कालिदास गुप्तकालिक विक्रमादित्य के साथ कैसे जुड़े हैं?– नवोन्मेष
वसन्तकुमार म. भट्ट
पूर्व-निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात युनिवर्सिटी, अहमदावाद – 380 009
भूमिका– महाकवि कालिदास का समय निश्चित करने के लिए विगत सो वर्षों में विवध प्रमाण उपस्थापित किये गये हैं ।किन्तु इन में से एक भी प्रमाण या विचारसर्वसम्मत नहीं बन सकाहै । इस विषय को लेकर दो पक्ष पैदा हुए हैं । जिनमें से प्रथम पक्ष है कि कवि कालिदास ई. सा. पूर्व प्रथम शताब्दी में पैदा हुए है । शुंगवंश के राजा अग्निमित्र को नायक बना कर जो मालविकाग्निमित्र नाटक की रचना की गई है, वह इस बात का प्रमुख प्रमाण है । दूसरे पक्ष मेंकहा जाता है कि वे पाटलिपुत्र (मगध) के चन्द्रगुप्त द्वितीय, जिसने विक्रमादित्य नाम धारण किया था, के समय में ( ई.स. 380 – 414 ) पैदा हुए थे । अर्थात् कालिदास 4वीं शती में पैदा हुए थे । इस गुप्तकाल को संस्कृत भाषा एवं साहित्य का सुवर्ण-युग माना जाता है । क्योंकि समुद्रगुप्त एवं उनके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय ने ही संस्कृत को राजभाषा का दरज्जा दिया था । इस काल की सुवर्णमुद्राओं पर समुद्रगुप्त के लिए संस्कृत में "सर्वराजोच्छेत्ता" शब्द उत्कीर्ण किया हैं, जो इसकी गवाह दे रहे हैं । अस्तु । इस तरह, कालिदास के समय को लेकर दो पक्ष उपस्थापित किये गये हैं ।यहाँ, समानान्तर चलनेवाले दो पक्ष ही यदि प्रवर्तमान होते तो विवाद का स्वरूप सर्वसामान्य प्रकार का रहता ।।
परन्तु जब ऐसा भी कहा जाता है कि विक्रमादित्य की राजसभा के नव रत्नों में से एक कालिदास थे, मतलब कि उन दोनों की जोडी थी, उनके बीच आश्रय-आश्रित सम्बन्ध था, तब यह प्रश्न कालिदास की तिथि-निर्णय तक सीमित न रह कर, विक्रमादित्य की पहचान और उसके स्थिति-काल के निर्णय को भी शोध के दायरे में घीसिट कर ले आता है ! जैसे कि (1) उज्जयिनी (मालवा) का विक्रमादित्य, जो गर्दभिल्ल का पुत्र कहा जाता है, जिसने शकों का पराभव किया था, और उसने विक्रमी संवत् (ई.स. 57में) शुरू करवाया था, वह विक्रम कालिदास का आश्रयदाता था । अथवा, (2) मगध में आकारित हुए गुप्तवंश में जो चन्द्रगुप्त-2 , जिसने भी शकों को मार कर विक्रमादित्य नाम धारण किया था, तथा मालवा में भी उसने अपना राज्यविस्तार किया था और जिसका स्थिति-काल ई.स. 380 से 414 के बीच निर्धारित किया गया है, उसके समय में कालिदास को पैदा हुए माना जाय ।। शायद ही ऐसा कोई इतिहासविद् होगा कि जिसने इस विषय पर अपनी कुछ राय नहीं लिखी होगी । यह विषय अत्यन्त रसप्रद होने के साथ साथ अनेक पक्ष-प्रतिपक्ष के प्रमाणों और किंवदन्तीओं से खचाखच भरा हुआ है । अतः शायद ही कोई इतिहासविद् ऐसा हो सकता है जो गुमराह होने से बच पाये !अतः संस्कृतज्ञ विद्वान् पूर्वोक्त दो पक्षों की जानकारी प्राप्त होने के बाद, दिङ्-मूढ होकर खडा रह जाता है ।।
किन्तु विरल पुराविद् विद्वान् डॉ. रामचन्द्र तिवारी ( भोपाल ) ने अपने "कालिदास की तिथि-संशुद्धि"( ईस्टर्न बुक लिंकर्स, दिल्ली, 1989 ) शीर्षकवाले ध्यानार्ह, बल्कि अनुपेक्ष्य ग्रन्थ में यह सिद्ध किया है कि महाकवि कालिदास के काल-निर्धारण में (क) अग्निमित्रवाद ( ई.पू. दूसरी सदी), और (ख) संवती-विक्रमवाद ( ई.पू. प्रथम सदी ) सप्रमाण निरस्त हो जाते हैं । तथा (ग) गुप्तवाद के भी तीन वादों – समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त-2, तथा कुमारगुप्त में से प्रथम दो को अप्रमाणिक सिद्ध किये हैं । उनके अभिमत से कालिदास कुमारगुप्त प्रथम के समकालिक सिद्ध होते हैं ।। यद्यपि उन्होंने कालिदास को प्राचीनतम काल में रखने के लिए अद्यावधि उपस्थापित सभी प्रमाणों और विचारधाराओं का पुरातात्त्विक दृष्टि से सर्वाङ्गीण परीक्षण एवं परिहार प्रस्तुत कर दिया है, तथापि उनके पूर्वोक्त ग्रन्थ में जिस विषय पर गभीरतया सोचने की बात बनी ही नहीं है, वैसी एक अस्पृष्ट दिशा से यहाँ विचार किया जा रहा है । जैसे कि, अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक कीजिन पाण्डुलिपियों में कुत्रचित् विक्रमादित्य का जो नाम-निर्देश मिलता है,उन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता थी । परन्तुइस पर किसे ने प्रस्तूयमान दृष्टि सेचिन्तन नहींकिया है। अतः प्रस्तुत शोध-आलेख में, ऐसी पाण्डुलिपियों में संचरित हुएविविध प्रक्षेपादि सहित के पाठान्तरों में से, गर्भित रूप से सूचित हो रहे, एक अनूठे प्रमाण की ओर ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है ।।
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हाँ, पाण्डुलिपिओं के प्रमाण को पुरस्कृत करते हुए जो एक विचारणा पहले हो चूकि है, उसका ऊहापोह प्रथम कर लेना आवश्यक हैः-- डॉ.राजबली पाण्डेय जी ने कहा है कि मालवगण मुख्य विक्रमादित्य कालिदास के आश्रयदाता हो सकते है या नहीं ? अभिज्ञानशाकुन्तल की कतिपय प्राचीन प्रतियोंमें नान्दी के पश्चात् लिखा मिलता है कि इस नाटक का अभिनय विक्रमादित्य की अभिरूप भूयिष्ठ परिषद में हुआ था । जैसे कि, "आर्ये, इयं हि रसभावविशेषदीक्षागुरो-,र्विक्रमादित्यस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत् ।" ( जीवानन्द विद्यासागर संस्करण, कलकत्ता, 1914 ई.स. ) अभी तक विक्रमादित्य एकतान्त्रिक राजा ही समझे जाते रहे हैं । किन्तु काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के हिन्दी-विभागाध्यक्ष स्वर्गीय श्रीकेशवप्रसाद मिश्रजी के पास सुरक्षित अभिज्ञानशाकुतल की एक हस्तलिखित प्रति ने विक्रमादित्य का गण ( गणतन्त्र ) से सम्बन्ध व्यक्त कर दिया है । ( इस पाण्डुलिपि का प्रतिलेखन-काल अगहन सुदी 5, संवत् 1699 है ) उसके निम्नोक्त दो अवतरण ध्यान देने योग्य हैः—(अ) "आर्ये रसभावविशेषदीक्षागुरोः विक्रमादित्यस्यसाहसाङ्कस्या-भिरूपभूयिष्ठा परिषत् । अस्यां च कालिदासप्रयुक्तेनाभिज्ञानशाकुन्तलेन नवेन नाटकेनोपस्थातव्यमस्माभिः । (नान्द्यन्ते)" ।, एवं भरतवाक्य के उपर दिये हुए एक श्लोक में (आ) "भवतु तव बिडौजाः प्राज्यवृष्टिः प्रजासु, त्वमपि विततयज्ञो वज्रिण भावयेथाः । गणशतपरिवृतैरेवमन्योन्यकृत्यै,र्नियतमुभयलोकानुग्रहश्लाघनीयैः ।।" उपर्युक्त अवतरणों में रेखाङ्कित पदों से यह स्पष्ट जान पडता है कि जिन विक्रमादित्य का यहाँ निर्देश है उनका व्यक्तिवाचक नाम विक्रमादित्य है, और उपाधि "साहसाङ्क" है । भरतवाक्य का "गण" शब्द राजनीतिक अर्थ में गणराष्ट्र का द्योतक है ।" इत्यादि ।। इस तरह डॉ. राजबली पाण्डेय जी ने ई.पू. प्रथम सदी में हुए उज्जयिनी के विक्रमादित्य कीऐतिहासिकता सिद्ध हो रही है ऐसा एक पाण्डुलिपि के साक्ष्य से घोषित किया है ।।
परन्तु, पाण्डुलिपियों के साक्ष्य को लेकर जब कुछ भी बताना है तो पाण्डुलिपियों के व्यापक सर्वेक्षण की पहले अनिवार्य आवश्यकता होती है । केवल एक हस्त-लिखित प्रति के आधार पर जो कहा जायेगा वह कालान्तर में अन्यथा सिद्ध हो सकता है । जैसा कि हमने देश-विदेश-व्यापी विभिन्न ( 70 से अधिक ) पाण्डुलिपियों का तुलनात्मक अध्ययन करके पीछले तीन वर्षों में कुछ गवेषणाएं उपस्थापित की हैं । जिससे अद्यावधि अनजान रही इस नाटक की पाठयात्रा का चित्र सामने आ गया है । अब इस विषय का निरूपण निम्नोक्त पेरा में किया जाता है ।।
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अभिज्ञानशाकुन्तल शीर्षक से सुप्रचलित हुआ यह नाटक कुल मिला के पाँच तरह की वाचनाओं में संचरित होकर हम तक आज पहुँचा है । हमारी पाण्डुलिपि-सम्पदा का यदि सम्यक् आलोडन किया जाय तो उसमें भी पाठान्तरों के पीछे प्राचीन ग्रन्थों के पाठसंचरण का इतिहास छीपा हुआ होता है । इन पाण्डुलिपियों का विश्लेषण करने से किसी भी ग्रन्थ का प्राचीन से प्राचीनतर, एवं प्राचीनतर से प्राचीनतम पाठ ढूँढा जा सकता है, तथा अन्ततो गत्वा कवि-प्रणीत मूलपाठ का अनुमान भी हम लगा सकते है । विगत सो वर्षों के अन्तराल में विद्वानों ने शाकुन्तल नाटक की पाँच वाचनाओं की जानकारी दी है । जैसे कि, 1. शारदालिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में सुरक्षित रहा काश्मीरी वाचना का पाठ, 2. बिहार की मैथिली-लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ मैथिली वाचना का पाठ, 3. बंगाली लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ बंगाली वाचना का पाठ, 4. दक्षिणभारत की ग्रन्थ, तेलुगु, नन्दीनागरी आदि लिपियों में संचरित हुआ दाक्षिणात्य वाचना का पाठ एवं 5. उत्तर-पश्चिम-मध्य भारत में प्रचलित देवनागरी लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में संचरित हुआ देवनागरी वाचना का पाठ ।। यद्यपि इन वाचनाओं के "समीक्षित पाठ-सम्पादन" (Critically Edited Text) काकार्य अभी तक सम्यक् तया सम्पन्न नहीं किया गया है । तथापि हमने शारदा पाण्डुलिपियों में संचरित हुए काश्मीरी पाठ का सम्पादन तैयार करते हुए, इसका जो अन्य वाचनाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन किया है, उससे इतना तो सप्रमाण सिद्ध होता है कि उपलब्ध इन पाँचों वाचनाओं में काश्मीरी वाचना ही सब से पुरानी है । लिपियों के आनुक्रमिक विकास को देखा जाय तो भी ब्राह्मी लिपि से क्रमशः विकसित हुई लिपियों में काश्मीर की शारदा लिपि ही, मैथिली या बंगाली की अपेक्षा से, प्राचीनतम सिद्ध होती है ।एवमेव, अलंकारशास्त्र के प्राचीनतम ग्रन्थों में उद्धृत हुए शाकुन्तल के अवतरणों को देखा जाय तो वे काश्मीर की पाठपरम्परा में से लिए गये हैं– ऐसा असंदिग्ध रूप से देखा जा रहा है । तथा,इस नाटक के बहुविध पाठभेदों में से जो पाठान्तर काश्मीरी वाचना में सुरक्षित रहे हैं, वही पाठान्तर कृतिनिष्ठ आन्तरिक सम्भावना से युक्त है ऐसा भी सिद्ध होता है । मतलब किउच्चतर समीक्षा से भी काश्मीरी वाचना के शारदा-पाठ को ही अधिक श्रद्धेय एवं प्राचीनतम होने का यश मिल रहा है ।।
काश्मीरी वाचना के पाठ का प्राचीनतमत्व सिद्ध होने के बाद, द्वितीय क्रमांक पर मैथिली वाचना का पाठ आता है और बंगाली वाचना का पाठ तृतीय क्रमांक पर सुग्रथित किया गया है । इन तीनों पाठपरम्पराओं में यह भी देखा जाता है कि नाटक का मूल (कविप्रणीत) पाठ क्रमशः बृहत् से बृहत्तर, एवं बृहत्तर से बृहत्तम बनता गया है । ( नाटक के पाठ की ऐसी इयत्ता भी, जो उक्त रीति से वृद्धिंगत होती रही है, उससे भी निश्चित होता है कि उपलब्ध पञ्चविध पाठों में से काश्मीरी में संचरित हुआ बृहत् पाठ प्राचीनतम है, मैथिली में संचरित हुआ बृहत्तर पाठ प्राचीनतर है, और बंगाली का बृहत्तम पाठ केवल प्राचीन है । ) तदनन्तर, चतुर्थ क्रमांक पर दाक्षिणात्य वाचना के पाठशोधकों या सूत्रधारों ने उस बृहत्तम पाठ में भारी कटौती करके, ( अल्प-समयावधि में इस नाटक की रंगमंच पर प्रस्तुति करने के लिए ) तृतीयाङ्क में से दो दृश्यों को निकाल कर, एक लघु आकार का पाठ सम्पादित किया है । यह संक्षिप्त किये गये पाठ में कुछ पाठान्तर काश्मीरी वाचना में से लिए गये हैं, तो कुछ पाठान्तर मैथिली एवं कुछ बंगाली से भी लिए गये हैं । तत्पश्चात् पञ्चम क्रमांक पर, सब से अन्त में, देवनागरी वाचना का पाठ सुग्रथित किया गया है, जिसमें भी पुरोगामी काश्मीरी-आदि चारों वाचनाओं में से विविध पाठान्तरों को चुने गये हैं । तथा उसको दाक्षिणात्य की अपेक्षा से अधिक संक्षिप्ततर बनाई गई है ।इन पाँचों वाचनाओं का ग्रथन काल ( या रंगावृत्ति में परिवर्तित होने का काल ) दूसरी-तीसरी शती से लेकर14वीं शती तक फैला हुआ प्रतीत हो रहा है ।। ( इस सन्दर्भ में, मेरा शोध-आलेख "अभिज्ञानशाकुन्तल के पाठविचलन की आनुक्रमिकता" द्रष्टव्य है । )
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इस नाटक की उपलब्ध हो रही पाँच वाचनाओं में उपर्युक्त पौर्वापर्य निर्धारित हो रहा है, इतना बताने के बाद हमें यह भी जानना अतीव आवश्यक है कि इन पाँचों वाचनाओं को परस्पर से पृथक् करनेवाले भेदक-बिन्दुएँ कौन कौन दिखाई दे रहे हैं ? तो, काश्मीरी वाचनाके पाठ मेंनाटक का शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तला" दिया गया है, मैथिली वाचना में वही शीर्षक "अभिज्ञानशकुन्तलम्" किया गया है, जो बंगाली वाचना के पाठशोधकों ने यथावत् रखा है । दाक्षिणात्य वाचना और देवनागरी वाचना की पाण्डुलिपियों में वह शीर्षक "अभिज्ञानशाकुन्तलम्" बनाया गया है । इसके उपरान्त भी, प्रत्येक वाचना की पाण्डुलिपियों में कुछ महत्त्वपूर्ण पाठभेद मिलते हैं, जो हर वाचना की अलग पहचान सिद्ध करने में भेदक स्थान बन गये हैं । तद्यथा –
(1) काश्मीरी वाचना में, (क) नायक का नाम दुष्ष्यन्त है, (ख) नान्दी पद्य में "या स्रष्टुः सृष्टिराद्या पिबति विधिहूतं0"ऐसा पाठभेद एवं पदक्रम है, (ग) नायक दुष्ष्यन्त की पूर्वपरिणीता रानी का नाम कुलप्रभा है, (घ) सप्तमांक के प्रवेशक में दो नाकलासिकाओं का नृत्य-दृश्य है,(ङ) प्रियंवदा-अनुसूया के लिए चित्राविशाखे का उपमान देनेवाली उक्तियाँ हैं , (च) गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः ।0 जैसा श्लोक नहीं है । एवं (छ) शकुन्तला-विदाय के प्रसंग में "यथा शरीरस्य शरीरिणश्च पृथक्त्वमेकान्तत एव भावि । आहार्ययोगेन वियुज्यमानः परेण को नाम भवेद् विषादी ।।" ऐसा औपनिषदिक दर्शन से भरा एक श्लोक कण्व के मुख में है ।।
(2) मैथिली वाचना में(क) नायक का नाम दुष्मन्त मिलता है ।, (ख) नान्दीपद्य में"या स्रष्टुः सृष्टिराद्या वहति0 ।" इस नवीन पाठभेद के साथ, काश्मीरी जैसा "या स्रष्टुःस्रृष्टिराद्या0" पदक्रम यथावत् मिलता है ।, (ग) प्रस्तावना में सूत्रधार के"आर्ये, रसभावविशेषदीक्षागुरोर्विक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषद् ।" वाक्य सेनामशः कहा जाता है कि किसकी सभा में यह नाटक अभिनीत किया जाता है । (घ)द्वितीय अङ्क का नाम "तपोवनानुगमन" रखा गया है,(ङ) प्रियंवदा-अनुसूया के लिए चित्राविशाखे का उपमान नहीं है ।, (च) चतुर्थाङ्क के आरम्भ में प्रभात-वर्णन के लिए जिन चार श्लोकों का पाठ है उनमें "कर्कन्धूनाम् तुहिनमुपरि0, पादन्यासं क्षितिधरगुरो0, यात्येकतोस्तशिखरम्0 तथा अन्तर्हिते शशिनि सैव कुमुद्वतीं मे0 ।" इस तरह का क्रम मिलता है, जो काश्मीरी वाचना जैसा ही है ।। इन बिन्दुओं के साथ में, दो बातें ओर ध्यानाकर्षक हैः- (छ)मैथिली वाचना में ही सब से पहली बार गान्धर्वेण विवाहेन बह्व्यो हि मुनिकन्यकाः ।0वाला श्लोक प्रक्षिप्त हुआ । इसके साथ साथ, कुल मिला के 11 नवीन पद्यों का ( सर्वाधिक संख्या में ) प्रक्षेप भी मैथिली वाचना में हुआ है । तथा (ज) राजा की दासी ( मेधाविनी ) के हाथ में से रानी वसुमती वर्तिका-करण्डक छीन लेती है । मतलब कि, इस तरह राजा की पूर्वपरिणीता रानी को ईर्ष्याकषायिता एवं बहुमानगर्विता दिखाने का काम मैथिली वाचना के पाठशोधकों ने किया है ।।
(3) बंगाली वाचना की पाण्डुलिपियों में, (क) साहसाङ्कस्य विक्रमादित्यस्य ...का निर्देश नहीं मिलता है ।, (ख) इसमें नायक का नाम दुःषन्त दिया गया है, (ग) नान्दी पद्य में, "या सृष्टिः स्रष्टुराद्या वहति0" जैसा पदक्रम आ गया ।, (घ) यहाँ द्वितीय अङ्क का नाम "आख्यानगुप्ति" रखा गया है, (ङ)इसमें शकुन्तला का "नलिनीपत्रान्तरितं चक्रवाकमपश्यन्ती चक्रवाकी आरटति0"वाक्य तथा "एषा प्रियेण विना रात्रिं गमयति0"वाली आर्या को हटाई गई है ।, (च) चतुर्थाङ्क के आरम्भ में प्रभात का वर्णन करनेवाले चार श्लोकों में "यात्येकतोऽस्तशिखरं0 , तथा अन्तर्हिते शशिनि0" श्लोकों को प्रथम-द्वितीय क्रमांक पर रखे गये हैं ।, (छ) प्रियंवदा-अनुसूया के लिए चित्राविशाखे का उपमान नहीं है ।, (ज) राजा की एक ही दासी के लिए मेधाविनी जैसा पुराना नाम एवं चतुरिका जैसा नया नाम – दोंनो नाम प्रवर्तमान है ।।
(4)लघुपाठवाली जो दो वाचनाएँ हैं उनमें से दाक्षिणात्य वाचना के पाठ में(क) नान्दी पद्य में "यामाहुः सर्वभूतप्रकृतिरिति0" ऐसा पाठभेद है, (ख) कुल पद्यसंख्या 193 है ।, (ग) षष्ठांक में उद्यानपालिका "चूतं हर्षितपिककं0" नयी आर्या का गान करती है, (घ) धीवर कहता है "भट्टा, तुम्ह केलए मे जीविदे" ।, (ङ) विदूषक ईर्ष्याकषायिता रानी के लिए "अन्तःपुरकलहाद्" शब्द का प्रयोग करता है ।।
(5) देवनागरी वाचना के पाठ में,(क) नान्दी पद्य में "यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति0" ऐसा पाठभेद है, (ख) कुल श्लोकसंख्या 191 है, (ग) उद्यानपालिका "आताम्रहरितपाण्डुरं0" जैसा आर्या का गान करती है, जो अन्यत्र सर्वत्र मिलती है, (घ) धीवर "भट्टा, अह कीलिशे मे आजीवे" (अथ कीदृशो मे आजीवः) ऐसा टोना मारता है ।, (ङ) विदूषक रानी के लिए "अन्तःपुरकालकूटाद्" शब्द का प्रयोग करता है ।।
देश-विदेश से प्राप्त की गई अनेक लिपियों में लिखी गई ( 70 से अधिक ) पाण्डुलिपियों का हमने अवलोकन किया है, तथा उन सब में उपलब्ध हो रहे विभिन्न पाठान्तरों के जटाजूट कातुलनात्मक अध्ययन किया है । इन पाँचों वाचनाओं का पार्थक्य किन किन पाठान्तरों में प्रकट हो रहा है उसका निष्कर्ष निकाला है, जिनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण पाठान्तरों को यहाँ नमुने के तौर पर ( पाँचों वाचनाओं के भेदक-बिन्दुओं के रूप में ) प्रस्तुत किये हैं ।। इस के उपरान्त, अब इतना निश्चित रूप से कहा जाता है कि सूत्रधार के मुख में जो "आर्ये, रसभावविशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत् ।" यह वाक्य है, जिसमें विक्रमादित्य का स्पष्ट नामोल्लेख हुआ है, वह मैथिली वाचना की पाण्डुलिपियों में ही इदं प्रथमतया दृश्यमान होता है । तथा ऐसा भी दिखता है कि कालान्तर में, कुत्रचित् देवनागरी लिपि में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में भी, ( अलबत्ता "साहसाङ्कस्य" शब्द को हटा कर, या सुरक्षित रखते हुए, ) उस तरह के नामोल्लेख का अनुसरण किया गया है ।।
[ 4 ]
अब प्रश्न होगा कि मैथिली वाचना की कौन कौन पाण्डुलिपियाँ हैं कि जिन में "आर्ये, रसभाव-विशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्या-भिरूपभूयिष्ठा परिषत् ।" इन शब्दों का संनिवेश हुआ है ? हमने किये 70 पाण्डुलिपियों के सर्वेक्षण में निम्नोक्त पाँच पाण्डुलिपियों में ही उपर्युक्त शब्द आये हुए है, तथा वे पाँचों पाण्डुलिपियों में मैथिली वाचना का पाठ दिया हुआ हैः—(1) मिथिला विद्यापीठ, दरभङ्गा से ( 1954 में ) निकला संस्करण, (2)नेशनल आर्काइव्झ ऑफ नेपाल,काठमण्डु की ताडपत्रवाली पाण्डुलिपि, क्रमांक :9 - 421 ।, (3) श्रीधर्मानन्द कौशाम्बी की पाण्डुलिपि, जो आज कालेलकर के दिल्ली-स्थित संग्रह में संगृहीत है, उसका क्रमांक :1006 है,(4) एशियाटीक सोसायटी, कोलकाता में संगृहीत एक पाण्डुलिपि, क्रमांक : जी. 340 है ।, ( इसके अन्त भाग में "दिनमणिदासेन कारानगरे गंगातीरे लिखितं" वर्ष -1669लिखा है ) तथा (5) होगटन कॉलेज, ( Houghton College )हार्वर्ड युनिवर्सिटी, अमरिका, इन्डिक मेन्युस्क्रीप्ट क्रमांक :1086 है ।। (6) इनके अलावा, मद्रास प्रदेश की ग्रन्थादि लिपियों में लिखी ताडपत्रीय पाण्डुलिपियों में भी "रसभावविशेषदीक्षागुरोर्विक्रमादित्यस्य ।" (( c ) , ( cy ), note ( N ), ( P N ( tnmarg ) R ), ( Pa F ) ) तथा "रसभावविशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्य साहसाङ्कस्या0" (( P DIN ( marg ) R )) ऐसे द्विविध निर्देश मिलते हैं ।।
यहाँ आये हुए "विक्रमादित्य साहसाङ्क" का नाम-निर्देश महत्त्वपूर्ण है । क्योंकि इन शब्दों से किस विक्रमादित्य की ओर अङ्गुलिनिर्देश किया गया है ?वह विचारणीय है । क्योंकि इतिहास के पृष्ठों पर प्रमुखरूप से दो विक्रमादित्य सामने आ रहे हैं । अतः, जनश्रुतियों में सुप्रचलित उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य, जिसको संवत्-प्रवर्तक माना जाता है, अर्थात् जो ई. पूर्व 57में हुए थे – उसका यहाँ उल्लेख है ? अथवा, क्या मगध का गुप्तवंशीय राजा चन्द्रगुप्त-2, जिसने भी विक्रमादित्य उपाधि धारण की थी, और जिसका शासनकाल 380 ई. स. से 414ई. स. माना गया है, उसका इन मैथिली पाठ को संजोये रखनेवाली पाण्डुलिपियों में उल्लेख हो रहा है ?। इस प्रश्न का सीधा उत्तर यही है कि उक्त पाण्डुलिपियों में जिस साहसाङ्क विक्रमादित्य का निर्देश किया जा रहा है, वह गुप्तवंश के चौथी शताब्दी में हुए चन्द्रगुप्त द्वितीय ही है । उनके पिता समुद्रगुप्त ने"पराक्रमाङ्क" की उपाधि धारण की थी, अतः कालान्तर में लोगों ने उसके पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय को "साहसाङ्क" कहा है । लेकिन बिरुदों के तिलक जब चढायें जाते हैं, तब उसके पीछे क्या कोई वास्तविक इतिहास छीपा हुआ है?यह भी गवेषणीय है । इस सन्दर्भ में, संस्कृत साहित्य से ही जो जानकारियाँ मिल रही है वह निम्नोक्त है :--
(1) बाणभट्ट (ई. स. 648) ने हर्षचरित ( उच्छ्वास-6 )नामक आख्यायिका में लिखा है कि प्रमाद-दोष के कारण भूतकाल में किन किन राजाओं की मौत हुई है : - "अरिपुरे च परकलत्रकामुकं कामिनीवेषगुप्तश्च चन्द्रगुप्तः शकपतिम् अशातयत् । ", और इस पर टीका लिखते हुए शङ्कर ने लिखा है कि, "शकानामाचार्यः शकाधिपतिः चन्द्रगुप्तस्य भ्रातृजायां ध्रुवदेवीं प्रार्थयमानः, चन्द्रगुप्तेन ध्रुवदेवीवेषधारिणा स्त्रीवेषजनपरिवृतेन व्यापादितः"।।
अर्थात् ( समुद्रगुप्त का ज्येष्ठपुत्र रामगुप्त शकों के साथ लडते हुए उनसे पराजित हुआ, परन्तु राजसत्ता के लालचु उस रामगुप्त ने राज्य वापस लौटाने के लिए अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को शकपति को दे देने का सोदा किया । इस प्रस्ताव से नाराझ हुए उसके अनुज ) चन्द्रगुप्त द्वितीय ने कामिनी का (ध्रुवदेवी का) वेष धारण करके, उस परस्त्री-कामुक शकपति को उसकी ही शिबिर में जा कर मार डाला था । इस प्रसंग के बाद जनसामान्य में वह "साहसाङ्क" नाम से भी विदित हुआ । डॉ. रामचन्द्र तिवारी (भोपाल) कहते हैं कि यह साहसाङ्क शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख 10वीं शती में हुआ है । लेकिन इस घटना का निर्देश चन्द्रगुप्त – 2 के ( 380 से 414 ई. स. ) समय के बाद बाणभट्ट ने ( 648 ई. स. में ) किया है, वह ध्यातव्य है । इसी तरह से 12वीं शती के रामचन्द्र-गुणचन्द्र ने अपने नाट्यदर्पण में विशाखदेव ( विशाखदत्त - ?) के देवीचन्द्रगुप्त नाटक से सात उद्धरण दिये हैं, उनमें भी इसी घटना की प्रतिध्वनि सुनाई देती है ।उदाहरणतया, (क) यथा देवीचन्द्रगुप्ते - "राजा (चन्द्रगुप्तमाह) – त्वद्दुःखस्यापनेतुं सा शतांशेनापि न क्षमा ।, ध्रुवदेवी – ( सूत्रधारीम् आह) – हञ्जे, इयं सा ईदृशी अज्जउत्तस्स करुणापराहीणदा ।, सूत्रधारी – देवि, पडंति चंदमंडलाउ वि चुडुलीउ किं एतु करिम्ह । ( देवि, पतन्ति चन्द्रमण्डलादपि उल्काः । किमत्र कुर्मः । - इति संस्कृतम् ) राजा – त्वय्युपारोपितप्रेम्णा त्वदर्थे यशसा सह । परित्यक्ता मया देवी जनोSयं जन एव मे ।।, ध्रुवदेवी – अहं पि जीविदं परिच्चयंती पढमयरंय्येव तुमं परिचइस्सं । - अत्र स्त्रीवेषनिह्नुते चन्द्रगुप्ते प्रियवचनैः स्त्रीप्रत्ययात् ध्रुवदेव्या गुरुमन्यन्तापरूपस्य व्यसनस्य सम्प्राप्तिः ।। " (ख) यथा देवीचन्द्रगुप्ते - "चन्द्रगुप्तः – ( ध्रुवदेवीं दृष्ट्वा स्वगतमाह ) इयमपि देवी तिष्ठति । यैषा, रम्यां चारतिकारिणीं च करुणां शोकेन नीता दशां, तत्कालोपगतेन राहुशिरसा गुप्तेव चान्द्री कला । पत्युः क्लीबजनोचितेन चरितेनानेन पुंसः सतो, लज्जा-कोप-विषाद-भीत्यरतिभिः क्षेत्रीकृता ताम्यति ।। "स तरह संस्कृत साहित्य में पौनःपुन्येन उल्लिखित इस घटना-चक्र की स्वीकृति अपरिहार्य है । तथा चन्द्रगुप्त के पिता समुद्रगुप्त को यदि पराक्रमांक कहा गया हो तो, पूर्वोक्त घटनाचक्र के बाद प्रजामानस ने चन्द्रगुप्त द्वितीय को साहसाङ्क का बिरुद दिया हो तो वह स्वाभाविक प्रतीत होता है । जिसने कालान्तर में मालवा – उज्जयिनी – में भी जाकर शकों को परास्त करके अपने को विक्रमादित्य घोषित किया हो, तो उसकी मगध-स्थित राजसभा में जब कालिदास का यह नाटक, कुछ नवीन प्रक्षेप एवं परिवर्तनादि के साथ प्रस्तुत किया गया हो तो, उस मौके पर सूत्रधार के मुख में "आर्ये, रसभावविशेषदीक्षा-गुरो-र्विक्रमादित्यस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत्"ऐसी बिरुदावली सहित के शब्दों का विनिवेश होना नामुमकिन नहीं है ।।
कहने का तात्पर्य यही है कि, चन्द्रगुप्त द्वितीय के ( चौथा शताब्दी के ) समय में कालिदास नहीं हुए थे, बल्कि उस समय तो कालिदास के इस नाटक के पाठ में परिवर्तन-परिवर्धनादि करके मगध की रंगभमि पर उसका मंचन हुआ होगा । इस नवीन मैथिली संस्करण के मंचन के मौके पर "विक्रमादित्य एवं साहसाङ्क" ऐसे दो बिरुदों वाले चन्द्रगुप्त – 2 के लिए"रसभाव-विशेष-दीक्षा-गुरोः"जैसे विशेषण का उपयोग करना भी बीलकुल समुचित लगता है । क्योंकि उन्होंने जब शकपति की हत्या करने के लिए स्त्रीवेष में ध्रुवदेवी बन कर शत्रु-शिबिर में जाना था तो उसके लिए आहार्य और आङ्गिक, तथा वाचिक अभिनय की विशेष तालीम ली होगी । एवमेव, जैसा टीकाकार शङ्कर ने लिखा है वैसे वह चन्द्रगुप्त अपने साथ कुछ सैनिकों को भी स्त्रीवेष पहनाकर, उन लोगों से परिवृत्त हो कर निकला था । तो उन सैनिकों को भी विशेष आहार्य-आङ्गिकादि अभिनयन की तालीम उसीने स्वयं दी होगी । यह स्वाभाविकतया अनुमानगम्य बात है । अतः मैथिली पाण्डुलिपियों में जो "रसभावविशेषदीक्षागुरोः"विशेषण रखा गया है वह यथार्थ सिद्ध होता है ।।अब यह स्पष्ट हो जाता है कि कतिपय पाण्डुलिपियों में "विक्रमादित्य" का जो नामनिर्देश मिलता है वह तो मगध के चन्द्रगुप्त-2 की राजसभा में जब अभिज्ञानशकुन्तल का नवीन मैथिली-संस्करण मंचन के लिए तैयार किया गया होगा उस बात का इङ्गित दे रहा है । नहीं कि कालिदास उस चौथी शताब्दी में, चन्द्रगुप्त-2 के समय में पैदा हुए थे । यदि कोई भी पुराविद इन (मैथिली) पाण्डुलिपियों से मिल रहे नाम-संकेत के आधार पर कालिदास को गुप्तकाल में सिद्ध करने का सोचता है, तो वह इस नाटक के पाठ का संचरण किस क्रम में, कैसे हुआ है ?अथवा इस नाटक के मंचन का भी कोई इतिहास रहा होगा, इस बात से नितान्त अनभिज्ञ ही है ऐसा हमें समझना होगा ।।
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उपर्युक्त चर्चा से ज्ञात होगा कि मैथिली वाचना की पाठपरम्परा में "आर्ये, रसभावविशेषदीक्षागुरोः श्रीविक्रमादित्यस्याभिरूप-भूयिष्ठा परिषत्"ऐसा वाक्य इदं प्रथमतया प्रयुक्त हुआ है, और विक्रमादित्य की उपाधि को धारण करनेवाले ( तथा लोगों के द्वारा जिसको साहसाङ्क के रूप में पहचाना गया था, उस ) चन्द्रगुप्त द्वितीय की राजसभा में (मगध में) उस मैथिल पाठ का मंचन हुआ होगा । इतना स्पष्ट होने के बाद, जैसा कि हमने उपरि भाग में कहा है, ई. स. पूर्व जिसके नाम से विक्रम संवत् का प्रवर्तन हुआ है, वह जनश्रुतियों में सुविख्यात विक्रमादित्य ( व्यक्तिवाचक नामवाले ) राजा के साथ कालिदास का नाम कैसे जुड़ गया होगा?वह भी विचारणीय है । तो सम्भवतः ऐसा लगता है कि मैथिली संस्करण का जब आविर्भाव चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में ( चौथी सदी में ) हुआ और उन मैथिल पाण्डुलिपियों में विक्रमादित्य साहसाङ्क का नाम संनिविष्ट किया जाने के बाद, कालान्तर में कुछ अज्ञात प्रतिलिपि-कर्ताओं ने देवनागरी लिपि में लिखी जानेवाली पाण्डुलिपियों में से साहसाङ्क शब्द को हटा दिया होगा, तथा केवल विक्रमादित्य उपाधि को सुरक्षित रखा होगा । जिसके कारण, ई. स. पूर्व हुए, उज्जयिनी की भूमि पर शासन करनेवाले, विक्रमी संवत् के प्रवर्तक विक्रमादित्य के साथ कालिदास को जोड़ देना आसान हो गया !अन्यथा, जैसा कि डॉ. रामचन्द्र तिवारी जी ने अनेक प्रमाणों से सिद्ध किया है वैसे, किसी भी तरह से विक्रमादित्य और कालिदास की जोड़ी सिद्ध होती ही नहीं है । यहाँ, पुनरुक्ति के दोष को उठाते हुए यह स्पष्ट करना चाहुँगा कि डॉ. रामचन्द्र तिवारी जी ने इन दोनों कि जोड़ी कथमपि सिद्ध नहीं होती है ऐसा सिद्ध करके, कालिदास को गुप्तकालीन सिद्ध करने को लक्ष्य बनाया है । किन्तु उनके ग्रन्थ का प्रतिपादन पढते हुए यह जिज्ञासा तो बनी ही रहती है कि तो फिर जनश्रुति में विक्रमादित्य और कालिदास की जोड़ी बनी कैसे, प्रचलित बनी कैसे ?इस जिज्ञासा की अपेक्षित संतुष्टि डॉ. तिवारी जी के ग्रन्थ से प्राप्त नहीं होती है । लेकिन प्रस्तुत आलेख में जैसा बताया गया है वैसा सोचने पर, यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि ई.स. पूर्व वाले उज्जयिनी के विक्रमादित्य के साथ कालिदास की जोड़ी बनाना आसान हो जाता है ।। यद्यपि यह एक सम्भावना के रूप में कहा गया है, फिर भी इस सम्भावना में तर्क अनुस्यूत है, इसको केवल कल्पना नहीं कहेंगे ।। अस्तु ।।
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एक पूरक कथनीय बिन्दु यह भी है कि अभिज्ञानशाकुन्तल के प्रथम अङ्क के अन्तिम श्लोक में चीनांशुकमिव केतोः प्रतिवातं नीयमानस्य । ऐसी एक पङ्क्ति आती है । प्रश्न होता है कि यह चीनांशुक शब्द यहाँ कैसे आया ?तो सब से पहले यह जान लेना उचित है कि अभिज्ञानशकुन्तला नाटक की प्राचीनतम वाचना के रूप में काश्मीरी वाचना ही सिद्ध होती है । उसमें तो चिह्नांशुकमिव ऐसा शब्द आया है । कालान्तर में जब मैथिली वाचना का तथाकथित परिष्कृत पाठ तैयार किया गया और विक्रमादित्य साहसाङ्क नाम से विदित बने चन्द्रगुप्त-2 की राजसभा में उसका मंचन हुआ था, उस मैथिल पाठ में ही इदं प्रथमतया चिह्नांशुक को चीनांशुक में परिवर्तित किया गया है । अब इतिहास इस बात का प्रमाण देता है कि चन्द्रगुप्त-2 के समय में ही फाहियान जैसा पहला चीनी यात्री भारत में आया था । तो उसके समय में आने लगे चीन के वस्त्रों का निर्देश भी मैथिली पाठ में प्रविष्ट करना तर्कसंगत प्रतीत होता है !इस नाटक का एक छोटा सा पाठान्तर भी यदि कब कहाँ दाखिल हुआ है ? वह सोचा जाय तो भी इस नाटक की पाठयात्रा पर निश्चित प्रकाश पड़ सकता है, उसका यह प्रमाण है !
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उपसंहार:कालिदास का काल-निर्धारण करने के लिए सब से पहले तो उनकी कृतिओं का पाठोद्धार होना चाहिए । आज हमारे सामनेछपी हुई किताबों में कालिदास के काव्यों का जो पाठ प्रचलित हुआ है उसकी हमने अनजान में ही सर्वांश में मौलिकता मान ली है । बहुशः विद्वज्जगत् इस व्यामोह में फसा हुआ दिख रहा है । प्रकृत में, अभिज्ञानशाकुन्तल का जो पाठ विविध लिपियों में लिखी हुई पाण्डुलिपियों में सुरक्षित पडा है, उनके पाठभेदों का सर्वाङ्गीण एवं गहन अध्ययन अपेक्षित है । दो हजार वर्षों से पहले लिखे गये जिस नाटक का पाठ पीढी दर पीढी संचरित हो कर, जो हम तक पहुँचा है उसमें स्वाभाविक ही है कि बहुविध प्रदूषण फैला होगा । जिसको बिना पहचाने कोई व्यक्ति अमुक एक-दो पाण्डुलिपि को लेकर, कालिदास और विक्रमादित्य की समकालिकता का विवाद नहीं सुलझा सकता है ।। प्रस्तुत आलेख में, इस नाटक की पाठयात्रा का जो क्रम दिखाया गया है उसके अनुसन्धान मेंकहा जा सकता है कि मैथिली वाचना की पाण्डुलिपियों में ही इदं प्रतमतया विक्रमादित्य का नाम निर्दिष्ट हुआ है । यह विक्रमादित्य शब्द चन्द्रगुप्त द्वितीय की उपाधि के रूप में प्रयुक्त हुआ था । तथा हर्षचरित से प्राप्त हो रहे पूर्वोक्त सन्दर्भ में देखा जाय तो यह निर्विवाद रूप से स्पष्ट हो जाता है कि उसको क्यूं "साहसाङ्क"और "रसभावविशेषदीक्षागुरु"भी कहा गया था ।। तथा कालान्तर में, पाण्डुलिपियों के प्रतिलिपिकर्ताओं ने उस एक साहसाङ्क शब्द को जाने-अनजाने निकाल दिया तो, जिसके फल-स्वरूप कालिदास जनश्रुतिओं में चल रहे विक्रमादित्य के साथ भी जुड गये !इस तरह आकारित हुए विवाद की पङ्किलभूमि में पुरावेत्ता लोग और जनश्रुतिओं में या परम्परा में श्रद्धा रखनेवाले कालिदासानुरागी लोग आमने सामने खड़े हो गये हैं !
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सन्दर्भ-ग्रन्थ सूचि
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8. नाट्यम्, ( अंकः – 71 – 74 ), सं. राधावल्लभ त्रिपाठी, ( रंगमंच एवं सौन्द्रयशास्त्र की त्रैमासिक शोध-पत्रिका ), सागर विश्वविद्यालय, सागर, 2011-12
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14. हर्षचरित : एक सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, द्वितीय संस्करण, 1964
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