गुरुवार, 13 जुलाई 2017

शृङ्गारप्रकाश में उद्धृत अभिज्ञानशाकुन्तल के श्लोक एवं उनके सूचितार्थ ।


शृङ्गारप्रकाश में उद्धृत अभिज्ञानशकुन्तला के श्लोक एवं उनके सूचितार्थ वसन्तकुमार म. भट्ट, पूर्व-निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380009 भूमिकाः— [क] कालिदास का अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक सर्वश्रेष्ठ होने के कारण उसका अभिनयन पौनः पुन्येन होता रहा है । मंचन के हर मौके पर विभिन्न प्रदेश के रंगकर्मियों ने कवि-प्रणीत पाठ में बहुविध परिवर्तन किये हैं । जिसके कारण, दो हजार वर्षों की कालावधि में, इस नाटक के शीर्षक से लेकर भरत-वाक्य पर्यन्त प्रायः सभी श्लोकों एवं उक्तियों में अनेक पाठान्तरों ने प्रवेश किया है । किन्तु ऐसे मंचनलक्षी पाठ-परिवर्तनों का कोई दस्तावेजीय इतिहास तो हमारे पास नहीं है । तथापि साहित्य-रसिकों का यह जिज्ञास्य विषय है कि किस कालखण्ड में कौन सा पाठान्तर आकारित हुआ होगा । वर्तमान में हमारे सामने इस नाटक की पाँच वाचनाएं प्रचलित है । उनमें से कौन सी वाचना का पाठ सब से प्राचीनतम कालखण्ड का सिद्ध होता है, एवं उसमें क्रमशः कैसे परिवर्तन होते रहे हैं ?। इस तरह की जिज्ञासा से प्रेरित हो कर भोजराज के शृङ्गारप्रकाश में उद्धृत हुए इस नाटक के पाठ्यांशों का यहाँ विश्लेषण किया जाता है । ऐसा करेंगे तो, भोजराज के समय ( ई.स. 1005 से 1050 ) में और महाकालेश्वर धाम , यानि धारा नगरी में, बल्कि मध्य भारत में, कौन सा पाठ या पाठान्तर प्रचलित था?उसका अनुमान हो सकेगा ।। [ख] इस नाटक के पाठ की अनेक रूपता उजागर करनेवाली पाँच वाचनाएं अद्यावधि प्रकाश में आयी हैं । जैसे कि, (क) अभिज्ञानशकुन्तला शीर्षक से 1. काश्मीरी वाचना , (ख) अभिज्ञानशकुन्तलम् शीर्षक से 2. मैथिली एवं 3. बंगाली वाचनाएं, (ग) अभिज्ञानशाकुन्तलम् शीर्षक से 4. दाक्षिणात्य एवं 5. देवनागरी वाचनाएं । इनमें से जो पहली तीन वाचनाएं हैं, उन में इस नाटक का बृहत्पाठ संचरित हुआ है । तथा अवशिष्ट दो वाचनाओं की पाण्डुलिपियों में लघुपाठ संचरित हुआ है ।। इस तरह के पञ्चविध पाठों को देख कर जिज्ञासा होती है कि ग्यारहवी शताब्दि में इस नाटक के पाठ का स्वरूप कैसा था । [ग] इस परामर्श का मार्ग प्रशस्त करनेवाले दो ग्रन्थों की जानकारी देना प्रासंगिक है । जैसे कि, 1. डॉ. श्रीरेवाप्रसाद द्विवेदी जी ने अनेक प्रयासों से वर्तमान में शृङ्गारप्रकाश का पूर्ण सम्पादन उपलब्ध करवाया है । [ शृङ्गारप्रकाशः, ( भागः 1 एवं 2 ), सं. रेवाप्रसाद द्विवेदी एवं डॉ. सदाशिवकुमार द्विवेदी, प्रका. इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली, 2007. ] । इस ग्रन्थ का मूल्य बताते हुए पं. श्रीरेवाप्रसाद जी ने लिखा है कि इसमें 7389 श्लोकों के उद्धरण प्राप्त होते हैं, जिनमें 1394 प्राकृत गाथाओं का भी समावेश हुआ हैं । उन्होंने इसको Great Anthology of Quotations कहा है । इसमें अभिज्ञानशाकुन्तल के ही उद्धरण कुल मिला कर 87 दिये गये हैं । इतनी बडी मात्रा में इसी नाटक के उद्धरण अन्य किसी भी काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ में नहीं मिलते हैं ।। 2. शारदा पाण्डुलिपियों के आधार पर अभिज्ञानशकुन्तला नाटक की काश्मीरी वाचना का समीक्षित सम्पादन मैंने तैयार किया है, जो राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, दिल्ली की ओर से प्रकाशन के लिए स्वीकृत है, और वर्तमान में मुद्रणाधीन है । हमने काश्मीरी वाचना का यह पाठ पाँच शारदा पाण्डुलिपियों का विनियोग करके निर्धारित किया है, जिनका यहाँ प्रथम बार उपयोग किया गया है । पूर्वोक्त इन दोनों ग्रन्थों के अभाव में निम्नोक्त परामर्श करना सम्भव ही नहीं था ।। [ 1 ] अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की पाँच में से तीन वाचनाएं बृहत्पाठवाली है । तथा दो अन्य वाचनाएं लघुपाठ-वाली है । इसको लेकर विद्वानों के बीच में दो तरह के मतभेद प्रवर्तमान हैः-- कुछ विद्वान् ऐसे हैं कि जो कहते हैं कि कालिदास ने पहले लघुपाठवाला ही अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक लिखा था । तत्पश्चात् उसमें नवीन श्लोकादि का प्रक्षेप करके बृहत्पाठवाला अभिज्ञानशकुन्तल नाटक बनाया गया है । इस मत के पुरस्कर्ता म. म. श्रीईश्वरचन्द्र विद्यासागर, प्रोफे. शारदा रंजन राय, प्रोफे. पी. एन. पाटणकर, डॉ. रेवाप्रसाद द्विवेदी जी आदि अनेक मनीषी विद्वान् हैं । दूसरी ओर कुछ विरल विद्वान् ऐसे भी है कि जो मानते हैं कि कालिदास ने मूल में ही बृहत्पाठवाला नाटक लिखा था । किन्तु उसमें कालान्तर में संक्षेपीकरण के आशय से कुछ श्लोकों एवं अमुक दृश्यों की कटौती की गई है । जिससे लघुपाठवाला अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक बना है । इस दूसरे मत को माननेवाले विद्वानों में डॉ. रिचार्ड पिशेल, डॉ. एस. के. बेलवालकर तथा डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल है । लेकिन इस सन्दर्भ में प्राचीन काल में, यानि दशवी-ग्यारहवी शताब्दि में, भोजराज के सामने ( मध्यभारत में= डॉ. रेवाप्रसाद जी के शब्दों में"महाकालेश्वर धाम"में ) कौन सा पाठ प्रचलित रहा होगा ?वह जानकारी भी रसप्रद एवं मार्गदर्शिका सिद्ध होगी ।। [ 2 ] (क) भोजराज ने दूतकर्म में उपाय-प्रयोग का निरूपण करते समय शृङ्गारप्रकाश में"त्वं दूरमपि गच्छन्ति(न्ती) हृदयं न जहासि मे । दिनावसानच्छायेव पुरोमूलं वनस्पतेः ।।"ऐसा श्लोक उद्धृत किया है । ( द्रष्टव्यः -- शृ. प्र. 28-155, पृ. 1270 ) यद्यपि भोजराज ने उस श्लोक को स्पष्ट रूप से कालिदास-प्रणीत नहीं कहा है, किन्तु यह श्लोक अभिज्ञानशकुन्तला(ल) की बृहत्पाठवाली तीन वाचनाओं में ही मिलता है । तथा यह श्लोक तृतीयांक के जिन दो दृश्यों के विषय में विवाद है, उन्हीं दृश्यों का भाग है । अतः ऐसा कह सकते हैं कि तृतीयांक का बृहत्पाठ भोजराज के समय में, ( यानि 11वीं शती में ) प्रचलित था ।। (ख) शृङ्गारप्रकाश में कन्याएं लज्जाशील होने से प्रेम-प्रसंगों में उनका कैसा व्यवहार रहता है उसका निरूपण करने के लिए निम्नोक्त श्लोक उद्धृत किया गया हैः- अप्यौत्सुक्ये महति दयितप्रार्थनाभिः प्रयाताः, काङ्क्ष्यन्त्योऽपि व्यतिकरसुखं कातराः स्वाङ्गदाने । आबध्यन्ते न खलु मदनेनैव लब्धास्पदत्वाद्, आबाधन्ते मनसिजमपि क्षिप्तकालाः कुमार्यः ।। ( शृ. प्र. 33-09, पृ. 1515 ) यह श्लोक अभि. शकु. की बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में उपलब्ध होता है । यद्यपि यह श्लोक प्रक्षिप्त ही सिद्ध होता है, तथापि उसका बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में होना- वह बहुत महत्त्वपूर्ण है । क्योंकि यह एक दस्तावेजीय गवाह है कि भोजराज के सामने प्रक्षेपों से भरा ऐसा पाठ उपलब्ध था ।। (ग) केवल काश्मीरी वाचना का ही जिसमें निर्देश हो ऐसा एक दूसरा स्थान शृङ्गारप्रकाश में सुरक्षित रहा है, जिसकी ओर कोई भी विद्वान् का ध्यान अद्यावधि नहीं गया हैः—( राजा ) सहर्षम् । श्रुतं श्रोतव्यम् । विमर्शच्छेदि वचनम् । एतावान् कामिन इत्यारभ्य ।। ( शृ. प्र. 29-105, पृ. 1300 ) यद्यपि भोजराज ने यहाँ दुष्यन्त की उक्ति को पूर्णतया उद्धृत नहीं की है । किन्तु इस नाटक की पाँचों शारदा पाण्डुलिपियों में देखा जायेगा तो मालूम होगी कि भोजराज उपर्युक्त उद्धरण के द्वारा काश्मीरी वाचना के पाठ की ओर ही इशारा कर रहे हैं । जैसे कि, राजा – ( सहर्षम् ) श्रुतं श्रोतव्यम् । ... विमर्शच्छेदि वचनम् । एतावत् कामफलं यत्नफलम् अन्यत् । ( इनमें से तीसरा वाक्य मैथिली एवं बंगाली पाठों में नहीं मिलता है । ) यहाँ भोजराज के द्वारा दिये गये उद्धरण के पूर्वोक्त शब्द केवल काश्मीरी पाठ की ओर ही अंगुलीनिर्देश कर रहे हैं ।। (घ) भोजराज ने शृङ्गारप्रकाश में शरीरादि पर अनात्मबुद्धि का उदाहरण देते हुए निम्नोक्त श्लोक उद्धृत किया है :- यदा शरीरस्य शरीरिणश्च पृथक्त्वमेकान्तत एव भावि । आहार्ययोगेन विमुच्यमानः परेण को नाम भवेत् सशोकः ।। ( प्रकाशः 21-16, पृ. 1082 ) इसमें कण्व मुनि ने ससुराल जा रही अपनी पुत्री शकुन्तला को औपनिषदिक उपदेश देते हुए यह भी कहा है कि कल में रहुँ या न रहुँ- मेरा शोक नहीं करना । दाक्षिणात्य एवं देवनागरी पाठानुसारी शाकुन्तल नाटक को पढनेवालों के लिए यह श्लोक अनजान है । किन्तु बृहत्पाठवाले इस नाटक के पाठ में यह श्लोक आदिकाल से संचरित हुआ है । यानि काश्मीरी एवं मैथिली वाचनाओं के पाठ में यह श्लोक सुरक्षित है । ( यद्यपि रिचार्ड पिशेल ने अपने समीक्षित बंगाली वाचना के पाठ में इस श्लोक को निकाल दिया है । किन्तु डॉ. दिलीपकुमार काञ्जीलाल ने उसको स्वीकारा है । ) सारांशतः, भोजराज के समय में इस नाटक का बृहत्पाठ सुचारु रूपेण विद्यमान एवं प्रचलित रहा है ।। [ 3 ] बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं में से केवल काश्मीरी वाचना में जो प्रचलित पाठान्तर है, वही भोजराज ने शृङ्गारप्रकाश में उद्धृत किये हैं – इतना सोदाहरण दिखाने के बाद, कुछ उदाहरण ऐसे भी दिखाना आवश्यक है कि जिससे मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं में जो नवीन पाठान्तर आकारित किये गये हैं, उनका उत्तरवर्तित्व भी सिद्ध होता होः— (क) भोजराज ने शृङ्गारप्रकाश में प्रेम का स्वरूप वर्णित करते हुए"पालनसंक्षेप"का उदाहरण एक श्लोक में पेश किया है । जैसे कि"अनिर्दयोपभोग्यस्य रूपस्य मृदुनः कथम् । दारुणं सखि ते चेतः शिरीषस्येव बन्धनम् ।।"( शृ. प्र. 33-68, पृ. 1528 ) यद्यपि भोजराज ने इस श्लोक को स्पष्ट शब्दों में कालिदास-प्रणीत नहीं कहा है, तथापि वह श्लोक अभिज्ञानशकुन्तला का ही है । तथा काश्मीर की शारदा पाण्डुलिपियों में मिलता है । यहाँ उल्लेखनीय है कि भोजराज ने इस श्लोक को"दारुणम्"शब्द के साथ उद्धृत किया है, वैसा ही पाठ काश्मीरी वाचना ( 3-24 ) में उपलब्ध होता है । परन्तु मैथिली एवं बंगाली वाचना के पाठ में यह श्लोक कुछ पाठभेद के साथ मिलता है । जैसे कि,"अनिर्दयोप-भोग्यस्य रूपस्य मृदुनः कथम् । कठिनं खलु ते चेतः शिरीषस्येव बन्धनम् ।।"( 3-30 ) । मतलब कि भोजराज के सामने काश्मीरी वाचना का ( दारुणम् ) पाठ ही रहा होगा, एवं मैथिली तथा बंगाली का ( कठिनम् ) पाठ तदुत्तरवर्ती काल का होगा ।। (ख) कालिदास ने अभिज्ञानशकुन्तला के प्रथमांक में भ्रमरबाधा-प्रसंग का निरूपण किया है । कण्व मुनि के आश्रम में शकुन्तला, प्रियंवदा एवं अनसूया वृक्षों को जल-सिञ्चन कर रही थी, तब नवमालिका लता को जलसिंचन करने के बाद रंगसूचना दी गई है कि"इति कलशमावर्जयति"। ( यानि नायिका शकुन्तला ने नवमालिका को जलसिंचन करने के बाद, रंगमंच पर किसी एक कौने में अपने हाथ में रहे जलकुम्भ को जमीन पर रख दिया है । ) तत्पश्चात् नवमालिका लता से जब भ्रमर उडता है और शकुन्तला के मुख पर मंडराना शूरु करता है, तब शकुन्तला भ्रमर का अपसारण करने के लिए अपने दोनों हाथों का उपयोग करती है । जिसका निरूपण करनेवाला श्लोक निम्नोक्त हैः— चलापाङ्गां दृष्टिं स्पृशसि बहुशो वेपथुमतीं, रहस्याख्यायीव स्वनसि मृदु कर्णान्तिकगतः । करौ व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरं, वयं देवैर्मौग्ध्यान् ( तत्त्वान्वेषान् ) मधुकर हतास्त्वं ऱलु कृती ।। यह पाठ काश्मीरी वाचना का है, जिसमें करौ शब्द द्विवचन में है- वह ध्यानास्पद है । उसके प्रतिपक्ष में, मैथिली तथा बंगाली वाचनाओं में"करं व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरम्"ऐसा एकवचन का प्रयोग किया गया है । उसका मतलब यह है कि मिथिला एवं बंगाल के रंगमंच पर शकुन्तला ने"इति कलशम् आवर्जति"रंगसूचना के बाद भी अपने हाथ में रहा जलकुम्भ जमीन पर नहीं छोड दिया है । अतः वह केवल एक हाथ से ही भ्रमर का अपसारण करती होगी, तथा उसने दूसरे हाथ में जलकुम्भ को पकड के रखा होगा । अब हमें देखना है कि भोजराज ने जब शृङ्गारप्रकाश में इस श्लोक को उद्धृत किया है, तब कौन सा पाठ लिया है? । तो, उन्होंने भी"करं व्याधुन्वत्याः पिबसि रतिसर्वस्वमधरम्"ऐसा एकवचनान्त पाठवाला श्लोक ही लिखा है । इससे अनुमान हो सकता है कि भोजराज ने भले ही काश्मीरी पाठ को अनेकत्र उद्धृत किया हो, लेकिन उनके समय तक मैथिली एवं बंगाली रंगकर्मियों के द्वारा नवीन दृश्य-योजनानुसार कतिपय नवीन पाठान्तरों को जन्म दे दिया था, एवं वे प्रचार में भी आ गये थे । जिसके कारण वे भी भोजराज के द्वारा उद्धृत हुए हैं ऐसा दिखता है ।। [ 4 ] दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचनानुसारी अभिज्ञानशाकुन्तल के प्रथमांक में नायक दुष्यन्त सोचता है कि जैसे मैं शकुन्तला में अनुरक्त हूँ वैसे क्या शकुन्तला भी मुझ में अनुरक्त होगी या नहीं?उसके उत्तर में वह कहता है कि- अथवा लब्धा-वकाशा मे प्रार्थना । कुतः, वाचं न मिश्रयति यद्यपि मद्वचोभिः कर्णं ददात्यभिमुखं मयि भाषमाणे । कामं न तिष्ठति मदाननसंमुखीना, भूयिष्ठमन्यविषया न तु दृष्टिरस्याः ।। (1-27) यहाँ पर भोजराज ने शृङ्गारप्रकाश में नायक के इङ्गिताकारज्ञता नामक गुण को निरूपित करने के लिए इस श्लोक को उद्धृत किया है । लेकिन उन्होंने उपर्युक्त श्लोक के"ददात्यभिमुखम्"के स्थान में"ददात्यवहिता" ऐसा पाठभेदवाला शब्द रखा है । अब पुनरपि ध्यातव्य बिन्दु प्राप्त होता है कि भोजराज ने दिया हुआ पाठान्तर ही काश्मीरी, मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं के पाठ में एक समान रूप से प्रचलित है । उसका मतलब यह भी हो रहा है कि दाक्षिणात्य और देवनागरी वाचनाओं का यह पाठान्तर ग्यारहवीं शती तक यानि भोजराज के समय तक नहीं था । अतः देवनागरी एवं दाक्षिणात्य वाचनाओं के लघुपाठों में "ददात्य-भिमुखम्"जैसा पाठभेद परवर्ती काल में ही आविष्कृत हुआ होगा ।। अभिज्ञानशाकुन्तल के द्वितीयांक में नायिका शकुन्तला का सौन्दर्य वर्णित करनेवाला सुप्रसिद्ध श्लोक भी द्रष्टव्य हैः— "अनाघ्रातं पुष्पं किसलयम् अलूनं कररुहैः, अनाविद्धं रत्नं मधुनवमनास्वादितरसम् । अखण्डं पुण्यानां फलमिव च तद्रूपमनघम्, न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति विधिः ।।" इसमें जो"अनाविद्धं रत्नम्"वाला पाठ्यांश है, वह दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचनाओं में प्रचलित है । इससे पहले काश्मीरी, मैथिली तथा बंगाली पाठों में जो प्रचलन में था, वह तो"अनामुक्तं रत्नम्"वाला पाठ था । अतः इस नवीन पाठान्तर के प्रवेश का काल सोचना जरूरी है । भोजराज ने शृङ्गारप्रकाश में छह स्थानों पर, [ जैसे कि- (1) शृ. प्र. 10-371, (2) 12-419, (3) 15-153, (4) 17-32, (5) 21-11, विद्धं – मुक्तं (6) 33-33 । एवं च, (7) सरस्वतीकंठाभरण 4-44 में व्यतिरेकवद् रूपक के उदाहरण के रूप में ] जब इस श्लोक को उद्धृत किया है तब वहाँ पर, एक अपवाद स्थान को छोड कर,"अनाविद्धं रत्नम्"वाला पाठ दिया है ।। इसका सीधा मतलब यही हो रहा है कि भोजराज के समय ( 1005 से 1050 ई.स. ) में ही दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचनाओं के ( सभी नहीं, केवल ) कतिपय नवीन पाठान्तरों का प्रादुर्भाव होने लगा है, जिसको भोजराज ने अपने दोनों ही ग्रन्थों में उद्धृत करना शूरु किया है ।। [ 5 ] कालिदास के अभिज्ञानशकुन्तला नाटक का काश्मीरी पाठ भोजराज के सामने रहा होगा, इतना सिद्ध करने वाले अनेक प्रमाणभूत उद्धरण हमने देख लिए । तथापि इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है । क्योंकि हमने यह भी देखा कि शृङ्गारप्रकाश में कुत्रचित् दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचनाओं के कतिपय पाठान्तरों को भी स्थान मिला है । अतः दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचनाओं के नवीन पाठान्तरों का आविष्कार-काल निश्चित करने के लिए कुछ अधिक उद्धरणों का विश्लेषण करना होगा ।। इस नाटक के तृतीयांक में नायक-नायिका जब रंगमंच पर अकेले हैं, तब दुष्यन्त कहता है कि, किं शीतलैः क्लमविनोदिभिरार्द्रवातं संचालयामि नलिनीदलतालवृन्तैः । अङ्के निधाय चरणावुत पद्मताम्रौ संवाहयामि करभोरु यथासुखं ते ।। ( काश्मीरी वाचना, 3-20 ) यह श्लोक के तीसरे एवं चौथे चरण का जो पदक्रम है, वे तीनों बृहत्पाठवाली वाचनाओं में एक समान है । तीसरे अंक में कालिदास ने सोची हुई मंचन-योजना ऐसी है कि मदन-संतप्ता शकुन्तला कुसुमास्तरण पर लेटी हुई हो । यह मदनावस्था इतनी भारी है कि शकुन्तला को मदनलेख लिखते समय भी लेटे रहना है और उस मदनलेख को सुन कर रंगमंच पर सहसा उपस्थित हुआ दुष्यन्त जब उनके ही साथ शिलातल पर ( अनसूया के कहने से ) बैठ जाय तब भी उसको लेटे रहना है । तत्पश्चात् मृगपोतक को उसकी माता के पास पहुँचाने के निमित्त से दोनों सहेलियाँ रंगमंच से चली जाय, और नायक दुष्यन्त एकान्त में उपर्युक्त श्लोक से उसके पाद-संवाहन का प्रस्ताव रखे, तब शकुन्तला को कुसुमास्तरण से उठना है । उपर्युक्त श्लोक के तीसरे चरण का तात्पर्य ऐसा है कि दुष्यन्त कुसुमास्तरण पर लेटी हुई शकुन्तला के ( केवल ) दो पद्मताम्र चरणों को अपनी गोदी में लेकर, उसका संवाहन करने का प्रस्ताव रखता है ।। लेकिन जिन रंगकर्मियों को नायिका शकुन्तला की रंगमंच पर लेटी हुई अवस्था लम्बे समय तक नहीं दिखानी थी, उन्होंने मदनलेख लिखवाते समय ही, उसी बहाने"आसीना चिन्तयति/उपविष्टा चिन्तयति"जैसी रंगसूचनाओं से, कुसुमास्तरण पर बिठाई गई है । एवञ्च, जब नायक दुष्यन्त ( अनसूया के कहने से ) उसी शिलातल पर बैठते है, तब"सलज्जा तिष्ठति"की नवीन रंगसूचना का प्रक्षेप करके, शकुन्तला को पास में खडी की गई है । अब उपयुर्क्त श्लोक के चरणों का पद- क्रम परिवर्तित करना अनिवार्य बन जाता है!क्योंकि राजा दुष्यन्त शिलातल पर बैठे हो, और शकुन्तला जब पास में खडी हो तब उसके पाँव को अपनी गोदी में लेकर उनका संवाहन करने का कहना असम्भव ही है, जो भद्दा ही लगेगा । अतः उपर्युक्त श्लोक को नवीन परिवर्तित पदक्रम के साथ रखा जाता हैः— किं शीतलैः क्लमविनोदिभिरार्द्रवातान् संचारयामि नलिनीदलतालवृन्तैः । अङ्के निधाय करभोरु यथासुखं ते, संवाहयामि चरणावुत पद्मताम्रौ ।। अब इस नवीन पाठभेद के अनुसार वाक्यार्थ ऐसा होगा कि- हे करभोरु, मैं तुम्हे मेरी सुखदायक गोदी में बिठा कर, तेरे पादों का संवाहन करने को तैयार हूँ ।। शृङ्गारप्रकाश में भोजराज ने इसी नवीन पाद-योजनानुसारी श्लोक को ही चार स्थान में (16-210 ( पृ. 967 ), 20-56 ( पृ. 1060 ), 21-41 ( पृ.1086 ) एवं 34-185 ( पृ. 1577 ) ) उद्धृत किया है । यानि भोजराज के समय में इस नाटक का जब मंचन होता होगा, तब नायक-नायिका के एकान्त मिलन की क्षणों का चित्र बदल जाता है । दाक्षिणात्य और देवनागरी वाचनाओं में उपरि निर्दिष्ट नवीन योजनावाला पाठभेद सुस्थिर हुआ प्राप्त होता है ।। किन्तु विश्वनाथ ने साहियदर्पण में जब इसी श्लोक को उद्धृत किया है, तब उसमें तो, काश्मीरी-मैथिली-बंगाली वाचनाओं में जो पदक्रम है, उसीके अनुसार ही यह श्लोक दिया है । यहाँ ध्यातव्य बात यह है कि विश्वनाथ का समय भले ही ई. स. 1300 से 1384 तक का निश्चित किया गया हो, लेकिन वे बंगाल के आलंकारिक है । अतः उनके सामने बंगाल का बृहत्पाठ ही विद्यमान था, इसलिए उन्होंने बंगाली पाठानुसार उद्धरण दिया है । किन्तु उनके समय से पहले, मध्य भारत में जब भोजराज ने दाक्षिणात्य एवं देवनागरी में प्राप्त होनेवाला पाठान्तर ग्राह्य रखा है तो उसका मतलब यही है कि ग्यारहवी शती में, लघुपाठवाली वाचनाओं में मिलनेवाले नवीन पाठान्तर का अवतार हो चूका होगा । इस तरह से शृङ्गारप्रकाश के एकाधिक उदाहरणों से सिद्ध होता है कि ग्यारहवी-बारहवी शती का काल नवीन पाठान्तरों की उद्भावना एवं संक्रान्ति का काल रहा होगा ।। निष्कर्षः--- शृङ्गारप्रकाश के इन उद्धरणों से निम्नोक्त बिन्दु स्पष्ट हो रहे हैः—(1) भोजराज के सामने इस नाटक का बृहत्पाठ प्रवर्तमान था, तथा इन तीनों में भी विशेष रूप से काश्मीरी वाचना के पाठ से भोजराज सुपरिचित थे । (2) इन तीनों बृहत्पाठों में काश्मीरी पाठ पुरोगामी है और तदुत्तरवर्ती काल में मैथिली एवं बंगाली वाचनाओं के पाठ प्रचलन में आये होंगे ऐसा उपर्युक्त (3-क) उदाहरण से सिद्ध होता है । (3) इस नाटक की दाक्षिणात्य एवं देवनागरी वाचनाओं के दोनों पाठ बृहत्पाठवाली तीनों वाचनाओं से उत्तरवर्ती काल का सिद्ध होते हैं, (4) तथा उन दोनों वाचनाओं में उपलब्ध हो रहे नवीन पाठान्तरों का आविष्कार ग्यारहवी शती में शूरु हुआ होगा ऐसा कहा जा सकता है ।। 8888888 सन्दर्भ-ग्रन्थ सूचिः— 1. अभिज्ञानशाकुन्तलनाटकम् ।, सं. एस. के.बेलवालकर, साहित्य अकादेमी, दिल्ली, 1965 2. अभिज्ञानशकुन्तला नाटकम् ( काश्मीर-वाचनानुसारी पाठः ), सं. वसन्तकुमार म. भट्ट, राष्ट्रिय संस्कृतसंस्थान, दिल्ली, 2017 3. अभिज्ञानशकुन्तलम् ( मैथिल-पाठानुगम् ), सं. रमानाथ झा, मिथिला विद्यापीठ, दरभङ्गा, 1957 4. अभिज्ञानशकुन्तलम् ( बंगाली-पाठ का समीक्षित पाठसम्पादन ), सं. रिचार्ड पिशेल, हार्वर्ड युनिवर्सिटी प्रेस, 1922 ( द्वितीयसंस्करण ) 5. अभिज्ञानशकुन्तलम् ( पुनर्गठित पाठ ), सं. दिलीपकुमार काञ्जीलाल, संस्कृत कॉलेज, कोलकाता, 1980 6. अभिज्ञानशाकुन्तलम् ( राघवभट्टकृतयार्थद्योतनिकया टीकया समेतम् ), सं. नारायण राम, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, दिल्ली, 2006 7. अभिज्ञानशाकुन्तलम् ( काटयवेमकृतव्याख्यानसहितम् ), सं. चेलमचेर्ल रंगाचार्य, आन्ध्रप्रदेश साहित्य अकादेमी, हैदराबाद, 1982 8. ध्वन्यालोकः, सं. अनु. आचार्य विश्वेश्वर, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, 1985 9. संस्कृत-काव्यशास्त्र का आलोचनात्मक इतिहास, श्रीरेवाप्रसाद द्विवेदी, वाराणसी, 2007 10. साहित्यदर्पणम् ।, सं. सत्यव्रत सिंह, चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी, 1970 11. शृङ्गारप्रकाशः ( भाग 1 एवं 2 ), सं. डॉ. श्रीरेवाप्रसाद द्विवेदी, इन्दिरा गाँधी राष्ट्रिय कला केन्द्र, नयी दिल्ली, 2007