शनिवार, 22 मार्च 2014

कुसुमशयना शकुन्तला - अभिज्ञानशाकुन्तल (अङ्क-3) के पाठविचलन का क्रम

कुसुमशयना शकुन्तला : अभिज्ञानशाकुन्तल ( अङ्क - 3 ) के पाठविचलन का क्रम वसन्तकुमार म. भट्ट निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद – 380 009 bhattvasant@yahoo.co.in ।। लेखस्यास्य सारसंक्षेपः ।। अभिज्ञानशाकुन्तले शीर्षकादारभ्य भरतवाक्यपर्यन्तं सर्वत्र पाठविचलनं वरीवर्तते । वर्तमाने जगति नाटकस्यास्य लघुपाठो बृहत्पाठश्च प्रकाशितौ दृश्येते । किन्तु अनयोः पाठयोर्मध्ये को वरेण्य अभिनेयो वेति विषये विप्रतिपत्तिः । अतः काश्मीरप्रदेशस्य शारदालिपिनिबद्धानां मातृकाणां साहाय्येन पाठविचलनस्य कीदृश्यानुक्रमिकता स्यादिति सप्रमाणमन्वेष्टुं यत्नो विहितः । येन च, तृतीयाङ्के प्रविष्टानामश्लीलपाठ्यांशानां परिचयपूर्वकं तेषां कथं प्रक्षिप्तत्वं सिद्ध्यतीति प्रदर्शितमत्र । ततः कुसुमशयनां शकुन्तलामधिकृत्य या रंगसूचनाः दरीदृश्यन्ते, तास्वपि यादृशी विसङ्गतिः प्रचलति, तस्या अवबोधः प्रदीयते । तदनन्तरं शारदापाठतः समारब्धायां पाठपरम्परायां केन क्रमेण मैथिलपाठे, ततश्च बंगीयपाठे नवीनानि प्रदूषणानि प्रविष्टानि तदप्यत्र विविक्तम् । अभिज्ञानशाकुन्तलस्य समीचीनं महिमानं प्रतिष्ठापयितुं तस्य बृहत्पाठस्य पर्यालोचनैवेदंप्रथमतया प्रवर्तनीयेति शोधलेखस्य विनम्रं निवेदनम् ।। भूमिकाः अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक के पाठ को लेकर सामान्य रूप से विद्वानों ने जो रवैया अपनाया है वह ऐसा है कि देवनागरी पाठ-परम्परा में संचरित हुआ पाठ, ( जिस पर राघवभट्ट ने अर्थद्योतनिका टीका लिखी है ) वही मौलिक पाठ है, ( या अधिक श्रद्धेय पाठ है ) । साथ में, इन विद्वानों ने ऐसा मान लिया है कि इस नाटक का जो बृहत्पाठ बंगाल या मिथिला में प्रचलित है वह अनेक प्रक्षेपों से भरा पडा पाठ है, और उसमें बहुत जगहों पर अश्लील पाठ्यांश भी आते हैं । ऐसा पाठ मौलिक नहीं हो सकता है, उसे सर्वथा त्याज्य पाठ ही मानना चाहिए । देवनागरी पाठ ( और बहुशः तदनुसारी दाक्षिणात्य पाठ ) के पक्षधर विद्वानों ने उपर्युक्त पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर बंगाल या मिथिला के बृहत्पाठ की ओर देखना भी छोड दिया है । जैसे छाछ और मख्खन को अलग कर लिया हो ! दूसरा बिन्दु : पूरे भारत वर्ष के विद्वानों के हाथ में जिन टीकाओं का प्रचार-प्रसार हुआ है वह ( देवनागरी पाठ पर लिखी गई ) राघवभट्ट की टीका, एवं ( दाक्षिणात्य पाठ पर लिखी गई ) काटयवेम, श्रीनिवास, अभिराम, घनश्याम, चर्चा, नीलकण्ठादि की टीकायें ( जिन सब का प्रणयन 15वीं शती में एवं उसके बाद हुआ है, ) ही हैं । अतः टीकाकारों के संसार में भी अभिज्ञानशाकुन्तल का लघुपाठ ही "मान्य पाठ" के रूप में प्रसिद्ध था । ( और उनमें से किसीने भी बृहत्पाठ की ओर दृष्टिपात किया हो उसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है । तीसरा बिन्दु यह भी है कि बृहत्पाठ परम्परा में ( बंगाली और मैथिली पाठ के अलावा ) एक तीसरा पाठ भी था, जो काश्मीर की शारदा पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहा है । लेकिन वह उनके सही स्वरूप में हमारे सामने सम्यक् रूप से अद्यावधि नहीं आया है । अतः शारदा लिपि में लिखी हुई चार पाण्डुलिपियाँ एकत्र की गई है । जिसके तुलनात्मक अभ्यास से कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ हाँसिल हुई है । तदनुसार अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक (अङ्क-3) के मूल पाठ में कैसे क्रमिक परिवर्तन होता रहा है ? उसका यहाँ प्रथमबार परामर्शन किया जा रहा है ।। [ 1 ] अभिज्ञानशाकुन्तल की पाठालोचना में मुख्य रूप से तीसरे अङ्क को लेकर ही बडा भारी विवाद है, अतः इदंप्रथमतया यदि इसको ही सुलझाया जाय तो कवि कालिदास के द्वारा प्रणीत जो मौलिक पाठ होगा उसकी गवेषणा का सही मार्ग प्रशस्त हो सकता है । डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी जी, (सागर) द्वारा सम्पादित "नाट्यम्" ( अंकः 71-74, पृ. 27 से 57, डिसे. 2012 ) पत्रिका में "अभिज्ञानशाकुन्तल की देवनागरी वाचना में संक्षेपीकरण के पदचिह्न" शीर्षक से हमारा जो शोध-आलेख प्रकाशित हुआ है, उसमें देवनागरी वाचना का पाठ संक्षिप्त किया गया है यह बात अनेक आन्तरिक प्रमाणों से सिद्ध की गई है । ( उक्त चर्चा का फलितार्थ यह भी होता है कि अभिज्ञानशाकुन्तल के द्विविध पाठों में से पुरोगामी पाठ के रूप में बृहत्पाठ ही रहा होगा, जिसमें कालान्तर में संक्षेप किया गया है । ऐसा नहीं है कि कवि कालिदास ने मूल में लघुपाठ ही लिखा था, और बाद में किसीने उसमें अन्यान्य श्लोकों का प्रक्षेप करके, उसको बृहत्पाठ में परिवर्तित किया है । ) अब दूसरा कर्तव्य यह भी है कि इस नाटक का बृहत्पाठ जो बंगाली, मैथिली एवं काश्मीरी वाचनाओं में सुरक्षित रहा है उसकी पाठालोचना की जाय । ऐसा लगता है कि बृहत्पाठ परम्परा में संचरित हुए पाठ की नितान्त उपेक्षा होने का मुख्य कारण उसमें दाखिल हुए एकाधिक अश्लील पाठ्यांश ही है । अतः ऐसे अंश प्रविष्ट होने का मूलगामी कारण क्या है ? और उसमें क्रमशः कैसे विकार दाखिल होते गये है ? इसकी खोज किये बिना, हम कदापि इस नाटक के पाठ की संशुद्धि नहीं कर पायेंगे ।। [ 2 ] बृहत्पाठ परम्परा की मौलिकता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले दो ही मुख्य बिन्दुयें हैं : 1. उसके तृतीयाङ्क में, जहाँ दुष्यन्त और शकुन्तला का गान्धर्व-विवाह निरूपित किया गया है, अनेक स्थानों पर अश्लील पाठ्यांश आते हैं । तथा 2. इस परम्परा में नाटक का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तल" है, "अभिज्ञानशाकुन्तल" नहीं है ।। इन दोनों का समुचित समाधान करने के लिए, कालिदास ने इस नाटक को लिखने की प्रेरणा जहाँ से प्राप्त की है उस महाभारत के उपाख्यान की कहानी की ओर एक दृष्टिपात करना आवश्यक होगा : महाभारत के आदिपर्वान्तर्गत शकुन्तलोपाख्यान में दुःषन्त और शकुन्तला का गान्धर्व विवाह वर्णित किया है । जिसमें मृगयाविहारी दुःषन्त के दृष्टिपथ में कण्व मुनि की पाल्या दुहिता शकुन्तला आती है और वह उसके सौन्दर्य से लुलोभित होता है । दुःषन्त शकुन्तला से सद्यो विवाह का प्रस्ताव रखता है । किन्तु शकुन्तला पिता कण्व की अनुमति मिलना आवश्यक बताती है । तब मालिनी नदी के तट पर फलाहार लेने गये पिता कण्व की कुछ समय के लिए प्रतीक्षा करने को भी दुःषन्त तैयार नहीं था । यहाँ दुःषन्त शकुन्तला को प्राप्त करने के लिए उतावला हो गया है ऐसा चित्र मिलता है । ऐसी कामुकता से भरी अस्वाभाविक विवाह-कहानी आगे चल कर दुरवस्था के गर्त में जाकर गिरती है । दुःषन्त के पुत्र भरत को लेकर शकुन्तला जब हस्तिनापुर में पहुँचती है तो दुःषन्त बिना कोई शाप ही उसे पहेचानने से इन्कार करता है । (सुकथंकर, 1933) शकुन्तला अकेली ही दुःषन्त से वाद-विवाद करती है । इत्यादि ।। महाभारत में वर्णित ऐसी अभद्र कहानी में, (क) भावनात्मक परिवर्तन ला कर विवाह से पूर्व एक नैसर्गिक प्रेमसहचार का हृद्य चित्र उपस्थापित करने के लिए, महाकवि कालिदास ने इस "अभिज्ञानशाकुन्तल" नामक नाटक लिखा है । यहाँ हिरण, गज, बालमृगेन्द्र, शिरीष, कमल, भ्रमर, चक्रवाक, हंस, मयूर, सहकार, केसरवृक्ष, नवमालिका, माधवीलता जैसे पशु, पक्षि, पुष्प, वृक्षादि जैसे नैसर्गिक प्रतीकों को पार्श्वभूमि में रख कर निसर्गकन्या शकुन्तला की प्रेमकहानी को सार्वभौम स्वरूप में प्रस्तुत की जाती है। तथा (ख) महाभारत में पुत्र भरत की पैतृक पहेचान जो आकाशवाणी से सिद्ध की जाती है, वह कृत्रिम प्रतीत होती है । अतः उसके स्थान में कालिदास ने इस नाटक में अभिज्ञान की समस्या निर्मूल करने के लिए अनेक प्रतीतिकर साक्ष्यों की उपस्थापना की है, तथा उसकी प्रस्तुति बड़े नाटकीय ढंग से की है । और इन्हीं कारणों से यह नाटक विश्वनाट्यसाहित्य की प्रथम पङ्क्ति में विराजमान बना है ।। अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक को लिखने के पूर्वोक्त दो मुख्य प्रेरक परिबल ध्यान में रख कर ही हम बृहत्पाठ की पाठालोचना में प्रवेश करेंगे । क्योंकि, महाभारत की उपर्युक्त कहानी में बदलाव लाने के लिए कालिदास ने मूल नाटक में तो नायक-नायिका के नैसर्गिक प्रेमसहचार का गरिमामय चित्र उपस्थित करने का सोचा होगा । किन्तु इस नाटक का जो देवनागरी पाठ आज सार्वत्रिक रूप से प्रचलित हुआ है उसमें से तो वह विशुद्ध प्रेम का चित्र गायब सा हो गया है । लघुपाठ परम्परा के देवनागरी और दाक्षिणात्य पाठों में संक्षेपीकरण के कारण ( तृतीयांक से ) सच्चे प्रेमसहचार के दो दृश्यों की ही कटौती की गई है । दूसरी ओर, प्रकट रूप से दिखता है कि बृहत्पाठ की तीनों (काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली) वाचनाओं में कालिदासप्रणीत न हो ऐसे अनेक श्लोकों एवं अश्लील संवादों का प्रक्षेप किया गया है । अतः आज का पाठक यदि देवनागरी वाचना के लघुपाठ से अभिज्ञानशाकुन्तल पढता है तो मूल पाठ में भारी कटौती हुई है उनसे अनभिज्ञ रहता है, अथवा बृहत्पाठ की किसी भी वाचना के पाठ को लेकर इस नाटक का रसास्वाद लेना चाहता है तो वह अश्लील पाठ्यांशो को देख कर उद्विग्न हो जाता है । इस तरह इन दोनों पाठपरम्पराओं में इस नाटक का जो पाठ है वह महाकवि कालिदास का सच्चा परिचय नहीं दे रहा है । सर विलियम जोन्स (1789) ने जब से आधुनिक जगत् को अभिज्ञानशाकुन्तल का परिचय करवाया है तब से लेकर आज तक का पाठक या प्रेक्षक कविप्रणीत मूलपाठ की स्थिति क्या रही होगी ? इस विषय में सर्वथा अनजान ही है ।। [ 3 ] प्रस्तुत नाटक के तीसरे अङ्क में, कवि ने नायक-नायिका का गान्धर्व-विवाह वर्णित करने का उपक्रम स्वीकारा है । कवि ने इस प्रेमप्रसंग को रंगमंच पर प्रस्तुत करने के लिए जो योजना मूल में बनाई होगी वह इस तरह की दिख रही है : तपोवनकन्या शकुन्तला ने जब से इस राजर्षि को देखा है तब से वह उसके प्रति प्रेमाकृष्ट हुई है । यौवन में आई नायिका को प्रेम की प्रथम अनुभूति ने धीर धीरे पूर्ण रूप से कामाविष्ट कर दी है । ऐसी कामज्वर की दशा को दिखाने के लिए कवि ने उसे पुष्पों से सजाई शय्या पर सुलाई है और आसपास में बैठी दो सहेलियाँ उसे नलिनीदल से पवन झेल रही है । यज्ञशाला की रक्षा करने का कर्तव्य निभा कर राजा जब वहाँ से निवृत्त होता है तो उसे भी अपनी प्रियतमा की याद आती है । वह उसे ढूँढने के लिए मध्याह्न में लतावलय से घिरे मालिनी के तटों पर आता है । राजा : अये लब्धं नेत्रनिर्वाणम् । एषा मे मनोरथप्रियतमा सकुसुमास्तरणं शिलापट्टम् अधिशयाना सखीभ्याम् अन्वास्यते । भवतु, श्रोष्याम्यासां विस्रम्भकथितानि ।। (देवनागरी पाठ) ।। अब पुष्पमयी शय्या पर लेटी हुई नायिका को खडी करने की क्षण कवि ने जो सोच रखी है वह भी द्रष्टव्य है । जब दोनों सहेलियाँ राजा के मुख से सुन लेती है कि परिग्रहबहुत्वेपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य मे । समुद्रवसना चोर्वी सखी च युवयोरियम् ।। (3-17) । (देवनागरी पाठ) ।। तब वे दोनों "निर्वृते स्वः ।" बोल कर तुरन्त मृगपोतक को उनकी माँ के साथ संयोजित करने के बहाने वहाँ से विदा लेती है । शकुन्तला अपने को अकेली, अशरणा महेसूस करने लगती है । तब नायक उसे कहता है कि, अलमावेगेन । नन्वयमाराधयिता जनस्तव समीपे वर्तते । किं शीतलैः क्लमविनोदिभिरार्द्रवातान् संचारयामि नलिनीदलतालवृन्तैः । अङ्के निधाय करभोरु यथासुखं ते संवाहयामि चरणावुत पद्मताम्रौ ।। (3-18) । (देवनागरी पाठ) ।। तब शकुन्तला "न माननीयेषु आत्मानम् अपराधयिष्ये ।" कह कर, पुष्पों की शय्या का त्याग करके खडी हो जाय – यह कवि ने सोची हुई क्षण थी । ( जिसका गर्भितार्थ यह भी होता है कि शकुन्तला ने नलिनीपत्र पर अपने नाखूनों से जो मदनलेख लिखा था वह भी पुष्पशय्या में लेटी हुई अवस्था में ही लिखा था । ) लेकिन विभिन्न कालखण्ड में आये अनेक रंगकर्मिओं ने कवि की उपर्युक्त मूल योजना में बहुविध परिवर्तन कर दिया है । इन सब परिवर्तनों के कारण पाण्डुलिपियों में संचरित हुए पाठ में ( रंगसूचनाओं से सम्बद्ध मंचनयोजना में ) अनेक विसंगतियाँ खडी हुई है ।। उदाहरण के लिए देवनागरी (और दाक्षिणात्य) पाठ को देख लीजिए : तीसरे अङ्क के आरम्भ में दुष्यन्त के मुख से कहा गया है कि शकुन्तला कुसुमास्तरणवाले शिलापट्ट पर अधिशयाना है । शकुन्तला को यह भी मालूम नहीं होता है कि उसकी सहेलियाँ क्या उसे पवन झेल रही है ? । नायिका कामावस्था के विविध सोपान पार करके कहीं आगे निकल गई है । वह बोलती है कि यदि उस राजर्षि के साथ मेरा समागम नहीं होगा तो सहेलियों को मेरे शरीर पर तिलोदक ही छिडक देना पडेगा । तत्पश्चात् प्रियंवदा ने सुझाव दिया कि शकुन्तला दुष्यन्त को उद्देश्य कर एक मदनलेख लिखे, और वह उसे पुष्पों के पुडिये में छिपा कर, देवताशेष (देव प्रसाद) के बहाने उसके पास पहुँचा देगी । तब शकुन्तला कहती है : ( सस्मितम् ) णिओइआ दाणिं म्हि । ( नियोजितेदानीम् अस्मि । ) ( रंगसूचना – इत्युपविष्टा चिन्तयति । ) अर्थात् देवनागरी पाठ के अनुसार शकुन्तला ने शय्या से उठ कर, वहीं शिलापट्ट पर बैठ कर मदनलेख में क्या लिखा जाय वह सोचने की क्रिया की है । और फिर शकुन्तला ने कहा है कि "हला, चिन्तिदं मए गीदवत्थु । ण खु सण्णिहिदाणि उण लेहसाहणाणि । ( हला, चिन्तितं मया गीतवस्तु । न खलु संनिहितानि पुनर्लेखसाधनानि । )" तत्पश्चात् प्रियंवदा ने ही बतलाया कि "एतस्मिन् शुकोदरसुकुमारे नलिनीपत्रे नखैर्निक्षिप्तवर्णं कुरु" । अतः शकुन्तला ने वहीं बैठ कर ही अपने नाखून से नलिनीपत्र में "तव न जाने हृदयं मम पुनः कामो दिवापि रात्रावपि0" इत्यादि शब्दों से उस गीतिका को लिख देती है । अब उस गीतिका को सुन कर एकान्त में खडा दुष्यन्त सहसा शकुन्तला के सामने "तपति तनुगात्रि0" बोलता हुआ उपस्थित होता है । सखिओं ने अविलम्ब से उपस्थित हुए मनोरथों का, अर्थात् राजा का स्वागत किया । तब रंगसूचना दी गई है कि शकुन्तला अभ्युत्थातुमिच्छति । इस खडे होने की चेष्टा को रोकता हुआ राजा कहता है कि – अलमलमायासेन, संदष्टकुसुमशयनान्याशक्लान्तबिसभङ्गसुरभीणि । गुरुतापानि न ते गात्राण्युपचारम् अर्हन्ति ।। (3-15) ।। अनसूया – इतः शिलातलैकदेशम् अलङ्करोतु वयस्यः । राजा जब सामने आ ही गये है, तो समुदाचार अनुसार उसको बैठने के लिए कहा भी जाना चाहिए । यहाँ तीसरी रंगसूचना दी गई हैः- राजोपविशति । शकुन्तला सलज्जा तिष्ठति । राजा जब उसी शिलातल पर आसन ग्रहण करते है, तो स्त्रीसहज लज्जा से शकुन्तला तुरन्त शिलातल से उठ कर पास में खडी रह जाती है ।। पाठक या प्रेक्षक देख रहा है कि अङ्क के आरम्भ में शकुन्तला कुसुमास्तरण पर लेटी थी । बाद में, वह मदनलेख के शब्दों को सोचने और लिखने के लिए बैठती है । तत्पश्चात् राजा प्रकट होते है और उसको शिलातल पर बैठने के लिए कहा जाता है, तब वह सलज्जा खडी हो जाती है । इस तरह देवनागरी पाठ में, रंगमंच पर शकुन्तला की तीन स्थितियाँ बताई गई है । किन्तु आगे चल कर, जब सहेलियाँ मृगपोतक को उनकी माँ के पास संयोजित करवाने के बहाने रंगमंच से चली जाती है, और राजा नायिका का समाराधन करने के लिए "संवाहयामि चरणावुत पद्मताम्रौ" इत्यादि शब्दों से तत्परता दिखाता है, तब रंगसूचना के माध्यम से हमे कहा जाता है कि "इत्युत्थाय गन्तुमिच्छति" । जिसको देख कर तुरन्त प्रश्न होता है कि जो शकुन्तला पहेले से ही सलज्जा खडी हो गई है (सलज्जा तिष्ठति), तो अब "खडी होकर जाने की इच्छा कर रही है" ऐसी रंगसूचना कैसे दी जा रही है ? यहाँ पर रंगसूचनाओं में परस्पर विरोध आ रहा है ! दूसरा बिन्दु यह है कि जब राजा शिलातल पर बैठे है और उसके पास में शकुन्तला खडी है, तो उसको उद्देश्य कर राजा ऐसा कहे कि "क्या मैं तुम्हें शीतल नलिनीदल से पवन झेलुं, अथवा क्या आपके पद्म जैसे ताम्रवर्णवाले पाँवों को मेरे अङ्क में रख कर उसका संवाहन करुँ ? ।" तो इन शब्दों का सन्दर्भगत औचित्य देखा जाय तो वह अनुचित ही लगता है ।। तीसरा बिन्दु : रंगसूचना से जब कहा जा रहा है कि खडी हो कर शकुन्तला जाने की इच्छा कर रही है, तो उसके बाद राजा के मुख में -- "उत्सृज्य कुसुमशयनं नलिनीदलकल्पितस्तनावरणम् । कथमातपे गमिष्यसि परिबाधा पेलवैरङ्गैः ।। (3-19)" ऐसे शब्दों का होना भी अनुचित ही है । क्योंकि पहेले तो कहा गया है कि शकुन्तला खडी होकर जाने की इच्छा कर रही है । अर्थात् वह वहाँ से गई ही नहीं है तो "कुसुमशयन को छोड कर ऐसे उग्र आतप में तुम कैसे जाओगी ?" यह कहना भी विसंगत है !! इन विसंगतिओं से भरी रंगयोजनायें केवल राघवभट्ट जैसे टीकाकारों के द्वारा स्वीकृत पाठ में ही है ऐसा नहीं है । मोनीयर विलियम्स (विलियम्स, 1961, तृतीय संस्करण), प्रॉफे. एम. आर. काळे, (काळे, 1898 प्रथमावृत्ति, दशवी आवृत्ति, 1969), श्री पी. एन. पाटणकर, (पाटणकर, 1902), प्रोफे. शारदा रञ्जन रॉय (रञ्जन, 1908), गौरीनाथ शास्त्री (शास्त्री, 1983) एवं प्रोफे. श्री रेवाप्रसाद द्विवेदी जी (द्विवेदी, 1976, 1986) आदि की आवृत्तिओं में भी यही विसंगति समान रूप में दिखाई दे रही है । इसका मतलब यह हुआ कि अभिज्ञानशाकुन्तल के गणमान्य सम्पादकों के ध्यान में यह विसंगति आई ही नहीं होगी । और फलतः देवनागरी पाठ मौलिक है या नहीं ? यह बात सोचने की आवश्यकता भी नहीं रही । लगता है कि कालिदास की "अभिरूप-भूयिष्ठा परिषद्" गजनिमीलिका न्याय से शृङ्गार रस का आस्वाद ले रही है !! [ 4 ] काश्मीर की शारदा लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में से चार पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हुई हैः—1. ऑक्सफर्ड युनि. से 1247 क्रमांकवाली, 2. ऑक्सफर्ड युनि. से 159 क्रमांकवाली, 3. श्रीनगर की 1435 क्रमांक वाली तथा 4. ब्युल्हर ने काश्मीर से भुर्जपत्र पर लिखी हुई एक प्रति प्राप्त की थी, जिसका बोम्बे गवर्नमेन्ट कलेक्शन, क्रमांक 192 था, ( जो आज भाण्डारकर ओरिएन्टल इन्स्टीट्युट, पूणें में उपलब्ध नहीं है , किन्तु ) ई. स. 1884 में कार्ल बुरखड ने जर्मनी से इसीका रोमन स्क्रिप्ट में रूपान्तरण प्रकाशित किया था ।। इन चारों पाण्डुलिपिओं में से, डॉ. एस. के. बेलवालकर जी ने भुर्जपत्र पर लिखी हुई ( 192 क्रमांकवाली ) शारदा पाण्डुलिपि को "मूलादर्श प्रति" ( Archetype ) मानी थी , वही सब से पुरानी शारदा प्रतिलिपि है । अन्य तीन प्रतियाँ उत्तरकाल में लिखी गई वंशज प्रतियाँ है ऐसा प्रतीत हो रहा है । इन चारों शारदा पाण्डुलिपिओं में संचरित हुआ इस नाटक का काश्मीरी पाठ एक ओर है, तथा दूसरी ओर मैथिली एवं बंगाली परम्परा का पाठ है ।। कालिदासप्रणीत मूलपाठ आज कालग्रस्त हो चूका है । ( कवि ने स्वहस्तलेख के रूप में लिखा हुआ पाठ हमारे लिए केवल अनुमानगम्य ही हो सकता है । ) दूसरे क्रम में, उस कालग्रस्त हुए स्वहस्तलेख से जो सब से पहेली प्रतिलिपि बनाई गई होगी, वह "मूलादर्शप्रति" ( Archetype ) कहेलायेगी । उसमें संक्रान्त हुआ पाठ कैसा होगा ? उसको जानने के लिए भी हमारे पास कोई मूर्त प्रमाण नहीं है । मतलब कि उसका पाठ भी हमारे लिए केवल अनुमानगम्य ही होगा । किन्तु वही हमारा गवेषणीय पाठ होगा । समीक्षित पाठसम्पादक का लक्ष्य ऐसा पाठ होता है ।। अब बृहत्पाठ में संचरित हुए पाठ की विचलन-यात्रा की चर्चा शूरु करते ही यह कहना होगा कि बृहत्पाठ ( की साक्षीभूत तीनों वाचनाओं ) में अश्लील पाठ्यांशों की उपस्थिति प्रायः एक समान है । अर्थात् आज उपलब्ध हो रही सभी पाण्डुलिपिओं के साक्ष्यों में विचलित हुआ पाठ ही विरासत में मिल रहा है । फिर भी इन तीनों वाचनाओं की पाठपरम्पराओं में यदि पौर्वापर्य निश्चित करना है तो काश्मीरी वाचना के पाठ को ही आद्य स्थान दिया जाना चाहिए । क्योंकि 1. लिपियों के इतिहास में शारदालिपि ही बंगाली और मैथिली लिपि की अपेक्षा से पहेली आती है । 2. केवल काश्मीरी वाचना के पास ही भुर्जपत्र पर लिखे हुए पाठ का साक्ष्य है । 3. (तीसरे अङ्क के) श्लोकों की संख्या की तुलना की जाय तो भी अन्य दो वाचनाओं की श्लोकसङ्ख्या की अपेक्षा से काश्मीरी वाचना में संचरित हुए श्लोकों की सङ्ख्या ही कम है । और, समीक्षित पाठ सम्पादन के जो अधिनियम है उनमें से एक नियम यह कहता है कि बृहत् याने विस्तृत, ( या अलङ्कृत ) पाठ की अपेक्षा से जो अबृहत् या अनतिविस्तृत पाठ हो ( जैसा काश्मीरी वाचना में है ) वही मौलिक या अधिक श्रद्धेय पाठ मानना चाहिए । इन कारणों से प्रेरित हो कर हमने ऐसी पूर्वावधारणा (hypothesis) बनाई है कि बृहत्पाठानुसारी तीनों वाचनाओं में से काश्मीरी वाचना का पाठ ही कालानुक्रम की दृष्टि से, सर्वप्रथम आता है ।। अतः काश्मीरी वाचना की उपलब्ध हो रही चार पाण्डुलिपिओं में से जो भुर्जपत्र पर लिखी गई पाण्डुलिपि है, उसमें से आरम्भ हो रहे पाठविचलन का क्रम आगे चल कर, कैसे वृद्धिंगत हुआ है वह सोचना चाहिए । प्रथम सोपान पर, भुर्जपत्रवाली शारदा पाण्डुलिपि में परम्परा से चला आ रहा पाठ, जो विरासत में मिला है, वह भी अश्लीलांशो से भरा पाठ है । ( क ) सब से पहेले प्रक्षिप्त अंश के रूप में उन सब की पहेचान की जायेगी । साथ में ही इन अश्लीलांशो को प्रक्षिप्त करने के लिए जो बीजभूत संकेत मिलते है उसकी चर्चा की जायेगी । तथा ( ख ) इसी पाठ में रंगसूचनाओं से सम्बद्ध विसंगति पैदा करनेवाला एक स्थान जो मिलता है, उसकी भी प्रक्षेप के रूप में पहेचान की जायेगी । तदनन्तर, दूसरे सोपान पर, अन्य तीन शारदा-पाण्डुलिपिओं में कैसी गिरावट आई ? वह देखा जायेगा । तीसरे सोपान पर मैथिली पाठ खड़ा है, जिसमें काश्मीरी-वाचना के पाठ की छाया बहुशः प्रतिबिम्बित हो रही है । किन्तु उसमें पाँच नवीन श्लोकों का आधिक्य दिखता है । आन्तरिक सम्भावना की दृष्टि से वे प्रक्षिप्त किये गये है ऐसा सिद्ध होता है । चतुर्थ सोपान पर बंगाली वाचना का पाठ है । जिसमें मैथिली पाठ का अनुसरण किया गया है ऐसा स्पष्टतया दिखता है । तथापि यह भी कहना होगा कि काश्मीरी परम्परा से चले आ रहे अश्लीलांशो की उपस्थिति यथावत् बनाये रखने के साथ साथ, इस परम्परा के पाठशोधकों ने रंगसूचनाओं से सम्बद्ध जो विसंगतियाँ मैथिली पाठ में थी उसका प्रमार्जन कर दिया है । और इसी कारण से बंगाली पाठ रंगसूचना-सम्बन्धी विसंगतिओं से मुक्त है, तथापि उसके प्रमार्जन करने का कार्य तो उत्तरवर्ती काल में हुआ है, उसके संकेत भी मिल रहे है । एवमेव, मैथिली वाचना के पाठशोधकों ने जिन पाँच श्लोकों को प्रक्षिप्त किये थे, उनका स्वीकार करते हुए बंगाली वाचना के पाठशोधकों ने एक श्लोक नया जोडने का कार्य भी किया है ऐसा साफ दिख रहा है ।। सब के अन्तमें, यानें पंचम सोपान पर देवनागरी वाचना (एवं दाक्षिणात्य पाठ) में संक्षेपीकरण का कार्य किया गया है । जिसमें मृणाल-वलय पहेनाने का दृश्य, तथा पुष्परज से कलुषित हुई शकुन्तला की दृष्टि का वदनमारुत से प्रमार्जन कर देने का दृश्य हटाया गया है । परिणामतः तीसरे अङ्क में काश्मीरी वाचना में जो 35 श्लोक थे, वे मैथिली में 40 हो गये, तथा बंगाली वाचना में 41 श्लोक हुए, और वे आगे चल कर देवनागरी में, घट कर 24 या 26 श्लोक अवशिष्ट रह गये है ।। इस तरह, काश्मीरी वाचना की साक्षीभूत बनी उपर्युक्त चारों शारदा-पाण्डुलिपियों के पाठ का विश्लेषण करने से, एवं उसीका मैथिली एवं बंगाली पाठ के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने से पाठविचलन के उपर्युक्त पाँचों सोपान स्पष्ट हो जाते है । तथा तीसरे अङ्क में कुसुमशयना शकुन्तला की लेटी हुई अवस्था को रंगकर्मिओं के द्वारा बदलते रहेने से सार्वत्रिक रूप से जो पूर्वोक्त विसंगति ने जन्म लिया है, वह अन्त तक कैसे टीकी रही है उसका उत्तर मिल जाता है ।। [ 5 ] तीसरे अङ्क के दृश्य को रंगमंच पर प्रस्तुत करने की कालिदास की मूल योजना तो यही रही होगी कि शकुन्तला पुष्पमयी शय्या पर लेटी हो, मदनलेख लिखते समय भी वह लेटी रहे और मदनलेख को सुन कर राजा प्रकट हो जाय, उसके बाद भी वह लेटी रहे । जब दोनों सहेलियाँ रंगमंच से बिदा ले और नायक नायिका से कहे कि "संवाहयामि चरणावुत पद्मताम्रौ0 ।" तब, वह अपनी मदनावस्था के अनुरूप धीरे से, कष्ट के साथ कुसुमास्तरण से उठ कर चलने का आरम्भ करें । ( "अवस्थासदृशम् उत्थाय प्रस्थिता" )।। लेकिन कवि ने नायिका को रंगमंच पर लेटी हुई अवस्था में प्रस्तुत करने का जो सोचा है वही मूल पाठ के विचलन का उद्गमबिन्दु बन गया ! रंग पर लेटी हुई नायिका को देख कर रंगकर्मी लोग अपनी रुचि के अनुसार शृङ्गारातिरेक को प्रदर्शित करने के लिए लालायित हो गये है । और ऐसे स्थानों के ज्ञापक-चिह्न केवल इन शारदा पाण्डुलिपियों में ही विद्यमान है, जो हम आज भी पहेचान सकते हैं । तद्यथा (1) कुछ रंगकर्मिओं को दुष्यन्त के मुख में अश्लील संवाद रखना था, इस लिए उन्होंने पहेले एक पूर्वभूमिका बनाई है : सहेलियों के पुछने पर जब शकुन्तला बताती है कि "एवं यदि वोऽभिमतं तत्तथा मन्त्रयेथां मां यथा तस्य राजर्षेरनुकम्पनीया भवामि । अन्यथा मां सिञ्चतम् इदानीम् उदकेन ।" इस वाक्य को सुन कर नायक प्रतिभाव प्रकट करता है कि – विमर्शच्छेदि वचनम् । एतावत् कामफलं, यत्नफलम् अन्यत् । इन दो वाक्यों में से पहेला वाक्य तो सभी वाचनाओं में मिलता है । लेकिन जो दूसरा वाक्य है वह केवल काश्मीरी पाण्डुलिपियों में ही मिलता है । जिसका सूचितार्थ यह है कि कामदेव की कृपा से नायिका मदनाविष्ट हो गई है, किन्तु अब नायक दुष्यन्त सोच रहा है कि नायिका से रति-सुख प्राप्त करने के लिए कुछ प्रयास भी करना होगा ! आगे चल कर दुष्यन्त नायिका से जो सहशयन की मांग करता है, उसका बीजनिक्षेप यहाँ देख सकते है ।। शकुन्तला का मदनलेख सुन कर राजा नायिका के सामने सहसा प्रकट होता है । अनसूया राजा का स्वागत करती है और उसको शिलातल के एकदेश पर बैठने की बिनती करती है । रंगमंच पर एक ही शिलातल है, जिस पर शकुन्तला पहेले से ही लेटी हुई है । अतः, जिन रंगकर्मिओं ने लेटी हुई शकुन्तला की स्थिति का उपयोग करने का सोचा है, उन्होंने अनसूया की बिनती के बाद नाटक के मूलपाठ में एक नवीन रंगसूचना जोडी है : "शकुन्तला पादावपसारयति" । यह रंगसूचना सब से प्राचीन भुर्जपत्रवाली पाण्डुलिपि क्रमांक 192 में और ऑक्सफर्ड की पाण्डुलिपि क्रमांक 159 में नहीं है । वह केवल ऑक्सफर्ड की पाण्डुलिपि क्रमांक 1247 एवं श्रीनगर की 1345 में ही है । उसका मतलब यह हुआ कि काश्मीर की शारदा पाठपरम्परा के मूल में आरम्भ में तो "शकुन्तला पादावपसारयति" जैसी कोई रंगसूचना नहीं थी । लेकिन नया प्रक्षेप करने के इच्छुक रंगकर्मिओं ने उसको कालान्तर में निवेशित की है ।। अब यह देखना है कि "एतावत्कामफलं, यत्नफलमन्यत् ।" एवं "शकुन्तला पादावपसारयति" जैसे दो प्रक्षेपों के अनुसन्धान में कौन सा संवाद प्रवेश करता है ? । अनसूया ने राजा से प्रार्थना की है : "सुना जाता है कि राजाओं की वल्लभायें अनेक होती है, फिर भी हमारी सखी (शकुन्तला) स्वजनों के लिए चिन्ता का कारण न बन जाय ऐसा खयाल कीजिएगा" । तब राजा ने "परिग्रहबहुत्वेपि0" इत्यादि शब्दों से उनको आश्वस्त किया कि आप दोनों की सहेली ही मेरे कुल की प्रतिष्ठा बनेगी । जिसको सुन कर दोनों सहेलियाँ शकुन्तला के भाग्य को लेकर पूर्ण रूप से निःसन्देह हो जाती है ।। उसके बाद केवल यही होना था कि दोनों सहेलियाँ वहाँ से चली जाय और नायक-नायिका को एकान्त की सुविधा जताये । किन्तु राजा को अपने पास में बैठने की जगह देने के लिए जिसने अपने पाँव सीकुड लिए थे वह लेटी हुई शकुन्तला जिन रंगकर्मिओं की दृष्टि में थी उन्होंने यहाँ एक अश्लीलता से भरा निम्नोक्त संवाद दाखिल किया हैः— शकुन्तला – हला मरिसावेध लोअवालं जं किं च अम्हेहिं उवआरादिक्कमेण बीसम्भपलाविणीहिं भणिदं । ( हले, मर्षयतं लोकपालं यत् किञ्चास्माभिरुपचारातिक्रमेण विस्रम्भप्रलापिनीभिः भणितम् । ) सख्यौ – ( सस्मितम् ) जेण तं मन्तिदं सो मरिसावेदु । अणस्स जणस्य को अच्चओ । परोक्खं को वा किं ण मन्तेदि । ( येन तन्मन्त्रितं स मर्षयतु । अन्यस्य जनस्य कोऽत्ययः । परोक्षं को वा किं न मन्त्रयति । ) राजा – ( सस्मितम् ) अपराधमिमं ततः सहिष्ये यदि रम्भोरु तवाङ्गरेचितार्द्धे । कुसुमास्तरणे क्लमापहं मे सुजनत्वादनुमन्यसेऽवकाशम् ।। 3 – 19 ।। प्रियंवदा – एत्तिएण उण दे तुट्ठि भवे । ( एतावता पुनस्ते तुष्टिर्भवेत् । ) शकुन्तला – ( सरोषमिव ) विरम दुल्ललिदे । एदावत्था एवि मे कीलसि । ( विरम दुर्ललिते, एतावदवस्थयापि मे क्रीडसि । ) यहाँ पर "तवाङ्गरेचितार्धे" शब्दों के प्रयोग से ही मालूम होता है कि यह "पादावपसारयति" वाली पूर्वनिर्दिष्ट रंगसूचना की परिणति के रूप में यह सहशयन की मांग करने की बात प्रस्तुत हुई है, प्रक्षिप्त हुई है । एवमेव, इसी बातचीत के सन्दर्भ में प्रियंवदा के मुख में जो वाक्य रखा गया है, वह निर्लज्जतायुक्त है । वह भी इस पूरे संवाद का प्रक्षिप्तत्व सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है ।। काश्मीरी पाठपरम्परा के "तवाङ्ग-रेचितार्द्धे" शब्दों को बदल कर मैथिली पाठपरम्परा में "तवाङ्ग-सङ्गसृष्टे" ऐसा पाठभेद किया गया है । पहेलेवाले शब्दों के स्थान में आया हुआ यह नया पाठभेद उत्तरवर्ती काल की रचना है उसमें कोई सन्देह नहीं है ।। इस मैथिल पाठभेद का अनुसरण बंगाली पाठ में भी हुआ है ।। [ 6 ] भुर्जपत्र पर लिखी गई शारदा पाण्डुलिपि, जिसका कार्ल बुरखड ने रोमन स्क्रिप्ट में रूपान्तरण प्रकाशित किया है उसमें परम्परा से चले आ रहे, अर्थात् विरासत के रूप में मिले दो-तीन अन्य अश्लील संवादों का परिचय भी करना जरूरी है : (1) दुष्यन्त ने शकुन्तला के चरणों का संवाहन करने की तत्परता दिखाई तब तुरन्त ही लेटी हुई नायिका खड़ी हो जाती है और वहाँ से प्रस्थान करने लगती है । उस समय दुष्यन्त कहता है कि अभी दिवस पूरा नहीं हुआ है, और इतनी कड़ी धूप में तुम कोमल अङ्गोवाली कैसे जाओगी ? यहाँ पर, कुछ रंगकर्मिओं ने एक लम्बे संवाद का प्रक्षेप किया है । जैसे कि, शकुन्तला – सहिमेत्तसरणा, कं वा सरणइस्सम् । ( सखीमात्रशरणा, कं वा शरणयिष्यामि । ) राजा – इदानीं व्रीडितोऽस्मि । शकुन्तला – ण क्खु अय्यं, देव्वं उवालहामि । ( न खल्वार्यम्, दैवमुपालभे । ) राजा – किम् अनुकूलकारिण उपालभ्यते दैवस्य । शकुन्तला – कधं दाणिं उवालभिस्सं जो अत्तणो अणीसं परगुणेहिं मं ओहासेदि । ( कथमिदानीम् उपालप्स्ये य आत्मनोऽनीशां परगुणैर् माम् उपहासयति । ) राजा – ( स्वगतम् ) अप्यौत्सुक्ये महति न वरप्रार्थनासु प्रतार्याः काङ्क्षन्त्योऽपि व्यतिकरसुखं कातराः स्वाङ्गदाने । आबाध्यन्ते न खलु मदनेनापि लब्धास्पदत्वाद् आबाधन्ते मनसिजमपि क्षिप्तकालाः कुमार्यः ।। 3 – 22 ।। ( शकुन्तला प्रस्थितैव ) राजा – ( स्वगतम् ) कथमात्मनः प्रियं न करिष्ये । ( उत्थायोपसृत्य पटान्तादवलम्बते ) इस संवाद को ध्यान से देखेंगे तो उसमें नायक ने "काङ्क्षन्त्योऽपि व्यतिकरसुखं कातराः स्वाङ्गदाने" इत्यादि शब्दों से कुमारिकाओं की जो मानसिकता मुखर रूप से वर्णित की गई है वह भी सुरुचि का भङ्ग करनेवाली है । ( यद्यपि कालिदास ऐसे कामोत्तेजक वर्णन कभी नहीं करते है ऐसा नहीं है । हमारे सामने कुमारसम्भव के शृङ्गारातिरेक के शब्दचित्र अवश्य है, लेकिन वह प्रसंगोचित नहीं है ऐसा नहीं है । ) किन्तु यहाँ जो वाक्य रखे गये हैं वे पूर्वापर सन्दर्भ में सुसंगत और सुग्रथित प्रतीत नहीं होते है । इस वाक्यावली प्रक्षिप्त ही है उसका विशेष विमर्श करने से पहेले, उपर्युक्त अश्लील शब्दों के साथ साथ, उसके ही नीचे जो दूसरा अतिरेक मिलता है, वह भी देख लेते हैः— (2) उपरि निर्दिष्ट वाक्यों में दुष्यन्त की मानसिकता ऐसी प्रकट हो रही है कि वह अब बलात्कार करने की हद तक भी जा सकता है । इस मानसिकता का प्रमाण निम्नोक्त संवाद में हैः- शकुन्तला – पोरव, मुञ्च मं । ( पौरव, मुञ्च माम् । ) राजा – भवति, मोक्ष्यामि । शकुन्तला – कदा । राजा – यदा सुरतज्ञो भविष्यामि । शकुन्तला – मअणावट्ठड्ढो वि ण अत्तणो कण्णआअणो पहवदि । भूओ वि दाव सहिअणं अणुमाणइस्सम् । ( मदनावष्टब्धोऽपि नात्मनः कन्यकाजनः प्रभवति । भूयोऽपि तावत् सखीजनम् अनुमानयिष्यामि । ) राजा – ( मुहूर्तम् उपविश्य ) ततो मोक्ष्यामि । यहाँ पर, भुर्जपत्र पर लिखी पाण्डुलिपि में आये हुए "सुरतज्ञो भविष्यामि" शब्दों के स्थान में, कालान्तर में ऑक्सफर्ड की दोनों पाण्डुलिपिओं में, और श्रीनगर की पाण्डुलिपि में "सुरतरसज्ञो भविष्यामि" जैसा पाठभेद भी किया गया है ।। (3) उपर्युक्त अश्लीलांशो का प्रक्षेप करनेवालों नें इस अङ्क के उपान्त्य श्लोक में भी एक श्लोक जोडा है । शकुन्तला को ले कर गौतमी चली गई । दुःषन्त प्रियापरिभुक्त लतावलयाच्छादित वेतसगृह में खडा खडा रह कर उसका मन्मथलेख इत्यादि पर सानुराग दृष्टि से झाँक रहा है । और कहता है कि मुझसे इस वेतसगृह से बहार निकलना आसान नहीं है । ऐसी प्रेमासक्त दशा में फँसे नायक को रंगमंच से बाहर निकाल ने के लिए नाट्यकार कालिदास उसके वीरत्व को ही ठठोलते है । अतः नेपथ्योक्ति से कहा जाता है कि "भो भो राजन्, सायन्तने सवनकर्मणि संप्रवृत्ते0" ( श्लोक-35 ) अर्थात् सायंकाल होते ही यज्ञकर्म में बाधा डालने के लिए काले-पीले वर्ण के राक्षसों की छायायें आकाश में मंडराने लगी है । जिसको सूनते ही दुःषन्त के वीरत्व को चुनौती मिलती है और वह रंग से बाहर दौड जाता है । शाकुन्तल के षष्ठांक के अन्तभाग में भी दिखनेवाली यही पद्धति पूर्ण रूप से नाटकीय भी है, और कालिदासीय भी । किन्तु काश्मीरी वाचना की चारों पाण्डुलिपियों में दुःषन्त की "निर्गन्तुं सहसा न वेतसगृहाद् ईशोस्मि शून्यादपि ।। ( 3-33 )" जैसि उक्ति और अनुगामी नेपथ्योक्ति में व्यवधान बननेवाला निम्नोक्त अश्लील श्लोक 34 अस्वाभाविक लगता है । जिसमें भोगवंचित दुःषन्त कहता है कि – हा हा धिक्, न सम्यग् आचेष्टितं मया प्रियामासाद्य कालहरणं कुर्वता । इदानीम्, रहः प्रत्यासत्तिं यदि सुवदना यास्यति पुन- र्न कालं हास्यामि प्रकृतिदुरवापा हि विषयाः । इति क्लिष्टं विघ्नैर्गणयति च मे मूढहृदयं प्रियायाः प्रत्यक्षं किमपि च तथा कातरमिव ।। 3 – 34 ।। नाटकीयता की दृष्टि से सोचा जाय तो प्रियासम्बद्ध तीन तीन चीजों को वेतसगृह में ही छोडके बाहर निकलना मुश्कील है ऐसा बोल बोले जाने पर ही परिस्थितिवशात् नायक को ( प्रेमासक्त दशा को तत्क्षण छोड कर, ) अपनी क्षत्रियता को ललकारने वाली परिस्थिति के सामने लडने के लिए रंगभूमि से बाहर निकालने में ही नाटकीयता है । किन्तु जिन रंगकर्मिओं ने दुष्यन्त के मुख से पहेले भी भोगेच्छा को अश्लील रूप में प्रस्तुत करवाया है, उन्हों ने इस अङ्क के अन्त भाग में भी, मूलपाठ को दुषित करने की चेष्टा की है । वस्तुतः सोचा जाय तो राजा दुष्यन्त के लिए तो सच्चा नैसर्गिक प्रेम ही दुरवाप्य और दुरवाप्त था, विषयोपभोग नहीं । अतः उपर्युक्त श्लोक की दूसरी पङ्क्ति को देख कर ही लगता है कि यह मौलिक श्लोक नहीं है । अस्तु ।। काश्मीरी पाठ में परम्परा से चले आ रहे इन अश्लीलांशों को प्रक्षिप्त मानने का कारण अब विशद करना चाहिए : (1) प्राचीनतम काश्मीरी वाचना के तृतीयांक के केवल पूर्वार्ध में ही ऐसे अश्लील संवाद मिलते है । इसी अङ्क के बीच में कहीं पर भी ऐसे सुरुचि का भङ्ग करनेवाले संवाद, एक उपान्त्य श्लोक को छोड कर, अन्यत्र नहीं मिलते है । साधारण तर्क से भी यह बात समझ में आती है कि जिस दृश्य के आरम्भ में ही नायक उपर्युक्त शब्दों से एक बार नहीं, तीन बार अपनी भोगेच्छा प्रकट करता हो उसके उत्तरवर्ती दृश्यों में तो बलात्कार का दृश्य ही आना चाहिए । किन्तु वस्तुतः यहाँ तो उत्तरार्ध में नायक-नायिका के बीच सुशील एवं स्वाभाविक प्रेमसहचार ही वर्णित हुआ है । जिसमें अपनी प्रियतमा के हाथ में मृणालवलय पहेनाने के दृश्यादि का समावेश है । इसमें कहीं पर भी सुरुचि का भङ्ग नहीं होता है । अर्थात् पूर्वार्ध में आये हुए उक्त अश्लील संवादों और उत्तरार्ध में आनेवाले संवादों के बीच सामञ्जस्य नहीं बनता है ।। (2) प्रासंगिकता की दृष्टि से सोचा जाय तो रंगमंच से सहेलियों के चले जाने के बाद कुछ ज्यादा समय तो बीता नहीं है और शकुन्तला के साथ कोई प्रेमगोष्ठियाँ भी अभी हुई नहीं हैं, उससे पहले दुष्यन्त की उपर्युक्त श्लोकोक्ति नायक की अधीरता प्रकट करनेवाली है । प्रेमकथाओं में प्रणयि-युगल के बीच जो संवनन स्वाभाविक रूप से क्रमशः विकसित होता है और जो इस अङ्क में आगे मृणालवलय प्रसंग में दृश्यमान होनेवाला है, उसकी प्रस्तुति होने से पहेले दुष्यन्त की भोगेच्छा इस तरह खुल कर बाहर आये वह असम्बद्ध है, कृत्रिम है । और इस अङ्क के उपान्त्य श्लोक में भी दुष्यन्त से विषयोपभोग की ही बात कही जाय, वह असमञ्जस है । इन कारणों से उपर्युक्त अश्लील संवादों को प्रक्षिप्त कहना होगा । (3) तथा, मूल महाभारत के उपाख्यान में दुःषन्त शकुन्तला से संयोग करने के लिए जिस तरह उतावला हो गया है, और फलाहार के लिए बाहर नजदीक में गये पिता कण्व की प्रतीक्षा भी नहीं कर सकता, उसीका पुनरावर्तन पूर्वोक्त अश्लीलांशो से इस नाटक में हो रहा है ऐसा लगता है । सच तो यही है कि कालिदास एक नैसर्गिक प्रेम का निरूपण करना चाहता है, महाभारत की कहानी का पुनरावर्तन नहीं ।। [ 7 ] अब दूसरे सोपान पर, रंगसूचना सम्बन्धी जो गिरावट आने की शूरु हुई है उसको समझना है :- कवि की मूलयोजना के अनुसार तो, तीसरे अङ्क के पहेले दृश्य में शकुन्तला को कुसुमास्तरण पर लेटी हुई अवस्था में प्रस्तुत करना है । और जब दोनों सहेलियाँ चली जाय, राजा उसके पाँव का संवाहन करने की तत्परता दिखावें तब उसे लेटी हुई अवस्था से खडा होना था । लेकिन किसी अज्ञात पाठशोधक / रंगकर्मी ने नवीन रंगसूचनायें जोड कर कवि की मूलयोजना को विफल कर दिया । जिसके कारण रंगसूचनाओं में पूर्वापर में विसंगतता आ गई है । आश्चर्य है कि यह परिवर्तन सार्वत्रिक रूप से पूरे भारत वर्ष की प्रायः सभी पाण्डुलिपियों में फैल गया है, और दुर्भाग्य से इसकी ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया है ।। रंगसूचना सम्बन्धी प्रक्षेप से आई विसंगति का प्राचीनतम उदाहरण भुर्जपत्र पर लिखी गई शारदा पाण्डुलिपि में मिलता है । लेटी हुई शकुन्तला के मुख से मदनलेख का वाचन होता है, जिसको सुन कर राजा सहसा "तपति तनुगात्रि0 ।" इत्यादि शब्दों को बोलता हुआ शकुन्तला के सामने उपस्थित हो जाता है । यहाँ, शकुन्तला को राजा की सन्निधि में नाट्यात्मक शैली से खडी करने के लिए, काश्मीरी पाठशोधक ने एक संवाद प्रक्षिप्त किया है । वह द्रष्टव्य है : जब अनसूया ने राजा को उसी शिलातल पर बैठने के लिए बिनती की और राजा वहाँ बैठते भी है । तब बैठने के बाद (लेटी हुई) शकुन्तला के बारे में वे प्रश्न करते है कि "(उपविश्य) प्रियंवदे, कच्चित् सखीं वो नातिबाधते शरीरसंतापः ।" तब प्रियंवदा प्रत्युत्तर देती है कि "लब्धौषध-स्साम्प्रतम् उपशमं गमिष्यति कालेन ।" इसके पीछे निम्नोक्त संवाद प्रक्षिप्त किया गया हैः— अनसूया – (जनान्तिकम्) प्रियंवदे, कालेन इति किम् । प्रेक्षस्व, मेघनादाहाताम् इव मयूरीं निमेषान्तरेण प्रत्यागताम् प्रियसखीम् । शकुन्तला – ( सलज्जा तिष्ठति । ) अर्थात् मेघगर्जन (बादल की आवाज) सुन कर जैसे मयूरी में नवजीवन का संचार होता है वैसे देखो हमारी सखी भी नवजीवन प्राप्त कर रही है । अनसूया के इस वाक्य के बाद, (लेटी हुई) शकुन्तला के लिए कहा गया है कि वह लज्जा के साथ खडी होती है ।। ( यह प्रक्षिप्त अंश की विशेष चर्चा तृतीय सोपान रूप मैथिली पाठ में आये परिवर्तनों को दिखाते समय प्रस्तुत की जायेगी । ) लेकिन इस तरह के नाट्यात्मक संवाद से नायिका को रंगभूमि पर खडी कर देने का जो दृश्य-परिवर्तन किया गया है उसके कारण दो तरह की विसंगतियाँ ने जन्म लिया । जैसे कि, (1) दोनों सहेलियों के रंगमंच से निकल जाने के पश्चात्, राजा शिलातल पर बैठे हो और वह पास में खडी हुई शकुन्तला को कहे कि मैं नलिनीदल से तुम्हें पवन झेलुं या कहो तो तुम्हारे पद्मताम्र चरणों का संवाहन करु ! तो ऐसी स्थिति में प्रेमाचार का गौरव नहीं है । क्योंकि जिसकी सेवाशुश्रूषा करनी हो वह व्यक्ति खडी हो और आराधयिता व्यक्ति बैठा हो, वह तो बहुत भद्दा लगता है । (2) और दूसरी विसंगति यह है कि राजा ने जब शकुन्तला को कहा कि "मैं तुम्हारे चरणों का संवाहन करु" तो उसको सुन कर शकुन्तला कहती है कि "न माननीयेषु आत्मानम् अपराधयिष्ये ।" उसके बाद वहाँ एक रंगसूचना दी गई है कि "इत्यवस्थासदृशम् उत्थाय प्रस्थिता ।", जिसको देख कर प्रश्न होता है कि जिस शकुन्तला को पहेले से ही खडी रखी गई है, उसके लिए यहाँ कैसे कहा जाता है कि वह अवस्था के सदृश खडी होकर जाने लगती है ? ! इस तरह की विसंगति ही अपने आप में प्रमाण बनती है कि इस दृश्य को प्रस्तुत करने की कवि की मूलयोजना कुछ भिन्न थी । और ऐसी ( सलज्जा तिष्ठति । जैसी ) रंगसूचना और उससे पहेले रखा गया मेघनादाहत मयूरी का उपमान तो रंगकर्मिओं का खिलवाड़ है, जिसको प्रक्षेप ही मानना होगा ।। [ 8 ] रंगसूचनाओं से सम्बद्ध जो जो प्रक्षेप है उसका पौर्वापर्य भी सोचना चाहिए । "मेघनादाहत मयूरी की तरह शकुन्तला ( लेटी हुई अवस्था से ) सलज्जा खडी हो जाती है" यह अंश भुर्जपत्र पर लिखी गई पाण्डुलिपि में भी विद्यमान है । अर्थात् रंगसूचना से सम्बद्ध यह प्राचीनतम पहेला प्रक्षेप कहा जा सकता है । उसके बाद, मदनलेख लिखते समय शकुन्तला "बैठ कर सोचती है" वाली रंगसूचना द्वितीय क्रम में प्रक्षिप्त हुई होगी । क्योंकि ऐसी रंगसूचना भुर्जपत्रवाली प्राचीनतम पाण्डुलिपि में नहीं है । ऑक्सफर्ड की 1247 क्रमांकवाली और श्रीनगर की 1345 क्रमांकवाली दो ही शारदा पाण्डुलिपिओं में "आसीना चिन्तयति" ऐसी रंगसूचना है । जिसके फल स्वरूप, मंचन के समय "लेटी हुई शकुन्तला" से पहेले "बैठ कर सोचती हुई शकुन्तला ", और तत्पश्चात् "सलज्जा खडी रहनेवाली शकुन्तला" प्रस्तुत की जायेगी । यहाँ पर ( अर्थात् ऑक्सफर्ड 1247 एवं श्रीनगर 1345 में ) एक दूसरी ( "पादावपसारयति" वाली ) रंगसूचना भी अधिक होने से मंचन-योजना बदल जाती है । जैसे कि, मदनलेख लिखते समय जो शकुन्तला बैठी थी, उसने राजा को बैठने के लिए जगह बनानी थी, जिसके लिए उसने जो पाँव सीकूड लिए थे, वो बैठे बैठे ही सीकूडे थे ऐसा मानना होगा । परिणामतः इस दृश्य का मंचन करते समय, तीन सहेलियां और चौथे राजा भी एक ही शिलातल पर बिठाना होगा । और सहेलियों के चले जाने के बाद, राजा ने जब शकुन्तला के पद्मताम्र चरणों का संवाहन करने की तत्परता दिखाई है तब शकुन्तला उसके पास में बैठी ही होगी ।। यहाँ एक विचित्रता यह भी है कि "शकुन्तला सलज्जा तिष्ठति" वाली रंगसूचना भी ऑक्सफर्ड की 1247 एवं श्रीनगर की 1345 क्रमांकवाली पाण्डुलिपिओं में मिलती है, जिसके कारण प्रश्न होगा कि शकुन्तला के पद्मताम्र चरणों का संवाहन करने की तत्परता दिखाते समय शकुन्तला को राजा के पास में बिठानी है या फिर राजा के सामने उसको खडी रखनी है ? रंगकर्मी लोग इन दोनों में से जो भी मार्ग पसंद करेंगे उसमें पूर्वोक्त विसंगति आयेगी ही । इस विवरण का निष्कर्ष ऐसा निकलता है कि (1) शारदा पाण्डुलिपिओं में अश्लील अंशो की उपस्थिति विरासत में मिली है । (2) लेटी हुई शकुन्तला को खडी करने की, अथवा बिठा कर मदनलेख लिखवाने की सभी मंचन-योजनायें पश्चाद्वर्ती काल की योजनायें हैं । तथा इनमें से एक भी नवीन योजना ऐसी नहीं है कि जिसका अनुसरण करने से दृश्य-प्रस्तुति में विसंगतता या पूर्वापर में विरोध पैदा न होता हो । (3) तीसरे अङ्क के प्रथम दृश्य का मंचन करने के लिए कवि ने जो मूलयोजना सोची थी, उसका पुनःस्थापन करने के लिए उपर्युक्त सभी रंगसूचनायें ( "पादावपसारयति" , "सलज्जा तिष्ठति" , "आसीना / उपविष्टा चिन्तयति" ) यदि हटाई जाय, और उनसे सम्बद्ध सभी काव्यात्मक संवादों को भी प्रक्षिप्त सिद्ध करके हटाये जाय तो "कुसुमशयना शकुन्तला" का सन्दर्भोचित दृश्य, जो कवि ने मूल में संकल्पित किया होगा उसकी पुनःप्रतिष्ठा हो सकती है । ऐसा करने से ही "संवाहयामि चरणावुत पद्मताम्रौ0" शब्दों को सुनने के बाद ही, शकुन्तला के लिए "अवस्थासदृशमुत्थाय प्रस्थिता" जैसी रंगसूचना के शब्दों का औचित्य सिद्ध हो सकेगा ।। [ 9 ] उक्त नवीन रंगसूचनाओं के कारण प्रकृत दृश्य की प्रस्तुति में जो विसंगति आ रही है उसकी चर्चा करने के बाद, काश्मीरी पाण्डुलिपिओं में ( तीसरे अङ्क का ) चौथा स्थान भी ध्यानास्पद है, जिसमें किसी अज्ञात पाठशोधक ने अपनी काव्यात्मक शैली का कसब दिखाया है । जैसे कि, अनसूया – ( अपवार्य ) जधा भणासि । ( प्रकाशम् ) सखि, दिष्ट्या अनुरूपस्तस्या अभिलाषः । सागरं वर्जयित्वा कुत्र वा महानद्या गन्तव्यम् । प्रियंवदा – क इदानीं सहकारम् अतिमुक्तलतया पल्लवितुं नेच्छति । राजा – किमत्र चित्रम् । यदि चित्राविशाखे शशाङ्कलेखामनुवर्तते । अयमत्रभवतीभ्याम् क्रीतो जनः ।। यहाँ पर विचारणीय है कि जब शकुन्तला ने कह दिया हो कि उस राजर्षि से मेरा संगम करवाओ, अन्यथा मुझ पर उदक छिडक देना । अर्थात् शकुन्तला इतनी मदनाविष्ट दशा में है कि वह अब किसी तरह के कालक्षेप को सहन नहीं कर पायेगी, ऐसा प्रियंवदा का वाक्य सुन कर अनसूया उसीके कहेने का स्वीकार कर ले, वही समीचीन प्रतीत होता है । "अक्षमेयं कालहरणस्य" कहने बाद अनसूया के मुख में, सागर और महानदी के संगम का एक उपमान शायद सन्दर्भोचित लगता है, किन्तु वह भी कालहरण करनेवाला वाग्-विलास ही लगता है । कविंमन्यमान पाठशोधक को इतने से भी तृप्ति नहीं थी । अतः उसने बात आगे बढाते हुए, प्रियंवदा के मुख में नायक-नायिका के लिए सहकार और अतिमुक्तलता का दूसरा उपमान भी रखा है । और, नायक के मुख में तीनों सहेलियों के लिए शशाङ्कलेखा और चित्राविशाखा नामक नक्षत्रयुग्म का एक तीसरा उपमान भी जोड दिया ।। इस तरह के उपमानों का मौलिक नहीं होना इससे भी प्रमाणित होता है कि भुर्जपत्र पर लिखी गई प्राचीनतम पाण्डुलिपि में (और ऑक्सफर्ड की 159 क्रमांकवाली पाण्डुलिपि में) अनसूया की उक्ति को "अपवार्य" उक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का कहा गया है । अर्थात् वह अकेली ही दर्शकों के सामने देख कर प्रियंवदा की बात का स्वीकार कर लेती है ऐसा सूचित कर रही है । इसके बाद उसको कुछ अधिक कहेने की आवश्यकता ही नहीं रहती है । अतः इसके पीछे जितने भी उपमानों की हारावली प्रस्तुत की गई है, वह निश्चित रूप से प्रक्षिप्त ही होगी ।। ( ऑक्सफर्ड की 1247 एवं श्रीनगर की पाण्डुलिपियों में दी गई सूचना के अनुसार यदि अनसूया कि उक्ति "जनान्तिक" है, और उसके पीछे "प्रकाशम्" शब्द से जो रंगसूचना मिलती है, वह नितान्त विसंगत प्रतीत होती है । इस विसंगति को देख कर भी तीनों उपमानों की हारमाला वाला संवाद प्रक्षिप्त सिद्ध होता है ।। ) तथा च, भगवान् शङ्कर पार्वती की तपश्चर्या से प्रसन्न हो कर कहे कि मैं तप से खरीदा गया तुम्हारा दास हुँ , तो वह औचित्यपूर्ण है, क्योंकि वह नायक ने नायिका को उद्देश्य करके सीधे उसे ही कहा है । लेकिन यहाँ दुष्यन्त नायिका की सहेलियों को कहे कि मैं इन दोनों सहेलियों के द्वारा खरीदा गया व्यक्ति हुँ, तो वह धीरोदात्त नायक की गरिमा का अपकर्ष करनेवाला वाक्य बनता है । इस दृष्टि से भी यह संवाद प्रक्षिप्त मानना होगा ।। इस सन्दर्भ में, ऐसे प्रक्षिप्त संवाद की अनुगामी वाचनाओं में क्या स्थिति होती है वह भी द्रष्टव्य बनता है ।। [ 10 ] काश्मीरी पाठपरम्परा में उपर्युक्त सन्दर्भों के अलावा, अन्य जो भी प्रक्षिप्त श्लोक विरासत के रूप में मिले है, उसकी अब चर्चा करनी आवश्यक है । तीसरे अङ्क के आरम्भ में नायक का मदनावस्था में प्रवेश होता है । काश्मीर की उपरि निर्दिष्ट चारों शारदा पाण्डुलिपिओं में निम्नोक्त एक श्लोक हैः— राजा – भगवन् मन्मथ, कुतस्ते कुसुमायुधस्य सतस्तैक्ष्ण्यमेतत् । ( स्मृत्वा ) आं ज्ञातम् । अद्यापि नूनं हरकोपवह्निस्त्वयि ज्वलत्यौर्वं इवाम्बुराशौ । त्वमन्यथा मन्मथ मद्विधानां भस्मावशेषः कथमेवमुष्णः ।। ( 3 – 3 ) इस श्लोक में, शङ्कर के कोप से मन्मथ ( कामदेव ) भस्मावशेष हुआ था ऐसा कुमारसम्भवोक्त सन्दर्भ अनुस्यूत है । अतः यह श्लोक कालिदास-प्रणीत होने की सम्भावना दिखती है । किन्तु, इसी अङ्क में हम जैसे जैसे आगे बढते है तो इसी तरह का एक दूसरा श्लोक भी दृष्टिगोचर होता है । जैसे कि – दुष्यन्तः – ( शकुन्तलाया हस्तमादाय ) अहो स्पर्शः । हरकोपाग्निदग्धस्य दैवेनामृतवर्षिणा । प्ररोहः संभृतो भूयः किं स्वित् कामतरोरयम् ।। ( का0 3 – 28 ) शकुन्तला – ( हर्षरोमाञ्चं रूपयति ) तुवरअदु अय्यउत्तो ।। इन दोनों श्लोकों में "हरकोपवह्निः" एवं "हरकोपाग्निः" शब्दों में स्पष्ट पुनरुक्ति है । अतः दोनों में से कोई एक प्रक्षिप्त होगा ही । तीसरे अङ्क के मध्य भाग में आये हुए 3 : 28 श्लोक का सन्दर्भ यदि देखा जाय तो दुष्यन्त ने शकुन्तला का हाथ अपने हाथों में लिया है और वह शकुन्तला को (कङ्कण के रूप में) मृणालतन्तु का वलय पहेनाने जा रहा है । तब वह शकुन्तला के हाथ का रोमांचकारी प्रथम स्पर्शानुभव करता हुआ 33 वाँ श्लोक बोलता है । दुष्यन्त को लगता है कि हरकोपाग्नि से भस्मीभूत हुए कामतरु का मानों एक प्ररोह ( अङ्कुर ) ही शकुन्तला के हाथ के रूप में प्रस्फुटित हुआ है ! । यह श्लोक इस प्रसंग में सर्वथा सुसंगत है । अर्थात् तीसरे अङ्क के उत्तरार्ध में आनेवाले श्लोक के शब्दों को देखते है तब, लगता है कि इस अङ्क के आरम्भ में रखा गया 3 : 3 श्लोक पुनरुक्ति ही है, अतः उसे प्रक्षिप्त मानना होगा ।। ( इस अङ्क का उपान्त्य श्लोक भी जो प्रक्षिप्त है, उसके चर्चा पेरा – 6 में रखी है । ) ।। [ 11 ] अब सारांशतः कहे तो, काश्मीरी वाचना के पाठ को हानि पहुँचाने वाले द्विविध रंगकर्मी लोग ध्यान में आ रहे हैः—(क) पहेलेवाले रंगकर्मी ऐसे थे जिन्हों ने इस नाटक की उत्कृष्ट प्रणयकथा में निम्नतम कोटि के अश्लीलांश दाखिल किये । जिसमें 1. एतावत् कामफलम्, यत्नफलमन्यत् ।, 2. शकु0 पादावपसारयति ।, 3. अपराधमिमं सहिष्ये ... तवाङ्ग-रेचितार्धे0 ।, 4. कांक्ष्यन्त्योऽपि व्यतिकरसुखं कातराः स्वाङ्गदाने0 ।, 5. सुरतरसज्ञो भविष्यामि । ( इतने प्रक्षेप तीसरे अङ्क के पूर्वार्ध में आते है ) और 6. अङ्क के अन्तिम भाग में, रहः प्रत्यासत्तिं यदि सुवदना यास्यति पुनः0 । वाले श्लोक का समावेश होता है ।। (ख) दूसरे जो रंगकर्मी लोग आये शायद उन्होंने मूल पाठ में अश्लीलांश दाखिल हो रहे हैं ऐसा देख कर शकुन्तला की लेटी हुई अवस्था में परिवर्तन लाना उचित समझा होगा । उन्होंने तथाकथित पाठसुधार का कार्य शूरु किया । जिसके फल स्वरूप 1. प्रथम क्रम में, मेघनादाहत मयूरी0 वाले उपमान का विनियोग करके शकुन्तला को रंगमंच पर पहेले सलज्जा खडी कर दी । और 2. सागर और महानदी आदि के तीन उपमानों का प्रक्षेप किया । 3. दूसरे क्रम में, मदनलेख लिखवाते समय पर शकुन्तला को "आसीना चिन्तयति" जैसी रंगसूचना से शिलातल पर बैठी भी की गई । ( इन रंगसूचनाओं के दाखिल होने से शायद नये प्रक्षेप होना बंद हो गये होंगे, किन्तु इन सब ने कवि कालिदास की मूल मंचन-योजना में भारी विसंगतता पैदा कर दी । ) एवमेव, 4. अद्यापि नूनं हरकोपवह्नि0 । वाला श्लोक प्रक्षिप्त किया होगा ।। (ग) शारदा पाण्डुलिपियों की साक्षी के आधार पर हम कह सकते है कि "गान्धर्वेण विवाहेन0" । वाला श्लोक मौलिक नहीं है । यह काश्मीरी पाण्डुलिपिओं में कहीं पर भी नहीं है । इस दृष्टि से, तीसरे अङ्क के मौलिक पाठ को ढूँढने के लिए यह एक प्रबलतम प्रमाण बनता है ।। [ 12 ] काश्मीरी पाठ की बहुशः च्छाया मैथिल पाठपरम्परा में प्रतिबिम्बित हुई है, लेकिन उसमें कुछ अन्य नवीन प्रक्षेप हुए है, संक्षेप भी हुए है, वाक्यक्रम भी बदले गये है, तथा कुत्रचित् अमुक शब्दों में पाठभेद भी किये गये है । तीसरे सोपान पर, इस तरह के जिन विकारों ने मैथिल पाठ में प्रवेश किया है अब उनका परिचय करना है । सब से पहेले यह ज्ञातव्य है कि अभिज्ञानशाकुन्तल का प्राचीनतम पाठ, जो शारदा पाण्डुलिपियों में संचरित हो कर आज हम तक पहुँचा है, उसी का बहुशः अनुसरण मिथिला की परम्परा में हुआ है ऐसा दिख रहा है । काश्मीरी वाचनानुसारी तृतीयांक के पाठ में आज कुल 35 श्लोक उपलब्ध होते है । किन्तु वही पाठ जब मैथिली परम्परा में जाता है तब उसमें "गान्धर्वेण विवाहेन0" श्लोकसहित नवीन पाँच श्लोकों का आधिक्य दिख रहा है । यहाँ कुल श्लोकों का योग 40 होता है । नाटक के पाठ में हुई इस वृद्धि ही मैथिली पाठ का उत्तरवर्तित्व सूचित कर रहा है । ( और बंगाली पाठपरम्परा में, इन पाँच श्लोकों में एक ओर नया श्लोक जोड कर 41 श्लोकोंवाला अतिविस्तृत पाठ बनाया गया है । अतः बृहत्पाठ वाले इस नाटक की तीसरी बंगाली वाचना का जन्म मैथिल पाठ के बाद, तृतीय क्रम में हुआ होगा ऐसा अनुमान किया जाता है । ) काश्मीरी पाठ को, ( उनमें विरासत के रूप में मिले अश्लीलांश और अन्यान्य प्रक्षेपादि, जिसका उपरि भाग में निरूपण किया गया है, उसीको ) हमारी समक्ष रखते हुए, जब मैथिली पाठ की समीक्षा करते है तो उसी में अनेक स्थान में परिवर्तन और परिवर्धनादि मिलते है । और जो भी नवीन विकृतियाँ दाखिल हुई है या उनमें पाठसुधार की जो कोशिशें की गई है वह निम्नोक्त स्वरूप की हैः— 1. काश्मीरी पाठ में विरासत में मिले जिन अश्लीलांशों का परिचय उपर दिया गया है, उनका मैथिल परम्परा में बहुशः स्वीकार किया गया है । केवल "शकु0 – कदा । राजा – यदा सुरतरसज्ञो भविष्यामि" वाला तृतीय अश्लील संवाद हटाया गया है ।। 2. रंगसूचनाओं के सन्दर्भ में जिन विसंगतिओं का निरूपण पर किया गया है, वह भी बहुशः यथातथ रूप में इस मैथिली पाठ में प्रतिबिम्बित हुई है । यद्यपि मदनलेख लिखते समय शकुन्तला को बिठाई नहीं गई है । यहाँ केवल "चिन्तयति" ऐसी ही रंगसूचना है । इसमें "आसीना चिन्तयति" नहीं कहा है । किन्तु मदनलेख के अक्षरों को सुन कर राजा जब शकुन्तला के सामने आ जाते है, और अनसूया राजा को शिलातल पर बैठने का कहती है, तब रंगसूचना रखी है कि - "शकुन्तला किंचित् पादावपसारयति" । उसके बाद, अनुसूया कहती है कि, "0मेघवादाहदं विअ गिम्हमोरिं0" मेघों के वायु से जैसे ग्रीष्म काल की मयूरी में जीवन का पुनः संचार होता है वैसे प्रियसखी शुद्धि में आ रही है । तब रंगसूचना "शकुन्तला सलज्जा तिष्ठति" आती है । अब शकुन्तला खडी है, तब उसको कहा जाता है कि "अङ्के निधाय चरणावुत पद्मताम्रौ संवाहयामि करभोरु यथासुखं ते ।।" और फिर रंगसूचना से कहा जाता है कि "इति अवस्थासदृशम् उत्थाय प्रस्थिता " । इस तरह से कुसुमशयना शकुन्तला के दृश्य की जो मंचन-योजना कवि ने मूल में सोची थी, ( जिसमें शकुन्तला को मदनलेख लिखते समय भी लेटे रहना है और राजा शिलातल पर बैठे तब भी लेटे रहना है ), उनमें से केवल द्वितीय सोपान पर, मैथिली पाठ में परिवर्तन किया गया है ।। 3. शकुन्तला जब कहती है कि राजा की मैं अनुकम्पनीया होउँ ऐसा कुछ करो, अन्यथा मुझ पर उदक छिडक देना । जिसको सुन कर राजा कहता है कि "अहो विमर्शच्छेदि वचनम् । एतदवस्थापि मां सुखयति ।" यहाँ काश्मीरी वाचना के "एतावत्कामफलम्, यत्नफलमन्यत्" वाले वाक्य में सुधार किया गया है ऐसा स्पष्ट दिखता है ।। 4. प्रियंवदा ने जब कहा कि हमारी सखी नायक से मिले बिना नहीं रह सकेगी, "अक्षमा इयं खलु कालहरणस्य", तब मैथिल पाठ में तुरन्त ही दोनों का समागम कैसे करवाया जाय उसकी ही चिन्ता प्रस्तुत होती है । यहाँ काश्मीरी शारदापाठ के अनुसार "सागर और महानदी ", तथा "सहकार और अतिमुक्त लता", या "चित्राविशाखा एवं शशाङ्कलेखा" जैसे तीन में से एक ही उपमान दिया गया है, लेकिन उसको स्थानान्तरित किया गया है । मैथिली पाठ में इतना संक्षेप हुआ है । ( अथवा काश्मीरी पाठ में उक्त उपमानवाले संवादों का प्रक्षेप पश्चात्काल में हुआ होगा । ) 5. जिन पाँच अधिक श्लोकों का प्रक्षेप हुआ है वह इस तरह से हैः- (1) अनिशमपि मकरकेतुर्मनसो रुजमावहन्नभिमतो मे । यदि मदिरायतनयनां तामधिकृत्य प्रहरतीति ।। (मै0 3-5) (2) वृथैव संकल्पशतैरजस्रमनङ्ग नीतोऽसि मयातिवृद्धिम् । आकृष्य चापं श्रवणोपकण्ठं मय्येव युक्तस्तव बाणमोक्षः ।। (मै0 3-6) तीसरे अङ्क के आरम्भ में, मदनावस्थ दुष्यन्त का प्रवेश होते ही उसने कामदेव को कोसना शुरु किया है । जिसके लिए "तव कुसुमशरत्वं0" वाला श्लोक पर्याप्त है । किन्तु जब उसी विचार की पुनरुक्ति उपर्युक्त दोनों श्लोकों से होती है तो उसकी मौलिकता शङ्का के दायरे में आ जाती है । क्योंकि नाटक जैसी समयबद्ध कला में विशेष प्रयोजन के अभाव में पुनरुक्ति असह्य होती है । तथा च, जब काश्मीर की शारदापाठ परम्परा का इन श्लोकों को समर्थन नहीं है, तब तो उनको प्रक्षिप्त मानने का कारण बनता है ।। (3) संमीलन्ति न तावद् बन्धनकोषास्तयाऽवचितपुष्पाः । क्षीरस्निग्धाश्चामी दृश्यन्ते किसलयच्छेदाः ।। (मै0 3-7) इस श्लोक की मौलिकता संदिग्ध है । क्योंकि इस श्लोक में कहा गया है कि शकुन्तला ने जिस पौधे से पुष्पचयन किया है उसके बन्धनकोश अभी बंध नहीं हुए है । तथा किसलय के च्छेदों में से अभी भी दूध निकलने से वे स्निग्ध दिख रहे हैं । इससे नायक को लगता है कि शकुन्तला थोड़ी ही देर पहेले यहाँ से गई है ।। लेकिन यह श्लोक आन्तरिक सम्भावना की दृष्टि से देखा जायेगा तो मौलिक नहीं है । क्योंकि कवि ने शकुन्तला का वनस्पति-प्रेम वर्णित करते हुए कहा है कि उसको सभी वृक्ष एवं लताओं के प्रति सहोदर जैसा स्नेह है । और, उसको मण्डन करना प्रिय होते हुए भी वो कभी भी वृक्षों से एक पल्लव भी नहीं तोडती थी । अतः इसी कृति में शकुन्तला का जो प्रकृति-प्रेम प्रदर्शित किया गया है उसके अनुसार तो वह रास्ते में आते-जाते पुष्पों और किसलयों को तोड़ती हुई नहीं जा सकती है । इससे प्रमाणित होता है कि मैथिली पाठ में प्रथम बार प्रविष्ट हुआ यह श्लोक प्रक्षिप्त ही है ।। (4) अयं स यस्मात् प्रणयावधीरणाम् अशङ्कनीयां करभोरु शङ्कसे । उपस्थिस्त्वां प्रणयोत्सुको जनो, न रत्नमन्विष्यते, मृग्यते हि तत् ।। (मै0 3-16) शकुन्तला ने मदनलेख लिखने से पहेले अपने प्रेमप्रस्ताव का स्वीकार होगा या नहीं ? इस विषय में एक आशङ्का व्यक्त की है । जिसको सुन कर नायक दुष्यन्त ने निम्नोक्त श्लोक उच्चारा हैः— अयं स ते तिष्ठति संगमोत्सुको विशङ्कसे भीरु यतोऽवधीरणाम् । लभेत वा प्रार्थयिता न वा श्रियं, श्रिया दुरापः कथमीप्सितो भवेत् ।। (मै0 3-15) इस श्लोक के बाद, उपर्युक्त 3-16 श्लोक की क्या आवश्यकता थी ? ऐसा सहज प्रश्न होता है । दूसरा, इन में "अवधीरणा" शब्द की पुनरुक्ति हो रही है । जिसको देख कर भी लगता है कि इन दोनों में से कोई एक श्लोक मौलिक नहीं होगा । काव्यशास्त्रिओं ने ( और उनका अनुसरण करनेवाले टीकाकारों ने ) श्लोक 3 : 16 में उद्देश्य-प्रतिनिर्देश्य का प्रक्रमभङ्ग हो रहा है, जो एक काव्यदोष है ऐसा कहा है । तथा पूर्वापर चरणों का व्यत्यय करके पाठ प्रस्तुत करने का सुझाव दिया है । और "कथं न लभ्येत नरः श्रियार्थितः" ऐसा नया पाठ भी सूचित किया है, जिससे पर्यायप्रक्रमभङ्ग का दोष नहीं आयेगा । इस तरह काव्यदोष के परिहार करने के दो दो सुझाव प्रस्तुत करने के बाद भी किसी काव्यरसिक ने तीसरे उपायान्तर के रूप में एक नया श्लोक ही लिख कर उसे "अपि च" के द्वारा प्रक्षिप्त कर देने की चेष्टा की है । "अवधीरणा" शब्द की पुनरुक्ति के साथ जो दूसरा श्लोक हमारे सामने आ रहा है उसका राझ सम्भवतः उपर्युक्त काव्यदोष है । और इस दूसरे श्लोक की मौलिकता की आशङ्का को दृढ करनेवाला "प्रणय" शब्द है, जो दो बार इसमें प्रयुक्त हुआ है । पूर्व श्लोक (3-15) में संगम की उत्सुकता व्यक्त करने के बाद प्रणय की उत्सुकता दिखाना वह भी एक तरह का क्रमभङ्ग ही है । प्रणय एक लम्बी राह है, जिसमें संगम अन्तिम लक्ष्य है । अतः संगमोत्सुक बोल देने के बाद नायक अपने को प्रणयोत्सुक कहे वह अनुचित सा लगता है । तीसरा बिन्दु यह भी है कि इन दोनों श्लोकों को "अपि च" जैसे निपास से बांधे गये हैं । "अपि च" निपात से बांधे गये श्लोक से ऐसी अपेक्षा रहती है कि वह कुछ नये अर्थ, नये दृश्य का समुच्चय प्रस्तुत करे । सारभूत बात यही निकलती है की "अपि च" से प्रस्तुत हुआ दूसरा श्लोक प्रक्षिप्त है ।। (5) गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः । श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चानुमोदिताः ।। (मै0 3-27) मैथिली पाठ में ही सब से पहेली बार इस श्लोक को दाखिल किया गया है । क्योंकि यह श्लोक काश्मीर की एक भी शारदा पाण्डुलिपि में आता ही नहीं है । तृतीयांक में, जब मृगबाल को उनकी माता के पास पहुँचाने का बहाना बना कर प्रियंवदा और अनुसूया लतामण्डप से दूर चली जाती है । तब रंगमंच पर दुष्यन्त और शकुन्तला अकेले है । सखीजनों की भूमिका पर अब दुष्यन्त खडा है । मध्याह्न का समय होने से वह शकुन्तला को नलिनीदल से आर्द्र वायु का संचार करने का इच्छुक है, और शकुन्तला कहे तो उसके चरणों का संवाहन करने को भी तैयार है ! किन्तु शकुन्तला माननीय व्यक्ति से ऐसी सेवा लेना उचित नहीं समझती है । अतः वहाँ से ऊठ कर चली जाती है । दुष्यन्त उसके पीछे चल पडता है और उसका पल्लु पकड कर उसे रोकने की चेष्टा करता है । शकुन्तला कहती है कि "पौरव, रक्ष अविनयम् । इतस्ततः ऋषयः संचरन्ति ।।" इस संवाद के बाद राजा की जो उक्ति है, उसकी मौलिकता संदेहास्पद हैः – राजा – सुन्दरि, अलं गुरुजनाद् भयेन । न ते विदितधर्मा तत्रभवान् कण्वः खेदमुपयास्यति । गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः । श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चानुमोदिताः ।। (मै0 3-27) ( दिशोSवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोSस्मि । ( ससंभ्रमं शकुन्तलां हित्वा तेनैव पथा पुनर्निवर्तते । ) यहाँ, लतामण्डप से बाहर निकल कर दुष्यन्त शकुन्तला का पल्लु पकड कर रोकता है । तब उसको सावधान करने के लिए शकुन्तला ने "यहाँ वहाँ ऋषिमुनि लोग घुम रहे होगें" ऐसा कहा है । इस सन्दर्भ में दुष्यन्त कहता है कि गुरुजनों से भय रखने की आवश्यकता नहीं है, कण्व भी ( तुझे प्रेमासक्त या विवाहित जान कर ) खेद का अनुभव नहीं करेंगे । अर्थात् तेरे पर नाराज नहीं होगें । दुष्यन्त यहाँ विशेष में यह भी कहता है कि गान्धर्व-विवाह से विवाहित हुई बहुत सी मुनिकन्यायें है, जो (बाद में) पिताओं के द्वारा अनुमोदित भी हुई है । इस श्लोक पर किसी विद्वान् ने नुकताचीनी शायद नहीं की है । लेकिन सम्भव है कि किसी साहित्यरसिक की दृष्टि में, दुष्यन्त ने यहाँ शकुन्तला को गान्धर्व-विवाह के लिये उकसाया है – ऐसा भाव ऊठ सकता है । ऐसी संवित्ति मुखर हो कर सामने आये या न आये, लेकिन शकुन्तला जब कह रही है कि आसपास में ऋषि-मुनि घुम रहे होंगे, तब तो विनीत वर्ताव की ही अपेक्षा है । उससे विपरित दुष्यन्त गुरुजनों से डरने की कोई जरूरत नहीं है ऐसा समझाने का उपक्रम शूरु करे वह दुष्यन्त के चरित के अनुरूप नहीं है । किन्तु दुष्यन्त के मुख में रखा गया प्रथम वाक्य एवं "गान्धर्वेण विवाहेन"0 वाला श्लोक बीच में से हटाया जाय तो, जो रंगसूचना सहित अनुगामी वाक्य है, "( दिशोऽवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोऽस्मि । ( शकुन्तलां हित्वा पुनस्तैरेव पदैः पुनर्निवर्तते । )" वह बीलकुल सही सिद्ध होता है । इसमें विचार-सातत्य भी है, और दुष्यन्त का लतामण्डप में वापस चला जाना भी शकुन्तला की उक्ति से सुसम्बद्ध है ।। तथा च, महाभारत के शकुन्तलोपाख्यान में दुष्यन्त ने ही गान्धर्व-विवाह का प्रस्ताव रखा है और शकुन्तला को प्राप्त करने के लिए बहुत उतावला हो गया है । उस मूल कथा में सुधार करने के लिये उद्यत हुए महाकवि के लिए प्रेम का उदात्त चित्र खिंचना मुनासिब है, तो फिर उसको अपनी कलम से गान्धर्व-विवाह का प्रस्ताव क्यूं करायेगा ? ऐसे श्लोक से किसी मुग्धा मुनिकन्या को उकसाने की जरूरत ही नहीं थी । इसे, अर्थात् गान्धर्वेण विवाहेन0 वाले श्लोक को प्रक्षिप्त मान कर हटा देने से उदात्त और अभीष्ट प्रेम की गरिमा का स्वरूप पुनःप्रतिष्ठित होगा, जो महाकवि कालिदास को अभिप्रेत होगा ।। यद्यपि यह श्लोक प्रथम बार मैथिली में, तदनन्तर बंगाली में, और अन्त में देवनागरी एवं दाक्षिणात्य जैसी चारों वाचनाओं में संचरित हुआ है । तथापि सभी शारदा पाण्डुलिपिओं में उसका न होना भी अनुपेक्ष्य है, पुनर्विचारणीय है ।। 6. मैथिली पाठ के तीसरे अङ्क में अनेक स्थान पर नवीन पाठभेद किये गये है । ऐसे स्थानों का काश्मीरी और मैथिली पाठों का परस्पर तुलनात्मक अभ्यास करने से लगता है कि काश्मीरी वाचना की शारदा पाण्डुलिपियों में (ही) मौलिक या श्रद्धेय पाठ अधिकतर सुरक्षित रहे हैं ।। उदाहरण के लिए, (1) अङ्क के आरम्भ में, प्रवेशक के बाद नायक का प्रवेश होता है । वहाँ काश्मीरी वाचना में "ततः प्रविशति कामयानावस्थो राजा" ऐसा लिखा गया है । किन्तु "कामयान" शब्द दुरधिगम होने से मैथिली वाचना के किसी अज्ञात पाठशोधक ने "ततः प्रविशति मदनावस्थो राजा" ऐसा पाठपरिवर्तन कर दिया है ।। यहाँ पर काश्मीरी वाचना का पाठ ही मौलिक हो सकता है । उसके दो प्रमाण मिलते हैः- (क) वामन ने (सम्भवतः 5वीं शती में) "कामयानशब्दः सिद्धोऽनादिश्चेत् । 5-2-82" सूत्र से कामयान शब्द का समर्थन किया है । एवं (ख) कालिदास ने स्वयं इस शब्द का रघुवंश (19-50) में विनियोग किया है ।। (2) दुष्यन्त प्रातःसवन के बाद मन बहेलाने के लिए शकुन्तला को ढूँढता हुआ, शकुन्तला की पदपङ्क्ति का अनुससरण करता हुआ, मालिनी नदी के लतावलयों में जाता है । और उसे जब प्रिया का दर्शन होता है, तब (मैथिली पाठ में) उसके मुख में आनन्दोद्गार हैः अये लब्धं नेत्रनिर्वाणम् । किन्तु काश्मीरी वाचना में "अये लब्धं खलु नेत्रनिर्वापणम् ।" ऐसा शब्द उपलब्ध होता है ।। इन दोनों पाठभेदों की अन्तःसाक्ष्यों से परीक्षा की जाय तो "नेत्रनिर्वापणम्" शब्द ही मौलिक है ऐसा प्रमाणित होता है । जैसे कि, प्रवेशक में ही हमें कहा गया है कि जो उशीरानुलेप ले जाया जा रहा है, वह शकुन्तला के शरीरनिर्वापण के लिए है । ( तस्याः दाहे निर्वापणायेति । तस्याः शरीरनिर्वापणायेति । ), एवमेव, राजा एक श्लोक में कहता है कि "स्मर एव तापहेतुर्निर्वापयिता स एव मे जातः । (मै0 3-13)" इसमें भी निर्वापण क्रिया का ही उल्लेख है । अतः आन्तरिक सम्भावना से सिद्ध होता है कि काश्मीरी वाचना में जो पाठ मिलता है, वही मौलिक है । और पाठसंचरण के दौरान जो अनुलेखनीय क्षतियाँ प्रविष्ट होती है, तदनुसार यहाँ निर्वापण शब्द में से एक प-कार विगलित हो गया होगा, जिसके कारण निर्वापण से निर्वाण बन गया होगा ।। (3) काश्मीरी वाचना में सखी का नाम "अनसूया" है, किन्तु मंचन के दौरान किसी नट की उच्चारणगत क्षति होने से, मैथिली वाचना में वह "अनुसूया" बन गया है । किन्तु उपर्युक्त प्रमाणों से यदि अन्यत्र काश्मीरी वाचना का पाठ मौलिक या प्राचीनतम सिद्ध होता है तो, यहाँ पर भी "अनसूया" शब्द ही मूल में रहा होगा ऐसा हम मान सकते है ।। ( बंगाली पाठ में भी मैथिली पाठ का अनुगमन करते हुए अनुसूया शब्द ही रखा गया है । ) (4) काश्मीरी वाचना में शकुन्तला की एक उक्ति इस तरह की है : "(सलज्जम्) यतः प्रभृति सः तपोवनरक्षिता राजर्षिर्मम दर्शनपथं गतः, तत आरभ्योद्गतेनाभिलाषेणैतदवस्थास्मि संवृत्ता ।" किन्तु मैथिली वाचना में इसी एक वाक्य को दो भागों में विभाजित करके नाटकीयता के साथ प्रस्तुत किया जाता है । जैसे कि, "शकु0 – यतः प्रभृति स तपोवनरक्षिता राजर्षिः मम दर्शनपथं गतः, .... ( इत्यर्धोक्तेन लज्जां नाटयति ) । उभे – कथयतु प्रियसखी । शकु0 – तत आरभ्य तद्गतेन अभिलाषेण एतावदवस्था अस्मि संवृत्ता ।" और मैथिली पाठ के अनुसार शकुन्तला बोलते समय बीच में लज्जित हो कर रुक जाती है, उसमें अवश्य ही नाटकीयता है । तथा अन्य सभी वाचनाओं में इसी तरह का ही पाठ है, अतः मैथिली पाठ बहुशः रंगकर्मिओं का, अथवा कदाचित् ही मौलिक पाठ हो सकता है । ( इसका समर्थन निम्नोक्त बिन्दु से होगा । ) (5) काश्मीरी वाचना के पाठ में प्रविष्ट हुए प्रक्षेपों की चर्चा करते समय हमने देखा है कि नायिका का प्रेमभाजन दुष्यन्त है ऐसा जान कर दोनों सहेलियों ने "सागर और महानदी", तथा "सहकार और अतिमुक्त लता" का उपमान प्रयुक्त किये है । तथा वहाँ पर राजा ने भी तीनों सखियों के लिए "चित्रविशाखा नक्षत्र और शशाङ्कलेखा" के उपमान का विनियोग किया है । लेकिन शकुन्तला की स्थिति "अक्षमा कालहरणस्य" है ऐसा प्रियंवदा का निरीक्षण प्रस्तुत होने के बाद इन काव्यात्मक उपमानों का होना भी असह्य बनता है – ऐसा निष्कर्ष कहा गया है । अतः इस सन्दर्भ में मैथिली पाठ की क्या स्थिति है वह परीक्ष्य हैः—मैथिली पाठ में उपर्युक्त काश्मीरी पाठ का अनुगमन नहीं किया गया है । अनुसूया ने "अक्षमा इयं खलु कालहरणस्य" ऐसा प्रियंवदा से सुन कर तुरन्त "सखी का मनोरथ सम्पादित करने के लिए कौन सा उपाय किया जाय, जो अविलम्बी हो और निभृत भी हो ?" उसकी ही चिन्ता व्यक्त की है । ऐसा पाठ बीलकुल सन्दर्भोचित प्रतीत होता है । किन्तु, काश्मीरी पाठ में प्रविष्ट हुए उपर्युक्त तीनों उपमान चित्ताकर्षक तो थे ही, और उसके मोह से छुटना भी तो सरल नहीं था । अतः, काश्मीरी पाठ में शकुन्तला जब कहती है कि "ततः आरभ्य तद्गतेनाभिलाषेण एतावदवस्थास्मि संवृत्ता" । तब इस बातको सुन कर राजा "(सहर्षम्) श्रुतं श्रोतव्यम् ।" ऐसा तुरन्त प्रतिभाव प्रकट करता है । जो अत्यन्त स्वाभाविक लगता है । किन्तु मैथिली पाठ में, शकुन्तला और राजा की उपर्युक्त उक्तियों के बीच में दोनों सहेलियों ने एकसाथ में शकुन्तला के अनुराग का समर्थन किया है । "उभे – दिष्ट्या इदानीं ते अनुरूपवराभिलाषः । अथवा सागरं वर्जयित्वा कुत्र वा महानद्या प्रवेशितव्यम् ।” यहाँ राजा की उक्ति से उनका जो झटिति उत्साहित हो जाना दिखता है उसमें बीच में प्रविष्ट हुई सहेलियों की संयुक्त उक्ति से बाधा डाली गई है ऐसा साफ दिख रहा है । अतः मैथिली पाठ में, उत्तरवर्ती काल में पाठशोधन की कुछ प्रवृत्ति हुई है ऐसा स्पष्ट लगता है । यहाँ काश्मीरी पाठ का एक गुणपक्ष शब्दबद्ध करना जरुरी है । शकुन्तला ने जब कहा कि मेरा उस राजर्षि से समागम करवाओ, अन्यथा मेरा जीना मूश्किल हो जायेगा । तब प्रियंवदा ने "अक्षमा इयं खलु कालहरणस्य" इतना ही नहीं कहा है । काश्मीरी पाठ कहता है कि प्रियंवदा ने यहाँ दो अन्य वाक्य भी कहे है । जैसे कि, "यस्मिन् बद्धभावा सोऽपि ललामभूतः पौरवाणाम्, तत् त्वरितव्यम् एवास्या अभिलाषम् अनुवर्तितुम् ।" अर्थात् प्रियंवदा ने शकुन्तला के अनुराग का पात्रीभूत व्यक्ति को नाप कर ही उसके अभिलाष का अनुवर्तन करने का औचित्य भी स्पष्ट किया है । जिसमें अनसूया को ओर कुछ विशेष कहेने कि आवश्यकता नहीं थी ।। लेकिन मैथिली पाठ का शोधन करनेवाले किसी अज्ञात व्यक्ति ने प्रियंवदा के उपर्युक्त दो वाक्यों को मैथिली वाचना में से हटा दिये हैं । और उसी तरह के पाठ का अनुसरण बंगाली पाठ में भी हुआ । जिसके कारण प्रियंवदा के उपर्युक्त दोनों वाक्य बंगाली वाचना के पाठ में से भी गायब हो गये हैं ।। ( हाँ, देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचना की पाठधारक पाण्डुलिपिओं में काश्मीरी वाचना का अनुवर्तन हुआ है, इस लिए ये दोनों वाक्य उसमें मिलते है । तथा काश्मीरी पाठ में दाखिल हुए सागर और महानदी आदि के तीनों उपमान भी देवनागरी में संचरित हुए हैं । ) । (6) काश्मीरी पाठ में, प्रियंवदा जब राजा को निवेदन करती है कि आपको उद्देश्य करके कामदेव ने हमारी सखी को ऐसी अवस्था में पहुँचाई है । तो आप उसके जीवन को अवलम्बन दीजिए । तब शकुन्तला सतर्क हो कर बोलती है कि "हला, अलं वोऽन्तःपुरविहारपर्युत्सुकेन राजर्षिणोपरोधेन ।" यहाँ पर मैथिली पाठ में "अन्तःपुरविरह0" ऐसा भिन्न पाठ मिलता है । जिसमें प्रतिलिपिकरण के दौरान विहार में से विरह ऐसा शब्दभेद आकारित हुआ होगा । लेकिन प्रकृत प्रसंग में दोनों शब्दों का अर्थगाम्भीर्य बदल जाता है । यहाँ काश्मीरी पाठ प्राचीनतम होने की सम्भावना है, इसी लिए "अन्तःपुरविहार0" जैसे पाठान्तर का ही आदर करना चाहिए ऐसा हम झटिति निर्णय नहीं देगें । एवमेव, काश्मीरी वाचना को छोड कर अन्य सभी वाचनाओं में तो "अन्तःपुरविरह0" है, इस लिए बहुसंख्यक पाण्डुलिपियों के समर्थन को अग्रेसर करके भी निर्णय नहीं देगें । क्योंकि दोनों पाठान्तर में अपनी अपनी चमत्कृति बराबर है । अतः यहाँ सर्वतो बलीयान् प्रमाण के रूप में आन्तरिक सम्भावना का प्रमाण ही उपस्थित करना होगाः-- शकुन्तला के वचन का अर्थवाद करते हुए अनसूया ने आगे चल कर कहा है कि "वयस्य, बहुवल्लभा राजानः श्रूयन्ते ।" उसमें, और इसी तरह से, राजा ने भी सभी को आश्वस्त करते हुए "परिग्रहबहुत्वेऽपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य मे" ऐसे जो वचन कहे है उसमें बहु-शब्द का सन्निवेश महत्त्वपूर्ण है । इससे सिद्ध होता है कि काश्मीरी पाठानुसारी "अन्तःपुरविहार0" पाठान्तर ही यहाँ मौलिक हो सकता है । (7) काश्मीरी पाठ के अनुसार राजा ने सखिओं को कहा है कि, "परिग्रहबहुत्वेऽपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य मे । धर्मेणोल्लिखिता लक्ष्मीस्सखी च युवयोरियम् ।।" इसमें परिवर्तन करके, मैथिली वाचना में श्लोक का तृतीय चरण बदल दिया गया हैः-- "समुद्ररसना चोर्वी0" ।। तथा बंगाली वाचना में इसी परिवर्तित पाठ का अनुगमन किया गया है । ( कालान्तर में यहाँ "समुद्ररशना चोर्वी0" एवं "समुद्रवसना चोर्वी0" जैसे पाठभेद भी उद्भावित किये गये हैं । जो देवनागरी वाचना की पाण्डुलिपियों में प्रतिबिम्बित हुए हैं ।। ) (9) काश्मीरी पाठ में, दुष्यन्त जैसे ही प्रिया का अधरपान करने को व्यवसित होता है, कि तुरन्त नेपथ्य से कहा जाता हैः- "आर्या गौतमी" । इस तरह से आसपास में छिप कर बैठी सखिओं ने इन दोनों नायक-नायिका को सावधान कर दिया है । किन्तु मैथिली वाचना में जो नेपथ्योक्ति है वह नितराम् व्यञ्जनापूर्ण है । उसमें कहा जाता है कि, "अयि चक्रवाकवधु, आमन्त्रयस्व सहचरम् । उपस्थिता रजनी ।" मैथिली पाठ के अनुसार ही बंगाली और देवनागरी आदि वाचनाओं में पाठ संचरित हुआ है । यहाँ, मैथिली पाठ मौलिक होने का दावा इस लिए करता है कि उसमें शकुन्तला के लिए चक्रवाक पक्षी का प्रतीक उपयोग में लिया गया है । इस तरह के निसर्ग से लिए गये अन्यान्य प्रतीकों से नाट्य का प्रवर्तन करने की "अपूर्व" प्रयुक्ति ही इस नाटक में शूरु से ही प्रयुक्त की गई है । (10)गौतमी शकुन्तला को ले कर रंगमंच से निकल जाती है । दुष्यन्त अब प्रिया का स्मरण करता हुआ एक श्लोक बोलता हैः- मुहुरङ्गुलिसंवृत्ताधरोष्ठं प्रतिषेधाक्षरविक्लवाभिधानम् । मुखमंसविवर्ति पक्ष्मलाक्ष्याः कथमप्युन्नमितं, न चुम्बितं तु ।। (का0 3-32) इस काश्मीरी पाठ में परिवर्तन करके मैथिली वाचना के किसी अज्ञात पाठशोधक ने अन्तिम चरण में "न चुम्बितं तत्" ऐसा पाठभेद किया है । इस श्लोक के अन्तिम पद के रूप में आये "तु" अव्यय को जिसने निरर्थक पादपूरक निपात समझा है, उसीने उसको बदल कर, "मुखम्" जैसे नपुंसकलिंग नाम के साथ सम्बन्ध रखनेवाला "तत्" सर्वनाम रख दिया है । किन्तु कालिदास ने बडी चातुरी के साथ "तु" का प्रयोग किया है, और वह भी चरण के अन्तिम पद के रूप में । क्योंकि दुष्यन्त अपनी प्रियतमा का अधरोष्ठपान करने के लिए उद्यत तो हुआ था, लेकिन गौतमी के आगमन के कारण वह उनसे वंचित रह गया है । अतः कवि ने "तु" का प्रयोग करके चुम्बन की मुद्रा वाले नायक को ही नाटकीय ढंग से मंच पर उपस्थित कर दिया है ! अभिनयन की इस विशेष योजना मैथिली वाचना के पाठशोधक के ध्यान में नहीं होगी, अतः उसने "तत्" पद रखा होगा ।। ( बंगाली वाचना की पाण्डुलिपियों में भी इसी तत्-पदवाला पाठान्तर स्वीकारा गया है । ) 7. काश्मीरी वाचना में शौरसेनी प्राकृत भाषा का विनियोग दिखाई रहा है । कालान्तर में वही पाठ जब मैथिली वाचना में संक्रान्त हुआ होगा तब उसमें कुछ हद तक शौरसेनी का स्वरूप बदलता गया है, और उसके स्थान में ( उत्तरवर्ती काल की ) महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव मिलना शूरु हो जाता है । निदर्शात्मक एक-दो स्थान द्रष्टव्य हैः—(1) शौरसेनी में थकार का धकार होता है । जिसमें कालान्तर में हकार का परिवर्तन आ गया है । 1. मनोरथ – मणोरध – मणोरह ।, अथवा – अधवा – अहवा ।, (2) रेफोत्तरवर्ती यकार जब संयुक्ताक्षर के रूप में प्रयोग होता है, तो शौरसेनी में समीकरण की प्रक्रिया से उसका "य्य" में परिवर्तन होता है । किन्तु मैथिली वाचना में उस य्य- का ज्ज में परिवर्तन कर दिया गया है । उदाहरण के लिए , आर्यपुत्र – अय्यउत्त – अज्जउत्त ।, (3) काश्मीरी पाठ में धकार का धकार में ही प्रयोग मिल रहा है । किन्तु वही पाठ जब मैथिली में जाता है, तब उसका हकार में परिवर्तन हुआ है ऐसा दिखता है । अपराध – अपराध – अपराह ।। इन उदाहरणों के बल पर कह सकते है कि, काश्मीरी पाठ में शौरसेनी-प्राकृत का संरक्षण हुआ है और मैथिली पाठ में (तथा उसी तरह से बंगाली में भी) उत्तरवर्ती काल की महाराष्ट्री-प्राकृत का प्रभाव शूरु हुआ है । यह बात भी काश्मीरी पाठ का प्राचीनतमत्व भी सिद्ध करता है, और मैथिली पाठ का उत्तरवर्तित्व बताता है ।। 8. काश्मीरी पाठ में किसी भी अङ्क का नामकरण नहीं मिलता है । लेकिन मैथिली पाठ में तीसरे अङ्क का नाम शृङ्गारभोग दिया गया है ।। यह भी उत्तरवर्ती काल का उपक्रम हो सकता है । क्योंकि काश्मीरी पाठ में ऐसे नाम नहीं मिलते है, और उसका सार्वत्रिक अनुसरण भी नहीं हुआ है । [ 13 ] अब, चतुर्थ सोपान पर बंगाली वाचनानुसारी तीसरे अङ्क के पाठ में जो परिवर्तन आये हैं उसकी चर्चा करना अभीष्ट है । बंगाली वाचना ने मैथिली वाचना के पाठ का बहुशः स्वीकार किया है । जैसे कि, 1. अश्लीलांशो का अनुसरण किया है । और उसमें भी मैथिली पाठ की तरह "सुरतरसज्ञो भविष्यामि" वाले तीसरे अश्लीलांश का स्वीकार नहीं किया है । 2. मैथिली पाठ में जिन पाँच नये श्लोक प्रक्षिप्त किये हैं, उनका बंगाली वाचना में यथावत् स्वीकार किया गया है । किन्तु इसके साथ में एक नया (षष्ठ) श्लोक प्रक्षिप्त किया है ऐसा दिखता है । जैसे कि, अनुसूया शकुन्तला की मदनावस्था को देख कर बोलती है कि शकुन्तला को जो अङ्गसंताप हो रहा है वह बलवान् है । अतः शकुन्तला को कुछ पुछना चाहती है । यह सून कर दुःषन्त के मन में भी होता है कि शकुन्तला को पुछ ही लेना चाहिए । क्योंकि – शशिकरविशदान्यस्यास्तथा हि दुःसहनिदाघशंसीनि । भिन्नानि श्यामिकया मृणालनिर्माणवलयानि ।। (बं0 3 – 11) ।। "शकुन्तला ने अपने हाथों में मृणालतन्तुओं से बनाये वलय पहेने हैं वह चन्द्र–किरण जैसे शुभ्र होते हुए भी श्याम हो गये है, जो शकुन्तला के अङ्गसंताप को कह रहे है ।" इस श्लोक में " मृणालनिर्माणवलयानि " शब्द बहुवचन में है, वह पूर्व श्लोक ( 3 : 10 ) के "प्रशिथिलितमृणालैकवलयम्" के साथ असम्बद्ध सिद्ध होता है । पहेले जब कहा जाता है कि शकुन्तला ने हाथ में पहेना मृणाल का एक वलय प्रशिथिल है, तब तुरन्त ही अनुगामी श्लोक में कहा जाय कि शकुन्ताला ने मृणाल से बने अनेक वलय पहेने है, तो वह वदतोव्याघात है । अतः 3 : 11 श्लोक को प्रक्षिप्त मानना ही उचित होगा । इस नाट्यकृति के प्रत्येक शब्द, वाक्य को स्मृतिपट पर रखते हुए पुनरुक्ति या परस्पर विसंगतता है या नहीं ? इस आन्तरिक सम्भावना के दृष्टिबिन्दु से परीक्षण करेंगे तो अनेक प्रक्षिप्त स्थानों को हम पहेचान पायेंगे ।। 3. उपर्युक्त दो बिन्दुओं को देखने के बाद, रंगसूचनाओं सम्बन्धी जिन विसंगतियाँ मैथिली पाठ में है उस सन्दर्भ में बंगाली पाठ में कैसी स्थिति प्रवर्तमान है ? वह मुख्य रूप से देखना है । यहाँ प्रथमतः यह ज्ञातव्य है कि इन विसंगतिओं का अनुसरण बंगाली वाचना में नहीं हुआ है । कुसुमशयना शकुन्तला को यहाँ मदनलेख लिखते समय, एवं राजा को शिलातल पर साथ में बिठाया जाता है तब भी लेटी हुई ही रखी है ! लगता है कि बंगाली वाचना के पाठशोधकों के ध्यान में रंगसूचना-सम्बन्धी पूर्वोक्त विसंगतियाँ आई होगी, जिसके कारण उन्हों ने उसमें सुधार कर लिया है ।। यहाँ पाठालोचक को यह विचार करना सहज रूप से अनिवार्य है कि यदि रंगसूचनाओं सम्बन्धी कोई विसंगति बंगाली पाठ में है ही नहीं, तो उसी वाचना के पाठ को ही प्राथम्य क्यों न दिया जाय ? अर्थात् बिना कोई विसंगतिवाला पाठ, जो मूल में कवि ने स्वयं ही लिखा होगा, वही पाठ इस बंगाली वाचना में सुरक्षित रहा है, और कालान्तर में काश्मीर और मिथिला के रंगकर्मिओं ने उसी (मूल) बंगाली पाठ में विकार पैदा किये होंगे – ऐसा क्यूं नहीं मानते है ?। प्रश्न तो उचित ही है ।। किन्तु यहाँ एक अन्य प्रश्न उठाना चाहिए । जैसे कि, "यदि इस बंगाली पाठ में रंगसूचना से सम्बद्ध कोई विसंगति नहीं है तो, उस विसंगति को जन्म देनेवाला वो संवाद, जिसमें मेघनादाहत / मेघवाताहत मयूरी का उपमान प्रयुक्त किया गया है, क्या बंगाली पाठ में से निकाल ही दिया गया है ? या मिलता ही नहीं है ?" क्योंकि इस संवाद के अनुसन्धान में ही तो शकुन्तला धीरे धीरे स्वस्थ होती हुई लज्जा के साथ खडी होती है । ( इस संवाद को हटाने के बाद ही "सलज्जा तिष्ठति" जैसि रंगसूचना को हटाई जाना सम्भव थी । ) कहने का तात्पर्य यह है कि, विसंगतिओं के अभाव में बंगाली वाचना का पाठ मौलिक होने का कहने के लिए उपर्युक्त "मेघनादाहत मयूरी"वाला संवाद भी बंगाली पाठ में अनुपस्थित होना आवश्यक है । किन्तु ऐसा तो है नहीं ।। काश्मीरी वाचना के पाठशोधकों को कुसुमशयना शकुन्तला रंगमंच पर लम्बे समय तक लेटी रहे वह मुनासिब नहीं था, अतः उन्हों ने काव्यात्मक शैली में मेघनादाहत मयूरी के उपमान का आश्रयण (प्रक्षेपण) किया । इस तरह का संवाद जोड कर ( लेटी हुई शकुन्तला को राजा के सामने खडी करने के लिए ) "सलज्जा तिष्ठति" जैसि रंगसूचना दी है । उस काव्यात्मक शैली में रखे गये संवाद के मोहपाश में बंगाली वाचना के पाठशोधक भी बद्ध हो गये है । उन्हों ने भी इस संवाद में कुछ कांट-छांट करके, तथा उसकी प्रस्तुति का स्थान परिवर्तन करके उसे रखा है । उन्हों ने शकुन्तला की लेटी हुई अवस्था का विनियोग करते हुए, "अपराधमिमं ततः सहिष्ये यदि रम्भोरु तवाङ्गसङ्गसृष्टे । कुसुमास्तरणे क्लमापहं मे सुजनत्वादनुमन्यसेऽवकाशम् ।।(बं0 3-24)" इस अश्लील श्लोक को प्रस्तुत तो करना ही था, इस लिए जब राजा ने "यद्यपि मैं ने रानीवास में बहुत रानियाँ इकठ्ठी की है, किन्तु आप दोनों की सखी ही मेरे कुल की प्रतिष्ठा बनेगी ।" कहा तब दोनों सहेलियों ने "निर्वृते स्वः ।" शब्दों से परितोष जताया है । किन्तु बंगाली पाठशोधकों ने यहाँ एक नयी रंगसूचना जोडी हैः-- "शकुन्तला हर्षं सूचयति" । ( यह रंगसूचना अपूर्व है, अन्य किसी भी वाचना में नहीं है । ) उसके पीछे, प्रियंवदा बोलती है कि "अनुसूये, प्रेक्षस्व प्रेक्षस्व, मेघवाताहतामिव ग्रीष्मे मयूरीं क्षणे क्षणे प्रत्यागतजीवितां प्रियसखीम् ।" तब शकुन्तला कहेती है कि इस लोकपाल की क्षमा-याचना करो, तुम दोनों ने जो विस्रब्ध हो कर प्रलाप किया है उसके लिए... इत्यादि ।। यहाँ पर, मेघवाताहत मयूरी के उपमान का विनियोग करते हुए भी शकुन्तला को रंगमंच पर खडी करने की रंगसूचना नहीं दी गई है । किन्तु जो नवीन रंगसूचना जोडी है कि ( राजा ने शकुन्तला को "अपने कुल की प्रतिष्ठा" उद्घोषित की है, उसको सुन कर केवल दो सहेलियाँ ही संतुष्ट नहीं हुई है, ) शकुन्तला भी अपने मन का हर्ष सूचित करने लगती है – वह विचारणीय बिन्दु बनता है । यह नयी रंगसूचना ही सूचित करती है कि बंगाली पाठ में ( भले ही रंगसूचना से सम्बद्ध पूर्वोक्त विसंगतियां नहीं है, फिर ) भी खिलवाड करने में रंगकर्मी लोग सक्रिय थे । क्योंकि, शकुन्तला हर्ष सूचित कर रही है उसका ध्वनि तो ऐसा निकलता है कि मूल महाभारत में जो शकुन्तला ने अपने (ही) पुत्र को गादी मिले, उस समय को लेकर गान्धर्व विवाह के लिए सम्मति प्रदान की थी वही बात कालिदास की शकुन्तला के दिमाग में भी प्रकट रूप से थी । उसके मन में सही अर्थ में जो प्रेमावेश सुव्याप्त था, जिसका कथन "अन्यथा सिञ्चत मे उदकम्" शब्दों से पहेले किया गया है, उससे तो यह नयी रंगसूचना बीलकुल विरुद्ध है । अतः बंगाली पाठ में भी सुधार ही हुआ है, और वह भी मैथिली वाचना के पाठ के "अनुयायी पाठ" के रूप में हुआ है ऐसा कहेने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है ।। सारांशतः कहे तो, इस नाटक की बृहत्पाठ परम्परा के चतुर्थ सोपान पर बंगाली वाचना का पाठ आता है । जिसमें 1. काश्मीरी वाचना को विरासत में मिले जो अश्लील पाठ्यांश थे, वे मैथिली वाचना से गुजरता हुआ बंगाली वाचना के पाठ तक संचरित हुआ है । 2. मैथिली वाचना ने प्रक्षिप्त किये पाँच श्लोकों का स्वीकार करते हुए बंगाली वाचना के पाठशोधकों ने एक छठ्ठा श्लोक भी नया जोडा है । 3. बंगाली वाचना के पाठ में कुसुमशयना शकुन्तला को कवि की मूल योजनानुसार "अङ्के निधाय चरणावुत पद्मताम्रौ संवाहयामि करभोरु यतासुखं ते" श्लोक के शब्दों को सुन कर ही खडी की गई है, उससे पहेले नहीं, फिर भी "शकुन्तला हर्षं सूचयति " जैसि नयी रंगसूचना जोड कर अनिष्टार्थ का आविष्कार भी कर दिया है । 4. काश्मीरी पाठ में जिन उपमानों ( चित्राविशाखे और शशाङ्कलेखा आदि के ) का संनिवेश किया गया है, वह जैसे मैथिली पाठ में अग्राह्य बने है, वैसे बंगाली पाठ में भी अग्राह्य ही रहे है । 5. बंगाली पाठशोधकों ने प्राकृत उक्तिओं के सन्दर्भ में शौरसेनी का मूल स्वरूप सुरक्षित रखते हुए भी, मैथिली पाठ की तरह अमुक नये ध्वनिपरिवर्तन ( उदाहरण के लिए – आर्यपुत्र – अज्जउत्त, जो उत्तरवर्ती काल का है, उसे ) तो स्वीकार ही लिए है ।। [ 14 ] अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक के तृतीयाङ्क के पाठ में पँचम सोपान पर पाठविचलन हुआ है वह देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में देखा जाता है । इन दोनों वाचनाओं के पाठशोधकों ने परापूर्व से चले आ रहे अश्लील पाठ्यांशों को हटाने के लिए संक्षेपीकरण का मार्ग अपनाया । और इसके लिए, मैथिली पाठपरम्परा ने जो "गान्धर्वेण विवाहेन0" वाला श्लोक प्रक्षिप्त किया था उसका विनियोग करके परम्परागत पाठ में कटौती कर दी । जिसमें अश्लील अंशो की कटौती करने के साथ साथ, तीसरे अङ्क के बहुमूल्य दो दृश्यों ( 1. शकुन्तला के हाथ में मृणाल-वलय पहेनाना और 2. पुष्परज से कलुषित हुए शकुन्तला के नेत्र को वदनमारुत से निर्मल कर देने का समावेश होता है ) की भी कटौती की गई है । किन्तु उक्त अश्लीलांशो की कटौती होने के बाद भी रंगसूचना सम्बन्धी जो विसंगति काश्मीरी वाचना से प्रविष्ट हुई थी, और जो मैथिली पाठ में संचरित हुई थी, वह भी देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचना के पाठों में यथातथ बनी रही । अर्थात् कुसुमशयना शकुन्तला को रंगमंच पर कब तक प्रस्तुत करनी कवि को मूल में अभीष्ट थी ? इस बात की ओर देवनागरी के पाठशोधकों का भी ध्यान नहीं गया है ।। [ प्रस्तुत शोध-आलेख में जो भी विचारणा प्रस्तुत की गई है, वह श्रद्धेय डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल की अवधारणा से पूर्ण रूप से विपरित है । यद्यपि उन्होंने ऑक्सफर्ड की बोडलियन लाईब्रेरी में सुरक्षित इन शारदा पाण्डुलिपियों का प्रत्यक्ष विनियोग किया था, लेकिन अश्लील पाठ्यांशो के प्रक्षेप तथा रंगसूचना सम्बन्धी विसंगति की ओर उनका ध्यान नहीं गया है ऐसा लगता है । तथा गान्धर्वेण विवाहेन0 वाला श्लोक भी मैथिली एवं बंगाली पाठ में प्रक्षिप्त हुआ है वह पहेचाना नहीं है । इस विषय में यदि पुनःपरामर्शन होगा तो, "दुर्व्याख्याविषमूर्च्छिता कालिदास की भारती" पर महान् उपकार ही होगा ।। ] उपसंहारः अभिज्ञानशाकुन्तल की समग्र पाठालोचना में तीसरे अङ्क का पाठविचलन ही केन्द्रवर्तिनी चुनौती है । इस अङ्क में, मंचन के दौरान मदनाविष्ट शकुन्तला को लेटी हुई अवस्था में प्रस्तुत करने की योजना मूल में कवि कालिदास की ही है । किन्तु लेटी हुई नायिका को मंच पर प्रस्तुत करने का ऐसा मौका मिलने पर विभिन्न कालखण्ड के रंगकर्मिओं ने उसमें दो-तीन स्थानों में अश्लील पाठ्यांशों का प्रक्षेप किया है । तथा ऐसे अन्यान्य अश्लील प्रक्षेपों को रोकने के लिए, शायद दूसरे रंगकर्मिओं ने उसमें नवीन रंगसूचनाओं को जोड कर शकुन्तला को लेटी हुई अवस्था में से खडी भी की है और बैठी भी कर दी है । किन्तु ऐसा करने से इस दृश्य की मंचन-योजना में विसंगति पैदा हुई है । इस विरासत में मिली विसंगति को हम आज भी ढो रहे है । हमें उपलब्ध हो रही पाण्डुलिपियों में शारदालिपि-निबद्ध उक्त चार पाण्डुलिपियों ही प्राचीनतम है, जिसमें ऐसे अश्लील अंश विरासत में मिले है । अतः इससे अधिक पुराने समय की पाण्डुलिपियाँ जब तक खोजी नहीं जाती है तब तक हमें इदंप्रथमतया दो कार्य सिद्ध करना जरूरी हैः—1. इन तीनों अश्लील पाठ्यांशों का मौलिक न होना सिद्ध करने के लिए उच्चतर समीक्षा को मान्य हो ऐसे आन्तरिक सम्भावनायुक्त तर्कों को प्रस्तुत करना होगा । तथा 2. ऐसे अंशो दाखिल होने के बीजभूत कोई कारण हो तो उसको पहेचान कर, कवि ने सोची हो ऐसी कृतिनिष्ठ मंचन-योजना की पुनःस्थापना करनी होगी ।। इस नाटक की जो बृहत्पाठ परम्परा काश्मीरी, मैथिली और बंगाली वाचनाओं में संचरित हुई है उसकी पाठयात्रा का क्रम भी निर्धारित करना आवश्यक है । जिससे इन तीनों वाचनाओं में बिखरे हुए विभिन्न पाठभेदों और प्रक्षेप-संक्षेप का बुद्धिगम्य चित्र हमारे सामने उद्भासित हो सके । तथा वर्तमान में सर्वमान्य एवं सुप्रचलित बने देवनागरीवाचना के पाठ का आविर्भाव तो सब से अन्त में, पञ्चम सोपान पर हुआ है, इस बात की सप्रमाण उपस्थापना हो जाने के बाद, प्राचीन से प्राचीनतर, और प्राचीनतर से प्राचीनतम पाठ के रूप में काश्मीरी वाचना के पाठ की महिमा प्रतिष्ठित हो सकेगी । एवमेव, उसमें न केवल प्राचीनतम पाठ मिलता है, किन्तु उसमें ही अधिकतर मौलिक पाठ्यांश सुरक्षित रहे हैं – यह बात भी उजागर हो जायगी, यही है प्रस्तुत शोध-आलेख का प्रतिपाद्य विचार ।। शिवम् अस्तु ।। ------ 888888 ------ Bibliography काळे, एम. आर. (1898 प्रथमावृत्ति, दशवी आवृत्ति, 1969). अभिज्ञानशाकुन्तलम् ।. दिल्ली: मोतीलाल बनारसी दास. द्विवेदी, रेवाप्रसाद. (1976, 1986). कालिदास ग्रन्तावली. वाराणसी: बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय. पाटणकर, पी. एन. (1902). अभिज्ञानशकुन्तलम् ( शुद्धतर देवनागरी पाठ ). पूणें: शिरालकर एण्ड कं. बुधवार पेठ. राय, शारदा रञ्जन (1908). अभिज्ञानशाकुन्तलम् ।. कोलकाता. विलियम्स, मोनीयर. (1961, तृतीय संस्करण). शकुन्तला. वाराणसी: चौखम्बा संस्कृत सिरिझ ओफिस,. शास्त्री, गौरी नाथ. (1983). अभिज्ञानशकुन्तलम्. दिल्ली: साहित्य अकादेमी. सुकथंकर, वी. एस. (1933). महाभारतम् ( आदिपर्वन् ). पूणें: भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट.

कुसुमशयना शकुन्तला - अभिज्ञानशाकुन्तल (अङ्क - 3) के पाठविचलन का क्रम

कुसुमशयना शकुन्तला : अभिज्ञानशाकुन्तल ( अङ्क - 3 ) के पाठविचलन का क्रम वसन्तकुमार म. भट्ट निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद – 380 009 bhattvasant@yahoo.co.in ।। लेखस्यास्य सारसंक्षेपः ।। अभिज्ञानशाकुन्तले शीर्षकादारभ्य भरतवाक्यपर्यन्तं सर्वत्र पाठविचलनं वरीवर्तते । वर्तमाने जगति नाटकस्यास्य लघुपाठो बृहत्पाठश्च प्रकाशितौ दृश्येते । किन्तु अनयोः पाठयोर्मध्ये को वरेण्य अभिनेयो वेति विषये विप्रतिपत्तिः । अतः काश्मीरप्रदेशस्य शारदालिपिनिबद्धानां मातृकाणां साहाय्येन पाठविचलनस्य कीदृश्यानुक्रमिकता स्यादिति सप्रमाणमन्वेष्टुं यत्नो विहितः । येन च, तृतीयाङ्के प्रविष्टानामश्लीलपाठ्यांशानां परिचयपूर्वकं तेषां कथं प्रक्षिप्तत्वं सिद्ध्यतीति प्रदर्शितमत्र । ततः कुसुमशयनां शकुन्तलामधिकृत्य या रंगसूचनाः दरीदृश्यन्ते, तास्वपि यादृशी विसङ्गतिः प्रचलति, तस्या अवबोधः प्रदीयते । तदनन्तरं शारदापाठतः समारब्धायां पाठपरम्परायां केन क्रमेण मैथिलपाठे, ततश्च बंगीयपाठे नवीनानि प्रदूषणानि प्रविष्टानि तदप्यत्र विविक्तम् । अभिज्ञानशाकुन्तलस्य समीचीनं महिमानं प्रतिष्ठापयितुं तस्य बृहत्पाठस्य पर्यालोचनैवेदंप्रथमतया प्रवर्तनीयेति शोधलेखस्य विनम्रं निवेदनम् ।। भूमिकाः अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक के पाठ को लेकर सामान्य रूप से विद्वानों ने जो रवैया अपनाया है वह ऐसा है कि देवनागरी पाठ-परम्परा में संचरित हुआ पाठ, ( जिस पर राघवभट्ट ने अर्थद्योतनिका टीका लिखी है ) वही मौलिक पाठ है, ( या अधिक श्रद्धेय पाठ है ) । साथ में, इन विद्वानों ने ऐसा मान लिया है कि इस नाटक का जो बृहत्पाठ बंगाल या मिथिला में प्रचलित है वह अनेक प्रक्षेपों से भरा पडा पाठ है, और उसमें बहुत जगहों पर अश्लील पाठ्यांश भी आते हैं । ऐसा पाठ मौलिक नहीं हो सकता है, उसे सर्वथा त्याज्य पाठ ही मानना चाहिए । देवनागरी पाठ ( और बहुशः तदनुसारी दाक्षिणात्य पाठ ) के पक्षधर विद्वानों ने उपर्युक्त पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर बंगाल या मिथिला के बृहत्पाठ की ओर देखना भी छोड दिया है । जैसे छाछ और मख्खन को अलग कर लिया हो ! दूसरा बिन्दु : पूरे भारत वर्ष के विद्वानों के हाथ में जिन टीकाओं का प्रचार-प्रसार हुआ है वह ( देवनागरी पाठ पर लिखी गई ) राघवभट्ट की टीका, एवं ( दाक्षिणात्य पाठ पर लिखी गई ) काटयवेम, श्रीनिवास, अभिराम, घनश्याम, चर्चा, नीलकण्ठादि की टीकायें ( जिन सब का प्रणयन 15वीं शती में एवं उसके बाद हुआ है, ) ही हैं । अतः टीकाकारों के संसार में भी अभिज्ञानशाकुन्तल का लघुपाठ ही "मान्य पाठ" के रूप में प्रसिद्ध था । ( और उनमें से किसीने भी बृहत्पाठ की ओर दृष्टिपात किया हो उसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता है । तीसरा बिन्दु यह भी है कि बृहत्पाठ परम्परा में ( बंगाली और मैथिली पाठ के अलावा ) एक तीसरा पाठ भी था, जो काश्मीर की शारदा पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहा है । लेकिन वह उनके सही स्वरूप में हमारे सामने सम्यक् रूप से अद्यावधि नहीं आया है । अतः शारदा लिपि में लिखी हुई चार पाण्डुलिपियाँ एकत्र की गई है । जिसके तुलनात्मक अभ्यास से कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारियाँ हाँसिल हुई है । तदनुसार अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक (अङ्क-3) के मूल पाठ में कैसे क्रमिक परिवर्तन होता रहा है ? उसका यहाँ प्रथमबार परामर्शन किया जा रहा है ।। [ 1 ] अभिज्ञानशाकुन्तल की पाठालोचना में मुख्य रूप से तीसरे अङ्क को लेकर ही बडा भारी विवाद है, अतः इदंप्रथमतया यदि इसको ही सुलझाया जाय तो कवि कालिदास के द्वारा प्रणीत जो मौलिक पाठ होगा उसकी गवेषणा का सही मार्ग प्रशस्त हो सकता है । डॉ. राधावल्लभ त्रिपाठी जी, (सागर) द्वारा सम्पादित "नाट्यम्" ( अंकः 71-74, पृ. 27 से 57, डिसे. 2012 ) पत्रिका में "अभिज्ञानशाकुन्तल की देवनागरी वाचना में संक्षेपीकरण के पदचिह्न" शीर्षक से हमारा जो शोध-आलेख प्रकाशित हुआ है, उसमें देवनागरी वाचना का पाठ संक्षिप्त किया गया है यह बात अनेक आन्तरिक प्रमाणों से सिद्ध की गई है । ( उक्त चर्चा का फलितार्थ यह भी होता है कि अभिज्ञानशाकुन्तल के द्विविध पाठों में से पुरोगामी पाठ के रूप में बृहत्पाठ ही रहा होगा, जिसमें कालान्तर में संक्षेप किया गया है । ऐसा नहीं है कि कवि कालिदास ने मूल में लघुपाठ ही लिखा था, और बाद में किसीने उसमें अन्यान्य श्लोकों का प्रक्षेप करके, उसको बृहत्पाठ में परिवर्तित किया है । ) अब दूसरा कर्तव्य यह भी है कि इस नाटक का बृहत्पाठ जो बंगाली, मैथिली एवं काश्मीरी वाचनाओं में सुरक्षित रहा है उसकी पाठालोचना की जाय । ऐसा लगता है कि बृहत्पाठ परम्परा में संचरित हुए पाठ की नितान्त उपेक्षा होने का मुख्य कारण उसमें दाखिल हुए एकाधिक अश्लील पाठ्यांश ही है । अतः ऐसे अंश प्रविष्ट होने का मूलगामी कारण क्या है ? और उसमें क्रमशः कैसे विकार दाखिल होते गये है ? इसकी खोज किये बिना, हम कदापि इस नाटक के पाठ की संशुद्धि नहीं कर पायेंगे ।। [ 2 ] बृहत्पाठ परम्परा की मौलिकता पर प्रश्नचिह्न लगाने वाले दो ही मुख्य बिन्दुयें हैं : 1. उसके तृतीयाङ्क में, जहाँ दुष्यन्त और शकुन्तला का गान्धर्व-विवाह निरूपित किया गया है, अनेक स्थानों पर अश्लील पाठ्यांश आते हैं । तथा 2. इस परम्परा में नाटक का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तल" है, "अभिज्ञानशाकुन्तल" नहीं है ।। इन दोनों का समुचित समाधान करने के लिए, कालिदास ने इस नाटक को लिखने की प्रेरणा जहाँ से प्राप्त की है उस महाभारत के उपाख्यान की कहानी की ओर एक दृष्टिपात करना आवश्यक होगा : महाभारत के आदिपर्वान्तर्गत शकुन्तलोपाख्यान में दुःषन्त और शकुन्तला का गान्धर्व विवाह वर्णित किया है । जिसमें मृगयाविहारी दुःषन्त के दृष्टिपथ में कण्व मुनि की पाल्या दुहिता शकुन्तला आती है और वह उसके सौन्दर्य से लुलोभित होता है । दुःषन्त शकुन्तला से सद्यो विवाह का प्रस्ताव रखता है । किन्तु शकुन्तला पिता कण्व की अनुमति मिलना आवश्यक बताती है । तब मालिनी नदी के तट पर फलाहार लेने गये पिता कण्व की कुछ समय के लिए प्रतीक्षा करने को भी दुःषन्त तैयार नहीं था । यहाँ दुःषन्त शकुन्तला को प्राप्त करने के लिए उतावला हो गया है ऐसा चित्र मिलता है । ऐसी कामुकता से भरी अस्वाभाविक विवाह-कहानी आगे चल कर दुरवस्था के गर्त में जाकर गिरती है । दुःषन्त के पुत्र भरत को लेकर शकुन्तला जब हस्तिनापुर में पहुँचती है तो दुःषन्त बिना कोई शाप ही उसे पहेचानने से इन्कार करता है । (सुकथंकर, 1933) शकुन्तला अकेली ही दुःषन्त से वाद-विवाद करती है । इत्यादि ।। महाभारत में वर्णित ऐसी अभद्र कहानी में, (क) भावनात्मक परिवर्तन ला कर विवाह से पूर्व एक नैसर्गिक प्रेमसहचार का हृद्य चित्र उपस्थापित करने के लिए, महाकवि कालिदास ने इस "अभिज्ञानशाकुन्तल" नामक नाटक लिखा है । यहाँ हिरण, गज, बालमृगेन्द्र, शिरीष, कमल, भ्रमर, चक्रवाक, हंस, मयूर, सहकार, केसरवृक्ष, नवमालिका, माधवीलता जैसे पशु, पक्षि, पुष्प, वृक्षादि जैसे नैसर्गिक प्रतीकों को पार्श्वभूमि में रख कर निसर्गकन्या शकुन्तला की प्रेमकहानी को सार्वभौम स्वरूप में प्रस्तुत की जाती है। तथा (ख) महाभारत में पुत्र भरत की पैतृक पहेचान जो आकाशवाणी से सिद्ध की जाती है, वह कृत्रिम प्रतीत होती है । अतः उसके स्थान में कालिदास ने इस नाटक में अभिज्ञान की समस्या निर्मूल करने के लिए अनेक प्रतीतिकर साक्ष्यों की उपस्थापना की है, तथा उसकी प्रस्तुति बड़े नाटकीय ढंग से की है । और इन्हीं कारणों से यह नाटक विश्वनाट्यसाहित्य की प्रथम पङ्क्ति में विराजमान बना है ।। अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक को लिखने के पूर्वोक्त दो मुख्य प्रेरक परिबल ध्यान में रख कर ही हम बृहत्पाठ की पाठालोचना में प्रवेश करेंगे । क्योंकि, महाभारत की उपर्युक्त कहानी में बदलाव लाने के लिए कालिदास ने मूल नाटक में तो नायक-नायिका के नैसर्गिक प्रेमसहचार का गरिमामय चित्र उपस्थित करने का सोचा होगा । किन्तु इस नाटक का जो देवनागरी पाठ आज सार्वत्रिक रूप से प्रचलित हुआ है उसमें से तो वह विशुद्ध प्रेम का चित्र गायब सा हो गया है । लघुपाठ परम्परा के देवनागरी और दाक्षिणात्य पाठों में संक्षेपीकरण के कारण ( तृतीयांक से ) सच्चे प्रेमसहचार के दो दृश्यों की ही कटौती की गई है । दूसरी ओर, प्रकट रूप से दिखता है कि बृहत्पाठ की तीनों (काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली) वाचनाओं में कालिदासप्रणीत न हो ऐसे अनेक श्लोकों एवं अश्लील संवादों का प्रक्षेप किया गया है । अतः आज का पाठक यदि देवनागरी वाचना के लघुपाठ से अभिज्ञानशाकुन्तल पढता है तो मूल पाठ में भारी कटौती हुई है उनसे अनभिज्ञ रहता है, अथवा बृहत्पाठ की किसी भी वाचना के पाठ को लेकर इस नाटक का रसास्वाद लेना चाहता है तो वह अश्लील पाठ्यांशो को देख कर उद्विग्न हो जाता है । इस तरह इन दोनों पाठपरम्पराओं में इस नाटक का जो पाठ है वह महाकवि कालिदास का सच्चा परिचय नहीं दे रहा है । सर विलियम जोन्स (1789) ने जब से आधुनिक जगत् को अभिज्ञानशाकुन्तल का परिचय करवाया है तब से लेकर आज तक का पाठक या प्रेक्षक कविप्रणीत मूलपाठ की स्थिति क्या रही होगी ? इस विषय में सर्वथा अनजान ही है ।। [ 3 ] प्रस्तुत नाटक के तीसरे अङ्क में, कवि ने नायक-नायिका का गान्धर्व-विवाह वर्णित करने का उपक्रम स्वीकारा है । कवि ने इस प्रेमप्रसंग को रंगमंच पर प्रस्तुत करने के लिए जो योजना मूल में बनाई होगी वह इस तरह की दिख रही है : तपोवनकन्या शकुन्तला ने जब से इस राजर्षि को देखा है तब से वह उसके प्रति प्रेमाकृष्ट हुई है । यौवन में आई नायिका को प्रेम की प्रथम अनुभूति ने धीर धीरे पूर्ण रूप से कामाविष्ट कर दी है । ऐसी कामज्वर की दशा को दिखाने के लिए कवि ने उसे पुष्पों से सजाई शय्या पर सुलाई है और आसपास में बैठी दो सहेलियाँ उसे नलिनीदल से पवन झेल रही है । यज्ञशाला की रक्षा करने का कर्तव्य निभा कर राजा जब वहाँ से निवृत्त होता है तो उसे भी अपनी प्रियतमा की याद आती है । वह उसे ढूँढने के लिए मध्याह्न में लतावलय से घिरे मालिनी के तटों पर आता है । राजा : अये लब्धं नेत्रनिर्वाणम् । एषा मे मनोरथप्रियतमा सकुसुमास्तरणं शिलापट्टम् अधिशयाना सखीभ्याम् अन्वास्यते । भवतु, श्रोष्याम्यासां विस्रम्भकथितानि ।। (देवनागरी पाठ) ।। अब पुष्पमयी शय्या पर लेटी हुई नायिका को खडी करने की क्षण कवि ने जो सोच रखी है वह भी द्रष्टव्य है । जब दोनों सहेलियाँ राजा के मुख से सुन लेती है कि परिग्रहबहुत्वेपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य मे । समुद्रवसना चोर्वी सखी च युवयोरियम् ।। (3-17) । (देवनागरी पाठ) ।। तब वे दोनों "निर्वृते स्वः ।" बोल कर तुरन्त मृगपोतक को उनकी माँ के साथ संयोजित करने के बहाने वहाँ से विदा लेती है । शकुन्तला अपने को अकेली, अशरणा महेसूस करने लगती है । तब नायक उसे कहता है कि, अलमावेगेन । नन्वयमाराधयिता जनस्तव समीपे वर्तते । किं शीतलैः क्लमविनोदिभिरार्द्रवातान् संचारयामि नलिनीदलतालवृन्तैः । अङ्के निधाय करभोरु यथासुखं ते संवाहयामि चरणावुत पद्मताम्रौ ।। (3-18) । (देवनागरी पाठ) ।। तब शकुन्तला "न माननीयेषु आत्मानम् अपराधयिष्ये ।" कह कर, पुष्पों की शय्या का त्याग करके खडी हो जाय – यह कवि ने सोची हुई क्षण थी । ( जिसका गर्भितार्थ यह भी होता है कि शकुन्तला ने नलिनीपत्र पर अपने नाखूनों से जो मदनलेख लिखा था वह भी पुष्पशय्या में लेटी हुई अवस्था में ही लिखा था । ) लेकिन विभिन्न कालखण्ड में आये अनेक रंगकर्मिओं ने कवि की उपर्युक्त मूल योजना में बहुविध परिवर्तन कर दिया है । इन सब परिवर्तनों के कारण पाण्डुलिपियों में संचरित हुए पाठ में ( रंगसूचनाओं से सम्बद्ध मंचनयोजना में ) अनेक विसंगतियाँ खडी हुई है ।। उदाहरण के लिए देवनागरी (और दाक्षिणात्य) पाठ को देख लीजिए : तीसरे अङ्क के आरम्भ में दुष्यन्त के मुख से कहा गया है कि शकुन्तला कुसुमास्तरणवाले शिलापट्ट पर अधिशयाना है । शकुन्तला को यह भी मालूम नहीं होता है कि उसकी सहेलियाँ क्या उसे पवन झेल रही है ? । नायिका कामावस्था के विविध सोपान पार करके कहीं आगे निकल गई है । वह बोलती है कि यदि उस राजर्षि के साथ मेरा समागम नहीं होगा तो सहेलियों को मेरे शरीर पर तिलोदक ही छिडक देना पडेगा । तत्पश्चात् प्रियंवदा ने सुझाव दिया कि शकुन्तला दुष्यन्त को उद्देश्य कर एक मदनलेख लिखे, और वह उसे पुष्पों के पुडिये में छिपा कर, देवताशेष (देव प्रसाद) के बहाने उसके पास पहुँचा देगी । तब शकुन्तला कहती है : ( सस्मितम् ) णिओइआ दाणिं म्हि । ( नियोजितेदानीम् अस्मि । ) ( रंगसूचना – इत्युपविष्टा चिन्तयति । ) अर्थात् देवनागरी पाठ के अनुसार शकुन्तला ने शय्या से उठ कर, वहीं शिलापट्ट पर बैठ कर मदनलेख में क्या लिखा जाय वह सोचने की क्रिया की है । और फिर शकुन्तला ने कहा है कि "हला, चिन्तिदं मए गीदवत्थु । ण खु सण्णिहिदाणि उण लेहसाहणाणि । ( हला, चिन्तितं मया गीतवस्तु । न खलु संनिहितानि पुनर्लेखसाधनानि । )" तत्पश्चात् प्रियंवदा ने ही बतलाया कि "एतस्मिन् शुकोदरसुकुमारे नलिनीपत्रे नखैर्निक्षिप्तवर्णं कुरु" । अतः शकुन्तला ने वहीं बैठ कर ही अपने नाखून से नलिनीपत्र में "तव न जाने हृदयं मम पुनः कामो दिवापि रात्रावपि0" इत्यादि शब्दों से उस गीतिका को लिख देती है । अब उस गीतिका को सुन कर एकान्त में खडा दुष्यन्त सहसा शकुन्तला के सामने "तपति तनुगात्रि0" बोलता हुआ उपस्थित होता है । सखिओं ने अविलम्ब से उपस्थित हुए मनोरथों का, अर्थात् राजा का स्वागत किया । तब रंगसूचना दी गई है कि शकुन्तला अभ्युत्थातुमिच्छति । इस खडे होने की चेष्टा को रोकता हुआ राजा कहता है कि – अलमलमायासेन, संदष्टकुसुमशयनान्याशक्लान्तबिसभङ्गसुरभीणि । गुरुतापानि न ते गात्राण्युपचारम् अर्हन्ति ।। (3-15) ।। अनसूया – इतः शिलातलैकदेशम् अलङ्करोतु वयस्यः । राजा जब सामने आ ही गये है, तो समुदाचार अनुसार उसको बैठने के लिए कहा भी जाना चाहिए । यहाँ तीसरी रंगसूचना दी गई हैः- राजोपविशति । शकुन्तला सलज्जा तिष्ठति । राजा जब उसी शिलातल पर आसन ग्रहण करते है, तो स्त्रीसहज लज्जा से शकुन्तला तुरन्त शिलातल से उठ कर पास में खडी रह जाती है ।। पाठक या प्रेक्षक देख रहा है कि अङ्क के आरम्भ में शकुन्तला कुसुमास्तरण पर लेटी थी । बाद में, वह मदनलेख के शब्दों को सोचने और लिखने के लिए बैठती है । तत्पश्चात् राजा प्रकट होते है और उसको शिलातल पर बैठने के लिए कहा जाता है, तब वह सलज्जा खडी हो जाती है । इस तरह देवनागरी पाठ में, रंगमंच पर शकुन्तला की तीन स्थितियाँ बताई गई है । किन्तु आगे चल कर, जब सहेलियाँ मृगपोतक को उनकी माँ के पास संयोजित करवाने के बहाने रंगमंच से चली जाती है, और राजा नायिका का समाराधन करने के लिए "संवाहयामि चरणावुत पद्मताम्रौ" इत्यादि शब्दों से तत्परता दिखाता है, तब रंगसूचना के माध्यम से हमे कहा जाता है कि "इत्युत्थाय गन्तुमिच्छति" । जिसको देख कर तुरन्त प्रश्न होता है कि जो शकुन्तला पहेले से ही सलज्जा खडी हो गई है (सलज्जा तिष्ठति), तो अब "खडी होकर जाने की इच्छा कर रही है" ऐसी रंगसूचना कैसे दी जा रही है ? यहाँ पर रंगसूचनाओं में परस्पर विरोध आ रहा है ! दूसरा बिन्दु यह है कि जब राजा शिलातल पर बैठे है और उसके पास में शकुन्तला खडी है, तो उसको उद्देश्य कर राजा ऐसा कहे कि "क्या मैं तुम्हें शीतल नलिनीदल से पवन झेलुं, अथवा क्या आपके पद्म जैसे ताम्रवर्णवाले पाँवों को मेरे अङ्क में रख कर उसका संवाहन करुँ ? ।" तो इन शब्दों का सन्दर्भगत औचित्य देखा जाय तो वह अनुचित ही लगता है ।। तीसरा बिन्दु : रंगसूचना से जब कहा जा रहा है कि खडी हो कर शकुन्तला जाने की इच्छा कर रही है, तो उसके बाद राजा के मुख में -- "उत्सृज्य कुसुमशयनं नलिनीदलकल्पितस्तनावरणम् । कथमातपे गमिष्यसि परिबाधा पेलवैरङ्गैः ।। (3-19)" ऐसे शब्दों का होना भी अनुचित ही है । क्योंकि पहेले तो कहा गया है कि शकुन्तला खडी होकर जाने की इच्छा कर रही है । अर्थात् वह वहाँ से गई ही नहीं है तो "कुसुमशयन को छोड कर ऐसे उग्र आतप में तुम कैसे जाओगी ?" यह कहना भी विसंगत है !! इन विसंगतिओं से भरी रंगयोजनायें केवल राघवभट्ट जैसे टीकाकारों के द्वारा स्वीकृत पाठ में ही है ऐसा नहीं है । मोनीयर विलियम्स (विलियम्स, 1961, तृतीय संस्करण), प्रॉफे. एम. आर. काळे, (काळे, 1898 प्रथमावृत्ति, दशवी आवृत्ति, 1969), श्री पी. एन. पाटणकर, (पाटणकर, 1902), प्रोफे. शारदा रञ्जन रॉय (रञ्जन, 1908), गौरीनाथ शास्त्री (शास्त्री, 1983) एवं प्रोफे. श्री रेवाप्रसाद द्विवेदी जी (द्विवेदी, 1976, 1986) आदि की आवृत्तिओं में भी यही विसंगति समान रूप में दिखाई दे रही है । इसका मतलब यह हुआ कि अभिज्ञानशाकुन्तल के गणमान्य सम्पादकों के ध्यान में यह विसंगति आई ही नहीं होगी । और फलतः देवनागरी पाठ मौलिक है या नहीं ? यह बात सोचने की आवश्यकता भी नहीं रही । लगता है कि कालिदास की "अभिरूप-भूयिष्ठा परिषद्" गजनिमीलिका न्याय से शृङ्गार रस का आस्वाद ले रही है !! [ 4 ] काश्मीर की शारदा लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में से चार पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हुई हैः—1. ऑक्सफर्ड युनि. से 1247 क्रमांकवाली, 2. ऑक्सफर्ड युनि. से 159 क्रमांकवाली, 3. श्रीनगर की 1435 क्रमांक वाली तथा 4. ब्युल्हर ने काश्मीर से भुर्जपत्र पर लिखी हुई एक प्रति प्राप्त की थी, जिसका बोम्बे गवर्नमेन्ट कलेक्शन, क्रमांक 192 था, ( जो आज भाण्डारकर ओरिएन्टल इन्स्टीट्युट, पूणें में उपलब्ध नहीं है , किन्तु ) ई. स. 1884 में कार्ल बुरखड ने जर्मनी से इसीका रोमन स्क्रिप्ट में रूपान्तरण प्रकाशित किया था ।। इन चारों पाण्डुलिपिओं में से, डॉ. एस. के. बेलवालकर जी ने भुर्जपत्र पर लिखी हुई ( 192 क्रमांकवाली ) शारदा पाण्डुलिपि को "मूलादर्श प्रति" ( Archetype ) मानी थी , वही सब से पुरानी शारदा प्रतिलिपि है । अन्य तीन प्रतियाँ उत्तरकाल में लिखी गई वंशज प्रतियाँ है ऐसा प्रतीत हो रहा है । इन चारों शारदा पाण्डुलिपिओं में संचरित हुआ इस नाटक का काश्मीरी पाठ एक ओर है, तथा दूसरी ओर मैथिली एवं बंगाली परम्परा का पाठ है ।। कालिदासप्रणीत मूलपाठ आज कालग्रस्त हो चूका है । ( कवि ने स्वहस्तलेख के रूप में लिखा हुआ पाठ हमारे लिए केवल अनुमानगम्य ही हो सकता है । ) दूसरे क्रम में, उस कालग्रस्त हुए स्वहस्तलेख से जो सब से पहेली प्रतिलिपि बनाई गई होगी, वह "मूलादर्शप्रति" ( Archetype ) कहेलायेगी । उसमें संक्रान्त हुआ पाठ कैसा होगा ? उसको जानने के लिए भी हमारे पास कोई मूर्त प्रमाण नहीं है । मतलब कि उसका पाठ भी हमारे लिए केवल अनुमानगम्य ही होगा । किन्तु वही हमारा गवेषणीय पाठ होगा । समीक्षित पाठसम्पादक का लक्ष्य ऐसा पाठ होता है ।। अब बृहत्पाठ में संचरित हुए पाठ की विचलन-यात्रा की चर्चा शूरु करते ही यह कहना होगा कि बृहत्पाठ ( की साक्षीभूत तीनों वाचनाओं ) में अश्लील पाठ्यांशों की उपस्थिति प्रायः एक समान है । अर्थात् आज उपलब्ध हो रही सभी पाण्डुलिपिओं के साक्ष्यों में विचलित हुआ पाठ ही विरासत में मिल रहा है । फिर भी इन तीनों वाचनाओं की पाठपरम्पराओं में यदि पौर्वापर्य निश्चित करना है तो काश्मीरी वाचना के पाठ को ही आद्य स्थान दिया जाना चाहिए । क्योंकि 1. लिपियों के इतिहास में शारदालिपि ही बंगाली और मैथिली लिपि की अपेक्षा से पहेली आती है । 2. केवल काश्मीरी वाचना के पास ही भुर्जपत्र पर लिखे हुए पाठ का साक्ष्य है । 3. (तीसरे अङ्क के) श्लोकों की संख्या की तुलना की जाय तो भी अन्य दो वाचनाओं की श्लोकसङ्ख्या की अपेक्षा से काश्मीरी वाचना में संचरित हुए श्लोकों की सङ्ख्या ही कम है । और, समीक्षित पाठ सम्पादन के जो अधिनियम है उनमें से एक नियम यह कहता है कि बृहत् याने विस्तृत, ( या अलङ्कृत ) पाठ की अपेक्षा से जो अबृहत् या अनतिविस्तृत पाठ हो ( जैसा काश्मीरी वाचना में है ) वही मौलिक या अधिक श्रद्धेय पाठ मानना चाहिए । इन कारणों से प्रेरित हो कर हमने ऐसी पूर्वावधारणा (hypothesis) बनाई है कि बृहत्पाठानुसारी तीनों वाचनाओं में से काश्मीरी वाचना का पाठ ही कालानुक्रम की दृष्टि से, सर्वप्रथम आता है ।। अतः काश्मीरी वाचना की उपलब्ध हो रही चार पाण्डुलिपिओं में से जो भुर्जपत्र पर लिखी गई पाण्डुलिपि है, उसमें से आरम्भ हो रहे पाठविचलन का क्रम आगे चल कर, कैसे वृद्धिंगत हुआ है वह सोचना चाहिए । प्रथम सोपान पर, भुर्जपत्रवाली शारदा पाण्डुलिपि में परम्परा से चला आ रहा पाठ, जो विरासत में मिला है, वह भी अश्लीलांशो से भरा पाठ है । ( क ) सब से पहेले प्रक्षिप्त अंश के रूप में उन सब की पहेचान की जायेगी । साथ में ही इन अश्लीलांशो को प्रक्षिप्त करने के लिए जो बीजभूत संकेत मिलते है उसकी चर्चा की जायेगी । तथा ( ख ) इसी पाठ में रंगसूचनाओं से सम्बद्ध विसंगति पैदा करनेवाला एक स्थान जो मिलता है, उसकी भी प्रक्षेप के रूप में पहेचान की जायेगी । तदनन्तर, दूसरे सोपान पर, अन्य तीन शारदा-पाण्डुलिपिओं में कैसी गिरावट आई ? वह देखा जायेगा । तीसरे सोपान पर मैथिली पाठ खड़ा है, जिसमें काश्मीरी-वाचना के पाठ की छाया बहुशः प्रतिबिम्बित हो रही है । किन्तु उसमें पाँच नवीन श्लोकों का आधिक्य दिखता है । आन्तरिक सम्भावना की दृष्टि से वे प्रक्षिप्त किये गये है ऐसा सिद्ध होता है । चतुर्थ सोपान पर बंगाली वाचना का पाठ है । जिसमें मैथिली पाठ का अनुसरण किया गया है ऐसा स्पष्टतया दिखता है । तथापि यह भी कहना होगा कि काश्मीरी परम्परा से चले आ रहे अश्लीलांशो की उपस्थिति यथावत् बनाये रखने के साथ साथ, इस परम्परा के पाठशोधकों ने रंगसूचनाओं से सम्बद्ध जो विसंगतियाँ मैथिली पाठ में थी उसका प्रमार्जन कर दिया है । और इसी कारण से बंगाली पाठ रंगसूचना-सम्बन्धी विसंगतिओं से मुक्त है, तथापि उसके प्रमार्जन करने का कार्य तो उत्तरवर्ती काल में हुआ है, उसके संकेत भी मिल रहे है । एवमेव, मैथिली वाचना के पाठशोधकों ने जिन पाँच श्लोकों को प्रक्षिप्त किये थे, उनका स्वीकार करते हुए बंगाली वाचना के पाठशोधकों ने एक श्लोक नया जोडने का कार्य भी किया है ऐसा साफ दिख रहा है ।। सब के अन्तमें, यानें पंचम सोपान पर देवनागरी वाचना (एवं दाक्षिणात्य पाठ) में संक्षेपीकरण का कार्य किया गया है । जिसमें मृणाल-वलय पहेनाने का दृश्य, तथा पुष्परज से कलुषित हुई शकुन्तला की दृष्टि का वदनमारुत से प्रमार्जन कर देने का दृश्य हटाया गया है । परिणामतः तीसरे अङ्क में काश्मीरी वाचना में जो 35 श्लोक थे, वे मैथिली में 40 हो गये, तथा बंगाली वाचना में 41 श्लोक हुए, और वे आगे चल कर देवनागरी में, घट कर 24 या 26 श्लोक अवशिष्ट रह गये है ।। इस तरह, काश्मीरी वाचना की साक्षीभूत बनी उपर्युक्त चारों शारदा-पाण्डुलिपियों के पाठ का विश्लेषण करने से, एवं उसीका मैथिली एवं बंगाली पाठ के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने से पाठविचलन के उपर्युक्त पाँचों सोपान स्पष्ट हो जाते है । तथा तीसरे अङ्क में कुसुमशयना शकुन्तला की लेटी हुई अवस्था को रंगकर्मिओं के द्वारा बदलते रहेने से सार्वत्रिक रूप से जो पूर्वोक्त विसंगति ने जन्म लिया है, वह अन्त तक कैसे टीकी रही है उसका उत्तर मिल जाता है ।। [ 5 ] तीसरे अङ्क के दृश्य को रंगमंच पर प्रस्तुत करने की कालिदास की मूल योजना तो यही रही होगी कि शकुन्तला पुष्पमयी शय्या पर लेटी हो, मदनलेख लिखते समय भी वह लेटी रहे और मदनलेख को सुन कर राजा प्रकट हो जाय, उसके बाद भी वह लेटी रहे । जब दोनों सहेलियाँ रंगमंच से बिदा ले और नायक नायिका से कहे कि "संवाहयामि चरणावुत पद्मताम्रौ0 ।" तब, वह अपनी मदनावस्था के अनुरूप धीरे से, कष्ट के साथ कुसुमास्तरण से उठ कर चलने का आरम्भ करें । ( "अवस्थासदृशम् उत्थाय प्रस्थिता" )।। लेकिन कवि ने नायिका को रंगमंच पर लेटी हुई अवस्था में प्रस्तुत करने का जो सोचा है वही मूल पाठ के विचलन का उद्गमबिन्दु बन गया ! रंग पर लेटी हुई नायिका को देख कर रंगकर्मी लोग अपनी रुचि के अनुसार शृङ्गारातिरेक को प्रदर्शित करने के लिए लालायित हो गये है । और ऐसे स्थानों के ज्ञापक-चिह्न केवल इन शारदा पाण्डुलिपियों में ही विद्यमान है, जो हम आज भी पहेचान सकते हैं । तद्यथा (1) कुछ रंगकर्मिओं को दुष्यन्त के मुख में अश्लील संवाद रखना था, इस लिए उन्होंने पहेले एक पूर्वभूमिका बनाई है : सहेलियों के पुछने पर जब शकुन्तला बताती है कि "एवं यदि वोऽभिमतं तत्तथा मन्त्रयेथां मां यथा तस्य राजर्षेरनुकम्पनीया भवामि । अन्यथा मां सिञ्चतम् इदानीम् उदकेन ।" इस वाक्य को सुन कर नायक प्रतिभाव प्रकट करता है कि – विमर्शच्छेदि वचनम् । एतावत् कामफलं, यत्नफलम् अन्यत् । इन दो वाक्यों में से पहेला वाक्य तो सभी वाचनाओं में मिलता है । लेकिन जो दूसरा वाक्य है वह केवल काश्मीरी पाण्डुलिपियों में ही मिलता है । जिसका सूचितार्थ यह है कि कामदेव की कृपा से नायिका मदनाविष्ट हो गई है, किन्तु अब नायक दुष्यन्त सोच रहा है कि नायिका से रति-सुख प्राप्त करने के लिए कुछ प्रयास भी करना होगा ! आगे चल कर दुष्यन्त नायिका से जो सहशयन की मांग करता है, उसका बीजनिक्षेप यहाँ देख सकते है ।। शकुन्तला का मदनलेख सुन कर राजा नायिका के सामने सहसा प्रकट होता है । अनसूया राजा का स्वागत करती है और उसको शिलातल के एकदेश पर बैठने की बिनती करती है । रंगमंच पर एक ही शिलातल है, जिस पर शकुन्तला पहेले से ही लेटी हुई है । अतः, जिन रंगकर्मिओं ने लेटी हुई शकुन्तला की स्थिति का उपयोग करने का सोचा है, उन्होंने अनसूया की बिनती के बाद नाटक के मूलपाठ में एक नवीन रंगसूचना जोडी है : "शकुन्तला पादावपसारयति" । यह रंगसूचना सब से प्राचीन भुर्जपत्रवाली पाण्डुलिपि क्रमांक 192 में और ऑक्सफर्ड की पाण्डुलिपि क्रमांक 159 में नहीं है । वह केवल ऑक्सफर्ड की पाण्डुलिपि क्रमांक 1247 एवं श्रीनगर की 1345 में ही है । उसका मतलब यह हुआ कि काश्मीर की शारदा पाठपरम्परा के मूल में आरम्भ में तो "शकुन्तला पादावपसारयति" जैसी कोई रंगसूचना नहीं थी । लेकिन नया प्रक्षेप करने के इच्छुक रंगकर्मिओं ने उसको कालान्तर में निवेशित की है ।। अब यह देखना है कि "एतावत्कामफलं, यत्नफलमन्यत् ।" एवं "शकुन्तला पादावपसारयति" जैसे दो प्रक्षेपों के अनुसन्धान में कौन सा संवाद प्रवेश करता है ? । अनसूया ने राजा से प्रार्थना की है : "सुना जाता है कि राजाओं की वल्लभायें अनेक होती है, फिर भी हमारी सखी (शकुन्तला) स्वजनों के लिए चिन्ता का कारण न बन जाय ऐसा खयाल कीजिएगा" । तब राजा ने "परिग्रहबहुत्वेपि0" इत्यादि शब्दों से उनको आश्वस्त किया कि आप दोनों की सहेली ही मेरे कुल की प्रतिष्ठा बनेगी । जिसको सुन कर दोनों सहेलियाँ शकुन्तला के भाग्य को लेकर पूर्ण रूप से निःसन्देह हो जाती है ।। उसके बाद केवल यही होना था कि दोनों सहेलियाँ वहाँ से चली जाय और नायक-नायिका को एकान्त की सुविधा जताये । किन्तु राजा को अपने पास में बैठने की जगह देने के लिए जिसने अपने पाँव सीकुड लिए थे वह लेटी हुई शकुन्तला जिन रंगकर्मिओं की दृष्टि में थी उन्होंने यहाँ एक अश्लीलता से भरा निम्नोक्त संवाद दाखिल किया हैः— शकुन्तला – हला मरिसावेध लोअवालं जं किं च अम्हेहिं उवआरादिक्कमेण बीसम्भपलाविणीहिं भणिदं । ( हले, मर्षयतं लोकपालं यत् किञ्चास्माभिरुपचारातिक्रमेण विस्रम्भप्रलापिनीभिः भणितम् । ) सख्यौ – ( सस्मितम् ) जेण तं मन्तिदं सो मरिसावेदु । अणस्स जणस्य को अच्चओ । परोक्खं को वा किं ण मन्तेदि । ( येन तन्मन्त्रितं स मर्षयतु । अन्यस्य जनस्य कोऽत्ययः । परोक्षं को वा किं न मन्त्रयति । ) राजा – ( सस्मितम् ) अपराधमिमं ततः सहिष्ये यदि रम्भोरु तवाङ्गरेचितार्द्धे । कुसुमास्तरणे क्लमापहं मे सुजनत्वादनुमन्यसेऽवकाशम् ।। 3 – 19 ।। प्रियंवदा – एत्तिएण उण दे तुट्ठि भवे । ( एतावता पुनस्ते तुष्टिर्भवेत् । ) शकुन्तला – ( सरोषमिव ) विरम दुल्ललिदे । एदावत्था एवि मे कीलसि । ( विरम दुर्ललिते, एतावदवस्थयापि मे क्रीडसि । ) यहाँ पर "तवाङ्गरेचितार्धे" शब्दों के प्रयोग से ही मालूम होता है कि यह "पादावपसारयति" वाली पूर्वनिर्दिष्ट रंगसूचना की परिणति के रूप में यह सहशयन की मांग करने की बात प्रस्तुत हुई है, प्रक्षिप्त हुई है । एवमेव, इसी बातचीत के सन्दर्भ में प्रियंवदा के मुख में जो वाक्य रखा गया है, वह निर्लज्जतायुक्त है । वह भी इस पूरे संवाद का प्रक्षिप्तत्व सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है ।। काश्मीरी पाठपरम्परा के "तवाङ्ग-रेचितार्द्धे" शब्दों को बदल कर मैथिली पाठपरम्परा में "तवाङ्ग-सङ्गसृष्टे" ऐसा पाठभेद किया गया है । पहेलेवाले शब्दों के स्थान में आया हुआ यह नया पाठभेद उत्तरवर्ती काल की रचना है उसमें कोई सन्देह नहीं है ।। इस मैथिल पाठभेद का अनुसरण बंगाली पाठ में भी हुआ है ।। [ 6 ] भुर्जपत्र पर लिखी गई शारदा पाण्डुलिपि, जिसका कार्ल बुरखड ने रोमन स्क्रिप्ट में रूपान्तरण प्रकाशित किया है उसमें परम्परा से चले आ रहे, अर्थात् विरासत के रूप में मिले दो-तीन अन्य अश्लील संवादों का परिचय भी करना जरूरी है : (1) दुष्यन्त ने शकुन्तला के चरणों का संवाहन करने की तत्परता दिखाई तब तुरन्त ही लेटी हुई नायिका खड़ी हो जाती है और वहाँ से प्रस्थान करने लगती है । उस समय दुष्यन्त कहता है कि अभी दिवस पूरा नहीं हुआ है, और इतनी कड़ी धूप में तुम कोमल अङ्गोवाली कैसे जाओगी ? यहाँ पर, कुछ रंगकर्मिओं ने एक लम्बे संवाद का प्रक्षेप किया है । जैसे कि, शकुन्तला – सहिमेत्तसरणा, कं वा सरणइस्सम् । ( सखीमात्रशरणा, कं वा शरणयिष्यामि । ) राजा – इदानीं व्रीडितोऽस्मि । शकुन्तला – ण क्खु अय्यं, देव्वं उवालहामि । ( न खल्वार्यम्, दैवमुपालभे । ) राजा – किम् अनुकूलकारिण उपालभ्यते दैवस्य । शकुन्तला – कधं दाणिं उवालभिस्सं जो अत्तणो अणीसं परगुणेहिं मं ओहासेदि । ( कथमिदानीम् उपालप्स्ये य आत्मनोऽनीशां परगुणैर् माम् उपहासयति । ) राजा – ( स्वगतम् ) अप्यौत्सुक्ये महति न वरप्रार्थनासु प्रतार्याः काङ्क्षन्त्योऽपि व्यतिकरसुखं कातराः स्वाङ्गदाने । आबाध्यन्ते न खलु मदनेनापि लब्धास्पदत्वाद् आबाधन्ते मनसिजमपि क्षिप्तकालाः कुमार्यः ।। 3 – 22 ।। ( शकुन्तला प्रस्थितैव ) राजा – ( स्वगतम् ) कथमात्मनः प्रियं न करिष्ये । ( उत्थायोपसृत्य पटान्तादवलम्बते ) इस संवाद को ध्यान से देखेंगे तो उसमें नायक ने "काङ्क्षन्त्योऽपि व्यतिकरसुखं कातराः स्वाङ्गदाने" इत्यादि शब्दों से कुमारिकाओं की जो मानसिकता मुखर रूप से वर्णित की गई है वह भी सुरुचि का भङ्ग करनेवाली है । ( यद्यपि कालिदास ऐसे कामोत्तेजक वर्णन कभी नहीं करते है ऐसा नहीं है । हमारे सामने कुमारसम्भव के शृङ्गारातिरेक के शब्दचित्र अवश्य है, लेकिन वह प्रसंगोचित नहीं है ऐसा नहीं है । ) किन्तु यहाँ जो वाक्य रखे गये हैं वे पूर्वापर सन्दर्भ में सुसंगत और सुग्रथित प्रतीत नहीं होते है । इस वाक्यावली प्रक्षिप्त ही है उसका विशेष विमर्श करने से पहेले, उपर्युक्त अश्लील शब्दों के साथ साथ, उसके ही नीचे जो दूसरा अतिरेक मिलता है, वह भी देख लेते हैः— (2) उपरि निर्दिष्ट वाक्यों में दुष्यन्त की मानसिकता ऐसी प्रकट हो रही है कि वह अब बलात्कार करने की हद तक भी जा सकता है । इस मानसिकता का प्रमाण निम्नोक्त संवाद में हैः- शकुन्तला – पोरव, मुञ्च मं । ( पौरव, मुञ्च माम् । ) राजा – भवति, मोक्ष्यामि । शकुन्तला – कदा । राजा – यदा सुरतज्ञो भविष्यामि । शकुन्तला – मअणावट्ठड्ढो वि ण अत्तणो कण्णआअणो पहवदि । भूओ वि दाव सहिअणं अणुमाणइस्सम् । ( मदनावष्टब्धोऽपि नात्मनः कन्यकाजनः प्रभवति । भूयोऽपि तावत् सखीजनम् अनुमानयिष्यामि । ) राजा – ( मुहूर्तम् उपविश्य ) ततो मोक्ष्यामि । यहाँ पर, भुर्जपत्र पर लिखी पाण्डुलिपि में आये हुए "सुरतज्ञो भविष्यामि" शब्दों के स्थान में, कालान्तर में ऑक्सफर्ड की दोनों पाण्डुलिपिओं में, और श्रीनगर की पाण्डुलिपि में "सुरतरसज्ञो भविष्यामि" जैसा पाठभेद भी किया गया है ।। (3) उपर्युक्त अश्लीलांशो का प्रक्षेप करनेवालों नें इस अङ्क के उपान्त्य श्लोक में भी एक श्लोक जोडा है । शकुन्तला को ले कर गौतमी चली गई । दुःषन्त प्रियापरिभुक्त लतावलयाच्छादित वेतसगृह में खडा खडा रह कर उसका मन्मथलेख इत्यादि पर सानुराग दृष्टि से झाँक रहा है । और कहता है कि मुझसे इस वेतसगृह से बहार निकलना आसान नहीं है । ऐसी प्रेमासक्त दशा में फँसे नायक को रंगमंच से बाहर निकाल ने के लिए नाट्यकार कालिदास उसके वीरत्व को ही ठठोलते है । अतः नेपथ्योक्ति से कहा जाता है कि "भो भो राजन्, सायन्तने सवनकर्मणि संप्रवृत्ते0" ( श्लोक-35 ) अर्थात् सायंकाल होते ही यज्ञकर्म में बाधा डालने के लिए काले-पीले वर्ण के राक्षसों की छायायें आकाश में मंडराने लगी है । जिसको सूनते ही दुःषन्त के वीरत्व को चुनौती मिलती है और वह रंग से बाहर दौड जाता है । शाकुन्तल के षष्ठांक के अन्तभाग में भी दिखनेवाली यही पद्धति पूर्ण रूप से नाटकीय भी है, और कालिदासीय भी । किन्तु काश्मीरी वाचना की चारों पाण्डुलिपियों में दुःषन्त की "निर्गन्तुं सहसा न वेतसगृहाद् ईशोस्मि शून्यादपि ।। ( 3-33 )" जैसि उक्ति और अनुगामी नेपथ्योक्ति में व्यवधान बननेवाला निम्नोक्त अश्लील श्लोक 34 अस्वाभाविक लगता है । जिसमें भोगवंचित दुःषन्त कहता है कि – हा हा धिक्, न सम्यग् आचेष्टितं मया प्रियामासाद्य कालहरणं कुर्वता । इदानीम्, रहः प्रत्यासत्तिं यदि सुवदना यास्यति पुन- र्न कालं हास्यामि प्रकृतिदुरवापा हि विषयाः । इति क्लिष्टं विघ्नैर्गणयति च मे मूढहृदयं प्रियायाः प्रत्यक्षं किमपि च तथा कातरमिव ।। 3 – 34 ।। नाटकीयता की दृष्टि से सोचा जाय तो प्रियासम्बद्ध तीन तीन चीजों को वेतसगृह में ही छोडके बाहर निकलना मुश्कील है ऐसा बोल बोले जाने पर ही परिस्थितिवशात् नायक को ( प्रेमासक्त दशा को तत्क्षण छोड कर, ) अपनी क्षत्रियता को ललकारने वाली परिस्थिति के सामने लडने के लिए रंगभूमि से बाहर निकालने में ही नाटकीयता है । किन्तु जिन रंगकर्मिओं ने दुष्यन्त के मुख से पहेले भी भोगेच्छा को अश्लील रूप में प्रस्तुत करवाया है, उन्हों ने इस अङ्क के अन्त भाग में भी, मूलपाठ को दुषित करने की चेष्टा की है । वस्तुतः सोचा जाय तो राजा दुष्यन्त के लिए तो सच्चा नैसर्गिक प्रेम ही दुरवाप्य और दुरवाप्त था, विषयोपभोग नहीं । अतः उपर्युक्त श्लोक की दूसरी पङ्क्ति को देख कर ही लगता है कि यह मौलिक श्लोक नहीं है । अस्तु ।। काश्मीरी पाठ में परम्परा से चले आ रहे इन अश्लीलांशों को प्रक्षिप्त मानने का कारण अब विशद करना चाहिए : (1) प्राचीनतम काश्मीरी वाचना के तृतीयांक के केवल पूर्वार्ध में ही ऐसे अश्लील संवाद मिलते है । इसी अङ्क के बीच में कहीं पर भी ऐसे सुरुचि का भङ्ग करनेवाले संवाद, एक उपान्त्य श्लोक को छोड कर, अन्यत्र नहीं मिलते है । साधारण तर्क से भी यह बात समझ में आती है कि जिस दृश्य के आरम्भ में ही नायक उपर्युक्त शब्दों से एक बार नहीं, तीन बार अपनी भोगेच्छा प्रकट करता हो उसके उत्तरवर्ती दृश्यों में तो बलात्कार का दृश्य ही आना चाहिए । किन्तु वस्तुतः यहाँ तो उत्तरार्ध में नायक-नायिका के बीच सुशील एवं स्वाभाविक प्रेमसहचार ही वर्णित हुआ है । जिसमें अपनी प्रियतमा के हाथ में मृणालवलय पहेनाने के दृश्यादि का समावेश है । इसमें कहीं पर भी सुरुचि का भङ्ग नहीं होता है । अर्थात् पूर्वार्ध में आये हुए उक्त अश्लील संवादों और उत्तरार्ध में आनेवाले संवादों के बीच सामञ्जस्य नहीं बनता है ।। (2) प्रासंगिकता की दृष्टि से सोचा जाय तो रंगमंच से सहेलियों के चले जाने के बाद कुछ ज्यादा समय तो बीता नहीं है और शकुन्तला के साथ कोई प्रेमगोष्ठियाँ भी अभी हुई नहीं हैं, उससे पहले दुष्यन्त की उपर्युक्त श्लोकोक्ति नायक की अधीरता प्रकट करनेवाली है । प्रेमकथाओं में प्रणयि-युगल के बीच जो संवनन स्वाभाविक रूप से क्रमशः विकसित होता है और जो इस अङ्क में आगे मृणालवलय प्रसंग में दृश्यमान होनेवाला है, उसकी प्रस्तुति होने से पहेले दुष्यन्त की भोगेच्छा इस तरह खुल कर बाहर आये वह असम्बद्ध है, कृत्रिम है । और इस अङ्क के उपान्त्य श्लोक में भी दुष्यन्त से विषयोपभोग की ही बात कही जाय, वह असमञ्जस है । इन कारणों से उपर्युक्त अश्लील संवादों को प्रक्षिप्त कहना होगा । (3) तथा, मूल महाभारत के उपाख्यान में दुःषन्त शकुन्तला से संयोग करने के लिए जिस तरह उतावला हो गया है, और फलाहार के लिए बाहर नजदीक में गये पिता कण्व की प्रतीक्षा भी नहीं कर सकता, उसीका पुनरावर्तन पूर्वोक्त अश्लीलांशो से इस नाटक में हो रहा है ऐसा लगता है । सच तो यही है कि कालिदास एक नैसर्गिक प्रेम का निरूपण करना चाहता है, महाभारत की कहानी का पुनरावर्तन नहीं ।। [ 7 ] अब दूसरे सोपान पर, रंगसूचना सम्बन्धी जो गिरावट आने की शूरु हुई है उसको समझना है :- कवि की मूलयोजना के अनुसार तो, तीसरे अङ्क के पहेले दृश्य में शकुन्तला को कुसुमास्तरण पर लेटी हुई अवस्था में प्रस्तुत करना है । और जब दोनों सहेलियाँ चली जाय, राजा उसके पाँव का संवाहन करने की तत्परता दिखावें तब उसे लेटी हुई अवस्था से खडा होना था । लेकिन किसी अज्ञात पाठशोधक / रंगकर्मी ने नवीन रंगसूचनायें जोड कर कवि की मूलयोजना को विफल कर दिया । जिसके कारण रंगसूचनाओं में पूर्वापर में विसंगतता आ गई है । आश्चर्य है कि यह परिवर्तन सार्वत्रिक रूप से पूरे भारत वर्ष की प्रायः सभी पाण्डुलिपियों में फैल गया है, और दुर्भाग्य से इसकी ओर किसी का ध्यान भी नहीं गया है ।। रंगसूचना सम्बन्धी प्रक्षेप से आई विसंगति का प्राचीनतम उदाहरण भुर्जपत्र पर लिखी गई शारदा पाण्डुलिपि में मिलता है । लेटी हुई शकुन्तला के मुख से मदनलेख का वाचन होता है, जिसको सुन कर राजा सहसा "तपति तनुगात्रि0 ।" इत्यादि शब्दों को बोलता हुआ शकुन्तला के सामने उपस्थित हो जाता है । यहाँ, शकुन्तला को राजा की सन्निधि में नाट्यात्मक शैली से खडी करने के लिए, काश्मीरी पाठशोधक ने एक संवाद प्रक्षिप्त किया है । वह द्रष्टव्य है : जब अनसूया ने राजा को उसी शिलातल पर बैठने के लिए बिनती की और राजा वहाँ बैठते भी है । तब बैठने के बाद (लेटी हुई) शकुन्तला के बारे में वे प्रश्न करते है कि "(उपविश्य) प्रियंवदे, कच्चित् सखीं वो नातिबाधते शरीरसंतापः ।" तब प्रियंवदा प्रत्युत्तर देती है कि "लब्धौषध-स्साम्प्रतम् उपशमं गमिष्यति कालेन ।" इसके पीछे निम्नोक्त संवाद प्रक्षिप्त किया गया हैः— अनसूया – (जनान्तिकम्) प्रियंवदे, कालेन इति किम् । प्रेक्षस्व, मेघनादाहाताम् इव मयूरीं निमेषान्तरेण प्रत्यागताम् प्रियसखीम् । शकुन्तला – ( सलज्जा तिष्ठति । ) अर्थात् मेघगर्जन (बादल की आवाज) सुन कर जैसे मयूरी में नवजीवन का संचार होता है वैसे देखो हमारी सखी भी नवजीवन प्राप्त कर रही है । अनसूया के इस वाक्य के बाद, (लेटी हुई) शकुन्तला के लिए कहा गया है कि वह लज्जा के साथ खडी होती है ।। ( यह प्रक्षिप्त अंश की विशेष चर्चा तृतीय सोपान रूप मैथिली पाठ में आये परिवर्तनों को दिखाते समय प्रस्तुत की जायेगी । ) लेकिन इस तरह के नाट्यात्मक संवाद से नायिका को रंगभूमि पर खडी कर देने का जो दृश्य-परिवर्तन किया गया है उसके कारण दो तरह की विसंगतियाँ ने जन्म लिया । जैसे कि, (1) दोनों सहेलियों के रंगमंच से निकल जाने के पश्चात्, राजा शिलातल पर बैठे हो और वह पास में खडी हुई शकुन्तला को कहे कि मैं नलिनीदल से तुम्हें पवन झेलुं या कहो तो तुम्हारे पद्मताम्र चरणों का संवाहन करु ! तो ऐसी स्थिति में प्रेमाचार का गौरव नहीं है । क्योंकि जिसकी सेवाशुश्रूषा करनी हो वह व्यक्ति खडी हो और आराधयिता व्यक्ति बैठा हो, वह तो बहुत भद्दा लगता है । (2) और दूसरी विसंगति यह है कि राजा ने जब शकुन्तला को कहा कि "मैं तुम्हारे चरणों का संवाहन करु" तो उसको सुन कर शकुन्तला कहती है कि "न माननीयेषु आत्मानम् अपराधयिष्ये ।" उसके बाद वहाँ एक रंगसूचना दी गई है कि "इत्यवस्थासदृशम् उत्थाय प्रस्थिता ।", जिसको देख कर प्रश्न होता है कि जिस शकुन्तला को पहेले से ही खडी रखी गई है, उसके लिए यहाँ कैसे कहा जाता है कि वह अवस्था के सदृश खडी होकर जाने लगती है ? ! इस तरह की विसंगति ही अपने आप में प्रमाण बनती है कि इस दृश्य को प्रस्तुत करने की कवि की मूलयोजना कुछ भिन्न थी । और ऐसी ( सलज्जा तिष्ठति । जैसी ) रंगसूचना और उससे पहेले रखा गया मेघनादाहत मयूरी का उपमान तो रंगकर्मिओं का खिलवाड़ है, जिसको प्रक्षेप ही मानना होगा ।। [ 8 ] रंगसूचनाओं से सम्बद्ध जो जो प्रक्षेप है उसका पौर्वापर्य भी सोचना चाहिए । "मेघनादाहत मयूरी की तरह शकुन्तला ( लेटी हुई अवस्था से ) सलज्जा खडी हो जाती है" यह अंश भुर्जपत्र पर लिखी गई पाण्डुलिपि में भी विद्यमान है । अर्थात् रंगसूचना से सम्बद्ध यह प्राचीनतम पहेला प्रक्षेप कहा जा सकता है । उसके बाद, मदनलेख लिखते समय शकुन्तला "बैठ कर सोचती है" वाली रंगसूचना द्वितीय क्रम में प्रक्षिप्त हुई होगी । क्योंकि ऐसी रंगसूचना भुर्जपत्रवाली प्राचीनतम पाण्डुलिपि में नहीं है । ऑक्सफर्ड की 1247 क्रमांकवाली और श्रीनगर की 1345 क्रमांकवाली दो ही शारदा पाण्डुलिपिओं में "आसीना चिन्तयति" ऐसी रंगसूचना है । जिसके फल स्वरूप, मंचन के समय "लेटी हुई शकुन्तला" से पहेले "बैठ कर सोचती हुई शकुन्तला ", और तत्पश्चात् "सलज्जा खडी रहनेवाली शकुन्तला" प्रस्तुत की जायेगी । यहाँ पर ( अर्थात् ऑक्सफर्ड 1247 एवं श्रीनगर 1345 में ) एक दूसरी ( "पादावपसारयति" वाली ) रंगसूचना भी अधिक होने से मंचन-योजना बदल जाती है । जैसे कि, मदनलेख लिखते समय जो शकुन्तला बैठी थी, उसने राजा को बैठने के लिए जगह बनानी थी, जिसके लिए उसने जो पाँव सीकूड लिए थे, वो बैठे बैठे ही सीकूडे थे ऐसा मानना होगा । परिणामतः इस दृश्य का मंचन करते समय, तीन सहेलियां और चौथे राजा भी एक ही शिलातल पर बिठाना होगा । और सहेलियों के चले जाने के बाद, राजा ने जब शकुन्तला के पद्मताम्र चरणों का संवाहन करने की तत्परता दिखाई है तब शकुन्तला उसके पास में बैठी ही होगी ।। यहाँ एक विचित्रता यह भी है कि "शकुन्तला सलज्जा तिष्ठति" वाली रंगसूचना भी ऑक्सफर्ड की 1247 एवं श्रीनगर की 1345 क्रमांकवाली पाण्डुलिपिओं में मिलती है, जिसके कारण प्रश्न होगा कि शकुन्तला के पद्मताम्र चरणों का संवाहन करने की तत्परता दिखाते समय शकुन्तला को राजा के पास में बिठानी है या फिर राजा के सामने उसको खडी रखनी है ? रंगकर्मी लोग इन दोनों में से जो भी मार्ग पसंद करेंगे उसमें पूर्वोक्त विसंगति आयेगी ही । इस विवरण का निष्कर्ष ऐसा निकलता है कि (1) शारदा पाण्डुलिपिओं में अश्लील अंशो की उपस्थिति विरासत में मिली है । (2) लेटी हुई शकुन्तला को खडी करने की, अथवा बिठा कर मदनलेख लिखवाने की सभी मंचन-योजनायें पश्चाद्वर्ती काल की योजनायें हैं । तथा इनमें से एक भी नवीन योजना ऐसी नहीं है कि जिसका अनुसरण करने से दृश्य-प्रस्तुति में विसंगतता या पूर्वापर में विरोध पैदा न होता हो । (3) तीसरे अङ्क के प्रथम दृश्य का मंचन करने के लिए कवि ने जो मूलयोजना सोची थी, उसका पुनःस्थापन करने के लिए उपर्युक्त सभी रंगसूचनायें ( "पादावपसारयति" , "सलज्जा तिष्ठति" , "आसीना / उपविष्टा चिन्तयति" ) यदि हटाई जाय, और उनसे सम्बद्ध सभी काव्यात्मक संवादों को भी प्रक्षिप्त सिद्ध करके हटाये जाय तो "कुसुमशयना शकुन्तला" का सन्दर्भोचित दृश्य, जो कवि ने मूल में संकल्पित किया होगा उसकी पुनःप्रतिष्ठा हो सकती है । ऐसा करने से ही "संवाहयामि चरणावुत पद्मताम्रौ0" शब्दों को सुनने के बाद ही, शकुन्तला के लिए "अवस्थासदृशमुत्थाय प्रस्थिता" जैसी रंगसूचना के शब्दों का औचित्य सिद्ध हो सकेगा ।। [ 9 ] उक्त नवीन रंगसूचनाओं के कारण प्रकृत दृश्य की प्रस्तुति में जो विसंगति आ रही है उसकी चर्चा करने के बाद, काश्मीरी पाण्डुलिपिओं में ( तीसरे अङ्क का ) चौथा स्थान भी ध्यानास्पद है, जिसमें किसी अज्ञात पाठशोधक ने अपनी काव्यात्मक शैली का कसब दिखाया है । जैसे कि, अनसूया – ( अपवार्य ) जधा भणासि । ( प्रकाशम् ) सखि, दिष्ट्या अनुरूपस्तस्या अभिलाषः । सागरं वर्जयित्वा कुत्र वा महानद्या गन्तव्यम् । प्रियंवदा – क इदानीं सहकारम् अतिमुक्तलतया पल्लवितुं नेच्छति । राजा – किमत्र चित्रम् । यदि चित्राविशाखे शशाङ्कलेखामनुवर्तते । अयमत्रभवतीभ्याम् क्रीतो जनः ।। यहाँ पर विचारणीय है कि जब शकुन्तला ने कह दिया हो कि उस राजर्षि से मेरा संगम करवाओ, अन्यथा मुझ पर उदक छिडक देना । अर्थात् शकुन्तला इतनी मदनाविष्ट दशा में है कि वह अब किसी तरह के कालक्षेप को सहन नहीं कर पायेगी, ऐसा प्रियंवदा का वाक्य सुन कर अनसूया उसीके कहेने का स्वीकार कर ले, वही समीचीन प्रतीत होता है । "अक्षमेयं कालहरणस्य" कहने बाद अनसूया के मुख में, सागर और महानदी के संगम का एक उपमान शायद सन्दर्भोचित लगता है, किन्तु वह भी कालहरण करनेवाला वाग्-विलास ही लगता है । कविंमन्यमान पाठशोधक को इतने से भी तृप्ति नहीं थी । अतः उसने बात आगे बढाते हुए, प्रियंवदा के मुख में नायक-नायिका के लिए सहकार और अतिमुक्तलता का दूसरा उपमान भी रखा है । और, नायक के मुख में तीनों सहेलियों के लिए शशाङ्कलेखा और चित्राविशाखा नामक नक्षत्रयुग्म का एक तीसरा उपमान भी जोड दिया ।। इस तरह के उपमानों का मौलिक नहीं होना इससे भी प्रमाणित होता है कि भुर्जपत्र पर लिखी गई प्राचीनतम पाण्डुलिपि में (और ऑक्सफर्ड की 159 क्रमांकवाली पाण्डुलिपि में) अनसूया की उक्ति को "अपवार्य" उक्ति के रूप में प्रस्तुत करने का कहा गया है । अर्थात् वह अकेली ही दर्शकों के सामने देख कर प्रियंवदा की बात का स्वीकार कर लेती है ऐसा सूचित कर रही है । इसके बाद उसको कुछ अधिक कहेने की आवश्यकता ही नहीं रहती है । अतः इसके पीछे जितने भी उपमानों की हारावली प्रस्तुत की गई है, वह निश्चित रूप से प्रक्षिप्त ही होगी ।। ( ऑक्सफर्ड की 1247 एवं श्रीनगर की पाण्डुलिपियों में दी गई सूचना के अनुसार यदि अनसूया कि उक्ति "जनान्तिक" है, और उसके पीछे "प्रकाशम्" शब्द से जो रंगसूचना मिलती है, वह नितान्त विसंगत प्रतीत होती है । इस विसंगति को देख कर भी तीनों उपमानों की हारमाला वाला संवाद प्रक्षिप्त सिद्ध होता है ।। ) तथा च, भगवान् शङ्कर पार्वती की तपश्चर्या से प्रसन्न हो कर कहे कि मैं तप से खरीदा गया तुम्हारा दास हुँ , तो वह औचित्यपूर्ण है, क्योंकि वह नायक ने नायिका को उद्देश्य करके सीधे उसे ही कहा है । लेकिन यहाँ दुष्यन्त नायिका की सहेलियों को कहे कि मैं इन दोनों सहेलियों के द्वारा खरीदा गया व्यक्ति हुँ, तो वह धीरोदात्त नायक की गरिमा का अपकर्ष करनेवाला वाक्य बनता है । इस दृष्टि से भी यह संवाद प्रक्षिप्त मानना होगा ।। इस सन्दर्भ में, ऐसे प्रक्षिप्त संवाद की अनुगामी वाचनाओं में क्या स्थिति होती है वह भी द्रष्टव्य बनता है ।। [ 10 ] काश्मीरी पाठपरम्परा में उपर्युक्त सन्दर्भों के अलावा, अन्य जो भी प्रक्षिप्त श्लोक विरासत के रूप में मिले है, उसकी अब चर्चा करनी आवश्यक है । तीसरे अङ्क के आरम्भ में नायक का मदनावस्था में प्रवेश होता है । काश्मीर की उपरि निर्दिष्ट चारों शारदा पाण्डुलिपिओं में निम्नोक्त एक श्लोक हैः— राजा – भगवन् मन्मथ, कुतस्ते कुसुमायुधस्य सतस्तैक्ष्ण्यमेतत् । ( स्मृत्वा ) आं ज्ञातम् । अद्यापि नूनं हरकोपवह्निस्त्वयि ज्वलत्यौर्वं इवाम्बुराशौ । त्वमन्यथा मन्मथ मद्विधानां भस्मावशेषः कथमेवमुष्णः ।। ( 3 – 3 ) इस श्लोक में, शङ्कर के कोप से मन्मथ ( कामदेव ) भस्मावशेष हुआ था ऐसा कुमारसम्भवोक्त सन्दर्भ अनुस्यूत है । अतः यह श्लोक कालिदास-प्रणीत होने की सम्भावना दिखती है । किन्तु, इसी अङ्क में हम जैसे जैसे आगे बढते है तो इसी तरह का एक दूसरा श्लोक भी दृष्टिगोचर होता है । जैसे कि – दुष्यन्तः – ( शकुन्तलाया हस्तमादाय ) अहो स्पर्शः । हरकोपाग्निदग्धस्य दैवेनामृतवर्षिणा । प्ररोहः संभृतो भूयः किं स्वित् कामतरोरयम् ।। ( का0 3 – 28 ) शकुन्तला – ( हर्षरोमाञ्चं रूपयति ) तुवरअदु अय्यउत्तो ।। इन दोनों श्लोकों में "हरकोपवह्निः" एवं "हरकोपाग्निः" शब्दों में स्पष्ट पुनरुक्ति है । अतः दोनों में से कोई एक प्रक्षिप्त होगा ही । तीसरे अङ्क के मध्य भाग में आये हुए 3 : 28 श्लोक का सन्दर्भ यदि देखा जाय तो दुष्यन्त ने शकुन्तला का हाथ अपने हाथों में लिया है और वह शकुन्तला को (कङ्कण के रूप में) मृणालतन्तु का वलय पहेनाने जा रहा है । तब वह शकुन्तला के हाथ का रोमांचकारी प्रथम स्पर्शानुभव करता हुआ 33 वाँ श्लोक बोलता है । दुष्यन्त को लगता है कि हरकोपाग्नि से भस्मीभूत हुए कामतरु का मानों एक प्ररोह ( अङ्कुर ) ही शकुन्तला के हाथ के रूप में प्रस्फुटित हुआ है ! । यह श्लोक इस प्रसंग में सर्वथा सुसंगत है । अर्थात् तीसरे अङ्क के उत्तरार्ध में आनेवाले श्लोक के शब्दों को देखते है तब, लगता है कि इस अङ्क के आरम्भ में रखा गया 3 : 3 श्लोक पुनरुक्ति ही है, अतः उसे प्रक्षिप्त मानना होगा ।। ( इस अङ्क का उपान्त्य श्लोक भी जो प्रक्षिप्त है, उसके चर्चा पेरा – 6 में रखी है । ) ।। [ 11 ] अब सारांशतः कहे तो, काश्मीरी वाचना के पाठ को हानि पहुँचाने वाले द्विविध रंगकर्मी लोग ध्यान में आ रहे हैः—(क) पहेलेवाले रंगकर्मी ऐसे थे जिन्हों ने इस नाटक की उत्कृष्ट प्रणयकथा में निम्नतम कोटि के अश्लीलांश दाखिल किये । जिसमें 1. एतावत् कामफलम्, यत्नफलमन्यत् ।, 2. शकु0 पादावपसारयति ।, 3. अपराधमिमं सहिष्ये ... तवाङ्ग-रेचितार्धे0 ।, 4. कांक्ष्यन्त्योऽपि व्यतिकरसुखं कातराः स्वाङ्गदाने0 ।, 5. सुरतरसज्ञो भविष्यामि । ( इतने प्रक्षेप तीसरे अङ्क के पूर्वार्ध में आते है ) और 6. अङ्क के अन्तिम भाग में, रहः प्रत्यासत्तिं यदि सुवदना यास्यति पुनः0 । वाले श्लोक का समावेश होता है ।। (ख) दूसरे जो रंगकर्मी लोग आये शायद उन्होंने मूल पाठ में अश्लीलांश दाखिल हो रहे हैं ऐसा देख कर शकुन्तला की लेटी हुई अवस्था में परिवर्तन लाना उचित समझा होगा । उन्होंने तथाकथित पाठसुधार का कार्य शूरु किया । जिसके फल स्वरूप 1. प्रथम क्रम में, मेघनादाहत मयूरी0 वाले उपमान का विनियोग करके शकुन्तला को रंगमंच पर पहेले सलज्जा खडी कर दी । और 2. सागर और महानदी आदि के तीन उपमानों का प्रक्षेप किया । 3. दूसरे क्रम में, मदनलेख लिखवाते समय पर शकुन्तला को "आसीना चिन्तयति" जैसी रंगसूचना से शिलातल पर बैठी भी की गई । ( इन रंगसूचनाओं के दाखिल होने से शायद नये प्रक्षेप होना बंद हो गये होंगे, किन्तु इन सब ने कवि कालिदास की मूल मंचन-योजना में भारी विसंगतता पैदा कर दी । ) एवमेव, 4. अद्यापि नूनं हरकोपवह्नि0 । वाला श्लोक प्रक्षिप्त किया होगा ।। (ग) शारदा पाण्डुलिपियों की साक्षी के आधार पर हम कह सकते है कि "गान्धर्वेण विवाहेन0" । वाला श्लोक मौलिक नहीं है । यह काश्मीरी पाण्डुलिपिओं में कहीं पर भी नहीं है । इस दृष्टि से, तीसरे अङ्क के मौलिक पाठ को ढूँढने के लिए यह एक प्रबलतम प्रमाण बनता है ।। [ 12 ] काश्मीरी पाठ की बहुशः च्छाया मैथिल पाठपरम्परा में प्रतिबिम्बित हुई है, लेकिन उसमें कुछ अन्य नवीन प्रक्षेप हुए है, संक्षेप भी हुए है, वाक्यक्रम भी बदले गये है, तथा कुत्रचित् अमुक शब्दों में पाठभेद भी किये गये है । तीसरे सोपान पर, इस तरह के जिन विकारों ने मैथिल पाठ में प्रवेश किया है अब उनका परिचय करना है । सब से पहेले यह ज्ञातव्य है कि अभिज्ञानशाकुन्तल का प्राचीनतम पाठ, जो शारदा पाण्डुलिपियों में संचरित हो कर आज हम तक पहुँचा है, उसी का बहुशः अनुसरण मिथिला की परम्परा में हुआ है ऐसा दिख रहा है । काश्मीरी वाचनानुसारी तृतीयांक के पाठ में आज कुल 35 श्लोक उपलब्ध होते है । किन्तु वही पाठ जब मैथिली परम्परा में जाता है तब उसमें "गान्धर्वेण विवाहेन0" श्लोकसहित नवीन पाँच श्लोकों का आधिक्य दिख रहा है । यहाँ कुल श्लोकों का योग 40 होता है । नाटक के पाठ में हुई इस वृद्धि ही मैथिली पाठ का उत्तरवर्तित्व सूचित कर रहा है । ( और बंगाली पाठपरम्परा में, इन पाँच श्लोकों में एक ओर नया श्लोक जोड कर 41 श्लोकोंवाला अतिविस्तृत पाठ बनाया गया है । अतः बृहत्पाठ वाले इस नाटक की तीसरी बंगाली वाचना का जन्म मैथिल पाठ के बाद, तृतीय क्रम में हुआ होगा ऐसा अनुमान किया जाता है । ) काश्मीरी पाठ को, ( उनमें विरासत के रूप में मिले अश्लीलांश और अन्यान्य प्रक्षेपादि, जिसका उपरि भाग में निरूपण किया गया है, उसीको ) हमारी समक्ष रखते हुए, जब मैथिली पाठ की समीक्षा करते है तो उसी में अनेक स्थान में परिवर्तन और परिवर्धनादि मिलते है । और जो भी नवीन विकृतियाँ दाखिल हुई है या उनमें पाठसुधार की जो कोशिशें की गई है वह निम्नोक्त स्वरूप की हैः— 1. काश्मीरी पाठ में विरासत में मिले जिन अश्लीलांशों का परिचय उपर दिया गया है, उनका मैथिल परम्परा में बहुशः स्वीकार किया गया है । केवल "शकु0 – कदा । राजा – यदा सुरतरसज्ञो भविष्यामि" वाला तृतीय अश्लील संवाद हटाया गया है ।। 2. रंगसूचनाओं के सन्दर्भ में जिन विसंगतिओं का निरूपण पर किया गया है, वह भी बहुशः यथातथ रूप में इस मैथिली पाठ में प्रतिबिम्बित हुई है । यद्यपि मदनलेख लिखते समय शकुन्तला को बिठाई नहीं गई है । यहाँ केवल "चिन्तयति" ऐसी ही रंगसूचना है । इसमें "आसीना चिन्तयति" नहीं कहा है । किन्तु मदनलेख के अक्षरों को सुन कर राजा जब शकुन्तला के सामने आ जाते है, और अनसूया राजा को शिलातल पर बैठने का कहती है, तब रंगसूचना रखी है कि - "शकुन्तला किंचित् पादावपसारयति" । उसके बाद, अनुसूया कहती है कि, "0मेघवादाहदं विअ गिम्हमोरिं0" मेघों के वायु से जैसे ग्रीष्म काल की मयूरी में जीवन का पुनः संचार होता है वैसे प्रियसखी शुद्धि में आ रही है । तब रंगसूचना "शकुन्तला सलज्जा तिष्ठति" आती है । अब शकुन्तला खडी है, तब उसको कहा जाता है कि "अङ्के निधाय चरणावुत पद्मताम्रौ संवाहयामि करभोरु यथासुखं ते ।।" और फिर रंगसूचना से कहा जाता है कि "इति अवस्थासदृशम् उत्थाय प्रस्थिता " । इस तरह से कुसुमशयना शकुन्तला के दृश्य की जो मंचन-योजना कवि ने मूल में सोची थी, ( जिसमें शकुन्तला को मदनलेख लिखते समय भी लेटे रहना है और राजा शिलातल पर बैठे तब भी लेटे रहना है ), उनमें से केवल द्वितीय सोपान पर, मैथिली पाठ में परिवर्तन किया गया है ।। 3. शकुन्तला जब कहती है कि राजा की मैं अनुकम्पनीया होउँ ऐसा कुछ करो, अन्यथा मुझ पर उदक छिडक देना । जिसको सुन कर राजा कहता है कि "अहो विमर्शच्छेदि वचनम् । एतदवस्थापि मां सुखयति ।" यहाँ काश्मीरी वाचना के "एतावत्कामफलम्, यत्नफलमन्यत्" वाले वाक्य में सुधार किया गया है ऐसा स्पष्ट दिखता है ।। 4. प्रियंवदा ने जब कहा कि हमारी सखी नायक से मिले बिना नहीं रह सकेगी, "अक्षमा इयं खलु कालहरणस्य", तब मैथिल पाठ में तुरन्त ही दोनों का समागम कैसे करवाया जाय उसकी ही चिन्ता प्रस्तुत होती है । यहाँ काश्मीरी शारदापाठ के अनुसार "सागर और महानदी ", तथा "सहकार और अतिमुक्त लता", या "चित्राविशाखा एवं शशाङ्कलेखा" जैसे तीन में से एक ही उपमान दिया गया है, लेकिन उसको स्थानान्तरित किया गया है । मैथिली पाठ में इतना संक्षेप हुआ है । ( अथवा काश्मीरी पाठ में उक्त उपमानवाले संवादों का प्रक्षेप पश्चात्काल में हुआ होगा । ) 5. जिन पाँच अधिक श्लोकों का प्रक्षेप हुआ है वह इस तरह से हैः- (1) अनिशमपि मकरकेतुर्मनसो रुजमावहन्नभिमतो मे । यदि मदिरायतनयनां तामधिकृत्य प्रहरतीति ।। (मै0 3-5) (2) वृथैव संकल्पशतैरजस्रमनङ्ग नीतोऽसि मयातिवृद्धिम् । आकृष्य चापं श्रवणोपकण्ठं मय्येव युक्तस्तव बाणमोक्षः ।। (मै0 3-6) तीसरे अङ्क के आरम्भ में, मदनावस्थ दुष्यन्त का प्रवेश होते ही उसने कामदेव को कोसना शुरु किया है । जिसके लिए "तव कुसुमशरत्वं0" वाला श्लोक पर्याप्त है । किन्तु जब उसी विचार की पुनरुक्ति उपर्युक्त दोनों श्लोकों से होती है तो उसकी मौलिकता शङ्का के दायरे में आ जाती है । क्योंकि नाटक जैसी समयबद्ध कला में विशेष प्रयोजन के अभाव में पुनरुक्ति असह्य होती है । तथा च, जब काश्मीर की शारदापाठ परम्परा का इन श्लोकों को समर्थन नहीं है, तब तो उनको प्रक्षिप्त मानने का कारण बनता है ।। (3) संमीलन्ति न तावद् बन्धनकोषास्तयाऽवचितपुष्पाः । क्षीरस्निग्धाश्चामी दृश्यन्ते किसलयच्छेदाः ।। (मै0 3-7) इस श्लोक की मौलिकता संदिग्ध है । क्योंकि इस श्लोक में कहा गया है कि शकुन्तला ने जिस पौधे से पुष्पचयन किया है उसके बन्धनकोश अभी बंध नहीं हुए है । तथा किसलय के च्छेदों में से अभी भी दूध निकलने से वे स्निग्ध दिख रहे हैं । इससे नायक को लगता है कि शकुन्तला थोड़ी ही देर पहेले यहाँ से गई है ।। लेकिन यह श्लोक आन्तरिक सम्भावना की दृष्टि से देखा जायेगा तो मौलिक नहीं है । क्योंकि कवि ने शकुन्तला का वनस्पति-प्रेम वर्णित करते हुए कहा है कि उसको सभी वृक्ष एवं लताओं के प्रति सहोदर जैसा स्नेह है । और, उसको मण्डन करना प्रिय होते हुए भी वो कभी भी वृक्षों से एक पल्लव भी नहीं तोडती थी । अतः इसी कृति में शकुन्तला का जो प्रकृति-प्रेम प्रदर्शित किया गया है उसके अनुसार तो वह रास्ते में आते-जाते पुष्पों और किसलयों को तोड़ती हुई नहीं जा सकती है । इससे प्रमाणित होता है कि मैथिली पाठ में प्रथम बार प्रविष्ट हुआ यह श्लोक प्रक्षिप्त ही है ।। (4) अयं स यस्मात् प्रणयावधीरणाम् अशङ्कनीयां करभोरु शङ्कसे । उपस्थिस्त्वां प्रणयोत्सुको जनो, न रत्नमन्विष्यते, मृग्यते हि तत् ।। (मै0 3-16) शकुन्तला ने मदनलेख लिखने से पहेले अपने प्रेमप्रस्ताव का स्वीकार होगा या नहीं ? इस विषय में एक आशङ्का व्यक्त की है । जिसको सुन कर नायक दुष्यन्त ने निम्नोक्त श्लोक उच्चारा हैः— अयं स ते तिष्ठति संगमोत्सुको विशङ्कसे भीरु यतोऽवधीरणाम् । लभेत वा प्रार्थयिता न वा श्रियं, श्रिया दुरापः कथमीप्सितो भवेत् ।। (मै0 3-15) इस श्लोक के बाद, उपर्युक्त 3-16 श्लोक की क्या आवश्यकता थी ? ऐसा सहज प्रश्न होता है । दूसरा, इन में "अवधीरणा" शब्द की पुनरुक्ति हो रही है । जिसको देख कर भी लगता है कि इन दोनों में से कोई एक श्लोक मौलिक नहीं होगा । काव्यशास्त्रिओं ने ( और उनका अनुसरण करनेवाले टीकाकारों ने ) श्लोक 3 : 16 में उद्देश्य-प्रतिनिर्देश्य का प्रक्रमभङ्ग हो रहा है, जो एक काव्यदोष है ऐसा कहा है । तथा पूर्वापर चरणों का व्यत्यय करके पाठ प्रस्तुत करने का सुझाव दिया है । और "कथं न लभ्येत नरः श्रियार्थितः" ऐसा नया पाठ भी सूचित किया है, जिससे पर्यायप्रक्रमभङ्ग का दोष नहीं आयेगा । इस तरह काव्यदोष के परिहार करने के दो दो सुझाव प्रस्तुत करने के बाद भी किसी काव्यरसिक ने तीसरे उपायान्तर के रूप में एक नया श्लोक ही लिख कर उसे "अपि च" के द्वारा प्रक्षिप्त कर देने की चेष्टा की है । "अवधीरणा" शब्द की पुनरुक्ति के साथ जो दूसरा श्लोक हमारे सामने आ रहा है उसका राझ सम्भवतः उपर्युक्त काव्यदोष है । और इस दूसरे श्लोक की मौलिकता की आशङ्का को दृढ करनेवाला "प्रणय" शब्द है, जो दो बार इसमें प्रयुक्त हुआ है । पूर्व श्लोक (3-15) में संगम की उत्सुकता व्यक्त करने के बाद प्रणय की उत्सुकता दिखाना वह भी एक तरह का क्रमभङ्ग ही है । प्रणय एक लम्बी राह है, जिसमें संगम अन्तिम लक्ष्य है । अतः संगमोत्सुक बोल देने के बाद नायक अपने को प्रणयोत्सुक कहे वह अनुचित सा लगता है । तीसरा बिन्दु यह भी है कि इन दोनों श्लोकों को "अपि च" जैसे निपास से बांधे गये हैं । "अपि च" निपात से बांधे गये श्लोक से ऐसी अपेक्षा रहती है कि वह कुछ नये अर्थ, नये दृश्य का समुच्चय प्रस्तुत करे । सारभूत बात यही निकलती है की "अपि च" से प्रस्तुत हुआ दूसरा श्लोक प्रक्षिप्त है ।। (5) गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः । श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चानुमोदिताः ।। (मै0 3-27) मैथिली पाठ में ही सब से पहेली बार इस श्लोक को दाखिल किया गया है । क्योंकि यह श्लोक काश्मीर की एक भी शारदा पाण्डुलिपि में आता ही नहीं है । तृतीयांक में, जब मृगबाल को उनकी माता के पास पहुँचाने का बहाना बना कर प्रियंवदा और अनुसूया लतामण्डप से दूर चली जाती है । तब रंगमंच पर दुष्यन्त और शकुन्तला अकेले है । सखीजनों की भूमिका पर अब दुष्यन्त खडा है । मध्याह्न का समय होने से वह शकुन्तला को नलिनीदल से आर्द्र वायु का संचार करने का इच्छुक है, और शकुन्तला कहे तो उसके चरणों का संवाहन करने को भी तैयार है ! किन्तु शकुन्तला माननीय व्यक्ति से ऐसी सेवा लेना उचित नहीं समझती है । अतः वहाँ से ऊठ कर चली जाती है । दुष्यन्त उसके पीछे चल पडता है और उसका पल्लु पकड कर उसे रोकने की चेष्टा करता है । शकुन्तला कहती है कि "पौरव, रक्ष अविनयम् । इतस्ततः ऋषयः संचरन्ति ।।" इस संवाद के बाद राजा की जो उक्ति है, उसकी मौलिकता संदेहास्पद हैः – राजा – सुन्दरि, अलं गुरुजनाद् भयेन । न ते विदितधर्मा तत्रभवान् कण्वः खेदमुपयास्यति । गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः । श्रूयन्ते परिणीतास्ताः पितृभिश्चानुमोदिताः ।। (मै0 3-27) ( दिशोSवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोSस्मि । ( ससंभ्रमं शकुन्तलां हित्वा तेनैव पथा पुनर्निवर्तते । ) यहाँ, लतामण्डप से बाहर निकल कर दुष्यन्त शकुन्तला का पल्लु पकड कर रोकता है । तब उसको सावधान करने के लिए शकुन्तला ने "यहाँ वहाँ ऋषिमुनि लोग घुम रहे होगें" ऐसा कहा है । इस सन्दर्भ में दुष्यन्त कहता है कि गुरुजनों से भय रखने की आवश्यकता नहीं है, कण्व भी ( तुझे प्रेमासक्त या विवाहित जान कर ) खेद का अनुभव नहीं करेंगे । अर्थात् तेरे पर नाराज नहीं होगें । दुष्यन्त यहाँ विशेष में यह भी कहता है कि गान्धर्व-विवाह से विवाहित हुई बहुत सी मुनिकन्यायें है, जो (बाद में) पिताओं के द्वारा अनुमोदित भी हुई है । इस श्लोक पर किसी विद्वान् ने नुकताचीनी शायद नहीं की है । लेकिन सम्भव है कि किसी साहित्यरसिक की दृष्टि में, दुष्यन्त ने यहाँ शकुन्तला को गान्धर्व-विवाह के लिये उकसाया है – ऐसा भाव ऊठ सकता है । ऐसी संवित्ति मुखर हो कर सामने आये या न आये, लेकिन शकुन्तला जब कह रही है कि आसपास में ऋषि-मुनि घुम रहे होंगे, तब तो विनीत वर्ताव की ही अपेक्षा है । उससे विपरित दुष्यन्त गुरुजनों से डरने की कोई जरूरत नहीं है ऐसा समझाने का उपक्रम शूरु करे वह दुष्यन्त के चरित के अनुरूप नहीं है । किन्तु दुष्यन्त के मुख में रखा गया प्रथम वाक्य एवं "गान्धर्वेण विवाहेन"0 वाला श्लोक बीच में से हटाया जाय तो, जो रंगसूचना सहित अनुगामी वाक्य है, "( दिशोऽवलोक्य ) कथं प्रकाशं निर्गतोऽस्मि । ( शकुन्तलां हित्वा पुनस्तैरेव पदैः पुनर्निवर्तते । )" वह बीलकुल सही सिद्ध होता है । इसमें विचार-सातत्य भी है, और दुष्यन्त का लतामण्डप में वापस चला जाना भी शकुन्तला की उक्ति से सुसम्बद्ध है ।। तथा च, महाभारत के शकुन्तलोपाख्यान में दुष्यन्त ने ही गान्धर्व-विवाह का प्रस्ताव रखा है और शकुन्तला को प्राप्त करने के लिए बहुत उतावला हो गया है । उस मूल कथा में सुधार करने के लिये उद्यत हुए महाकवि के लिए प्रेम का उदात्त चित्र खिंचना मुनासिब है, तो फिर उसको अपनी कलम से गान्धर्व-विवाह का प्रस्ताव क्यूं करायेगा ? ऐसे श्लोक से किसी मुग्धा मुनिकन्या को उकसाने की जरूरत ही नहीं थी । इसे, अर्थात् गान्धर्वेण विवाहेन0 वाले श्लोक को प्रक्षिप्त मान कर हटा देने से उदात्त और अभीष्ट प्रेम की गरिमा का स्वरूप पुनःप्रतिष्ठित होगा, जो महाकवि कालिदास को अभिप्रेत होगा ।। यद्यपि यह श्लोक प्रथम बार मैथिली में, तदनन्तर बंगाली में, और अन्त में देवनागरी एवं दाक्षिणात्य जैसी चारों वाचनाओं में संचरित हुआ है । तथापि सभी शारदा पाण्डुलिपिओं में उसका न होना भी अनुपेक्ष्य है, पुनर्विचारणीय है ।। 6. मैथिली पाठ के तीसरे अङ्क में अनेक स्थान पर नवीन पाठभेद किये गये है । ऐसे स्थानों का काश्मीरी और मैथिली पाठों का परस्पर तुलनात्मक अभ्यास करने से लगता है कि काश्मीरी वाचना की शारदा पाण्डुलिपियों में (ही) मौलिक या श्रद्धेय पाठ अधिकतर सुरक्षित रहे हैं ।। उदाहरण के लिए, (1) अङ्क के आरम्भ में, प्रवेशक के बाद नायक का प्रवेश होता है । वहाँ काश्मीरी वाचना में "ततः प्रविशति कामयानावस्थो राजा" ऐसा लिखा गया है । किन्तु "कामयान" शब्द दुरधिगम होने से मैथिली वाचना के किसी अज्ञात पाठशोधक ने "ततः प्रविशति मदनावस्थो राजा" ऐसा पाठपरिवर्तन कर दिया है ।। यहाँ पर काश्मीरी वाचना का पाठ ही मौलिक हो सकता है । उसके दो प्रमाण मिलते हैः- (क) वामन ने (सम्भवतः 5वीं शती में) "कामयानशब्दः सिद्धोऽनादिश्चेत् । 5-2-82" सूत्र से कामयान शब्द का समर्थन किया है । एवं (ख) कालिदास ने स्वयं इस शब्द का रघुवंश (19-50) में विनियोग किया है ।। (2) दुष्यन्त प्रातःसवन के बाद मन बहेलाने के लिए शकुन्तला को ढूँढता हुआ, शकुन्तला की पदपङ्क्ति का अनुससरण करता हुआ, मालिनी नदी के लतावलयों में जाता है । और उसे जब प्रिया का दर्शन होता है, तब (मैथिली पाठ में) उसके मुख में आनन्दोद्गार हैः अये लब्धं नेत्रनिर्वाणम् । किन्तु काश्मीरी वाचना में "अये लब्धं खलु नेत्रनिर्वापणम् ।" ऐसा शब्द उपलब्ध होता है ।। इन दोनों पाठभेदों की अन्तःसाक्ष्यों से परीक्षा की जाय तो "नेत्रनिर्वापणम्" शब्द ही मौलिक है ऐसा प्रमाणित होता है । जैसे कि, प्रवेशक में ही हमें कहा गया है कि जो उशीरानुलेप ले जाया जा रहा है, वह शकुन्तला के शरीरनिर्वापण के लिए है । ( तस्याः दाहे निर्वापणायेति । तस्याः शरीरनिर्वापणायेति । ), एवमेव, राजा एक श्लोक में कहता है कि "स्मर एव तापहेतुर्निर्वापयिता स एव मे जातः । (मै0 3-13)" इसमें भी निर्वापण क्रिया का ही उल्लेख है । अतः आन्तरिक सम्भावना से सिद्ध होता है कि काश्मीरी वाचना में जो पाठ मिलता है, वही मौलिक है । और पाठसंचरण के दौरान जो अनुलेखनीय क्षतियाँ प्रविष्ट होती है, तदनुसार यहाँ निर्वापण शब्द में से एक प-कार विगलित हो गया होगा, जिसके कारण निर्वापण से निर्वाण बन गया होगा ।। (3) काश्मीरी वाचना में सखी का नाम "अनसूया" है, किन्तु मंचन के दौरान किसी नट की उच्चारणगत क्षति होने से, मैथिली वाचना में वह "अनुसूया" बन गया है । किन्तु उपर्युक्त प्रमाणों से यदि अन्यत्र काश्मीरी वाचना का पाठ मौलिक या प्राचीनतम सिद्ध होता है तो, यहाँ पर भी "अनसूया" शब्द ही मूल में रहा होगा ऐसा हम मान सकते है ।। ( बंगाली पाठ में भी मैथिली पाठ का अनुगमन करते हुए अनुसूया शब्द ही रखा गया है । ) (4) काश्मीरी वाचना में शकुन्तला की एक उक्ति इस तरह की है : "(सलज्जम्) यतः प्रभृति सः तपोवनरक्षिता राजर्षिर्मम दर्शनपथं गतः, तत आरभ्योद्गतेनाभिलाषेणैतदवस्थास्मि संवृत्ता ।" किन्तु मैथिली वाचना में इसी एक वाक्य को दो भागों में विभाजित करके नाटकीयता के साथ प्रस्तुत किया जाता है । जैसे कि, "शकु0 – यतः प्रभृति स तपोवनरक्षिता राजर्षिः मम दर्शनपथं गतः, .... ( इत्यर्धोक्तेन लज्जां नाटयति ) । उभे – कथयतु प्रियसखी । शकु0 – तत आरभ्य तद्गतेन अभिलाषेण एतावदवस्था अस्मि संवृत्ता ।" और मैथिली पाठ के अनुसार शकुन्तला बोलते समय बीच में लज्जित हो कर रुक जाती है, उसमें अवश्य ही नाटकीयता है । तथा अन्य सभी वाचनाओं में इसी तरह का ही पाठ है, अतः मैथिली पाठ बहुशः रंगकर्मिओं का, अथवा कदाचित् ही मौलिक पाठ हो सकता है । ( इसका समर्थन निम्नोक्त बिन्दु से होगा । ) (5) काश्मीरी वाचना के पाठ में प्रविष्ट हुए प्रक्षेपों की चर्चा करते समय हमने देखा है कि नायिका का प्रेमभाजन दुष्यन्त है ऐसा जान कर दोनों सहेलियों ने "सागर और महानदी", तथा "सहकार और अतिमुक्त लता" का उपमान प्रयुक्त किये है । तथा वहाँ पर राजा ने भी तीनों सखियों के लिए "चित्रविशाखा नक्षत्र और शशाङ्कलेखा" के उपमान का विनियोग किया है । लेकिन शकुन्तला की स्थिति "अक्षमा कालहरणस्य" है ऐसा प्रियंवदा का निरीक्षण प्रस्तुत होने के बाद इन काव्यात्मक उपमानों का होना भी असह्य बनता है – ऐसा निष्कर्ष कहा गया है । अतः इस सन्दर्भ में मैथिली पाठ की क्या स्थिति है वह परीक्ष्य हैः—मैथिली पाठ में उपर्युक्त काश्मीरी पाठ का अनुगमन नहीं किया गया है । अनुसूया ने "अक्षमा इयं खलु कालहरणस्य" ऐसा प्रियंवदा से सुन कर तुरन्त "सखी का मनोरथ सम्पादित करने के लिए कौन सा उपाय किया जाय, जो अविलम्बी हो और निभृत भी हो ?" उसकी ही चिन्ता व्यक्त की है । ऐसा पाठ बीलकुल सन्दर्भोचित प्रतीत होता है । किन्तु, काश्मीरी पाठ में प्रविष्ट हुए उपर्युक्त तीनों उपमान चित्ताकर्षक तो थे ही, और उसके मोह से छुटना भी तो सरल नहीं था । अतः, काश्मीरी पाठ में शकुन्तला जब कहती है कि "ततः आरभ्य तद्गतेनाभिलाषेण एतावदवस्थास्मि संवृत्ता" । तब इस बातको सुन कर राजा "(सहर्षम्) श्रुतं श्रोतव्यम् ।" ऐसा तुरन्त प्रतिभाव प्रकट करता है । जो अत्यन्त स्वाभाविक लगता है । किन्तु मैथिली पाठ में, शकुन्तला और राजा की उपर्युक्त उक्तियों के बीच में दोनों सहेलियों ने एकसाथ में शकुन्तला के अनुराग का समर्थन किया है । "उभे – दिष्ट्या इदानीं ते अनुरूपवराभिलाषः । अथवा सागरं वर्जयित्वा कुत्र वा महानद्या प्रवेशितव्यम् ।” यहाँ राजा की उक्ति से उनका जो झटिति उत्साहित हो जाना दिखता है उसमें बीच में प्रविष्ट हुई सहेलियों की संयुक्त उक्ति से बाधा डाली गई है ऐसा साफ दिख रहा है । अतः मैथिली पाठ में, उत्तरवर्ती काल में पाठशोधन की कुछ प्रवृत्ति हुई है ऐसा स्पष्ट लगता है । यहाँ काश्मीरी पाठ का एक गुणपक्ष शब्दबद्ध करना जरुरी है । शकुन्तला ने जब कहा कि मेरा उस राजर्षि से समागम करवाओ, अन्यथा मेरा जीना मूश्किल हो जायेगा । तब प्रियंवदा ने "अक्षमा इयं खलु कालहरणस्य" इतना ही नहीं कहा है । काश्मीरी पाठ कहता है कि प्रियंवदा ने यहाँ दो अन्य वाक्य भी कहे है । जैसे कि, "यस्मिन् बद्धभावा सोऽपि ललामभूतः पौरवाणाम्, तत् त्वरितव्यम् एवास्या अभिलाषम् अनुवर्तितुम् ।" अर्थात् प्रियंवदा ने शकुन्तला के अनुराग का पात्रीभूत व्यक्ति को नाप कर ही उसके अभिलाष का अनुवर्तन करने का औचित्य भी स्पष्ट किया है । जिसमें अनसूया को ओर कुछ विशेष कहेने कि आवश्यकता नहीं थी ।। लेकिन मैथिली पाठ का शोधन करनेवाले किसी अज्ञात व्यक्ति ने प्रियंवदा के उपर्युक्त दो वाक्यों को मैथिली वाचना में से हटा दिये हैं । और उसी तरह के पाठ का अनुसरण बंगाली पाठ में भी हुआ । जिसके कारण प्रियंवदा के उपर्युक्त दोनों वाक्य बंगाली वाचना के पाठ में से भी गायब हो गये हैं ।। ( हाँ, देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचना की पाठधारक पाण्डुलिपिओं में काश्मीरी वाचना का अनुवर्तन हुआ है, इस लिए ये दोनों वाक्य उसमें मिलते है । तथा काश्मीरी पाठ में दाखिल हुए सागर और महानदी आदि के तीनों उपमान भी देवनागरी में संचरित हुए हैं । ) । (6) काश्मीरी पाठ में, प्रियंवदा जब राजा को निवेदन करती है कि आपको उद्देश्य करके कामदेव ने हमारी सखी को ऐसी अवस्था में पहुँचाई है । तो आप उसके जीवन को अवलम्बन दीजिए । तब शकुन्तला सतर्क हो कर बोलती है कि "हला, अलं वोऽन्तःपुरविहारपर्युत्सुकेन राजर्षिणोपरोधेन ।" यहाँ पर मैथिली पाठ में "अन्तःपुरविरह0" ऐसा भिन्न पाठ मिलता है । जिसमें प्रतिलिपिकरण के दौरान विहार में से विरह ऐसा शब्दभेद आकारित हुआ होगा । लेकिन प्रकृत प्रसंग में दोनों शब्दों का अर्थगाम्भीर्य बदल जाता है । यहाँ काश्मीरी पाठ प्राचीनतम होने की सम्भावना है, इसी लिए "अन्तःपुरविहार0" जैसे पाठान्तर का ही आदर करना चाहिए ऐसा हम झटिति निर्णय नहीं देगें । एवमेव, काश्मीरी वाचना को छोड कर अन्य सभी वाचनाओं में तो "अन्तःपुरविरह0" है, इस लिए बहुसंख्यक पाण्डुलिपियों के समर्थन को अग्रेसर करके भी निर्णय नहीं देगें । क्योंकि दोनों पाठान्तर में अपनी अपनी चमत्कृति बराबर है । अतः यहाँ सर्वतो बलीयान् प्रमाण के रूप में आन्तरिक सम्भावना का प्रमाण ही उपस्थित करना होगाः-- शकुन्तला के वचन का अर्थवाद करते हुए अनसूया ने आगे चल कर कहा है कि "वयस्य, बहुवल्लभा राजानः श्रूयन्ते ।" उसमें, और इसी तरह से, राजा ने भी सभी को आश्वस्त करते हुए "परिग्रहबहुत्वेऽपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य मे" ऐसे जो वचन कहे है उसमें बहु-शब्द का सन्निवेश महत्त्वपूर्ण है । इससे सिद्ध होता है कि काश्मीरी पाठानुसारी "अन्तःपुरविहार0" पाठान्तर ही यहाँ मौलिक हो सकता है । (7) काश्मीरी पाठ के अनुसार राजा ने सखिओं को कहा है कि, "परिग्रहबहुत्वेऽपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य मे । धर्मेणोल्लिखिता लक्ष्मीस्सखी च युवयोरियम् ।।" इसमें परिवर्तन करके, मैथिली वाचना में श्लोक का तृतीय चरण बदल दिया गया हैः-- "समुद्ररसना चोर्वी0" ।। तथा बंगाली वाचना में इसी परिवर्तित पाठ का अनुगमन किया गया है । ( कालान्तर में यहाँ "समुद्ररशना चोर्वी0" एवं "समुद्रवसना चोर्वी0" जैसे पाठभेद भी उद्भावित किये गये हैं । जो देवनागरी वाचना की पाण्डुलिपियों में प्रतिबिम्बित हुए हैं ।। ) (9) काश्मीरी पाठ में, दुष्यन्त जैसे ही प्रिया का अधरपान करने को व्यवसित होता है, कि तुरन्त नेपथ्य से कहा जाता हैः- "आर्या गौतमी" । इस तरह से आसपास में छिप कर बैठी सखिओं ने इन दोनों नायक-नायिका को सावधान कर दिया है । किन्तु मैथिली वाचना में जो नेपथ्योक्ति है वह नितराम् व्यञ्जनापूर्ण है । उसमें कहा जाता है कि, "अयि चक्रवाकवधु, आमन्त्रयस्व सहचरम् । उपस्थिता रजनी ।" मैथिली पाठ के अनुसार ही बंगाली और देवनागरी आदि वाचनाओं में पाठ संचरित हुआ है । यहाँ, मैथिली पाठ मौलिक होने का दावा इस लिए करता है कि उसमें शकुन्तला के लिए चक्रवाक पक्षी का प्रतीक उपयोग में लिया गया है । इस तरह के निसर्ग से लिए गये अन्यान्य प्रतीकों से नाट्य का प्रवर्तन करने की "अपूर्व" प्रयुक्ति ही इस नाटक में शूरु से ही प्रयुक्त की गई है । (10)गौतमी शकुन्तला को ले कर रंगमंच से निकल जाती है । दुष्यन्त अब प्रिया का स्मरण करता हुआ एक श्लोक बोलता हैः- मुहुरङ्गुलिसंवृत्ताधरोष्ठं प्रतिषेधाक्षरविक्लवाभिधानम् । मुखमंसविवर्ति पक्ष्मलाक्ष्याः कथमप्युन्नमितं, न चुम्बितं तु ।। (का0 3-32) इस काश्मीरी पाठ में परिवर्तन करके मैथिली वाचना के किसी अज्ञात पाठशोधक ने अन्तिम चरण में "न चुम्बितं तत्" ऐसा पाठभेद किया है । इस श्लोक के अन्तिम पद के रूप में आये "तु" अव्यय को जिसने निरर्थक पादपूरक निपात समझा है, उसीने उसको बदल कर, "मुखम्" जैसे नपुंसकलिंग नाम के साथ सम्बन्ध रखनेवाला "तत्" सर्वनाम रख दिया है । किन्तु कालिदास ने बडी चातुरी के साथ "तु" का प्रयोग किया है, और वह भी चरण के अन्तिम पद के रूप में । क्योंकि दुष्यन्त अपनी प्रियतमा का अधरोष्ठपान करने के लिए उद्यत तो हुआ था, लेकिन गौतमी के आगमन के कारण वह उनसे वंचित रह गया है । अतः कवि ने "तु" का प्रयोग करके चुम्बन की मुद्रा वाले नायक को ही नाटकीय ढंग से मंच पर उपस्थित कर दिया है ! अभिनयन की इस विशेष योजना मैथिली वाचना के पाठशोधक के ध्यान में नहीं होगी, अतः उसने "तत्" पद रखा होगा ।। ( बंगाली वाचना की पाण्डुलिपियों में भी इसी तत्-पदवाला पाठान्तर स्वीकारा गया है । ) 7. काश्मीरी वाचना में शौरसेनी प्राकृत भाषा का विनियोग दिखाई रहा है । कालान्तर में वही पाठ जब मैथिली वाचना में संक्रान्त हुआ होगा तब उसमें कुछ हद तक शौरसेनी का स्वरूप बदलता गया है, और उसके स्थान में ( उत्तरवर्ती काल की ) महाराष्ट्री प्राकृत का प्रभाव मिलना शूरु हो जाता है । निदर्शात्मक एक-दो स्थान द्रष्टव्य हैः—(1) शौरसेनी में थकार का धकार होता है । जिसमें कालान्तर में हकार का परिवर्तन आ गया है । 1. मनोरथ – मणोरध – मणोरह ।, अथवा – अधवा – अहवा ।, (2) रेफोत्तरवर्ती यकार जब संयुक्ताक्षर के रूप में प्रयोग होता है, तो शौरसेनी में समीकरण की प्रक्रिया से उसका "य्य" में परिवर्तन होता है । किन्तु मैथिली वाचना में उस य्य- का ज्ज में परिवर्तन कर दिया गया है । उदाहरण के लिए , आर्यपुत्र – अय्यउत्त – अज्जउत्त ।, (3) काश्मीरी पाठ में धकार का धकार में ही प्रयोग मिल रहा है । किन्तु वही पाठ जब मैथिली में जाता है, तब उसका हकार में परिवर्तन हुआ है ऐसा दिखता है । अपराध – अपराध – अपराह ।। इन उदाहरणों के बल पर कह सकते है कि, काश्मीरी पाठ में शौरसेनी-प्राकृत का संरक्षण हुआ है और मैथिली पाठ में (तथा उसी तरह से बंगाली में भी) उत्तरवर्ती काल की महाराष्ट्री-प्राकृत का प्रभाव शूरु हुआ है । यह बात भी काश्मीरी पाठ का प्राचीनतमत्व भी सिद्ध करता है, और मैथिली पाठ का उत्तरवर्तित्व बताता है ।। 8. काश्मीरी पाठ में किसी भी अङ्क का नामकरण नहीं मिलता है । लेकिन मैथिली पाठ में तीसरे अङ्क का नाम शृङ्गारभोग दिया गया है ।। यह भी उत्तरवर्ती काल का उपक्रम हो सकता है । क्योंकि काश्मीरी पाठ में ऐसे नाम नहीं मिलते है, और उसका सार्वत्रिक अनुसरण भी नहीं हुआ है । [ 13 ] अब, चतुर्थ सोपान पर बंगाली वाचनानुसारी तीसरे अङ्क के पाठ में जो परिवर्तन आये हैं उसकी चर्चा करना अभीष्ट है । बंगाली वाचना ने मैथिली वाचना के पाठ का बहुशः स्वीकार किया है । जैसे कि, 1. अश्लीलांशो का अनुसरण किया है । और उसमें भी मैथिली पाठ की तरह "सुरतरसज्ञो भविष्यामि" वाले तीसरे अश्लीलांश का स्वीकार नहीं किया है । 2. मैथिली पाठ में जिन पाँच नये श्लोक प्रक्षिप्त किये हैं, उनका बंगाली वाचना में यथावत् स्वीकार किया गया है । किन्तु इसके साथ में एक नया (षष्ठ) श्लोक प्रक्षिप्त किया है ऐसा दिखता है । जैसे कि, अनुसूया शकुन्तला की मदनावस्था को देख कर बोलती है कि शकुन्तला को जो अङ्गसंताप हो रहा है वह बलवान् है । अतः शकुन्तला को कुछ पुछना चाहती है । यह सून कर दुःषन्त के मन में भी होता है कि शकुन्तला को पुछ ही लेना चाहिए । क्योंकि – शशिकरविशदान्यस्यास्तथा हि दुःसहनिदाघशंसीनि । भिन्नानि श्यामिकया मृणालनिर्माणवलयानि ।। (बं0 3 – 11) ।। "शकुन्तला ने अपने हाथों में मृणालतन्तुओं से बनाये वलय पहेने हैं वह चन्द्र–किरण जैसे शुभ्र होते हुए भी श्याम हो गये है, जो शकुन्तला के अङ्गसंताप को कह रहे है ।" इस श्लोक में " मृणालनिर्माणवलयानि " शब्द बहुवचन में है, वह पूर्व श्लोक ( 3 : 10 ) के "प्रशिथिलितमृणालैकवलयम्" के साथ असम्बद्ध सिद्ध होता है । पहेले जब कहा जाता है कि शकुन्तला ने हाथ में पहेना मृणाल का एक वलय प्रशिथिल है, तब तुरन्त ही अनुगामी श्लोक में कहा जाय कि शकुन्ताला ने मृणाल से बने अनेक वलय पहेने है, तो वह वदतोव्याघात है । अतः 3 : 11 श्लोक को प्रक्षिप्त मानना ही उचित होगा । इस नाट्यकृति के प्रत्येक शब्द, वाक्य को स्मृतिपट पर रखते हुए पुनरुक्ति या परस्पर विसंगतता है या नहीं ? इस आन्तरिक सम्भावना के दृष्टिबिन्दु से परीक्षण करेंगे तो अनेक प्रक्षिप्त स्थानों को हम पहेचान पायेंगे ।। 3. उपर्युक्त दो बिन्दुओं को देखने के बाद, रंगसूचनाओं सम्बन्धी जिन विसंगतियाँ मैथिली पाठ में है उस सन्दर्भ में बंगाली पाठ में कैसी स्थिति प्रवर्तमान है ? वह मुख्य रूप से देखना है । यहाँ प्रथमतः यह ज्ञातव्य है कि इन विसंगतिओं का अनुसरण बंगाली वाचना में नहीं हुआ है । कुसुमशयना शकुन्तला को यहाँ मदनलेख लिखते समय, एवं राजा को शिलातल पर साथ में बिठाया जाता है तब भी लेटी हुई ही रखी है ! लगता है कि बंगाली वाचना के पाठशोधकों के ध्यान में रंगसूचना-सम्बन्धी पूर्वोक्त विसंगतियाँ आई होगी, जिसके कारण उन्हों ने उसमें सुधार कर लिया है ।। यहाँ पाठालोचक को यह विचार करना सहज रूप से अनिवार्य है कि यदि रंगसूचनाओं सम्बन्धी कोई विसंगति बंगाली पाठ में है ही नहीं, तो उसी वाचना के पाठ को ही प्राथम्य क्यों न दिया जाय ? अर्थात् बिना कोई विसंगतिवाला पाठ, जो मूल में कवि ने स्वयं ही लिखा होगा, वही पाठ इस बंगाली वाचना में सुरक्षित रहा है, और कालान्तर में काश्मीर और मिथिला के रंगकर्मिओं ने उसी (मूल) बंगाली पाठ में विकार पैदा किये होंगे – ऐसा क्यूं नहीं मानते है ?। प्रश्न तो उचित ही है ।। किन्तु यहाँ एक अन्य प्रश्न उठाना चाहिए । जैसे कि, "यदि इस बंगाली पाठ में रंगसूचना से सम्बद्ध कोई विसंगति नहीं है तो, उस विसंगति को जन्म देनेवाला वो संवाद, जिसमें मेघनादाहत / मेघवाताहत मयूरी का उपमान प्रयुक्त किया गया है, क्या बंगाली पाठ में से निकाल ही दिया गया है ? या मिलता ही नहीं है ?" क्योंकि इस संवाद के अनुसन्धान में ही तो शकुन्तला धीरे धीरे स्वस्थ होती हुई लज्जा के साथ खडी होती है । ( इस संवाद को हटाने के बाद ही "सलज्जा तिष्ठति" जैसि रंगसूचना को हटाई जाना सम्भव थी । ) कहने का तात्पर्य यह है कि, विसंगतिओं के अभाव में बंगाली वाचना का पाठ मौलिक होने का कहने के लिए उपर्युक्त "मेघनादाहत मयूरी"वाला संवाद भी बंगाली पाठ में अनुपस्थित होना आवश्यक है । किन्तु ऐसा तो है नहीं ।। काश्मीरी वाचना के पाठशोधकों को कुसुमशयना शकुन्तला रंगमंच पर लम्बे समय तक लेटी रहे वह मुनासिब नहीं था, अतः उन्हों ने काव्यात्मक शैली में मेघनादाहत मयूरी के उपमान का आश्रयण (प्रक्षेपण) किया । इस तरह का संवाद जोड कर ( लेटी हुई शकुन्तला को राजा के सामने खडी करने के लिए ) "सलज्जा तिष्ठति" जैसि रंगसूचना दी है । उस काव्यात्मक शैली में रखे गये संवाद के मोहपाश में बंगाली वाचना के पाठशोधक भी बद्ध हो गये है । उन्हों ने भी इस संवाद में कुछ कांट-छांट करके, तथा उसकी प्रस्तुति का स्थान परिवर्तन करके उसे रखा है । उन्हों ने शकुन्तला की लेटी हुई अवस्था का विनियोग करते हुए, "अपराधमिमं ततः सहिष्ये यदि रम्भोरु तवाङ्गसङ्गसृष्टे । कुसुमास्तरणे क्लमापहं मे सुजनत्वादनुमन्यसेऽवकाशम् ।।(बं0 3-24)" इस अश्लील श्लोक को प्रस्तुत तो करना ही था, इस लिए जब राजा ने "यद्यपि मैं ने रानीवास में बहुत रानियाँ इकठ्ठी की है, किन्तु आप दोनों की सखी ही मेरे कुल की प्रतिष्ठा बनेगी ।" कहा तब दोनों सहेलियों ने "निर्वृते स्वः ।" शब्दों से परितोष जताया है । किन्तु बंगाली पाठशोधकों ने यहाँ एक नयी रंगसूचना जोडी हैः-- "शकुन्तला हर्षं सूचयति" । ( यह रंगसूचना अपूर्व है, अन्य किसी भी वाचना में नहीं है । ) उसके पीछे, प्रियंवदा बोलती है कि "अनुसूये, प्रेक्षस्व प्रेक्षस्व, मेघवाताहतामिव ग्रीष्मे मयूरीं क्षणे क्षणे प्रत्यागतजीवितां प्रियसखीम् ।" तब शकुन्तला कहेती है कि इस लोकपाल की क्षमा-याचना करो, तुम दोनों ने जो विस्रब्ध हो कर प्रलाप किया है उसके लिए... इत्यादि ।। यहाँ पर, मेघवाताहत मयूरी के उपमान का विनियोग करते हुए भी शकुन्तला को रंगमंच पर खडी करने की रंगसूचना नहीं दी गई है । किन्तु जो नवीन रंगसूचना जोडी है कि ( राजा ने शकुन्तला को "अपने कुल की प्रतिष्ठा" उद्घोषित की है, उसको सुन कर केवल दो सहेलियाँ ही संतुष्ट नहीं हुई है, ) शकुन्तला भी अपने मन का हर्ष सूचित करने लगती है – वह विचारणीय बिन्दु बनता है । यह नयी रंगसूचना ही सूचित करती है कि बंगाली पाठ में ( भले ही रंगसूचना से सम्बद्ध पूर्वोक्त विसंगतियां नहीं है, फिर ) भी खिलवाड करने में रंगकर्मी लोग सक्रिय थे । क्योंकि, शकुन्तला हर्ष सूचित कर रही है उसका ध्वनि तो ऐसा निकलता है कि मूल महाभारत में जो शकुन्तला ने अपने (ही) पुत्र को गादी मिले, उस समय को लेकर गान्धर्व विवाह के लिए सम्मति प्रदान की थी वही बात कालिदास की शकुन्तला के दिमाग में भी प्रकट रूप से थी । उसके मन में सही अर्थ में जो प्रेमावेश सुव्याप्त था, जिसका कथन "अन्यथा सिञ्चत मे उदकम्" शब्दों से पहेले किया गया है, उससे तो यह नयी रंगसूचना बीलकुल विरुद्ध है । अतः बंगाली पाठ में भी सुधार ही हुआ है, और वह भी मैथिली वाचना के पाठ के "अनुयायी पाठ" के रूप में हुआ है ऐसा कहेने में कोई विप्रतिपत्ति नहीं है ।। सारांशतः कहे तो, इस नाटक की बृहत्पाठ परम्परा के चतुर्थ सोपान पर बंगाली वाचना का पाठ आता है । जिसमें 1. काश्मीरी वाचना को विरासत में मिले जो अश्लील पाठ्यांश थे, वे मैथिली वाचना से गुजरता हुआ बंगाली वाचना के पाठ तक संचरित हुआ है । 2. मैथिली वाचना ने प्रक्षिप्त किये पाँच श्लोकों का स्वीकार करते हुए बंगाली वाचना के पाठशोधकों ने एक छठ्ठा श्लोक भी नया जोडा है । 3. बंगाली वाचना के पाठ में कुसुमशयना शकुन्तला को कवि की मूल योजनानुसार "अङ्के निधाय चरणावुत पद्मताम्रौ संवाहयामि करभोरु यतासुखं ते" श्लोक के शब्दों को सुन कर ही खडी की गई है, उससे पहेले नहीं, फिर भी "शकुन्तला हर्षं सूचयति " जैसि नयी रंगसूचना जोड कर अनिष्टार्थ का आविष्कार भी कर दिया है । 4. काश्मीरी पाठ में जिन उपमानों ( चित्राविशाखे और शशाङ्कलेखा आदि के ) का संनिवेश किया गया है, वह जैसे मैथिली पाठ में अग्राह्य बने है, वैसे बंगाली पाठ में भी अग्राह्य ही रहे है । 5. बंगाली पाठशोधकों ने प्राकृत उक्तिओं के सन्दर्भ में शौरसेनी का मूल स्वरूप सुरक्षित रखते हुए भी, मैथिली पाठ की तरह अमुक नये ध्वनिपरिवर्तन ( उदाहरण के लिए – आर्यपुत्र – अज्जउत्त, जो उत्तरवर्ती काल का है, उसे ) तो स्वीकार ही लिए है ।। [ 14 ] अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक के तृतीयाङ्क के पाठ में पँचम सोपान पर पाठविचलन हुआ है वह देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में देखा जाता है । इन दोनों वाचनाओं के पाठशोधकों ने परापूर्व से चले आ रहे अश्लील पाठ्यांशों को हटाने के लिए संक्षेपीकरण का मार्ग अपनाया । और इसके लिए, मैथिली पाठपरम्परा ने जो "गान्धर्वेण विवाहेन0" वाला श्लोक प्रक्षिप्त किया था उसका विनियोग करके परम्परागत पाठ में कटौती कर दी । जिसमें अश्लील अंशो की कटौती करने के साथ साथ, तीसरे अङ्क के बहुमूल्य दो दृश्यों ( 1. शकुन्तला के हाथ में मृणाल-वलय पहेनाना और 2. पुष्परज से कलुषित हुए शकुन्तला के नेत्र को वदनमारुत से निर्मल कर देने का समावेश होता है ) की भी कटौती की गई है । किन्तु उक्त अश्लीलांशो की कटौती होने के बाद भी रंगसूचना सम्बन्धी जो विसंगति काश्मीरी वाचना से प्रविष्ट हुई थी, और जो मैथिली पाठ में संचरित हुई थी, वह भी देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचना के पाठों में यथातथ बनी रही । अर्थात् कुसुमशयना शकुन्तला को रंगमंच पर कब तक प्रस्तुत करनी कवि को मूल में अभीष्ट थी ? इस बात की ओर देवनागरी के पाठशोधकों का भी ध्यान नहीं गया है ।। [ प्रस्तुत शोध-आलेख में जो भी विचारणा प्रस्तुत की गई है, वह श्रद्धेय डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल की अवधारणा से पूर्ण रूप से विपरित है । यद्यपि उन्होंने ऑक्सफर्ड की बोडलियन लाईब्रेरी में सुरक्षित इन शारदा पाण्डुलिपियों का प्रत्यक्ष विनियोग किया था, लेकिन अश्लील पाठ्यांशो के प्रक्षेप तथा रंगसूचना सम्बन्धी विसंगति की ओर उनका ध्यान नहीं गया है ऐसा लगता है । तथा गान्धर्वेण विवाहेन0 वाला श्लोक भी मैथिली एवं बंगाली पाठ में प्रक्षिप्त हुआ है वह पहेचाना नहीं है । इस विषय में यदि पुनःपरामर्शन होगा तो, "दुर्व्याख्याविषमूर्च्छिता कालिदास की भारती" पर महान् उपकार ही होगा ।। ] उपसंहारः अभिज्ञानशाकुन्तल की समग्र पाठालोचना में तीसरे अङ्क का पाठविचलन ही केन्द्रवर्तिनी चुनौती है । इस अङ्क में, मंचन के दौरान मदनाविष्ट शकुन्तला को लेटी हुई अवस्था में प्रस्तुत करने की योजना मूल में कवि कालिदास की ही है । किन्तु लेटी हुई नायिका को मंच पर प्रस्तुत करने का ऐसा मौका मिलने पर विभिन्न कालखण्ड के रंगकर्मिओं ने उसमें दो-तीन स्थानों में अश्लील पाठ्यांशों का प्रक्षेप किया है । तथा ऐसे अन्यान्य अश्लील प्रक्षेपों को रोकने के लिए, शायद दूसरे रंगकर्मिओं ने उसमें नवीन रंगसूचनाओं को जोड कर शकुन्तला को लेटी हुई अवस्था में से खडी भी की है और बैठी भी कर दी है । किन्तु ऐसा करने से इस दृश्य की मंचन-योजना में विसंगति पैदा हुई है । इस विरासत में मिली विसंगति को हम आज भी ढो रहे है । हमें उपलब्ध हो रही पाण्डुलिपियों में शारदालिपि-निबद्ध उक्त चार पाण्डुलिपियों ही प्राचीनतम है, जिसमें ऐसे अश्लील अंश विरासत में मिले है । अतः इससे अधिक पुराने समय की पाण्डुलिपियाँ जब तक खोजी नहीं जाती है तब तक हमें इदंप्रथमतया दो कार्य सिद्ध करना जरूरी हैः—1. इन तीनों अश्लील पाठ्यांशों का मौलिक न होना सिद्ध करने के लिए उच्चतर समीक्षा को मान्य हो ऐसे आन्तरिक सम्भावनायुक्त तर्कों को प्रस्तुत करना होगा । तथा 2. ऐसे अंशो दाखिल होने के बीजभूत कोई कारण हो तो उसको पहेचान कर, कवि ने सोची हो ऐसी कृतिनिष्ठ मंचन-योजना की पुनःस्थापना करनी होगी ।। इस नाटक की जो बृहत्पाठ परम्परा काश्मीरी, मैथिली और बंगाली वाचनाओं में संचरित हुई है उसकी पाठयात्रा का क्रम भी निर्धारित करना आवश्यक है । जिससे इन तीनों वाचनाओं में बिखरे हुए विभिन्न पाठभेदों और प्रक्षेप-संक्षेप का बुद्धिगम्य चित्र हमारे सामने उद्भासित हो सके । तथा वर्तमान में सर्वमान्य एवं सुप्रचलित बने देवनागरीवाचना के पाठ का आविर्भाव तो सब से अन्त में, पञ्चम सोपान पर हुआ है, इस बात की सप्रमाण उपस्थापना हो जाने के बाद, प्राचीन से प्राचीनतर, और प्राचीनतर से प्राचीनतम पाठ के रूप में काश्मीरी वाचना के पाठ की महिमा प्रतिष्ठित हो सकेगी । एवमेव, उसमें न केवल प्राचीनतम पाठ मिलता है, किन्तु उसमें ही अधिकतर मौलिक पाठ्यांश सुरक्षित रहे हैं – यह बात भी उजागर हो जायगी, यही है प्रस्तुत शोध-आलेख का प्रतिपाद्य विचार ।। शिवम् अस्तु ।। ------ 888888 ------ Bibliography काळे, एम. आर. (1898 प्रथमावृत्ति, दशवी आवृत्ति, 1969). अभिज्ञानशाकुन्तलम् ।. दिल्ली: मोतीलाल बनारसी दास. द्विवेदी, रेवाप्रसाद. (1976, 1986). कालिदास ग्रन्तावली. वाराणसी: बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय. पाटणकर, पी. एन. (1902). अभिज्ञानशकुन्तलम् ( शुद्धतर देवनागरी पाठ ). पूणें: शिरालकर एण्ड कं. बुधवार पेठ. राय, शारदा रञ्जन (1908). अभिज्ञानशाकुन्तलम् ।. कोलकाता. विलियम्स, मोनीयर. (1961, तृतीय संस्करण). शकुन्तला. वाराणसी: चौखम्बा संस्कृत सिरिझ ओफिस,. शास्त्री, गौरी नाथ. (1983). अभिज्ञानशकुन्तलम्. दिल्ली: साहित्य अकादेमी. सुकथंकर, वी. एस. (1933). महाभारतम् ( आदिपर्वन् ). पूणें: भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट.