शनिवार, 7 मार्च 2015

महाभारत की शकुन्तला-कथा एवं कालिदास की क्रान्त-दृष्टि ।

महाभारत की शकुन्तला-कथा एवं कालिदास की क्रान्तदृष्टि वसन्तकुमार म. भट्ट निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380 009 bhattvasant @ yahoo. co. in भूमिकाः—महाभारत जैसे आर्ष महाकाव्य के लिए ऐसा कहा गया है कि "इतिहासोत्तमाद् अस्माद् जायन्ते कविबुद्धयः" । ( इस उत्तम इतिहास में से भविष्य में अनेक कविबुद्धिओं का जन्म होगा । ) इसमें विशाल फलक पर ऐसा मानवजीवन वर्णित है कि उसीमें से प्रेरणा प्राप्त करके भविष्य में विविध काव्यों के सर्जन होते रहेंगे । और ऐसा हुआ भी है । संस्कृत महाकविओं ने अपनी अपनी काव्यसृष्टि का निर्माण करने के लिए प्रायः ख्यात-इतिवृत्त का ही विनियोग किया है । जैसे कि भास ने ऊरुभङ्ग, कर्णभारादि रूपकों की रचना के लिए महाभारत की कथा का ही समाश्रयण किया है । महाकवि कालिदास ने भी इसी मार्ग का अनुगमन किया है । महाभारत के आदिपर्वान्तर्गत सम्भवपर्व (अध्याय 62 से 69) में शकुन्तला के विवाह की कथा आती है । इसमें से दुष्यन्त और शकुन्तला की कथा को लेकर कालिदास ने अपने अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की रचना की है । अनेक विद्वानों ने मूल महाभारत की कथा में कौन कौन से बिन्दु थे और उनमें कालिदास ने कौन से परिवर्तन किये है, एवमेव उनमें किन किन नवीन बिन्दुओं की कल्पना की है ? इस विषय की बहुत बारिकी से चर्चा की है । जिसमें मुख्य रूप से कौन से नवीन प्रसंगों का कल्पन किया गया है, एवं किन किन नवीन पात्रों का कालिदास ने सर्जन किया है ? इत्यादि का विवरण मिलता है । उदाहरण के लिए, महामहोपाध्याय श्री एम. आर. काळे महाशय ने कहा है कि महाभारत में वर्णित दुःषन्त-शकुन्तला की विवाहकथा में प्रणय की कोई रोमाञ्चकता नहीं है । ऐसे एक सरल कथा-कंकाल में महाकवि कालिदास ने नवजीवन का संचार किया है । श्री काळे ने कालिदास की तुलना शेक्सपियर के साथ करते हुए कहा है कि दोनों ने अपने नाटकों के लिए भूतकाल में घटित घटना में से ही कथावस्तु का ग्रहण किया है । अर्थात् दोनों विश्वकविओं ने नवीन कथावस्तु के निर्माण में अपनी कल्पना-शक्ति का खर्च नहीं किया है ।। बल्कि, जो कथा पुरातन काल से आम जनता में सुप्रचलित होती है उसी को लेकर नाट्यकार उसको नाटकीय ढंग से प्रस्तुत करने के लिए उसमें आवश्यक परिवर्तन कर लेते है । ऐसी इतिहासप्रसिद्ध कथा में वे अपना स्वकीय जीवनदर्शन भी दाखिल करके कोई चिरंजीव काव्यार्थ को अभिव्यक्त करते है । जब भी कोई कथावस्तु परापूर्व से प्रचलित हो गई है, तो उसीका स्वीकार करने से प्रेक्षकों को कथा-प्रवाह को समझने के लिए कोई कष्ट नहीं उठाना है । यद्यपि ऐसा होने पर प्रेक्षकों में कथाप्रवाह का कौतुक नहीं होता है, लेकिन उसको कैसी नाटकीय शैली से प्रस्तुत किया गया है, तथा उसमें कैसे कैसे नवीन रस एवं भावों का निरूपण किया गया है ? वही कौतुक का विषय बनता है । तथा उसीमें नाट्यकार का कवित्व खोजा जाता है ।। काव्यशास्त्रिओं ने कहा है कि कथावस्तु पुरातन होते हुए भी, यदि कवि के द्वारा उसी में नवीन रसादि का सञ्चार किया जाता है तो वह पुरानी कथा अभिनव स्वरूप को धारण करती है । जैसे मधुमास में नवीन रसों के सञ्चार से पुराने वृक्ष भी नवनवीन शोभा को धारण करते हैं ।। [ 1 ] महाभारत की शकुन्तला-कथा में कुछ प्रमुख बिन्दुएँ ध्यानास्पद है : मृगयाविहारी दुःषन्त एकदा कण्व मुनि के आश्रम में जा पहुँचता है । मुनि फलाहार के लिए बाहर गये थे, शकुन्तला आश्रम में अकेली थी । राजा ने उनका परिचय पूछा । शकुन्तला ने ही स्वयं अपने जन्म का वृत्तान्त सुनाया । मेनका और विश्वामित्र के संयोग से इसका जन्म हुआ है ऐसा सुनते ही, राजा ने उसको राजपुत्री जानकर, इसके सामने सद्यो विवाह के लिए प्रस्ताव रखा । राजा दुःषन्त के शब्द ऐसे है, सुव्यक्तं राजपुत्री त्वं यथा कल्याणि भाषसे । भार्या मे भव सुश्रोणि, भद्रे किं करवाणि ते ।। 67 – 1 सर्वं राज्यं तवाद्यास्तु भार्या मे भव शोभने ।। 3, विवाहानां हि रम्भोरु गान्धर्वः श्रेष्ठ उच्यते ।। 4 यहाँ, राजा शकुन्तला के साथ विवाह करने के लिए इतना उतावला हो गया दिखता है कि वह पिता कण्व, जो नझदीक में ही मालिनी नदी के तट पर फलाहार लेने बाहर गये है, उनके वापस आने की प्रतीक्षा भी नहीं कर सकता है । वही शकुन्तला को कहता है कि तुं ही तेरे जीवन का निर्णय करले । क्योंकि आत्मा ही आत्मा का बन्धु है, आत्मा ही आत्मा की गति है । धर्म के अनुसार तुं स्वयं ही तेरा दान करने को योग्य है । क्षत्रियों के लिए गान्धर्व-विवाह धर्म्य है ।। इस प्रस्ताव को सुन कर शकुन्तला ने एक शर्त के साथ उस विवाह-प्रस्ताव का स्वीकार किया । जैसे कि, यदि धर्मपथस्त्वेष यदि चात्मा प्रभुर्मम । प्रदाने पौरवश्रेष्ठ शृणु मे समयं प्रभो ।। 67 – 15 मम जायेत यः पुत्रः स भवेत्त्वदनन्तरम् ।। 16, युवराजो महाराज सत्यमेतद् ब्रवीहि मे ।। यद्येतदेवं दुःषन्त अस्तु मे संगमस्त्वया । 17, एवमस्त्विति तां राजा प्रत्युवाचाऽविचारयन् ।। 18, जग्राह विधिवत् पाणावुवास च तया सह ।। 19 ।। इन शब्दों को देख कर लगता है कि इन दोनों के विवाहसम्बन्ध में प्रेम का कोई स्थान ही नहीं था । महाभारत में वर्णित दुःषन्त-शकुन्तला की कहानी को हम एक विवाहकथा ही कह सकते है, उसे प्रणयकथा नाम नहीं दिया जा सकता ।। गान्धर्व-विवाहोपरान्त राजा ने कहा तो था कि मैं यहाँ से वापस जाने के बाद, तुम्हें चतुरंगिणी सेना के साथ हस्तिनापुर में ले आने का बंदोबस्त करुँगा । लेकिन कण्व मुनि कदाचित् शाप देंगे तो ? उसी भय से वह ऐसा नहीं करता है ।। दूसरी ओर, शकुन्तला पुत्र भरत को जन्म देती है । वह जब छे वर्षों का हो जाता है, तब कण्व मुनि शकुन्तला को पति के घर ले जाने को कहते है । किन्तु हस्तिनापुर के राजदरबार में पहुँचने पर राजा दुःषन्त शकुन्तला का स्वीकार करने से इन्कार कर देता है । महाभारतकार कहते है कि - सोऽथ श्रुत्वैव तद्वाक्यं तस्या राजा स्मरन्नपि । अब्रवीन् न स्मरामीति कस्य त्वं दुष्टतापसि ।। 68 – 18 ।। राजा को शकुन्तला के साथ किये हुए विवाह का स्मरण था, फिर भी वह उसे कहता है " मुझे कुछ स्मरण में नहीं आता है । हे दुष्टतासपी, तुम कौन हो ?"। तब निःसहाय शकुन्तला ने क्रोधपूर्वक लम्बा भाषण दिया, जिसमें सत्य, स्त्री और पुत्र के साथ जुडे धर्म्य सम्बन्ध का विवरण किया । किन्तु सब व्यर्थ रहा । अन्त में जब आकाशवाणी होती है कि राजन्, तुं इस शकुन्तला का स्वीकार कर । यह भरत तेरा ही पुत्र है, तुं उसकी अवमाना न कर । "अथान्तरिक्षे दुःषन्तं वागुवाचाशरीरिणी । 69 – 28, भरस्व पुत्रं दुःषन्त माऽवमंस्थाः शकुन्तलाम् । 19" ।। तब राजा उन दोनों का स्वीकार करने को तैयार होता है । यहाँ पर दुःषन्त के जो शब्द है, वह देखना आवश्यक हैः- शृण्वन्त्वेतद् भवन्तोऽस्य देवदूतस्य भाषितम् । अहमप्येवमेवैनं जानामि स्वयमात्मजम् ।। 69 – 35, यद्यहं वचनादेव गृह्णीयामिममात्मजम् । भवेद्धि शङ्का लोकस्य नैवं शुद्धो भवेदयम् ।। दुःषन्त ने इन शब्दों के द्वारा शकुन्तला का प्रथम क्षण में अस्वीकार करने का जो कारण कहा है, वह आधुनिक काल में प्रतीतिकर भी नहीं है और शोभास्पद भी नहीं है ।। ( यहाँ दुःषन्त ने कहा है कि शकुन्तला के कहने मात्र से यदि वह उस भरत का अपने पुत्र के रूप में स्वीकार कर लेता है, तो लोकमानस में उसकी मेरे वंशज के रूप में शुद्धि नहीं होती । अब आकाशवाणी से वो बात साफ हो जाती है, इसी लिए मैं उसका स्वीकार कर सकता हूँ । ) गुजराती भाषा के कविवर्य श्री उमाशङ्कर जोशी जी जैसे कुछ विद्वानों ने यहाँ ऐसा सोचा है कि ऋषि के डर से नायक दुष्यन्त शकुन्तला को हस्तिनापुर में न ले आवे, और वह स्वयं आवे तब उसका अपमान करें, विवाहसम्बन्ध का स्मरण होते हुए भी मुझे कुछ स्मरण में नहीं है ऐसा कहे तो उसके लिए हमारे, प्रेक्षकों के दिल में उसके लिए कोई सहानुभूति पैदा नहीं होती है । प्रेक्षक ऐसा ही सोचेगा की दुष्यन्त शकुन्तला के योग्य पति नहीं था । कालिदास ने नायक दुःषन्त के ऐसे चरित्र में सुधार लाने का सोचा है । जिसके लिए उन्होंने दुर्वासा के शाप की कल्पना की है । इस योजना से शापग्रस्त नायक की निःसहायता व्यञ्जित होती है, जिससे वह दर्शकों की सहानुभूति का भाजन बना रहता है ।। विद्वानों को ऐसा भी लगा है कि इसमें नायिका शकुन्तला की "दुःषन्त-परिणीता पत्नी" के रूप में पहेचान करने की समस्या है । अतः दुःषन्तनामधेयाङ्किता अङ्गुलीयक केन्द्र में है । प्रथम दृष्टि में यह सही है । लेकिन महाकवि ने इस कहानी को बहुत गेहराई से देखी है । महाभारत की इस कहानी में नायक के चरित्र की गरिमा की सुरक्षा करने का केन्द्र में नहीं है । एवमेव, दुःषन्त की पत्नी के रूप में केवल शकुन्तला की पहेचान भी मुख्य नहीं है । इसमें तो दुःषन्त और शकुन्तला के एकान्त में हुए विवाह से पैदा हुई सन्तति के अभिज्ञान का सवाल ही केन्द्र में है । क्योंकि शकुन्तला के पुत्र भरत को यदि दौष्यन्ति के रूप में स्वीकारा जाय तो वह राजगादी का वारिस बननेवाला होगा । अतः आम प्रजा में उसकी राजपुत्र के रूप में प्रतिष्ठा करने के लिए पुत्र भरत के अभिज्ञान की समस्या ही केन्द्र में है । इस समस्या को ही कालिदास ने नाटक के शीर्षक में स्थान दिया है और उसे ( अर्थात् भरत की पैतृक पहेचान को ) सप्तम अङ्क में रमणीय नाटकीयता के साथ प्रस्तुत की है ।। नाट्यकार कालिदास की सर्जनप्रतिभा का दर्शन यहाँ हो रहा है ।। [ 2 ] महाकवि कालिदास की काव्यसृष्टि का दूसरा आविष्कार देखने के लिए महाभारत की पात्रसृष्टि एवं उन्हों ने अपने इस नाटक में रखी पात्रसृष्टि की तुलना करनी आवश्यक है । महाभारत में प्रकट रूप से तो दुःषन्त और शकुन्तला ही है । तथा कण्व मुनि कुछ दो-चार वाक्य बोले है । अन्य तीन पात्रों का केवल नामोल्लेख हुआ है । वे हैः—1. मेनका, 2. विश्वामित्र और 3. पुत्र भरत । इससे अधिक एक भी पात्र यहाँ उपस्थित या उल्लिखित नहीं है । ( आनुषङ्गिकतया यह भी ज्ञातव्य है कि महाभारत में इसको "शकुन्तलोपाख्यान" शब्द से अभिहित नहीं किया गया है ।। ) इनके सामने, कालिदास ने हमारे सामने जो स्वकल्पित पात्रसृष्टि रखी है उसमें तो शकुन्तला की दो सहेलियाँ - प्रियंवदा और अनसूया, आश्रममाता गौतमी, शार्ङ्गरव और शारद्वत जैसे दो ऋषिकुमार, महर्षि दुर्वासा, तथा हस्तिनापुर में राजा का नर्मसचिव माधव्य ( विदूषक ), सारथि, सेनापति, करभक, ज्येष्ठा वसुमती और सकृत्कृतप्रणया हंसपदिका, कञ्चुकी, वैतालिक, राजपुरोहित, साकेतनिवासी वारिपथोपजीवी श्रेष्ठी धनमित्र, शक्रावतारनिवासी माछीमार ( धीवर ), श्यालक जानुक, रक्षकवर्ग के व्यक्ति, उद्यानपालिकायें, मेनका की सखी सानुमती, मातलि, ऋषि मारीच, अदिति, तापसकन्यायें, बालमृगन्द्र और उसके साथ खेलनेवाला सर्वदमन भरत इत्यादि । इन सभी पात्रों के साथ जुडे हुए विविध प्रसंगों की सुग्रथित हारमाला भी कवि ने रखी है । जिससे यह अभिनेयकाव्य शृङ्गार, हास्य एवं करुणादि रसों से सुमण्डित हुआ है ।। (अनेक विद्वानों ने इनका विस्तृत परिचय अन्यत्र दिया ही है । अतः उसकी पुनरुक्ति करना अनावश्यक है । ) । किन्तु उपर्युक्त पात्रसृष्टि को देख कर स्पष्ट हो जाता है कि इस महाकवि की कल्पनाशक्ति अनितरसाधारण है ! ।। [ 3 ] कालिदास की उपर्युक्त विस्तृत पात्रसृष्टि निःसंशय कल्पनाजनित है, एवमेव इससे सम्बद्ध प्रसंगचित्रण भी उनकी काव्यकला का आश्चर्यजनक आविष्कार है । लेकिन यहाँ दी गई पात्रसृष्टि का इतना विस्तृत परिगणन भी सम्पूर्ण नहीं है । क्योंकि शकुन्तला तो निसर्गकन्या है । शकुन्तला के साथ जब तक हरिण नहीं है, दीर्घापाङ्ग नामक मृगपोतक नहीं है, गर्भमन्थरा हरिणी नहीं है, तब तक शकुन्तला का व्यक्तित्व अपूर्ण है । अकेली शकुन्तला को हम नहीं पहेचान पायेंगे तब तक , जब तक सरसिज कमल को हम याद नहीं करेंगे । और उस कमल का अस्तित्व भी अधूरा है, जब तक उसके कर्णान्तिक में गुञ्जन करनेवाला भ्रमर नहीं होगा । शकुन्तला तब तक सुशोभित नहीं होगी, जब तक उसने अपने कानों में शिरीष पुष्प नहीं पहेने होंगे । और शकुन्तला तब तक "शकुन्त-ला" नहीं बनेगी, जब तक उसके आसपास में रहेनेवाले चक्रवाक, कोकिल, हंस, मयूरादि का पक्षिगण नहीं होगा । ( क्योंकि उन पक्षिओं ने तो उसे जन्म के साथ पहेला परिरक्षण दिया था । ) अरे, शकुन्तला तब तक पानी भी नहीं पिएगी जब तक उसने केसरवृक्ष को, वनज्योत्स्ना नामाङ्किता नवमालिका को एवं माधवीलता को, और सहकार वृक्ष को पानी नहीं पिलाया होगा । कहेने का तात्पर्य यही है कि इस अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक में केवल मानवों से भरी पात्रसृष्टि ही नहीं है, उसमें तो पशु, पक्षी, पुष्प, वृक्ष, लताएँ, भ्रमर, हाथी, बालमृगेन्द्रादि की (मानवेतर) सृष्टि भी सक्रिय पात्रसृष्टि के रूप में मानवपात्रसृष्टि के साथ साथ में बराबर अनुस्यूत है । ऐसी पात्रसृष्टि इस नाटक का अविभाज्य अङ्ग है । और इसीने इस नाटक को सार्वभौम बनाया है । इस तरह की उपादान-सामग्री को कालिदास ने कहाँ से प्राप्त की होगी ? इसको जाने बिना महाकवि की कारयित्री प्रतिभा का सर्वाङ्गीण परिचय नहीं मिल सकेगा । अभिज्ञानशाकुन्तल की कथा महाभारत से ली गई है ऐसा सभी विद्वानों ने कहा है । किन्तु उपरि भाग में वर्णित हरिण, चक्रवाक, भ्रमर, गज इत्यादि महाकवि कालिदास की संवेदना में कहाँ से प्रकट हुए है यह किसी ने नहीं बताया है । इसको जानने के लिए हमें फिर से महाभारत के उक्त अध्यायों में ही जाना पडेगा !!! [ 4 ] महाभारत के आदिपर्वान्तर्गत सम्भवपर्व में अध्याय – 64 में कहा गया है कि राजा दुःषन्त मृगया के हेतु एक वन में से दूसरे वन में घुमता हुआ आश्रम से युक्त किसी वन में पहुँचा । उस वन में पुष्पों से अलंकृत वनस्पति का विपुल वैभव बिखरा था । उसमें पक्षिओं और भ्रमरों का सञ्चार श्रवणमधुर नाद पैदा कर रहा था । जैसे कि, पुष्पितैः पादपैः कीर्णमतीव सुखशाद्वलम् । विपुलं मधुरारावैर्नादितं विहगैस्तथा ।। 64 – 4 प्रवृद्धविटपैर्वृक्षैः सुखच्छायैः समावृतम् । षट्पदाघूर्णितलतं लक्ष्म्या परमया युतम् ।। 5 नापुष्पः पादपः कश्चितन्नाफलो नापि कण्टकी । षट्पदैर्वाप्यनाकीर्णस्तस्मिन्वै काननेऽभवत् ।। 6 विहगैर्नादितं पुष्पैरलंकृतमतीव च । सर्वर्तुकुसुमैर्वृक्षैरतीव सुखशाद्वलम् ।। मनोरमं महेष्वासो विवेश वनमुत्तमम् ।। 7 महाभारत-स्थित इस वर्णन को पढ कर, महाकवि कालिदास की कारयित्री प्रतिभा ने कालातिक्रम करके उस वन में साक्षात् प्रवेश किया है । लगता है कि कवि ने उसमें घुमती फिरती शकुन्तला को देखी है । यदि इस वन में एक भी वृक्ष ऐसा नहीं था कि जिस पर पुष्प न हो और सर्वत्र षट्पदों का आघुर्णन प्रवर्तमान न हो तो, कवि के संवेदनशील मन ने यह देख ही लिया होगा कि वहाँ घुमती शकुन्तला भ्रमरों से एक बार आघ्रात हुए और तुरन्त परित्यक्त हुए पुष्पों को दयापूर्वक देखती है । वह उनको स्नेह से उठा कर अपने बालों में आभूषण के रूप में स्थापित करती है । ऐसे क्रान्तदर्शी कवि के हृदय से ही आकारित हुआ होगा नटी का वो गीत, जो नाटक की प्रस्तावना में ही रखा गया हैः— क्षणचुम्बितानि भ्रमरैः सुकुमारकेसरशिखानि । अवतंसयन्ति दयमानाः प्रमदाः शिरीषकुसुमानि ।। जिस शकुन्तला को जन्म देकर, पिता विश्वामित्र ने मेनका को छोड दी हो, और वो तपश्चर्या करने के लिए अरण्य में चले गये हो, तो ऐसी कन्या के मन में ही स्त्रीजीवन की वेदना चिरकाल के लिए अङ्कित हो जाती है । अतः उपर्युक्त श्लोक में उसी वेदना को कालिदास ने शब्दबद्ध कर दी है । क्षणचुम्बित का मतलब होता है "एक बार का संयोग", जो विश्वामित्र और मेनका का संयोग था । और वही दुःषन्त-शकुन्तला के प्रसंग में आगे चल कर होनेवाला है, इसका इङ्गित नटीगीत में रखा गया है । व्यञ्जना का दीर्घ, दीर्घतर व्यापार शूरु होते ही मालूम होता है कि स्त्री-पुरुष के बीच ऐसे एक बार के संयोग से जो सन्तति पैदा होती है, उदाहरण के लिए भरत को लीजिए, तो उसकी पैतृक पहेचान, अर्थात् अभिज्ञान का सवाल उठता ही है । कवि कालिदास को महाभारत में वर्णित वन में भ्रमरों से क्षणचुम्बित और तत्पश्चात् परित्यक्त पुष्पों की जीवन-दास्तान का साम्य शकुन्तला के जीवन में देखने को मिला होगा ! उसी तरह से, महाभारत का दुःषन्त कण्वाश्रम में जो पहुँचता है, तब कहा गया है कि उस समय शकुन्तला आश्रम में अकेली ही थी । आश्रम के प्राङ्गण में खडे रहे कर दुःषन्त ने आवाज दी थी कि कोई इस आश्रम में है की ? "ततोऽगच्छन्महाबाहुरेकोऽमात्यान् विसृज्य तान् । नापश्यदाश्रमे तस्मिंस्मृषिं संशितव्रतम् ।। 65 – 1, सोऽपश्यमानस्तमृषिं शून्यं दृष्ट्वा तथाश्रमम् । उवाच क इहेत्युच्चैर्वनं संनादयन्निव ।। 65 – 2 ।।" राजा दुःषन्त की आवाज सुन कर तापसवेषधारिणी शकुन्तला बाहर आती है और उसका स्वागत करती है । लेकिन महाकवि की क्रान्तदृष्टि कालातिक्रमण करके इन दोनों की प्रथम मुलाकात कैसी आकारित हुई होगी ? वह सोचती है । नहीं, सोचती नहीं है, कवि की कल्पनादृष्टि देखती है कि यदि इस वन में इतने सारे भ्रमर गुञ्जारव करते हुए इधर-उधर उडते रहते है तो, जब शकुन्तला लताओं और वृक्षों को जलसिञ्चन कर रही होगी तब कोई भ्रमर उड कर शकुन्तला के वदनकमल पर मंडरा रहा होगा, और उसी वख्त राजा दुःषन्त उसको साहाय्य करने के लिए दौड गये होंगे ! कवि की कल्पनादृष्टि में, शकुन्तला को परेशान कर रहे किसी भ्रमर से छुडाने के लिए सानुक्रोश बने राजा का सहसा आपहुँचना और चाक्षुषप्रीति का होना ही नैसर्गिक था । महाभारत के वनों में घुमता भ्रमर कालिदास की कल्पना को पूरी तरह से झङ्कृत कर गया है । कोई माने या न माने, उसमें से ही हमें मिला है इस नाटक का भ्रमरबाधा-प्रसंग !! [ 5 ] महाभारत के वन-वर्णन में कहा गया है कि दुःषन्त वहाँ के कुसुमण्डित लतागृहोंवाले प्रदेशों को देख कर बहुत प्रमुदित हुआ । ऐसे प्रदेश मानव-मन में प्रीतिवर्धन कर रहे थे । वहाँ वृक्षों की जो हारमाला थी उसमें भी एक विशेष शोभा थी । उन लताओ और वृक्षों की शाखायें परस्पर में आश्लिष्ट थी । तथा वहाँ जो सुगन्धी वायु का सञ्चार था वह भी मानों वृक्षों को परस्पर में स्नेहबद्ध करने के लिए रिरंसायुक्त था । महाभारतकार के शब्दों को देखते हैः— तत्र प्रदेशांश्च बहून्कुसुमोत्करमण्डितान् । लतागृहपरिक्षिप्तान् मनसः प्रीतिवर्धनान् । संपश्यन् स महातेजा बभूव मुदितस्तदा ।। 64 – 11 परस्पराश्लिष्टशाखैः पादपैः कुसुमाचितैः । अशोभत वनं तत्तैर्महेन्द्रध्वजसंनिभैः ।। 64 – 12 ।। सुखशीतः सुगन्धी च पुष्पपरेणुवहोऽनिलः । परिक्रामन् वने वृक्षान् उपैतीव रिरंसया ।। 64 – 13 ।। लगता है कि कवि कालिदास ने इस वर्णन को पढ कर ही कल्पनाविहार करके देखा है कि मालिनी नदी के तट पर आये हुए इसी वन में लतागृहों से भरे प्रदेशों में दुःषन्त और शकुन्तला निर्जन स्थान में बैठे होंगे । उन दोनों की एकान्त प्रेमगोष्ठियां यहाँ ही हुई होगी । अतः शाकुन्तल नाटक के तीसरे अङ्क के अन्त में गौतमी आकर शकुन्तला को अपनी साथ में वापस ले जाती है, तब शकुन्तला ने अन्यापदेश से जो कहा है कि – अयि लतावलय (लतागृह) संतापहारक ! आमन्त्रये त्वां भूयोऽपि परिभोगाय । वह कवि की संवित्ति में कैसे प्रकट हुए होंगे वह समझ में आ जाता है ।। एवमेव, लताओं और वृक्षों की डालियाँ जो परस्पर में आश्लिष्ट हुई थी ऐसा वर्णन है उसको पढ कर ही शायद कवि कालिदास ने सोचा होगा कि इन परस्पराश्लिष्ट डालियों को देख कर क्या शकुन्तला ने कभी स्वयंवर विवाह का नहीं सोचा होगा ? कवि कहते है कि सोचा ही होगा । इस कल्पनाविहार में से ही, प्रथमांक का निम्नोक्त संवाद आकारित हुआ होगा : अनसूया – हला शकुन्तले, इयं स्वयंवरवधूः सहकारस्य त्वया कृतनामधेया वनज्योत्स्नेति नवमालिका । एनां विस्मृतासि । शकुन्तला – हला, रमणीये खलु काले एतस्य लतापादपमिथुनस्य व्यतिकरः संवृत्तः । नवकुसुमयौवना वनज्योत्स्ना, स्निग्धपल्लवतयोपभोगक्षमः सहकारः । ( पश्यन्ती तिष्ठति ) प्रियंवदा – अनसूये, जानासि किं शकुन्तला वनज्योत्स्नातिमात्रं पश्यतीति । अनसूया – न खलु विभावयामि । कथय । प्रियंवदा – यथा वनज्योत्स्नानुरूपेण पादपेन संगता, अपि नामैवम् अहमपि आत्मनोनुरूपं वरं लभेयेति । कण्व मुनि के आश्रम के आसपास परस्पराश्लिष्ट शाखाओं वाले लता एवं वृक्षों के स्वयंवर विवाह को देख कर भी तो शकुन्तला के मन में दुष्यन्त का वरण कर लेने का विचार आ सकता था । महाभारतकार ने इन दोनों के विवाह सम्बन्ध में जो कहा है वह तो बहुत कृत्रिम या प्राकृत नीरस विवाह-सम्बन्ध है ।। इतने सारे पुष्पमण्डित, भ्रमरगुञ्जित स्थान पर तो कुछ अन्यथा ही हो सकता था, जो क्रान्तदर्शी महाकवि कालिदास ने करके दिखाया है ।। [ 6 ] महाभारतकार ने कहा है कि मालिनी नदी के आसपास में स्थित उस वन में अनेक भ्रमरों के साथ में अनेक पक्षिओं का भी कलरव हो रहा था, और उसमें शामिल थे चक्रवाक पक्षी भी । वहाँ किन्नर गण, वानर और ऋक्ष ( भल्लुओं ) आदि भी थे । तथा मत्त हस्ती, शार्दूल एवं सर्पराज भी निवास करते थे । उसके तट पर आये आश्रम को देख कर राजा ने उसमें जाने का विचार किया । नदीमाश्रमसंश्लिष्टां पुण्यतोयां ददर्श सः । सर्वप्राणभृतां तत्र जननीमिव विष्ठिताम् ।। 64 – 20 सचक्रवाकपुलिनां पुष्पफेनप्रवाहिनीम् । सकिन्नरगणावासां वानररर्क्षनिषेविताम् ।। 21 पुण्यस्वाध्यायसंघुष्टां पुलिनैरुपशोभिताम् । मत्तवारणशार्दूलभुजगेन्द्रनिषेविताम् ।। 22 नदीमाश्रमसंबद्धा दृष्ट्वाऽऽश्रमपदं तथा । चकाराभिप्रवेशाय मतिं स नृपतिस्तदा ।। 23 ऐसी वैविध्यपूर्ण जीवसृष्टि से भरे वन में से शकुन्तला जब हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान करती है, तो महाभारतकार ने केवल इतना ही कहा है कि शकुन्तला अपने विदित वन में से निकल कर दुःषन्त के पास पहुँची । [ "गृहीत्वामरगर्भाभं पुत्रं कमललोचनम् । आजगाम ततः शुभ्रा दुःषन्तं तरुणादित्यवर्चसा ।। (68-13)" । ] लेकिन कालिदास की क्रान्तदृष्टि ने देखा है कि इतनी निर्ममता से इन पक्षिओं ने शकुन्तला को नहीं जाने दिया होगा । वन में से बिदा ले रही शकुन्तला को देख कर जरूर कोई चक्रवाक पक्षी ने संकेत दिया ही होगा शकुन्तला एक दुष्कर कर्म कर रही है । कालिदास की काव्यसृष्टि में कहा गया है कि शकुन्तला की विदा को देख कर विषादग्रस्त चक्रवाक पक्षी भी अपनी प्रियतमा से उदासीन होकर, शकुन्तला की ओर उन्मुख हो गया है, और चक्रवाकी के पुकार ने पर भी उत्तर नहीं दे रहा है । जिसको देखते ही शकुन्तला की समझ में आ जाता है कि वह भी जब पति के पास जायेगी, वहाँ अपना घर बसायेगी, और कदाचित् पतिदेव किसी कार्यवशात् घर जल्दी से वापस नहीं लौटेंगे, तो उनका क्या होगा ? प्रेमाविष्ट हृदयवाली चक्रवाकी यदि नलिनीपत्रान्तरित चक्रवाक को एक क्षण के लिए भी नहीं देख पाती है तो वह जैसे एकदम क्रन्दन करने लगती है तो मेरा क्या होगा ? शकुन्तला से कालिदास ने कहलाया है कि दुष्करमहम् करोमि । कवि के शब्द इस तरह लिपिबद्ध हुए हैः— अनसूया – सखि, न स आश्रमपदेSस्ति कोSपि चित्तवान् यस्त्वया विरह्यमाणया नोत्सुकः कृतोSद्य । पश्य तावत् – पद्मिनीपत्रान्तरितां व्याहृतो नानुव्याहरति प्रियाम् । मुखोदूढमृणालस्त्वयि दृष्टिं ददाति चक्रवाकः ।। ( शाकु. अङ्क – 4 ) – यह सब कालिदास की कल्पना में कहाँ से आया होगा ? इसका मूल स्रोत महाभारत का उपर्युक्त वन-वर्णन ही है, और बाकी जो भी है वह कालिदास की क्रान्तदृष्टि ने देखा हुआ कन्याबिदाई का करुणरस आप्लावित कण्वाश्रम का परिसर ! । इति दिङ्न्याय से प्रस्तुत किये गये इन उदाहरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि स्थलकाल का अतिक्रमण करनेवाली कालिदास की कविदृष्टि ने कण्वमुनि के आश्रम में दुष्यन्त-शकुन्तला की जो प्रेमगोष्ठियाँ हुई होगी उसकी निसर्गाच्छादित पृष्ठभूमि कैसी कामोत्तेजक एवं आत्मीयता युक्त होगी वह अपरोक्षानुभूति के रूप में देख लिया है । ऐसी कल्पनादृष्टिवाला कवि ही हमें पतिगृह की ओर जा रही शकुन्तला का पल्लु पकड कर रोक रहे दीर्गापाङ्ग मृग का दर्शन करा सकता है ।। उपसंहार : मूल महाभारत की जो कहानी है वह दुःषन्त-शकुन्तला की केवल विवाहकथा है, जिसको हम किसी भी तरह से प्रणयकथा नहीं कह सकते है । इस विवाहकथा में इन दोनों के अलावा जो एक अन्य पात्र है वह कण्व मुनि है । लेकिन कालिदास ने शकुन्तला के ही दो तरह के व्यक्तित्वों की कल्पना करके उन दोनों व्यक्तित्वों को प्रियंवदा और अनसूया जैसी दो सहेलियों के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत किया है । वह उनकी कल्पनाशक्ति का ही आविष्कार मानना होगा । इसी तरह से अन्यान्य पात्र के लिए भी कहा जायेगा । लेकिन इस नाटक में मानवों के उपरान्त जो एक मानवेतर पशु, पक्षी, लता-वृक्षादि की सृष्टि है वह कवि की क्रान्तदृष्टि का चमत्कार है ।। दुष्यन्त-शकुन्तला की प्रणयकथा तो रंगभूमि पर क्रमशः प्रस्तुत हो ही रही है, लेकिन उनके साथ साथ में पृष्ठभूमि में वही प्रणयकथा निसर्ग में भी चल रही है, वह कवि कालिदास ने बार बार दिखाया है । जैसे कि, नवमालिका और सहकार वृक्ष का स्वयंवर, जन्म दे कर जिसकी माता मर गई थी और जिसका शकुन्तला के हाथ से संवर्धन हुआ था ऐसा मृगपोतक एक ओर, तो दूसरी ओर शकुन्तला को जन्म देकर मेनका का स्वर्ग में चला जाना, एक ओर गर्भमन्थरा हरिणी को देख कर उसके अनघप्रसवा होने की चिन्ता, तो दूसरी ओर आपन्नसत्त्वा शकुन्तला का पतिगृह की ओर प्रयाण करना .... इत्यादि । एक पार्श्व में मानवजीवन का प्रवाह, तो दूसरे पार्श्व में उससे मिलता-जुलता निसर्गस्थित लता-वृक्ष एवं पशु-पक्षिओं का जीवनप्रवाह ! एक रंगमंच पर दो दो सृष्टियाँ सजीव साकार करके अभिनीत की जा रही है !! और उसकी अद्वितीयता इस बात में है कि दोनों सृष्टियाँ अविनाभाव सम्बन्ध से परस्पर में सुसंयोजित है !!! अन्त में इतना ही कहना होगा कि कालिदास को महाभारत में से दुष्यन्त-शकुन्तला की केवल विवाहकथा ही नहीं मिली थी, बल्कि मालिनी नदी के परिसर में फैली हुई नैसर्गिक सृष्टि में बीज रूप से बोई हुई प्रणयकथा भी वहीं से मिली थी !!!! अतः अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक की शब्दसृष्टि में जो सार्वभौम दर्शकों में एकसमान संवेदना उद्दीपित करने का अद्वितीय सामर्थ्य है, उसका रहस्य उपर्युक्त सन्दर्भों में देखना चाहिए ।। ------ 888888 ------ सन्दर्भ-ग्रन्थ सूचि ।। 1. The Abhijnanasákuntalam of Kalidasa, Ed. M.R. Kale, Motilal Banarasidass, Delhi, 1969 2. अभिज्ञानशाकुन्तलम् । ( राघवभट्टस्यार्थद्योतनिकया टीकया समलंकृतम् ), सं. नारायण राम, प्रका. राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान, नव देहली, 2006 3. महाभारत आदिपर्वन् । सं वी. एस. सुकथंकर, भाण्डारकर ओरिएन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट, पूणें, 1933 4. ध्वन्यालोकः । सं. आचार्य विश्वेस्वर, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी, 1984 5. शाकुन्तल । सं. एवं गुजराती-अनुवादक श्री उमाशङ्कर जोशी, गूर्जर ग्रन्थरत्न कार्यालय, अहमदावाद, 1988, ( तृतीयावृत्ति ).