मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

लोकसङ्ग्रह के लिये क्या महाभारत का युद्ध अनिवार्य था ?

‘लोकसंग्रह’ के लिए क्या महाभारत का युद्ध अनिवार्य था ?
वसन्तकुमार म. भट्ट
आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग,
निदेशक, भाषासाहित्यभवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380 009

( अन्ता-राष्ट्रिय-संस्कृत-सम्मेलन, युनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान, 18 – 20 जुलाई, 2009, जयपुर )

भूमिका – ब्राह्मण-संस्कृति के वैदिक यागों में पशुबलि दिया जाता था – यह एक स्वीकृत हकीकत है । ऐसी यज्ञीय-हिंसा हिंसा नहीं कहलाती है – इस मत की स्थापना का प्रयास भी किया जाता रहा है । परन्तु भगवान् बुद्ध और महावीर ने ऐसी पशुहिंसा का विरोध किया, और अहिंसा के विचार को लेकर श्रमण-संस्कृति को आकारित की । इस तरह देखा जाय तो धर्म के नाम पर होनेवाली हिंसा और तद्-विषयक चिन्तन एक आरम्भिक सोपान है । लेकिन आगे चल कर, युद्ध में होनेवाली हिंसा भी कितनी उचित एवं अनिवार्य है – यह भी विचारणा का विषय बना है । ब्राह्मण-संस्कृति में राम-रावण का युद्ध तथा कौरव-पाण्डवों का युद्ध भी ऐतिहासिक हकीकत है । अतः इन दोनों युद्धों में हुई हिंसा का औचित्य एवं अनिवार्यता भी चर्चा का विषय बनता रहता है ।
प्रस्तुत आलेख में महाभारत के युद्ध में हुई हिंसा को केन्द्र में रख कर महर्षि व्यास की दृष्टि, और इस सन्दर्भ में धर्मशास्त्र तथा नीतिशास्त्र का भी चिन्तन क्या रहा है – इसको ध्यान में रखते हुए, “ अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः ” की सृष्टि में युद्ध विषयक हिंसा के बारे में कौनसा मौलिक और जो पूर्णतया मनो-वैज्ञानिक भी हो ऐसा चिन्तन उपलब्ध है यह सोचने का उपक्रम है ।। व्यास की दृष्टि में निश्चित प्रकार के युद्ध में हिंसा अनिवार्य है, परन्तु भास की सृष्टि में वह नितान्त आभासिक है । सूक्ष्म दृष्टि से सोचा जाय तो भास का यह चिन्तन सार्वकालिक सत्य है – ऐसी प्रतीति भी होती है । आधुनिक विद्वानोंने स्वप्नवासवदत्तम् रूपक को लेकर कवि भास को मनोवैज्ञानिक चिन्तनवाले कवि कहे है, परन्तु पञ्चरात्र रूपक को लेकर भास की मनोवैज्ञानिक चिन्तनधारा को उजागर करने का प्रयास हुआ है कि नहीं – यह हम नहीं जानते है । विशेष रूप से, युद्धमात्र में अवश्यंभावी हिंसा की अनिवार्यता के बारे भास का क्या क्रान्तदर्शन है वह प्रस्तुत आलेख का प्रतिपाद्य विषय है ।।

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मानवेतर प्राणीसृष्टि में जीवो जीवस्य भोजनम् – का निसर्गसिद्ध व्यवहार दृष्टिगोचर होता है । परन्तु जब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य की हिंसा की जाती है तब उसके औचित्य का सवाल उठता है । इस सन्दर्भ में ब्राह्मण संस्कृति के प्राचीन धर्मशास्त्र कहेते हैं कि – जो आततायिन् है उसका तो वध करना ही चाहिये । यहाँ ‘आततायिन्’ शब्द की व्युत्पत्ति कहेती है कि – आततेन विस्तीर्णेन शस्त्रादिना अयितुम् शीलम् अस्य ।। अर्थात् खुले शस्त्र को ले कर जो वध करने के लिये आ रहा है, वह आततायिन् है ।
मनुस्मृति में कहा गया है कि –
गुरुं वा बाल-वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनम् आयान्तं हन्याद् एवाविचारयन् ।। मनु. 8 – 350

अर्थात् – गुरु हो, बालक हो, वृद्ध हो या बहुश्रुत ब्राह्मण हो – लेकिन वह शस्त्र लेकर वध करने को यदि आ रहा हो तो, ऐसे आततायी को तो बिना कोई विचार किये मार ही डालना चाहिये ।। इसके पुरोगामी श्लोकों में, धर्म का अवरोध होने पर भी हिंसा की अनुमोदना की गई हैः--
शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते ।
द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते ।।
आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च संगरे ।
स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन् धर्मेण न दुष्यति ।। मनु. 8 – 348,349*
इस तरह धर्मशास्त्र में, निश्चित सन्दर्भों में हिंसा को अनिवार्य बतायी है । यहाँ पर हिंसा के औचित्य पर या कोई वैकल्पिक उपाय के लिए चिन्तन करने की आवश्यकता ही नहीं सोची गई है । उपर्युक्त श्लोक में, बिना कुछ सोचे ही, आततायी को आते देख कर ही उसका वध कर देने का आदेश दिया गया है । ( यहाँ एवकार घटित हन्याद् क्रियापद ध्यानास्पद है ) अर्थात् आततायिवध के सन्दर्भ में स्पष्ट शब्दों में हिंसा की अनुमोदना की गई है, और उसकी अनिवार्यता भी मानी गई है ।

शुक्राचार्य ने धर्मशास्त्र की ऐसी आज्ञा को देख कर, षड्-विध आततायियों की गिनती भी की हैः- 1. अग्नि में जला देनेवाला, 2.विष देनेवाला, 3. शस्त्र उठा कर आनेवाला, 4. धन की चोरी करनेवाला, 5. खेत की जमीन ले लेनेवाला, और 6. पत्नी का अपहरण करनेवाला – ये सब आततायिन् है ।

अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रोन्मत्तो धनापहः ।
क्षेत्रदारहरश्चैतान् षड् विद्याद् आततायिनः ।। - शुक्रनीतिः
कुल्लुकभट्ट ने उशनस् का मत भी उद्धृत किया है कि – गृहीतशस्त्रम् आततायिनं हत्वा न दोषः । ( मनुस्मृति 8-350 )
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* मनुस्मृतिः ( कुल्लुक भट्टटीका सहिता ), सं. जगदीशलाल शास्त्री, प्रका.- मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, 1983, पृ. 333 – 334
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महाभारत में कृष्ण द्वैपायन व्यास ने अनेक प्रसङ्गों पर हिंसा का समर्थन किया है और उनका औचित्य सिद्ध करने के लिये बहुशः धर्म को आगे किया है । उदाहरण रूप में देखे तो – 1. और्व भार्गव ने जब कार्तवीर्यों को मार कर पृथिवी के सभी क्षत्रियों का वध करने के लिये उग्र तपश्चर्या की - तब उसने इसका हेतु यह बताया था कि –
जानन्नपि च यः पापं, शक्तिमान् न नियच्छति ।
ईशः सन् सोSपि तेनैव कर्मणा संप्रयुज्यते ।। - महा. 1 -171 -11

“ पापाचार को जाननेवाला व्यक्ति शक्तिमान् होते हुये भी यदि उसे नहीं रोकता है तो वह ईश्वर होगा तो भी वही पापकर्म से लिप्त होगा ”।। - इस तरह से पापाचार को रोकने के लिये हिंसा को न केवल अनुमति दी गई है, परन्तु शक्तिमान् व्यक्ति को
कर्मबन्धन का भय दिखा कर हिंसा के लिये बाध्य भी किया गया है । एक तरह से पापाचार को रोकने के लिये हिंसा को धर्माचार माना गया है ।

यही बात जरासन्ध-वध पर्व में भी लागु की गई है । जरासन्धने 84 राजाओं को कैद किये थे । वह इनसे नरमेध याग करना चाहता था । अतः श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम उसके महल में जा कर द्वन्द्व-युद्ध की माँग करते है । वे मानते है कि यदि उन पाण्डवों के होते जरासन्ध नरमेध यज्ञ करेगा तो, वे भी उनके पापभागी बनेंगे ।
त्वया चोपहृता राजन् क्षत्रिया लोकवासिनः ।
तदागः क्रूरमुत्पाद्य मन्यसे किम् अनागसम् ।
राजा राज्ञः कथं साधून् हिंस्यान्नृपतिसत्तम ।
तद् राज्ञः संनिगृह्य, त्वं रुद्रायोपजिहीर्षसि ।।
अस्मांस्तदेनो गच्छेद्हि कृतं बार्हद्रथ त्वया ।
वयं हि शक्ताः धर्मस्य रक्षणे धर्मचारिणः ।। - सभापर्वणि जरासन्धपर्व, 22 ( 8-10 )

इस प्रसङ्ग में श्रीकृष्ण हिंसा से हिंसा को रोकना चाहते है । अन्त में ऐसा होता भी है । अर्थात् व्यास ने ( नरमेध-याग की ) हिंसा के पापाचार को रोकने के लिये हिंसा का ही मार्ग प्रशस्त किया है ।
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महाभारत की मुख्य कथा को लेकर देखा जाय तो महर्षि व्यास ने कौरवों को आततायिन् कहे है । तथा शुक्राचार्य के पूर्वोक्त श्लोकों में, पापाचार करनेवाले षड्विध व्यक्तियों को आततायियों के रूप में गिनाये है वे सभी पापाचार कौरवों में घटित होते हैं । अतः महाभारत में कौरवों की हिंसा को अनिवार्य मानी गई है । विशेष में, कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण के मुख से महाभारत के युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी दी गई हैः--
स्वधर्मम् अपि चावेक्ष्य न विकम्पितुम् अर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोSन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ।। भ.गी. 2 – 31
अथ चेत् त्वमिमम् धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिञ्च हित्वा पापम् अवाप्स्यसि ।। भ.गी. 2 – 33

महाभारत के सर्वविनाशक हिंसापूर्ण युद्ध की अनिवार्यता सिद्ध करने के लिये श्रीमद्-भगवद् गीता में, भगवान् श्री कृष्ण ने कहा ही है कि – इन आततायीयों को नहीं मारने से तो ( अर्थात् कहेने के लिये अहिंसा का आश्रयण करनेवाला ) गाण्डीवी अर्जुन कर्मबन्धन में जरूर फंसेगा और पापभागी बनेगा । आज द्रौपदी का वस्त्राहरण हुआ है, कल किसी दूसरी स्त्री का भी ऐसा ही हाल ये आततायीलोग कर सकते है । अतः वे सब वध के योग्य है । इस तरह लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुये भी कौरवों और कौरवानुयायी अन्य राजाओं का वध करना आवश्यक है, बल्कि अनिवार्य है । इस लिये इस युद्ध को धर्म-युद्ध कहा गया है । श्रीकृष्ण के शब्द देखें तो –

अथ चेत् त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।। श्रीमद् भगवद् गीता, 2-33

इस तरह से, लोकसंग्रह के तात्त्विक विचार को यदि आगे किया जाय तो ब्राह्मण-संस्कृति में, आततायियों की हिंसा करने में ही धर्म है । ऐसे सन्दर्भ में अहिंसा को गर्ह्य मानी है । फलतः लोकसंग्रह के विचार को लेकर होनेवाले धर्म-युद्ध में हिंसा अनिवार्य मानी गई है ।।
* * * * *
ईश्वर के अवतार का हेतु भी यही बताया गया है कि - परित्राणाय साधूनाम्, विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।। ( श्रीमद्भगवद् गीता, अ. 4-8 ) दुष्कर्म करनेवालों का विनाश किया जाय और सज्जनों की रक्षा की जाय – इसी लिए ईश्वर हर युग में अवतार लेते है । सारांशतः - ब्राह्मण-संस्कृति की दृष्टि में सज्जनों की रक्षा के लिये, दुष्टों का वध अनिवार्य है ।। विश्वरूप-दर्शन में भी श्रीकृष्ण के मुख से कहा गया है कि –
कालो S स्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेS पि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येSवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः । भगवद्गीता,(11–32) मतलब कि - अर्जुन नहीं मारेगा तो खुद श्रीकृष्ण इन सब कौरवों को जिन्दा नहीं छोडेंगे ।। ( और श्रीकृष्णने महाभारत-युद्ध के दौरान दो बार शस्त्र उठाया था – ऐसा व्यासजी ने कहा भी है । ) इन सन्दर्भों से स्पष्ट होता है कि महाभारत के धर्मयुद्ध में हुई हिंसा की अनिवार्यता महर्षि व्यास ने अत्यन्त दृढतापूर्वक कही है ।।
* * * * *
जब महर्षि व्यास ने महाभारत-युद्ध की हिंसा को अनिवार्य सिद्ध करने के लिए उसके पीछे, लोकसंग्रह की वैचारिक भूमिका रखी है, और ईश्वर के अवतार स्वरूप श्रीकृष्ण के मुँह से उसे धर्मयुद्ध की संज्ञा भी दी है ( तथा अन्ततोगत्वा – यतो धर्मस्ततो जयः का निष्कर्ष भी दिया है ) तब ऐसे आर्ष महाकाव्य ( Epic ) में वर्णित युद्ध-विषयक हिंसा को लेकर, उत्तरवर्ती काल में किसी भी चिन्तक ने इसके औचित्य का प्रश्न नहीं उठाया है । महर्षि व्यास की विचारधारा के विरोध में कोई विवाद उठाने का या अन्यथा-चिन्तन प्रस्तुत करने का साहस किसी ने नहीं जुटाया है ।

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परन्तु, कवि क्रान्तद्रष्टा होते है । जो अतीत में घटी घटनाओं को एवं भविष्य में होनेवाली घटनाओं को अपरोक्ष स्वरूप में देखते है । क्रौञ्चपक्षी के आक्रन्द से स्पन्दित हुआ वाल्मीकि का हृदय दाशरथि राम के जीवन का ‘ इतिहास ’ देखता है, और रामायण नामक आदिकाव्य की रचना होती है । उसी तरह से, ‘ महाभारत ’ नामक इतिहास को पढ कर कवि भास के हृदय में जो संवेदनायें झङ्कृत हुई होगी, उसने कवि भास को महाभारतयुद्ध के लिये कुछ चिन्तन करने के लिये प्रेरित किया । महाभारत को पढने के बाद, किसी भी पाठक के मन में ऐसे प्रश्न उठते है कि – इतना विशाल और सुसमृद्ध कुरुवंश क्यूं नामशेष हो गया, इस महासंग्राम में प्राचीन भारत के असंख्य महायोद्धाओं का विनाश क्यूँ हुआ ? वस्तुतः क्या यह युद्ध अनिवार्य था ?, तथा गुरु द्रोण, पितामह भीष्म, और युगपुरुष कृष्ण की उपस्थिति में क्या ऐसा युद्ध टल नहीं सकता था ? ऐसे प्रश्नों को ले कर, सामान्य मनुष्य का चित्त युद्ध की वेदना से केवल पीडित हो सकता है । लेकिन उसके पास इसका कोई समाधान नहीं होता है । परन्तु जो कवि होते है इनके पास प्रातिभ-दर्शन होता है । वे न केवल युद्ध की पीडाजनक संवेदनाओं का अनुभव करते हैं, वे तो ऐसे सन्दर्भो को लेकर उसका समुचित विश्लेषण भी करते है और अपूर्व दृष्टि से कुछ अन्यथा-चिन्तन भी करते है । जो भावी पिढी को युग-युगान्तर में भी मार्गदर्शक बनते है । ऐसे चिन्तन को कवि-दर्शन कहते है ।
भास के मन में उठे युद्ध विषयक विश्लेषणात्मक चिन्तन ने जब सर्जन का रूप लिया तो दूतवाक्य, दूतघटोत्कच, कर्णभार, ऊरूभङ्ग और पञ्चरात्र जैसी रूपक-श्रेणी का साहित्यजगत् में अवतार हुआ । उनमें से, प्रस्तुत चर्चा के अनुसन्धान में हमारे लिए दो रूपक – 1. दूतवाक्य, एवम् 2. पञ्चरात्र – ध्यानास्पद है ।
इस रूपकद्वय के माध्यम से भास ने अपनी दृष्टि से, महाभारत-युद्ध के दो परस्पर विमुख पक्षों को दर्शकों के सामने रखे हैं । प्रथम पक्ष में – भास ने युद्ध की अनिवार्यता के बीजभूत कारण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है । और दूसरे पक्ष में महाभारत-युद्ध के मूल में जो लोकसंग्रह का हेतु कहा गया है एवम् उसको धर्मयुद्ध की संज्ञा देकर उसकी अनिवार्यता सिद्ध की गई है, उस पर सर्जनात्मक दृष्टि से पुनर्विचार किया है । इस पुनर्विचार से दर्शकों को ऐसी प्रतीति करवाई है कि – लोकसंग्रह की सिद्धि केवल युद्ध से ही होती है ऐसा जो व्यास का मानना था वह नितान्त गलत है । अर्थात् महाभारत का युद्ध सर्वथा निवार्य नहीं ही था – ऐसा नहीं है । क्योंकि – यहाँ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सोचा जाय तो कोई भी व्यक्ति सर्वथा युद्धखोर नहीं होता है । बारिकी से देखा जाय तो दुर्योधन दुराराध्य था, परन्तु असाध्य व्यक्ति नहीं था ।
( भास की दृष्टि में दुर्योधन में भी कुछ सच्चाई थी – यह बात उन्होंने ऊरुभङ्ग में दर्शायी है । ) 1
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अब भास के चिन्तन का प्रथम पक्ष देखा जाय तो – भास ने दूतवाक्य में महाभारत-युद्ध के तीन कारणों का विश्लेषण किया है । जैसा कि – दूतवाक्य के आरम्भ में चित्रपट प्रसंग से यह ध्वनित किया गया है कि ( 1.) कौरवों ने अपने ही बान्धवों की पत्नी का वस्त्राहरण रूप पापाचार किया है ( और उसका ही चित्रपट बनवा कर वे इस पापाचार को चिरस्थायी रूप भी देना चाहते है ), अतः यह पापग्रस्त कुरुवंश विनाश के योग्य ही है । ( 2.) इस रूपक में श्रीकृष्ण और दुर्योधन के बीच जो संवाद हुआ है उसमें दुर्योधन के लिए आहवदर्प और अनुक्तग्राही – ऐसे दो विशेषणों का प्रयोग किया गया है । - इन विशेषणों से महाभारत के युद्ध की अनिवार्यता दिखाई गई है । कोई राजा ने जब लडाई करने की जीद ही कर ली है, तो युद्ध टल नहीं सकता । कृष्ण स्वयम् दूत बनके गये है और कौरवों के हित की बात बता रहे है, परन्तु दुर्योधन किसी का सुनना नहीं चाहता है । क्योंकि, भास कहते है कि वह उक्तग्राही नहीं है । अतः श्रीकृष्ण का दूतकर्म निष्फल जाता है । लेकिन जो तीसरा कारण है वह, ( 3.) इस रूपक के मङ्गलश्लोक में बहुत सूचक रूप से व्यञ्जित किया हैः- पादः पायाद् उपेन्द्रस्य सर्वलोकोत्सवः स वः ।
व्याविद्धो नमुचिर्येन तनुताम्रनखेन खे ।। दूतवाक्यम् (1 – 1)
इसमें कहा गया है कि – भगवान् उपेन्द्र का वह पाद सभी सामाजिकों का रक्षण करें, जिस पाद ने नमुचि नामक राक्षस का वध किया था । भगवान् विष्णु ने तो अनेक
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1. अक्षव्याजजिता वनं वनमृगैर्यत्पाण्डवाः संश्रिता, नन्वल्पं मयि तैः कृतम्......।
ऊरुभङ्गम् – श्लोकः-63

राक्षसों का वध किया था, उनमें से भास ने केवल नमुचि का ही नामस्मरण क्यों किया – यह प्रश्न विचारणीय है । तो मालुम होता है कि यहाँ नमुचि शब्द का प्रयोग साभिप्राय है । दुर्योधन के मन में जो नमुचिवृत्ति रही है – वही महाभारत के युद्ध का मूलभूत उद्भव कारण है । किसी पराये का धन ले लेकर, उसको वापस नहीं देने की जो मनोवृत्ति है – वही नमुचिवृत्ति है । यही मनोवृत्ति से बधे दुर्योधन द्वारा श्रीकृष्ण के हितकारक और समाधानकारक वाक्य सुने नहीं जाते है । भास मनुष्य-चित्तवृत्ति का बडा मर्मज्ञ है और उद्घाटक भी है । इस लिए उसने केवल एक नमुचि शब्द से ही महाभारत के घोर हिंसा भरे युद्ध का मूलस्थानीय कारण आरम्भ में ही व्यञ्जित कर दिया है । दुर्योधनादि कौरवों ने वस्त्राहरणादि के पापाचार तो बाद में किये, लेकिन युद्ध का बीजस्थानीय मनोवैज्ञानिक कारण तो नमुचिवृत्ति है, जिसे कहनेवाले कवि भास न केवल प्रथम है, अद्वितीय भी है ।।

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दूसरे पक्ष को देखे तो उसमें, कवि भास पञ्चरात्र रूपक के माध्यम से, अलबत्ता अप्रकट रूप से, सोचते है कि ( व्यासोक्त ) लोकसंग्रह का हेतु क्या हिंसात्मक युद्ध से ही सिद्ध किया जा सकता है ? तो लगता है कि भास कवि का चित्त कुछ और ही सोचता है । भास की दृष्टि में लोकसंग्रह के लिए भी युद्ध अनिवार्य नहीं है । इस संसार में कोई भी मनुष्य सर्वथा दुष्ट या असाध्य नहीं है । ( मूल महाभारत में भी दुर्योधन बोला ही है कि – जानामि धर्मम्, न च मे प्रवृत्तिः । जानाम्यधर्मम्, न च मे निवृत्तिः ।। ) अतः दुर्योधन को यदि कोई मौके पर शिक्षित / दीक्षित किया जाय तो वह भी धर्मिष्ठ व्यक्ति बन सकता है । गुरु द्रोण एवम् पितामह भीष्म ने यदि कोई बार / एक बार भी प्रयास किया होता तो यह महाभारत का युद्ध अवश्य टल सकता था । जैसा कि एक सुभाषित में कहा गया है कि –
अमन्त्रम् अक्षरं नास्ति, नास्ति मूलम् अनौषधम् ।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः ।।

इस संसार में कोई पुरुष अयोग्य है ही नहीं । दुर्योधन जैसा पापाचारी, नमुचि, दुष्ट व्यक्ति भी काम का आदमी है । बस जरूरत है एक सद्गुरु की । यदि अयोग्य व्यक्ति का सम्यक् प्रयोजक व्यक्ति मिल जाय तो दुर्योधन जैसा नमुचि भी सुयोग्य व्यक्ति बन सकता है । और कुलविग्रह के स्थान पर कुलसंग्रह हो सकता है । ( अर्थात् लोकसंग्रह के लिए धर्मयुद्ध की भी आवश्यकता नहीं रहेती है । )- इसी नये चिन्तन को चरितार्थ करने के लिए पञ्चरात्र रूपक का प्रवर्तन हुआ है ।

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त्रि-अङ्की पञ्चरात्र रूपक के आरम्भ में कवि भास ने विष्कम्भक रखा है । जिसमें यज्ञशाला में व्यापक रूप से लगी भीषण आग का वर्णन है । परन्तु कवि इस भीषण आग का कारण तो केवल बटुचापल ही है – ऐसा बताते हैः—

सर्वे – भो भो माणवकाः, भो भो माणवकाः, अनसितेSवभृथस्नाने न खलु
तावद् अग्निरुत्स्रष्टव्यो भवद्भिः ।
प्रथमः – हा धिक् ... दर्शितमेव तावद् बटुचापलम् ।
( पञ्चरात्रम् – 1-6, पृ.374 )
इस के बाद यज्ञशाला में फैली आग का वर्णन दिया गया है । आग में यज्ञशाला की घृतशकटी भी जल कर खाख हो जाती है । इस तरह यज्ञशाला की एक आग के रूपकात्मक वर्णन से कवि भास ने महाभारत का युद्ध एक बालिशता का ही परिणाम था – यह पहेले सूचित कर दिया है । किन्तु कौरवों की सभा में बुजुर्गों के होते महाभारत के इतिहास में कुछ अन्यथा भी हो सकता था – इसका जो कविदर्शन है वह विष्कम्भक के बाद में रखे गये अङ्कों में दिखाया गया है । प्रथमाङ्क के आरम्भ में ही, गुरु द्रोण की एक मान्यता स्पष्ट शब्दों में रखी गई है कि –

अतीत्य बन्धून् अवलङ्घ्य मित्राण्याचार्यम् आगच्छति शिष्यदोषः ।
बालं ह्यपत्यं गुरवे प्रदातुर्नैवापराधोSस्ति पितुर्न मातुः ।।
( पञ्चरात्रम् 1 –19, पृ.377 )
“ बाल्यावस्था में हीं गुरु के आश्रम में भेजा गया कोई छात्र यदि दुषित चरित्रवाला निकलता है तो उसमें गुरु का ही दोष गिना जायेगा, उसमें दोस्तों का, या माता का, या पिता का कोई अपराध नहीं माना जायेगा ।। ” –अर्थात् शिक्षण-जगत् में गुरु की भूमिका भी लोकसंग्रह के कर्तव्य से संयुक्त ही है । 2
यद्यपि शकुनि के कुसङ्ग में दुर्योधन दुराराध्य बन गया था, और इसी लिए द्रोण ने जब गुरु-दक्षिणा के रूप में पाण्डवों के लिए राज्यार्ध माँग लिया तब शकुनि ने पाँच रात्रि में पाण्डवों को गुरु द्रोण ढूँढ लावें तो दुर्योधन राज्यार्ध देगा – ऐसी शर्त दाखिल करवा दी है । गुरु द्रोण ऐसी असम्भव शर्त को सुन कर क्षण भर के लिए तो क्षुब्ध हो जाते है । परन्तु उपर्युक्त लोकसंग्रहकारिणी याचना को विचक्षण भीष्म की बुद्धि का सहयोग मिल जाता है । भीष्म ‘किचकों का किसी ने अशस्त्र वध किया है’ -------------------------------------------------------------------------------------------------------2. मूल महाभारत के द्रौपदी-वस्त्राहरण प्रसंग में गुरु द्रोण एवं पितामह भीष्म अपने आप को अर्थदास कहे कर, एक प्रकार की निन्द्य उदासीनतापूर्वक बैठे रहे है । परन्तु भास ने यहाँ पञ्चरात्र में दोनों वरिष्ठ व्यक्तियों को पूरे सक्रिय किये है ।



ऐसा सुनकर द्रोण को शकुनि की शर्त स्वीकार कर लेने को कहते है । और बाद में
“ विराट दुर्योधन के यज्ञ में नहीं आया है, इस लिए विराट की गायों का ग्रहण किया जाय ” - ऐसा सुझाव देकर भीष्म कौरव-सैन्य को साथ में ले जाकर गोग्रहण का निमित्त बना के पाण्डवों को प्रकट करने में सफल होते है । परिणामतः दुर्योधन गुरुदक्षिणा के रूप में पाण्डवों को राज्यार्ध दे देता है और महाभारत का युद्ध होता ही नहीं है । भास इस तरह दिखा देते है कि लोकसंग्रह का आदर्श तो समाज के प्रत्येक महिमावन्त व्यक्ति को जीवन में चरितार्थ करने का यथाशक्य प्रयास करना चाहिये । ( युद्ध टालने की जिम्मेदारी ईश्वरीय अवतार की नहीं है, वह तो हम सब मनुष्यों का कर्तव्य है । ) और नमुचि दुर्योधन शकुनि के संग में दुराराध्य अवश्य था, परन्तु असाध्य नहीं था । दुर्योधन के मन में पाण्डवों के प्रति द्वेष था, परन्तु द्रोण के प्रति तो गुरुभक्ति थी ही । अतः किसी मौके पर द्रोण यदि सक्रिय होते तो, लोकसंग्रह का शिवसंकल्प रखनेवाले इस गुरु को कदाचित् पितामह भीष्म का भी सहयोग मिल ही गया होता । और महाभारत का युद्ध टल सकता था – यह कवि भास का दर्शन है ।
दूसरी ओर देखे तो दुष्टों के जीवन में भी ऐसी कोई क्षण अवश्य आती है कि जिसमें वो अभिमानवशात् भी कुछ अच्छा काम कर लेते है । यज्ञ पूरा होने पर दुर्योधन गुरु द्रोण को दक्षिणा माँगने को कहता है । हिचकिचाहट अनुभव करनेवाले गुरु को दुर्योधन कहेता हैः—

स्वच्छन्दतो वद किमिच्छसि, किं ददानि
हस्ते स्थिता मम गदा, भवतश्च सर्वम् ।। - पञ्चरात्रम् 1 - 29

यहाँ पर ददानि – ऐसा जो क्रियापद है, वह ध्यानास्पद है । - गुरुभक्ति की ऐसी कोई क्षण हाथ लग जाय और तुरन्त उसका विनियोग किया जाय तो भी युद्ध टल सकता है । सूक्ष्म अर्थ में इसी को हमे गुरु एवं पितामह द्वारा किया गया ‘गोग्रहण’ समझना चाहिये । ( शिष्य की इन्द्रियों का निग्रह भी गोग्रहण ही है । जिससे शिष्य की नमुचिवृत्ति संयत / अवनत की जा सकती है ) यही होगा कवि भास का महाभारत-युद्ध विषयक अन्यथा-चिन्तन । हिंसा भरे महाभारत के इतिहास को पढने के बाद भास के चित्त में जो कविदर्शन झलक रहा है वह शायद यही है । इसी कविदर्शन से प्रेरित होकर भास ने पञ्चरात्र के आरम्भ में ही कहा है कि –

नृपे दीक्षां प्राप्ते, जगदपि समं दीक्षितमिव ।। - पञ्चरात्रम् 1 – 3

यदि राजा को ही एक बार अच्छे कार्य के लिये दीक्षित करलो, तो परिणामतः पूरा जगत् दीक्षित हो ही गया है ऐसा जान लीजिये । इसके पश्चात् ही नमुचिवृत्ति के कारण, या बालिशतावशात् होनेवाले युद्ध को टाला जा सकता है । और बिना युद्ध किये भी लोकसंग्रह सिद्ध किया जा सकता है ।।


उपसंहारः---
1. भास की मनोवैज्ञानिक दृष्टि में युद्धमात्र का सार्वकालिक और सार्वभौम कारण मनुष्य में रही नमुचिवृत्ति ही है ।।
2. महाभारत का युद्ध अनिवार्य नहीं था, उसमें बालिशता – बटुचापल – जिम्मेदार थी ।
3. लोकसंग्रह की दार्शनिक भूमिका प्रदान करने पर भी महाभारत का युद्ध अनिवार्य सिद्ध नहीं होता है । बिना युद्ध किये भी लोकसंग्रह सम्भव था ।
4. दुष्ट या दुराराध्य व्यक्ति भी सर्वथा और सर्वदा असाध्य नहीं होता है । उसके लिये सद्गुरु – सुनियोजक – की आवश्यकता है ।
5. युद्ध टालने की जिम्मेदारी ईश्वरीय अवतार की नहीं होती है, वह सभी मनुष्यों का कर्तव्य होता है ।


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सन्दर्भ ग्रन्थसूचि
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1. भासनाटकचक्रम् – सं. सी. आर. देवधर, पूणें, 1937
2. मनुस्मृतिः ( कुल्लुक भट्टटीका सहिता ), सं. जगदीशलाल शास्त्री, प्रका.- मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, 1983
3. महाभारतम् – गीताप्रेस , गोरखपुर , वि. सं. 2058
4. श्रीमद् भगवद् गीता – सं. एस. के. बेलवेलकर, भाण्डारकर ओरि. इन्स्टीट्यूट, पूणें













‘लोकसंग्रह’ के लिए क्या युद्ध अनिवार्य था ?
वसन्तकुमार म. भट्ट
आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग,
निदेशक, भाषासाहित्यभवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380 009

( अन्ता-राष्ट्रिय-संस्कृत-सम्मेलन, युनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान, 18 – 20 जुलाई, 2009, जयपुर )
सारसंक्षेप
प्रस्तुत आलेख में महाभारत के युद्ध में हुई हिंसा को केन्द्र में रख कर महर्षि व्यास की दृष्टि, और इस सन्दर्भ में धर्मशास्त्र तथा नीतिशास्त्र का भी चिन्तन क्या रहा है – इसको ध्यान में रखते हुए, “ अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः ” की सृष्टि में युद्ध विषयक हिंसा के बारे में कौनसा मौलिक और जो पूर्णतया मनो-वैज्ञानिक भी हो ऐसा चिन्तन उपलब्ध है यह सोचने का उपक्रम है ।। व्यास की दृष्टि में निश्चित प्रकार के युद्ध में हिंसा अनिवार्य है, परन्तु भास की सृष्टि में वह नितान्त आभासिक है । सूक्ष्म दृष्टि से सोचा जाय तो भास का यह चिन्तन सार्वकालिक सत्य है – ऐसी प्रतीति भी होती है । आधुनिक विद्वानोंने स्वप्नवासवदत्तम् रूपक को लेकर कवि भास को मनोवैज्ञानिक चिन्तनवाले कवि कहे है, परन्तु पञ्चरात्र रूपक को लेकर भास की मनोवैज्ञानिक चिन्तनधारा को उजागर करने का प्रयास शायद नहीं हुआ है । विशेष रूप से, युद्धमात्र में अवश्यंभावी हिंसा की अनिवार्यता के बारे कवि भास का क्या क्रान्तदर्शन है वह प्रस्तुत आलेख का प्रतिपाद्य विषय है ।।
भास के मन में उठे युद्ध विषयक विश्लेषणात्मक चिन्तन ने जब सर्जन का रूप लिया तो दूतवाक्य, दूतघटोत्कच, कर्णभार, ऊरूभङ्ग और पञ्चरात्र जैसी रूपक-श्रेणी का साहित्यजगत् में अवतार हुआ । उनमें से, प्रस्तुत चर्चा के अनुसन्धान में हमारे लिए दो रूपक – 1. दूतवाक्य, एवम् 2. पञ्चरात्र – ध्यानास्पद है ।
इस रूपकद्वय के माध्यम से भास ने अपनी दृष्टि से, महाभारत-युद्ध के दो परस्पर विमुख पक्षों को दर्शकों के सामने रखे हैं । प्रथम पक्ष में – भास ने युद्ध की अनिवार्यता के बीजभूत कारण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है । और दूसरे पक्ष में महाभारत-युद्ध के मूल में जो लोकसंग्रह का हेतु कहा गया है एवम् उसको धर्मयुद्ध की संज्ञा देकर उसकी अनिवार्यता सिद्ध की गई है, उस पर सर्जनात्मक दृष्टि से पुनर्विचार किया है । इस पुनर्विचार से दर्शकों को ऐसी प्रतीति करवाई है कि – लोकसंग्रह की सिद्धि केवल युद्ध से ही होती है ऐसा जो व्यास का मानना था वह नितान्त गलत है । अर्थात् महाभारत का युद्ध सर्वथा निवार्य नहीं ही था – ऐसा नहीं है । एवञ्च – हिंसा से हि लोकसंग्रह होता है – यह भी भास को मान्य नहीं है । तथा, लोकसंग्रह के लिए ईश्वर के अवतार की अनिवार्यता है – ऐसा भी भास को ग्राह्य नहीं है ।।