शुक्रवार, 4 दिसंबर 2015

कालिदास गुप्तकालिक विक्रमादित्य के साथ कैसे जुडे है - नवोन्मेष ।।

कालिदास गुप्तकालिक विक्रमादित्य के साथ कैसे जुड़े हैं?– नवोन्मेष वसन्तकुमार म. भट्ट पूर्व-निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद – 380 009 भूमिका– महाकवि कालिदास का समय निश्चित करने के लिए विगत सो वर्षों में विवध प्रमाण उपस्थापित किये गये हैं ।किन्तु इन में से एक भी प्रमाण या विचारसर्वसम्मत नहीं बन सकाहै । इस विषय को लेकर दो पक्ष पैदा हुए हैं । जिनमें से प्रथम पक्ष है कि कवि कालिदास ई. सा. पूर्व प्रथम शताब्दी में पैदा हुए है । शुंगवंश के राजा अग्निमित्र को नायक बना कर जो मालविकाग्निमित्र नाटक की रचना की गई है, वह इस बात का प्रमुख प्रमाण है । दूसरे पक्ष मेंकहा जाता है कि वे पाटलिपुत्र (मगध) के चन्द्रगुप्त द्वितीय, जिसने विक्रमादित्य नाम धारण किया था, के समय में ( ई.स. 380 – 414 ) पैदा हुए थे । अर्थात् कालिदास 4वीं शती में पैदा हुए थे । इस गुप्तकाल को संस्कृत भाषा एवं साहित्य का सुवर्ण-युग माना जाता है । क्योंकि समुद्रगुप्त एवं उनके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ही संस्कृत को राजभाषा का दरज्जा दिया था । इस काल की सुवर्णमुद्राओं पर समुद्रगुप्त के लिए संस्कृत में "सर्वराजोच्छेत्ता" शब्द उत्कीर्ण किया हैं, जो इसकी गवाह दे रहे हैं । अस्तु । इस तरह, कालिदास के समय को लेकर दो पक्ष उपस्थापित किये गये हैं ।यहाँ, समानान्तर चलनेवाले दो पक्ष ही यदि प्रवर्तमान होते तो विवाद का स्वरूप सर्वसामान्य प्रकार का रहता ।। परन्तु जब ऐसा भी कहा जाता है कि विक्रमादित्य की राजसभा के नव रत्नों में से एक कालिदास थे, मतलब कि उन दोनों की जोडी थी, उनके बीच आश्रय-आश्रित सम्बन्ध था, तब यह प्रश्न कालिदास की तिथि-निर्णय तक सीमित न रह कर, विक्रमादित्य की पहचान और उसके स्थिति-काल के निर्णय को भी शोध के दायरे में घीसिट कर ले आता है ! जैसे कि (1) उज्जयिनी (मालवा) का विक्रमादित्य, जो गर्दभिल्ल का पुत्र कहा जाता है, जिसने शकों का पराभव किया था, और उसने विक्रमी संवत् (ई.स. 57में) शुरू करवाया था, वह विक्रम कालिदास का आश्रयदाता था । अथवा, (2) मगध में आकारित हुए गुप्तवंश में जो चन्द्रगुप्त-2 , जिसने भी शकों को मार कर विक्रमादित्य नाम धारण किया था, तथा मालवा में भी उसने अपना राज्यविस्तार किया था और जिसका स्थिति-काल ई.स. 380 से 414 के बीच निर्धारित किया गया है, उसके समय में कालिदास को पैदा हुए माना जाय ।। शायद ही ऐसा कोई इतिहासविद् होगा कि जिसने इस विषय पर अपनी कुछ राय नहीं लिखी होगी । यह विषय अत्यन्त रसप्रद होने के साथ साथ अनेक पक्ष-प्रतिपक्ष के प्रमाणों और किंवदन्तीओं से खचाखच भरा हुआ है । अतः शायद ही कोई इतिहासविद् ऐसा हो सकता है जो गुमराह होने से बच पाये !अतः संस्कृतज्ञ विद्वान् पूर्वोक्त दो पक्षों की जानकारी प्राप्त होने के बाद, दिङ्-मूढ होकर खडा रह जाता है ।। किन्तु विरल पुराविद् विद्वान् डॉ. रामचन्द्र तिवारी ( भोपाल ) ने अपने "कालिदास की तिथि-संशुद्धि"( ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, 1989 ) शीर्षकवाले ध्यानार्ह, बल्कि अनुपेक्ष्य ग्रन्थ में यह सिद्ध किया है कि महाकवि कालिदास के काल-निर्धारण में (क) अग्निमित्रवाद ( ई.पू. दूसरी सदी), और (ख) संवती-विक्रमवाद ( ई.पू. प्रथम सदी ) सप्रमाण निरस्त हो जाते हैं । तथा (ग) गुप्तवाद के भी तीन वादों – समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त-2, तथा कुमारगुप्त में से प्रथम दो को अप्रमाणिक सिद्ध किये हैं । उनके अभिमत से कालिदास कुमारगुप्त प्रथम के समकालिक सिद्ध होते हैं ।। यद्यपि उन्होंने कालिदास को प्राचीनतम काल में रखने के लिए अद्यावधि उपस्थापित सभी प्रमाणों और विचारधाराओं का पुरातात्त्विक दृष्टि से सर्वाङ्गीण परीक्षण एवं परिहार प्रस्तुत कर दिया है, तथापि उनके पूर्वोक्त ग्रन्थ में जिस विषय पर गभीरतया सोचने की बात बनी ही नहीं है, वैसी एक अस्पृष्ट दिशा से यहाँ विचार किया जा रहा है । जैसे कि, अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक कीजिन पाण्डुलिपियों में कुत्रचित् विक्रमादित्य का जो नाम-निर्देश मिलता है,उन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता थी । परन्तुइस पर किसे ने प्रस्तूयमान दृष्टि सेचिन्तन नहींकिया है। अतः प्रस्तुत शोध-आलेख में, ऐसी पाण्डुलिपियों में संचरित हुएविविध प्रक्षेपादि सहित के पाठान्तरों में से, गर्भित रूप से सूचित हो रहे, एक अनूठे प्रमाण की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है ।। [ 1 ] हाँ, पाण्डुलिपिओं के प्रमाण को पुरस्कृत करते हुए जो एक विचारणा पहले हो चूकि है, उसका ऊहापोह प्रथम कर लेना आवश्यक हैः-- डॉ.राजबली पाण्डेय जी ने कहा है कि मालवगण मुख्य विक्रमादित्य कालिदास के आश्रयदाता हो सकते है या नहीं ? अभिज्ञानशाकुन्तल की कतिपय प्राचीन प्रतियोंमें नान्दी के पश्चात् लिखा मिलता है कि इस नाटक का अभिनय विक्रमादित्य की अभिरूप भूयिष्ठ परिषद में हुआ था । जैसे कि, "आर्ये, इयं हि रसभावविशेषदीक्षागुरो-,र्विक्रमादित्यस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत् ।" ( जीवानन्द विद्यासागर संस्करण, कलकत्ता, 1914 ई.स. ) अभी तक विक्रमादित्य एकतान्त्रिक राजा ही समझे जाते रहे हैं । किन्तु काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के हिन्दी-विभागाध्यक्ष स्वर्गीय श्रीकेशवप्रसाद मिश्रजी के पास सुरक्षित अभिज्ञानशाकुतल की एक हस्तलिखित प्रति ने विक्रमादित्य का गण ( गणतन्त्र ) से सम्बन्ध व्यक्त कर दिया है । ( इस पाण्डुलिपि का प्रतिलेखन-काल अगहन सुदी 5, संवत् 1699 है ) उसके निम्नोक्त दो अवतरण ध्यान देने योग्य हैः—(अ) "आर्ये रसभावविशेषदीक्षागुरोः विक्रमादित्यस्यसाहसाङ्कस्या-भिरूपभूयिष्ठा परिषत् । अस्यां च कालिदासप्रयुक्तेनाभिज्ञानशाकुन्तलेन नवेन नाटकेनोपस्थातव्यमस्माभिः । (नान्द्यन्ते)" ।, एवं भरतवाक्य के उपर दिये हुए एक श्लोक में (आ) "भवतु तव बिडौजाः प्राज्यवृष्टिः प्रजासु, त्वमपि विततयज्ञो वज्रिण भावयेथाः । गणशतपरिवृतैरेवमन्योन्यकृत्यै,र्नियतमुभयलोकानुग्रहश्लाघनीयैः ।।" उपर्युक्त अवतरणों में रेखाङ्कित पदों से यह स्पष्ट जान पडता है कि जिन विक्रमादित्य का यहाँ निर्देश है उनका व्यक्तिवाचक नाम विक्रमादित्य है, और उपाधि "साहसाङ्क" है । भरतवाक्य का "गण" शब्द राजनीतिक अर्थ में गणराष्ट्र का द्योतक है ।" इत्यादि ।। इस तरह डॉ. राजबली पाण्डेय जी ने ई.पू. प्रथम सदी में हुए उज्जयिनी के विक्रमादित्य कीऐतिहासिकता सिद्ध हो रही है ऐसा एक पाण्डुलिपि के साक्ष्य से घोषित किया है ।। परन्तु, पाण्डुलिपियों के साक्ष्य को लेकर जब कुछ भी बताना है तो पाण्डुलिपियों के व्यापक सर्वेक्षण की पहले अनिवार्य आवश्यकता होती है । केवल एक हस्त-लिखित प्रति के आधार पर जो कहा जायेगा वह कालान्तर में अन्यथा सिद्ध हो सकता है । जैसा कि हमने देश-विदेश-व्यापी विभिन्न ( 70 से अधिक ) पाण्डुलिपियों का तुलनात्मक अध्ययन करके पीछले तीन वर्षों में कुछ गवेषणाएं उपस्थापित की हैं । जिससे अद्यावधि अनजान रही इस नाटक की पाठयात्रा का चित्र सामने आ गया है । अब इस विषय का निरूपण निम्नोक्त पेरा में किया जाता है ।। [ 2 ] अभिज्ञानशाकुन्तल शीर्षक से सुप्रचलित हुआ यह नाटक कुल मिला के पाँच तरह की वाचनाओं में संचरित होकर हम तक आज पहुँचा है । हमारी पाण्डुलिपि-सम्पदा का यदि सम्यक् आलोडन किया जाय तो उसमें भी पाठान्तरों के पीछे प्राचीन ग्रन्थों के पाठसंचरण का इतिहास छीपा हुआ होता है । इन पाण्डुलिपियों का विश्लेषण करने से किसी भी ग्रन्थ का प्राचीन से प्राचीनतर, एवं प्राचीनतर से प्राचीनतम पाठ ढूँढा जा सकता है, तथा अन्ततो गत्वा कवि-प्रणीत मूलपाठ का अनुमान भी हम लगा सकते है । विगत सो वर्षों के अन्तराल में विद्वानों ने शाकुन्तल नाटक की पाँच वाचनाओं की जानकारी दी है । जैसे कि, 1. शारदालिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहा काश्मीरी वाचना का पाठ, 2. बिहार की मैथिली-लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ मैथिली वाचना का पाठ, 3. बंगाली लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ बंगाली वाचना का पाठ, 4. दक्षिणभारत की ग्रन्थ, तेलुगु, नन्दीनागरी आदि लिपियों में संचरित हुआ दाक्षिणात्य वाचना का पाठ एवं 5. उत्तर-पश्चिम-मध्य भारत में प्रचलित देवनागरी लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ देवनागरी वाचना का पाठ ।। यद्यपि इन वाचनाओं के "समीक्षित पाठ-सम्पादन" (Critically Edited Text) काकार्य अभी तक सम्यक् तया सम्पन्न नहीं किया गया है । तथापि हमने शारदा पाण्डुलिपियों में संचरित हुए काश्मीरी पाठ का सम्पादन तैयार करते हुए, इसका जो अन्य वाचनाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया है, उससे इतना तो सप्रमाण सिद्ध होता है कि उपलब्ध इन पाँचों वाचनाओं में काश्मीरी वाचना ही सब से पुरानी है । लिपियों के आनुक्रमिक विकास को देखा जाय तो भी ब्राह्मी लिपि से क्रमशः विकसित हुई लिपियों में काश्मीर की शारदा लिपि ही, मैथिली या बंगाली की अपेक्षा से, प्राचीनतम सिद्ध होती है ।एवमेव, अलंकारशास्त्र के प्राचीनतम ग्रन्थों में उद्धृत हुए शाकुन्तल के अवतरणों को देखा जाय तो वे काश्मीर की पाठपरम्परा में से लिए गये हैं– ऐसा असंदिग्ध रूप से देखा जा रहा है । तथा,इस नाटक के बहुविध पाठभेदों में से जो पाठान्तर काश्मीरी वाचना में सुरक्षित रहे हैं, वही पाठान्तर कृतिनिष्ठ आन्तरिक सम्भावना से युक्त है ऐसा भी सिद्ध होता है । मतलब किउच्चतर समीक्षा से भी काश्मीरी वाचना के शारदा-पाठ को ही अधिक श्रद्धेय एवं प्राचीनतम होने का यश मिल रहा है ।। काश्मीरी वाचना के पाठ का प्राचीनतमत्व सिद्ध होने के बाद, द्वितीय क्रमांक पर मैथिली वाचना का पाठ आता है और बंगाली वाचना का पाठ तृतीय क्रमांक पर सुग्रथित किया गया है । इन तीनों पाठपरम्पराओं में यह भी देखा जाता है कि नाटक का मूल (कविप्रणीत) पाठ क्रमशः बृहत् से बृहत्तर, एवं बृहत्तर से बृहत्तम बनता गया है । ( नाटक के पाठ की ऐसी इयत्ता भी, जो उक्त रीति से वृद्धिंगत होती रही है, उससे भी निश्चित होता है कि उपलब्ध पञ्चविध पाठों में से काश्मीरी में संचरित हुआ बृहत् पाठ प्राचीनतम है, मैथिली में संचरित हुआ बृहत्तर पाठ प्राचीनतर है, और बंगाली का बृहत्तम पाठ केवल प्राचीन है । ) तदनन्तर, चतुर्थ क्रमांक पर दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों या सूत्रधारों ने उस बृहत्तम पाठ में भारी कटौती करके, ( अल्प-समयावधि में इस नाटक की रंगमंच पर प्रस्तुति करने के लिए ) तृतीयाङ्क में से दो दृश्यों को निकाल कर, एक लघु आकार का पाठ सम्पादित किया है । यह संक्षिप्त किये गये पाठ में कुछ पाठान्तर काश्मीरी वाचना में से लिए गये हैं, तो कुछ पाठान्तर मैथिली एवं कुछ बंगाली से भी लिए गये हैं । तत्पश्चात् पञ्चम क्रमांक पर, सब से अन्त में, देवनागरी वाचना का पाठ सुग्रथित किया गया है, जिसमें भी पुरोगामी काश्मीरी-आदि चारों वाचनाओं में से विविध पाठान्तरों को चुने गये हैं । तथा उसको दाक्षिणात्य की अपेक्षा से अधिक संक्षिप्ततर बनाई गई है ।इन पाँचों वाचनाओं का ग्रथन काल ( या रंगावृत्ति में परिवर्तित होने का काल ) दूसरी-तीसरी शती से लेकर14वीं शती तक फैला हुआ प्रतीत हो रहा है ।। ( इस सन्दर्भ में, मेरा शोध-आलेख "अभिज्ञानशाकुन्तल के पाठविचलन की आनुक्रमिकता" द्रष्टव्य है । ) [ 3 ] इस नाटक की उपलब्ध हो रही पाँच वाचनाओं में उपर्युक्त पौर्वापर्य निर्धारित हो रहा है, इतना बताने के बाद हमें यह भी जानना अतीव आवश्यक है कि इन पाँचों वाचनाओं को परस्पर से पृथक् करनेवाले भेदक-बिन्दुएँ कौन कौन दिखाई दे रहे हैं ? तो, काश्मीरी वाचनाके पाठ मेंनाटक का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तला" दिया गया है, मैथिली वाचना में वही शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तलम्" किया गया है, जो बंगाली वाचना के पाठशोधकों ने यथावत् रखा है । दाक्षिणात्य वाचना और देवनागरी वाचना की पाण्डुलिपियों में वह शीर्षक "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" बनाया गया है । इसके उपरान्त भी, प्रत्येक वाचना की पाण्डुलिपियों में कुछ महत्त्वपूर्ण पाठभेद मिलते हैं, जो हर वाचना की अलग पहचान सिद्ध करने में भेदक स्थान बन गये हैं । तद्यथा – (1) काश्मीरी वाचना में, (क) नायक का नाम दुष्ष्यन्त है, (ख) नान्दी पद्य में "या स्रष्टुः सृष्टिराद्या पिबति विधिहूतं0"ऐसा पाठभेद एवं पदक्रम है, (ग) नायक दुष्ष्यन्त की पूर्वपरिणीता रानी का नाम कुलप्रभा है, (घ) सप्तमांक के प्रवेशक में दो नाकलासिकाओं का नृत्य-दृश्य है,(ङ) प्रियंवदा-अनुसूया के लिए चित्राविशाखे का उपमान देनेवाली उक्तियाँ हैं , (च) गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः ।0 जैसा श्लोक नहीं है । एवं (छ) शकुन्तला-विदाय के प्रसंग में "यथा शरीरस्य शरीरिणश्च पृथक्त्वमेकान्तत एव भावि । आहार्ययोगेन वियुज्यमानः परेण को नाम भवेद् विषादी ।।" ऐसा औपनिषदिक दर्शन से भरा एक श्लोक कण्व के मुख में है ।। (2) मैथिली वाचना में(क) नायक का नाम दुष्मन्त मिलता है ।, (ख) नान्दीपद्य में"या स्रष्टुः सृष्टिराद्या वहति0 ।" इस नवीन पाठभेद के साथ, काश्मीरी जैसा "या स्रष्टुःस्रृष्टिराद्या0" पदक्रम यथावत् मिलता है ।, (ग) प्रस्तावना में सूत्रधार के"आर्ये, रसभावविशेषदीक्षागुरोर्विक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषद् ।" वाक्य सेनामशः कहा जाता है कि किसकी सभा में यह नाटक अभिनीत किया जाता है । (घ)द्वितीय अङ्क का नाम "तपोवनानुगमन" रखा गया है,(ङ) प्रियंवदा-अनुसूया के लिए चित्राविशाखे का उपमान नहीं है ।, (च) चतुर्थाङ्क के आरम्भ में प्रभात-वर्णन के लिए जिन चार श्लोकों का पाठ है उनमें "कर्कन्धूनाम् तुहिनमुपरि0, पादन्यासं क्षितिधरगुरो0, यात्येकतोस्तशिखरम्0 तथा अन्तर्हिते शशिनि सैव कुमुद्वतीं मे0 ।" इस तरह का क्रम मिलता है, जो काश्मीरी वाचना जैसा ही है ।। इन बिन्दुओं के साथ में, दो बातें ओर ध्यानाकर्षक हैः- (छ)मैथिली वाचना में ही सब से पहली बार गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः ।0वाला श्लोक प्रक्षिप्त हुआ । इसके साथ साथ, कुल मिला के 11 नवीन पद्यों का ( सर्वाधिक संख्या में ) प्रक्षेप भी मैथिली वाचना में हुआ है । तथा (ज) राजा की दासी ( मेधाविनी ) के हाथ में से रानी वसुमती वर्तिका-करण्डक छीन लेती है । मतलब कि, इस तरह राजा की पूर्वपरिणीता रानी को ईर्ष्याकषायिता एवं बहुमानगर्विता दिखाने का काम मैथिली वाचना के पाठशोधकों ने किया है ।। (3) बंगाली वाचना की पाण्डुलिपियों में, (क) साहसाङ्कस्य विक्रमादित्यस्य ...का निर्देश नहीं मिलता है ।, (ख) इसमें नायक का नाम दुःषन्त दिया गया है, (ग) नान्दी पद्य में, "या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति0" जैसा पदक्रम आ गया ।, (घ) यहाँ द्वितीय अङ्क का नाम "आख्यानगुप्ति" रखा गया है, (ङ)इसमें शकुन्तला का "नलिनीपत्रान्तरितं चक्रवाकमपश्यन्ती चक्रवाकी आरटति0"वाक्य तथा "एषा प्रियेण विना रात्रिं गमयति0"वाली आर्या को हटाई गई है ।, (च) चतुर्थाङ्क के आरम्भ में प्रभात का वर्णन करनेवाले चार श्लोकों में "यात्येकतोऽस्तशिखरं0 , तथा अन्तर्हिते शशिनि0" श्लोकों को प्रथम-द्वितीय क्रमांक पर रखे गये हैं ।, (छ) प्रियंवदा-अनुसूया के लिए चित्राविशाखे का उपमान नहीं है ।, (ज) राजा की एक ही दासी के लिए मेधाविनी जैसा पुराना नाम एवं चतुरिका जैसा नया नाम – दोंनो नाम प्रवर्तमान है ।। (4)लघुपाठवाली जो दो वाचनाएँ हैं उनमें से दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में(क) नान्दी पद्य में "यामाहुः सर्वभूतप्रकृतिरिति0" ऐसा पाठभेद है, (ख) कुल पद्यसंख्या 193 है ।, (ग) षष्ठांक में उद्यानपालिका "चूतं हर्षितपिककं0" नयी आर्या का गान करती है, (घ) धीवर कहता है "भट्टा, तुम्ह केलए मे जीविदे" ।, (ङ) विदूषक ईर्ष्याकषायिता रानी के लिए "अन्तःपुरकलहाद्" शब्द का प्रयोग करता है ।। (5) देवनागरी वाचना के पाठ में,(क) नान्दी पद्य में "यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति0" ऐसा पाठभेद है, (ख) कुल श्लोकसंख्या 191 है, (ग) उद्यानपालिका "आताम्रहरितपाण्डुरं0" जैसा आर्या का गान करती है, जो अन्यत्र सर्वत्र मिलती है, (घ) धीवर "भट्टा, अह कीलिशे मे आजीवे" (अथ कीदृशो मे आजीवः) ऐसा टोना मारता है ।, (ङ) विदूषक रानी के लिए "अन्तःपुरकालकूटाद्" शब्द का प्रयोग करता है ।। देश-विदेश से प्राप्त की गई अनेक लिपियों में लिखी गई ( 70 से अधिक ) पाण्डुलिपियों का हमने अवलोकन किया है, तथा उन सब में उपलब्ध हो रहे विभिन्न पाठान्तरों के जटाजूट कातुलनात्मक अध्ययन किया है । इन पाँचों वाचनाओं का पार्थक्य किन किन पाठान्तरों में प्रकट हो रहा है उसका निष्कर्ष निकाला है, जिनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण पाठान्तरों को यहाँ नमुने के तौर पर ( पाँचों वाचनाओं के भेदक-बिन्दुओं के रूप में ) प्रस्तुत किये हैं ।। इस के उपरान्त, अब इतना निश्चित रूप से कहा जाता है कि सूत्रधार के मुख में जो "आर्ये, रसभावविशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत् ।" यह वाक्य है, जिसमें विक्रमादित्य का स्पष्ट नामोल्लेख हुआ है, वह मैथिली वाचना की पाण्डुलिपियों में ही इदं प्रथमतया दृश्यमान होता है । तथा ऐसा भी दिखता है कि कालान्तर में, कुत्रचित् देवनागरी लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में भी, ( अलबत्ता "साहसाङ्कस्य" शब्द को हटा कर, या सुरक्षित रखते हुए, ) उस तरह के नामोल्लेख का अनुसरण किया गया है ।। [ 4 ] अब प्रश्न होगा कि मैथिली वाचना की कौन कौन पाण्डुलिपियाँ हैं कि जिन में "आर्ये, रसभाव-विशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्या-भिरूपभूयिष्ठा परिषत् ।" इन शब्दों का संनिवेश हुआ है ? हमने किये 70 पाण्डुलिपियों के सर्वेक्षण में निम्नोक्त पाँच पाण्डुलिपियों में ही उपर्युक्त शब्द आये हुए है, तथा वे पाँचों पाण्डुलिपियों में मैथिली वाचना का पाठ दिया हुआ हैः—(1) मिथिला विद्यापीठ, दरभङ्गा से ( 1954 में ) निकला संस्करण, (2)नेशनल आर्काइव्झ ऑफ नेपाल,काठमण्डु की ताडपत्रवाली पाण्डुलिपि, क्रमांक :9 - 421 ।, (3) श्रीधर्मानन्द कौशाम्बी की पाण्डुलिपि, जो आज कालेलकर के दिल्ली-स्थित संग्रह में संगृहीत है, उसका क्रमांक :1006 है,(4) एशियाटीक सोसायटी, कोलकाता में संगृहीत एक पाण्डुलिपि, क्रमांक : जी. 340 है ।, ( इसके अन्त भाग में "दिनमणिदासेन कारानगरे गंगातीरे लिखितं" वर्ष -1669लिखा है ) तथा (5) होगटन कॉलेज, ( Houghton College )हार्वर्ड युनिवर्सिटी, अमरिका, इन्डिक मेन्युस्क्रीप्ट क्रमांक :1086 है ।। (6) इनके अलावा, मद्रास प्रदेश की ग्रन्थादि लिपियों में लिखी ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों में भी "रसभावविशेषदीक्षागुरोर्विक्रमादित्यस्य ।" (( c ) , ( cy ), note ( N ), ( P N ( tnmarg ) R ), ( Pa F ) ) तथा "रसभावविशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्या0" (( P DIN ( marg ) R )) ऐसे द्विविध निर्देश मिलते हैं ।। यहाँ आये हुए "विक्रमादित्य साहसाङ्क" का नाम-निर्देश महत्त्वपूर्ण है । क्योंकि इन शब्दों से किस विक्रमादित्य की ओर अङ्गुलिनिर्देश किया गया है ?वह विचारणीय है । क्योंकि इतिहास के पृष्ठों पर प्रमुखरूप से दो विक्रमादित्य सामने आ रहे हैं । अतः, जनश्रुतियों में सुप्रचलित उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य, जिसको संवत्-प्रवर्तक माना जाता है, अर्थात् जो ई. पूर्व 57में हुए थे – उसका यहाँ उल्लेख है ? अथवा, क्या मगध का गुप्तवंशीय राजा चन्द्रगुप्त-2, जिसने भी विक्रमादित्य उपाधि धारण की थी, और जिसका शासनकाल 380 ई. स. से 414ई. स. माना गया है, उसका इन मैथिली पाठ को संजोये रखनेवाली पाण्डुलिपियों में उल्लेख हो रहा है ?। इस प्रश्न का सीधा उत्तर यही है कि उक्त पाण्डुलिपियों में जिस साहसाङ्क विक्रमादित्य का निर्देश किया जा रहा है, वह गुप्तवंश के चौथी शताब्दी में हुए चन्द्रगुप्त द्वितीय ही है । उनके पिता समुद्रगुप्त ने"पराक्रमाङ्क" की उपाधि धारण की थी, अतः कालान्तर में लोगों ने उसके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय को "साहसाङ्क" कहा है । लेकिन बिरुदों के तिलक जब चढायें जाते हैं, तब उसके पीछे क्या कोई वास्तविक इतिहास छीपा हुआ है?यह भी गवेषणीय है । इस सन्दर्भ में, संस्कृत साहित्य से ही जो जानकारियाँ मिल रही है वह निम्नोक्त है :-- (1) बाणभट्ट (ई. स. 648) ने हर्षचरित ( उच्छ्वास-6 )नामक आख्यायिका में लिखा है कि प्रमाद-दोष के कारण भूतकाल में किन किन राजाओं की मौत हुई है : - "अरिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनीवेषगुप्तश्च चन्द्रगुप्तः शकपतिम् अशातयत् । ", और इस पर टीका लिखते हुए शङ्कर ने लिखा है कि, "शकानामाचार्यः शकाधिपतिः चन्द्रगुप्तस्य भ्रातृजायां ध्रुवदेवीं प्रार्थयमानः, चन्द्रगुप्तेन ध्रुवदेवीवेषधारिणा स्त्रीवेषजनपरिवृतेन व्यापादितः"।। अर्थात् ( समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त शकों के साथ लडते हुए उनसे पराजित हुआ, परन्तु राजसत्ता के लालचु उस रामगुप्त ने राज्य वापस लौटाने के लिए अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शकपति को दे देने का सोदा किया । इस प्रस्ताव से नाराझ हुए उसके अनुज ) चन्द्रगुप्त द्वितीय ने कामिनी का (ध्रुवदेवी का) वेष धारण करके, उस परस्त्री-कामुक शकपति को उसकी ही शिबिर में जा कर मार डाला था । इस प्रसंग के बाद जनसामान्य में वह "साहसाङ्क" नाम से भी विदित हुआ । डॉ. रामचन्द्र तिवारी (भोपाल) कहते हैं कि यह साहसाङ्क शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख 10वीं शती में हुआ है । लेकिन इस घटना का निर्देश चन्द्रगुप्त – 2 के ( 380 से 414 ई. स. ) समय के बाद बाणभट्ट ने ( 648 ई. स. में ) किया है, वह ध्यातव्य है । इसी तरह से 12वीं शती के रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने अपने नाट्यदर्पण में विशाखदेव ( विशाखदत्त - ?) के देवीचन्द्रगुप्त नाटक से सात उद्धरण दिये हैं, उनमें भी इसी घटना की प्रतिध्वनि सुनाई देती है ।उदाहरणतया, (क) यथा देवीचन्द्रगुप्ते - "राजा (चन्द्रगुप्तमाह) – त्वद्दुःखस्यापनेतुं सा शतांशेनापि न क्षमा ।, ध्रुवदेवी – ( सूत्रधारीम् आह) – हञ्जे, इयं सा ईदृशी अज्जउत्तस्स करुणापराहीणदा ।, सूत्रधारी – देवि, पडंति चंदमंडलाउ वि चुडुलीउ किं एतु करिम्ह । ( देवि, पतन्ति चन्द्रमण्डलादपि उल्काः । किमत्र कुर्मः । - इति संस्कृतम् ) राजा – त्वय्युपारोपितप्रेम्णा त्वदर्थे यशसा सह । परित्यक्ता मया देवी जनोSयं जन एव मे ।।, ध्रुवदेवी – अहं पि जीविदं परिच्चयंती पढमयरंय्येव तुमं परिचइस्सं । - अत्र स्त्रीवेषनिह्नुते चन्द्रगुप्ते प्रियवचनैः स्त्रीप्रत्ययात् ध्रुवदेव्या गुरुमन्यन्तापरूपस्य व्यसनस्य सम्प्राप्तिः ।। " (ख) यथा देवीचन्द्रगुप्ते - "चन्द्रगुप्तः – ( ध्रुवदेवीं दृष्ट्वा स्वगतमाह ) इयमपि देवी तिष्ठति । यैषा, रम्यां चारतिकारिणीं च करुणां शोकेन नीता दशां, तत्कालोपगतेन राहुशिरसा गुप्तेव चान्द्री कला । पत्युः क्लीबजनोचितेन चरितेनानेन पुंसः सतो, लज्जा-कोप-विषाद-भीत्यरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यति ।। "स तरह संस्कृत साहित्य में पौनःपुन्येन उल्लिखित इस घटना-चक्र की स्वीकृति अपरिहार्य है । तथा चन्द्रगुप्त के पिता समुद्रगुप्त को यदि पराक्रमांक कहा गया हो तो, पूर्वोक्त घटनाचक्र के बाद प्रजामानस ने चन्द्रगुप्त द्वितीय को साहसाङ्क का बिरुद दिया हो तो वह स्वाभाविक प्रतीत होता है । जिसने कालान्तर में मालवा – उज्जयिनी – में भी जाकर शकों को परास्त करके अपने को विक्रमादित्य घोषित किया हो, तो उसकी मगध-स्थित राजसभा में जब कालिदास का यह नाटक, कुछ नवीन प्रक्षेप एवं परिवर्तनादि के साथ प्रस्तुत किया गया हो तो, उस मौके पर सूत्रधार के मुख में "आर्ये, रसभावविशेषदीक्षा-गुरो-र्विक्रमादित्यस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत्"ऐसी बिरुदावली सहित के शब्दों का विनिवेश होना नामुमकिन नहीं है ।। कहने का तात्पर्य यही है कि, चन्द्रगुप्त द्वितीय के ( चौथा शताब्दी के ) समय में कालिदास नहीं हुए थे, बल्कि उस समय तो कालिदास के इस नाटक के पाठ में परिवर्तन-परिवर्धनादि करके मगध की रंगभमि पर उसका मंचन हुआ होगा । इस नवीन मैथिली संस्करण के मंचन के मौके पर "विक्रमादित्य एवं साहसाङ्क" ऐसे दो बिरुदों वाले चन्द्रगुप्त – 2 के लिए"रसभाव-विशेष-दीक्षा-गुरोः"जैसे विशेषण का उपयोग करना भी बीलकुल समुचित लगता है । क्योंकि उन्होंने जब शकपति की हत्या करने के लिए स्त्रीवेष में ध्रुवदेवी बन कर शत्रु-शिबिर में जाना था तो उसके लिए आहार्य और आङ्गिक, तथा वाचिक अभिनय की विशेष तालीम ली होगी । एवमेव, जैसा टीकाकार शङ्कर ने लिखा है वैसे वह चन्द्रगुप्त अपने साथ कुछ सैनिकों को भी स्त्रीवेष पहनाकर, उन लोगों से परिवृत्त हो कर निकला था । तो उन सैनिकों को भी विशेष आहार्य-आङ्गिकादि अभिनयन की तालीम उसीने स्वयं दी होगी । यह स्वाभाविकतया अनुमानगम्य बात है । अतः मैथिली पाण्डुलिपियों में जो "रसभावविशेषदीक्षागुरोः"विशेषण रखा गया है वह यथार्थ सिद्ध होता है ।।अब यह स्पष्ट हो जाता है कि कतिपय पाण्डुलिपियों में "विक्रमादित्य" का जो नामनिर्देश मिलता है वह तो मगध के चन्द्रगुप्त-2 की राजसभा में जब अभिज्ञानशकुन्तल का नवीन मैथिली-संस्करण मंचन के लिए तैयार किया गया होगा उस बात का इङ्गित दे रहा है । नहीं कि कालिदास उस चौथी शताब्दी में, चन्द्रगुप्त-2 के समय में पैदा हुए थे । यदि कोई भी पुराविद इन (मैथिली) पाण्डुलिपियों से मिल रहे नाम-संकेत के आधार पर कालिदास को गुप्तकाल में सिद्ध करने का सोचता है, तो वह इस नाटक के पाठ का संचरण किस क्रम में, कैसे हुआ है ?अथवा इस नाटक के मंचन का भी कोई इतिहास रहा होगा, इस बात से नितान्त अनभिज्ञ ही है ऐसा हमें समझना होगा ।। [ 5 ] उपर्युक्त चर्चा से ज्ञात होगा कि मैथिली वाचना की पाठपरम्परा में "आर्ये, रसभावविशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्याभिरूप-भूयिष्ठा परिषत्"ऐसा वाक्य इदं प्रथमतया प्रयुक्त हुआ है, और विक्रमादित्य की उपाधि को धारण करनेवाले ( तथा लोगों के द्वारा जिसको साहसाङ्क के रूप में पहचाना गया था, उस ) चन्द्रगुप्त द्वितीय की राजसभा में (मगध में) उस मैथिल पाठ का मंचन हुआ होगा । इतना स्पष्ट होने के बाद, जैसा कि हमने उपरि भाग में कहा है, ई. स. पूर्व जिसके नाम से विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ है, वह जनश्रुतियों में सुविख्यात विक्रमादित्य ( व्यक्तिवाचक नामवाले ) राजा के साथ कालिदास का नाम कैसे जुड़ गया होगा?वह भी विचारणीय है । तो सम्भवतः ऐसा लगता है कि मैथिली संस्करण का जब आविर्भाव चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में ( चौथी सदी में ) हुआ और उन मैथिल पाण्डुलिपियों में विक्रमादित्य साहसाङ्क का नाम संनिविष्ट किया जाने के बाद, कालान्तर में कुछ अज्ञात प्रतिलिपि-कर्ताओं ने देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली पाण्डुलिपियों में से साहसाङ्क शब्द को हटा दिया होगा, तथा केवल विक्रमादित्य उपाधि को सुरक्षित रखा होगा । जिसके कारण, ई. स. पूर्व हुए, उज्जयिनी की भूमि पर शासन करनेवाले, विक्रमी संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य के साथ कालिदास को जोड़ देना आसान हो गया !अन्यथा, जैसा कि डॉ. रामचन्द्र तिवारी जी ने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है वैसे, किसी भी तरह से विक्रमादित्य और कालिदास की जोड़ी सिद्ध होती ही नहीं है । यहाँ, पुनरुक्ति के दोष को उठाते हुए यह स्पष्ट करना चाहुँगा कि डॉ. रामचन्द्र तिवारी जी ने इन दोनों कि जोड़ी कथमपि सिद्ध नहीं होती है ऐसा सिद्ध करके, कालिदास को गुप्तकालीन सिद्ध करने को लक्ष्य बनाया है । किन्तु उनके ग्रन्थ का प्रतिपादन पढते हुए यह जिज्ञासा तो बनी ही रहती है कि तो फिर जनश्रुति में विक्रमादित्य और कालिदास की जोड़ी बनी कैसे, प्रचलित बनी कैसे ?इस जिज्ञासा की अपेक्षित संतुष्टि डॉ. तिवारी जी के ग्रन्थ से प्राप्त नहीं होती है । लेकिन प्रस्तुत आलेख में जैसा बताया गया है वैसा सोचने पर, यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि ई.स. पूर्व वाले उज्जयिनी के विक्रमादित्य के साथ कालिदास की जोड़ी बनाना आसान हो जाता है ।। यद्यपि यह एक सम्भावना के रूप में कहा गया है, फिर भी इस सम्भावना में तर्क अनुस्यूत है, इसको केवल कल्पना नहीं कहेंगे ।। अस्तु ।। [ 6 ] एक पूरक कथनीय बिन्दु यह भी है कि अभिज्ञानशाकुन्तल के प्रथम अङ्क के अन्तिम श्लोक में चीनांशुकमिव केतोः प्रतिवातं नीयमानस्य । ऐसी एक पङ्क्ति आती है । प्रश्न होता है कि यह चीनांशुक शब्द यहाँ कैसे आया ?तो सब से पहले यह जान लेना उचित है कि अभिज्ञानशकुन्तला नाटक की प्राचीनतम वाचना के रूप में काश्मीरी वाचना ही सिद्ध होती है । उसमें तो चिह्नांशुकमिव ऐसा शब्द आया है । कालान्तर में जब मैथिली वाचना का तथाकथित परिष्कृत पाठ तैयार किया गया और विक्रमादित्य साहसाङ्क नाम से विदित बने चन्द्रगुप्त-2 की राजसभा में उसका मंचन हुआ था, उस मैथिल पाठ में ही इदं प्रथमतया चिह्नांशुक को चीनांशुक में परिवर्तित किया गया है । अब इतिहास इस बात का प्रमाण देता है कि चन्द्रगुप्त-2 के समय में ही फाहियान जैसा पहला चीनी यात्री भारत में आया था । तो उसके समय में आने लगे चीन के वस्त्रों का निर्देश भी मैथिली पाठ में प्रविष्ट करना तर्कसंगत प्रतीत होता है !इस नाटक का एक छोटा सा पाठान्तर भी यदि कब कहाँ दाखिल हुआ है ? वह सोचा जाय तो भी इस नाटक की पाठयात्रा पर निश्चित प्रकाश पड़ सकता है, उसका यह प्रमाण है ! [ 7 ] उपसंहार:कालिदास का काल-निर्धारण करने के लिए सब से पहले तो उनकी कृतिओं का पाठोद्धार होना चाहिए । आज हमारे सामनेछपी हुई किताबों में कालिदास के काव्यों का जो पाठ प्रचलित हुआ है उसकी हमने अनजान में ही सर्वांश में मौलिकता मान ली है । बहुशः विद्वज्जगत् इस व्यामोह में फसा हुआ दिख रहा है । प्रकृत में, अभिज्ञानशाकुन्तल का जो पाठ विविध लिपियों में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में सुरक्षित पडा है, उनके पाठभेदों का सर्वाङ्गीण एवं गहन अध्ययन अपेक्षित है । दो हजार वर्षों से पहले लिखे गये जिस नाटक का पाठ पीढी दर पीढी संचरित हो कर, जो हम तक पहुँचा है उसमें स्वाभाविक ही है कि बहुविध प्रदूषण फैला होगा । जिसको बिना पहचाने कोई व्यक्ति अमुक एक-दो पाण्डुलिपि को लेकर, कालिदास और विक्रमादित्य की समकालिकता का विवाद नहीं सुलझा सकता है ।। प्रस्तुत आलेख में, इस नाटक की पाठयात्रा का जो क्रम दिखाया गया है उसके अनुसन्धान मेंकहा जा सकता है कि मैथिली वाचना की पाण्डुलिपियों में ही इदं प्रतमतया विक्रमादित्य का नाम निर्दिष्ट हुआ है । यह विक्रमादित्य शब्द चन्द्रगुप्त द्वितीय की उपाधि के रूप में प्रयुक्त हुआ था । तथा हर्षचरित से प्राप्त हो रहे पूर्वोक्त सन्दर्भ में देखा जाय तो यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो जाता है कि उसको क्यूं "साहसाङ्क"और "रसभावविशेषदीक्षागुरु"भी कहा गया था ।। तथा कालान्तर में, पाण्डुलिपियों के प्रतिलिपिकर्ताओं ने उस एक साहसाङ्क शब्द को जाने-अनजाने निकाल दिया तो, जिसके फल-स्वरूप कालिदास जनश्रुतिओं में चल रहे विक्रमादित्य के साथ भी जुड गये !इस तरह आकारित हुए विवाद की पङ्किलभूमि में पुरावेत्ता लोग और जनश्रुतिओं में या परम्परा में श्रद्धा रखनेवाले कालिदासानुरागी लोग आमने सामने खड़े हो गये हैं ! ---------88888---------- सन्दर्भ-ग्रन्थ सूचि 1. अभिज्ञानशाकुन्तलम् । सं. एम. आर. काळे, प्रका. मोतीलाल बनारसी दा, दिल्ली, 10 संस्करण, 1969, ( देवनागरी पाठ ) 2. अभिज्ञानशकुन्तलम् । (मैथिल-पाठानुगम), सं. रमानाथ झा, मिथिला विद्यापीठ, दरभङ्गा, 1954, ( शङ्कर-नरहरि की टीका के साथ ) 3. कालिदास : अपनी बात ।, पं. रेवाप्रसाद द्विवेदी, कालिदास संस्थान, वाराणसी, 2004 4. कालिदास ग्रन्थावली, सं. रेवाप्रसाद द्विवेदी, काशी हुन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, 1986, द्वितीय संस्करण 5. कालिदास ग्रन्थावली, सं. सीताराम चतुर्वेदी, भारत प्रकाशन मन्दिर, अलीगढ, सं. 2019, तृतीय संस्करण 6. महाकवि कालिदास, ( प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय खण्ड ), डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, 1998, 7. कालिदास की तिथि-संशुद्धि, डॉ. रामचन्द्र तिवारी, ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, 1989 8. नाट्यम्, ( अंकः – 71 – 74 ), सं. राधावल्लभ त्रिपाठी, ( रंगमंच एवं सौन्द्रयशास्त्र की त्रैमासिक शोध-पत्रिका ), सागर विश्वविद्यालय, सागर, 2011-12 9. नाट्यम्, ( अंकः – 76 ), सं. राधावल्लभ त्रिपाठी, ( रंगमंच एवं सौन्द्रयशास्त्र की त्रैमासिक शोध-पत्रिका ), सागर विश्वविद्यालय, सागर, 2014 10. नाट्यम्, ( अंकः – 77 ), सं. राधावल्लभ त्रिपाठी, ( रंगमंच एवं सौन्द्रयशास्त्र की त्रैमासिक शोध-पत्रिका ), सागर विश्वविद्यालय, सागर, 2015 ( प्रकाश्यमान अंक ) 11. नाट्यदर्पणम् । रामचन्द्र-गुणचन्द्र-विरचितम् । सं. आचार्य विश्वेश्वर । दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, 1961 12. विश्वकवि कालिदास, पं. सूर्यनारायण व्यास, हर्षिता प्रकाशन, दिल्ली, 2004 13. हर्षचरितम् । सं. पी. वी. काणे, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, पुनर्मुद्रण 1986 14. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, द्वितीय संस्करण, 1964 15. Complete Collection of the various readings of the Madras Manuscripts, Ed. Foulkes. T., Madras, 1904 ------- 88888 ---------

मंगलवार, 18 अगस्त 2015

अभिज्ञानशाकुन्तल - देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं की पाठालोचना ।

अभिज्ञानशाकुन्तलम् : देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं की पाठालोचना वसन्तकुमार म. भट्ट निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद– 9 0 : 1 भूमिका : महाकवि कालिदास के द्वारा प्रणीत अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक का मूल पाठ प्रायः दो हजार वर्ष पहले लिखा गया था ।कवि का वह स्वहस्तलेखआज कालग्रस्त हो गया है । लेकिन उसमें से शुरू हुई प्रतिलिपिकरण की सुदीर्घ परम्परा मेंलिखी गई पाण्डुलिपियों में वह पाठ जिस स्वरूप में विद्यमान है वह सर्वत्र एक समान नहीं है । इन पाण्डुलिपिओं में उपलब्ध हो रहे इस नाटक के पाठ में अनेक पाठान्तर, प्रक्षेप-संक्षपादि एवं अशुद्धियाँ साफ दिखाई दे रही हैं । जिसका अभ्यास करके विद्वज्जगत् ने इतना जाना है कि इस नाटक का पाठ मुख्य रूप से पञ्चविध वाचनाओं में संचरित हुआ है :-- 1. काश्मीरी, 2. मैथिली, 3. बंगाली, 4. देवनागरी एवं 5. दाक्षिणात्य ।। इन सब में उपलब्ध हो रहे विविध पाठान्तरों एवं प्रक्षेपादि का तुलनात्मक अभ्यास करके हमने इस नाटक के मूल पाठ में विचलन-क्रम की क्या आनुक्रमिकता रही होगी उसकी गवेषणा करके यह दिखाया है कि उपलब्ध पाँचों वाचनाओं में से काश्मीरी वाचनाही सब से प्राचीनतम है । इस काश्मीरी पाठ में परिवर्तन एवं प्रक्षेपादि करके मैथिली वाचना का जो पाठ तैयार हुआ है वह द्वितीय क्रमांक पर खडा है । तीसरे क्रमांक पर, कुछ नये परिवर्तन करकेबंगाली वाचना का पाठ बनाया गया है । इन तीनों में क्रमशः बृहत् से बृहत्तर, एवं बृहत्तर से बृहत्तम पाठ बनता गया है ।। हमने इस विषय की सप्रमाण उपस्थापना"अभिज्ञानशाकुन्तल के पाठविचलन की आनुक्रमिकता" शीर्षकवाले शोध-आलेख में की है । ( द्रष्टव्य : नाट्यम्, सम्पादक श्रीराधावल्लभ त्रिपाठी, सागर, अंक – 76, दिसेम्बर, 2014, पृ. 26 से 54 ) ।। इसमें यह भी बताया है कि देवनागरी वाचना एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में न केवल पाठ-परिवर्तन किये गये हैं, किन्तु उसमें भारी कटौती भी की गई है । अतः हम उसको रंगावृत्ति कापाठ कह सकते है । उस आलेख में यह भी दिखाया गया है कि देवनागरी वाचना के पाठ में कुत्रचित् काश्मीरी वाचना का पाठ ग्राह्य रखा गया है, तो कुत्रचित् बंगाली या मैथिली वाचनाओं के पाठ में से भी पाठान्तर स्वीकार्य रहे हैं । ( यही स्थिति दाक्षिणात्य पाठ की भी दिख रही है ) । किन्तु उस शोध-आलेख में हमने यह नहीं बताया है कि देवनागरी और दाक्षिणात्य वाचनाओं के गठन में कौन सा पौर्वापर्य दिख रहा है ? । इस प्रश्न का उत्तर ढूँढना इस लिए आवश्यक है की कवि-प्रणीत मूल (बृहत्) पाठ में संक्षेपीकरण का कार्य सब से पहले किसने किया होगा? इतना निश्चित होने के बाद ही नाटक के बृहत् पाठ को रंगावृत्ति में बदलने में किस वाचना के पाठशोधकों का योगदान रहा है, यह हम कह पायेंगे । अतःप्रस्तुत शोध-आलेख में, लघुपाठ वाली दोनों ( देवनागरी तथा दाक्षिणात्य ) वाचनाओं में से कौन सी वाचना प्रथम क्रमांक पर खडी है, और किस वाचना दूसरे क्रमांक पर आकारित हुई है ? इस प्रश्न को लेकरविचारणा की जा रहीहै ।। 0 : 2 देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठ में साम्य-वैषम्य को देख कर कुछ विद्वानों ने अपने अपने अभिमत प्रकट किये हैं । जैसे कि, 1. काशी के मूर्धन्य विद्वान् श्री रेवाप्रसाद द्विवेदी जी ने कालिदास ग्रन्थावली ( द्वितीय संस्करण ) की प्रस्तावना में लिखा है कि उन्हों ने देवनागरी वाचना को स्वीकारा है, और यह वाचना दाक्षिणात्य वाचना के साथ 90 प्रतिशत साम्य रखती है । किन्तु इन दोनों वाचनाओं में से कौन सी वाचना प्रथम आकारित हुई होगी ? इस पर किसी भारतीय विद्वान् ने कुछ सोचा हो तो हमें उसकी जानकारी नहीं है ।। देवनागरी वाचना के शुद्धतर पाठ को सम्पादित करने का जिन्हों ने दावा किया है वे प्रॉफे. पी. एन. पाटणकर जी ने ( 1889 में ) कहा है कि डॉ. रिचार्ड पिशेल के मतानुसार "दक्षिण भारत में संस्कृत नाटकों का संक्षेपीकरण एवं ( पाठभेदों के सन्दर्भ में ) संमिश्रीकरण भी किया गया है" । किन्तु शाकुन्तल नाटक के सन्दर्भ में उनका क्या विशेष रूप से कहना है उसकी जानकारी हमारे पास नहीं हैं । अतः हमें स्वतन्त्रतया इस पर विचार करना होगा ।। [ 1] तुलनात्मक अभ्यास के लिए चुनी गई दो कृतिओं में ( वाचनाओं में ) क्या क्या साम्य है, या वैषम्य है ?इतना ही सामान्यतया देखा जाता है । लेकिन इस तरह के साम्य-वैषम्य का लेखा-जोखा करने के साथ साथ यदि उन दोनों तुलनीय कृतिओं( या वाचनाओं ) में ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्वापर भाव भी ढूँढा जायेगा तो किसी भी तरह के सुधार का यश किस कृति को दिया जाय, या बिगाड का उत्तरदायित्व किसका है वह भी निश्चित किया जा सकता है । पाठालोचना के क्षेत्र में, ऐसा प्रयास बहुत कम हुआ है, या नहीं के बराबर किया गया है ।। किन्तु इस दिशा में आगे बढते ही पहला प्रश्न होगा कि प्रतिलिपिकरण का एवं पाठ-परिवर्तन के सोपानों का जब कोई दस्तावेजी या पुरातत्त्वीय प्रमाण हीनहीं है तब यह कैसे निश्चित होगा कि किस वाचना का पाठ पहले आकारित हुआ है और किसका पाठ बाद में संगठित हुआ है ? । यह आशंका एक दम सही है । क्योंकि किसी भी पाठ्यकृति में हुए पाठपरिवर्तन का किसी भी तरह का साक्ष्यआज हमारे पास नहीं है । तथापिहम कुछ ऐसे तर्कसंगत प्रमाण जरूर सोच सकते है कि किस वाचना का पाठ समयानुक्रम में पहले हो सकता है, और किस वाचना का पाठ दूसरे क्रम में तैयार किया गया होगा । विशेष रूप से कालिदास जैसे प्रबुद्ध महाकवि के विषय में हम कह सकते है कि यह कवि ऐसे हैं कि जो पूर्वापर सन्दर्भ में सुसंगत पाठ लिखनेवाले कवि है ।अतः कालिदास की प्रस्तुत नाट्यकृति में जहाँ पर भी दो या तीन ( या इससे भी अधिक ) तरह के पाठान्तर प्रचलित हो चूके है वहाँप्रकरण-संगति की दृष्टि से सोचने पर जो पाठान्तर सटीक एवं आन्तरिक सम्भावना-युक्तसिद्ध होता हो वही पाठ मौलिक होसकता है । और जो पाठ मौलिकता के नज़दीक प्रतीत होगा वही प्राचीनतम भी कहलायेगा, यह बात भी निर्विवाद है ।। इस चर्चा के अनुसन्धान में निम्नोक्त उदाहरण विचारणीय है :-- (1) प्रथम अंक के अन्त भाग में, ( देवनागरी वाचना में ) राजा की उक्ति है :"(आत्मगतम्) अहो धिक्, पौरा अस्मदन्वेषिणस्तपोवनम् उपरुन्धन्ति ।" । इसके प्रतिपक्ष में, दाक्षिणात्य वाचना में राजा की उक्ति में ऐसे शब्द है :"(आत्मगतम्) अहो धिक्, सैनिका मदन्वेषिणस्तपोवनम् उपरुन्धन्ति ।" यहाँ मृगया-प्रसंग में राजा दुष्यन्त अपने सैनिकों को लेकर आया है, यह बात पहले कही गई है । इस समय हस्तिनापुर का नरेश दुष्यन्त सुदूर हिमालय की उपत्यका में आये हुए कण्वाश्रम में है। तथा नेपथ्योक्ति से कहा भी गया है कि "भो भोस्तपस्विनः ! सन्निहितास्तपोवनसत्तवरक्षायै भवत । प्रत्यासन्नः किल मृगयाविहारी पार्थिवो दुष्यन्तः ।" इस सन्दर्भ में, दुष्यन्त को ढूँढने के लिए उनके सैनिक ही यहाँ आ सकते है, उनके हस्तिनापुर के पौराः ( पुरवासी लोग ) यहाँ क्यूं आयेंगे ? । मतलब कि देवनागरी वाचना का पाठ पूर्वापर सन्दर्भ में बीलकुल विसंगत और अमौलिक सिद्ध होता है ।। (2) दूसरे अंक के अन्तभाग में, कण्वाश्रम के दो शिष्य राजा को बिनती करने के हेतु आते हैं । राजा को दूर से ही देख कर वे प्रशंसा में एक-एक श्लोक प्रस्तुत करते हैं । यहाँ दाक्षिणात्य वाचना के अनुसार द्वितीय शिष्य कहता हैः— नैतच्चित्रं यदयमुदधिश्यामसीमां धरित्रीमेकः कृत्स्नां नगरपरिघप्रांशुबाहुर्भुनक्ति । आशंसन्ते सुरयुवतयः त्यक्तभोगा हि दैत्यैरस्याधिज्ये धनुषि विजयं पौरुहूते च वज्रे ।। ( 2-15) किन्तु देवनागरी वाचना में एक पाठभेद हैः— 0आशंसन्ते सुरयुवतयः बद्धवैरा हि दैत्यैरस्याधिज्ये धनुषि विजयं पौरुहूते च वज्रे ।। इसमें कहा जाता है कि सुरयुवतियाँ इन्द्रसखा दुष्यन्त के विजय की कामना करती है । वे सुर-युवतियाँ कैसी ? तो यह कहने के लिए दाक्षिणात्य वाचना के श्लोक में "त्यक्तभोगाः" ऐसा एक विशेषण रखा गया है । दूसरी ओर देवनागरी वाचना में पाठभेद करके सुरयुवतिओं के लिए "बद्धवैराः" जैसा विशेषण दिया गया है । अब इन दोनों में से कौन सा पाठ कवि ने लिखा होगा ? यह विचारणीय है । सुरयुवतियाँ ने दैत्यों के साथ वैर बाँध लिया है, इस लिए वे दुष्यन्त के विजय की कामना करती है – ऐसा कहना तो ठीक नहीं लगता है । प्रत्युत, सुरयुवतियाँ को भोगों का त्याग करना पड रहा है, ( क्योंकि सुरों और असुरों के बीच सदैव संग्राम होता रहता है, और वे भोगों से वंचित हो जाती है ) इस लिए वे दुष्यन्त के विजय की कामना करती है, ऐसा कहना ही समुचित होगा ।मतलब कि उपर्युक्त दोनों पाठभेदों में दाक्षिणात्य वाचना का पाठ ही आन्तरिक सम्भावना के युक्त है । तथा देवनागरी वाचना का पाठ सुसंगत नहीं है ।। (3) तृतीयांक में, मदनसंतप्ता शकुन्तला कुसुमास्तरण पर लेटी हुई है और दुष्यन्त की प्राप्ति के बिना वह मर जायेगी ऐसा अपना सहेलियों से बताती है तब ( दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में ) दोनों सहेलियों की जनान्तिक उक्तियाँ निम्नोक्त स्वरूप में रखी गई हैः— प्रियंवदा– ( जनान्तिकम् ) अनसूये, दूरगतमन्मथाऽक्षमेयं कालहरणस्य । यस्मिन् बद्धभावैषा स ललामभूतः पौरवाणाम् । तस्माद् युक्तमस्या अभिलाषोऽभिनन्दितुम् । अनसूया– ( जनान्तिकम् ) सखि, यथा भणसि । ( प्रकाशम् ) सखि, दिष्ट्याऽनुरूपस्ते-ऽभिनिवेशः । सागरमुज्झित्वा कस्मिन् वा महानद्यवतरति । प्रियंवदा– को वेदानीं सहकारमन्तरेणातिमुक्तलतां पल्लविताम् अर्हति । राजा – किमत्र चित्रं यदि विशाखे शशाङ्कलेखामनुवर्तेते ।। यहाँ अनसूया जनान्तिक उक्ति से प्रियंवदा का जो सुझाव है उसको पहले सहमति प्रदर्शित करती है । तदनन्तर प्रकाशोक्ति से शकुन्तला को उद्देश्य करके उसके प्रेम-प्रसंग का अभिनन्दन करती है । जिसमें वह शकुन्तला को महानदी और दुष्यन्त को सागर की उपमा देती है । तब उसीके अनुसन्धान मेंप्रियंवदा भी दुष्यन्त-शकुन्तला के लिए सहकार और अतिमुक्त-लता का उपमान प्रयुक्त करती है ।। अब, इस तरह की दाक्षिणात्य वाचना की योजना से भिन्न जो स्थिति देवनागरी पाठ में मिल रही है, उसको देखते हैः— प्रियंवदा– ( जनान्तिकम् ) अनसूये, दूरगतमन्मथाऽक्षमेयं कालहरणस्य । यस्मिन् बद्धभावैषा स ललामभूतः पौरवाणाम् । तस्माद् युक्तमस्या अभिलाषोऽभिनन्दितुम् । अनसूया– ( जनान्तिकम् ) सखि, यथा भणसि । प्रियंवदा – ( प्रकाशम् ) सखि, दिष्ट्याऽनुरूपस्तेऽभिनिवेशः । सागरमुज्झित्वा कुत्र वा महानद्य-वतरति । क इदानीं सहकारमन्तरेणातिमुक्तलतां पल्लवितां सहते । राजा – किमत्र चित्रं यदि विशाखे शशाङ्कलेखामनुवर्तेते ।। इस तरह की योजना में अनसूया की पूरी सक्रियता नहीं दिखती है, क्योंकि उपर्युक्त संवाद-शृङ्खला में, दोनों ही उपमान प्रियंवदा के मुख में ही रखे गये हैं । मतलब किनायक-नायिका के प्रेमप्रसंग को आगे बढाने में प्रियंवदा ही अधिकतर सक्रिय है ऐसाचित्र उभर कर हमारे सामने आता है ।। एवमेव मंचन की दृष्टि से इन पाठभेदों को देखा जाय तो भी लगता है कि दाक्षिणात्य पाठ ही ज्यादा नाट्यक्षम सिद्ध होता है । तथा आन्तरिक सम्भावना की दृष्टि से समीक्षा की जाय तो, यहाँ जो राजा की अनुगामिनी उक्ति है वह तभी यथार्थ सिद्ध होगी कि जब एक उपमान का प्रयोग अनसूया के द्वारा किया गया हो, और दूसरा उपमान प्रियंवदा के द्वारा उच्चरित हो । मतलब कि दोनों सहेलियों के मुख में जब एक-एक उपमान रहेगा तब ही उन दोनों के लिए चित्रा-विशाखा नामक नक्षत्रयुग्म का उपमान, एवं "अनुवर्तेते"जैसे क्रियापद में द्विवचन का प्रयोग चरितार्थ हो सकेगा ।। (4) षष्ठांक के धीवर-प्रसंग में से एक सन्दर्भ लेते हैः—धीवर ने दुष्यन्त-नामधेयांकित अंगुलीयक कहाँ से मिला था उसका जो विवरण दिया था, वह प्रामाणिक सिद्ध होता है । परिणामतः राजाक्षा से उसे बन्धन में से मुक्त किया जाता है । इस प्रसंग में दाक्षिणात्य वाचना का पाठ निम्नोक्त हैः- द्वितीयः– एष यमसदनं प्रविश्य प्रतिनिवृत्तः । ( इति पुरुषमुन्मुक्तबन्धनं करोति ) पुरुषः– ( स्यालं प्रणम्य ) भट्टा तुम्हकेलए मे जीविदे । ( भर्तः, युष्मदीयं मे जीवितम् । ) स्यालः– एष भर्त्रा अङ्गुलीयक-मूल्य-सम्मितोऽर्थः पारितोषिकः प्रदापितः । ( इति पुरुषायार्थं प्रयच्छति ) यहाँ परधीवर के द्वारा प्राप्त हुई अंगूठी को देख कर राजा की जब शापनिवृत्ति हो जाती है और उसे शकुन्तला का स्मरण होता है तब वह प्रसन्न हो जाता है । इस लिए राजा ने धीवर को बन्धन से मुक्त कर देने की आज्ञा की है । नगर-रक्षकों की दृष्टि में धीवर बडा भाग्यवान् है, क्योंकि वह आज यमसदन जा कर भी वापस आया है ! इसको सुन कर धीवर राजस्यालक को नमस्कार करता हुआ कहता है कि यह तो आपकी ही कृपा है कि मैं जीवित रह पाया हूँ । अब स्याल राजा के द्वारा प्रेषित धनराशि पारितोषिक के रूप में धीवर को देता है । आगे बातचीत करते हुए स्याल ने यह भी कहा कि इस अंगूलियक को देख कर राजा के नेत्र अश्रुपूर्ण हुए थे । लगता है कि राजा को कोई अपनी अभिमत व्यक्ति की याद आ गई थी । तब सूचक नामका नगररक्षक कहता है कि तभी तो आपने ( स्याल ने ) राजा की सेवा ही की है । स्याल स्पष्ट करता है कि सच कहे तो यह सेवा तो इस माछीमार ने ही की है । इतना बोल कर स्याल तुंरत धीवर की ओर असूया से देखने लगता है । तब धीवर सद्यः ही अपने पारितोषक की राशि में से आधा भाग निकल कर स्याल के हाथों में सुप्रत करता है, तथा कहता है कि यह लिजीए आपने मेरी वध्यमाला बनाने के लिए संकल्पित पुष्पों का मूल्य । यहाँ स्याल ने माछीमार की ओर असूया करते हुए जो दृष्टिपात किया था, उसका तात्पर्य समझ कर धीवर ने गभराहट में अपने पारितोषिक का आधा भाग दे दिया है ।।इस प्रसंग में धीवर की दयनीय दशा का ही अंदाजा आ रहा है । राजा ने ही उसको बन्धन से मुक्त करने का आदेश दिया, फिर भी वह डर का मारा हुआ स्याल के प्रति अपनी कृतज्ञता वाचिक रूप से प्रकट करता हुआ, "आपके कारण मैं जिन्दा रहा हूँ" ऐसा कहता है । तथा आगे चल कर, राजा के द्वारा ही दिये गये पारितोषिक में से आधा स्याल को भेट कर देता है, क्यूंकि स्याल ईर्ष्याग्रस्त हो कर उसकी ओर देखता है । और देखने मात्र से वह गभरा जाता है ।। ऐसी दयनीय दशा के वर्णन से विरुद्ध कुछ और ही चित्र देवनागरी वाचना के पाठ में से मिलता है । जैसे कि, पुरुष ( याने धीवर ) की उक्ति में सर्वथा नवीन पाठान्तर उपलब्ध हो रहा हैः-- "पुरुषः– भट्टा, अह कीलिशे मे आजीवे । ( भर्तः, अथ कीदृशो मे आजीवः ।") जब राजाज्ञा से माछीमार को बन्धन से मुक्ति मिलती है तब वह नगर-रक्षकों से पूछता है कि अब आपको मेरी आजीविका कैसी लगती है ?। मतलब कि देवनागरी वाचना का माछीमार स्याल को एवं नगर-रक्षकों को मौका मिलने पर टोना भी मार सके इतना हिम्मतवाला है । यहाँ वह दयनीय या किसी भी तरह की गभराहटवाला नहीं दिखता है ।। किन्तु इस देवनागरी वाचना का पाठ पूर्वापर में सुसंगत नहीं सिद्ध होता है । क्योंकि माछीमार ने जब जान लिया है कि मेरे पर अब राजा जी का अनुग्रह, उनका वरदहस्त आ गया है, जिसके कारण वह स्याल को टोना भी मार सकता है तो, ऐसी हिम्मत दिखानेवाला माछीमार आगे चल कर, अपने पारितोषिक का आधा भाग स्याल के हाथों में नहीं थमा देगा ।। अतः देवनागरी की अपेक्षा से दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में ही आन्तरिक सम्भावना दिखती है । ऐसा पाठ ही प्रामाणिक एवं मौलिकता के नज़दीक होगा । तथा जो पाठ मौलिकता के नज़दीक है वही पाठ प्राचीनतर भी सिद्ध होता है ।। देवनागरी वाचना के अज्ञात पाठशोधकों ने यह नया पाठान्तर सर्व प्रथम दाखिल किया है, अतः उसका अन्यान्य वाचनाओं में कहीं पर भी दर्शन नहीं होता है । मतलब कि इसदूषित पाठान्तर को जन्म देने में केवल देवनागरी वाचना के पाठशोधकों का ही कर्तृत्व रहा होगा ।। (5) सप्तमांक में, दुष्यन्त स्वर्गलोक से वापस आ रहा है तब सारथि मातलि के साथ बातचीत करता है । दुष्यन्त यह जानना चाहता है कि तरह तरह के वायुमार्गों में से हम किस मार्ग से गुजर रहे है ?"राजा– मातले, आसुरसम्प्रहारोत्सुकेन पूर्वेद्युर्दिवमधिरोहता न लक्षितः स्वर्गमार्गः । कतमस्मिन् मरुतां पथि वर्तामहे ।।" यह दाक्षिणात्य वाचनानुसारी पाठ है । उसके सामने राघव भट्टानुसारी देवनागरी वाचना के पाठ में एक पाठान्तर इस तरह का मिलता हैः— "राजा– मातले, आसुरसम्प्रहारोत्सुकेन पूर्वेद्युर्दिवमधिरोहता न लक्षितः स्वर्गमार्गः । कतरस्मिन् मरुतां पथि वर्तामहे ।।" यहाँ "कतरस्मिन्" एवं"कतमस्मिन्"ऐसे दो पाठान्तर उपलब्ध हो रहे हैं । अतः प्रश्न होगा कि राजा दुष्यन्त "(कतर=) दो वायुमार्गों में से किस (एक) मार्ग से हम गुजर रहे हैं ?" पूछना चाहते हैं कि "(कतम=) तीन या तीन से अधिकवायुमार्गों में से किस मार्ग से हम गुजर रहे हैं ?"यह पूछना चाहते है ।महाकवि ने मूल में इन दोनों पाठान्तरों में से किस शब्द को लिखा होगा, यह हमारी जिज्ञासा है । देवनागरी पाठ के प्रमुख टीकाकार राघव भट्ट ने आवह-आदि सप्त वायुमार्गों की हमें जानकारी दी है, और उस सन्दर्भ में लिखा है कि "मरुतां पथि वायुस्कन्धे । तत्र सप्त वायुस्कन्धा आवहादयः । तन्मध्ये कतरस्मिन् मरुतां स्कन्धे वर्तामहे । (पृ. 234) । अर्थात् राघव भट्ट ने तो "कतरस्मिन्" शब्द को ही मान्यता दी है । किन्तु यदि वायुस्कन्धों की गिनती सात तक पहुँचती है, जिसकी वे स्वयं जानकारी रखते हैं, तोदुष्यन्त "कतरस्मिन्" शब्द से दो ही मार्गों के सन्दर्भ में क्यूं प्रश्न करेंगे ? ऐसा उन्हों ने सोचा ही नहीं है । यह चिन्त्य है ।। दूसरी ओर, दाक्षिणात्य वाचना के टीकाकार काटयवेम ने भी सात वायुस्कन्ध होने की बात लिखी है : आवहः प्रवहश्चैव संवहश्चोद्वहस्तथा । विवहाख्यः परिवहः परावह इति क्रमात् ।। सप्तैते मरुतस्स्कन्धाः महर्षिभिरुदीरिताः ।। इस सन्दर्भ के अनुकूल ही उन्हों ने "कतमस्मिन्" पाठ को मान्यता दी है । जो समुचित प्रतीत हो रही है ।। इन सभी सन्दर्भों को देख कर, देवनागरी पाठ की अपेक्षा से दाक्षिणात्य वाचना का पाठ आन्तरिक सम्भावनाओं से युक्त पाठ लगता है । अतः वह मौलिकता के नज़दीक तथा प्राचीनतर ही सिद्ध होता है ।। [ 2] अब, अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की लघुपाठ परम्परा जिनमें उपलब्ध हो रही है उन देवनागरी तथा दाक्षिणात्य वाचनाओं के पाठभेदों का हम तुलनात्मक अभ्यास दूसरे दृष्टिबिन्दु से करेंगे । जैसा कि पहले कहा था, इन दोनों पाठपरम्पराओं में प्रायः साम्य है ऐसा सरसरी दृष्टि से देख कर विद्वज्जगत् ने संतोष माना है । तथा जो भी भेदक-अंश है उनकी गम्भीरता को समझने का शायद उपक्रम ही नहीं किया है । किन्तु हम इस नाट्यकृति के पाठान्तरों का केवल तुलनात्मक अभ्यास ही पेश करके वहीं पर रुकना नहीं चाहते है । हमारी उम्मीद तो इन दोनों के भेदक-अंशों के स्वरूप को पहचान कर, उन दोनों के पौर्वापर्य का निर्णय करने तक पहुँचना है । इस परिप्रेक्ष्य में निम्नोक्त उदाहरण द्रष्टव्य हैं :-- (1) प्रथम अङ्क में, प्रियंवदा ने शकुन्तला को राजा के पास से चली जाती हुई रोक लेने के लिए दो घट पानी का ऋण याद दिलाया । ( वृक्षसेचने द्वे मे धारयसि । ) तब राजा ने अपनी अंगूठी निकाल कर शकुन्तला को अनृण करने का उपक्रम किया । जिसको देख कर शकुन्तला की दोनों सहेलियाँ अंगूठी पर लिखा हुआ राजा का नाम पढती है और परस्पर का मुँह देखने लगती है । तब राजा दुष्यन्त की उक्ति है :"अलमन्यथा सम्भाव्य । राज्ञः परिग्रहोऽयम् ।"दाक्षिणात्य वाचना के इस पाठ में कुछ ज्यादा पाठ्यांश नया जोड कर देवनागरी में कहा गया है कि "0 राज्ञः परिग्रहोऽयमिति राजपुरुषं माम् अवगच्छथ ।" यहाँ पर दाक्षिणात्य पाठ में, अर्थबोध करने में जो दुविधा पैदा करने की गुँजाईश संनिहित थी, उसीका पल्लवन करते हुए एक नया अंश जोडा गया है । ( 1. राजा चासौ पुरुष इति राजपुरुषः । तथा 2. राज्ञः पुरुष इति राजपुरुषः । भी हो सकता है । इस तरह राजा अपनी पहचान देते हुए भी अपने श्रोतृगण को, प्रियंवदा एवं अनसूया को, संदिग्ध अवस्था में ही रखता है । ) इस तरह दाक्षिणात्य पाठ्यांश के ही आशय को पुनरुक्त किया जा रहा है ।। (2) द्वितीय अङ्क के आरम्भ में विदूषक की उक्ति है :"अयं मृगोऽयं वराहोऽयं शार्दूल इति मध्यंदिने ग्रीष्म-विरल-पादप-च्छायासु वनराजिष्वाहिण्ड्यते ।" यह दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है । इसके सामने देवनागरी पाठ को देखा जाय तो, "अयं मृगोऽयं वराहोऽयं शार्दूल इति मध्याह्नेऽपि ग्रीष्म-विरल-पादप-च्छायासु वनराजीष्वाहिण्ड्यतेऽटवीतोऽटवी ।" इन दोनों वाक्यों की तुलना से भी मालूम होता है कि देवनागरी वाचना का पाठ अधिक विस्तृत किया गया पाठ है । ( यहाँ हम ऐसी आशंका नहीं करेंगे कि संक्षेप करने के आशय से दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने देवनागरी पाठ में से "अटवीतो अटवी" इतने शब्दों को हटा दिये होंगे । क्योंकि इसी अंक में आगे चल कर हम देखते हैं कि विदूषक ने सेनापति को उद्देश्य कर कहा है :"त्वं तावद् अटवीतोऽटवीं भ्रमन् नर-मांस-लोलुपस्य कस्यापि जीर्ण-ऋक्षस्य मुखे निपतिष्यसि ।" । इसमें भी "अटवीतोऽटवीम्" जैसे शब्दों का उच्चार किया जाता है । अर्थात् देवनागरी के पाठ में"अटवीतोऽटवीम्" जैसे शब्दों की पुनरुक्ति की गई है । किन्तु दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में एक ही बार "अटवीतोऽटवीम्" जैसे शब्दों सुनाई पडते है । अतः कहना होगा कि यहाँ पर देवनागरी का पाठ प्रक्षिप्तांश युक्त है, जो पश्चाद्वर्ती काल की प्रवृत्ति है ।। तथा दाक्षिणात्य वाचना के "नर-मांस-लोलुपस्य" शब्दों के प्रतिपक्ष में देवनागरी पाठ में "नर-नासिका-लोलुपस्य" ऐसा पाठभेद करके विदूषक की हास्यकारिता बढाई गई है । ) (3) तीसरे अंक के आरम्भ में, (क) शिष्य की उक्ति है कि, तर्हि यत्नादुपक्रम्यताम् । सा हि कुलपतेः कण्वस्यो-च्छ्वसितम् । दाक्षिणात्य वाचना की उक्ति से कुछ विस्तृत पाठ देवनागरी में मिलता है । जैसे कि, "तर्हि त्वरितं गम्यताम् । सखि, सा खलु भगवतः कण्वस्य कुलपतेरुच्छ्वसितम् ।" यहाँ कण्व के लिए "कुलपतेः" के साथ में "भगवतः" जैसा एक अधिक विशेषण भी लगाया गया है ।। (ख) इसी अंक में आगे चल कर, ( दाक्षिणात्य वाचना में ) दोनों सखिओं की संयुक्त उक्ति है :"अतः एव निर्बन्धः । संविभक्तं खलु दुःखं सह्यवेदनं भवति ।" किन्तु देवनागरी वाचना में, "अत एव खलु निर्बन्धः । स्निग्धजनसंविभक्तं हि दुःखं सह्यवेदनं भवति ।" ऐसा विस्तृत पाठ मिल रहा है।। (ग) इस तरह शकुन्तला की उक्ति है :"तद्यदि वाम् अनुमतं तथा वर्तेथां यथा तस्य राजर्षे-रनुकम्पनीया भवामि । अथवा प्रसिञ्चत मे उदकम्" । यह दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है । उनके प्रतिपक्ष में देवनागरी वाचना में "0 अन्यथा सिञ्चतं मे तिलोदकम्" ऐसा परिष्कृत पाठ उपलब्ध होता है ।। (4) चतुर्थांक में, कन्याविदाय के प्रसंग में कण्व की उक्ति है :"वत्से, त्वमिदानीम् अनुशासनीयासि । वनौकसोऽपि सन्तो लोकज्ञा वयम् ।" यहाँ दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में हलका सा परिवर्तन करके देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने "0 वनौकसोऽपि सन्तो लौकिकज्ञा वयम् ।" ऐसा सरलीकृत पाठ आकारित किया है । तथा सूक्ष्मता से सोचने पर मालूम होता है किवनौकस शब्द के साथ लोकज्ञ शब्द ही समुचित है ।। (5) षष्ठांक के धीवर-प्रसंग में, द्वितीय रक्षक की उक्ति है :"एषोऽस्माकं स्वामी गृहीत्वा राजशासनम् इतोमुखं पश्यति । ततस्त्वं गृध्रबलिर्भविष्यसि ।" । यह दाक्षिणात्य पाठ है । जिसका विस्तार करके देवनागरी वाचना में "0 ततस्त्वं गृध्रबलिर्भविष्यसि, शुनः मुखं वा द्रक्ष्यसि ।" ऐसा पाठ दिया गया है ।। स्थालिपुलाक न्याय से दिये गये इन उदाहरणों से ऐसा इङ्गित हो रहा है कि दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने इस नाटक का जो संक्षिप्त पाठ पहले बनाया होगा, उनमें कुत्रचित् छोटे छोटे नवीन अंश दाखिल करके देवनागरी वाचना का पाठ कालान्तर में तैयार किया गया है, बल्कि तथाकथित रूप से परिष्कृत किया गया है । क्योंकि पाठालोचना का एक अधिनियम ऐसा है कि जिस कृति का सीधा सहज लघुपाठ होता हैउसकी अपेक्षा से अलंकृत एवं बृहत्पाठ उत्तरवर्ती काल का होता है । उपर्युक्त उदाहरणों में जैसा दिख रहा है वैसे देवनागरी वाचना का पाठ नवीन प्रक्षिप्तांशों से भरा है, तथा उसमें कहीं कहीं अधिकविस्तार के साथ सरलीकृत या विशदीकृत अथवा संक्षिप्ततर पाठ भी दिया गया है । इस दृष्टि से, वर्तमान में प्रचलित देवनागरी वाचना का पाठ उत्तरवर्ती काल का सिद्ध होता है । तथा उससे पुरोगामी पाठ के रूप में दाक्षिणात्य वाचना का पाठ सिद्ध होता है ।। [ 3] अब हम अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की श्लोक-संख्या के बिन्दु को लेकर उपर्युक्त दोनों वाचनाओं के पौर्वापर्य को निश्चित करना चाहेंगे । दाक्षिणात्य वाचना में 193 श्लोक हैं । उसके प्रतिपक्ष में, याने देवनागरी वाचना के पाठ में, ( जिस पर राघवभट्ट ने टीका लिखी है, उसमें ) 191 श्लोक का समावेश किया गया है । यहाँ किस किस श्लोक को लेकर असमानता है वह परीक्षणीय है :-- (1) प्रथम अंक में वैखानस के मुख में, "न खलु न खलु बाणः संनिपात्योऽयमस्मिन्0" । यह श्लोक रखा गया है । यद्यपि इस श्लोक पर, दाक्षिणात्य टीकाकारों में पहले और सुप्रसिद्ध टीकाकार काटयवेम (15वीं शती) एवं देवनागरी वाचना पर टीका लिखनेवाले प्रमुख टीकाकार राघव भट्ट (16वीं शती) ने टीका नहीं लिखी है । तथापि दाक्षिणात्य वाचना पर टीका लिखनेवाले अन्य टीकाकारों में से चर्चाकार एवं अभिराम ने भी इस श्लोक पर टीका नहीं लिखी है । किन्तु श्रीनिवासाचार्य एवं घनश्याम ने तो इस श्लोक पर टीका लिखी है । इन में से श्रीनिवास तो यह भी जानते है कि प्रकृत श्लोक में पुष्पराशौ के स्थान में तूलराशौ ऐसा पाठान्तर भी चल रहा है । तथा घनश्याम ऐसा भी बताते है कि यह श्लोक प्रक्षिप्त है ऐसा भी कोई कहता है । याने दाक्षिणात्य वाचना की पुरानी पाठ परम्परा में यह श्लोक समाविष्ट ही नहीं था । केवल उत्तरवर्ती काल में हीइसको स्वीकारा गया है ।। (2) षष्ठांक के आरम्भ में दो उद्यानपालिकाएँ आती है । उनमें से परभृतिका नामक प्रथमा के मुख में एक आर्या रखी हैः—आताम्रहरितपाण्डुर0 । जिस पर राघव भट्ट ने टीका लिखी है । अर्थात् देवनागरी वाचना में यही आर्या प्रचलित है । किन्तु दाक्षिणात्य वाचना के प्रथम टीकाकार काटयवेम ने इसके स्थान पर दूसरे ही शब्दोंवाली आर्या दी हैः—चूतं हर्षित-पिककं जीवितसदृशं0 । चर्चा टीका के अज्ञात टीकाकार ने काटयवेम से विरुद्ध देवनागरी वाचना के पाठवाली आर्या पर टीका लिखी है । अभिराम एवं श्रीनिवास ने भी "आताम्रहरितपाण्डुर0" पाठ को ही माना है । केवल घनश्याम ने काटयवेम की परम्परा का अनुसरण करते हुए "चूतं हर्षित-पिककं जीवितसदृशं0" वाली आर्या पर टीका लिखी है । लगता है कि दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने उसको दाखिल की होगी, किन्तु दक्षिण में उसका सार्वत्रिक रूप से स्वीकार नहीं हुआ था ।। (3) सप्तमांक के अन्त भाग में, दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में, ( भरतवाक्य से पहले ) एक श्लोक आता हैः-- "तव भवतु बिडौजाः0 " । काटयवेम, अभिराम, श्रीनिवास एवं घनश्याम ने इस श्लोक पर टीका लिखी है । ( सप्तमांक पर चर्चा टीका नहीं मिलती है । ) याने दाक्षिणात्य वाचना में यह श्लोक सर्वमान्य बना है । किन्तु देवनागरी वाचना के पाठ में राघव भट्ट के द्वारा इस श्लोक पर टीका नहीं लिखी गई है ।। इस समग्र चर्चा का सारांश यही निकलता है कि, उपर्युक्त तीन श्लोकों में से पहले और तीसरे श्लोकों को गिनती में लेते हैं तो दाक्षिणात्य वाचना में कुल 193 श्लोकों का समावेश हुआ है । इसकी अपेक्षा से देवनागरी वाचना में 191 श्लोक है, क्योंकि उसमें "न खलु न खलु बाणः संनिपात्योऽयम्0" एवं "तव भवतु बिडौजाः0" । जैसे दो श्लोकों को हटाये गये हैं । अतः श्लोक-संख्या के सन्दर्भ में दाक्षिणात्य वाचना की अपेक्षा सेदेवनागरी वाचना का पाठ संक्षिप्ततर है, जो उत्तरवर्ती काल में तैयार की गई है ।। [ 4 ] देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने उपरि निर्दिष्ट दो श्लोकों को ज्यादा निकाल देने के साथ साथ, अन्यत्र भी कुछ कुछ स्थानों पर से छोटे छोटे गद्य वाक्यों को भी हटा दिये हैं । जिसके आधार पर भी कह सकते है कि देवनागरी वाचना का पाठ संक्षिप्ततर बनाया गया है । ऐसा करने से अनेक स्थानों पर प्रस्तूयमान दृश्य की नाटकीयता में विक्षेप भी पैदा होता है, जिसकी ओर विद्वज्जगत् का शायद ध्यान ही नहीं गया है । उदाहरण के रूप में कहे तो, (1) प्रथमांक में, भ्रमरबाधा-प्रसंग में ( दाक्षिणात्य वाचनानुसारी पाठ में ) राजा ने चलापाङ्गां दृष्टिं0 । श्लोक से भ्रमर-आक्रान्ता शकुन्तला का वर्णन किया है । उसके बाद शकुन्तला की उक्ति से आरम्भ करके जो संवादशृङ्खला है वह निम्नोक्त है :-- शकुन्तला– सख्यौ, परित्रायेथां परित्रायेथामिमामनेन दुर्विनीतेन मधुकरेणाभिभूयमानां माम् । उभे– ( सस्मितम् ) का वयं परित्रातुम् । दुष्यन्तमाक्रन्द । राजरक्षणीयानि तपोवनानि नाम ।। इससे कुछ भिन्न योजना देवनागरी वाचना के पाठ में दिख रही है। जैसे कि, शकुन्तला– न एष दुष्टो विरमति । अन्यतो गमिष्यामि । कथमितोप्यागच्छति । हला, परित्रायेथां मामनेन दुर्विनीतेन दुष्टमधुकरेण परिभूयमानाम् । उभे– ( सस्मितम् ) का आवां परित्रातुम् । दुष्यन्तम् आक्रन्द । राजरक्षितव्यानि तपोवनानि नाम ।। इन दोनों में प्रथम दृष्टि में कोई अन्तर नहीं दिख रहा है । किन्तु प्रस्तुत नाटक में तीनों सहेलियों की समरसता ( तादात्म्य ) इतनी सुदृढ थी कि जब शकुन्तला पर भ्रमर का भयजनक परिभ्रमण शुरू होवे उसी क्षण अन्य दोनों सहेलियाँ उसको साहाय्य करने सद्यः सक्रिय होयी जायेगी ।अथवा किसी भी तरह की आपत्ति आ जाने पर शकुन्तला तुरंत अपनी दोनों सहेलियों को ही पहले साहाय्य के लिए पुकारेगी । इस दृष्टि से देखेंगे तो दाक्षिणात्य पाठ में ही अपेक्षित योजना सुरक्षित है ।इस तरह का कृतिनिष्ठ औचित्य देवनागरी वाचना के उपर्युक्त पाठ में नहीं है । क्योंकि, देवनागरी पाठ में तो शकुन्तला पहले अपने आप ही अकेली भ्रमर का सामना करने लगती है । वह पहले से ही साहाय्य के लिए अपनी सहेलियों को नहीं पुकारती है, जो तीनों के तादात्म्य को देखते हुए अस्वाभाविक लगता है ।। (2) द्वितीय अंक में, राजा ने जब मृगया-कर्म में एक दिन का विश्राम घोषित करके सेनापति को वहाँ से रवाना कर दिया तब विदूषक राजा को "चिरं जीव" होने का आशीर्वाद देकर वहाँ से चले जाने का उपक्रम करता है । राजा ने उसको रोक लिया । उसको कहा कि मेरा वाक्य अभी पूरा नहीं हुआ है । विदूषक ने कहा कि आज्ञा दीजिए । यहाँ दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में, निम्नोक्त उक्तियाँ है :--- राजा– विश्रान्तेन भवता ममान्यस्मिन्नायासे कर्मणि सहायेन भवितव्यम् । विदूषकः– किं मोदकखण्डनेषु । राजा– यत्र वक्ष्यामि । विदूषकः– गृहीतः क्षणः । राजा– कः कोऽत्र भोः । इसके विरुद्ध देवनागरी वाचना में कुछ संक्षेप करके यही संवाद-शृङ्खला निम्नोक्त रीति से रखी गई है :-- राजा– विश्रान्तेन भवता ममाप्यनायासे कर्मणि सहायेन भवितव्यम् । विदूषकः– किं मोदकखण्डिकायाम् । तेन ह्ययं सुगृहीतः क्षणः । राजा– यत्र वक्ष्यामि । कः कोऽत्र भोः । इसमें हम देख सकते हैं कि राजा और विदूषक की दो दो उक्तियाँ, जो पृथक् पृथक् रूप से गिनती की जाय तो, ( दाक्षिणात्य वाचना में ) चार वाक्यों में रखी गई थी हैं, उसके स्थान में देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने संमिश्रित दो वाक्यों में ही रंगमंच पर प्रस्तुत करने की योजना बनाई है । मंचनलक्षिता की दृष्टि से यह योजना संक्षेपसाधक जरूर है, परन्तु नाटकीयता की घातक ही है ।। [ 5 ] उपर्युक्त परामर्श में प्रस्तुत किये गये प्रमाणों के आधार पर हम अनुमान कर सकते हैं कि लघुपाठवाली दो वाचनाओं में सेदाक्षिणात्य वाचना कालानुक्रम में पहले आकारित की गई होगी । तथा जो संक्षिप्ततर है वह देवनागरी वाचना सब से अन्त में तैयार की गई होगी ।इन दोनों का इस तरह का पौर्वापर्य निश्चित होने पर, इस नाटक का जो लघुपाठ प्रचलन में आया है, (जिसको हम एक रंगावृत्ति का पाठ कह सकते है ) उसके संग्रथन में दाक्षिणात्य वाचना का मुख्य रूप से क्या क्या योगदान है ? वह भी परिगणित करना होगा :-- (1) काश्मीरी वाचना में इस नाटक का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तला" था । ( मतलब कि अभिज्ञान-पूर्विका शकुन्तला जिसमें निरूपित की गई है ) । इसको परिवर्तित करके बंगाली वाचना के विद्वान् पाठशोधकों ने "अभिज्ञानशकुन्तलम्" बनाया था , उस शीर्षक को दाक्षिणात्य पाठशोधकों ने "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" के रूप में परिवर्तित किया है । अर्थात् इस नाटक के प्रतिपाद्य वस्तु में शकुन्तला के पुत्र ( शाकुन्तल ) के अभिज्ञान को महत्त्व दिया गया है । ( इस नाटक का संज्ञान विभिन्न कालखण्ड में अलग अलग रूप से होता रहा है, इसका यह प्रमाण है । ) (2) बंगाली वाचना में 222 श्लोकों का समावेश हुआ है, इस बृहत्तम पाठ में से दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने 191 श्लोकोंवाला पाठ सम्पादित किया है । (3) इस भारी कटौती का केन्द्रीभूत स्थान गान्धर्व-विवाह को वर्णित करनेवाला तृतीयांक है । इस 41 श्लोकोंवाले तृतीयांक में से दो दृश्यों की कटौती करके के 24 श्लोकोंवाला अंक बनाया गया है । तथा हटाये गये दो दृश्यों में (क) दुष्यन्त शकुन्तला के हाथ में मृणाल-वलय पहनाता है, तथा (ख) पुष्परज से कलुषित हुए शकुन्तला के नेत्र को दुष्यन्त अपने वदनमारुत से प्रमार्जित कर देता है इनका समावेश होता है । (4) पञ्चमांक के आरम्भ में, दृश्यावली का मूल में जो क्रम था उसको भी दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने बदल दिया है । जैसे कि, हंसपदिका-गीत से पञ्चमांक का आरम्भ होता है, तत्पश्चात् कञ्चुकी का प्रवेश एवं वैतालिकों का श्लोकगान रखा गया है । इस परिवर्तन के कारण दुष्यन्त को जननान्तर सौहृद याद आ जाने के बाद, वैतालिकों के श्लोकगान से उसकी धर्मबुद्धि को जागृत की जाती है । जिससे वह शकुन्तला का प्रत्याख्यान कर सकता है । (5) समग्र नाटक के प्रारम्भ में, दुष्यन्त को आश्रम-मृग को नहीं मारने के लिएवैखानस के द्वारा चक्रवर्ती पुत्र प्राप्त होने के आशीर्वाद दिये जाते है । दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने इसीको एक पद्य में प्रस्तुत किया है । जैसे कि, जन्म यस्य पुरोर्वंशे युक्तरूपमिदं तव । पुत्रमेवं गुणोपेतं चक्रवर्तिनमवाप्नुहि ।। इस श्लोक का देवनागरी वाचना में भी स्वीकार हुआ है । तथा रंगमंच पर वैखानस, जो दो शिष्यों के साथ आया है, उन दोनों के द्वारा इसी आशीर्वचन का पुनरुच्चारण किया जाता है । इस प्रकार से पूरा दृश्य नाटकीय स्वरूप धारण करता है । इस योजना से दोनों शिष्यों का रंगमंच पर आना अब सार्थक बनता है । यदि बृहत्पाठवाली काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में देखते है तो उसमें आशीर्वादात्मक पूर्वोक्त श्लोक नहीं है । ( जिसमें रंगमंच पर शिष्य का आना निर्थक ही लगता है । ) अतः यह प्रसंगोचित श्लोक का प्रक्षेप करने का यश दाक्षिणात्य वाचना को देना होगा ।। इसी तरह से मूल नाटक के तृतीयांक के पाठ में से पूर्वोक्त दो दृश्यों की कटौती करने के बाद, दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने कथाप्रवाह का पुनः सन्धान करने के लिएएक दूसरे श्लोक का भी प्रणयन किया है । वह है :- अपरिक्षतकोमलस्य यावत्कुसुमस्य नवस्य षट्पदेन । अधरस्य पिपासता मया ते सदयं सुन्दरि गृह्यते रसोऽस्य ।। इसका स्वीकार देवनागरी वाचना में भी किया गया है, जो अन्य किसी भी वाचना में नहीं मिलता है ।। (6) षष्ठांक के आरम्भ में, दो उद्यानपालिकायें कामदेवार्चन करने के लिए आम्रमंजरी का अवलोकन करते हुए एक आर्या का गान करती है :-- आताम्रहरितपाण्डुर जीवित सत्यं वसन्तमासस्य । दृष्टोऽसि चूतकोरक ऋतुमंगल त्वां प्रसादयामि ।। (6-2) यह आर्या सभी वाचनाओं में एक समान रूप से मिलती है । किन्तु केवल दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने एक सर्वथा नवीन आर्या बनाई गई है :-- चूतं हर्षितपिककं जीवितसदृशं वसन्तमासस्य । षट्चरणचरणभग्नमृतुमंगलमिव पश्यामि ।। यहाँ अनुमान करने का मन होता है कि इस नवीन आर्या का गान दूसरे ही आलापादि के साथ होता होगा । ( दक्षिण के मंचन सम्बन्धी संगीतप्रयोगों की जानकारी मिलने पर ही यहाँ कुछ अधिक प्रकाश डाला जा सकता है । ) (7) पुरोगामी तीन वाचनाओं में राजा की दासी मेधाविनी था एवं रानी वसुमती की दासी पिंगलिका था । ये दोनों नाम कालान्तर में परिवर्तित होते गये हैं । बंगाली वाचना में मेधाविनी के स्थान पर चतुरिका नाम लाया गया है । वहाँ पिंगलिका नाम यथावत् बना रहा है । किन्तु दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने इस दूसरे नाम के स्थान पर तरलिका नाम कल्पित कर लिया है । जिसका अनुसरण देवनागरी पाठ में भी हुआ है ।। (8) इसी तरह से, प्रथम बार दाक्षिणात्य वाचना ने ही राजा, जो संस्कृत भाषा में बोलनेवाला पात्र है, उसके मुख में विदूषक का नाम "माधव्य" नहीं, किन्तु "माढव्य" दाखिल कर दिया है ।। इस तरह से कालिदास के मूल नाटक की लघुपाठ परम्परा जहाँ से शुरू हुई है ऐसी दो वाचनाओं में से दाक्षिणात्य वाचना का क्रम पहला है । तथा उसको ही इस नाटक के बृहत्पाठ को रंगावृत्ति में परिवर्तित करने का यश देना चाहिए । एवमेव, उस संक्षिप्त किये पाठ को संक्षिप्ततर,विशदीकृत एवं परिष्कृत करने के आशय से पुनरपि सम्पादित करने का कार्य देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने किया है ।। [ 6 ] दक्षिण भारत में इस नाटक के पाठ को जो संक्षिप्त करके सम्पादित किया गया उसे दाक्षिणात्य वाचना कही जाती है । यद्यपि इस तरह का संक्षेपीकरण करनेवाले पाठशोधक का नाम हमारे लिए अज्ञात ही है, तथापि उसका समय 13वीं शती के आसपास का होगा ऐसा हम अनुमान कर सकते है । क्योंकि तेरहवी शती के दक्षिणावर्तनाथ ने इस संक्षिप्त पाठ पर ही अपनी टीका लिखी है । यह टीका अद्यावधि अप्रकाशित रही है । काटयवेम ने इस लघुपाठ पर जो कुमारगिरिराजीया टीका लिखी है उसका समय 15वीं शती है । इस टीकाकार के द्वारा स्वीकृत लघुपाठ को हम दाक्षिणात्य वाचना का पाठ कहते है, क्योंकि दक्षिण भारत की ग्रन्थ, तेलुगु, नन्दीनागरी, तमिळ, मळयाळम जैसी लिपियों में लिखी गई पाण्डुलिपियाँ एकत्र करके किसी विद्वान् ने उसकी समीक्षित आवृत्ति अद्यावधि बनाई नहीं है । अतः इसके अभाव में, दक्षिण भारत के टीकाकारों में प्रतिबिम्बित दाक्षिणात्य वाचना का अभ्यास करके इसमेंजो मुख्य मुख्य परिवर्तन किये गये हैं, उन सब का परिगणन उपरि भाग में किया गया है । इस तरह का लघुपाठ मंचन की दृष्टि से आकर्षक भी सिद्ध हुआ हैं, और देवनागरी वाचना तैयार करनेवाले पाठशोधकों के लिए अनुकरणीय भी बना है । किन्तु कालान्तर मेंदेवनागरी वाचना ने जब दाक्षिणात्य वाचना का अनुसरण किया तब पाठशोधकों ने अपने लघुपाठ में न केवल छोटे छोटे नये परिवर्तन ही किये हैं, उन लोगों ने कुत्रचित् दाक्षिणात्य वाचना को आदर्श न बना कर, काश्मीरी-आदि पुरोगामी वाचनाओं में से भी यथेच्छ अमुक अमुक पाठान्तरों का ग्रहण भी किया है । दाक्षिणात्य वाचना को बनानेवालों ने भी नाटक के पाठ को केवल संक्षिप्त करने का ही कार्य किया था ऐसा भी नहीं है । उन लोगों ने भी पुरोगामी काश्मीर-आदि बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में से ही यथेच्छ रूप से अमुक अमुक पाठान्तरों का स्वीकार किया हैं । अतः हमारे लिए अब यह परीक्षणीय बनता है कि दाक्षिणात्य एवं देवनागरी के पाठों की तुलना करने पर इन दोनों में ग्राह्य रखे गयें पाठान्तरों में क्या अन्तर है ? मतलब कि ऐसा भी नहीं है कि देवनागरी वाचना को तैयार करनेवालों ने दाक्षिणात्य वाचना के लघुपाठ को सर्वांश में ग्राह्य रखा है । देवनागरी के पाठशोधकों ने दाक्षिणात्य पाठ को पूर्ण रूप से अनुकरण नहीं किया है । श्री रेवाप्रसाद जी ने जो कहा है कि ये दोनों वाचनाओं का पाठ प्रायः 90 प्रतिशत आपस में मिलता-जुलता है, वह सही निरीक्षण है । किन्तु जो 10 प्रतिशत भी दोनों में भेद है, उसकी तुलनात्मक समीक्षा करके यह निश्चित करना चाहिए कि इन दो वाचनाओं के पाठान्तरों में जो वैषम्य है, उसमें कितने पाठान्तर कहाँ से लिए गये हैं, अथवा उन लोगों ने स्वतन्त्र रूप से कुछ नवीन पाठान्तरों की उद्भावना भी की है ।। निम्नोक्त उदाहरणों का अभ्यास करने से मालूम होगा कि किस वाचना ने कहाँ से अमुक पाठान्तर लिया है, और वे कौन से नवीन पाठान्तर है जो अमुक वाचना ने ही सब से पहले दाखिल किये हैं:-- (1) अभिज्ञानशाकुन्तल के नान्दी-पद्य में, दाक्षिणात्य वाचना के पाठानुसार "यामाहुः सर्वभूत-प्रकृति-रिति" ऐसा पाठ मिलता है । यदि अन्य चारों वाचनाओं में देखा जाय तो सर्वत्र "यामाहुः सर्वबीज-प्रकृतिरिति" ऐसा पाठ चल रहा है । मतलब कि यह "0सर्वभूतप्रकृति0" वाला पाठभेद दाक्षिणात्य परम्परा में ही आकारित हुआ है ।। इसी नान्दी-पद्य के चतुर्थ चरण में "प्रत्यक्षाभिः प्रपन्नस्तनुभिरवतु"शब्दों में "प्रपन्न" को रखनेवाली वाचना भी दाक्षिणात्य ही है । क्योंकि जो बृहत्पाठवाली तीन पुरोगामी वाचनाएँ हैं उनमें तो "प्रत्यक्षाभिः प्रसन्नः" ऐसा ही पाठ प्रचलन में रहा है । ( यहाँ विशेष रूप से उलेल्खनीय एक बात यह है कि दक्षिणावर्तनाथ की जो अप्रकाशित टीका है उसमें तो "प्रसन्नः" पाठ मान कर ही व्याख्या की गई है । ) (2) नान्दी-पद्य के बाद सूत्रधार की एक उक्ति है :"आर्ये, अभिरूपभूयिष्ठा परिषदियम् । कालिदास-ग्रथित-वस्तुना नवेन नाटकेनोपस्थातव्यमस्माभिः । तत्प्रतिपात्रमाधीयतां यत्नः ।।"इसमें नाट्यकृति का क्या नाम है ( उसका शीर्षक क्या है ) ? वह कण्ठतः उच्चरित नहीं है । वह तो नटी की प्राकृत-उक्ति में प्रस्तुत होता है :"णं अज्जमिस्सेहिं पढमं एव्व आणत्तं अहिण्णाणसाउन्दलं णाम णाडअं पओएण अलंकीअदु त्ति ।"यह काटयवेम ने स्वीकारा हुआ दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है । जो पाठ काश्मीरी वाचना की शारदा पाण्डुलिपिओं में मिल रहा पाठ है । अर्थात् सूत्रधार के मुख से नाट्यकृति का नाम प्रस्तुत नहीं करने की, तथा सूत्रधार को "आर्यमिश्र" कहने की काश्मीरी पाठपरम्परा को उठा कर दक्षिण भारत के पाठशोधकों ने अपने वहाँ स्वीकार लिया है ।किन्तु देवनागरी वाचना के पाठ को जब तैयार किया गया होगा तब उन लोगों ने मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में जैसे नाट्यकृति का नामोल्लेख किया गया है वैसे ही अपनी ( याने देवनागरी में ) वाचना में भी नाटक का शीर्षक प्रस्तुत कर दिया है । अलबत्त, उस समय देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने "अभिज्ञानशकुन्तलम्" नहीं दिया, किन्तु दाक्षिणात्य वाचनानुसारी "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" ऐसा दिया है । इस तरह देवनागरी का पाठ संमिश्रित हुआ है उसका पहला प्रमाण मिलता है ।। (3) आश्रम-मृग को नहीं मारने के लिए राजा दुष्यन्त को चक्रवर्ती पुत्र प्राप्त होने के जब वैखानस द्वारा आशीर्वचन दिये जाते है तब राजा ने उसके प्रतिभाव में प्रणामपूर्वक कहा कि "प्रतिगृहीतं ब्राह्मणवचनम्" । इस दाक्षिणात्य वाचना के पाठ का मूल कहाँ है ? तो प्राचीनतम काश्मीरी वाचना में "प्रतिगृहीतं तपोधनवचनम्"ऐसा पाठ मिल रहा है । मैथिली वाचना में, "गृहीतं ब्राह्मणवचनमस्माभिः" लिखा है, तथा बंगाली वाचना में "प्रतिगृहीतं ब्राह्मणवचः" कहा है । इन तीनों तरह के पाठान्तरों के देखने से अब निश्चित होगा कि दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों ने प्रकृत पाठ मैथिली और बंगाली पाठों का अनुसरण करते हुए लिखा है । परन्तु इसी सन्दर्भ में जब देवनागरी पाठ को देखते हैं तो वहाँ "प्रतिगृहीतम्" इतना एक ही शब्द रखा गया है । इसमें तपोधनवचन या ब्राह्मणवचन का निर्देश नही है । यह नया (संक्षिप्ततर) पाठान्तर देवनागरी की देन है ।। (4) जलसिंचन कर रही सहेलियाँ आपस में बातें कर रही हैं । वहाँ शकुन्तला की उक्ति है :"अनसूये, अदयपिनद्धेन स्तनवल्कलेन प्रियंवदया दृढं नियन्त्रितास्मि । शिथिलय तावदिमम् ।" यह दाक्षिणात्य पाठ है । लेकिन अन्य सभी वाचनाओं में "अनसूये, अतिपिनद्धेन0" ऐसा पाठान्तर मिलता है । मतलब कि दाक्षिणात्य वाचना ने यहाँ एक नये पाठभेद को जन्म दिया है । तथा देवनागरी पाठ ने यहाँ दाक्षिणात्य का अनुसरण नहीं किया है, बल्कि काश्मरी-आदि अन्य तीन बृहत्पाठवाली वाचनाओं का अनुसरण किया है ।। (5) भ्रमरबाधा प्रसंग में दुष्यन्त जब तीनों कखिओं के सामने प्रकट होता है तब अनसूया की उक्ति हैः- "आर्य, न खलु किंचिदत्याहितम् । इयं नः प्रियसखी मधुकरेण आकुलीक्रियमाणा कातरीभूता ।" यह दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है । एवमेव, अन्य काश्मीरी-आदि बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में भी वही पाठ है । किन्तु जो लघुपाठवाली देवनागरी वाचना है, केवल उसमें "आकुलीक्रियमाणा" के स्थान में "अभिभूयमाना" ऐसा नया पाठान्तर पेश किया गया है ।। (6) शकुन्तला की दोनों सहेलियों ने राजा का परिचय प्राप्त करने के लिए ( दाक्षिणात्य वाचनानुसार ) तीन प्रश्न किये है :"कतम आर्येण राजर्षिवंशोऽलंक्रियते । कतमो वा विरहपर्युत्सजनः कृतो देशः । किं निमित्तं वा सुकुमारोऽपि तपोवनपरिश्रमस्यात्मा पात्रतामुपनीतः ।"इसके विरोध में काश्मीरी वाचना का पाठ देखा जाय तो "कतमं पुनरार्यो वर्णम् अलंकरोति । किं निमित्तं वा सुकुमारेण आर्येण तपोवनगमन-परिश्रमस्यात्मा पात्रीकृतः ।" इस में केवल दो ही प्रश्न किये गये हैं । किन्तु मैथिली वाचना में तीन प्रश्न प्रस्तुत किये जाते हैं :"कदरो उण वण्णो अज्जेण अलंकरीअदि । कदमो वा पदेसो विरहपज्जुसुओ करीअदि । किंनिमित्तं अज्जेण कुसुमसुउमारेण अप्पा तवोवणपरिस्समस्स उअणीदो ।" यहाँ राजा दुष्यन्त ने किस प्रदेश के लोगों को विरहपर्युत्सुक किये हैं, अर्थात् राजा किस देश से पधारे हैं ? यह एक प्रश्न अधिक है ।। बंगाली वाचना के पाठशोधकों नें भी मैथिली का अनुसरण करते हुए तीन प्रश्न प्रस्तुत किये हैं । किन्तु उन्होंने "वर्ण" शब्द को बदल कर, "राजर्षिवंश" शब्द रख दिया है । ( इस तरह तीन प्रश्न प्रस्तुत करने की पाठपरम्परा दाक्षिणात्य और देवनागरी दोनों ने समान रूप से अनुसृत की है । तथा इन दोनों ने बंगाली वाचना का अनुसरण करते हुए "वर्ण" शब्द के स्थान पर, "राजर्षिवंश" शब्द स्वीकार लिया है । ) किन्तु तर्कदृष्टि से सोचा जाय तो दोनों सहेलियाँ ने प्रथम क्षण में ही कैसे जान लिया कि यह व्यक्ति किसी राजर्षिवंश का ही है ? क्योंकि सखियों ने दुष्यन्त के साथ बैठ कर बातचीत अभी अभी शुरू ही की है, और शकुन्तला को जलपूर्ण दो घटों के ऋण से मुक्त करते समय राजा ने अपने आपको छिपाने के लिए जो "राज्ञः परिग्रहोऽयम्" कहा है, वह प्रसंग तो बहुत पीछे आनेवाला है । इस उक्ति को देख कर लगता है कि प्रकरण-संगति को देखते हुए काश्मीरी एवं मैथिली का "वर्ण" शब्दवाला पाठ ही मौलिक प्रतीत होता है । यहाँ बंगाली वाचना ने किया ( "राजर्षिवंश" ) पाठभेद अमौलिक सिद्ध होता है । तथा इसके ही अनुसन्धान में कहना होगा कि मैथिली वाचना ने दाखिल किया तीसरा प्रश्न ( कतमो वा विरहपर्युत्सजनः कृतो देशः ) भी अमौलिक हो सकता है ।। (7) द्वितीयांक के प्रारम्भ में, विदूषक की उक्ति है :"एष बाणासनहस्ताभिः वनपुष्पमालाधारिणीभिः यवनीभिः परिवृत इत एवागच्छति वयस्यः ।" इस दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में यवनिओं का निर्देश है । जिसका अनुसरण देवनागरी वाचना में भी देखा जा सकता है । ऐसा पाठ काश्मीरी वाचना में से आरम्भ हुआ था, लेकिन बीच में मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं के पाठ में से वह शब्द निकाल दिया गया है । अर्थात् इस स्थान में दाक्षिणात्य वाचना ने काश्मीरी पाठ को स्वीकारा है, और मैथिली-बंगाली पाठ को अग्राह्य माना है ।। (8) विदूषक की प्रथम उक्ति के अन्त भाग में, दाक्षिणात्य तथा देवनागरी वाचनाओं के पाठ में "इति प्रवेशकः" ऐसा घोषित किया गया है । लेकिन काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में ऐसा कोई प्रवेशक होने का उल्लेख नहीं है । मतलब कि दाक्षिणात्य परम्परा में ही सब से पहले विदूषक की उक्ति को प्रवेशक के रूप में प्रस्तुत की गई है ।। (9) गाहन्तां महिषा निपानसलिलम्0 । श्लोक में, केवल दाक्षिणात्य वाचना में ही "वराहततिभिः" ऐसा नवीन पाठभेद प्रस्तुत किया गया है । अन्य चारों वाचनाओं में "वराहपतिभिः" ऐसा ही पाठ चल रहा है । इससे मालूम होता है कि देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने यहाँ दाक्षिणात्य वाचना का अनुसरण नहीं किया है ।। (10) विदूषक ने राजा को "स्त्रीरत्नपरिभाविन्" कहा है । दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचनाओं मेंयही शब्द है । किन्तु मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं के पाठ में राजा को "स्त्रीरत्नपरिभोगिन्" कहा गया है । अतः प्रश्न होता है कि इन दोनों पाठान्तरों में से कौन सा पाठ प्राचीनतम है ?। काश्मीरी वाचना में देखने से मालूम होता है कि उसमें "स्त्रीरत्नपरिभाविन्" शब्द है । अतः दाक्षिणात्य वाचना ने काश्मीरी पाठ का अनुसरण किया है ।। (11) दर्भाङ्कुरेण चरणः क्षत इत्यकाण्डे0 श्लोक को सुन कर विदूषक ने राजा को कहा :"यद्येवं गृहीतपाथेयो भव । कृतं त्वयोपवनं तपोवनमिति पश्यामि ।" यह वाक्य दाक्षिणात्य में भी है और देवनागरी में भी है । किन्तु काश्मीरी वाचना में "भोः गृहीतपाथेयो भवसि । कथं पुनः पुनस्तपोवनगमनमिति प्रेक्षे ।" ऐसा वाक्य है । जिसके अनुसन्धान में राजा बोलता है कि "सखे, चिन्तय तावत् केनोपायेन पुनराश्रमपदम् गच्छामः" ।( उसके बाद विदूषक चिन्तन करने के लिए रंगमंच पर समाधि लगाता है ) किन्तु मैथिली वाचना ने काश्मीरी वाचना के पाठ को बदल कर, "गृहीतपाथेयो भवान् कृतः तया । अनुरंजितं तपोवनमिति तर्कयामि ।" अब बंगाली वाचना के पाठशोधकों ने कैसा परिवर्तन किया वह भी द्रष्टव्य है :"गृहीतपाथेयः कृतोऽसि तया । तर्हि अनुरक्तं तपोवने त्वम् इति तर्कयामि ।" इस वाक्य का जो अन्तिम परिवर्तन किया गया वह दाक्षिणात्य एवं देवनागरी में उपलब्ध हो रहा है । पाँचों वाचनाओं में कहीं पर भी समानता नहीं है । जिससे यही फलित होता है कि रंगकर्मिओं ने समय समय पर उस वाक्य में परिवर्तन करने की गुंजाईश देखी है, जिसके साथ साथ विदूषक का आङ्गिक भी वैविध्यपूर्ण बनाया गया होगा ।। प्रस्तुत तुलनात्मक अभ्यास को विस्तारभय से यहीं रोक लेते हैं । किन्तु स्थालिपुलाक न्याय से जितना भी कहा गया है वह हमें निम्नोक्त निष्कर्ष की ओर तो ले जाने के लिए पर्याप्त है ।। [ 7] निष्कर्ष: महाकवि कालिदास के इस नाटक का पाठ दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचाओं में जो प्रवहमान हुआ है वह परस्पर में कैसा पौर्वापर्य रखता है, उन दोनों में अपेक्षाकृत प्राचीनतरता किसमें है, और किसमें अमुक पाठान्तर कहाँ से अवतारित किया गया है, तथा किस वाचना के पाठ की मंचन की दृष्टि से उपादेयता अधिक है उसकी चर्चा हमने देखी । प्रस्तुत विमर्श के उपसंहार में जो ध्यातव्य बिन्दुएँ हमारे सामने आ रहे हैं वह इस तरह के हैं :— 1. देवनागरी वाचना के पाठ की अपेक्षा से दाक्षिणात्य वाचना का पाठ प्राचीनतर है । मतलब कि दोनों वाचनाओं के बीच पौर्वापर्य सोचा जाय तो दाक्षिणात्य वाचना के पाठ का संस्करण पहले तैयार हुआ है, और तत्पश्चात् ही ( सब से अन्त में ) देवनागरी वाचना का पाठ संग्रथित किया गया होगा ।। 2. इस नाटक की बृहत्पाठ परम्परा के ( काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में ) प्रचलित पाठ में भारी कटौती करके, उसको लघुपाठ में परिवर्तित करने का ( उसे रंगावृत्ति में परिवर्तित करने का ) यश दाक्षिणात्य वाचना के अज्ञात पाठशोधकों को देना चाहिए ।। 3. इस दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में विशदीकरण, सरलीकरण एवं विस्तारादि का परिष्कार देवनागरी वाचना के पाठशोधकों ने किया है । जिसमें थोडा अधिक पाठ्यांश हटाया गया है । जिसके कारण देवनागरी वाचना का पाठ संक्षिप्ततर बना है ।। 4. तथा देवनागरी वाचना में कुत्रचित् तर्कविरुद्ध पाठ्यांश भी प्रचालित किया गया है । ऐसी विसंगतियों से भरा पाठ ग्राह्य रखने से पहले सोचना चाहिए ।। 5. संक्षिप्तीकरण के आयाम को छोड कर, छोटे छोटे पाठान्तरों को ग्राह्याग्राह्य रखने में दोनों ने समान रूप से काश्मरी पाठ को ग्राह्य रखना पसंद किया है । एवमेव, कदाचित् उन्हों ने मैथिली-बंगाली वाचनाओं के नवीन पाठान्तरों को भी ग्राह्य रखें हैं । फलतः इन दोनों वाचनाओं के पाठ को संमिश्रित किये गये पाठ के रूप में भी पहचानना चाहिए ।। 6. साथ में यह भी कहना होगा कि देवनागरी पाठ की अपेक्षा से दाक्षिणात्य पाठ में कुत्रचित् नाटकीयता अधिकतर प्रतीत हो रही है ।। 7. प्रस्तुत अभ्यास से निकले इस निष्कर्ष से ऐसा भी प्रश्न खडा होता है कि मंचन एवं पठन-पाठन में क्यूं हम अनुत्कृष्ट देवनागरी पाठ को सार्ध-शताब्दि से ढो रहे हैं ??? ------ 8888 ------ सन्दर्भ ग्रन्थों की सूचि (1) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( राघवभट्टकृतार्थद्योतनिकासमेतम् ), सं. नारायण राम । प्रकाशकः राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, दिल्ली, 2006 । ( इसमें देवनागरी वाचना का पाठ है ) (2) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( काटयवेमकृत-कुमारगिरिराजीया-टीकया सहितम् ), प्रका. आन्ध्रप्रदेश संस्कृत अकादेमी, हैदराबाद, 1982 ( इसमें दाक्षिणात्य वाचना का पाठ है ) (3) अभिज्ञानशकुन्तलम् । सं. रिचार्ड पिशेल, हार्वर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, केम्ब्रीज, द्वितीय संस्करण, 1922, ( इसमें बंगाली वाचना का पाठ है ) (4) अभिज्ञानशकुन्तलम् । सं. रमानाथ झा । प्रका. मिथिला विद्यापीठ, दरभंगा, 1957, ( इसमें मैथिली वाचना का पाठ है ) (5) अभिज्ञानशकुन्तलम् । सं. प्रोफे. पी. एन. पाटणकर, शिरालकर एन्ड कुं. पुना, द्वितीय संस्करण, 1902 ( इसमें शुद्धतर देवनागरी वाचना का पाठ पर्स्तुत करने का दावा किया गया है, किन्तु उसमें अनेक स्थानों पर काश्मीरी वाचना के पाठों को संमिश्रित किये हैं । ) (6) अभिज्ञानशकुन्तलम् । सं. डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल, संस्कृत कॉलेज, कोलकाता, 1980 ( इसमें बंगाली वाचना का पाठ है ) (7) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( अभिराम-विरचित-दिङ्मात्रदर्शनव्याख्यायया संभूषितम् ), प्रका. श्रीवाणी विलास मुद्रायन्त्रालयः, श्रीरंगम्, 1917 (8) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( घनश्यामकृत-संजीवनाख्यटिप्पणसमेतम् ), सं. पूनम पंकज रावळ, प्रका. सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदावाद, 1999 (9) अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( श्रीनिवासाचार्यकृतटीकया सहितम् ), निर्णय सागर प्रेस, 1966 (10) अभिज्ञानशकुन्तला । ( काश्मीरी वाचना के पाठ का समीक्षित सम्पादन ), सं. वसन्तकुमार भट्ट, ( मुद्रणाधीन – 2015 ) (11) कालिदास ग्रन्थावली । सं. श्रीरेवाप्रसाद द्विवेदी जी, प्रका. बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, द्वितीय संस्करण, 1986 (12) नाट्यम्, सम्पादक : श्री राधावल्लभ त्रिपाठी, सागर, अंक – 76, दिसेम्बर, 2014

शनिवार, 7 मार्च 2015

महाभारत की शकुन्तला-कथा एवं कालिदास की क्रान्त-दृष्टि ।

महाभारत की शकुन्तला-कथा एवं कालिदास की क्रान्तदृष्टि वसन्तकुमार म. भट्ट निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380 009 bhattvasant @ yahoo. co. in भूमिकाः—महाभारत जैसे आर्ष महाकाव्य के लिए ऐसा कहा गया है कि "इतिहासोत्तमाद् अस्माद् जायन्ते कविबुद्धयः" । ( इस उत्तम इतिहास में से भविष्य में अनेक कविबुद्धिओं का जन्म होगा । ) इसमें विशाल फलक पर ऐसा मानवजीवन वर्णित है कि उसीमें से प्रेरणा प्राप्त करके भविष्य में विविध काव्यों के सर्जन होते रहेंगे । और ऐसा हुआ भी है । संस्कृत महाकविओं ने अपनी अपनी काव्यसृष्टि का निर्माण करने के लिए प्रायः ख्यात-इतिवृत्त का ही विनियोग किया है । जैसे कि भास ने ऊरुभङ्ग, कर्णभारादि रूपकों की रचना के लिए महाभारत की कथा का ही समाश्रयण किया है । महाकवि कालिदास ने भी इसी मार्ग का अनुगमन किया है । महाभारत के आदिपर्वान्तर्गत सम्भवपर्व (अध्याय 62 से 69) में शकुन्तला के विवाह की कथा आती है । इसमें से दुष्यन्त और शकुन्तला की कथा को लेकर कालिदास ने अपने अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की रचना की है । अनेक विद्वानों ने मूल महाभारत की कथा में कौन कौन से बिन्दु थे और उनमें कालिदास ने कौन से परिवर्तन किये है, एवमेव उनमें किन किन नवीन बिन्दुओं की कल्पना की है ? इस विषय की बहुत बारिकी से चर्चा की है । जिसमें मुख्य रूप से कौन से नवीन प्रसंगों का कल्पन किया गया है, एवं किन किन नवीन पात्रों का कालिदास ने सर्जन किया है ? इत्यादि का विवरण मिलता है । उदाहरण के लिए, महामहोपाध्याय श्री एम. आर. काळे महाशय ने कहा है कि महाभारत में वर्णित दुःषन्त-शकुन्तला की विवाहकथा में प्रणय की कोई रोमाञ्चकता नहीं है । ऐसे एक सरल कथा-कंकाल में महाकवि कालिदास ने नवजीवन का संचार किया है । श्री काळे ने कालिदास की तुलना शेक्सपियर के साथ करते हुए कहा है कि दोनों ने अपने नाटकों के लिए भूतकाल में घटित घटना में से ही कथावस्तु का ग्रहण किया है । अर्थात् दोनों विश्वकविओं ने नवीन कथावस्तु के निर्माण में अपनी कल्पना-शक्ति का खर्च नहीं किया है ।। बल्कि, जो कथा पुरातन काल से आम जनता में सुप्रचलित होती है उसी को लेकर नाट्यकार उसको नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करने के लिए उसमें आवश्यक परिवर्तन कर लेते है । ऐसी इतिहासप्रसिद्ध कथा में वे अपना स्वकीय जीवनदर्शन भी दाखिल करके कोई चिरंजीव काव्यार्थ को अभिव्यक्त करते है । जब भी कोई कथावस्तु परापूर्व से प्रचलित हो गई है, तो उसीका स्वीकार करने से प्रेक्षकों को कथा-प्रवाह को समझने के लिए कोई कष्ट नहीं उठाना है । यद्यपि ऐसा होने पर प्रेक्षकों में कथाप्रवाह का कौतुक नहीं होता है, लेकिन उसको कैसी नाटकीय शैली से प्रस्तुत किया गया है, तथा उसमें कैसे कैसे नवीन रस एवं भावों का निरूपण किया गया है ? वही कौतुक का विषय बनता है । तथा उसीमें नाट्यकार का कवित्व खोजा जाता है ।। काव्यशास्त्रिओं ने कहा है कि कथावस्तु पुरातन होते हुए भी, यदि कवि के द्वारा उसी में नवीन रसादि का सञ्चार किया जाता है तो वह पुरानी कथा अभिनव स्वरूप को धारण करती है । जैसे मधुमास में नवीन रसों के सञ्चार से पुराने वृक्ष भी नवनवीन शोभा को धारण करते हैं ।। [ 1 ] महाभारत की शकुन्तला-कथा में कुछ प्रमुख बिन्दुएँ ध्यानास्पद है : मृगयाविहारी दुःषन्त एकदा कण्व मुनि के आश्रम में जा पहुँचता है । मुनि फलाहार के लिए बाहर गये थे, शकुन्तला आश्रम में अकेली थी । राजा ने उनका परिचय पूछा । शकुन्तला ने ही स्वयं अपने जन्म का वृत्तान्त सुनाया । मेनका और विश्वामित्र के संयोग से इसका जन्म हुआ है ऐसा सुनते ही, राजा ने उसको राजपुत्री जानकर, इसके सामने सद्यो विवाह के लिए प्रस्ताव रखा । राजा दुःषन्त के शब्द ऐसे है, सुव्यक्तं राजपुत्री त्वं यथा कल्याणि भाषसे । भार्या मे भव सुश्रोणि, भद्रे किं करवाणि ते ।। 67 – 1 सर्वं राज्यं तवाद्यास्तु भार्या मे भव शोभने ।। 3, विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्वः श्रेष्ठ उच्यते ।। 4 यहाँ, राजा शकुन्तला के साथ विवाह करने के लिए इतना उतावला हो गया दिखता है कि वह पिता कण्व, जो नझदीक में ही मालिनी नदी के तट पर फलाहार लेने बाहर गये है, उनके वापस आने की प्रतीक्षा भी नहीं कर सकता है । वही शकुन्तला को कहता है कि तुं ही तेरे जीवन का निर्णय करले । क्योंकि आत्मा ही आत्मा का बन्धु है, आत्मा ही आत्मा की गति है । धर्म के अनुसार तुं स्वयं ही तेरा दान करने को योग्य है । क्षत्रियों के लिए गान्धर्व-विवाह धर्म्य है ।। इस प्रस्ताव को सुन कर शकुन्तला ने एक शर्त के साथ उस विवाह-प्रस्ताव का स्वीकार किया । जैसे कि, यदि धर्मपथस्त्वेष यदि चात्मा प्रभुर्मम । प्रदाने पौरवश्रेष्ठ शृणु मे समयं प्रभो ।। 67 – 15 मम जायेत यः पुत्रः स भवेत्त्वदनन्तरम् ।। 16, युवराजो महाराज सत्यमेतद् ब्रवीहि मे ।। यद्येतदेवं दुःषन्त अस्तु मे संगमस्त्वया । 17, एवमस्त्विति तां राजा प्रत्युवाचाऽविचारयन् ।। 18, जग्राह विधिवत् पाणावुवास च तया सह ।। 19 ।। इन शब्दों को देख कर लगता है कि इन दोनों के विवाहसम्बन्ध में प्रेम का कोई स्थान ही नहीं था । महाभारत में वर्णित दुःषन्त-शकुन्तला की कहानी को हम एक विवाहकथा ही कह सकते है, उसे प्रणयकथा नाम नहीं दिया जा सकता ।। गान्धर्व-विवाहोपरान्त राजा ने कहा तो था कि मैं यहाँ से वापस जाने के बाद, तुम्हें चतुरंगिणी सेना के साथ हस्तिनापुर में ले आने का बंदोबस्त करुँगा । लेकिन कण्व मुनि कदाचित् शाप देंगे तो ? उसी भय से वह ऐसा नहीं करता है ।। दूसरी ओर, शकुन्तला पुत्र भरत को जन्म देती है । वह जब छे वर्षों का हो जाता है, तब कण्व मुनि शकुन्तला को पति के घर ले जाने को कहते है । किन्तु हस्तिनापुर के राजदरबार में पहुँचने पर राजा दुःषन्त शकुन्तला का स्वीकार करने से इन्कार कर देता है । महाभारतकार कहते है कि - सोऽथ श्रुत्वैव तद्वाक्यं तस्या राजा स्मरन्नपि । अब्रवीन् न स्मरामीति कस्य त्वं दुष्टतापसि ।। 68 – 18 ।। राजा को शकुन्तला के साथ किये हुए विवाह का स्मरण था, फिर भी वह उसे कहता है " मुझे कुछ स्मरण में नहीं आता है । हे दुष्टतासपी, तुम कौन हो ?"। तब निःसहाय शकुन्तला ने क्रोधपूर्वक लम्बा भाषण दिया, जिसमें सत्य, स्त्री और पुत्र के साथ जुडे धर्म्य सम्बन्ध का विवरण किया । किन्तु सब व्यर्थ रहा । अन्त में जब आकाशवाणी होती है कि राजन्, तुं इस शकुन्तला का स्वीकार कर । यह भरत तेरा ही पुत्र है, तुं उसकी अवमाना न कर । "अथान्तरिक्षे दुःषन्तं वागुवाचाशरीरिणी । 69 – 28, भरस्व पुत्रं दुःषन्त माऽवमंस्थाः शकुन्तलाम् । 19" ।। तब राजा उन दोनों का स्वीकार करने को तैयार होता है । यहाँ पर दुःषन्त के जो शब्द है, वह देखना आवश्यक हैः- शृण्वन्त्वेतद् भवन्तोऽस्य देवदूतस्य भाषितम् । अहमप्येवमेवैनं जानामि स्वयमात्मजम् ।। 69 – 35, यद्यहं वचनादेव गृह्णीयामिममात्मजम् । भवेद्धि शङ्का लोकस्य नैवं शुद्धो भवेदयम् ।। दुःषन्त ने इन शब्दों के द्वारा शकुन्तला का प्रथम क्षण में अस्वीकार करने का जो कारण कहा है, वह आधुनिक काल में प्रतीतिकर भी नहीं है और शोभास्पद भी नहीं है ।। ( यहाँ दुःषन्त ने कहा है कि शकुन्तला के कहने मात्र से यदि वह उस भरत का अपने पुत्र के रूप में स्वीकार कर लेता है, तो लोकमानस में उसकी मेरे वंशज के रूप में शुद्धि नहीं होती । अब आकाशवाणी से वो बात साफ हो जाती है, इसी लिए मैं उसका स्वीकार कर सकता हूँ । ) गुजराती भाषा के कविवर्य श्री उमाशङ्कर जोशी जी जैसे कुछ विद्वानों ने यहाँ ऐसा सोचा है कि ऋषि के डर से नायक दुष्यन्त शकुन्तला को हस्तिनापुर में न ले आवे, और वह स्वयं आवे तब उसका अपमान करें, विवाहसम्बन्ध का स्मरण होते हुए भी मुझे कुछ स्मरण में नहीं है ऐसा कहे तो उसके लिए हमारे, प्रेक्षकों के दिल में उसके लिए कोई सहानुभूति पैदा नहीं होती है । प्रेक्षक ऐसा ही सोचेगा की दुष्यन्त शकुन्तला के योग्य पति नहीं था । कालिदास ने नायक दुःषन्त के ऐसे चरित्र में सुधार लाने का सोचा है । जिसके लिए उन्होंने दुर्वासा के शाप की कल्पना की है । इस योजना से शापग्रस्त नायक की निःसहायता व्यञ्जित होती है, जिससे वह दर्शकों की सहानुभूति का भाजन बना रहता है ।। विद्वानों को ऐसा भी लगा है कि इसमें नायिका शकुन्तला की "दुःषन्त-परिणीता पत्नी" के रूप में पहेचान करने की समस्या है । अतः दुःषन्तनामधेयाङ्किता अङ्गुलीयक केन्द्र में है । प्रथम दृष्टि में यह सही है । लेकिन महाकवि ने इस कहानी को बहुत गेहराई से देखी है । महाभारत की इस कहानी में नायक के चरित्र की गरिमा की सुरक्षा करने का केन्द्र में नहीं है । एवमेव, दुःषन्त की पत्नी के रूप में केवल शकुन्तला की पहेचान भी मुख्य नहीं है । इसमें तो दुःषन्त और शकुन्तला के एकान्त में हुए विवाह से पैदा हुई सन्तति के अभिज्ञान का सवाल ही केन्द्र में है । क्योंकि शकुन्तला के पुत्र भरत को यदि दौष्यन्ति के रूप में स्वीकारा जाय तो वह राजगादी का वारिस बननेवाला होगा । अतः आम प्रजा में उसकी राजपुत्र के रूप में प्रतिष्ठा करने के लिए पुत्र भरत के अभिज्ञान की समस्या ही केन्द्र में है । इस समस्या को ही कालिदास ने नाटक के शीर्षक में स्थान दिया है और उसे ( अर्थात् भरत की पैतृक पहेचान को ) सप्तम अङ्क में रमणीय नाटकीयता के साथ प्रस्तुत की है ।। नाट्यकार कालिदास की सर्जनप्रतिभा का दर्शन यहाँ हो रहा है ।। [ 2 ] महाकवि कालिदास की काव्यसृष्टि का दूसरा आविष्कार देखने के लिए महाभारत की पात्रसृष्टि एवं उन्हों ने अपने इस नाटक में रखी पात्रसृष्टि की तुलना करनी आवश्यक है । महाभारत में प्रकट रूप से तो दुःषन्त और शकुन्तला ही है । तथा कण्व मुनि कुछ दो-चार वाक्य बोले है । अन्य तीन पात्रों का केवल नामोल्लेख हुआ है । वे हैः—1. मेनका, 2. विश्वामित्र और 3. पुत्र भरत । इससे अधिक एक भी पात्र यहाँ उपस्थित या उल्लिखित नहीं है । ( आनुषङ्गिकतया यह भी ज्ञातव्य है कि महाभारत में इसको "शकुन्तलोपाख्यान" शब्द से अभिहित नहीं किया गया है ।। ) इनके सामने, कालिदास ने हमारे सामने जो स्वकल्पित पात्रसृष्टि रखी है उसमें तो शकुन्तला की दो सहेलियाँ - प्रियंवदा और अनसूया, आश्रममाता गौतमी, शार्ङ्गरव और शारद्वत जैसे दो ऋषिकुमार, महर्षि दुर्वासा, तथा हस्तिनापुर में राजा का नर्मसचिव माधव्य ( विदूषक ), सारथि, सेनापति, करभक, ज्येष्ठा वसुमती और सकृत्कृतप्रणया हंसपदिका, कञ्चुकी, वैतालिक, राजपुरोहित, साकेतनिवासी वारिपथोपजीवी श्रेष्ठी धनमित्र, शक्रावतारनिवासी माछीमार ( धीवर ), श्यालक जानुक, रक्षकवर्ग के व्यक्ति, उद्यानपालिकायें, मेनका की सखी सानुमती, मातलि, ऋषि मारीच, अदिति, तापसकन्यायें, बालमृगन्द्र और उसके साथ खेलनेवाला सर्वदमन भरत इत्यादि । इन सभी पात्रों के साथ जुडे हुए विविध प्रसंगों की सुग्रथित हारमाला भी कवि ने रखी है । जिससे यह अभिनेयकाव्य शृङ्गार, हास्य एवं करुणादि रसों से सुमण्डित हुआ है ।। (अनेक विद्वानों ने इनका विस्तृत परिचय अन्यत्र दिया ही है । अतः उसकी पुनरुक्ति करना अनावश्यक है । ) । किन्तु उपर्युक्त पात्रसृष्टि को देख कर स्पष्ट हो जाता है कि इस महाकवि की कल्पनाशक्ति अनितरसाधारण है ! ।। [ 3 ] कालिदास की उपर्युक्त विस्तृत पात्रसृष्टि निःसंशय कल्पनाजनित है, एवमेव इससे सम्बद्ध प्रसंगचित्रण भी उनकी काव्यकला का आश्चर्यजनक आविष्कार है । लेकिन यहाँ दी गई पात्रसृष्टि का इतना विस्तृत परिगणन भी सम्पूर्ण नहीं है । क्योंकि शकुन्तला तो निसर्गकन्या है । शकुन्तला के साथ जब तक हरिण नहीं है, दीर्घापाङ्ग नामक मृगपोतक नहीं है, गर्भमन्थरा हरिणी नहीं है, तब तक शकुन्तला का व्यक्तित्व अपूर्ण है । अकेली शकुन्तला को हम नहीं पहेचान पायेंगे तब तक , जब तक सरसिज कमल को हम याद नहीं करेंगे । और उस कमल का अस्तित्व भी अधूरा है, जब तक उसके कर्णान्तिक में गुञ्जन करनेवाला भ्रमर नहीं होगा । शकुन्तला तब तक सुशोभित नहीं होगी, जब तक उसने अपने कानों में शिरीष पुष्प नहीं पहेने होंगे । और शकुन्तला तब तक "शकुन्त-ला" नहीं बनेगी, जब तक उसके आसपास में रहेनेवाले चक्रवाक, कोकिल, हंस, मयूरादि का पक्षिगण नहीं होगा । ( क्योंकि उन पक्षिओं ने तो उसे जन्म के साथ पहेला परिरक्षण दिया था । ) अरे, शकुन्तला तब तक पानी भी नहीं पिएगी जब तक उसने केसरवृक्ष को, वनज्योत्स्ना नामाङ्किता नवमालिका को एवं माधवीलता को, और सहकार वृक्ष को पानी नहीं पिलाया होगा । कहेने का तात्पर्य यही है कि इस अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक में केवल मानवों से भरी पात्रसृष्टि ही नहीं है, उसमें तो पशु, पक्षी, पुष्प, वृक्ष, लताएँ, भ्रमर, हाथी, बालमृगेन्द्रादि की (मानवेतर) सृष्टि भी सक्रिय पात्रसृष्टि के रूप में मानवपात्रसृष्टि के साथ साथ में बराबर अनुस्यूत है । ऐसी पात्रसृष्टि इस नाटक का अविभाज्य अङ्ग है । और इसीने इस नाटक को सार्वभौम बनाया है । इस तरह की उपादान-सामग्री को कालिदास ने कहाँ से प्राप्त की होगी ? इसको जाने बिना महाकवि की कारयित्री प्रतिभा का सर्वाङ्गीण परिचय नहीं मिल सकेगा । अभिज्ञानशाकुन्तल की कथा महाभारत से ली गई है ऐसा सभी विद्वानों ने कहा है । किन्तु उपरि भाग में वर्णित हरिण, चक्रवाक, भ्रमर, गज इत्यादि महाकवि कालिदास की संवेदना में कहाँ से प्रकट हुए है यह किसी ने नहीं बताया है । इसको जानने के लिए हमें फिर से महाभारत के उक्त अध्यायों में ही जाना पडेगा !!! [ 4 ] महाभारत के आदिपर्वान्तर्गत सम्भवपर्व में अध्याय – 64 में कहा गया है कि राजा दुःषन्त मृगया के हेतु एक वन में से दूसरे वन में घुमता हुआ आश्रम से युक्त किसी वन में पहुँचा । उस वन में पुष्पों से अलंकृत वनस्पति का विपुल वैभव बिखरा था । उसमें पक्षिओं और भ्रमरों का सञ्चार श्रवणमधुर नाद पैदा कर रहा था । जैसे कि, पुष्पितैः पादपैः कीर्णमतीव सुखशाद्वलम् । विपुलं मधुरारावैर्नादितं विहगैस्तथा ।। 64 – 4 प्रवृद्धविटपैर्वृक्षैः सुखच्छायैः समावृतम् । षट्पदाघूर्णितलतं लक्ष्म्या परमया युतम् ।। 5 नापुष्पः पादपः कश्चितन्नाफलो नापि कण्टकी । षट्पदैर्वाप्यनाकीर्णस्तस्मिन्वै काननेऽभवत् ।। 6 विहगैर्नादितं पुष्पैरलंकृतमतीव च । सर्वर्तुकुसुमैर्वृक्षैरतीव सुखशाद्वलम् ।। मनोरमं महेष्वासो विवेश वनमुत्तमम् ।। 7 महाभारत-स्थित इस वर्णन को पढ कर, महाकवि कालिदास की कारयित्री प्रतिभा ने कालातिक्रम करके उस वन में साक्षात् प्रवेश किया है । लगता है कि कवि ने उसमें घुमती फिरती शकुन्तला को देखी है । यदि इस वन में एक भी वृक्ष ऐसा नहीं था कि जिस पर पुष्प न हो और सर्वत्र षट्पदों का आघुर्णन प्रवर्तमान न हो तो, कवि के संवेदनशील मन ने यह देख ही लिया होगा कि वहाँ घुमती शकुन्तला भ्रमरों से एक बार आघ्रात हुए और तुरन्त परित्यक्त हुए पुष्पों को दयापूर्वक देखती है । वह उनको स्नेह से उठा कर अपने बालों में आभूषण के रूप में स्थापित करती है । ऐसे क्रान्तदर्शी कवि के हृदय से ही आकारित हुआ होगा नटी का वो गीत, जो नाटक की प्रस्तावना में ही रखा गया हैः— क्षणचुम्बितानि भ्रमरैः सुकुमारकेसरशिखानि । अवतंसयन्ति दयमानाः प्रमदाः शिरीषकुसुमानि ।। जिस शकुन्तला को जन्म देकर, पिता विश्वामित्र ने मेनका को छोड दी हो, और वो तपश्चर्या करने के लिए अरण्य में चले गये हो, तो ऐसी कन्या के मन में ही स्त्रीजीवन की वेदना चिरकाल के लिए अङ्कित हो जाती है । अतः उपर्युक्त श्लोक में उसी वेदना को कालिदास ने शब्दबद्ध कर दी है । क्षणचुम्बित का मतलब होता है "एक बार का संयोग", जो विश्वामित्र और मेनका का संयोग था । और वही दुःषन्त-शकुन्तला के प्रसंग में आगे चल कर होनेवाला है, इसका इङ्गित नटीगीत में रखा गया है । व्यञ्जना का दीर्घ, दीर्घतर व्यापार शूरु होते ही मालूम होता है कि स्त्री-पुरुष के बीच ऐसे एक बार के संयोग से जो सन्तति पैदा होती है, उदाहरण के लिए भरत को लीजिए, तो उसकी पैतृक पहेचान, अर्थात् अभिज्ञान का सवाल उठता ही है । कवि कालिदास को महाभारत में वर्णित वन में भ्रमरों से क्षणचुम्बित और तत्पश्चात् परित्यक्त पुष्पों की जीवन-दास्तान का साम्य शकुन्तला के जीवन में देखने को मिला होगा ! उसी तरह से, महाभारत का दुःषन्त कण्वाश्रम में जो पहुँचता है, तब कहा गया है कि उस समय शकुन्तला आश्रम में अकेली ही थी । आश्रम के प्राङ्गण में खडे रहे कर दुःषन्त ने आवाज दी थी कि कोई इस आश्रम में है की ? "ततोऽगच्छन्महाबाहुरेकोऽमात्यान् विसृज्य तान् । नापश्यदाश्रमे तस्मिंस्मृषिं संशितव्रतम् ।। 65 – 1, सोऽपश्यमानस्तमृषिं शून्यं दृष्ट्वा तथाश्रमम् । उवाच क इहेत्युच्चैर्वनं संनादयन्निव ।। 65 – 2 ।।" राजा दुःषन्त की आवाज सुन कर तापसवेषधारिणी शकुन्तला बाहर आती है और उसका स्वागत करती है । लेकिन महाकवि की क्रान्तदृष्टि कालातिक्रमण करके इन दोनों की प्रथम मुलाकात कैसी आकारित हुई होगी ? वह सोचती है । नहीं, सोचती नहीं है, कवि की कल्पनादृष्टि देखती है कि यदि इस वन में इतने सारे भ्रमर गुञ्जारव करते हुए इधर-उधर उडते रहते है तो, जब शकुन्तला लताओं और वृक्षों को जलसिञ्चन कर रही होगी तब कोई भ्रमर उड कर शकुन्तला के वदनकमल पर मंडरा रहा होगा, और उसी वख्त राजा दुःषन्त उसको साहाय्य करने के लिए दौड गये होंगे ! कवि की कल्पनादृष्टि में, शकुन्तला को परेशान कर रहे किसी भ्रमर से छुडाने के लिए सानुक्रोश बने राजा का सहसा आपहुँचना और चाक्षुषप्रीति का होना ही नैसर्गिक था । महाभारत के वनों में घुमता भ्रमर कालिदास की कल्पना को पूरी तरह से झङ्कृत कर गया है । कोई माने या न माने, उसमें से ही हमें मिला है इस नाटक का भ्रमरबाधा-प्रसंग !! [ 5 ] महाभारत के वन-वर्णन में कहा गया है कि दुःषन्त वहाँ के कुसुमण्डित लतागृहोंवाले प्रदेशों को देख कर बहुत प्रमुदित हुआ । ऐसे प्रदेश मानव-मन में प्रीतिवर्धन कर रहे थे । वहाँ वृक्षों की जो हारमाला थी उसमें भी एक विशेष शोभा थी । उन लताओ और वृक्षों की शाखायें परस्पर में आश्लिष्ट थी । तथा वहाँ जो सुगन्धी वायु का सञ्चार था वह भी मानों वृक्षों को परस्पर में स्नेहबद्ध करने के लिए रिरंसायुक्त था । महाभारतकार के शब्दों को देखते हैः— तत्र प्रदेशांश्च बहून्कुसुमोत्करमण्डितान् । लतागृहपरिक्षिप्तान् मनसः प्रीतिवर्धनान् । संपश्यन् स महातेजा बभूव मुदितस्तदा ।। 64 – 11 परस्पराश्लिष्टशाखैः पादपैः कुसुमाचितैः । अशोभत वनं तत्तैर्महेन्द्रध्वजसंनिभैः ।। 64 – 12 ।। सुखशीतः सुगन्धी च पुष्पपरेणुवहोऽनिलः । परिक्रामन् वने वृक्षान् उपैतीव रिरंसया ।। 64 – 13 ।। लगता है कि कवि कालिदास ने इस वर्णन को पढ कर ही कल्पनाविहार करके देखा है कि मालिनी नदी के तट पर आये हुए इसी वन में लतागृहों से भरे प्रदेशों में दुःषन्त और शकुन्तला निर्जन स्थान में बैठे होंगे । उन दोनों की एकान्त प्रेमगोष्ठियां यहाँ ही हुई होगी । अतः शाकुन्तल नाटक के तीसरे अङ्क के अन्त में गौतमी आकर शकुन्तला को अपनी साथ में वापस ले जाती है, तब शकुन्तला ने अन्यापदेश से जो कहा है कि – अयि लतावलय (लतागृह) संतापहारक ! आमन्त्रये त्वां भूयोऽपि परिभोगाय । वह कवि की संवित्ति में कैसे प्रकट हुए होंगे वह समझ में आ जाता है ।। एवमेव, लताओं और वृक्षों की डालियाँ जो परस्पर में आश्लिष्ट हुई थी ऐसा वर्णन है उसको पढ कर ही शायद कवि कालिदास ने सोचा होगा कि इन परस्पराश्लिष्ट डालियों को देख कर क्या शकुन्तला ने कभी स्वयंवर विवाह का नहीं सोचा होगा ? कवि कहते है कि सोचा ही होगा । इस कल्पनाविहार में से ही, प्रथमांक का निम्नोक्त संवाद आकारित हुआ होगा : अनसूया – हला शकुन्तले, इयं स्वयंवरवधूः सहकारस्य त्वया कृतनामधेया वनज्योत्स्नेति नवमालिका । एनां विस्मृतासि । शकुन्तला – हला, रमणीये खलु काले एतस्य लतापादपमिथुनस्य व्यतिकरः संवृत्तः । नवकुसुमयौवना वनज्योत्स्ना, स्निग्धपल्लवतयोपभोगक्षमः सहकारः । ( पश्यन्ती तिष्ठति ) प्रियंवदा – अनसूये, जानासि किं शकुन्तला वनज्योत्स्नातिमात्रं पश्यतीति । अनसूया – न खलु विभावयामि । कथय । प्रियंवदा – यथा वनज्योत्स्नानुरूपेण पादपेन संगता, अपि नामैवम् अहमपि आत्मनोनुरूपं वरं लभेयेति । कण्व मुनि के आश्रम के आसपास परस्पराश्लिष्ट शाखाओं वाले लता एवं वृक्षों के स्वयंवर विवाह को देख कर भी तो शकुन्तला के मन में दुष्यन्त का वरण कर लेने का विचार आ सकता था । महाभारतकार ने इन दोनों के विवाह सम्बन्ध में जो कहा है वह तो बहुत कृत्रिम या प्राकृत नीरस विवाह-सम्बन्ध है ।। इतने सारे पुष्पमण्डित, भ्रमरगुञ्जित स्थान पर तो कुछ अन्यथा ही हो सकता था, जो क्रान्तदर्शी महाकवि कालिदास ने करके दिखाया है ।। [ 6 ] महाभारतकार ने कहा है कि मालिनी नदी के आसपास में स्थित उस वन में अनेक भ्रमरों के साथ में अनेक पक्षिओं का भी कलरव हो रहा था, और उसमें शामिल थे चक्रवाक पक्षी भी । वहाँ किन्नर गण, वानर और ऋक्ष ( भल्लुओं ) आदि भी थे । तथा मत्त हस्ती, शार्दूल एवं सर्पराज भी निवास करते थे । उसके तट पर आये आश्रम को देख कर राजा ने उसमें जाने का विचार किया । नदीमाश्रमसंश्लिष्टां पुण्यतोयां ददर्श सः । सर्वप्राणभृतां तत्र जननीमिव विष्ठिताम् ।। 64 – 20 सचक्रवाकपुलिनां पुष्पफेनप्रवाहिनीम् । सकिन्नरगणावासां वानररर्क्षनिषेविताम् ।। 21 पुण्यस्वाध्यायसंघुष्टां पुलिनैरुपशोभिताम् । मत्तवारणशार्दूलभुजगेन्द्रनिषेविताम् ।। 22 नदीमाश्रमसंबद्धा दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं तथा । चकाराभिप्रवेशाय मतिं स नृपतिस्तदा ।। 23 ऐसी वैविध्यपूर्ण जीवसृष्टि से भरे वन में से शकुन्तला जब हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान करती है, तो महाभारतकार ने केवल इतना ही कहा है कि शकुन्तला अपने विदित वन में से निकल कर दुःषन्त के पास पहुँची । [ "गृहीत्वामरगर्भाभं पुत्रं कमललोचनम् । आजगाम ततः शुभ्रा दुःषन्तं तरुणादित्यवर्चसा ।। (68-13)" । ] लेकिन कालिदास की क्रान्तदृष्टि ने देखा है कि इतनी निर्ममता से इन पक्षिओं ने शकुन्तला को नहीं जाने दिया होगा । वन में से बिदा ले रही शकुन्तला को देख कर जरूर कोई चक्रवाक पक्षी ने संकेत दिया ही होगा शकुन्तला एक दुष्कर कर्म कर रही है । कालिदास की काव्यसृष्टि में कहा गया है कि शकुन्तला की विदा को देख कर विषादग्रस्त चक्रवाक पक्षी भी अपनी प्रियतमा से उदासीन होकर, शकुन्तला की ओर उन्मुख हो गया है, और चक्रवाकी के पुकार ने पर भी उत्तर नहीं दे रहा है । जिसको देखते ही शकुन्तला की समझ में आ जाता है कि वह भी जब पति के पास जायेगी, वहाँ अपना घर बसायेगी, और कदाचित् पतिदेव किसी कार्यवशात् घर जल्दी से वापस नहीं लौटेंगे, तो उनका क्या होगा ? प्रेमाविष्ट हृदयवाली चक्रवाकी यदि नलिनीपत्रान्तरित चक्रवाक को एक क्षण के लिए भी नहीं देख पाती है तो वह जैसे एकदम क्रन्दन करने लगती है तो मेरा क्या होगा ? शकुन्तला से कालिदास ने कहलाया है कि दुष्करमहम् करोमि । कवि के शब्द इस तरह लिपिबद्ध हुए हैः— अनसूया – सखि, न स आश्रमपदेSस्ति कोSपि चित्तवान् यस्त्वया विरह्यमाणया नोत्सुकः कृतोSद्य । पश्य तावत् – पद्मिनीपत्रान्तरितां व्याहृतो नानुव्याहरति प्रियाम् । मुखोदूढमृणालस्त्वयि दृष्टिं ददाति चक्रवाकः ।। ( शाकु. अङ्क – 4 ) – यह सब कालिदास की कल्पना में कहाँ से आया होगा ? इसका मूल स्रोत महाभारत का उपर्युक्त वन-वर्णन ही है, और बाकी जो भी है वह कालिदास की क्रान्तदृष्टि ने देखा हुआ कन्याबिदाई का करुणरस आप्लावित कण्वाश्रम का परिसर ! । इति दिङ्न्याय से प्रस्तुत किये गये इन उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि स्थलकाल का अतिक्रमण करनेवाली कालिदास की कविदृष्टि ने कण्वमुनि के आश्रम में दुष्यन्त-शकुन्तला की जो प्रेमगोष्ठियाँ हुई होगी उसकी निसर्गाच्छादित पृष्ठभूमि कैसी कामोत्तेजक एवं आत्मीयता युक्त होगी वह अपरोक्षानुभूति के रूप में देख लिया है । ऐसी कल्पनादृष्टिवाला कवि ही हमें पतिगृह की ओर जा रही शकुन्तला का पल्लु पकड कर रोक रहे दीर्गापाङ्ग मृग का दर्शन करा सकता है ।। उपसंहार : मूल महाभारत की जो कहानी है वह दुःषन्त-शकुन्तला की केवल विवाहकथा है, जिसको हम किसी भी तरह से प्रणयकथा नहीं कह सकते है । इस विवाहकथा में इन दोनों के अलावा जो एक अन्य पात्र है वह कण्व मुनि है । लेकिन कालिदास ने शकुन्तला के ही दो तरह के व्यक्तित्वों की कल्पना करके उन दोनों व्यक्तित्वों को प्रियंवदा और अनसूया जैसी दो सहेलियों के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया है । वह उनकी कल्पनाशक्ति का ही आविष्कार मानना होगा । इसी तरह से अन्यान्य पात्र के लिए भी कहा जायेगा । लेकिन इस नाटक में मानवों के उपरान्त जो एक मानवेतर पशु, पक्षी, लता-वृक्षादि की सृष्टि है वह कवि की क्रान्तदृष्टि का चमत्कार है ।। दुष्यन्त-शकुन्तला की प्रणयकथा तो रंगभूमि पर क्रमशः प्रस्तुत हो ही रही है, लेकिन उनके साथ साथ में पृष्ठभूमि में वही प्रणयकथा निसर्ग में भी चल रही है, वह कवि कालिदास ने बार बार दिखाया है । जैसे कि, नवमालिका और सहकार वृक्ष का स्वयंवर, जन्म दे कर जिसकी माता मर गई थी और जिसका शकुन्तला के हाथ से संवर्धन हुआ था ऐसा मृगपोतक एक ओर, तो दूसरी ओर शकुन्तला को जन्म देकर मेनका का स्वर्ग में चला जाना, एक ओर गर्भमन्थरा हरिणी को देख कर उसके अनघप्रसवा होने की चिन्ता, तो दूसरी ओर आपन्नसत्त्वा शकुन्तला का पतिगृह की ओर प्रयाण करना .... इत्यादि । एक पार्श्व में मानवजीवन का प्रवाह, तो दूसरे पार्श्व में उससे मिलता-जुलता निसर्गस्थित लता-वृक्ष एवं पशु-पक्षिओं का जीवनप्रवाह ! एक रंगमंच पर दो दो सृष्टियाँ सजीव साकार करके अभिनीत की जा रही है !! और उसकी अद्वितीयता इस बात में है कि दोनों सृष्टियाँ अविनाभाव सम्बन्ध से परस्पर में सुसंयोजित है !!! अन्त में इतना ही कहना होगा कि कालिदास को महाभारत में से दुष्यन्त-शकुन्तला की केवल विवाहकथा ही नहीं मिली थी, बल्कि मालिनी नदी के परिसर में फैली हुई नैसर्गिक सृष्टि में बीज रूप से बोई हुई प्रणयकथा भी वहीं से मिली थी !!!! अतः अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की शब्दसृष्टि में जो सार्वभौम दर्शकों में एकसमान संवेदना उद्दीपित करने का अद्वितीय सामर्थ्य है, उसका रहस्य उपर्युक्त सन्दर्भों में देखना चाहिए ।। ------ 888888 ------ सन्दर्भ-ग्रन्थ सूचि ।। 1. The Abhijnanasákuntalam of Kalidasa, Ed. M.R. Kale, Motilal Banarasidass, Delhi, 1969 2. अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( राघवभट्टस्यार्थद्योतनिकया टीकया समलंकृतम् ), सं. नारायण राम, प्रका. राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नव देहली, 2006 3. महाभारत आदिपर्वन् । सं वी. एस. सुकथंकर, भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट, पूणें, 1933 4. ध्वन्यालोकः । सं. आचार्य विश्वेस्वर, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, 1984 5. शाकुन्तल । सं. एवं गुजराती-अनुवादक श्री उमाशङ्कर जोशी, गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदावाद, 1988, ( तृतीयावृत्ति ).