उच्चतर समीक्षा ( Higher Criticism ) – जैसे चतुर्विध सोपान होते है । यहाँ पेहेले सोपान पर विविध भण्डारों से उपलब्ध पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियाँ ( photo-copies ) एकत्रित की जाती है । तत्पश्चात् पसंद की गई प्रत्येक पाण्डुलिपि का पाठ ( = अशुद्धियाँ तथा पाठान्तरादि ) सन्तुलन-पत्रिकाओं ( collation-sheets ) में अंकित किया जाता है । तथा उनके आधार पर पाठान्तरों की तुलना करके, उपलब्ध पाण्डुलिपियों के पारस्परिक आनुवंशिक सम्बन्ध ढूँढे जाते है । अर्थात् पाण्डुलिपियों का एक तरह का वंशवृक्ष ( genealogical tree / pedigree / stemma codicum ) सोचा जाता है । ततः पाठ्यग्रन्थ की कितनी वाचनायें ( पाठपरम्परायें ) प्रवर्तमान है ? – यह निश्चित किया जाता है । और, अन्त में विभिन्न वाचनाओं में से कौन सी वाचना में प्राचीनतर या -------------------------------------------------------
+ बहून् समाहृत्य विभिन्नदेश्यान् कोशान्, विनिश्चित्य तु पाठमग्र्यम् ।
प्राचां गुरूणाम् अनुसृत्य वाचमारभ्यते भारतभावदीपः ।।( महाभारतम्, आदिपर्वन् 1-1)
प्राचीनतम पाठ्यांश ( आर्ष या लघुपाठ के रूप में ) संचरित हुआ है ? यह तय किया जाता है । ऐसे प्राचीनतम पाठ को अधिक श्रद्धेय मान कर, उसके आधार पर पाठसम्पादन किया जाता है । तथा अस्वीकार्य पाठान्तरों को पादटिप्पणी में निर्दिष्ट भी किये जाते है । और प्रस्तावना में पसंद की गई पाण्डुलिपियों का विवरण दिया जाता है । परिशिष्टों में अमान्य किये गये प्रक्षिप्तांश को रखे जाते है । इस तरह से किये गये पाठसम्पादन को ‘समीक्षित पाठसम्पादन’ ( Critically edited text ) कहा जाता है ।
यहाँ पर प्रथम तीन सोपान में जो कार्यविधि की जाती है उसे ‘निम्न-स्तरीय पाठालोचन’( Lower Criticism ) कहते है । तत्पश्चात् चतुर्थ सोपान के रूप में ‘उच्च-स्तरीय पाठालोचन’( Higher Criticism ) का कार्य करना होता है ।।

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सन्दोहन पद्धतिवाले पाठसम्पादन की अपेक्षा से, यह तीसरे प्रकार का – वंशवृक्ष-पद्धतिवाला – पाठसम्पादन अधिक विश्वसनीय है । क्योंकि इस पद्धति से जो सम्पादन तैयार होता है, उसमें काफी हद तक वस्तुलक्षिता ( objectivity ) बनी रहती है । तथा अभीष्ट कृति की पाठपरम्पराओं के भेदोपभेद जान कर, उसमें कौनसा अंश प्राचीनतर या प्राचीनतम है? – यह भी निश्चित किया जाता है । अतः एकाधिक पाण्डुलिपियों वाले
‘ प्रोक्त ’,‘ कृत ’तथा ‘ श्रुत ’प्रकार के साहित्य कृति के लिये यह तीसरी वंशवृक्ष पद्धतिवाला पाठसम्पादन अधिकतर सफल होनेवाला दिखाई दे रहा है ।।
यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि दूसरी सन्दोहन-पद्धति कहाँ प्रयुक्त होगी या कहाँ पर उपयुक्त होगी ?। इसका उत्तर है कि वंशवृक्ष पद्धतिवाले पाठसम्पादन की जो लम्बी प्रक्रिया है, उसके अन्तर्गत (ही) हम इस सन्दोहन पद्धति का विनियोग कर सकते है । जैसा कि - वंशवृक्ष पद्धति का अनुसरण करके जब ‘प्रोक्त’प्रकार ’ की कोई कृति की पाण्डुलिपियों का पेहेले पारस्परिक आनुवंशिक सम्बन्ध प्रस्थापित किये जाते है, तब
‘प्राचीनतर’ या ‘बहुसङ्ख्यक-पाण्डुलिपियों’ के (बहुमान्य)पाठ का सन्दोहन ही किया जाता है । ( तथा जो जो पाठभेद प्राचीनतर नहीं है, या बहुमान्यपाठ से विरुद्ध है – उसे अस्वीकार्य पाठ के रूप में पादटिप्पणी में रखे जाते है । )
‘प्रोक्त’प्रकार की साहित्यिक कृति में एक बात शुरू से ही साफ रहती है कि जो प्रोक्त-साहित्य है वह अनेककर्तृक होते है । अर्थात् वहाँ पर मूलभूत रूप से ही एक निश्चित पाठ कदापि नहीं होता है । अतःनिम्नस्तरीय पाठालोचन के दायरे में प्रोक्तग्रन्थ की पाण्डुलिपियों में से बहुमान्य या प्राचीनतर पाठ का सन्दोहन ही करना होता है । पाठसम्पादन का इतना कार्य हो जाने के बाद, जब उच्चस्तरीय पाठालोचना शुरू की जाती है तब – कौन से ऐतिहासिक घटनाचक्र के कारण कृति का अमुक पाठ्यांश बदला गया है इत्यादि सोचा जाता है । तथा विभिन्न काल खण्ड में ( विभिन्न कर्ताओं के द्वारा ) जो जो पाठ्यांश का प्रक्षेप या परिवर्तनादि हुआ होगा – ऐसा दिखाई देता है, उसका समय निर्धारित किया जाता है ।
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एककर्तृक ‘कृत’ प्रकार के साहित्य में वंशवृक्ष-पद्धति से पेहेले कृति का पाठ कितने प्रवाहों में विभक्त होता है – यह देख लिया जाता है । यहाँ पर भी प्राचीन से प्राचीनतर पाठ्यांश कौन हो सकता है, तथा प्राचीनतर से भी प्राचीनतम पाठ्यांश कौन हो सकता है – यह ढूँढने का प्रयास किया जाता है । तथापि इस ‘कृत’ प्रकार के साहित्य में, जहाँ कोई एक ही कर्ता / कवि निश्चित होता है उसमें हमारा लक्ष्य कोई एक ही निश्चित पाठ निर्धारित करने का रखना चाहिये । अतः वंशवृक्ष-पद्धति के द्वारा पाण्डुलिपियों में जो द्विविध पाठपरम्परायें दिखाई देती हो, उन दोनों की सम्मति लेकर, या ‘उच्चस्तरीय पाठालोचन’ का कोई तर्क या समर्थन प्रस्तुत करके, कोई एक ही पाठ निर्धारित करना चाहिये ।
तथा ‘श्रुत’प्रकार के साहित्य की कृति का पाठ-सम्पादन करने के लिये भी वंशवृक्ष-पद्धति की चलनी से यदि उपलब्ध पाठान्तरों को छांटा जायेगा तो प्राचीन से प्राचीनतर, और प्राचीनतर से भी प्राचीनतम पाठ सरलता से प्राप्त किया जा सकता है । तदनन्तर ही बुद्धवाणी एवं महावीरवाणी के पाठ का पुनर्गठन ( reconstruction ) करना होगा । यहाँ पर पाठसम्पादन के साथ साथ पाठ का पुनर्गठन भी लक्ष्य रूप में अवस्थित है ।।
उपसंहारः-

भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य विपुल होने के साथ साथ बहुविध भी है । इन्हीं में भारतीय अस्मि-ता छीपी हुई है । अतः वह हमारी विरासत भी है । उसकी सुरक्षा में हमारा भविष्य है । इसलिये पाण्डुलिपियों की सुरक्षा करना हमारा एक कर्तव्य भी है। तथैव, इन पाण्डुलिपियों में निहित ज्ञान-सम्पदा का हमे पूरा लाभ उठाने चाहिये । लेकिन उसके लिये, इनमें जो पाठ ( Text ) शताब्दीओं से संचरित हो कर हम तक पहुँचा है उसका सम्यक् रूप से सम्पादन करना जरूरी है ।
प्रस्तुत आलेख में समीक्षित पाठसम्पादन के त्रिविध मार्ग की चर्चा करके, भारतीय सन्दर्भ में इनकी उपयुक्तता बताने का प्रयास किया गया है । अभी तक इस दिशा के जो पुस्तक या शोध-आलेख देखने को मिले है उसमें युरोपीय देशों के सिद्धान्तों का शुक-पाठ होता रहा है । परन्तु भारतीय सन्दर्भ को शायद किसीने पूरा ध्यान में नहीं लिया है । अतः यहाँ पर, संस्कृत-पालि-प्राकृत भाषा की विभिन्न कृतियों की पञ्चविध
पाठ, तथा पाठसंचरण की बहुविधता, पाठ के कर्तृत्व की अनेकरूपता इत्यादि का प्रथम बार निरूपण किया गया है । तथा किस तरह के साहित्य के लिये कौन सी पाठसम्पादन पद्धति तर्कशुद्ध एवं अधिक फलदायी होगी इसकी उपस्थापना की गई है ।।



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पाठसम्पादन की विधायें
और
सिद्धान्तों की सन्दर्भानुसारी प्रस्तुतता – एक पुनःपरामर्शन
वसन्तकुमार म. भट्ट
निदेशक, भाषासाहित्यभवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद – 380 009
bhattvasant@yahoo.co.in
भूमिकाः- आधुनिक विश्व में यान्त्रिक मुद्रणकला का आविष्कार सार्धशताब्दी-पूर्व ही हुआ था । उससे पेहेले तो मानवी अपने हाथ से ही, भूतकाल में लिखे गये ग्रन्थों का ताडपत्र या भूर्जपत्रादि पर पुनर्लेखन करता आया था । अतः प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों के द्वारा लिखे गये ज्ञान-विज्ञान के जो ग्रन्थ आज हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में उपलब्ध होते है, वह बारबार प्रतिलिपिकरण की प्रकिया से गुजरते हुये हम तक पहुँचे हैं । परन्तु मानवकृत प्रतिलिपिकरण के द्वारा पीढी दर पीढी संचरित होनेवाले इन ग्रन्थों का पाठ
( Text ) आकस्मिक कारणों से नष्ट-भ्रष्ट होता रहा है । तथा ये सभी पाठ पुनर्लेखन के दौरान भी लिपिकारों के हाथ से अनजान में और कभी कभी जानबुझ कर भी, अपने मूल रूप से विचलित किये गये है । अतः पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहे इन ग्रन्थों का पाठ आज कैसे सम्पादित किया जाय – यह विचारणीय है । यह प्रश्न केवल भारतीय ग्रन्थों के लिये ही नहीं है, यह बाईबल आदि जैसे अन्य धार्मिक ग्रन्थों के लिये भी है । युरोपीय देशों में प्राचीन काल की कृतियों का पाठसम्पादन करने के लिये बहुत चर्चायें हुई है । और हमारे वहाँ विदेशी-शासन करीब दो सो वर्ष रहा था, इसके कारण इन चर्चाओं का प्रभाव भी हमारे वहाँ होना अवश्यंभावी था ।।

प्रशिष्ट साहित्य की कृतियों की पाठालोचना और पाठसम्पादन में युरोपीय विद्वानोंने जो मार्ग प्रशस्त किया था, उसी मार्ग पर चल कर हमारे देश के विद्वानोंने “ महाभारत” तथा “रामायण” जैसे अतिप्राचीन काल के दो आर्ष महाकाव्यों (epics) का समीक्षित पाठसम्पादन ( Critical Text-editing ) किया है । समीक्षित पाठसम्पादन के निदर्श रूप ये दो महनीय कार्य आज तक हमारे लिये पथदर्शक रहे है । लेकिन भारत के प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य का वैविध्यपूर्ण व्याप इतना बडा है कि पाठसम्पादन की इस पद्धति का सर्वत्र एकसमान अनुगमन करना युक्तियुक्त नहीं लगता । लेकिन यह पद्धति केवल विदेशी होने के कारण ही त्याज्य है – ऐसा भी कहने का आशय नहीं है । क्योंकि जो भी पद्धति हो वह यदि तर्कनिष्ठ ( युक्तिसंगत ) हो तो अवश्य ग्राह्य बन सकती है । लेकिन युरोपीय पाठसम्पादन के इन विभिन्न सिद्धान्तों का भारतीय सन्दर्भ में कहाँ, कैसे विनियोग किया जाना चाहिये – इस का एक पुनःपरामर्शन यहाँ प्रस्तुत किया जाता है ।।
सब से प्रथम, प्राचीन भारतीय कृतियों के पाठ (Text) कितने प्रकार के है ? उसके पाठसंचरण का क्या इतिहास रहा है ?। इन सब का यथासम्भव विश्वतोमुखी विचार करना होगा । क्योंकि हमारे वहाँ साहित्यभेद से पाठ के स्वरूप का भेद है । पाठ-स्वरूप में भेद होने के साथ साथ पाठ-कर्तृता का भेद भी ध्यानास्पद है । और उसके साथ साथ पाठसंचरण की विभिन्न विधाओं ने भी पाठविकृति की भिन्न-भिन्न समस्याओं को जन्म दिया है । इन सब बिन्दुओं के साथ, पीढी दर पीढी संचरित हुये पाठ के अभिसाक्ष्यों
( witness ) की सङ्ख्या के भेद से भी, उनकी पाठसम्पादन-विधा में भेद करना अनिवार्य हो गया है ।
* * - 1 - * *
डो. एस. एम. कत्रेजी ने पाठों के तीन प्रकार बताये है+। 1.मूलग्रन्थकार का स्वहस्तलेख, 2.स्वहस्तलेख की तुरन्त की प्रतिलिपि, या 3.प्रतिलिपि की प्रतिलिपि की ....प्रतिलिपि की प्रतिलिपि..और उसकी भी प्रतिलिपि । परन्तु इसको हम पाठ के प्रकार नहीं कहेंगे., यह तो उपलब्ध पाठों के अभिसाक्ष्यों ( witness ) के भेद है । वस्तुतः भारतीय सन्दर्भ में सोचा जाय तो हमारे वहाँ पाँच प्रकार के संचरित-पाठ विद्यमान है ।
जैसा कि –
(1) दृष्टसाहित्यः- भारतीय मान्यता के अनुसार वेदों अपौरुषेय है., ऋषिमुनियों को वेदमन्त्रों का दर्शन हुआ था । अर्थात् भारत में एक ऐसा साहित्य है कि जिसका कोई कर्ता ही नहीं है और इसी लिये जिसका कोई स्वहस्तलेख भी कदापि नहीं था । क्योंकि वेदसाहित्य एक अकर्तृक-रचना है । ( वेदसाहित्य में मन्त्रसंहिताओं को छोड कर जो उपनिषद् है, उसका पाठ विवादाग्रस्त है ।)
(2) उत्कीर्णसाहित्यः- सम्राट् अशोक(ईसा पूर्व 283) से आरम्भ करके 18 शती पर्यन्त के शैललेख,शिलालेख,स्तम्भलेख और ताम्रलेख पर ( ब्राह्मीलिपि या देवनागरी-आदि लिपि में उत्कीर्ण ) जो पाठ पढने को मिलता है – वे सभी का पाठालोचन करके उसका समुचित पाठसम्पादन करना आवश्यक है । क्योंकि ऐसे उत्कीर्ण पाठों में भी कालान्तर में पैदा हुई अनेक विकृतियाँ दिखाई दे रही है । पर्वत या चट्टाने पर उत्कीर्ण किये गये इन लेखों का पाठ स्वहस्तलेख की तुरन्त की प्रतिलिपि कहे जाते है । क्योंकि ऐसे लेख को खुदवाने के बाद राजाओं के मन्त्रीलोग उस की पुनःपरीक्षा भी कर लेते थे । वेदों का मन्त्रपाठ और उत्कीर्ण लेखों का पाठसंचरण नियन्त्रित रूप से होता रहा है – यह सर्वस्वीकार्य हकीकत है ।।
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+ Now texts may be either autographs, or immediate copies of autographs, or copies of
copies , and this in any degree. – Chapter 2, Kinds of Texts., Introduction to
Indian Textual Criticism, Pune, 1954, S.M. Katre, ( p.19 )


(3) प्रोक्त-साहित्यः- रामायण, महाभारत एवं अष्टादश पुराणों का पाठ प्रोक्तसाहित्य के नाम से जानना चाहिये । क्योंकि इन कृतियों का पाठ आदिकाल से ही कथा-कीर्तन के अर्थात् प्रवचन के माध्यम से प्रवाहित होता रहा है । ऐसी कृति के प्रत्येक पारायण के दौरान अनेक कथाकारों के द्वारा उसमें बहुविध परिवर्तन एवं प्रक्षेपादि भी होते रहे है । परिणाम स्वरूप उसमें मूल पाठ यथावत् रहा ही नहीं है ।- ऐसा पाठ “ अनेककर्तृकपाठ ” कहा जाता है ।
(4) कृत-साहित्यः- कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति आदि कवियों., भामह, दण्डी, वामन, आनन्दवर्धन, मम्मट , शङ्कराचार्यादि शास्त्रकारों., तथा उनके अनेक टीकाकारों के द्वारा जो काव्य, नाटक, शास्त्रादि का प्रणयन हुआ है, वह ‘कृत-साहित्य’ कहना चाहिये । ऐसी कृतियों की पुष्पिका में लिखा होता है कि “ इति कालिदासकृतं अभिज्ञानशाकुन्तलं नाम नाटकं समाप्तम् ”। यहाँ पर कोई एक ही निश्चित कर्ता होता है । इसलिये ये कृत-साहित्य के पाठ को हम “ एककर्तृक रचना ” कहेंगे ।।
यहाँ पर प्रोक्त एवं कृतसाहित्य का पाठ हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में ही बहुशः संचरित हुआ है और सुरक्षित रहा है । लेखकों( लिपिकारों) के द्वारा बारबार उसका ( देश की विभिन्न लिपियों में) प्रतिलिपिकरण होने के कारण,( तथा मूल कवि या शास्त्रकार के दिवंगत हो जाने के कारण) इस के पाठ की मौलिकता की सुरक्षा नहीं हुई है । अतः ऐसे पाठों का संचरण अनियन्त्रित रूप से हुआ है ।। ( मध्यकालीन संतसाहित्य के रचयिता तुलसी, कबीर, मीराबाई, नरसिंह महेता, तुकाराम,ज्ञानेश्वरादि के पदों का पाठ भी अनियन्त्रित रूप से, पाण्डुलिपियों में एवं मौखिक रूप में संचरित होता रहा है । )
(5) श्रुत-साहित्यः- भगवान् बुद्ध एवं महावीर ने जो भी धर्मोपदेश दिया था वह आमप्रजा के बीच में जा कर दिया था । उन्हों ने कभी भी अपने धर्मोपदेश को हाथ से लिखा नहीं था । बुद्ध तथा महावीर के प्रत्यक्ष शिष्यों ने उसे सुन कर स्मृतिस्थ रखा था और पीढी दर पीढी संचरित किया है । अतः बुद्ध एवं महावीर की वाणी को “ श्रुत-साहित्य ” कहेंगे । लेकिन इस साहित्य का पाठसंचरण उभयात्मक था । क्योंकि बुद्ध-परिनिर्वाण के बाद बौद्धसाधुओं ने तीन-चार “ संगीतियों ” में एकत्रित हो कर अपने अपने स्मृतिस्थ बुद्धवचनों की परीक्षा कर ली थी । अशोक ने तो जिन बौद्धसाधुओं को बुद्धवाणी सही रूप में याद नहीं थी, इन सब को संघ से बहार नीकाल दिये थे । महावीर के परिनिर्वाण के बाद जैन साधुभगवन्तों ने भी ऐसे सम्मेलन बुलाये थे, और अपने अपने स्मृतिस्थ ज्ञान की परीक्षा कर ली थी । यानें इन दोनों परम्पराओं में कुछ शताब्दीयों तक तो श्रुतज्ञान नियन्त्रित रूप से संचरित हुआ था । परन्तु बाद में यह परम्परा अक्षुण्ण नहीं रही., और बुद्ध एवं महावीर के वचनों को भी लिपिबद्ध ( ग्रन्थस्थ ) कर लिये गये । अतः उसकी भी प्रतिलिपियाँ बनाना शुरू हुआ, परिणाम स्वरूप उसमें भी पाठविचलन होना शुरू हो गया ।
इस तरह से, भारतीय सन्दर्भ में देखा जाय तो- 1. दृष्टसाहित्य,2. उत्कीर्णसाहित्य, 3.प्रोक्तसाहित्य, 4.कृतसाहित्य तथा 5.श्रुतसाहित्य – ऐसे पाँच प्रकार का पाठ ( Text ) हमारे सामने विद्यमान है । इन पाँचों तरह के साहित्य का पाठ अलग अलग रूप से पीढी दर पीढी ( तथा नियन्त्रित-अनियन्त्रित रूप से ) संचरित होता रहा है । अब ध्यातव्य है कि पाठसंचरण का स्वरूप भिन्न भिन्न होने के कारण इन में प्रविष्ट होनेवाली अशुद्धियाँ – विकृतियाँ का स्वरूप भी भिन्न भिन्न है । और अतिप्राचीन काल की पाण्डुलिपियाँ भी मिलती ही नहीं है । आज उपलब्ध होनेवाली पाण्डुलिपियों का समय भी तीन सो या चार सो साल से अधिक पुराना नहीं है । अतः ऐसी स्थिति में, अर्थात् समस्याभेद के सन्दर्भ में पाठसम्पादन के उपायभेद सोचना चाहिये ।।

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प्रशिष्ट भारतीय ( संस्कृत – पालि – प्राकृत ) भाषाओं में विद्यमान विपुल साहित्य का पाठ, जो अद्यावधि पाण्डुलिपियों में प्रवहमान हुआ है और इसलिये वह अपने मूल रूप से विचलित भी हो गया है, उसका “ समीक्षित पाठसम्पादन ”(Critical text-editing) किस तरह से किया जाय तो अधिक फलदायी होगा ?।– यह विचारणीय है । पश्चिमी देशों में जो विचारधारायें विकसित हुई है उनमें से प्रशिष्ट कृतियों के पाठसम्पादन के लिये तीन मार्ग उद्भावित किये गये हैः-

( क ) प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादन ( Copy-text editing )
( ख ) संदोहन पद्धति से पाठसम्पादन ( Eclectic text-editing )
( ग ) वंशवृक्ष पद्धति से पाठसम्पादन ( Stemma tic text-editing )

(क) प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादनः- ( Copy-text editing )
किसी भी कृति का ‘ पाठ ’ 1. केवल एक ही पाण्डुलिपि में उपलब्ध होता हो, या 2. कोई लेख शिला, पर्वत, स्तम्भ, या ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण हो., अथवा 3. कोई ग्रन्थकार का स्वहस्तलेख कहीं से उपलब्ध होता हो तो उपर्युक्त प्रथम प्रकार का “ प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादन ” करना चाहिये । यहाँ पर ‘ पाठ ’ के जो अवाच्यांश या त्रुटितांश होते है, उसका पाठ कैसे पुनःप्रतिष्ठित किया जाय ? यह चर्चा का विषय होता है । जो रूढिवादी पाठसम्पादक होते है वे उपलब्ध पाठ के त्रुटितांश को (.......) बिन्दुओं की लकीर से यथावत् रखने के पक्ष में होते है । दूसरे जो उदारतावादी पाठसम्पादक होते है वे असम्बद्ध या दुर्बोध या त्रुटित पाठ्यांश को असह्य मानते है । अतः वे ‘पूर्वापर सन्दर्भ में जो अनुकूल प्रतीत हो ऐसे नवीन शब्दों से पाठ का पुनर्गठन कर लेना चाहिये’ ऐसा सुझाव देते है । अर्थात् उदारतावादी पाठसम्पादक पाठसुधार को तथा पाठ के पुनर्गठन को पेहेले महत्त्व देते है । उसके विरुद्ध जो रूढिवादी पाठसम्पादक होते है वे परम्परागत पाठ को यथावत् रख कर ‘ स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया ’ के सिद्धान्त पर, उपलब्ध असम्बद्ध पाठ्यांश के अर्थघटन को पेहेले महत्त्व देते है । नाट्यशास्त्र की अभिनवभारती टीका का पाठ सम्पादित करते समय श्रद्धेय आचार्य श्रीविश्वेश्वरजी ने त्रुटित पाठों के पुनर्गठन को प्राधान्य दिया है और स्वकल्पित नवीन शब्दों का उपनिवेश करके वाक्यपूर्ति की है और प्रकरणसंगति बीठाई है । - यह उदारतावादी पाठसम्पादन है । यहाँ पर ध्यातव्य बिन्दु यह है कि ‘ प्रतिलेखन पद्धति ’ ( Copy text-editing ) के पाठसम्पादन में केवल एक ही पाण्डुलिपि में सुरक्षित रहे पाठ का सम्पादन करने की बात का समावेश होता है ।।

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कदाचित् ऐसा भी होता है कि किसी कृति की शताधिक पाण्डुलिपियाँ विद्यमान होते हुये भी, कोई सम्पादक केवल एक ही पाण्डुलिपि ( जो सरलता से, अनायास मिल गई हो उस)के आधार पर उसे पढके प्रतिलेखन के तौर पर उसका प्रकाशन कर देता है तो वह भी ‘ प्रतिलेखन पद्धति ’ ( Copy text-editing ) प्रकार का पाठसम्पादन कहा जायेगा । आलस्य के कारण या प्रसिद्धि के मोह में, उपलब्ध अन्य पाण्डुलिपियों को देखे बिना जब कोई पाठसम्पादन कर देता है तो उसे अनालोचनात्मक पाठसम्पादन कहा जायेगा ।।
अब, उपलब्ध अनेक पाण्डुलिपियों को देखे बिना केवल एक ही पाण्डुलिपि के आधार पर जो सम्पादन किया जाता है उसको ‘अनालोचनात्मक पाठसम्पादन’ ( Uncritical text-editing ) के नाम का कलङ्क लग जाता है । अतः दूसरे सम्पादक लोग इस कलङ्क से बचने के लिये, केवल एक प्राचीनतम पाण्डुलिपि ( Oldest manuscript school ) को आधार बनाके पाठसम्पादन करते है., या उपलब्ध अनेक पाण्डुलिपियों में से जो एक ‘उत्तम पाण्डुलिपि’ ( Best manuscript school ) होती है उसको ( अथवा किसी के द्वारा प्राचीन काल में ही परीक्षित हो ऐसी पाण्डुलिपि को ) आधार बनाके पाठसम्पादन करते है । इस दृष्टि से जो पाठसम्पादन किया जाता है उस में वस्तुलक्षिता ( objectivity ) जरूर है । लेकिन पाठ की सच्चाई का प्रमाण केवल प्राचीनता या उत्तमता नहीं होती है । और ‘उत्तम’ या ‘प्राचीनतम’ पाण्डुलिपि के आधार पर पाठसम्पादन करने का यह उपक्रम तभी मान्य हो सकता है कि जब उपलब्ध अनेक पाण्डुलिपियों में केवल “अनुलेखनीय सम्भावना” वाली ही अशुद्धियाँ हो ।
अतः शताधिक पाण्डुलिपियाँ मिलने पर भी केवल उत्तमता या प्राचीनतमता के आधार पर प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादन करने में दोष भी है, और उसमें मर्यादा भी है ।। - यह बात देख कर, नये प्रकार का पाठसम्पादन सोचा गया है ।।
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( ख ) संदोहन पद्धति से पाठसम्पादनः ( Eclectic text-editing )

पाठसम्पादन के क्षेत्र में एक दूसरा दृष्टिकोण भी विचारणीय है । न प्राचीनतम, और न उत्तम पाण्डुलिपि का शरण लेना.,क्योंकि यह मार्ग तो जब ( उपलब्ध होनेवाली अनेक पाण्डुलिपियों में ) केवल “अनुलेखनीय सम्भावना” वाली ही अशुद्धियाँ हो तब औचित्य रखता है । लेकिन जब (1) उपलब्ध शताधिक पाण्डुलिपियों में सार्थक पाठान्तर होते है तब पाठसम्पादन की एक ‘संदोहन पद्धति’ अधिक औचित्यपूर्ण लगती है । इस पद्धति में जो पाठ बहुसङ्ख्य पाण्डुलिपियों ( Majority of manuscripts ) में संचरित हुआ है – ऐसा देखा जाता है उस पाठ का चयन किया जाता है । और जो जो पाठ्यांश अल्पसङ्ख्यक पाण्डुलिपियों में ही संचरित हुआ दिखाई देता हो, उसको अस्वीकार्य माना जाता है । इस दृष्टि से जो पाठसम्पादन किया जाता है उस में जरूर वस्तुलक्षिता ( objectivity ) है – ऐसा कहना पडेगा । लेकिन यहाँ पर बहुसङ्ख्य पाण्डुलिपियों में मिलनेवाला पाठ ‘अर्वाचीन काल का है या प्राचीन काल का है’? – यह हम किसी भी तरह से नहीं जान सकेंगे । (2) इस संदोहन पद्धति के पाठसम्पादन में कभी कभी पाण्डुलिपियों की सङ्ख्या को नहीं, परन्तु जहाँ जहाँ से गुणवत्ता सभर पाठान्तर मिलते हो उसका चयन किया जा सकता है । यहाँ तरह तरह के सार्थक पाठान्तरों में से जो जो पाठान्तर अत्यन्त काव्यत्वपूर्ण या चमत्कृतिपूर्ण अर्थ देनेवाला हो, और कवि या ग्रन्थकार की शैली के अनुरूप हो, ऐसे पाठान्तरों का चयन करके भी पाठसम्पादन किया जा सकता है । इसको भी ‘संदोहन पद्धति’ से ( Eclectic principle ) किया हुआ पाठसम्पादन कहा जाता है ।।
परन्तु गुणवत्ता के आधार पर जो पाठ का चयन होता है उसमें सम्पादक की रुचि- अरुचि भी प्रतिबिम्बित होती है । अर्थात् ऐसा पाठसम्पादन आत्मलक्षिता( subjectivity) से भरा होगा । इस प्रकार के सम्पादन में यह सब से बडा दोष अन्तर्गभित रहता है । तथा एक दूसरी मर्यादा यह भी रहती है कि प्रस्तुत कृति कि कितनी पाठपरम्परायें
( वाचनायें – recencions - ) प्रवर्तमान है, या कौन सी पाठपरम्परा प्राचीनतर है या प्राचीनतम है ? –यह भी हम नहीं जान सकते है ।
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नीलकण्ठ ने जब महाभारत पर ‘ भारतभावदीप ’ नामक टीका लिखी है, तब देश के विभिन्न प्रान्तों से अनेकानेक पाण्डुलिपियाँ एकत्र की गई थी । और उनमें से जहाँ जो भी उत्तम ( अग्रगण्य ) पाठान्तर मिले, उसका चयन करके ( एक तरह से गुणोपसंहार-न्याय से पेहेले पाठसम्पादन करके, बाद में ) उस पर टीका लिखी गई थी ।+ ऐसे संदोहन पद्धति वाले ( Eclectic text-editing ) पाठसम्पादन में भी पाठान्तरों की गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाता है । परन्तु उपलब्ध पाण्डुलिपियों में से प्राचीनतर या प्राचीनतम पाठ्यांश की शोध की ओर ध्यान नहीं होता है । जो कृति का पाठ शताब्दीयों से संचरित होता रहा है, उसकी पाठपरम्परायें कितने प्रकार की है, तथा प्राचीनतर पाठ्यांश कौन सा है ? – यह ‘इदं प्रथमतया’ गवेषणीय होता है ।
‘कृत-साहित्य’ की कोई कृति का पाठ यदि सन्दोहन पद्धति से सम्पादित किया जायेगा तो उसमें निश्चित ही आत्मलक्षिता प्रविष्ट होती है, और इसी कारण से ऐसा पाठसम्पादन सर्वस्वीकार्य भी नहीं बनता है । इसी तरह से ‘श्रुत-साहित्य’ का पाठ भी यदि सन्दोहन पद्धति से सम्पादित किया जायेगा, तो वहाँ भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश-बुद्धि कार्यरत होगी । तथा प्राचीनतर या प्राचीनतम पाठपरम्पराओं का भी ज्ञान कदापि नहीं होगा । संक्षेप में कहे तो यह दूसरी पद्धतिवाले (Eclectic text-editing) पाठसम्पादन में अनेक भयस्थान दिखाई दे रहे है ।।
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( ग ) वंशवृक्ष पद्धतिवाला पाठसम्पादन ( Stemma tic Text-editing )
युरोपीय देशों में, प्रशिष्ट कृतियों के पाठसम्पादन के लिये जो विभिन्न विधायें विकसित हुई है, उसमें एक तीसरा प्रकार हैः- वंशवृक्ष पद्धतिवाला ( Stemma tic Text-editing ) पाठसम्पादन । यह पद्धति सारे संसार में बहुत प्रचलित हुई है । इस पद्धति में 1. अनुसन्धान (Heuristics), 2. संशोधन ( Recensio ), 3. पाठसुधार एवं संस्करण
( Emendatio ) तथा 4. उच्चतर समीक्षा ( Higher Criticism ) – जैसे चतुर्विध सोपान होते है । यहाँ पेहेले सोपान पर विविध भण्डारों से उपलब्ध पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियाँ ( photo-copies ) एकत्रित की जाती है । तत्पश्चात् पसंद की गई प्रत्येक पाण्डुलिपि का पाठ ( = अशुद्धियाँ तथा पाठान्तरादि ) सन्तुलन-पत्रिकाओं ( collation-sheets ) में अंकित किया जाता है । तथा उनके आधार पर पाठान्तरों की तुलना करके, उपलब्ध पाण्डुलिपियों के पारस्परिक आनुवंशिक सम्बन्ध ढूँढे जाते है । अर्थात् पाण्डुलिपियों का एक तरह का वंशवृक्ष ( genealogical tree / pedigree / stemma codicum ) सोचा जाता है । ततः पाठ्यग्रन्थ की कितनी वाचनायें ( पाठपरम्परायें ) प्रवर्तमान है ? – यह निश्चित किया जाता है । और, अन्त में विभिन्न वाचनाओं में से कौन सी वाचना में प्राचीनतर या -------------------------------------------------------
+ बहून् समाहृत्य विभिन्नदेश्यान् कोशान्, विनिश्चित्य तु पाठमग्र्यम् ।
प्राचां गुरूणाम् अनुसृत्य वाचमारभ्यते भारतभावदीपः ।।( महाभारतम्, आदिपर्वन् 1-1)
प्राचीनतम पाठ्यांश ( आर्ष या लघुपाठ के रूप में ) संचरित हुआ है ? यह तय किया जाता है । ऐसे प्राचीनतम पाठ को अधिक श्रद्धेय मान कर, उसके आधार पर पाठसम्पादन किया जाता है । तथा अस्वीकार्य पाठान्तरों को पादटिप्पणी में निर्दिष्ट भी किये जाते है । और प्रस्तावना में पसंद की गई पाण्डुलिपियों का विवरण दिया जाता है । परिशिष्टों में अमान्य किये गये प्रक्षिप्तांश को रखे जाते है । इस तरह से किये गये पाठसम्पादन को ‘समीक्षित पाठसम्पादन’ ( Critically edited text ) कहा जाता है ।
यहाँ पर प्रथम तीन सोपान में जो कार्यविधि की जाती है उसे ‘निम्न-स्तरीय पाठालोचन’( Lower Criticism ) कहते है । तत्पश्चात् चतुर्थ सोपान के रूप में ‘उच्च-स्तरीय पाठालोचन’( Higher Criticism ) का कार्य करना होता है ।।

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सन्दोहन पद्धतिवाले पाठसम्पादन की अपेक्षा से, यह तीसरे प्रकार का – वंशवृक्ष-पद्धतिवाला – पाठसम्पादन अधिक विश्वसनीय है । क्योंकि इस पद्धति से जो सम्पादन तैयार होता है, उसमें काफी हद तक वस्तुलक्षिता ( objectivity ) बनी रहती है । तथा अभीष्ट कृति की पाठपरम्पराओं के भेदोपभेद जान कर, उसमें कौनसा अंश प्राचीनतर या प्राचीनतम है? – यह भी निश्चित किया जाता है । अतः एकाधिक पाण्डुलिपियों वाले
‘ प्रोक्त ’,‘ कृत ’तथा ‘ श्रुत ’प्रकार के साहित्य कृति के लिये यह तीसरी वंशवृक्ष पद्धतिवाला पाठसम्पादन अधिकतर सफल होनेवाला दिखाई दे रहा है ।।
यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि दूसरी सन्दोहन-पद्धति कहाँ प्रयुक्त होगी या कहाँ पर उपयुक्त होगी ?। इसका उत्तर है कि वंशवृक्ष पद्धतिवाले पाठसम्पादन की जो लम्बी प्रक्रिया है, उसके अन्तर्गत (ही) हम इस सन्दोहन पद्धति का विनियोग कर सकते है । जैसा कि - वंशवृक्ष पद्धति का अनुसरण करके जब ‘प्रोक्त’प्रकार ’ की कोई कृति की पाण्डुलिपियों का पेहेले पारस्परिक आनुवंशिक सम्बन्ध प्रस्थापित किये जाते है, तब
‘प्राचीनतर’ या ‘बहुसङ्ख्यक-पाण्डुलिपियों’ के (बहुमान्य)पाठ का सन्दोहन ही किया जाता है । ( तथा जो जो पाठभेद प्राचीनतर नहीं है, या बहुमान्यपाठ से विरुद्ध है – उसे अस्वीकार्य पाठ के रूप में पादटिप्पणी में रखे जाते है । )
‘प्रोक्त’प्रकार की साहित्यिक कृति में एक बात शुरू से ही साफ रहती है कि जो प्रोक्त-साहित्य है वह अनेककर्तृक होते है । अर्थात् वहाँ पर मूलभूत रूप से ही एक निश्चित पाठ कदापि नहीं होता है । अतःनिम्नस्तरीय पाठालोचन के दायरे में प्रोक्तग्रन्थ की पाण्डुलिपियों में से बहुमान्य या प्राचीनतर पाठ का सन्दोहन ही करना होता है । पाठसम्पादन का इतना कार्य हो जाने के बाद, जब उच्चस्तरीय पाठालोचना शुरू की जाती है तब – कौन से ऐतिहासिक घटनाचक्र के कारण कृति का अमुक पाठ्यांश बदला गया है इत्यादि सोचा जाता है । तथा विभिन्न काल खण्ड में ( विभिन्न कर्ताओं के द्वारा ) जो जो पाठ्यांश का प्रक्षेप या परिवर्तनादि हुआ होगा – ऐसा दिखाई देता है, उसका समय निर्धारित किया जाता है ।
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एककर्तृक ‘कृत’ प्रकार के साहित्य में वंशवृक्ष-पद्धति से पेहेले कृति का पाठ कितने प्रवाहों में विभक्त होता है – यह देख लिया जाता है । यहाँ पर भी प्राचीन से प्राचीनतर पाठ्यांश कौन हो सकता है, तथा प्राचीनतर से भी प्राचीनतम पाठ्यांश कौन हो सकता है – यह ढूँढने का प्रयास किया जाता है । तथापि इस ‘कृत’ प्रकार के साहित्य में, जहाँ कोई एक ही कर्ता / कवि निश्चित होता है उसमें हमारा लक्ष्य कोई एक ही निश्चित पाठ निर्धारित करने का रखना चाहिये । अतः वंशवृक्ष-पद्धति के द्वारा पाण्डुलिपियों में जो द्विविध पाठपरम्परायें दिखाई देती हो, उन दोनों की सम्मति लेकर, या ‘उच्चस्तरीय पाठालोचन’ का कोई तर्क या समर्थन प्रस्तुत करके, कोई एक ही पाठ निर्धारित करना चाहिये ।
तथा ‘श्रुत’प्रकार के साहित्य की कृति का पाठ-सम्पादन करने के लिये भी वंशवृक्ष-पद्धति की चलनी से यदि उपलब्ध पाठान्तरों को छांटा जायेगा तो प्राचीन से प्राचीनतर, और प्राचीनतर से भी प्राचीनतम पाठ सरलता से प्राप्त किया जा सकता है । तदनन्तर ही बुद्धवाणी एवं महावीरवाणी के पाठ का पुनर्गठन ( reconstruction ) करना होगा । यहाँ पर पाठसम्पादन के साथ साथ पाठ का पुनर्गठन भी लक्ष्य रूप में अवस्थित है ।।
उपसंहारः-

भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य विपुल होने के साथ साथ बहुविध भी है । इन्हीं में भारतीय अस्मि-ता छीपी हुई है । अतः वह हमारी विरासत भी है । उसकी सुरक्षा में हमारा भविष्य है । इसलिये पाण्डुलिपियों की सुरक्षा करना हमारा एक कर्तव्य भी है। तथैव, इन पाण्डुलिपियों में निहित ज्ञान-सम्पदा का हमे पूरा लाभ उठाने चाहिये । लेकिन उसके लिये, इनमें जो पाठ ( Text ) शताब्दीओं से संचरित हो कर हम तक पहुँचा है उसका सम्यक् रूप से सम्पादन करना जरूरी है ।
प्रस्तुत आलेख में समीक्षित पाठसम्पादन के त्रिविध मार्ग की चर्चा करके, भारतीय सन्दर्भ में इनकी उपयुक्तता बताने का प्रयास किया गया है । अभी तक इस दिशा के जो पुस्तक या शोध-आलेख देखने को मिले है उसमें युरोपीय देशों के सिद्धान्तों का शुक-पाठ होता रहा है । परन्तु भारतीय सन्दर्भ को शायद किसीने पूरा ध्यान में नहीं लिया है । अतः यहाँ पर, संस्कृत-पालि-प्राकृत भाषा की विभिन्न कृतियों की पञ्चविध
पाठ, तथा पाठसंचरण की बहुविधता, पाठ के कर्तृत्व की अनेकरूपता इत्यादि का प्रथम बार निरूपण किया गया है । तथा किस तरह के साहित्य के लिये कौन सी पाठसम्पादन पद्धति तर्कशुद्ध एवं अधिक फलदायी होगी इसकी उपस्थापना की गई है ।।



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पाठसम्पादन की विधायें
और
सिद्धान्तों की सन्दर्भानुसारी प्रस्तुतता – एक पुनःपरामर्शन
वसन्तकुमार म. भट्ट
निदेशक, भाषासाहित्यभवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद – 380 009
bhattvasant@yahoo.co.in
भूमिकाः- आधुनिक विश्व में यान्त्रिक मुद्रणकला का आविष्कार सार्धशताब्दी-पूर्व ही हुआ था । उससे पेहेले तो मानवी अपने हाथ से ही, भूतकाल में लिखे गये ग्रन्थों का ताडपत्र या भूर्जपत्रादि पर पुनर्लेखन करता आया था । अतः प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों के द्वारा लिखे गये ज्ञान-विज्ञान के जो ग्रन्थ आज हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में उपलब्ध होते है, वह बारबार प्रतिलिपिकरण की प्रकिया से गुजरते हुये हम तक पहुँचे हैं । परन्तु मानवकृत प्रतिलिपिकरण के द्वारा पीढी दर पीढी संचरित होनेवाले इन ग्रन्थों का पाठ
( Text ) आकस्मिक कारणों से नष्ट-भ्रष्ट होता रहा है । तथा ये सभी पाठ पुनर्लेखन के दौरान भी लिपिकारों के हाथ से अनजान में और कभी कभी जानबुझ कर भी, अपने मूल रूप से विचलित किये गये है । अतः पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहे इन ग्रन्थों का पाठ आज कैसे सम्पादित किया जाय – यह विचारणीय है । यह प्रश्न केवल भारतीय ग्रन्थों के लिये ही नहीं है, यह बाईबल आदि जैसे अन्य धार्मिक ग्रन्थों के लिये भी है । युरोपीय देशों में प्राचीन काल की कृतियों का पाठसम्पादन करने के लिये बहुत चर्चायें हुई है । और हमारे वहाँ विदेशी-शासन करीब दो सो वर्ष रहा था, इसके कारण इन चर्चाओं का प्रभाव भी हमारे वहाँ होना अवश्यंभावी था ।।

प्रशिष्ट साहित्य की कृतियों की पाठालोचना और पाठसम्पादन में युरोपीय विद्वानोंने जो मार्ग प्रशस्त किया था, उसी मार्ग पर चल कर हमारे देश के विद्वानोंने “ महाभारत” तथा “रामायण” जैसे अतिप्राचीन काल के दो आर्ष महाकाव्यों (epics) का समीक्षित पाठसम्पादन ( Critical Text-editing ) किया है । समीक्षित पाठसम्पादन के निदर्श रूप ये दो महनीय कार्य आज तक हमारे लिये पथदर्शक रहे है । लेकिन भारत के प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य का वैविध्यपूर्ण व्याप इतना बडा है कि पाठसम्पादन की इस पद्धति का सर्वत्र एकसमान अनुगमन करना युक्तियुक्त नहीं लगता । लेकिन यह पद्धति केवल विदेशी होने के कारण ही त्याज्य है – ऐसा भी कहने का आशय नहीं है । क्योंकि जो भी पद्धति हो वह यदि तर्कनिष्ठ ( युक्तिसंगत ) हो तो अवश्य ग्राह्य बन सकती है । लेकिन युरोपीय पाठसम्पादन के इन विभिन्न सिद्धान्तों का भारतीय सन्दर्भ में कहाँ, कैसे विनियोग किया जाना चाहिये – इस का एक पुनःपरामर्शन यहाँ प्रस्तुत किया जाता है ।।
सब से प्रथम, प्राचीन भारतीय कृतियों के पाठ (Text) कितने प्रकार के है ? उसके पाठसंचरण का क्या इतिहास रहा है ?। इन सब का यथासम्भव विश्वतोमुखी विचार करना होगा । क्योंकि हमारे वहाँ साहित्यभेद से पाठ के स्वरूप का भेद है । पाठ-स्वरूप में भेद होने के साथ साथ पाठ-कर्तृता का भेद भी ध्यानास्पद है । और उसके साथ साथ पाठसंचरण की विभिन्न विधाओं ने भी पाठविकृति की भिन्न-भिन्न समस्याओं को जन्म दिया है । इन सब बिन्दुओं के साथ, पीढी दर पीढी संचरित हुये पाठ के अभिसाक्ष्यों
( witness ) की सङ्ख्या के भेद से भी, उनकी पाठसम्पादन-विधा में भेद करना अनिवार्य हो गया है ।
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डो. एस. एम. कत्रेजी ने पाठों के तीन प्रकार बताये है+। 1.मूलग्रन्थकार का स्वहस्तलेख, 2.स्वहस्तलेख की तुरन्त की प्रतिलिपि, या 3.प्रतिलिपि की प्रतिलिपि की ....प्रतिलिपि की प्रतिलिपि..और उसकी भी प्रतिलिपि । परन्तु इसको हम पाठ के प्रकार नहीं कहेंगे., यह तो उपलब्ध पाठों के अभिसाक्ष्यों ( witness ) के भेद है । वस्तुतः भारतीय सन्दर्भ में सोचा जाय तो हमारे वहाँ पाँच प्रकार के संचरित-पाठ विद्यमान है ।
जैसा कि –
(1) दृष्टसाहित्यः- भारतीय मान्यता के अनुसार वेदों अपौरुषेय है., ऋषिमुनियों को वेदमन्त्रों का दर्शन हुआ था । अर्थात् भारत में एक ऐसा साहित्य है कि जिसका कोई कर्ता ही नहीं है और इसी लिये जिसका कोई स्वहस्तलेख भी कदापि नहीं था । क्योंकि वेदसाहित्य एक अकर्तृक-रचना है । ( वेदसाहित्य में मन्त्रसंहिताओं को छोड कर जो उपनिषद् है, उसका पाठ विवादाग्रस्त है ।)
(2) उत्कीर्णसाहित्यः- सम्राट् अशोक(ईसा पूर्व 283) से आरम्भ करके 18 शती पर्यन्त के शैललेख,शिलालेख,स्तम्भलेख और ताम्रलेख पर ( ब्राह्मीलिपि या देवनागरी-आदि लिपि में उत्कीर्ण ) जो पाठ पढने को मिलता है – वे सभी का पाठालोचन करके उसका समुचित पाठसम्पादन करना आवश्यक है । क्योंकि ऐसे उत्कीर्ण पाठों में भी कालान्तर में पैदा हुई अनेक विकृतियाँ दिखाई दे रही है । पर्वत या चट्टाने पर उत्कीर्ण किये गये इन लेखों का पाठ स्वहस्तलेख की तुरन्त की प्रतिलिपि कहे जाते है । क्योंकि ऐसे लेख को खुदवाने के बाद राजाओं के मन्त्रीलोग उस की पुनःपरीक्षा भी कर लेते थे । वेदों का मन्त्रपाठ और उत्कीर्ण लेखों का पाठसंचरण नियन्त्रित रूप से होता रहा है – यह सर्वस्वीकार्य हकीकत है ।।
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+ Now texts may be either autographs, or immediate copies of autographs, or copies of
copies , and this in any degree. – Chapter 2, Kinds of Texts., Introduction to
Indian Textual Criticism, Pune, 1954, S.M. Katre, ( p.19 )


(3) प्रोक्त-साहित्यः- रामायण, महाभारत एवं अष्टादश पुराणों का पाठ प्रोक्तसाहित्य के नाम से जानना चाहिये । क्योंकि इन कृतियों का पाठ आदिकाल से ही कथा-कीर्तन के अर्थात् प्रवचन के माध्यम से प्रवाहित होता रहा है । ऐसी कृति के प्रत्येक पारायण के दौरान अनेक कथाकारों के द्वारा उसमें बहुविध परिवर्तन एवं प्रक्षेपादि भी होते रहे है । परिणाम स्वरूप उसमें मूल पाठ यथावत् रहा ही नहीं है ।- ऐसा पाठ “ अनेककर्तृकपाठ ” कहा जाता है ।
(4) कृत-साहित्यः- कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति आदि कवियों., भामह, दण्डी, वामन, आनन्दवर्धन, मम्मट , शङ्कराचार्यादि शास्त्रकारों., तथा उनके अनेक टीकाकारों के द्वारा जो काव्य, नाटक, शास्त्रादि का प्रणयन हुआ है, वह ‘कृत-साहित्य’ कहना चाहिये । ऐसी कृतियों की पुष्पिका में लिखा होता है कि “ इति कालिदासकृतं अभिज्ञानशाकुन्तलं नाम नाटकं समाप्तम् ”। यहाँ पर कोई एक ही निश्चित कर्ता होता है । इसलिये ये कृत-साहित्य के पाठ को हम “ एककर्तृक रचना ” कहेंगे ।।
यहाँ पर प्रोक्त एवं कृतसाहित्य का पाठ हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में ही बहुशः संचरित हुआ है और सुरक्षित रहा है । लेखकों( लिपिकारों) के द्वारा बारबार उसका ( देश की विभिन्न लिपियों में) प्रतिलिपिकरण होने के कारण,( तथा मूल कवि या शास्त्रकार के दिवंगत हो जाने के कारण) इस के पाठ की मौलिकता की सुरक्षा नहीं हुई है । अतः ऐसे पाठों का संचरण अनियन्त्रित रूप से हुआ है ।। ( मध्यकालीन संतसाहित्य के रचयिता तुलसी, कबीर, मीराबाई, नरसिंह महेता, तुकाराम,ज्ञानेश्वरादि के पदों का पाठ भी अनियन्त्रित रूप से, पाण्डुलिपियों में एवं मौखिक रूप में संचरित होता रहा है । )
(5) श्रुत-साहित्यः- भगवान् बुद्ध एवं महावीर ने जो भी धर्मोपदेश दिया था वह आमप्रजा के बीच में जा कर दिया था । उन्हों ने कभी भी अपने धर्मोपदेश को हाथ से लिखा नहीं था । बुद्ध तथा महावीर के प्रत्यक्ष शिष्यों ने उसे सुन कर स्मृतिस्थ रखा था और पीढी दर पीढी संचरित किया है । अतः बुद्ध एवं महावीर की वाणी को “ श्रुत-साहित्य ” कहेंगे । लेकिन इस साहित्य का पाठसंचरण उभयात्मक था । क्योंकि बुद्ध-परिनिर्वाण के बाद बौद्धसाधुओं ने तीन-चार “ संगीतियों ” में एकत्रित हो कर अपने अपने स्मृतिस्थ बुद्धवचनों की परीक्षा कर ली थी । अशोक ने तो जिन बौद्धसाधुओं को बुद्धवाणी सही रूप में याद नहीं थी, इन सब को संघ से बहार नीकाल दिये थे । महावीर के परिनिर्वाण के बाद जैन साधुभगवन्तों ने भी ऐसे सम्मेलन बुलाये थे, और अपने अपने स्मृतिस्थ ज्ञान की परीक्षा कर ली थी । यानें इन दोनों परम्पराओं में कुछ शताब्दीयों तक तो श्रुतज्ञान नियन्त्रित रूप से संचरित हुआ था । परन्तु बाद में यह परम्परा अक्षुण्ण नहीं रही., और बुद्ध एवं महावीर के वचनों को भी लिपिबद्ध ( ग्रन्थस्थ ) कर लिये गये । अतः उसकी भी प्रतिलिपियाँ बनाना शुरू हुआ, परिणाम स्वरूप उसमें भी पाठविचलन होना शुरू हो गया ।
इस तरह से, भारतीय सन्दर्भ में देखा जाय तो- 1. दृष्टसाहित्य,2. उत्कीर्णसाहित्य, 3.प्रोक्तसाहित्य, 4.कृतसाहित्य तथा 5.श्रुतसाहित्य – ऐसे पाँच प्रकार का पाठ ( Text ) हमारे सामने विद्यमान है । इन पाँचों तरह के साहित्य का पाठ अलग अलग रूप से पीढी दर पीढी ( तथा नियन्त्रित-अनियन्त्रित रूप से ) संचरित होता रहा है । अब ध्यातव्य है कि पाठसंचरण का स्वरूप भिन्न भिन्न होने के कारण इन में प्रविष्ट होनेवाली अशुद्धियाँ – विकृतियाँ का स्वरूप भी भिन्न भिन्न है । और अतिप्राचीन काल की पाण्डुलिपियाँ भी मिलती ही नहीं है । आज उपलब्ध होनेवाली पाण्डुलिपियों का समय भी तीन सो या चार सो साल से अधिक पुराना नहीं है । अतः ऐसी स्थिति में, अर्थात् समस्याभेद के सन्दर्भ में पाठसम्पादन के उपायभेद सोचना चाहिये ।।

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प्रशिष्ट भारतीय ( संस्कृत – पालि – प्राकृत ) भाषाओं में विद्यमान विपुल साहित्य का पाठ, जो अद्यावधि पाण्डुलिपियों में प्रवहमान हुआ है और इसलिये वह अपने मूल रूप से विचलित भी हो गया है, उसका “ समीक्षित पाठसम्पादन ”(Critical text-editing) किस तरह से किया जाय तो अधिक फलदायी होगा ?।– यह विचारणीय है । पश्चिमी देशों में जो विचारधारायें विकसित हुई है उनमें से प्रशिष्ट कृतियों के पाठसम्पादन के लिये तीन मार्ग उद्भावित किये गये हैः-

( क ) प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादन ( Copy-text editing )
( ख ) संदोहन पद्धति से पाठसम्पादन ( Eclectic text-editing )
( ग ) वंशवृक्ष पद्धति से पाठसम्पादन ( Stemma tic text-editing )

(क) प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादनः- ( Copy-text editing )
किसी भी कृति का ‘ पाठ ’ 1. केवल एक ही पाण्डुलिपि में उपलब्ध होता हो, या 2. कोई लेख शिला, पर्वत, स्तम्भ, या ताम्रपत्र पर उत्कीर्ण हो., अथवा 3. कोई ग्रन्थकार का स्वहस्तलेख कहीं से उपलब्ध होता हो तो उपर्युक्त प्रथम प्रकार का “ प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादन ” करना चाहिये । यहाँ पर ‘ पाठ ’ के जो अवाच्यांश या त्रुटितांश होते है, उसका पाठ कैसे पुनःप्रतिष्ठित किया जाय ? यह चर्चा का विषय होता है । जो रूढिवादी पाठसम्पादक होते है वे उपलब्ध पाठ के त्रुटितांश को (.......) बिन्दुओं की लकीर से यथावत् रखने के पक्ष में होते है । दूसरे जो उदारतावादी पाठसम्पादक होते है वे असम्बद्ध या दुर्बोध या त्रुटित पाठ्यांश को असह्य मानते है । अतः वे ‘पूर्वापर सन्दर्भ में जो अनुकूल प्रतीत हो ऐसे नवीन शब्दों से पाठ का पुनर्गठन कर लेना चाहिये’ ऐसा सुझाव देते है । अर्थात् उदारतावादी पाठसम्पादक पाठसुधार को तथा पाठ के पुनर्गठन को पेहेले महत्त्व देते है । उसके विरुद्ध जो रूढिवादी पाठसम्पादक होते है वे परम्परागत पाठ को यथावत् रख कर ‘ स्थितस्य गतिश्चिन्तनीया ’ के सिद्धान्त पर, उपलब्ध असम्बद्ध पाठ्यांश के अर्थघटन को पेहेले महत्त्व देते है । नाट्यशास्त्र की अभिनवभारती टीका का पाठ सम्पादित करते समय श्रद्धेय आचार्य श्रीविश्वेश्वरजी ने त्रुटित पाठों के पुनर्गठन को प्राधान्य दिया है और स्वकल्पित नवीन शब्दों का उपनिवेश करके वाक्यपूर्ति की है और प्रकरणसंगति बीठाई है । - यह उदारतावादी पाठसम्पादन है । यहाँ पर ध्यातव्य बिन्दु यह है कि ‘ प्रतिलेखन पद्धति ’ ( Copy text-editing ) के पाठसम्पादन में केवल एक ही पाण्डुलिपि में सुरक्षित रहे पाठ का सम्पादन करने की बात का समावेश होता है ।।

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कदाचित् ऐसा भी होता है कि किसी कृति की शताधिक पाण्डुलिपियाँ विद्यमान होते हुये भी, कोई सम्पादक केवल एक ही पाण्डुलिपि ( जो सरलता से, अनायास मिल गई हो उस)के आधार पर उसे पढके प्रतिलेखन के तौर पर उसका प्रकाशन कर देता है तो वह भी ‘ प्रतिलेखन पद्धति ’ ( Copy text-editing ) प्रकार का पाठसम्पादन कहा जायेगा । आलस्य के कारण या प्रसिद्धि के मोह में, उपलब्ध अन्य पाण्डुलिपियों को देखे बिना जब कोई पाठसम्पादन कर देता है तो उसे अनालोचनात्मक पाठसम्पादन कहा जायेगा ।।
अब, उपलब्ध अनेक पाण्डुलिपियों को देखे बिना केवल एक ही पाण्डुलिपि के आधार पर जो सम्पादन किया जाता है उसको ‘अनालोचनात्मक पाठसम्पादन’ ( Uncritical text-editing ) के नाम का कलङ्क लग जाता है । अतः दूसरे सम्पादक लोग इस कलङ्क से बचने के लिये, केवल एक प्राचीनतम पाण्डुलिपि ( Oldest manuscript school ) को आधार बनाके पाठसम्पादन करते है., या उपलब्ध अनेक पाण्डुलिपियों में से जो एक ‘उत्तम पाण्डुलिपि’ ( Best manuscript school ) होती है उसको ( अथवा किसी के द्वारा प्राचीन काल में ही परीक्षित हो ऐसी पाण्डुलिपि को ) आधार बनाके पाठसम्पादन करते है । इस दृष्टि से जो पाठसम्पादन किया जाता है उस में वस्तुलक्षिता ( objectivity ) जरूर है । लेकिन पाठ की सच्चाई का प्रमाण केवल प्राचीनता या उत्तमता नहीं होती है । और ‘उत्तम’ या ‘प्राचीनतम’ पाण्डुलिपि के आधार पर पाठसम्पादन करने का यह उपक्रम तभी मान्य हो सकता है कि जब उपलब्ध अनेक पाण्डुलिपियों में केवल “अनुलेखनीय सम्भावना” वाली ही अशुद्धियाँ हो ।
अतः शताधिक पाण्डुलिपियाँ मिलने पर भी केवल उत्तमता या प्राचीनतमता के आधार पर प्रतिलेखन पद्धति से पाठसम्पादन करने में दोष भी है, और उसमें मर्यादा भी है ।। - यह बात देख कर, नये प्रकार का पाठसम्पादन सोचा गया है ।।
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( ख ) संदोहन पद्धति से पाठसम्पादनः ( Eclectic text-editing )

पाठसम्पादन के क्षेत्र में एक दूसरा दृष्टिकोण भी विचारणीय है । न प्राचीनतम, और न उत्तम पाण्डुलिपि का शरण लेना.,क्योंकि यह मार्ग तो जब ( उपलब्ध होनेवाली अनेक पाण्डुलिपियों में ) केवल “अनुलेखनीय सम्भावना” वाली ही अशुद्धियाँ हो तब औचित्य रखता है । लेकिन जब (1) उपलब्ध शताधिक पाण्डुलिपियों में सार्थक पाठान्तर होते है तब पाठसम्पादन की एक ‘संदोहन पद्धति’ अधिक औचित्यपूर्ण लगती है । इस पद्धति में जो पाठ बहुसङ्ख्य पाण्डुलिपियों ( Majority of manuscripts ) में संचरित हुआ है – ऐसा देखा जाता है उस पाठ का चयन किया जाता है । और जो जो पाठ्यांश अल्पसङ्ख्यक पाण्डुलिपियों में ही संचरित हुआ दिखाई देता हो, उसको अस्वीकार्य माना जाता है । इस दृष्टि से जो पाठसम्पादन किया जाता है उस में जरूर वस्तुलक्षिता ( objectivity ) है – ऐसा कहना पडेगा । लेकिन यहाँ पर बहुसङ्ख्य पाण्डुलिपियों में मिलनेवाला पाठ ‘अर्वाचीन काल का है या प्राचीन काल का है’? – यह हम किसी भी तरह से नहीं जान सकेंगे । (2) इस संदोहन पद्धति के पाठसम्पादन में कभी कभी पाण्डुलिपियों की सङ्ख्या को नहीं, परन्तु जहाँ जहाँ से गुणवत्ता सभर पाठान्तर मिलते हो उसका चयन किया जा सकता है । यहाँ तरह तरह के सार्थक पाठान्तरों में से जो जो पाठान्तर अत्यन्त काव्यत्वपूर्ण या चमत्कृतिपूर्ण अर्थ देनेवाला हो, और कवि या ग्रन्थकार की शैली के अनुरूप हो, ऐसे पाठान्तरों का चयन करके भी पाठसम्पादन किया जा सकता है । इसको भी ‘संदोहन पद्धति’ से ( Eclectic principle ) किया हुआ पाठसम्पादन कहा जाता है ।।
परन्तु गुणवत्ता के आधार पर जो पाठ का चयन होता है उसमें सम्पादक की रुचि- अरुचि भी प्रतिबिम्बित होती है । अर्थात् ऐसा पाठसम्पादन आत्मलक्षिता( subjectivity) से भरा होगा । इस प्रकार के सम्पादन में यह सब से बडा दोष अन्तर्गभित रहता है । तथा एक दूसरी मर्यादा यह भी रहती है कि प्रस्तुत कृति कि कितनी पाठपरम्परायें
( वाचनायें – recencions - ) प्रवर्तमान है, या कौन सी पाठपरम्परा प्राचीनतर है या प्राचीनतम है ? –यह भी हम नहीं जान सकते है ।
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नीलकण्ठ ने जब महाभारत पर ‘ भारतभावदीप ’ नामक टीका लिखी है, तब देश के विभिन्न प्रान्तों से अनेकानेक पाण्डुलिपियाँ एकत्र की गई थी । और उनमें से जहाँ जो भी उत्तम ( अग्रगण्य ) पाठान्तर मिले, उसका चयन करके ( एक तरह से गुणोपसंहार-न्याय से पेहेले पाठसम्पादन करके, बाद में ) उस पर टीका लिखी गई थी ।+ ऐसे संदोहन पद्धति वाले ( Eclectic text-editing ) पाठसम्पादन में भी पाठान्तरों की गुणवत्ता पर ध्यान दिया जाता है । परन्तु उपलब्ध पाण्डुलिपियों में से प्राचीनतर या प्राचीनतम पाठ्यांश की शोध की ओर ध्यान नहीं होता है । जो कृति का पाठ शताब्दीयों से संचरित होता रहा है, उसकी पाठपरम्परायें कितने प्रकार की है, तथा प्राचीनतर पाठ्यांश कौन सा है ? – यह ‘इदं प्रथमतया’ गवेषणीय होता है ।
‘कृत-साहित्य’ की कोई कृति का पाठ यदि सन्दोहन पद्धति से सम्पादित किया जायेगा तो उसमें निश्चित ही आत्मलक्षिता प्रविष्ट होती है, और इसी कारण से ऐसा पाठसम्पादन सर्वस्वीकार्य भी नहीं बनता है । इसी तरह से ‘श्रुत-साहित्य’ का पाठ भी यदि सन्दोहन पद्धति से सम्पादित किया जायेगा, तो वहाँ भी साम्प्रदायिक अभिनिवेश-बुद्धि कार्यरत होगी । तथा प्राचीनतर या प्राचीनतम पाठपरम्पराओं का भी ज्ञान कदापि नहीं होगा । संक्षेप में कहे तो यह दूसरी पद्धतिवाले (Eclectic text-editing) पाठसम्पादन में अनेक भयस्थान दिखाई दे रहे है ।।
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( ग ) वंशवृक्ष पद्धतिवाला पाठसम्पादन ( Stemma tic Text-editing )
युरोपीय देशों में, प्रशिष्ट कृतियों के पाठसम्पादन के लिये जो विभिन्न विधायें विकसित हुई है, उसमें एक तीसरा प्रकार हैः- वंशवृक्ष पद्धतिवाला ( Stemma tic Text-editing ) पाठसम्पादन । यह पद्धति सारे संसार में बहुत प्रचलित हुई है । इस पद्धति में 1. अनुसन्धान (Heuristics), 2. संशोधन ( Recensio ), 3. पाठसुधार एवं संस्करण
( Emendatio ) तथा 4. उच्चतर समीक्षा ( Higher Criticism ) – जैसे चतुर्विध सोपान होते है । यहाँ पेहेले सोपान पर विविध भण्डारों से उपलब्ध पाण्डुलिपियों की प्रतिलिपियाँ ( photo-copies ) एकत्रित की जाती है । तत्पश्चात् पसंद की गई प्रत्येक पाण्डुलिपि का पाठ ( = अशुद्धियाँ तथा पाठान्तरादि ) सन्तुलन-पत्रिकाओं ( collation-sheets ) में अंकित किया जाता है । तथा उनके आधार पर पाठान्तरों की तुलना करके, उपलब्ध पाण्डुलिपियों के पारस्परिक आनुवंशिक सम्बन्ध ढूँढे जाते है । अर्थात् पाण्डुलिपियों का एक तरह का वंशवृक्ष ( genealogical tree / pedigree / stemma codicum ) सोचा जाता है । ततः पाठ्यग्रन्थ की कितनी वाचनायें ( पाठपरम्परायें ) प्रवर्तमान है ? – यह निश्चित किया जाता है । और, अन्त में विभिन्न वाचनाओं में से कौन सी वाचना में प्राचीनतर या -------------------------------------------------------
+ बहून् समाहृत्य विभिन्नदेश्यान् कोशान्, विनिश्चित्य तु पाठमग्र्यम् ।
प्राचां गुरूणाम् अनुसृत्य वाचमारभ्यते भारतभावदीपः ।।( महाभारतम्, आदिपर्वन् 1-1)
प्राचीनतम पाठ्यांश ( आर्ष या लघुपाठ के रूप में ) संचरित हुआ है ? यह तय किया जाता है । ऐसे प्राचीनतम पाठ को अधिक श्रद्धेय मान कर, उसके आधार पर पाठसम्पादन किया जाता है । तथा अस्वीकार्य पाठान्तरों को पादटिप्पणी में निर्दिष्ट भी किये जाते है । और प्रस्तावना में पसंद की गई पाण्डुलिपियों का विवरण दिया जाता है । परिशिष्टों में अमान्य किये गये प्रक्षिप्तांश को रखे जाते है । इस तरह से किये गये पाठसम्पादन को ‘समीक्षित पाठसम्पादन’ ( Critically edited text ) कहा जाता है ।
यहाँ पर प्रथम तीन सोपान में जो कार्यविधि की जाती है उसे ‘निम्न-स्तरीय पाठालोचन’( Lower Criticism ) कहते है । तत्पश्चात् चतुर्थ सोपान के रूप में ‘उच्च-स्तरीय पाठालोचन’( Higher Criticism ) का कार्य करना होता है ।।

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सन्दोहन पद्धतिवाले पाठसम्पादन की अपेक्षा से, यह तीसरे प्रकार का – वंशवृक्ष-पद्धतिवाला – पाठसम्पादन अधिक विश्वसनीय है । क्योंकि इस पद्धति से जो सम्पादन तैयार होता है, उसमें काफी हद तक वस्तुलक्षिता ( objectivity ) बनी रहती है । तथा अभीष्ट कृति की पाठपरम्पराओं के भेदोपभेद जान कर, उसमें कौनसा अंश प्राचीनतर या प्राचीनतम है? – यह भी निश्चित किया जाता है । अतः एकाधिक पाण्डुलिपियों वाले
‘ प्रोक्त ’,‘ कृत ’तथा ‘ श्रुत ’प्रकार के साहित्य कृति के लिये यह तीसरी वंशवृक्ष पद्धतिवाला पाठसम्पादन अधिकतर सफल होनेवाला दिखाई दे रहा है ।।
यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि दूसरी सन्दोहन-पद्धति कहाँ प्रयुक्त होगी या कहाँ पर उपयुक्त होगी ?। इसका उत्तर है कि वंशवृक्ष पद्धतिवाले पाठसम्पादन की जो लम्बी प्रक्रिया है, उसके अन्तर्गत (ही) हम इस सन्दोहन पद्धति का विनियोग कर सकते है । जैसा कि - वंशवृक्ष पद्धति का अनुसरण करके जब ‘प्रोक्त’प्रकार ’ की कोई कृति की पाण्डुलिपियों का पेहेले पारस्परिक आनुवंशिक सम्बन्ध प्रस्थापित किये जाते है, तब
‘प्राचीनतर’ या ‘बहुसङ्ख्यक-पाण्डुलिपियों’ के (बहुमान्य)पाठ का सन्दोहन ही किया जाता है । ( तथा जो जो पाठभेद प्राचीनतर नहीं है, या बहुमान्यपाठ से विरुद्ध है – उसे अस्वीकार्य पाठ के रूप में पादटिप्पणी में रखे जाते है । )
‘प्रोक्त’प्रकार की साहित्यिक कृति में एक बात शुरू से ही साफ रहती है कि जो प्रोक्त-साहित्य है वह अनेककर्तृक होते है । अर्थात् वहाँ पर मूलभूत रूप से ही एक निश्चित पाठ कदापि नहीं होता है । अतःनिम्नस्तरीय पाठालोचन के दायरे में प्रोक्तग्रन्थ की पाण्डुलिपियों में से बहुमान्य या प्राचीनतर पाठ का सन्दोहन ही करना होता है । पाठसम्पादन का इतना कार्य हो जाने के बाद, जब उच्चस्तरीय पाठालोचना शुरू की जाती है तब – कौन से ऐतिहासिक घटनाचक्र के कारण कृति का अमुक पाठ्यांश बदला गया है इत्यादि सोचा जाता है । तथा विभिन्न काल खण्ड में ( विभिन्न कर्ताओं के द्वारा ) जो जो पाठ्यांश का प्रक्षेप या परिवर्तनादि हुआ होगा – ऐसा दिखाई देता है, उसका समय निर्धारित किया जाता है ।
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एककर्तृक ‘कृत’ प्रकार के साहित्य में वंशवृक्ष-पद्धति से पेहेले कृति का पाठ कितने प्रवाहों में विभक्त होता है – यह देख लिया जाता है । यहाँ पर भी प्राचीन से प्राचीनतर पाठ्यांश कौन हो सकता है, तथा प्राचीनतर से भी प्राचीनतम पाठ्यांश कौन हो सकता है – यह ढूँढने का प्रयास किया जाता है । तथापि इस ‘कृत’ प्रकार के साहित्य में, जहाँ कोई एक ही कर्ता / कवि निश्चित होता है उसमें हमारा लक्ष्य कोई एक ही निश्चित पाठ निर्धारित करने का रखना चाहिये । अतः वंशवृक्ष-पद्धति के द्वारा पाण्डुलिपियों में जो द्विविध पाठपरम्परायें दिखाई देती हो, उन दोनों की सम्मति लेकर, या ‘उच्चस्तरीय पाठालोचन’ का कोई तर्क या समर्थन प्रस्तुत करके, कोई एक ही पाठ निर्धारित करना चाहिये ।
तथा ‘श्रुत’प्रकार के साहित्य की कृति का पाठ-सम्पादन करने के लिये भी वंशवृक्ष-पद्धति की चलनी से यदि उपलब्ध पाठान्तरों को छांटा जायेगा तो प्राचीन से प्राचीनतर, और प्राचीनतर से भी प्राचीनतम पाठ सरलता से प्राप्त किया जा सकता है । तदनन्तर ही बुद्धवाणी एवं महावीरवाणी के पाठ का पुनर्गठन ( reconstruction ) करना होगा । यहाँ पर पाठसम्पादन के साथ साथ पाठ का पुनर्गठन भी लक्ष्य रूप में अवस्थित है ।।
उपसंहारः-

भारत का प्राचीन एवं मध्यकालीन साहित्य विपुल होने के साथ साथ बहुविध भी है । इन्हीं में भारतीय अस्मि-ता छीपी हुई है । अतः वह हमारी विरासत भी है । उसकी सुरक्षा में हमारा भविष्य है । इसलिये पाण्डुलिपियों की सुरक्षा करना हमारा एक कर्तव्य भी है। तथैव, इन पाण्डुलिपियों में निहित ज्ञान-सम्पदा का हमे पूरा लाभ उठाने चाहिये । लेकिन उसके लिये, इनमें जो पाठ ( Text ) शताब्दीओं से संचरित हो कर हम तक पहुँचा है उसका सम्यक् रूप से सम्पादन करना जरूरी है ।
प्रस्तुत आलेख में समीक्षित पाठसम्पादन के त्रिविध मार्ग की चर्चा करके, भारतीय सन्दर्भ में इनकी उपयुक्तता बताने का प्रयास किया गया है । अभी तक इस दिशा के जो पुस्तक या शोध-आलेख देखने को मिले है उसमें युरोपीय देशों के सिद्धान्तों का शुक-पाठ होता रहा है । परन्तु भारतीय सन्दर्भ को शायद किसीने पूरा ध्यान में नहीं लिया है । अतः यहाँ पर, संस्कृत-पालि-प्राकृत भाषा की विभिन्न कृतियों की पञ्चविध
पाठ, तथा पाठसंचरण की बहुविधता, पाठ के कर्तृत्व की अनेकरूपता इत्यादि का प्रथम बार निरूपण किया गया है । तथा किस तरह के साहित्य के लिये कौन सी पाठसम्पादन पद्धति तर्कशुद्ध एवं अधिक फलदायी होगी इसकी उपस्थापना की गई है ।।



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