मंगलवार, 15 दिसंबर 2009

हिन्दु धर्म में अहिंसा - एक अवलोकन

हिन्दु-धर्म में अहिंसा – एक अवलोकन
वसन्तकुमार म. भट्ट
निदेशक, भाषासाहित्यभवन, गुजरात विश्वविद्यालय,
अहमदावाद – 380009
www.vasantbhatt@blogspot.com
E-mail : bhattvasant@yahoo.co.in

हिन्दु-धर्म का इतिहास 5000 वर्षों से भी अधिक पुराना है । अतः हिन्दुधर्म में अहिंसा के विचार को लेकर कोई चिन्तन प्रस्तुत करना एक साहस ही सिद्ध हो सकता है । फिर भी, कुछ मुख्य एवं विशेष सीमा चिह्नरूप सन्दर्भों को लेकर, ब्राह्मण-संस्कृति के विस्तृत फलक पर विकसित हुये अहिंसा के विचार को परिमित शब्दों में कहने का प्रयास किया जाता हैः—
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ब्राह्मण-संस्कृति में ऋग्वेद के मन्त्रों में वैसे तो प्राधान्येन विविध देवताओं की स्तुतियाँ आयी हुई है । लेकिन इन्द्र, अग्नि आदि देवों की स्तुतिओं के साथ साथ
“ पुमान् पुमांसम् परिपातु विश्वतः ” ( एक पुरुष दूसरे पुरुष का सभी तरह से रक्षण करे ), और “ वसुधैव कुटुम्बकम् ” के विचार भी वेदमन्त्रों में प्रस्तुत हुए है । एवमेव, ऐसे ही सर्वात्मभाव को बढावा देने के लिये, अर्थात् सब जीव एक है - इस विचार से “ यह मामकीन है और दूसरा व्यक्ति परकीय है” ऐसे भेदभाव को हटाने के लिये, वेदों में यह भी कहा गया है कि “ यत्र भवति विश्वम् एक-नीडम् । ” ( जहाँ सारा विश्व चीडियों का एक घोंसला बनके रहे ) । धार्मिक कट्टरता के कारण होनेवाली हिंसा पर लगाम डालने के लिये ऋग्वेद में “ एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ” ( एक ही सत्य को बुद्धिमानों ने अनेक तरह से कहा है ) ऐसा भी स्पष्ट शब्दों में कहा गया है । इसका सूचितार्थ यही है कि ऋग्वेद में भले ही अहिंसा जैसे शब्द का सीधा प्रयोग नहीं दिखाई देता है, परन्तु किसी भी मनुष्य या पशु की हिंसा करने का तो नहीं कहा गया है - यह निश्चित है ।।
कालान्तर में जब यजुर्वेद की रचना हुई तब विविध प्रकार के यज्ञ-यागादि की स्पष्ट संकल्पनायें आविर्भूत हुई । जिसमें अनेक नित्य एवं नैमित्तिक यज्ञों का निरूपण हुआ और उसी परंपरा में अश्वमेध यागादि का विधान हुआ । जिससे पशु-बलि का कुरिवाज चल पडा । आदमी का कमजोर दिमाग पशुबलि से विरत तो हुआ नहीं, बल्कि नरमेध-याग की पराकाष्ठा तक पहुँचा । और वित्तैषणा, पुत्रैषणा एवं लोकैषणा से पीडित समाज ने यज्ञीय हिंसा हिंसा नहीं कहलाती, तथा यज्ञ के लिये मारे गये प्राणी को तो स्वर्ग ही मिलता है – ऐसा कपटी वाक्य भी प्रचार में रख दिया । ऋग्वेद एवं उपनिषदों के बीच में जो ब्राह्मण-ग्रन्थ लिखे गये, तथा बाद में जो पूर्वमीमांसा दर्शन विकसित हुआ उसमें ऐसी मान्यता ने स्थान लिया था । परन्तु ऋग्वेद की तरह उपनिषदों ने भी सर्वात्मभाव की ही बात पुकार के साथ कही थी और बहुविध उक्तिओं में उसे दोहराई थी । जीवात्मा और ब्रह्माण्ड की कोई भी हस्ती परस्पर से भिन्न नहीं है, सर्वत्र अभेद ही है, ऐसा कहनेवाले उपनिषदों का अद्वैतवाद तो शब्दान्तर से अहिंसा के विचार का ही सर्वथा दृढीकरण करनेवाला था – यह कहने की जरूरत नहीं है ।।

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फिर भी, कुछ कालावधि तक प्रवर्तित ब्राह्मण-संस्कृति की यज्ञक्रियाओं में जो पशु-हिंसा हो रही थी उसको रोकने के लिये, भगवान् बुद्ध ने करुणा का उपदेश दिया और भगवान् महावीर ने अहिंसा का उपदेश दिया । ब्राह्मण-संस्कृति में सुधार लाने का श्रेयः निःशङ्क रूप से श्रमण-संस्कृति को जाता है । और, चूँकि ब्राह्मण-संस्कृति में एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति – का विचार पूर्वप्रस्थापित था ही, बुद्ध और महावीर की वाणी का स्वीकार करने में ब्राह्मण-संस्कृति को ज्यादा कठिनाई नहीं हुई ।
परन्तु महाभारत में भगवद्गीता के नाम से जो श्रीकृष्ण एवं अर्जुन का संवाद निरूपित हुआ है उस में, राष्ट्रधर्म के उद्देश को लक्षित करके युद्ध की अनिवार्यता को स्पष्ट रूप से स्वीकारा भी गया है । अर्जुन ने जब घोर हिंसा की सम्भावना देखी तो उसने युद्ध नहीं करने का और संन्यास लेने का ही सोचना शूरु किया । परन्तु युगपुरुष श्रीकृष्ण ने कहा की इन आततायी ( आतंकवादीओं ) कौरवों को तुं नहीं मारेगा तो, आज जो हाल एक द्रौपदी का हुआ है वही हाल समाज की अन्य स्त्रीओं का भी होगा । अधर्म का फैलावा होने पर समाज और राष्ट्र की सुरक्षा पर खतरा पैदा हो सकता है । अतः श्रीकृष्ण की दृष्टि में धर्मयुद्ध तो अनिवार्य है ही । वह कहते हैः- क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ, नैतत् त्वयि उपपद्यते । अर्थात् हे अर्जुन ! तुम नपुँसकता को धारण न करो, यह तुम्हें शोभा नहीं देता है । इस तरह भगवद्गीता में राष्ट्रधर्म प्रेरित हिंसा को मान्यता दी गई है ।।
परन्तु उसी भगवद्गीता में, वैदिक यज्ञों की निन्दा भी की गई है और यज्ञ की विभावना ही बदल दी गई है – यह भी नितान्त सत्य है । अब निर्दोष पशु के बलि को किसी भी रूप में मान्यता नहीं थी । युगपुरुष श्रीकृष्ण की नयी सोच में स्वार्पण एवं कृतज्ञता बुद्धि से किया हुआ कर्म ही यज्ञ था । एवं लोकसङ्ग्रह की मंगलकारिणी बुद्धि से और अनासक्तिपूर्वक किया हुआ कर्म यज्ञ था । सीता या द्रौपदी की तरह समाज की अन्य स्त्रियाँ भी संरक्षणीय है – यह सोचना एक तरह का लोकसङ्ग्रह ही था । ऐसे लोकसङ्ग्रह के उद्देश्य से किया हुआ कोई भी युद्ध हिंसक नहीं माना गया है । क्योंकि आततायीओं को नहीं मार कर जो हिंसा को टाली जाती है, उससे कहीं अधिक हिंसा उन लोगों को जीन्दा छोडने से होती है । अतः युगपुरुष श्रीकृष्ण की यह सोच साम्प्रत भारत में अतीव ध्यानार्ह एवं प्रस्तुत है ।।

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भगवद्गीता में न केवल यज्ञ की विभावना ही बदली गई है, परन्तु उसमें सम्भवामि युगे युगे – जैसे शब्दों से जो अवतारवाद का शंख फूंका गया है, उसने भी हिन्दुस्तान में धार्मिक सहिष्णुता को बलिष्ठ बनायी है । यज्ञीय पशु-हिंसा की निन्दा करनेवाले बुद्ध को भी ब्राह्मण-संस्कृति ने, केशव धृतबुद्धशरीर....जय जगदीश हरे – ( गीतगोविन्द के ) इन शब्दों से भगवान् विष्णु के दश अवतारों में स्थान दिया है । कवि जयदेव के इन शब्दों को पुराणकारों ने भी सम्मान के साथ दृढीभूत कर दिया । एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति – तो वेदों में कहा ही गया था, इस लिये बुद्ध के करुणापूर्ण वचन ग्रहण करने में या महावीर के दयाप्रेरित जीव-अहिंसा के विचार को अपनाने में ब्राह्मण-संस्कृति को कोई बाधा ही नहीं थी ।
साथ में, अहिंसा के विचार पर तात्त्विक विचार करते हुये योगमहर्षि पतञ्जलि को अहिंसा में क्या बल है यह भी अनुभूत हो गया । उन्हों ने लिख दिया कि – अहिंसाप्रतिष्ठायाम् सर्व-प्राणिनाम् वैरत्यागः ( भवति ) ।। जो आदमी ने सम्पूर्णतया अहिंसा सिद्ध करली है उसकी ओर अन्य सभी प्राणी भी वैर का त्याग करके रहते है ।
इस तरह से, हिन्दुधर्म में वेदकाल से अन्य शब्दों में अभिव्यक्त हुआ अहिंसा का विचार, कुछ कालावधि में प्रकट शब्दों में बद्धमूल हो गया ।।

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धार्मिक ग्रन्थों के सन्दर्भों के अलावा संस्कृत-साहित्य में यदि दृष्टिपात् किया जाय तो भी हिन्दुधर्मियों में अहिंसा की भावना जिस रूप में प्रवहमान थी उसका अन्दाजा मिल जायेगा । सब से पहेले कविकुलगुरु कालिदास के द्वारा अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक में मानव और प्रकृति का जो सम्बन्ध चित्रित किया गया है उसे ही देखना उपयुक्त रहेगा । कवि ने कहा है कि नायिका शकुन्तला को शरीर-सुशोभन करना पसंद था, परन्तु आश्रम के हरेक पौधे पर इनके मन में इतना स्नेह था कि वह एक पर्ण-पुष्प भी तोडती नहीं थी । वह अपनी सहेलियों से कहती है कि – अस्ति मम एतेषु सोदरस्नेहः । अर्थात् शकुन्तला को सभी वनस्पति के उपर सहोदर जैसा स्नेह था । और वन-उपवन में विचरण करनेवाले मृगों पर भी अपार दयाभाव था । जिसके कारण वह घास खाते समय मृगों के मुँह में लगे कण्टक के घाव को मिटाने के लिये उनके मुँह पर इङ्गुदीफल का तैल लगा देती थी । यह वह प्रकृति के सब सदस्य है जिसने शकुन्तला को जन्म से ले कर सुरक्षित रखी थी । माता मेनका ने तो शकुन्तला को जन्म दे कर ही जंगल में अनाथ छोड दी थी, परन्तु शकुन्तों ( पक्षिओं ) ने उसे पहेले दिन पाला था, इसी लिये वह शकुन्तला कहलाई थी । यहाँ महाकवि ने मानव और प्रकृति का अभिन्न सम्बन्ध दिखाया है । जो सारे विश्व भर के साहित्य में बेजोड है । अन्यत्र ( युरोपिय देशों में ) तो पृथिवी के केन्द्र में मानव है, और पूरी प्रकृति मानव के उपभोग के लिये है – ऐसी मान्यता प्रवर्तित की गई है । लेकिन भारतीय नायिका – शकुन्तला अपने सुशोभन के लिये भी एक पर्ण भी तोडना पसंद नहीं करती है, और वन के मृगों तक की देखभाल रखती है, क्योंकि वह प्रकृति को अपना अङ्ग ही समझती है । ऐसी माता शकुन्तला का पुत्र आगे चल कर एक बडा चक्रवर्ती राजा बनता है । इस पुत्र का नाम हैः- भरत । अर्थात् सब का भरण-पोषण करनेवाला । और इस भरत के नाम से यह देश भारत कहलाया । ( जो सब का भरण करनेवाला है, जो किसीका विनाश करना नहीं चाहता है । )

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इस प्रसंग में संस्कृत साहित्य का एक अप्रकट और अज्ञात चिन्तन भी बताना अत्यन्त आवश्यक है । इस अमर साहित्य में, आदिकवि वाल्मीकि के समय से ही एक शब्द बार बार प्रयुक्त होता रहा हैः- अनुक्रोश । जिसका अर्थ होता है – परदुःखदुःखिता । = दूसरे के दुःख को देख कर स्वयं दुःखी हो जाना । इस शब्द से व्यक्त होनेवाला जो अर्थ है वह करुणा और दया के बीच का है । करुणा और दया बडे महनीय मानव-धर्म है, परन्तु इस धर्म की ओर ले जानेवाला जो मानवीय तत्त्व है वह है – अनुक्रोशत्व । संस्कृत-साहित्य में बार बार उल्लिखित हुआ यह अनुक्रोशत्व ही अहिंसा का बीजभूत तत्त्व है । रावण ने सीताजी को, अपहरण करके ले जाने के बाद, उसको वशीभूत करने के अनेक बार प्रयास किया । परन्तु वह कभी सफल नहीं हुआ था । यहाँ प्रश्न होता है कि – ऐसी स्थिति में रावण ने सीताजी को क्यूं नहीं मार डाला ? तब वाल्मीकि कहते है कि रावण हंमेशा यही सोचता था कि शस्त्राघात करने पर उसको कितनी वेदना होगी ? – यह थी अनुक्रोश-बुद्धि, जिसके कारण रावण ने सीता को अन्त तक जीवित रखी थी । दूसरी ओर कुन्दमाला नामक नाटक में कवि कहते है कि लव और कुश जब आश्रम में कोई शरारत करते थे तो सीता उन दोनों को “ निरनुक्रोशपिता के पुत्र ” कहे कर उन को पुकारती थी । यहाँ लव-कुश के लिये सीताजी ने जो संज्ञा का प्रयोग किया है वह बडी मार्मिक है । इस में सीताजी की एक शिकायत छीपी हुई हैः— एक सगर्भा स्त्री को घर से नीकाल देते समय किसी भी पुरुष को सोचना चाहिये कि उसे क्या पीडा भुगतनी होगी । कोई भी सामान्य पुरुष जिस पीडा को समझ सकता है वह पुरुषोत्तम राम नहीं समझ सके । जब राम में इस प्रकार का अनुक्रोशत्व ही नहीं है ऐसा सीता को अनुभूत होता है तब वह राम के लिये निरनुक्रोश शब्द का प्रयोग कर रही है । ( यद्यपि यहाँ एक स्पष्टता करनी अत्यंत आवश्यक भी है कि राम यदि पुरुषोत्तम थे उन्होंने ऐसा क्यूं किया । राम ने सीता के प्रति निरतिशय स्नेहभाव होते हुये भी लोकाराधन के व्रत को अपना सर्वोच्च धर्म माना था, उस लिये वह वज्र से कठोर हो कर सीता के प्रति निरनुक्रोश बन सके थे । यह कोई अन्य पामर मनुष्य के वश की बात नहीं थी ।। - यह बात भी कुन्दमाला नाटक लिखनेवाले दिङ्नाग कवि को अनजान नहीं थी । )
संस्कृतकविओं का समुदाय इस अनुक्रोशत्व को एक मानवीय तत्त्व के रूप में प्रस्थापित करते रहे है । महाकवि कालिदास का यक्ष भी मेघदूत के अन्त में बादल से कहता है कि हे मेघ, तुम मुझ पर अनुक्रोश-बुद्धि से देखो और मुझे साहाय्य करो । मेरा सन्देश मेरी प्रियतमा के पास ले जाओ । यदि तुम भी अपनी प्रिया से वियुक्त हो गया होतो तुम कितने दुःखी रहोंगे – यह सोच कर तुम मेरी मदद करो । इसी को अनुक्रोशत्व कहते है । एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को गीरते हुए देख कर ही तुरंत उसको उठाने के लिये दौड जाता है – यह अनुक्रोश है । जो एक मानव-सहज संवेदना है, और यही सच्चा मानवीय तत्त्व है ।
कालिदास की तरह, नाट्यकार भास ने भी इस अनुक्रोशत्व नामक गुण की अनेक स्थानों पर प्रशंसा की है । अविमारक नामक नाटक में कुरंगी नाम की राजकुमारी पर मदोन्मत्त हस्ती का आक्रमण होने जा रहा था और सभी नगरजन तितर-भीतर हो गये थे, तब केवल एक अज्ञात युवक ने तुरंत वहाँ आकर हस्ती को मार भगाया, और राजकुमारी को जीवनदान दिया । यहाँ कवि भास ने कुरंगी की माता से कहलाया है कि यह युवक भले ही अज्ञात-कुल हो, परन्तु उस युवक ने निश्चित ही अपने आपको ( ईश्वर के अपार ) कारुण्य के ऋण से मुक्त करवा लिया है । संस्कृतसाहित्य के कविलोग यह मानते है कि ईश्वर की अपार करुणा के बिना हमें न सूरज की रोशनी मिल सकती है, आकाश से न जल की वृष्टि होती, न श्वास लेने को प्राणवायु मिलती । हम सब पर ईश्वर की करुणा का अनहद ऋण है और इस ऋण से मुक्त होने के लिये हमें सभी प्राणिओं के प्रति अनुक्रोश रखना चाहिये ।।
संस्कृत कविओं की सोच है कि ईश्वर द्वारा हम पर प्रदर्शित की गई करुणा को ध्यान में लेते हुये हमें भी अन्य जीवों के प्रति अनुक्रोश-बुद्धि रखते हुये जीवन जीना चाहिये । क्योंकि, यदि हमारा जीवन ही किसी की करुणा पर निर्भर है । तो अनुक्रोशत्व का पालन करना हमारा धर्म बन जाता है । इस अनुक्रोश में से ही दया का उदय होता है । भूत मात्र पर जब दया पैदा होती है तो अहिंसा अपने आप हमारे आचार का अभिन्न अङ्ग बन जायेगी ।।

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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

लोकसङ्ग्रह के लिये क्या महाभारत का युद्ध अनिवार्य था ?

‘लोकसंग्रह’ के लिए क्या महाभारत का युद्ध अनिवार्य था ?
वसन्तकुमार म. भट्ट
आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग,
निदेशक, भाषासाहित्यभवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380 009

( अन्ता-राष्ट्रिय-संस्कृत-सम्मेलन, युनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान, 18 – 20 जुलाई, 2009, जयपुर )

भूमिका – ब्राह्मण-संस्कृति के वैदिक यागों में पशुबलि दिया जाता था – यह एक स्वीकृत हकीकत है । ऐसी यज्ञीय-हिंसा हिंसा नहीं कहलाती है – इस मत की स्थापना का प्रयास भी किया जाता रहा है । परन्तु भगवान् बुद्ध और महावीर ने ऐसी पशुहिंसा का विरोध किया, और अहिंसा के विचार को लेकर श्रमण-संस्कृति को आकारित की । इस तरह देखा जाय तो धर्म के नाम पर होनेवाली हिंसा और तद्-विषयक चिन्तन एक आरम्भिक सोपान है । लेकिन आगे चल कर, युद्ध में होनेवाली हिंसा भी कितनी उचित एवं अनिवार्य है – यह भी विचारणा का विषय बना है । ब्राह्मण-संस्कृति में राम-रावण का युद्ध तथा कौरव-पाण्डवों का युद्ध भी ऐतिहासिक हकीकत है । अतः इन दोनों युद्धों में हुई हिंसा का औचित्य एवं अनिवार्यता भी चर्चा का विषय बनता रहता है ।
प्रस्तुत आलेख में महाभारत के युद्ध में हुई हिंसा को केन्द्र में रख कर महर्षि व्यास की दृष्टि, और इस सन्दर्भ में धर्मशास्त्र तथा नीतिशास्त्र का भी चिन्तन क्या रहा है – इसको ध्यान में रखते हुए, “ अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः ” की सृष्टि में युद्ध विषयक हिंसा के बारे में कौनसा मौलिक और जो पूर्णतया मनो-वैज्ञानिक भी हो ऐसा चिन्तन उपलब्ध है यह सोचने का उपक्रम है ।। व्यास की दृष्टि में निश्चित प्रकार के युद्ध में हिंसा अनिवार्य है, परन्तु भास की सृष्टि में वह नितान्त आभासिक है । सूक्ष्म दृष्टि से सोचा जाय तो भास का यह चिन्तन सार्वकालिक सत्य है – ऐसी प्रतीति भी होती है । आधुनिक विद्वानोंने स्वप्नवासवदत्तम् रूपक को लेकर कवि भास को मनोवैज्ञानिक चिन्तनवाले कवि कहे है, परन्तु पञ्चरात्र रूपक को लेकर भास की मनोवैज्ञानिक चिन्तनधारा को उजागर करने का प्रयास हुआ है कि नहीं – यह हम नहीं जानते है । विशेष रूप से, युद्धमात्र में अवश्यंभावी हिंसा की अनिवार्यता के बारे भास का क्या क्रान्तदर्शन है वह प्रस्तुत आलेख का प्रतिपाद्य विषय है ।।

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मानवेतर प्राणीसृष्टि में जीवो जीवस्य भोजनम् – का निसर्गसिद्ध व्यवहार दृष्टिगोचर होता है । परन्तु जब एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य की हिंसा की जाती है तब उसके औचित्य का सवाल उठता है । इस सन्दर्भ में ब्राह्मण संस्कृति के प्राचीन धर्मशास्त्र कहेते हैं कि – जो आततायिन् है उसका तो वध करना ही चाहिये । यहाँ ‘आततायिन्’ शब्द की व्युत्पत्ति कहेती है कि – आततेन विस्तीर्णेन शस्त्रादिना अयितुम् शीलम् अस्य ।। अर्थात् खुले शस्त्र को ले कर जो वध करने के लिये आ रहा है, वह आततायिन् है ।
मनुस्मृति में कहा गया है कि –
गुरुं वा बाल-वृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम् ।
आततायिनम् आयान्तं हन्याद् एवाविचारयन् ।। मनु. 8 – 350

अर्थात् – गुरु हो, बालक हो, वृद्ध हो या बहुश्रुत ब्राह्मण हो – लेकिन वह शस्त्र लेकर वध करने को यदि आ रहा हो तो, ऐसे आततायी को तो बिना कोई विचार किये मार ही डालना चाहिये ।। इसके पुरोगामी श्लोकों में, धर्म का अवरोध होने पर भी हिंसा की अनुमोदना की गई हैः--
शस्त्रं द्विजातिभिर्ग्राह्यं धर्मो यत्रोपरुध्यते ।
द्विजातीनां च वर्णानां विप्लवे कालकारिते ।।
आत्मनश्च परित्राणे दक्षिणानां च संगरे ।
स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ च घ्नन् धर्मेण न दुष्यति ।। मनु. 8 – 348,349*
इस तरह धर्मशास्त्र में, निश्चित सन्दर्भों में हिंसा को अनिवार्य बतायी है । यहाँ पर हिंसा के औचित्य पर या कोई वैकल्पिक उपाय के लिए चिन्तन करने की आवश्यकता ही नहीं सोची गई है । उपर्युक्त श्लोक में, बिना कुछ सोचे ही, आततायी को आते देख कर ही उसका वध कर देने का आदेश दिया गया है । ( यहाँ एवकार घटित हन्याद् क्रियापद ध्यानास्पद है ) अर्थात् आततायिवध के सन्दर्भ में स्पष्ट शब्दों में हिंसा की अनुमोदना की गई है, और उसकी अनिवार्यता भी मानी गई है ।

शुक्राचार्य ने धर्मशास्त्र की ऐसी आज्ञा को देख कर, षड्-विध आततायियों की गिनती भी की हैः- 1. अग्नि में जला देनेवाला, 2.विष देनेवाला, 3. शस्त्र उठा कर आनेवाला, 4. धन की चोरी करनेवाला, 5. खेत की जमीन ले लेनेवाला, और 6. पत्नी का अपहरण करनेवाला – ये सब आततायिन् है ।

अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रोन्मत्तो धनापहः ।
क्षेत्रदारहरश्चैतान् षड् विद्याद् आततायिनः ।। - शुक्रनीतिः
कुल्लुकभट्ट ने उशनस् का मत भी उद्धृत किया है कि – गृहीतशस्त्रम् आततायिनं हत्वा न दोषः । ( मनुस्मृति 8-350 )
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* मनुस्मृतिः ( कुल्लुक भट्टटीका सहिता ), सं. जगदीशलाल शास्त्री, प्रका.- मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, 1983, पृ. 333 – 334
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महाभारत में कृष्ण द्वैपायन व्यास ने अनेक प्रसङ्गों पर हिंसा का समर्थन किया है और उनका औचित्य सिद्ध करने के लिये बहुशः धर्म को आगे किया है । उदाहरण रूप में देखे तो – 1. और्व भार्गव ने जब कार्तवीर्यों को मार कर पृथिवी के सभी क्षत्रियों का वध करने के लिये उग्र तपश्चर्या की - तब उसने इसका हेतु यह बताया था कि –
जानन्नपि च यः पापं, शक्तिमान् न नियच्छति ।
ईशः सन् सोSपि तेनैव कर्मणा संप्रयुज्यते ।। - महा. 1 -171 -11

“ पापाचार को जाननेवाला व्यक्ति शक्तिमान् होते हुये भी यदि उसे नहीं रोकता है तो वह ईश्वर होगा तो भी वही पापकर्म से लिप्त होगा ”।। - इस तरह से पापाचार को रोकने के लिये हिंसा को न केवल अनुमति दी गई है, परन्तु शक्तिमान् व्यक्ति को
कर्मबन्धन का भय दिखा कर हिंसा के लिये बाध्य भी किया गया है । एक तरह से पापाचार को रोकने के लिये हिंसा को धर्माचार माना गया है ।

यही बात जरासन्ध-वध पर्व में भी लागु की गई है । जरासन्धने 84 राजाओं को कैद किये थे । वह इनसे नरमेध याग करना चाहता था । अतः श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम उसके महल में जा कर द्वन्द्व-युद्ध की माँग करते है । वे मानते है कि यदि उन पाण्डवों के होते जरासन्ध नरमेध यज्ञ करेगा तो, वे भी उनके पापभागी बनेंगे ।
त्वया चोपहृता राजन् क्षत्रिया लोकवासिनः ।
तदागः क्रूरमुत्पाद्य मन्यसे किम् अनागसम् ।
राजा राज्ञः कथं साधून् हिंस्यान्नृपतिसत्तम ।
तद् राज्ञः संनिगृह्य, त्वं रुद्रायोपजिहीर्षसि ।।
अस्मांस्तदेनो गच्छेद्हि कृतं बार्हद्रथ त्वया ।
वयं हि शक्ताः धर्मस्य रक्षणे धर्मचारिणः ।। - सभापर्वणि जरासन्धपर्व, 22 ( 8-10 )

इस प्रसङ्ग में श्रीकृष्ण हिंसा से हिंसा को रोकना चाहते है । अन्त में ऐसा होता भी है । अर्थात् व्यास ने ( नरमेध-याग की ) हिंसा के पापाचार को रोकने के लिये हिंसा का ही मार्ग प्रशस्त किया है ।
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महाभारत की मुख्य कथा को लेकर देखा जाय तो महर्षि व्यास ने कौरवों को आततायिन् कहे है । तथा शुक्राचार्य के पूर्वोक्त श्लोकों में, पापाचार करनेवाले षड्विध व्यक्तियों को आततायियों के रूप में गिनाये है वे सभी पापाचार कौरवों में घटित होते हैं । अतः महाभारत में कौरवों की हिंसा को अनिवार्य मानी गई है । विशेष में, कुरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण के मुख से महाभारत के युद्ध को धर्मयुद्ध की संज्ञा भी दी गई हैः--
स्वधर्मम् अपि चावेक्ष्य न विकम्पितुम् अर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोSन्यत् क्षत्रियस्य न विद्यते ।। भ.गी. 2 – 31
अथ चेत् त्वमिमम् धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिञ्च हित्वा पापम् अवाप्स्यसि ।। भ.गी. 2 – 33

महाभारत के सर्वविनाशक हिंसापूर्ण युद्ध की अनिवार्यता सिद्ध करने के लिये श्रीमद्-भगवद् गीता में, भगवान् श्री कृष्ण ने कहा ही है कि – इन आततायीयों को नहीं मारने से तो ( अर्थात् कहेने के लिये अहिंसा का आश्रयण करनेवाला ) गाण्डीवी अर्जुन कर्मबन्धन में जरूर फंसेगा और पापभागी बनेगा । आज द्रौपदी का वस्त्राहरण हुआ है, कल किसी दूसरी स्त्री का भी ऐसा ही हाल ये आततायीलोग कर सकते है । अतः वे सब वध के योग्य है । इस तरह लोकसंग्रह को ध्यान में रखते हुये भी कौरवों और कौरवानुयायी अन्य राजाओं का वध करना आवश्यक है, बल्कि अनिवार्य है । इस लिये इस युद्ध को धर्म-युद्ध कहा गया है । श्रीकृष्ण के शब्द देखें तो –

अथ चेत् त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।। श्रीमद् भगवद् गीता, 2-33

इस तरह से, लोकसंग्रह के तात्त्विक विचार को यदि आगे किया जाय तो ब्राह्मण-संस्कृति में, आततायियों की हिंसा करने में ही धर्म है । ऐसे सन्दर्भ में अहिंसा को गर्ह्य मानी है । फलतः लोकसंग्रह के विचार को लेकर होनेवाले धर्म-युद्ध में हिंसा अनिवार्य मानी गई है ।।
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ईश्वर के अवतार का हेतु भी यही बताया गया है कि - परित्राणाय साधूनाम्, विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।। ( श्रीमद्भगवद् गीता, अ. 4-8 ) दुष्कर्म करनेवालों का विनाश किया जाय और सज्जनों की रक्षा की जाय – इसी लिए ईश्वर हर युग में अवतार लेते है । सारांशतः - ब्राह्मण-संस्कृति की दृष्टि में सज्जनों की रक्षा के लिये, दुष्टों का वध अनिवार्य है ।। विश्वरूप-दर्शन में भी श्रीकृष्ण के मुख से कहा गया है कि –
कालो S स्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः ।
ऋतेS पि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येSवस्थिताः प्रत्यनीकेषु योधाः । भगवद्गीता,(11–32) मतलब कि - अर्जुन नहीं मारेगा तो खुद श्रीकृष्ण इन सब कौरवों को जिन्दा नहीं छोडेंगे ।। ( और श्रीकृष्णने महाभारत-युद्ध के दौरान दो बार शस्त्र उठाया था – ऐसा व्यासजी ने कहा भी है । ) इन सन्दर्भों से स्पष्ट होता है कि महाभारत के धर्मयुद्ध में हुई हिंसा की अनिवार्यता महर्षि व्यास ने अत्यन्त दृढतापूर्वक कही है ।।
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जब महर्षि व्यास ने महाभारत-युद्ध की हिंसा को अनिवार्य सिद्ध करने के लिए उसके पीछे, लोकसंग्रह की वैचारिक भूमिका रखी है, और ईश्वर के अवतार स्वरूप श्रीकृष्ण के मुँह से उसे धर्मयुद्ध की संज्ञा भी दी है ( तथा अन्ततोगत्वा – यतो धर्मस्ततो जयः का निष्कर्ष भी दिया है ) तब ऐसे आर्ष महाकाव्य ( Epic ) में वर्णित युद्ध-विषयक हिंसा को लेकर, उत्तरवर्ती काल में किसी भी चिन्तक ने इसके औचित्य का प्रश्न नहीं उठाया है । महर्षि व्यास की विचारधारा के विरोध में कोई विवाद उठाने का या अन्यथा-चिन्तन प्रस्तुत करने का साहस किसी ने नहीं जुटाया है ।

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परन्तु, कवि क्रान्तद्रष्टा होते है । जो अतीत में घटी घटनाओं को एवं भविष्य में होनेवाली घटनाओं को अपरोक्ष स्वरूप में देखते है । क्रौञ्चपक्षी के आक्रन्द से स्पन्दित हुआ वाल्मीकि का हृदय दाशरथि राम के जीवन का ‘ इतिहास ’ देखता है, और रामायण नामक आदिकाव्य की रचना होती है । उसी तरह से, ‘ महाभारत ’ नामक इतिहास को पढ कर कवि भास के हृदय में जो संवेदनायें झङ्कृत हुई होगी, उसने कवि भास को महाभारतयुद्ध के लिये कुछ चिन्तन करने के लिये प्रेरित किया । महाभारत को पढने के बाद, किसी भी पाठक के मन में ऐसे प्रश्न उठते है कि – इतना विशाल और सुसमृद्ध कुरुवंश क्यूं नामशेष हो गया, इस महासंग्राम में प्राचीन भारत के असंख्य महायोद्धाओं का विनाश क्यूँ हुआ ? वस्तुतः क्या यह युद्ध अनिवार्य था ?, तथा गुरु द्रोण, पितामह भीष्म, और युगपुरुष कृष्ण की उपस्थिति में क्या ऐसा युद्ध टल नहीं सकता था ? ऐसे प्रश्नों को ले कर, सामान्य मनुष्य का चित्त युद्ध की वेदना से केवल पीडित हो सकता है । लेकिन उसके पास इसका कोई समाधान नहीं होता है । परन्तु जो कवि होते है इनके पास प्रातिभ-दर्शन होता है । वे न केवल युद्ध की पीडाजनक संवेदनाओं का अनुभव करते हैं, वे तो ऐसे सन्दर्भो को लेकर उसका समुचित विश्लेषण भी करते है और अपूर्व दृष्टि से कुछ अन्यथा-चिन्तन भी करते है । जो भावी पिढी को युग-युगान्तर में भी मार्गदर्शक बनते है । ऐसे चिन्तन को कवि-दर्शन कहते है ।
भास के मन में उठे युद्ध विषयक विश्लेषणात्मक चिन्तन ने जब सर्जन का रूप लिया तो दूतवाक्य, दूतघटोत्कच, कर्णभार, ऊरूभङ्ग और पञ्चरात्र जैसी रूपक-श्रेणी का साहित्यजगत् में अवतार हुआ । उनमें से, प्रस्तुत चर्चा के अनुसन्धान में हमारे लिए दो रूपक – 1. दूतवाक्य, एवम् 2. पञ्चरात्र – ध्यानास्पद है ।
इस रूपकद्वय के माध्यम से भास ने अपनी दृष्टि से, महाभारत-युद्ध के दो परस्पर विमुख पक्षों को दर्शकों के सामने रखे हैं । प्रथम पक्ष में – भास ने युद्ध की अनिवार्यता के बीजभूत कारण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है । और दूसरे पक्ष में महाभारत-युद्ध के मूल में जो लोकसंग्रह का हेतु कहा गया है एवम् उसको धर्मयुद्ध की संज्ञा देकर उसकी अनिवार्यता सिद्ध की गई है, उस पर सर्जनात्मक दृष्टि से पुनर्विचार किया है । इस पुनर्विचार से दर्शकों को ऐसी प्रतीति करवाई है कि – लोकसंग्रह की सिद्धि केवल युद्ध से ही होती है ऐसा जो व्यास का मानना था वह नितान्त गलत है । अर्थात् महाभारत का युद्ध सर्वथा निवार्य नहीं ही था – ऐसा नहीं है । क्योंकि – यहाँ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सोचा जाय तो कोई भी व्यक्ति सर्वथा युद्धखोर नहीं होता है । बारिकी से देखा जाय तो दुर्योधन दुराराध्य था, परन्तु असाध्य व्यक्ति नहीं था ।
( भास की दृष्टि में दुर्योधन में भी कुछ सच्चाई थी – यह बात उन्होंने ऊरुभङ्ग में दर्शायी है । ) 1
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अब भास के चिन्तन का प्रथम पक्ष देखा जाय तो – भास ने दूतवाक्य में महाभारत-युद्ध के तीन कारणों का विश्लेषण किया है । जैसा कि – दूतवाक्य के आरम्भ में चित्रपट प्रसंग से यह ध्वनित किया गया है कि ( 1.) कौरवों ने अपने ही बान्धवों की पत्नी का वस्त्राहरण रूप पापाचार किया है ( और उसका ही चित्रपट बनवा कर वे इस पापाचार को चिरस्थायी रूप भी देना चाहते है ), अतः यह पापग्रस्त कुरुवंश विनाश के योग्य ही है । ( 2.) इस रूपक में श्रीकृष्ण और दुर्योधन के बीच जो संवाद हुआ है उसमें दुर्योधन के लिए आहवदर्प और अनुक्तग्राही – ऐसे दो विशेषणों का प्रयोग किया गया है । - इन विशेषणों से महाभारत के युद्ध की अनिवार्यता दिखाई गई है । कोई राजा ने जब लडाई करने की जीद ही कर ली है, तो युद्ध टल नहीं सकता । कृष्ण स्वयम् दूत बनके गये है और कौरवों के हित की बात बता रहे है, परन्तु दुर्योधन किसी का सुनना नहीं चाहता है । क्योंकि, भास कहते है कि वह उक्तग्राही नहीं है । अतः श्रीकृष्ण का दूतकर्म निष्फल जाता है । लेकिन जो तीसरा कारण है वह, ( 3.) इस रूपक के मङ्गलश्लोक में बहुत सूचक रूप से व्यञ्जित किया हैः- पादः पायाद् उपेन्द्रस्य सर्वलोकोत्सवः स वः ।
व्याविद्धो नमुचिर्येन तनुताम्रनखेन खे ।। दूतवाक्यम् (1 – 1)
इसमें कहा गया है कि – भगवान् उपेन्द्र का वह पाद सभी सामाजिकों का रक्षण करें, जिस पाद ने नमुचि नामक राक्षस का वध किया था । भगवान् विष्णु ने तो अनेक
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1. अक्षव्याजजिता वनं वनमृगैर्यत्पाण्डवाः संश्रिता, नन्वल्पं मयि तैः कृतम्......।
ऊरुभङ्गम् – श्लोकः-63

राक्षसों का वध किया था, उनमें से भास ने केवल नमुचि का ही नामस्मरण क्यों किया – यह प्रश्न विचारणीय है । तो मालुम होता है कि यहाँ नमुचि शब्द का प्रयोग साभिप्राय है । दुर्योधन के मन में जो नमुचिवृत्ति रही है – वही महाभारत के युद्ध का मूलभूत उद्भव कारण है । किसी पराये का धन ले लेकर, उसको वापस नहीं देने की जो मनोवृत्ति है – वही नमुचिवृत्ति है । यही मनोवृत्ति से बधे दुर्योधन द्वारा श्रीकृष्ण के हितकारक और समाधानकारक वाक्य सुने नहीं जाते है । भास मनुष्य-चित्तवृत्ति का बडा मर्मज्ञ है और उद्घाटक भी है । इस लिए उसने केवल एक नमुचि शब्द से ही महाभारत के घोर हिंसा भरे युद्ध का मूलस्थानीय कारण आरम्भ में ही व्यञ्जित कर दिया है । दुर्योधनादि कौरवों ने वस्त्राहरणादि के पापाचार तो बाद में किये, लेकिन युद्ध का बीजस्थानीय मनोवैज्ञानिक कारण तो नमुचिवृत्ति है, जिसे कहनेवाले कवि भास न केवल प्रथम है, अद्वितीय भी है ।।

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दूसरे पक्ष को देखे तो उसमें, कवि भास पञ्चरात्र रूपक के माध्यम से, अलबत्ता अप्रकट रूप से, सोचते है कि ( व्यासोक्त ) लोकसंग्रह का हेतु क्या हिंसात्मक युद्ध से ही सिद्ध किया जा सकता है ? तो लगता है कि भास कवि का चित्त कुछ और ही सोचता है । भास की दृष्टि में लोकसंग्रह के लिए भी युद्ध अनिवार्य नहीं है । इस संसार में कोई भी मनुष्य सर्वथा दुष्ट या असाध्य नहीं है । ( मूल महाभारत में भी दुर्योधन बोला ही है कि – जानामि धर्मम्, न च मे प्रवृत्तिः । जानाम्यधर्मम्, न च मे निवृत्तिः ।। ) अतः दुर्योधन को यदि कोई मौके पर शिक्षित / दीक्षित किया जाय तो वह भी धर्मिष्ठ व्यक्ति बन सकता है । गुरु द्रोण एवम् पितामह भीष्म ने यदि कोई बार / एक बार भी प्रयास किया होता तो यह महाभारत का युद्ध अवश्य टल सकता था । जैसा कि एक सुभाषित में कहा गया है कि –
अमन्त्रम् अक्षरं नास्ति, नास्ति मूलम् अनौषधम् ।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति, योजकस्तत्र दुर्लभः ।।

इस संसार में कोई पुरुष अयोग्य है ही नहीं । दुर्योधन जैसा पापाचारी, नमुचि, दुष्ट व्यक्ति भी काम का आदमी है । बस जरूरत है एक सद्गुरु की । यदि अयोग्य व्यक्ति का सम्यक् प्रयोजक व्यक्ति मिल जाय तो दुर्योधन जैसा नमुचि भी सुयोग्य व्यक्ति बन सकता है । और कुलविग्रह के स्थान पर कुलसंग्रह हो सकता है । ( अर्थात् लोकसंग्रह के लिए धर्मयुद्ध की भी आवश्यकता नहीं रहेती है । )- इसी नये चिन्तन को चरितार्थ करने के लिए पञ्चरात्र रूपक का प्रवर्तन हुआ है ।

* * * * * *
त्रि-अङ्की पञ्चरात्र रूपक के आरम्भ में कवि भास ने विष्कम्भक रखा है । जिसमें यज्ञशाला में व्यापक रूप से लगी भीषण आग का वर्णन है । परन्तु कवि इस भीषण आग का कारण तो केवल बटुचापल ही है – ऐसा बताते हैः—

सर्वे – भो भो माणवकाः, भो भो माणवकाः, अनसितेSवभृथस्नाने न खलु
तावद् अग्निरुत्स्रष्टव्यो भवद्भिः ।
प्रथमः – हा धिक् ... दर्शितमेव तावद् बटुचापलम् ।
( पञ्चरात्रम् – 1-6, पृ.374 )
इस के बाद यज्ञशाला में फैली आग का वर्णन दिया गया है । आग में यज्ञशाला की घृतशकटी भी जल कर खाख हो जाती है । इस तरह यज्ञशाला की एक आग के रूपकात्मक वर्णन से कवि भास ने महाभारत का युद्ध एक बालिशता का ही परिणाम था – यह पहेले सूचित कर दिया है । किन्तु कौरवों की सभा में बुजुर्गों के होते महाभारत के इतिहास में कुछ अन्यथा भी हो सकता था – इसका जो कविदर्शन है वह विष्कम्भक के बाद में रखे गये अङ्कों में दिखाया गया है । प्रथमाङ्क के आरम्भ में ही, गुरु द्रोण की एक मान्यता स्पष्ट शब्दों में रखी गई है कि –

अतीत्य बन्धून् अवलङ्घ्य मित्राण्याचार्यम् आगच्छति शिष्यदोषः ।
बालं ह्यपत्यं गुरवे प्रदातुर्नैवापराधोSस्ति पितुर्न मातुः ।।
( पञ्चरात्रम् 1 –19, पृ.377 )
“ बाल्यावस्था में हीं गुरु के आश्रम में भेजा गया कोई छात्र यदि दुषित चरित्रवाला निकलता है तो उसमें गुरु का ही दोष गिना जायेगा, उसमें दोस्तों का, या माता का, या पिता का कोई अपराध नहीं माना जायेगा ।। ” –अर्थात् शिक्षण-जगत् में गुरु की भूमिका भी लोकसंग्रह के कर्तव्य से संयुक्त ही है । 2
यद्यपि शकुनि के कुसङ्ग में दुर्योधन दुराराध्य बन गया था, और इसी लिए द्रोण ने जब गुरु-दक्षिणा के रूप में पाण्डवों के लिए राज्यार्ध माँग लिया तब शकुनि ने पाँच रात्रि में पाण्डवों को गुरु द्रोण ढूँढ लावें तो दुर्योधन राज्यार्ध देगा – ऐसी शर्त दाखिल करवा दी है । गुरु द्रोण ऐसी असम्भव शर्त को सुन कर क्षण भर के लिए तो क्षुब्ध हो जाते है । परन्तु उपर्युक्त लोकसंग्रहकारिणी याचना को विचक्षण भीष्म की बुद्धि का सहयोग मिल जाता है । भीष्म ‘किचकों का किसी ने अशस्त्र वध किया है’ -------------------------------------------------------------------------------------------------------2. मूल महाभारत के द्रौपदी-वस्त्राहरण प्रसंग में गुरु द्रोण एवं पितामह भीष्म अपने आप को अर्थदास कहे कर, एक प्रकार की निन्द्य उदासीनतापूर्वक बैठे रहे है । परन्तु भास ने यहाँ पञ्चरात्र में दोनों वरिष्ठ व्यक्तियों को पूरे सक्रिय किये है ।



ऐसा सुनकर द्रोण को शकुनि की शर्त स्वीकार कर लेने को कहते है । और बाद में
“ विराट दुर्योधन के यज्ञ में नहीं आया है, इस लिए विराट की गायों का ग्रहण किया जाय ” - ऐसा सुझाव देकर भीष्म कौरव-सैन्य को साथ में ले जाकर गोग्रहण का निमित्त बना के पाण्डवों को प्रकट करने में सफल होते है । परिणामतः दुर्योधन गुरुदक्षिणा के रूप में पाण्डवों को राज्यार्ध दे देता है और महाभारत का युद्ध होता ही नहीं है । भास इस तरह दिखा देते है कि लोकसंग्रह का आदर्श तो समाज के प्रत्येक महिमावन्त व्यक्ति को जीवन में चरितार्थ करने का यथाशक्य प्रयास करना चाहिये । ( युद्ध टालने की जिम्मेदारी ईश्वरीय अवतार की नहीं है, वह तो हम सब मनुष्यों का कर्तव्य है । ) और नमुचि दुर्योधन शकुनि के संग में दुराराध्य अवश्य था, परन्तु असाध्य नहीं था । दुर्योधन के मन में पाण्डवों के प्रति द्वेष था, परन्तु द्रोण के प्रति तो गुरुभक्ति थी ही । अतः किसी मौके पर द्रोण यदि सक्रिय होते तो, लोकसंग्रह का शिवसंकल्प रखनेवाले इस गुरु को कदाचित् पितामह भीष्म का भी सहयोग मिल ही गया होता । और महाभारत का युद्ध टल सकता था – यह कवि भास का दर्शन है ।
दूसरी ओर देखे तो दुष्टों के जीवन में भी ऐसी कोई क्षण अवश्य आती है कि जिसमें वो अभिमानवशात् भी कुछ अच्छा काम कर लेते है । यज्ञ पूरा होने पर दुर्योधन गुरु द्रोण को दक्षिणा माँगने को कहता है । हिचकिचाहट अनुभव करनेवाले गुरु को दुर्योधन कहेता हैः—

स्वच्छन्दतो वद किमिच्छसि, किं ददानि
हस्ते स्थिता मम गदा, भवतश्च सर्वम् ।। - पञ्चरात्रम् 1 - 29

यहाँ पर ददानि – ऐसा जो क्रियापद है, वह ध्यानास्पद है । - गुरुभक्ति की ऐसी कोई क्षण हाथ लग जाय और तुरन्त उसका विनियोग किया जाय तो भी युद्ध टल सकता है । सूक्ष्म अर्थ में इसी को हमे गुरु एवं पितामह द्वारा किया गया ‘गोग्रहण’ समझना चाहिये । ( शिष्य की इन्द्रियों का निग्रह भी गोग्रहण ही है । जिससे शिष्य की नमुचिवृत्ति संयत / अवनत की जा सकती है ) यही होगा कवि भास का महाभारत-युद्ध विषयक अन्यथा-चिन्तन । हिंसा भरे महाभारत के इतिहास को पढने के बाद भास के चित्त में जो कविदर्शन झलक रहा है वह शायद यही है । इसी कविदर्शन से प्रेरित होकर भास ने पञ्चरात्र के आरम्भ में ही कहा है कि –

नृपे दीक्षां प्राप्ते, जगदपि समं दीक्षितमिव ।। - पञ्चरात्रम् 1 – 3

यदि राजा को ही एक बार अच्छे कार्य के लिये दीक्षित करलो, तो परिणामतः पूरा जगत् दीक्षित हो ही गया है ऐसा जान लीजिये । इसके पश्चात् ही नमुचिवृत्ति के कारण, या बालिशतावशात् होनेवाले युद्ध को टाला जा सकता है । और बिना युद्ध किये भी लोकसंग्रह सिद्ध किया जा सकता है ।।


उपसंहारः---
1. भास की मनोवैज्ञानिक दृष्टि में युद्धमात्र का सार्वकालिक और सार्वभौम कारण मनुष्य में रही नमुचिवृत्ति ही है ।।
2. महाभारत का युद्ध अनिवार्य नहीं था, उसमें बालिशता – बटुचापल – जिम्मेदार थी ।
3. लोकसंग्रह की दार्शनिक भूमिका प्रदान करने पर भी महाभारत का युद्ध अनिवार्य सिद्ध नहीं होता है । बिना युद्ध किये भी लोकसंग्रह सम्भव था ।
4. दुष्ट या दुराराध्य व्यक्ति भी सर्वथा और सर्वदा असाध्य नहीं होता है । उसके लिये सद्गुरु – सुनियोजक – की आवश्यकता है ।
5. युद्ध टालने की जिम्मेदारी ईश्वरीय अवतार की नहीं होती है, वह सभी मनुष्यों का कर्तव्य होता है ।


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सन्दर्भ ग्रन्थसूचि
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1. भासनाटकचक्रम् – सं. सी. आर. देवधर, पूणें, 1937
2. मनुस्मृतिः ( कुल्लुक भट्टटीका सहिता ), सं. जगदीशलाल शास्त्री, प्रका.- मोतीलाल बनारसी दास, दिल्ली, 1983
3. महाभारतम् – गीताप्रेस , गोरखपुर , वि. सं. 2058
4. श्रीमद् भगवद् गीता – सं. एस. के. बेलवेलकर, भाण्डारकर ओरि. इन्स्टीट्यूट, पूणें













‘लोकसंग्रह’ के लिए क्या युद्ध अनिवार्य था ?
वसन्तकुमार म. भट्ट
आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत-विभाग,
निदेशक, भाषासाहित्यभवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380 009

( अन्ता-राष्ट्रिय-संस्कृत-सम्मेलन, युनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान, 18 – 20 जुलाई, 2009, जयपुर )
सारसंक्षेप
प्रस्तुत आलेख में महाभारत के युद्ध में हुई हिंसा को केन्द्र में रख कर महर्षि व्यास की दृष्टि, और इस सन्दर्भ में धर्मशास्त्र तथा नीतिशास्त्र का भी चिन्तन क्या रहा है – इसको ध्यान में रखते हुए, “ अपारे काव्यसंसारे कविरेकः प्रजापतिः ” की सृष्टि में युद्ध विषयक हिंसा के बारे में कौनसा मौलिक और जो पूर्णतया मनो-वैज्ञानिक भी हो ऐसा चिन्तन उपलब्ध है यह सोचने का उपक्रम है ।। व्यास की दृष्टि में निश्चित प्रकार के युद्ध में हिंसा अनिवार्य है, परन्तु भास की सृष्टि में वह नितान्त आभासिक है । सूक्ष्म दृष्टि से सोचा जाय तो भास का यह चिन्तन सार्वकालिक सत्य है – ऐसी प्रतीति भी होती है । आधुनिक विद्वानोंने स्वप्नवासवदत्तम् रूपक को लेकर कवि भास को मनोवैज्ञानिक चिन्तनवाले कवि कहे है, परन्तु पञ्चरात्र रूपक को लेकर भास की मनोवैज्ञानिक चिन्तनधारा को उजागर करने का प्रयास शायद नहीं हुआ है । विशेष रूप से, युद्धमात्र में अवश्यंभावी हिंसा की अनिवार्यता के बारे कवि भास का क्या क्रान्तदर्शन है वह प्रस्तुत आलेख का प्रतिपाद्य विषय है ।।
भास के मन में उठे युद्ध विषयक विश्लेषणात्मक चिन्तन ने जब सर्जन का रूप लिया तो दूतवाक्य, दूतघटोत्कच, कर्णभार, ऊरूभङ्ग और पञ्चरात्र जैसी रूपक-श्रेणी का साहित्यजगत् में अवतार हुआ । उनमें से, प्रस्तुत चर्चा के अनुसन्धान में हमारे लिए दो रूपक – 1. दूतवाक्य, एवम् 2. पञ्चरात्र – ध्यानास्पद है ।
इस रूपकद्वय के माध्यम से भास ने अपनी दृष्टि से, महाभारत-युद्ध के दो परस्पर विमुख पक्षों को दर्शकों के सामने रखे हैं । प्रथम पक्ष में – भास ने युद्ध की अनिवार्यता के बीजभूत कारण का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है । और दूसरे पक्ष में महाभारत-युद्ध के मूल में जो लोकसंग्रह का हेतु कहा गया है एवम् उसको धर्मयुद्ध की संज्ञा देकर उसकी अनिवार्यता सिद्ध की गई है, उस पर सर्जनात्मक दृष्टि से पुनर्विचार किया है । इस पुनर्विचार से दर्शकों को ऐसी प्रतीति करवाई है कि – लोकसंग्रह की सिद्धि केवल युद्ध से ही होती है ऐसा जो व्यास का मानना था वह नितान्त गलत है । अर्थात् महाभारत का युद्ध सर्वथा निवार्य नहीं ही था – ऐसा नहीं है । एवञ्च – हिंसा से हि लोकसंग्रह होता है – यह भी भास को मान्य नहीं है । तथा, लोकसंग्रह के लिए ईश्वर के अवतार की अनिवार्यता है – ऐसा भी भास को ग्राह्य नहीं है ।।

बुधवार, 22 जुलाई 2009

यास्क एवं पाणिनि - काल तथा विषयवस्तु का अन्तराल

यास्क एवम् पाणिनि – काल तथा विषयवस्तु का अन्तराल*--------------------------------------------------------------------------
वसन्तकुमार म. भट्ट
आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, तथा
निदेशक, भाषा-साहित्य-भवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380 009
bhattvasant@yahoo.co.in

भूमिकाः- सृष्टि के आरम्भ में साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने वेदमन्त्रों के दर्शन किये थे । तत्पश्चात् इन वेदमन्त्रों के संहितापाठ या पदपाठ, तथा प्रातिशाख्यादि की रचना हुई । इस के बाद षड् वेदाङ्गों की रचना हुई । इनमें से वेदमन्त्रों का अर्थघटन करने के लिए निरुक्त एवम् व्याकरण – वेदाङ्ग का महत्त्व सबसे अधिक है । किन्तु निरुक्तविद्या तथा व्याकरण-विद्या का उद्भव कब हुआ था – यह निश्चित रूप से हम नहीं जान सकते है । क्योंकि इन विद्याओं का उद्भव तो वेदमन्त्रों में भी देखा गया है । पाणिनि और यास्क के ग्रन्थों में अनेक पुरोगामी आचार्यों के मतों का नामशः उल्लेख प्राप्त होता है । परन्तु इन विद्या-सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना “ इदं प्रथमतया ” किस आचार्य ने की थी – वह अद्यावधि अज्ञात रहा है । इस तरह वेदाङ्ग के रूप में जिसको स्वीकृति मिली है वे दोनों – यास्क का निरुक्त, तथा पाणिनि की अष्टाध्यायी – में से कौन पहेला है ? उसका निर्णय करना भी विवाद से परे नहीं है ।
यास्क पाणिनि के पुरोगामी आचार्य है – ऐसा परम्परागत मत बहुशः प्रचलित है । गोल्डस्टूकर कहेते है कि – पाणिनि ने जो यस्कादिभ्यो गोत्रे । 2 – 4 – 33
सूत्र से यास्क शब्द की व्युत्पत्ति दी है, उससे यह सूचित होता है कि पाणिनि से पहेले यास्क हो गये थे । एवमेव, उपसर्गों की चर्चा के दौरान यास्क ने पाणिनि का नामोल्लेख नहीं किया है, अतः हम कहे सकते है कि पाणिनि से पूर्वकाल में ही यास्क पैदा हुए थे ।।
लिबीश, मूलर और मेहेन्दळेजी के मत में पाणिनि यास्क से पहेले हुए थे । गोल्डस्टूकर का प्रतिवाद करते हुए ये विद्वान् लोग कहेते है कि पाणिनि का पूर्वोक्त सूत्र यास्क शब्द की केवल एक गोत्र-नाम के रूप में ही सिद्धि प्रदर्शित करता है । उससे निरुक्तकार यास्क का ही निर्देश हो रहा है – ऐसा कहेना दुराकृष्ट है । तथा यास्क ने उपसर्गों की चर्चा में पाणिनि का नामोल्लेख नहीं किया है । क्योंकि दोनों के शास्त्रों का स्वरूप ही सर्वथा भिन्न है, अतः यह आवश्यक ही नहीं था कि यास्क अपने निरुक्त में उपसर्गों की चर्चा में पाणिनि का नामोल्लेख करें । दूसरी और, पॉल थिमे


* महर्षि पाणिनि संस्कृत विश्वविद्यालय, उज्जयिनी, द्वारा आयोजित पाणिनि विषयक राष्ट्रिय संगोष्ठी ( 25-27 जून,2009 ) में प्रस्तुत आलेख ।
कहेते है कि यास्क को पाणिनि के व्याकरण का पूरा परिचय है । यास्क जब दण्ड्यः, राजा, सन्ति – जैसे शब्दों का पृथक्करण देते है तब दण्डम् अर्हति इति दण्ड्यः । में तदर्हति । पा.सू.5-1-63 एवं दण्डादिभ्यः । पा.सू.5-2-66 सूत्रों की उनको जानकारी है ऐसा दिखाई देता है । इसी तरह से सन्ति में आदि-स्वर का लोप होता है, तथा राजा शब्द में उपधा-विकार होता है – इन सब की यास्क को जो जानकारी है वह पाणिनि के सूत्रों पर आधारित है ऐसा दिखाई देता है । इस तरह से, जब दोनों पक्षों के तर्क हमारे सामने रखे जाते है तब पाणिनि तथा यास्क का पौर्वापर्य निर्धारित करना मुश्किल लगता है । इस लिए प्रोफे. ज्यॉर्ज कार्दोनाजी कहते है कि – पाणिनि एवं यास्क का काल-निर्धारण करने का कार्य अभी भी अवशिष्ट है । 1
यद्यपि इस सन्दर्भ में पाणिनि के कतिपय तद्धित एवं कृदन्त सूत्रों का सांस्कृतिक दृष्टि से अभ्यास किया जाय तो यास्क की अपेक्षा से पाणिनि का उत्तरवर्तित्व निश्चित रूप से सिद्ध हो सकता हैः— उदाहरण रूप में 1. इन्द्रियम् इन्द्रलिङ्गम् इन्द्रदृष्टम् इन्द्रसृष्टम् इन्द्रजुष्टम् इन्द्रदत्तमिति वा (5-2-93), तथा 2. ब्रह्म-भ्रूण-वृत्रेषु क्विप् (3-2-87) – यहाँ प्रथम सूत्र में इन्द्र शब्द का ‘आत्मा’ अर्थ में प्रयोग किया गया है, जो एक दार्शनिक अर्थ है । दूसरे सूत्र में ब्रह्महा – भ्रूणहा – वृत्रहा जैसे शब्दों की रूपसिद्धि कही है । यहाँ दिति के गर्भस्थित पुत्रों ( मरुद्-गण ) की इन्द्र द्वारा की गई हत्या का निर्देश है – जिसमें हम एक पौराणिक कथा का सन्दर्भ देख सकते है । ये दोनों सन्दर्भ ऐसे है जो यास्क-कालिक नहीं है । यास्क तो इन्द्र का ‘वृष्टि के देवता’ के रूप में ही निर्वचन करते है । अतः हम कहे सकते है कि पाणिनि यास्क के उत्तरवर्ती काल में ही प्रादुर्भूत हुए होंगे ।। ( एवञ्च – ये दोनों आचार्य प्रायः निश्चित रूप से ई.पूर्व 700 – 400 के बीच में हुये होंगे ) ।।
परन्तु दोनों आचार्यों के ग्रन्थों का तुलनात्मक अभ्यास करने में काल-सीमा का कोई सीधा उपयोग नहीं है । क्योंकि दोनों आचार्यों के ग्रन्थों में यदि प्रतिपाद्य विषयवस्तु का सर्वथा साम्य होता तभी कौन पुरोगामी है और कौन अनुगामी है यह प्रश्न महत्त्व का बनता है । अतः प्रस्तुत आलेख में, यास्क एवं पाणिनि की स्वतन्त्र रूप से अपनी अपनी जो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है उसको ध्यान में लेते हुए ही इन दोनों के ग्रन्थों में जो भेद है – उसका अभ्यास रखा गया है ।

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1. 1. After all the arguments and evidence adduced in support of both views, I think the only reasonable conclusion that can be reached at present is, as Giridhara Sarma Caturveda remarked ( in 1954 ), that the question of priority remains open.
Panini : A Survey of Research , by Prof. George Cardona, Motilal
Banarasidass, Delhi, 1980, pp.273.

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यास्क एवं पाणिनि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यास्क निरुक्ताध्ययन के प्रयोजनों की चर्चा करते हुए कहेते है कि वेदमन्त्रों का अर्थ जानने के लिए निरुक्त पढना चाहिये । लेकिन इसी क्षण पर पूर्वपक्षी के रूप में कौत्स नाम के आचार्य का मत उद्धृत करते हुए कहा गया है कि – यदि मन्त्रार्थ-प्रत्ययाय अनर्थकं भवतीति कौत्सः । अनर्थकाः हि मन्त्राः । (निरुक्तम् - अ. 1/5)
अर्थात् यास्क के पूर्वकाल में यह मत प्रचलित हो गया था कि वेदमन्त्रों में से कोई अर्थ नहीं निकाला जा सकता है । वैदिक मन्त्रों के जो अर्थ बताये जाते है वे भी वैदिक क्रियाकाण्ड के साथ सुसंगत नहीं है । वेदमन्त्रों में ऐसे अनेक वाक्य है कि जिसमें परस्पर विरुद्धार्थ का ही कथन हो । 2 सारांश यही निकलता है कि वेदमन्त्रों के जो तथाकथित अर्थ बतलाये जाते है वह तर्कशुद्ध बुद्धि में बैठते नहीं है । तो – यह थी यास्क के निरुक्त की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ।।
ब्राह्मण-संस्कृति के यज्ञयागादि में पशुहिंसा होती थी, इस लिए भगवान् बुद्ध ने वेदों का विरोध किया था । तथा कौत्स जैसे आचार्यों ने भी परम्परागत रीति से वेदों के जो अर्थ बतलाये जाते थे उस पर प्रश्नचिह्न लगा दिया था । अतः ब्राह्मण - संस्कृति के पक्षधर आचार्यों की ये इतिकर्तव्यता बन गई थी कि वेदमन्त्रों को वे सार्थक बतावें और इन अर्थों की प्रमाण-पुरस्सरता भी प्रस्थापित करें ।

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दूसरी ओर पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में लौकिक एवम् वैदिक – दोनों प्रकार के शब्दों का अन्वाख्यान किया है । यद्यपि पाणिनि भगवान् बुद्ध के प्रायः समकालिक है । तथापि पाणिनि ने मन्त्रार्थ के सन्दर्भ में कोई विवाद का नामशः निर्देश नहीं किया है । परन्तु वेदमन्त्र सार्थक है ऐसी आस्तिक परम्परा का अनुसरण करते हुए, पाणिनि ने लौकिक संस्कृत भाषा के व्याकरण के साथ साथ ही वैदिक भाषा के रूपवैविध्य का वर्णन किया है । पाणिनि के पूर्वकाल में जो वेद-विषयक साहित्य लिखा गया था उनमें शाकल्य का पदपाठ एवं कतिपय प्रातिशाख्य ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है । इस में जो वेद भाषा-सम्बन्धी चिन्तन आकारित हुआ दिखाई दे रहा है वह वर्णसन्धि, पदच्छेद, वर्णोच्चारण-शिक्षा, उदात्तादि स्वर विषयक चर्चा तक सीमित
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2. अथाप्यनुपपन्नार्था भवन्ति । ओषधे त्रायस्वैनम् । स्वधिते मैनं हिंसीः इत्याह हिंसन् । अथापि विप्रतिषिद्धार्था भवन्ति । एक एव रुद्रो वतस्थे, न द्वितीयः । असंख्याता सहस्राणि ये रुद्रा अधि भूम्याम् । ( निरुक्तम् 1/5 )


है । अतः पाणिनि के लिये जो ( पदपाठ एवं प्रातिशाख्यादि की ) परम्परागत सामग्री उपलब्ध थी उसके सन्दर्भ में ही पाणिनि का मूल्यांकन करना चाहिये । क्योंकि यह भी सुविदित है कि पाणिनि का पुरोगामी हो ऐसा लौकिक संस्कृत भाषा का व्याकरण प्रस्तुत करनेवाला एक भी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं होता है । तो – पाणिनि की अष्टाध्यायी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इस तरह की थी ।।


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यास्क एवं पाणिनि का लक्ष्य

यास्क ने जो निरुक्त ग्रन्थ की रचना की है, उसमें प्राधान्येन ( अज्ञातकर्तृक ) निघण्टु नामक वैदिक शब्दकोश में संगृहीत शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करने का ही लक्ष्य रखा है । निरुक्त के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि – समाम्नायः समाम्नातः । स व्याख्यातव्यः ।। अर्थात् यास्क का निरुक्त एक व्याख्या ग्रन्थ है, दूसरे शब्दों में कहे तो निघण्टु पर लिखा गया एक भाष्य-ग्रन्थ है । लेकिन बिना विलम्ब किये यह कहना होगा कि निघण्टु में संगृहीत किये गये शब्दों के ( अज्ञात ) अर्थ ढूँढने के लिये यह व्याख्या ग्रन्थ नहीं लिखा गया है । यद्यपि प्रायः ऐसा माना जाता है कि
“ वेदमन्त्रों में प्रयुक्त जो जो शब्द दुर्बोध थे, या अज्ञातार्थक थे उसका संग्रह निघण्टु में किया गया है । अतः ऐसे अज्ञातार्थक शब्दों के अर्थ दिखाने के लिये यास्क ने निरुक्त लिखा है ।“ तो यह कथन समुचित नहीं है । क्योंकि निघण्टु के अन्दर, जो विभिन्न प्रकार के शब्दसंग्रहों रखे गये है उसमें सर्वत्र अर्थ-प्रदर्शन तो किया ही गया है । जैसे कि – इति एकविंशति पृथिवी नामधेयानि । इति षोडश हिरण्यनामानि । तथा, यास्क ने जहाँ, जो शब्द का निर्वचन दिया है वहाँ प्रायः “ इस शब्द का यह अर्थ है – ऐसा ब्राह्मण-ग्रन्थ से जाना जाता है । ” ( इति ह विज्ञायते, ...इति च ब्राह्मणम्.... इत्यपि निगमो भवति ) ऐसा कहा है । अपि च, निर्वचन के सिद्धान्तों का विवरण देते समय यास्क ने जो कहा है कि – अर्थनित्यः परीक्षेत ।.......नैकपदानि निर्ब्रूयात् । ...यथार्थं निर्वक्तव्यानि । इसका मतलब यह है कि यास्क ने संसार के किसी भी नैरुक्त ( निर्वचन-कर्ता) के पास ऐसी अपेक्षा रखी ही है कि किसी भी शब्द का निर्वचन करने से पहेले उस शब्द का अर्थ जानना अनिवार्य है । अर्थात् अर्थज्ञानपूर्वक ही निर्वचन करना चाहिये । इस चर्चा का निष्कर्ष यही निकलता है कि – निघण्टु में शब्दसंग्रह के साथ साथ जो अर्थ-निर्देश किया गया है एवं यास्क भी “ ब्राह्मण-ग्रन्थों में ऐसा अर्थ प्रचलित है ” ऐसा जब कहते है तब, निरुक्त में अज्ञातार्थक वैदिक शब्दों का अर्थ ढूँढने के लिये निर्वचन दिये है – ऐसा कहना युक्तियुक्त नहीं है ।।
अब, निघण्टु के शब्दों पर व्याख्या करते समय यास्क का प्रयास किस दिशा का है, या किस लक्ष्य को ले कर यास्क चलते है – यह सूक्ष्मेक्षिकया पुनर्विचारणीय है । इस विषय पर दुबारा सोचने से मालुम होता है कि यास्क दो लक्ष्य को लेकर चल रहे हैः—(1) निर्वचनों के द्वारा शब्दार्थ-सम्बन्ध की गवेषणा करना, ( और उसके आधार पर वैदिक शब्दों के प्रचलित अर्थों को प्रामाणिकता प्रदान करना ) तथा (2) दैवत-काण्ड के शब्दों की व्याख्या करते हुए वैदिक-देवता शास्त्र ( Theology ) को प्रस्तुत करना ।।

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महर्षि पाणिनि ने अष्टाध्यायी की जो रचना की है , उसमें लोक की एवं वेद की संस्कृत भाषा का ( व्युत्पत्तिदर्शक ) व्याकरण प्रस्तुत करने का लक्ष्य रखा है । और पाणिनि ने जो व्याकरण लिखा है वह एक शब्दनिष्पादक तन्त्र ( word -producing machine ) के रूप में लिखा है । अर्थात् अष्टाध्यायी में – व्याक्रियन्ते पृथक्क्रियन्ते शब्दा अनेन इति व्याकरणम् – ऐसे व्युत्पत्तिजन्य अर्थवाले ( पृथक्करणात्मक ) व्याकरण की प्रस्तुति नहीं है । यहाँ तो प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करके, आवश्यक ध्वनि-परिवर्तन के बाद लोक में और वेद में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों की निष्पादना ( व्युत्पत्ति ) प्रदर्शित की गई है । यहाँ “शब्द” शब्द से पाणिनि को “वाक्य” ऐसा अर्थ अभिमत है – यह बात भूलना नहीं है । कहेने का तात्पर्य यही है कि पाणिनि का व्याकरण-तन्त्र वाक्य-निष्पत्ति के लक्ष्य को लेकर प्रवृत्त हुआ है ।।

पाणिनि से पहेले वेदों का पदपाठ एवं कतिपय प्रातिशाख्य ग्रन्थ लिखे गये थे । अतः पाणिनि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भाषाचिन्तन का माहोल देखा जाय तो वर्णशिक्षा, पदच्छेद, सन्धिविचार, और उदात्तादि स्वर विषयक चर्चायें ही प्रवर्तमान थी । इस से सारांश यही निकलता है कि – पाणिनि के पूर्वकाल में, व्याकरणविद्या भाषा के वर्णध्वनियाँ तक ही प्रायः सीमित थी । किन्तु पाणिनि भाषा की जो बृहत्तम इकाई के रूप में वाक्य होता है, उसकी निष्पत्ति करने के लिये व्यापृत हुए है । और वाक्यसिद्धि के साथ जूडे हुए पदरचना एवं सन्धिविचार का भी पूर्ण रूप से निरूपण करते है । तथा वे केवल लौकिक संस्कृत भाषा के व्याकरण तक सीमित न रह कर, वैदिक संस्कृत भाषा का भी अन्वाख्यान कर रहे है ।।

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यास्क एवं पाणिनि का कार्य और कार्यपद्धति

यास्क एवं पाणिनि के निर्वचन तथा व्युत्पत्ति का स्वरूप देखने से पहेले, ये दोनों आचार्य वाग्व्यवहार में प्रचलित शब्दों के मूलभूत रूप के बारे में कौन सी अवधारणा रखते है – यह भी प्रथम ज्ञातव्य है । यास्क ने वैसे तो भाषा में चार प्रकार के शब्दों – नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात – का होना मान्य रखा है, परन्तु उनकी चर्चा का केन्द्रभूत स्थान तो है ‘नाम’ प्रकार के शब्दों । शाकटायन नामक वैयाकरण को अपना गुरु मानते हुए यास्क ने कहा है कि – भाषा में प्रयुक्त होनेवाले सभी नाम आख्यातज होते है । 3 अर्थात् यास्क सभी नामों को यौगिक
( व्युत्पन्न ) मानते है । दूसरे शब्दों में कहे तो – सभी नाम क्रियावाचक धातु से ही निष्पन्न हुये है । परन्तु इस विषय में पाणिनि की मान्यता कुछ अलग है । पाणिनि गार्ग्य नामक नैरुक्त को अपना गुरु मानते हुए, कहेते है कि भाषा में प्रयुक्त होनेवाले सभी नाम व्युत्पन्न नहीं है । 4 पाणिनि स्पष्टतया ऐसा मानते है कि भाषा में बहुशः नाम यौगिक हो सकते है, किन्तु सभी नामों को यौगिक ( व्युत्पन्न ) बताना साहसमात्र है ।
भाषा में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों के स्वरूप को लेकर यह जो मूलभूत अवधारणा में ही भेद है – उसी में दोनों आचार्यों के कार्यों का भी भेद अन्तर्निहित
है । निरुक्त के प्रथमाध्याय में दुर्गाचार्य ने कहा है कि – शब्द तीन प्रकार के होते हैः—1. अतिपरोक्षवृत्तिवाले, 2. परोक्षवृत्तिवाले तथा 3. प्रत्यक्षवृत्तिवाले । 5 यास्क ने निघण्टु में संगृहीत ( अतिपरोक्षवृत्तिवाले) शब्दों का जब निर्वचन दिया है तब उन्हों ने पहेले अतिपरोक्षवृत्तिवाले शब्द को परोक्षवृत्ति में परिवर्तित किया है, औऱ बाद में उसे प्रत्यक्षवृत्ति में ढाल कर, उस शब्द (नाम) में अन्तर्निहित धातु का प्रदर्शन किया है । शब्द के द्वारा जो अर्थ उद्घाटित होता है, वह तभी प्रामाणिक माना जायेगा की जब उस अर्थ को धातुसाधित बताया जाय । इसी लिये प्रत्येक नामों में अन्तर्निहित धातु दिखाना आवश्यक है । उदाहरण के रूप में – निघण्टवः । यह अतिपरोक्षवृत्तिवाला शब्द है, उसको निगन्तवः । जैसे परोक्षवृत्तिवाले शब्द में परिवर्तित किया गया है और अन्त में निगमयितारः । जैसे प्रत्यक्षवृत्तिवाले शब्द-स्वरूप में ढाल कर, उसे नि उपसर्गपूर्वक गम् धातु से निकला हुआ शब्द कहा गया है । अब उसका जो अर्थ है
( अर्थ का निगमन करानेवाले शब्द को ‘निघण्टु’ कहते है – वह ) प्रमाण-पुरस्सर का ही है ऐसा सिद्ध होता है ।
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3. तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च । - निरुक्तम् अ. 1
4. न सर्वाणीति गार्ग्यो, वैयाकरणानाञ्चैके । - निरुक्तम् अ. 1
5. त्रिविधा शब्दव्यवस्था – प्रत्यक्षवृत्तयः , परोक्षवृत्तयः , अतिपरोक्षवृत्तयश्च । तत्रोक्तक्रियाः प्रत्यक्षवृत्तयः, अन्तर्लीनक्रियाः परोक्षवृत्तयः, अतिपरोक्षवृत्तिषु शब्देषु निर्वचनाभ्युपायः । तस्मात् परोक्षवृत्तिताम् आपाद्य प्रत्यक्षवृत्तना निर्वक्तव्याः । तद्यथा – निघण्टवः इत्यतिपरोक्षवृत्तिः, निगन्तवः इति परोक्षवृत्तिः, निगमयितारः इति प्रत्यक्षवृत्तिः । यस्मान्निगमयितार एते निगन्तव इति, निघण्टव इत्युच्यते ।। निरुक्तम् –( दुर्गाचार्यस्य टीकया समेतम् - पृ. 44 ) सं. मनसुखराय मोर, कोलकाता, 1943


यास्क ने शाकटायन का अनुसरण करते हुए सभी नामों को यौगिक
( व्युत्पन्न ) माने हैं । परन्तु पाणिनि ने, उससे विपरित, भाषा में प्रयुक्त होनेवाले प्रत्येक नामशब्द को व्युत्पन्न नहीं माना है । भाषा में बहुशः नाम यौगिक है ऐसा दिखाई दे रहा है, परन्तु ऐसे भी शब्द काफी है कि जिसकी रचना कैसे हुई होगी यह कहेना अतिकठिन भी है । अतः पाणिनि ने व्युत्पत्ति की दृष्टि से जो दुर्बोध या अबोध शब्द देखे है ( जिसको दुर्गाचार्य ने परोक्षवृत्तिवाले या अतिपरोक्षवृत्तिवाले शब्द कहे है ) उसके लिये निपातन तथा पृषोदरादि-गण की व्यवस्था की है, या उणादि-प्रत्ययों की और अङ्गुलिनिर्देश कर दिया है । पाणिनि ऐसे शब्दों की व्युत्पत्ति नहीं देते है । अतः हम कहे सकते है कि वाक्यान्तर्गत चार प्रकार के शब्दों में से यदि त्रिविध नामों में से, यास्क का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से अतिपरोक्षवृत्तिवाले नाम ही है, तो तीन प्रकार के नामों में से पाणिनि का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से प्रत्यक्षवृत्तिवाले नाम ही है ।।

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अब दोनों आचार्यों की कार्यपद्धति को समझने के लिए निर्वचन एवं व्युत्पत्ति का स्वरूप देखना होगा । (क) यास्क ने निघण्टु में आये हुये समुद्र शब्द का निर्वचन इस प्रकार दिया हैः- समुद्रः कस्माद् । समुद् द्रवन्ति अस्माद् आपः । सम् अभि द्रवन्ति एनम् (प्रति) आपः । संमोदन्ते अस्मिन् भूतानि । समुदको भवति । समुनत्ति इति वा । ( निरुक्तम् 2-10 ) यहाँ पर एक समुद्र शब्द के लिये कुल मिला के पाँच निर्वचन प्रस्तुत किये गये हैः—
1. सम् + उद् + द्रव् - इस में से ( पृथिवी लोक में ) पानी द्रवित होता है ।
( अर्थात् समुद्र शब्द अन्तरिक्ष का वाचक है )
2. सम् + अभि + द्रव् – पानी ( निम्नगामी होने के कारण ) इसकी और जाता है
( अर्थात् यहाँ समुद्र शब्द पार्थिव सागर का वाचक बनेगा । )
3. सम् + मुद् – ( बहुत पानी होने के कारण ) उसमें जलचर आनन्द करते है ।
4. सम् + उद(क) – जिसमें अच्छी तरह से पानी इकठ्ठा होता है ।
5. सम् + उन्द् – जो (किनारे पर खडे आदमी को) भीगो देता है । वह समुद्र है ।

इसमें सम् उपसर्गपूर्वक द्रव्, मुद्, या उन्द् धातु-वाच्य क्रियाओं के (चरितार्थ होने के ) कारण अपार एवं अगाध जल से भरे सागर को समुद्र कहा गया है । अर्थात् तत् तत् क्रियाओं को करने के कारण समुद्र समुद्र कहा जाता है ।
यहाँ पर, जो निर्वचन दिये गये है वे पार्थिव समुद्र तथा अन्तरिक्ष – ऐसे दोनों सुप्रसिद्ध अर्थों को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है । क्योंकि उपर्युक्त निर्वचनों में 1. जो धातु दिखाये गये है, उस धातु-वाच्य क्रिया को समुद्र चरितार्थ करता है , तथा 2. तत् तत् धातुओं की वर्णध्वनियाँ भी समुद्र शब्द में गुम्फित भी है ।
इस चर्चा का तात्पर्यार्थ यह होता है कि – यास्क ने निर्वचन देने के निमित्त से शब्दार्थ-सम्बन्ध की ही विचारणा की है । एक और, निघण्टु में आया हुआ ( या वेद में प्रयुक्त ) समुद्र जैसा कोई शब्द है, और दूसरी और इस शब्द के प्रचलित अर्थ है । इन दोनों का सम्बन्ध उपरि-निर्दिष्ट क्रिया-वाचक धातुओं के साथ रहा है । पूर्वोक्त निर्वचनों में जिन धातुओं का प्रदर्शन किया गया है, वे सब ऐसे है कि इन धातुओं के द्वारा वाच्य जो जो क्रियायें है वे समुद्र (नामक पदार्थ) चरितार्थ करता है । तथा इन धातुओं के अन्दर जो जो वर्णध्वनियाँ गुम्फित है, वह समुद्र शब्द में भी विद्यमान (श्रूयमाण) है । अतः यह कहना ही होगा कि – यास्क निर्वचनों के द्वारा “शब्दार्थ-सम्बन्ध धातुमूलक है” ऐसा सिद्ध करते है और शब्दों के प्रचलित अर्थ यदि धातुमूलक है तो वह प्रामाणिक भी है ऐसा मानना ही होगा । - यही तो था कौत्स को देने योग्य प्रत्युत्तर, और यही तो थी यास्क की निरुक्त लिखने की इतिकर्तव्यता ।।
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अब, (ख) लौकिक एवं वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति प्रस्तुत करने के लिये पाणिनि की जो सोपानबद्ध प्रक्रिया है उसका निरूपण करना होगाः—
पाणिनि ने पृथक्करणात्मक व्याकरण न लिख कर, प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करके शब्द-निष्पादनात्मक व्याकरण लिखा है । जिसमें, आरम्भ में वक्ता के विवक्षितार्थों की वाचक प्रकृति एवं प्रत्यय स्थापित किये जाते है । उसके बाद, स्थान्यादेश-भाव की प्रयुक्ति से प्रकृति एवं प्रत्ययांश में आवश्यक परिवर्तन करने के आदेश दिये जाते है और तत्पश्चात् प्रकृति के अन्तिम वर्ण तथा प्रत्यय के आदि वर्ण पास पास में ( संहिता-स्थिति में ) आ जाने के कारण सन्धि-कार्य होते है । जिसके फल स्वरूप इष्ट रूप की ( प्रयोगार्ह पद की ) सिद्धि सम्पन्न होती है । उदाहरण के रूप में – ( कोई क्रिया के उपलक्ष्य में – )
1. कुठार + साधकतम पदार्थ ( रूपी विवक्षितत अर्थ ) होता है,
2. कुठार + करण-कारक संज्ञा ( साधकतमं करणम् । सूत्र से संज्ञा-विधान)
3. कुठार + टा – भ्याम् – भिस् (तृतीया विभक्ति के प्रत्ययों की उत्पत्ति)
4. कुठार + टा ( एकत्व की विवक्षा में टा की पसंदगी की जाती है )
5. कुठार + इन ( अदन्त प्रकृति होने के कारण टा के स्थान में इन का
आदेश किया जाता है । )
6. कुठारेन ।। ( अ + इ ये दो वर्ण संहितावस्था में पास पास आने से
वर्णसन्धि होती है ।) , ततः –
7. कुठारेण ।। ( यहाँ प्रकृतिस्थ रेफ से परे आये न वर्ण का ण वर्ण में परिवर्तन हो जाता है । ) - कुठारेण ( प्रहरति ) ।।

पाणिनि इस तरह वक्ता के विवक्षित अर्थ को व्यक्त करने के लिये, वाक्य रूप पूरी इकाई की ही निष्पत्ति ( साधनिका ) प्रस्तुत करते है । और वाक्यान्तर्गत सुबन्त एवं तिङन्त पदों की ( युगपत् ) निष्पत्ति करने के लिये, प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करने की पूरी प्रक्रिया दिखाते है ।। इस को देख कर, लगता है कि यहाँ प्रकृति + प्रत्यय के संयोजन से शब्द उत्पन्न होते है । विशिष्टा उत्पत्तिरिति व्युत्पत्तिः ।।
पाणिनि ने व्युत्पत्ति अर्थात् शब्दों की विशेष उत्पत्ति जो दिखाई है, उसका वैशिष्ट्य यदि नामशः बताना हो तो यहाँ कहना होगा कि – 1. पाणिनि ने विवक्षित अर्थ को अपनी प्रक्रिया में आरम्भ-बिन्दु पर ( in-put के रूप में ) रखा है और तत्पश्चात् उसका प्रकृति एवं प्रत्यय में परिवर्तन करके, ध्वनिशास्त्र से सम्मत आवश्यक परिवर्तन के साथ ( out-put के रूप में ) प्रयोगार्ह रूपसिद्धि तथा अन्ततो गत्वा वाक्यसिद्धि प्रदर्शित की है । तथा 2. नामपदों की एवं क्रियापदों की रूपसिद्धि करने के लिये पाणिनि ने पहेले तो सुप् एवं तिङ् जैसे सर्वसाधारण ( 21 तथा 18 ) प्रत्ययों की शृङ्खला प्रस्तुत की है, और उसके बाद स्थान्यादेशभाव की प्रयुक्ति से, एक ही प्रत्यय अर्थात् एक ही रूपघटक में से विविध प्रकार के असंख्य रूपों का निर्माण करके दिखाया है ।।

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यास्क एवं पाणिनि की कार्यसीमाओं का एक निदर्श

एक उदाहरण के माध्यम से यास्क एवं पाणिनि की कार्यसीमाओं का रेखाङ्कन करना उचित रहेगाः—
अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः । ( ऋग्वेदः 10 – 71 – 7 )

। अक्षण् S वन्तः । कर्ण S वन्तः । सखायः । मनः Sजवेषु । असमाः । बभूवुः ।

यहाँ पर अक्षण्वन्तः – ऐसा जो शब्द है उसके पदपाठ में स्पष्ट रूप से दो अंश पृथक् तया दिखाये जाते है । यथा – । अक्षण् S वन्तः । भाग्यवशात् हमारे दोनों आचार्यों ने इसी एक शब्द पर अपनी अपनी दृष्टि से निर्वचन और व्युत्पत्ति प्रदर्शित की है ।
पदपाठकार ने यहाँ तद्धितातन्त शब्द के जिन दो ( प्रकृति तथा प्रत्यय ) अंशों को पृथक् करके पदपाठ में दिखलाये है, इन में से प्रथम अक्षि ऐसे नामशब्द का निर्वचन यास्क ने दिया है । तथा पाणिनि ने प्रत्ययांश के रूप में अवस्थित वन्तः ऐसा जो अंश है उसकी व्युत्पत्ति करके दिखाई है । तद्यथा –
यास्क अक्षि शब्द के दो निर्वचन नीम्नोक्त शब्दों में दे रहे हैः—
1. अक्षि चष्टेः । 2. अनक्तेः इति आग्रायणः । तस्माद् एते व्यक्ततरे इव भवतः इति ह विज्ञायते ।। ( निरुक्तम् – 1-9 ) अर्थात् यास्क के मत से अक्षि शब्द दो धातुओं से निष्पन्न हुआ है । 1. चक्ष् धातु से, ( जिसका अर्थ ‘देखना’ होता है ), तथा 2. अञ्ज् धातु से , ( जिसका अर्थ ‘दिखाना’ होता है ) ।। मतलब की हमारी आँखे 1. देखने की तथा 2. दिखाने की क्रिया करती है – अतः चक्ष् या अञ्ज् धातु से यह अक्षि शब्द का अवतार हुआ है – ऐसा हम निश्चित रूप से कह सकते है । परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि यास्क ने एक नाम-वाचक शब्द के रूप में केवल अक्षि शब्द पर ही ध्यान केन्द्रीत करके उसका निर्वचन देने का (ही) कार्य किया है । वे वन्तः जैसे प्रत्ययांश के सन्दर्भ में कुछ भी नहीं कहेते है ।।
पाणिनि ने ऋग्वेद के इसी शब्द को लेकर, उसका प्रत्ययांश कैसे व्युत्पन्न होता है इसकी और ही ध्यान आकृष्ट किया है । पाणिनि की दृष्टि में अक्षि शब्द एक अव्युत्पन्न प्रातिपदिक है । ( क्योंकि 436 अशेर्नित् । 3-156 – इस उणादिसूत्र से अक्षि शब्द की सिद्धि होती है । ) पाणिनि के लिये यह नाम की व्युत्पत्ति क्या हो सकती है ? यह चर्चा का विषय नहीं है ।
अक्षण्वन्तः शब्द की सिद्धि कैसे की जाय – यह बताने के लिये, पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में एक सूत्र लिखा हैः— अनो नुट् । ( पा. सू. 8 – 2 – 16 ) इस सूत्र के द्वारा नुट् आगम का विधान किया गया है । काशिकावृत्ति में इस सूत्र का अर्थ बताया है कि – छन्दसि इति वर्तते । अनन्तादुत्तरस्य मतोर्नुडागमो भवति छन्दसि विषये । 6 अर्थात् छन्द (= वेद) के विषय में, अनन्त (= अन् अन्तवाले शब्द ) के पीछे आये हुए मतुप् प्रत्यय को नुट् आगम होता है । इस सूत्र का विनियोग करके जिस तरह से पाणिनीय व्याकरणशास्त्र में ऋग्वेद के अक्षण्वन्तः शब्द की रूपसिद्धि की जाती है उसका अभ्यास करना आवश्यक हैः—
1. अक्षि + मतुप् । - यहाँ तदस्यास्तीति मतुप् । से मतुप् प्रत्यय का विधान,
2. अक्षि + वतुप् । - अब, छन्दसीरः ( 8-2-15) से म कार को व कार होता है ।
3. अक्षि+अनङ् + वत् । - यहाँ, छन्दस्यपि दृश्यते ( 7-1-76 ) से अनङ् आदेश,
4. अक्ष्+अन् + वत् ।
5. अक्षन् + वत् । - अब, नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य । (8-2-7) से न् कार का लोप,
6. अक्ष0 + वत् । अब, भूतपूर्वगति का आश्रयण करते हुए, पूर्वोक्त सूत्र (अनो नुट् )
से अक्ष(न्) शब्द के उत्तर में आये हुए मतुप् (वतुप्) प्रत्यय को
नुट् आगम किया जाता है ।
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6. काशिकावृत्तिः । ( षष्ठो भागः ) सं. द्वारिकाप्रसाद शास्त्री, तारा पब्लीकेशन्स, वाराणसी, 1967, पृ.303




7. अक्ष + नुट् वत् । - वत् से पूर्व में नुट् (= न्) आगम लगाया जाता है ।
8. अक्ष +न् वत् । - अब, अट्कुप्वाङ्नुम्व्यवाये Sपि । से न् को ण् त्व विधि की
जायेगी । जिससे – अक्षण्वत् शब्द तैयार हो जायेगा ।।
- आगे चल कर, अक्षण्वत् प्रातिपदिक में से अक्षण्वन्तः शब्द की सिद्धि की जायेगी ।
यहाँ वैयाकरणों की दृष्टि में, नुट् आगम का परादिवद् भाव मानना है । जिसके फल स्वरूप – ण्वत् – इतना भाग प्रत्ययांश कहा जायेगा ।।
* * * *
यहाँ, यास्क ने केवल प्रकृत्यंश ( अक्षि ) को लक्ष्य बनाके निर्वचन दिया है, और प्रत्ययांश के सन्दर्भ में कुछ नहीं कहा है । दूसरी और, पाणिनि ने इसी शब्द के केवल प्रत्ययांश को लक्ष्य बना के, उसकी व्युत्पत्ति प्रस्तुत की है । तथा अक्षि जैसे प्रकृत्यंश के लिये कुछ नहीं कहा है ।। इस एक उदाहरण से मालुम हो जाता है कि दोनों आचार्यों की कार्यसीमायें ( एवं कार्यपद्धति ) बहुशः अलग ही है ।।
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प्रासङ्गिक रूप से यहाँ एक रोचक बात भी बतानी आवश्यक हैः—
यास्क अक्षण्वन्तः शब्द में से केवल अक्षि – जैसे प्रकृत्यंश का ही निर्वचन देते है । परन्तु वे पदपाठकार ने जो पदच्छेद ( अक्ष ण् S वन्तः) दिया है, उसको ध्यान में नहीं लेते है । अर्थात् वे अक्षन्(ण्) को प्रकृति मान कर कुछ नहीं कहते है । और उस पदच्छेद के बारे में कोई विवाद भी नहीं करते है । लेकिन इस सन्दर्भ में वैयाकरणों ने कडी आलोचना की है । पाणिनि ने वत् प्रत्यय को नुट् आगम का विधान किया है, और जिसके फल स्वरूप ण्वन्तः जैसे प्रत्ययांश की सिद्धि हुई है । इस लिये, शाकल्य ने पदपाठ में जो । अक्षण्S वन्तः । ऐसा पदच्छेद किया गया है वह वैयाकरणों को मान्य नहीं है । अर्थात् वैयाकरणों की दृष्टि में अक्ष Sण्वन्तः – ऐसा ही पदपाठ करना चाहिये । अतः इस विसंगति को देखते हुए महाभाष्यकार पतञ्जलि ने एक गंभीर आलोचना की है, वह भी यहाँ स्मरणीय हैः—

न हि लक्षणेन पदकारा अनुवर्त्याः । पदकारैर्नाम लक्षणम् अनुवर्त्यम् ।। 7

अर्थात् लक्षणकारों (= वैयाकरणों) को पदपाठकार का अनुसरण नहीं करना है । पदपाठकार के द्वारा हि लक्षणकारों ( के नियमों ) का अनुसरण होना चाहिये ।।
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7. व्याकरण-महाभाष्यम् । ( तृतीयो भागः ), प्रकाशक – मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1967, पृ. 382


अर्थात् यहाँ । अक्षण्S वन्तः । होना चाहिये कि । अक्षS ण् वन्तः । होना चाहिये ? इस विषय में पतञ्जलि अपना मताग्रह जाहिर करते है कि पाणिनि के सूत्रों से जो पद की प्राप्ति होती है, उसी ( अक्षSण्वन्तः ) को ही मान्यता देनी चाहिये । पुराकाल में शाकल्य के द्वारा भले ही । अक्षण्S वन्तः । ऐसा पदच्छेद किया गया हो, लेकिन आज उसे परिवर्तित कर देना चाहिये ।।

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पाणिनि की अष्टाध्यायी में पूरे भाषा-प्रपञ्च का व्याकरण

यद्यपि अभी तक के जो आरूढ विद्वान् है, उन्हों ने पाणिनीय व्याकरण के अनेक वैशिष्ट्य हमारे सामने उद्घाटित किये है । तथापि पाणिनि की अष्टाध्यायी का बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग स्वरूप सर्वाङ्गीण रूप से बताने का सामर्थ्य तो शायद ही किसी में होगा । किन्तु प्रासंगिक रूप से कुछ मुख्य एवं ज्ञातव्य बिन्दुयें बताना जरूरी भी हैः— महर्षि पाणिनि ने संस्कृत भाषा का जो अद्वितीय व्याकरण लिखा है वह वाक्य-निष्पत्ति का व्याकरण है । ( अर्थात् इस व्याकरण के सूत्रों के द्वारा एकाकी सुबन्त य़ा तिङन्त पद की रूपसिद्धि करना सम्भव नहीं है । ) तथा वाक्य की निष्पत्ति के साथ साथ, इस व्याकरण के सूत्रों के द्वारा (विग्रह)वाक्यों में से वृत्तिजन्य पदों की रचना भी की जाती है । कहेने का तात्पर्य यह है कि विवक्षित अर्थ को आरन्भबिन्दु माना जाय तो वहाँ से शूरु करके वाक्य-सिद्धि पर्यन्त का व्याकरण पाणिनि ने बनाया है । परन्तु यह व्याकरण वहीं पर रुकता नहीं है । वह फिरसे वही वाक्य को लेकर, उसका भी रूपान्तर करके कृदन्त या तद्धितान्त, या समासादि रूप शब्दों का निर्माण भी करके दिखाता है । जिसके कारण पाणिनीय व्याकरण निरन्तर घुमता हुआ एक चक्र जैसा प्रतीत होता है ।।8 अतः हम कहे सकते है कि – पाणिनीय व्याकरण में दो तरह की विधियाँ प्रदर्शित की गई हैः—
पदत्व-सम्पादक विधियाँ और पदोद्देश्यक विधियाँ । 1. पदत्व-सम्पादक विधियों में (क) सुबन्त एवं तिङन्त पदों की रचनाओं का समावेश होता है । तथा (ख) सरूप एवं विरूप एकशेष शब्दों की रचनाओं का समावेश होता है । 2.पदोद्देश्यक विधियों में (क) कृदन्त, (ख) तद्धितान्त, (ग) समास, एवं (घ) सनाद्यन्त धातुओं की पद-रचनाओं का समावेश होता है ।। - इस में पूरे पाणिनीय व्याकरण का अशेष प्रपञ्च समाविष्ट हो जाता है ।। यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से कहना होगा कि – यास्क अपने ग्रन्थ में इस तरह से पूरे वाग्व्यवहार ( समग्र भाषा ) को समाविष्ट नहीं करते है । बल्कि, निरुक्त लिखते समय इस तरह का उनका उपक्रम भी नहीं था ।।
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8. द्रष्टव्यः- पाणिनीय व्याकरण – तन्त्र, अर्थ और सम्भाषण सन्दर्भ । वसन्तकुमार भट्ट, एल.डी. इन्स्टीट्युट ऑफ इण्डोलॉजी, अहमदावाद – 2003
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अष्टाध्यायी में वैदिक भाषा के व्याकरण का स्वरूप

महर्षि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में लौकिक एवं वैदिक संस्कृत भाषा का व्याकरण एक साथ में प्रस्तुत किया है । यह उनकी अपूर्व एवं अद्वितीय सिद्धि है – उसमें भी कोई विवाद नहीं है । परन्तु यह प्रश्न विचारणीय है कि पाणिनि ने दोनों तरह की संस्कृत भाषा का व्याकरण एक साथ में कैसे ( किस ढंग से ) प्रस्तुत किया है । एक तो शूरु में जैसे कहा है – पाणिनीय व्याकरण पृथक्करणात्मक नहीं है, परन्तु प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन प्रस्तुत करके वाक्य की निष्पादना करनेवाला व्याकरण है । तथा उसमें भी, पाणिनि ने अपने समकाल में जो लौकिक संस्कृत बोली जाती थी उस भाषा का वर्णन प्रस्तुत करने का आशय रखा है । 9 लेकिन भाषा का वर्णन करते समय यह भी सम्भव था कि वे, वैदिक भाषा में से लौकिक संस्कृत भाषा की उत्क्रान्ति कैसे हुई है – यह ऐतिहासिक दृष्टि से व्याकरण की रचना करे । परन्तु पाणिनि ने इस तरह का भी वैदिक व्याकरण नहीं लिखा है । पाणिनि ने तो अपने अष्टाध्यायी व्याकरण में सर्वत्र लौकिक संस्कृत भाषा के निरूपण से प्रारम्भ करके, उस लौकिक संस्कृत के विरोध में वैदिक संस्कृत भाषा में क्या अन्तर है – इस तरह का निरूपण किया है । उदाहरण रूप से देखे तो – प्राग्रीश्वरान्निपाताः । 1-4-56 सूत्र से निपातों का वर्णन आरम्भ करके, प्रादयः ।(1-4-58), उपसर्गाः क्रियायोगे ।(1-4-59) से कहा है कि प्रादिनिपात उपसर्गसंज्ञक है और उसका क्रियापद के योग में प्रयोग होता है । तथा, ते प्राग्धातोः (1-4-80) से बताते है कि उपसर्ग ( एवं गतिसंज्ञक) का प्रयोग धातु के पूर्व में ही होता है । - यहाँ पहेले लौकिक संस्कृतभाषा की व्यवस्था बतायी गई है । तत्पश्चात् आगे चल कर पाणिनि कहते है कि छन्दसि परे S पि ।
( 1-4-81 ), व्यवहिताश्च । ( 1-4-82 ) – अर्थात् वेदमन्त्रों में ये उपसर्गसंज्ञक प्रादि निपात धातुओं ( क्रियापदों ) के पीछे भी प्रयुक्त होते है , और कदाचित् किसी भी दो शब्दों के व्यवधान में भी प्रयुक्त होते है । यथा – 1. हरिभ्यां याह्योक आ । 2.आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि ।। ( यहाँ याहि क्रियापद के पीछे आ का प्रयोग है, एवं आ और याहि के बीच में अन्य नामपदों का प्रयोग भी हुआ है । ) इसी तरह से छन्दसि च । ( 6-3-126), छन्दस्युभयथा । ( 6-4-5 ), तुमर्थे सेसेनसेअसेन्क्सेकसेन..... । ( 3-4-9 ) इत्यादि सूत्रों से लौकिक संस्कृत भाषा के विरोध में वैदिक संस्कृत भाषा का वर्णन बाद में ही किया गया है ।।
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9. ( अर्थात् पाणिनि ने आदेशात्मक व्याकरण बनाने का भी उपक्रम नहीं रखा है । ) पाणिनि के व्याकरण को “ Descriptive Generative Grammar ”.कहा गया है । तथा उसे prescriptive grammar भी नहीं कहा जाता है ।
अब वैदिक संस्कृत भाषा का वर्णन करने के लिए पाणिनि ने जो वर्णनात्मक शैली अपनायी है उसे देखे तो – पाणिनि ने व्यत्ययो बहुलम् । बहुलं छन्दसि । विभाषा छन्दसि । अन्येभ्यो Sपि दृश्यते । जैसे सूत्रों प्रस्तुत करके लौकिक शब्द-प्रयोगों के अनुसन्धान में वैदिक शब्द-प्रयोगों की अनियमितता ही बार बार उल्लिखित की है । यानें वेद की भाषा में नियमित प्रयोगों की परिगणना ही सुदुर्लभ है, औऱ केवल अनियमितता ही सार्वत्रिक रूप से प्रवर्तमान है ऐसा पाणिनि का निरीक्षण है ।।

तथापि यह भी कहना होगा कि – यास्क की अपेक्षा से पाणिनि ने वैदिक भाषा के लिए बहुत कुछ अधिक कहा है । जैसे कि – 1. यास्क ने वैदिक क्रियापदों के सन्दर्भ में कुछ भी नहीं कहा है । लेकिन पाणिनि ने सभी प्रकार के क्रियापदों की विभिन्न अर्थच्छायायें बताई है । 2. वैदिक क्रियापदों के रूप-वैविध्य को भी विस्तार से उल्लिखित किया है । एवं 3. लौकिक संस्कृत भाषा के प्रत्येक धातु, प्रत्ययादि, सम्बोधन वाचकादि पदों में तथा वेदमन्त्रों के शब्दों में उदात्तादि स्वर कैसे होते है – इन सब का निरूपण किया है । परन्तु यास्क ने इन में से किसी का भी वर्णन नहीं किया है । 4. पाणिनि ने स्वरभेद के आधार पर अर्थभेद होता है – इस विषय का जो निरूपण षष्ठाध्याय में किया है वह ध्यानाकर्षक है । यास्क इस विषय की और केवल अङ्गुलिनिर्देश करके रुक जाते है ।।
उपसंहारः—
यास्क ने वेदमन्त्रों के शब्दों का आख्यातजत्व दिखलाके, वेदमन्त्रों के प्रचलित अर्थों की प्रमाण-पुरस्सरता सिद्ध की है । वेदशब्दों के निर्वचन के निमित्त से उन्हों ने, भाषा में शब्दार्थ-सम्बन्ध की गवेषणा का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । इस तरह, यास्क की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जो कौत्स जैसे वेदविरोधी आचार्यों खडे थे, उस विरोध के अनुसन्धान में प्रचलित वेदार्थों का समर्थन करके उन्हों ने अपनी इतिकर्तव्यता दृढता से औऱ पूर्णतया निभाई है । तथा शब्दार्थ-सम्बन्ध की गवेषणा करके भाषाचिन्तन में अपना चिरस्मरणीय विशिष्ट योगदान दिया है ।।
तथा पाणिनि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जो व्याकरण-विचार केवल वर्ण और पद तक सीमित था, उसको देखते हुए हम कहे सकते है कि भाषाचिन्तन के क्षेत्र में पाणिनि का योगदान तो विश्वतोमुखी है । संस्कृतभाषा के लौकिक एवं वैदिक दोनों स्वरूप का वर्णन करनेवाले वैयाकरण के रूप में वे न केवल प्रथम आचार्य है, वे अद्यावधि अद्वितीय भी है । उन्हों संस्कृतभाषा के प्रकृति+प्रत्यय की संयोजना दिखाने के लिए जो व्युत्पत्तियाँ प्रस्तुत की है, और उसके लिए जो स्वोपज्ञ प्रक्रिया का प्रदर्शन किया है वह आज की वैज्ञानिक तकनिकों से बहेतर एवम् उन्नततर भी है ।।

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सन्दर्भ-ग्रन्थ सूचि
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काशिकावृत्तिः । ( षष्ठो भागः ) सं. द्वारिकाप्रसाद शास्त्री, तारा पब्लीकेशन्स, वाराणसी, 1967
निरुक्तम् – ( दुर्गस्य व्याख्यया सहितम् ) , सं. मनसुखराय मोर, गुरुमण्डल ग्रन्थमाला – 10, कलकत्ता, 1952
पाणिनीय व्याकरण – तन्त्र, अर्थ और सम्भाषण सन्दर्भ । वसन्तकुमार भट्ट,
एल.डी. इन्स्टीट्युट ऑफ इण्डोलॉजी, अहमदावाद – 2003
व्याकरण-महाभाष्यम् । ( तृतीयो भागः ), प्रकाशक – मोतीलाल बनारसीदास,
दिल्ली, 1967,
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास,( प्रथम भाग ), ले. पं.श्रीयुधिष्ठिर मीमांसक, सोनीपत,(हरियाणा),चतुर्थ संस्करण, सं.2041 ( ई.स.1984 ),

Panini : A Survey of Research , by Prof. George Cardona, Motilal
Banarasidass, Delhi, 1980


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पाणिनि और यास्क का काल-निर्धारण – एक अनुल्लिखित सन्दर्भः—

पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में कतिपय ऐसे सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों का निर्देश किया है कि जिसके आधार पर यास्क का पुरोवर्तित्व एवं पाणिनि का उत्तरवर्तित्व सिद्ध किया जा सकता है । उदाहरण के रूप में – इन्द्रियम् इन्द्रलिङ्गम् – इन्द्रदृष्टम् – इन्द्रसृष्टम् – इन्द्रजुष्टम् – इन्द्रदत्तम् इति वा । 5 – 2 – 93 ।।
इस सूत्र में पाणिनि ने कहा है कि – इन्द्रियम् ऐसा अन्तोदात्त स्वरवाला शब्द निपातन से सिद्ध होता है । परन्तु वह शब्द इन्द्रस्य लिङ्गम् , इन्द्रेण दृष्टम् , इन्द्रेण सृष्टम् , इन्द्रेण जुष्टम् , इन्द्रेण दत्तम् – जैसे अर्थों में प्रयुक्त होता है ।

( काशिकावृत्तिकार यहाँ कहते है कि – इतिकरणः प्रकारार्थः । सति सम्भवे व्युत्पत्तिरन्यथापि कर्तव्या । अर्थात् इन्द्रेण दुर्जयम् । इस वाक्य का अर्थ “ आत्मा से जो जितना मुश्कील है, वह इन्द्रिय है ” यहाँ इन्द्रिय शब्द में रहे इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा होता है । )
इन्द्र देवता का पुराकथाशास्त्रीय अध्ययन करने से मालुम होता है कि – वेदमन्त्रों में, इन्द्र मूल में युद्ध के देवता थे, उसके बाद वह वृष्टि के देवता बनाये गये है । और अन्ततोगत्वा वह परमात्मा के स्थान पर भी स्थापित किये गये है । अतः शरीर में स्थित चैतन्य स्वरूप आत्मा को भी इन्द्र कहा गया है । दूसरी और लिङ्ग शब्द का अर्थ होता हैः— लीनम् अर्थम् गमयति इति लिङ्गम् । अर्थात् शरीर में छीपे हुए आत्मा का अस्तित्व इन्द्रिय रूपी लिङ्ग से अनुमित होता है । अतः “ इन्द्रियम् ” शब्द का प्रथम अर्थ होता है – इन्द्रस्य लिङ्गम् । ( काशिकाकार कहते है कि –
इन्द्र आत्मा । स चक्षुरादिना करणेन अनुमीयते, न अकर्तृकं करणम् अस्ति । )

यास्क ने निरुक्त के दशम अध्याय में इन्द्र शब्द के जो विभिन्न निर्वचन दिये है,
( इन्दवे द्रवति इति वा, इन्दौ रमते इति वा । 9-8, इन्द्रः कस्माद् । इरा अन्नम्, तेन सम्बन्धात् तद्हेतुभूतम् उदकं लक्ष्यते । लक्षितलक्षणया तेनापि तदाधारभूतो मेघः । 10-9 ) वह इन्द्र देवता को प्राधान्येन सोमप्रिय एवं वृष्टि के देवता के रूप में वर्णित करते है । परन्तु पाणिनि पूर्वोक्त सूत्र ( 5-2-93 ) से जो इन्द्रिय शब्द की व्युत्पत्ति देते है, उसमें आत्मा रूपी दार्शनिक अर्थवाले इन्द्र शब्द को लेकर, घच् प्रत्यय का विधान करते है । घच् को इय आदेश हो कर इन्द्र से इन्द्रिय शब्द सिद्ध होता है ।

यहाँ ध्यातव्य बात यह है कि पाणिनि ने इन्द्र का जो एक वृष्टि के देवता के रूप में वेदोक्त स्वरूप है , जिसको हम पुराकथाशास्त्रीय व्यक्तित्व कहते है, उसका निर्देश पूर्वोक्त सूत्र में नहीं किया गया है । परन्तु तदुत्तरवर्ती काल का दार्शनिक स्वरूप ध्यान में लेते हुए – इन्द्रलिङ्गम् , इन्द्रसृष्टम् इत्यादि कहा गया है । इसी तरह से, पाणिनि ने ब्रह्म-भ्रूण-वृत्रेषु क्विप् । 3-2-87 सूत्र से ब्रह्महा – भ्रूणहा ( दिति के भ्रूण की हत्या करनेवाला, दिति से मरुद्गण की उत्पत्ति कथा ) जैसे शब्दों की जो सिद्धि की है, इससे सूचित होता है कि महर्षि पाणिनि ने उत्तरवर्ती काल की पुराकथाओं का ही उल्लेख किया है । - इन दो सूत्रों से स्पष्टतया अनुमित हो सकता है कि पाणिनि यास्क के पुरोगामी आचार्य नहीं हो सकते ।।


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बुधवार, 17 जून 2009

भारत में कोश-विज्ञान की कब भोर भई ?

भारत में कोशविज्ञान की कब भोर भई ?
वसन्तकुमार म. भट्ट
अध्यक्ष, संस्कृतविभाग
गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद-9
bhattvasant@yahoo.co.in

भूमिका - यह बात सर्वविदित एवं सर्वस्वीकृत है कि भारत में कोशविज्ञान का आरम्भ ‘निघण्टु’ नामक वैदिक शब्दकोश से हुआ है । यास्क ने ई.पूर्व 600 में, इस शब्दकोश के शब्दों का निर्वचन देने के लिए जो भाष्य लिखा है, उसका नाम “निरूक्तम्” है । इस शब्दकोश का स्वरूप देखा जाय तो उसमें 1.पर्यायवाची शब्दों का बना प्रथम काण्ड है, 2. अनेकार्थक शब्दों का दूसरा काण्ड है और 3.तीसरे काण्ड में देवता-सम्बन्धी शब्दों का संग्रह है । इस ‘निघण्टु’ शब्दकोश को आदर्श बनाके और इससे ही प्रेरणा प्राप्त करके कालान्तर में ‘अमरकोश’ की रचना हुई ।
परन्तु, इस प्रचलित मत में थोडी नूकताचीनी करनी आवश्यक दिखाई दे रही है । यह जो ‘निघण्टु’ नामक बैदिकशब्दकोश है, उसमें उपर्युक्त त्रिविध काण्ड की जो वर्गीकृत व्यवस्था है वह तो कोशविज्ञान की प्रायः पूर्ण विकसित स्थिति की परिचायक है । लेकिन भारत में कोशविज्ञान की भोर कब भई होगी ? यह प्रश्न तो पुनरीक्षणीय है ही ।
(2)
पाणिनि के “अष्टाध्यायी” व्याकरण में यद्यपि ‘वाक्य’ की निष्पत्ति कैसे होती है- इसका निरूपण किया गया है । जिसमें वाक्य की दो प्रमुख ईकाइ मानी गई है -1.सुबन्तपद (नामपद) और 2.तिङन्तपद (क्रियापद) । परन्तु पाणिनि ने अपनें सूत्रों को स्वल्पाक्षर बनाने के लिए जो धातुपाठ, गणपाठ बनाये है, वह एक दृष्टि से विभिन्न प्रकार के शब्द-यूथ बनाने का ही कार्य था । इन शब्द जूटों में, यद्यपि गणपाठ में ‘अर्थप्रदर्शन’ की बात नहीं थी । फिर भी तरह तरह के शब्दयूथ बनाना ही कोशविज्ञान की शूरूआत कही जा सकती है । गणपाठ के अलावा पाणिनि-निर्दिष्ट ‘निपातनसूत्रों’ में उल्लिखित शब्दों भी एक तरह का शब्दजूट बनाना ही था ।।
(3)
पाणिनि के पूर्वकाल में भी भाषा-विषयक विचारणा करनेवाले अनेक वैयाकरणादि हुये थे । जिनमें से ऋग्वेद के पदपाठकार शाकल्य का नाम समयावधि की दृष्टि से अग्रगण्य है । शाकल्य ने वेदमन्त्रों की संहिता को तोडकर पदपाठ बनाया । इस पदपाठ का एक केन्द्रवर्ती नियम यह था कि सबसे छोटा जो भी अर्थवाहक शब्दांश हो उसको विश्लेषित करके दिखाया जाय । प्राचीन भारत में, वाक्य में जो भी सबसे छोटा अर्थवाहक अंश होता है, वह “ पद ” कहलाता है ( अर्थः पदम् । ) – ऐसा माननेवाला भी एक पक्ष था । जो ऋग्वेद का पदपाठ बनाने की आधारशिला थी । कोशविज्ञान में सब से पहले जो प्रविष्टि (Word- entry) बनाने का कार्य होता है, उस में भी सबसे छोटी अर्थवाहक ध्वनिश्रेणी को ही स्थान दिया जाता है, उसका आरम्भ ऋग्वेद के पदपाठ में देखा जा सकता है ।।
(4)
दूसरी ओर वैयाकरणों में अतीव ध्यानास्पद एवं चर्चास्पद नाम था शाकटायन का । यास्क ने कहा है कि- “नामानि आख्यातजानि इति शाकटायनः”। (निरुक्तम् अ.1) इन का मत था कि भाषा में जो भी (संज्ञावाचक) नाम का प्रयोग होता है, वे सभी कोई एक (या एकाधिक) क्रियावाचक धातु से निष्पन्न हुए है। यथा- अश्नोति अध्वानम् इति अश्वः। “जो मार्ग को (तीव्र गति से) नाप लेता है, वह अश्व” कहलाता है । अतः शाकटायन भाषा में प्रयुक्त होनेवाले नामों के प्रसिद्ध अर्थात् परम्परागत अर्थों की संगति किसी न किसी धातु से (धातु के अर्थ एवं ध्वनिसादृश्य से) बिठाने का कार्य करनेवाले निर्वचनकार थे । इस शाकटायन को अपने गुरुपद पर स्थापित करके यास्क ने ‘निघण्टु’ में संगृहीत शब्दों पर व्याख्या लिखी है । शाकटायन एवं यास्क की यह प्रवृत्ति कोशविज्ञान से सुसम्बद्ध ऐसी अर्थविज्ञान की विचारधारा को पुष्पितपल्लवित करने की प्रवृत्ति थी । दूसरे शब्दों में कहे तो यह प्रवृत्ति कोशविज्ञान के साथ आनुषंगिक रूप से सम्बद्ध थी ।

(5)
परन्तु स्पष्टरूप से कोशविज्ञान का ही ईषत्-ईषत् चमत्कार जहाँ दिखाई दे रहा है- वह है “उणादि (पञ्चपादी)”सूत्रपाठ । पाणिनि ने अष्टाध्यायी में उणादयो बहुलम् । 3-3-1 सूत्र से उणादिसूत्रपाठ की ओर केवल अंगुलिनिर्देश ही किया है । उन्होंने स्वयं कोई उणादिसूत्र बनाये थे या नहीं –यह आज अज्ञेय है । परन्तु वे जब पूर्वोक्त 3-3-1 सूत्र को दे रहे है तो यह बात निश्चित है कि उणादिसूत्रों का अस्तित्व पाणिनि से भी पूर्व में था । यहाँ पर, अर्थात् उणादि(पञ्चपादी) सूत्रपाठ में प्राधान्येन ऐसे सूत्र प्रस्तुत हुए है कि अमुक अमुक शब्दों का अन्तिम प्रत्ययांश एक समान है । तद्यथा -
(1) कृ-वा-पा-जि-मि-स्वदि-साध्यशू-भ्य उण् । (1-1) इस सूत्र से ‘कृ’, ‘वा’ इत्यादि धातुओं से ‘उ’(ण्) प्रत्यय जूडने से कारु, वायु, पायु, जायु, मायु, स्वादु, साधु, आशु जैसे “उकारान्त शब्द” सिद्ध हुए है ।
(2) सि-तनि-गमि-मसि-सच्यविधाञ्क्रुशिभ्यस्तुन् । (1-69) सूत्र से कहा गया है कि - सि, तनि इत्यादि धातुओं से ‘तु’(न्) प्रत्यय लगने से सेतु-तन्तु-गन्तु-मस्तु-सक्तु-ओतु-धातु इत्यादि ‘तु’ प्रत्ययान्त शब्द बनते / बने है ।।
(3) कृ-गृ-शृ-वृञ्चतिभ्यः ष्वरच् । (2-279) सूत्र से कृ-गृ इत्यादि धातुओं से ष्वरच् प्रत्यय लगता है । जिससे- कर्बरः, गर्वरः, शर्वरी, बर्बरः शब्द बने है ।।
(4) छित्वर-छत्वर-धीवर-पीवर-मीवर-चीवर-तीवर-नीवर-गह्वर-कट्वर-संयद्वराः । (3-281) सूत्र से छित्वर, धीवर इत्यादि शब्द भी ‘ष्वरच्’(वर) प्रत्यय लगने से सिद्ध होते है (हुए है) ।।
(5) खष्प-शिल्प-शष्प-बाष्प-रूप-पर्प-तल्पाः । (3-308) सूत्र से ‘प’ प्रत्यय का विधान किया गया है, जिसके फलस्वरूप शिल्प-बाष्प इत्यादि जैसे ‘प’ प्रत्ययान्त शब्दों की संघटना हुई है।
(6) कृ-शृ-पृ-कटि-पटि-शौटिभ्य ईरन् । (4-470) सूत्र से ‘ईरन्’ प्रत्यय का विधान होता है और करीर, शरीर, परीर, कटीर, पटीर, शौटीर जैसे शब्द तैयार होते है । ये सभी शब्द ‘ईर’ प्रत्ययान्त है- ऐसा दिखाई दे रहा है।
(7) इसी तरह से- प्रथेरमच् । (5-746) सूत्र से ‘प्रथ्’ धातु से ‘अमच्’ प्रत्यय लगता है, और ‘प्रथम’ शब्द बनता है। चरेश्च । (5-747) सूत्र से भी ‘चर्’ धातु से ‘अमच्’ प्रत्य लगता है, और ‘चरम’ शब्द सिद्ध होता है । तथा मङ्गेरलच् । (5-747) सूत्र से ‘मङ्ग’ धातु से ‘अलच्’ प्रत्यय जूड कर ‘मङ्गल’ शब्द की सिद्धि हुई है – ऐसा दिखाई दे रहा है।
इन उदाहरण रूप उणादिसूत्रों को देख कर एक बात स्पष्ट होती है कि अज्ञात उणादि-सूत्रकार ने यहाँ पर न धात्वर्थ की और ध्यान दिया है, और न तो प्रत्ययार्थ क्या है – यह बताया है । उसका मतलब तो यही होगा की उनकी दृष्टि शब्दों की प्रत्ययान्त-स्थिति कहाँ कहाँ पर एक समान है यह देख कर ऐसे समानाकृतिवाले शब्दों का एकत्रीकरण किया जाय ।। यही तो है ‘इदं प्रथमतया’ कोशकार्य का आरम्भ ।
पाणिनि ने भाषा की बृहत्तम ईकाइ को (वाक्य को) लेकर उसकी संयोजना बताई थी । और उसके पूर्वकाल में पदपाठकार शाकल्य थे, जिन्हों ने वेदमन्त्रों को लेकर सब से छोटे सार्थक शब्दांश का विश्लेषण प्रस्तुत किया । इन दोनों के बीच (शाकल्य एवं पाणिनि के बीच) उणादिसूत्रों के अज्ञात रचयिता ने, शब्द के अन्तिम प्रत्ययांश को अपनी चयन प्रक्रिया का नियामक तत्त्व बनाके, विविध शब्दों के यूथ बनाने का सब से पहेले आरम्भ किया था ।
कोश-प्रणयन में अर्थानुसारी शब्दचयन या पृथिवीलोक-स्वर्गलोकादि सम्बन्धी शब्दों का चयन करना- यह सब बहुत परवर्तीकाल की विकसित स्थिति है । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो भारत में ‘निघण्टु’ जैसे “एकार्थक अनेक शब्दों ” एवं “अनेकार्थक एक-एक शब्दों” का संग्रह(कोश) बनाने की प्रवृत्ति से भी पूर्वकाल में उणादि सूत्रकारने ही शब्दों के बाह्यशिल्प को अर्थात् शब्दों की अन्तिम ध्वनि सामान्य रूप से / समान रूप से कहाँ कहाँ दिखाई दे रही है ? – इसकी गवेषणा की थी । यही होगा कोशविज्ञान का उषःकाल ।।
अर्थ से निरपेक्ष रहते हुए, केवल शब्दों के अन्तिम भाग को ही देख कर शब्दों का यूथ बनाने का कार्य उणादिसूत्रों में शूरू हुआ था- यह देख कर कहना पडेगा कि आज के कोशविज्ञान के बीजवपन का कार्य सब से पहले उणादि सूत्रकार ने ही किया था ।।
कोशकार्य के प्राथमिक उद्देश्य 1. अर्थनिर्धारण करना, 2.शब्द की वर्तनी स्थिर करना तथा 3. शब्दों के लिङ्ग का नियमन करना- ये सभी बातें बाद में आती है, लेकिन शब्दों के कोई एक स्वरूप (बाह्यशिल्प) को नियामक तत्त्व के रूप में लेकर, समानरूप वाले शब्दों का एकत्रीकरण करना यही कोशकार का प्रथमतम कर्तव्य होता है । अतः हम कह सकते है कि इन उणादिसूत्रों की रचना के साथ ही कोशविज्ञान की भोर भई थी ।।



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शनिवार, 16 मई 2009

पुत्रैषणा से पीडित संसार को शुनःशेपाख्यान का सन्देश

।। पुत्रैषणा-पीडित संसार को शुनःशेपाख्यान का सन्देश ।।*

वसन्तकुमार म. भट्ट
निदेशक, भाषा-साहित्य भवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380 009
bhattvasant@yahoo.co.in

भूमिकाः-
भारतीय संस्कृति में पैदा हुए किसी भी मनुष्य का मन यावत् जीवन त्रिविध एषणाओं से बद्ध – सुबद्ध – रहता है । यह एक निर्विवाद हकीकत है । ये तीन एषणाओं का नाम है – 1. पुत्रैषणा, 2. वित्तैषणा और 3. लोकैषणा । इन तीनों में से जो वितैषणा है, वह मनुष्य-जीवन के व्यावहारिक जीवन से नाता रखती है । और जो लोकैषणा है, वह पूर्वमीमांसा-प्रोक्त यज्ञयागादि से प्राप्त होनेवाले स्वर्गलोक आदि मरणोत्तर लोक से सम्बन्ध रखती है । परन्तु जो पुत्रैषणा है, वह मनुष्यमात्र की पृथिवीलोक पर सदैव बने रहने की शाश्वत एवं सार्वभौम इच्छा का अकाट्य अङ्कुर है । और ऐसी पुत्रैषणा में पुत्र एवं पुत्री दोनों अभीष्ट है – यह बात तार्किक रूप से निहित है । लेकिन स्त्रीदेह की प्राकृतिक मर्यादाओं के कारण, स्त्रीदेह की अपेक्षा में पुरुषदेह सबल होने के कारण समाज में पुरुष का महत्त्व बढता गया है । और विश्व में बहुशः समाज पुरुषप्रधान आकारित होता रहा है । अतः मनुष्यमात्र के मन में पुत्रैषणा जडीभूत हो गई है । अतः ऐतरेयब्राह्मण में आयी हुई शुनःशेप की कथा है वह पुत्रैषणा-ग्रस्त जनमानस को अतीव सूचक रूप से मार्गदर्शक बन सकती है ।।

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यद्यपि शुनःशेप की कथा को अद्यावधि दूसरे ही परिप्रेक्ष्य में देखी जाती है । जैसे कि – वेदकाल में नरमेध याग होते थे या नहीं । शुनःशेपाख्यान में वरुणदेवता को कोई मनुष्य का बलि चढाने की बात आती है, इस लिये दुनिया भर के विद्वानों ने एक ही बात को चर्चा का बिन्दु बनाया है कि वैदिक यज्ञ-यागादि में पशुबलि के साथ साथ मनुष्यों का भी बलि चढाया जाता था कि नहीं । - परन्तु इस आख्यान में अन्ततोगत्वा कोई भी मनुष्य का बलि तो नहीं चढाया जाता है । इस के कारण पुनर्विचार की नितान्त आवश्यकता है ।।
---------------------------------------------------------------------------------- * महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेद-विद्या प्रतिष्ठान, उज्जयिनी द्वारा आयोजित “ विश्व-वैदिक सम्मेलन ” ( 13 – 17 January, 2007 ) में प्रस्तुत शोध-आलेख ।




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इस शुनःशेपाख्यान के प्रारम्भ में राजा हरिश्चन्द्रजी ने नारद को पूछ है कि – ज्ञानी एवं अज्ञानी दोनों प्रकार के लोग अपने औरस पुत्र की कामना करते है । तो मुझे यह बताओ कि पुत्र की कामना क्यों करनी चाहिये* ? इस जिज्ञासा का समाधान देते हुये नारदजी ने कहा कि पुत्र तो परम व्योम में भी ज्योति-स्वरूप होता है । दूसरी और, इस आख्यान के अन्त में कहा गया है कि किसी भी राजा के राज्याभिषेक के प्रसङ्ग में यह आख्यान का पाठ करना चाहिये, एवं जिसको भी पुत्र की कामना हो इन लोगों को भी इस आख्यान का श्रवण करना चाहिये** ।
शुनःशेप आख्यान के इस उपक्रम एवम् उपसंहार को ध्यान में रखते हुये यदि देखा जाय तो इस आख्यान में तीन पुत्रों एवम् तीन पिताओं की कथा प्रस्तुत हुई है । जैसा कि – प्रथम पिता की बात ऐसी हैः- इक्ष्वाकुवंश के राजा हरिश्चन्द्र को सो सो पत्नीयाँ होते हुये भी वे अपुत्र थे । ( इन सो पत्नीओं से उनको पुत्री प्राप्त हुई थी कि नहीं ? यदि हुई थी तो उनका क्या किया गया था ? इस विषय में आख्यानकार मौन है । ) परन्तु इन शत-सङ्ख्यक विवाहों के पीछे निश्चित रूप से, चालक परिबल के रूप में पुत्रैषणा ही रही होगी । नारद ने पुत्र के होने से जो जो लाभ मिलते है, उसको विस्तार से बताया है । उसको सुन कर हरिश्चन्द्र वरुणदेवता से किसी भी किंमत पर पुत्र की याचना करता है । पुत्र एक बार पैदा हो जाय और वह उसका मुखदर्शन करले तो वह कृतकृत्य हो जायेगा । और उसके बाद वह वरुण को पुत्र की बलि चढाने के लिये भी तैयार है । हरिश्चन्द्र को इस शर्त पर पुत्र मिल गया । यहाँ प्रस्तुत आख्यान की कथा से मालुम होता है कि मनुष्यमात्र में जो पुत्रैषणा है, वह आदमी को प्रथम अन्धश्रद्धा में डूबो देती है । देवताओं को बलिदान दे कर पुत्र प्राप्त किया जाता है – ऐसा मानना एक बडी भ्रान्ति है । दूसरे स्तर पर यहाँ देखा जाता है कि पुत्र-प्राप्ति के बाद पिता हरिश्चन्द्र मोहान्ध हो जाते है । और वरुण को बलिदान देने के वादा से बार बार पीछे हठ करते रहेते है । वरुणदेव जब भी बलि माँगने के लिये आते है तब वे एक के बाद एक बहाना दिखलाते हुये अपने पुत्र की बलि देने का टालते रहते हैं ।।
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* यं न्विमम् पुत्रमिच्छन्ति ये विजानन्ति, ये च न । किंस्वित्पुत्रेण विन्दते, तन्मे आचक्ष्व नारद ।। 1 ।। अन्नं ह प्राणः, शरणं ह वासो, रूपं हिरण्यं, पशवो विवाहाः । सखा ह जाया, कृपणं ह दुहिता, ज्योतिर्ह पुत्रः परमे व्योमन् ।। - ऐतरेयब्राह्मणम् 7-3 33 – 1 ।।
** तद् होता राज्ञे अभिषिक्तायाचष्टे ।....पुत्रकामा हाप्याख्यापयेरन् । लभन्ते ह पुत्रान् लभन्ते ह पुत्रान् ।। - ऐतरेयब्राह्मणम् – 7 – 3 – 33 – 6



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जो दूसरा पिता है वह सुयवस् का पुत्र अजीगर्त है । वह बेचारा भूख से पीडित है । उसके पास आश्रित के रूप में उनकी पत्नी और तीन पुत्र भी है । भूख के असाधारण एवम् अपरिहार्य सङ्कट में फंस कर भी वह अपने किसी भी पुत्र को बाझार में बेच दे वह उचित नहीं है । अतः वह कुटुम्ब के धुरिण होने के नाते स्वयं ही बीक जाय तो वही ठीक माना जायेगा । परन्तु “ सभी को अपनी ही आत्मा सब से अधिक प्रिय होती है ”- इस क्रूर सत्य को ध्यान में लिया जाय और फिर सोचा जाय तो शायद तीन में से एक पुत्र को बेच देने की बात कदाचित् सह्य बन सकेगी । इसी तरह से, माता-पिता की युगों पुरानी एक निर्बलता भी कुबुल की जाय की पिता को ज्येष्ठपुत्र ही प्रिय होता है और माता को कनिष्ठपुत्र ही अधिक प्रिय होता है । तो बेचारा ‘ तपस्वी ’ मध्यमपुत्र ऐसी विषम परिस्थिति में निश्चित ही बलि का बकरा बन जाता है । इस तरह, क्षुधार्त पिता अजीगर्त राजा हरिश्चन्द्र से सो गायों को ले कर, उसके बदले में (विनिमय से) एक पुत्र को बेच दे तो वह कदाचित् – हाँ कदाचित् ही – अनिच्छा से न्यायिक बताया जा सकता है । किन्तु वही पिता अपने पुत्र (शुनःशेप) को यज्ञीय पशु के रूप में, हरिश्चन्द्र की यज्ञशाला में बाँधने को तैयार हो जाय और ऐसे अधम कृत्य के लिये दूसरी सो गायें माँग ले तो वह लोभीवृत्ति का परिणाम ही कहा जायेगा ।
महीदास ऐतरेय ने (आख्यानकार ने) लोभ की पराकाष्ठा भी बतायी है । यूप के साथ पुत्र शुनःशेप को बाँधने के बाद पिता अजीगर्त अपने पापकर्म से विरत नहीं होता है । यज्ञ में शुनःशेप का बलि के रूप में जब तक कोई वध नहीं करेगा, तब तक यज्ञ पूरा नहीं होगा । गाँव में से कोई भी चाण्डाल आकर एक मनुष्य का वध करने को तैयार नहीं है । अतः शुनःशेप का पिता अजीगर्त लोभवशात् इस पापकर्म के लिये तैयार होता है । उसने तीसरी सो गायों को माँग कर ले ली । तथा निर्दयता-पूर्वक अपने ही पुत्र का वध करने के लिये नंगी तलवार लेकर उठ चलता है । - यह चित्र एक लालची पिता की निर्घृणता को उद्घाटित करता है । दर्शनशास्त्रों में जो षड् रिपु के रूप में गिनाये गये है – काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ और मत्सर – उनमें से उत्तरोत्तर रिपु का बलवत्तर होना माना गया है । अर्थात् पहेले कामादि चार रिपुओं से पाँचवा लोभ नामक रिपु अधिक बलवान् है । इस दृष्टि से देखा जाय तो दूसरे प्रकार के पिता ने लोभग्रस्त होकर, केवल पितृमर्यादा का ही भङ्ग नहीं किया है., परन्तु उसका अतिक्रमण करके पापमार्ग पर सुदूर तक निकल गया है ।
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तीसरे पिता के रूप में ऋषि विश्वामित्र है, जिनके एक-सो एक पुत्र थे । उनके होतृत्व में शुनःशेप का यज्ञ में बलि देना निश्चित हुआ था । उन्होंने अपने सम्मुख दयनीय दशा में बंधे हुए शुनःशेप को यज्ञीय-पशु के रूप में देखा है । उनकी दयनीय मनोयातना एवम् निःसहायता भी प्रतिपल देखी है । और विकट परिस्थिति में देवों की उपासना का मार्ग पकडनेवाला, स्वयं ही अपना उद्धारक बनकर मृत्यु-पाश में से छुटने का प्रयास करनेवाला धैर्यवान् शुनःशेप उन्हों ने बारीकी से देखा है । प्रजापति, अग्नि, सविता, वरुण, विश्वेदेवा, अश्विनौ, इन्द्र और उषा – सभी वैदिक देवताओं को शुनःशेप अपने मन्त्रबल से क्रमशः प्रत्यक्ष करता जाता है । उनसे बातचीत भी करता है । ऐसा सच्चा विद्यावान् ब्राह्मणपुत्र किस ऋषि को पसंद नहीं आयेगा ?
ऋषि विश्वामित्र ने ऐसे शुनःशेप को ही अपनी विरासत – ज्ञानराशि – को सम्भालनेवाला समझा., और मन ही मन शुनःशेप को अपने पुत्र के रूप में उसको स्वीकार लिया । विश्वामित्र एक पिता के रूप में गुणज्ञाता व्यक्ति थे । उन्हों ने अपने प्रथम पचास पुत्रों को बुलायें, और शुनःशेप को ज्येष्ठ-बन्धु के रूप में स्वीकारने को कहा । परन्तु उन पुत्रों ने पितृ-आज्ञा नहीं मानी । अतः विश्वामित्र ने उन पचासों को ‘ अपुत्र ’ जाहिर कर दिये । वे ऋषि-सम्पत्ति के दाय भाग से वञ्चित हो गये । इस के बाद, जो मधुच्छन्दा नामक इक्यानवाँ पुत्र था और उनके जो सभी अनुज थे, उन्हों ने शुनःशेप को अपना ज्येष्ठ भ्राता मान लिया । फिर विश्वामित्र ऋषि ने शुनःशेप को “ देवरात ” ( देवतायें जिसकी राति अर्थात् धन , सम्पत्ति है, वह ) नामसे उद्धोषित किया । पुत्रैषणा रखनेवाले मनुष्यों को चाहिये कि वे पेहेले विश्वामित्र जैसे गुणज्ञाता पिता बने । विश्वामित्र ने अपने शताधिक पुत्रों की अपेक्षा से श्रेष्ठ पुत्र के रूप में इस मन्त्रद्रष्टा शुनःशेप को ही पसन्द किया है और उसको अपने पुत्र के रूप में भी स्वीकार लिया है – यह बात बडी सूचक है । यदि ऐसा पुत्र मिला हो तो ही नारद ने जो कहा था कि – “ पुत्र परम व्योम में भी ज्योति होता है, ”- वह चरितार्थ हो सकता है, अन्यथा नहीं ।।
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इस आख्यान में राजा हरिश्चन्द्र, दरिद्र अजीगर्त एवं ऋषि विश्वामित्र जैसे तीन पिताओं की तुलना करनी आवश्यक बनती है, वैसे ही तीन प्रकार के पुत्रों की भी तुलना करने योग्य है । जैसा कि – पहेला है राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र रोहित । वह अपने पिता के प्रस्ताव का विरोध करता है और पितृ-आज्ञा को ठुकरा कर, प्राणों की रक्षा करने के लिये गृहत्याग करके वन में विचरण करने लगता है । इस के बाद पिता को जलोदर नामक रोग हुआ है – ऐसा सुन कर, पितृवात्सल्य से प्रेरित हो कर वह घर वापस आने का निर्णय करता है । परन्तु मार्ग में इन्द्रदेव मिल गये, (जो वरुण के दुश्मन थे, ) उसके कहने में आ जाता है और वह बार बार दूसरों के ( इन्द्र के ) कहने में आकर वन में वापस लौट जाता है ।
“ चरैवेति चरैवेति, चराति चरतो भग । ” इन शब्दों से इन्द्र ने जो उपदेश दिया था, इसका फल यह आता है कि हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहित को वन-विचरण के दौरान, तीन पुत्रों को साथ में लेकर अन्न की तलाश में घुम रहे एक दरिद्र पिता अजीगर्त मिल गया । रोहित ने राजपुत्र होने के कारण, राजलक्ष्मी के जोर पर, अर्थात् बाप-कमाई के जोर पर, दरिद्र व्यक्ति के एक दीन-हीन पुत्र (शुनःशेप) को खरीद कर अपने साथ में ले कर राजमहल में वापस आता है । राजकुमार रोहित ने मन में ऐसा सोच रखा है कि इस दरिद्र-ब्राह्मणपुत्र का बलि दे कर, वरुण के पाश से पिता को वह मुक्त करा लेगा और अपने आप को भी मौत से मुक्ति मिल जायेगी । - यहाँ पर इन्द्र के कहेने में आकर बार बार वन-विचरण करते रहेते रोहित का, पहेले एक अनिर्णायक मनोबलवाले पुत्र के रूप में परिचय मिलता है और बाद में, स्वार्थी तथा बाप-कमाई का आश्रयण लेनेवाले राजपुत्र के रूप में परिचय मिलता है । संसार में यह पेहेले प्रकार का पुत्र है ।।
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संसार में जो दूसरे प्रकार का पुत्र होता है, वह ऋषि विश्वामित्र के अग्रज 50 पुत्रों हैं । वे विश्वामित्र जैसे मन्त्रद्रष्टा पिता की भी आज्ञा मानते नहीं है । पिता की भावनाओं की अवहेलना करनेवाले इन पुत्रों ने पैतृक-विरासत खो दी और शापित भी हुये । परिणामतः वे समाज में दस्युओं जैसा जीवन जीने लगते है । इक्यानवाँ मधुच्छन्दा नामक पुत्र और उनके अनुज 50 भ्रातृ-समूह ने पिता की आज्ञा मान ली । विश्वामित्र की दृष्टि में विश्वास करनेवाले इन पुत्रों ने शुनःशेप को अपने ज्येष्ठ भ्राता के रूप में स्वीकार कर लिया ।।
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तीसरे प्रकार का जो पुत्र सदैव स्पृहणीय होता है, वह है शुनःशेप । पूरे आख्यान को पढ कर लगता है कि वह क्षुधा-पीडित व्यक्ति जरूर था, परन्तु नित्य विद्या-व्यासङ्ग करने वाला पुत्र था । क्योंकि वरुण के पाश से मुक्त होने के लिये जो मन्त्र ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल और पञ्चम मण्डल में आये हुये है इन सब को वह अच्छी तरह से जानता था । साथ में वह स्वयं भी, प्रथम मण्डल में संगृहीत अनेक मन्त्रों का द्रष्टा ऋषि भी है । अत एव वह ऋषि विश्वामित्र की दृष्टि में स्पृहणीय पुत्र बन जाता है । विश्वामित्र को अपने ही 101 औरसपुत्र थे । किन्तु उनको शुनःशेप जैसा मन्त्र-द्रष्टा पुत्र न होने का अफसोस था । अतः वह अपने औरसपुत्रों को बुला के शुनःशेप को ज्येष्ठ-बन्धु के रूप में स्वीकारने की आज्ञा देता है । उनकी दृष्टि में शुनःशेप जैसा पुत्र ही संग्राह्य एवं स्पृहणीय है ।
विश्वामित्र ने पूरी यज्ञक्रिया के दौरान देखा है कि शुनःशेप सही अर्थ में देवरात है । अग्नि, वरुण, इन्द्र, अश्विनौ, विश्वेदेवा एवं उषा इत्यादि देवतायें ही उनकी सम्पत्ति – राति – थे, और उसी के बल उपर उसने अपनी मुक्ति हाँसील की है ।
यहाँ पर, शुनःशेप विद्या-व्यासङ्गी होने के कारण अमुक मन्त्र जानता है या नये मन्त्र देख ( रच ) सकता है – इतना ही कहना पर्याप्त नहीं है । उसने तो अपने पिता का पाप भी उनके मुँह पर कह दिया है । अर्थात् शुनःशेप सत्य का अपरोक्ष दर्शन भी कर सकता है और पिता के सम्मुख खडा रहे कर वह बता भी सकता है । वही उसकी महानता है । ऐसे सत्य को बोलने वाले को ही वरुण पाश से मुक्त करता है, दूसरे को नहीं । क्योंकि वरुण तो नीतिमत्ता का एवं ऋत का पालक देव कहा गया है । अतः वह सत्यनीति के द्रष्टा शुनःशेप को बन्धन से मुक्त कर देता है । ऐसा सत्यवक्ता पुत्र ही पिताओं के लिये परम व्योम में ज्योति स्वरूप बन सकता है । और ऐसे पुत्र की ही कामना रखनी चाहिये । अर्थात् पुत्रैषणा भी विवेकदृष्टि से नियन्त्रित होनी चाहिये ।

इस तरह से शुनःशेपाख्यान का नया अर्थघटन प्रस्तुत करने के बाद, इस आख्यान का उपसंहार भी तुरंत समझ में आ जायेगा कि - 1. किसी भी राजा के अभिषेक-प्रसङ्ग में इस आख्यान का पाठ करवाने की सूचना क्यूँ दी गई है । केवल जन्म से हम किसी के वारिस नहीं बन सकते है, या किसी का आधिपत्य नहीं मिल सकता है । 2. तथैव, पुत्र की इच्छा रखनेवालों को भी इस आख्यान का पाठश्रवण करना चाहिये – ऐसा जो उपसंहार में कहा गया है वह भी पूर्वोक्त तीन तरह के पुत्रों को ठीक से समझ लेने के लिए ही है ।।

यहाँ आनुषंगिक रूप से यह बताना भी जरूरी है कि इस आख्यान के उपक्रमोपसंहार को देखते हुए - “ वेदकाल में नरबलि दिया जाता था कि नहीं ? ”
जैसी चर्चायें सारे संसार में आजदिन तक होती रही है, परन्तु वह चर्चा भ्रान्तदिशा में चल रही है – ऐसा प्रतीति होता है ।

अब प्रस्तुत अभिनव दृष्टि से देखा जाय तो पुत्रैषणा से पीडित इस संसार को शुनःशेप का सन्देश यही है कि स्त्रीभ्रूण-हत्या से विरत होने का अवसर आ गया है । कोई भी पुत्री मातपिता को नरक में नहीं ले जाती है, और सब के सब पुत्र परम व्योम में ज्योति नहीं बन सकते है ।।
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सन्दर्भ – ग्रन्थ
1.ऐतरेय-ब्राह्मणम् – सायण-भाष्यसमेतम् ( प्राच्य भारती ग्रन्थमाला - 14 ), सं. डो. सुधाकर मालवीय, प्रकाशक – तारा बुक एजन्सी । वाराणसी, 1996.

2. ऐतरेय-ब्राह्मण का एक अध्ययन, ले. डो.नाथुलाल पाठक,पीएच.डी. शोधप्रबन्ध, राजस्थान विश्वविद्यालय,जयपुर, प्रका. रोशनलाल जैन एण्ड सन्स,जयपुर,1966.

गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

सिद्धहेम-व्याकरण में वाक्य-विन्यास-पद्धति का विश्लेषण

हेमचन्द्राचार्य-निर्दिष्ट वाक्यविन्यास पद्धति का विश्लेषण
वसन्तकुमार म. भट्ट
निदेशक, भाषासाहित्यभवन
गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद- 380009

भूमिकाः- आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने ज्ञान की प्रत्येक शाखा में बडे या छोटे ग्रन्थ लिखे हैं। उन्होंने जो भी व्याकरण, प्रमाण, काव्यशास्त्र, कोश, पुराणादि विषयक अनेकानेक ग्रन्थ लिखें है, उनमें से व्याकरण विषयक “सिद्धहेमशब्दानुशासन” ग्रन्थ सबसे अधिक ध्यानाकर्षक है।
यह शब्दानुशासन के पांच अङ्ग है। जैसे कि 1.सूत्रपाठ, 2.धातुपाठ, 3.गणपाठ., 4.उणादिसूत्रपाठ और 5.लिङ्गानुशासन। इस पञ्चाङ्गी संस्कृत व्याकरण में जो अष्टम अध्याय है, उनमें विवध प्रकार की प्राकृत भाषाओं का भी व्याकरण दिया गया है। और इन संस्कृत-प्राकृत व्याकरण के सूत्रों से जो जो शब्द निष्पन्न होते है, उसको उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करने के लिए आचार्य हेमचन्द्रजी ने ‘द्व्याश्रय-महाकाव्य’ एवं ‘कुमारपालचरितम्’ जैसे दो शास्त्रेतिहास-काव्य भी लिखें हैं। अतः आचार्य हेमचन्द्र सूरि का व्याकरणशास्त्र में जो अवदान है, उसकी मूल्यवत्ता गवेषणीय है।।
यद्यपि पूरे ‍’सिद्धशब्दानुशासन’ का परीक्षण करना यहाँ अभीष्ट नहीं है, फिर भी इस व्याकरण की हार्द रूप जो वाक्यविन्यास पद्धति है, उसकी समीक्षा तो अवश्य करनी चाहिए। जिसके फलस्वरूप यह बात उजागर हो पायेगी कि पाणिनीय व्याकरण की तुलना में यह ‘सिद्धहेमशब्दानुशासन’ का क्या वैशिष्ट्य है।।
पाणिनीय व्याकरण में वाक्य एवं वाक्यांश का निष्पादन करने के लिए ‘अष्टाध्यायी’ सूत्रपाठ में कुल दो स्थानों पर दो सूत्रसमूह रखें गये हैं। जैसा कि- (1) “कारकपाद” (1-4-23 से 54), और (2) “विभक्तिपाद” (2-3-1 से 77)। प्रथम ‘कारकपाद’ में क्रिया-निर्वर्तक विभिन्न कारकों का निरूपण किया गया है। भाषा में ‘वाक्य’ रूप इकाई ही, सही एवं कामयाब इकाई है। और इस ‘वाक्य’ का संघटन क्रियापद के बिना तो सम्भव ही नहीं है। दूसरे शब्द में कहे तो, किसी भी पदसमुदाय में यदि कोई क्रियापद नहीं है, तो वह पदसमुदाय ‘वाक्य’ नहीं कहा जाता है। अतः किसी भी वाक्य में “इदं प्रथमतया” क्रियापद का प्रवेश सबसे पहले ही होता है, परन्तु साथ में ही उस क्रिया, जो कि हंमेशा साध्यकोटि में होने के कारण, उसके साधनों, अर्थात् क्रियानिर्वर्तकों- ‘कारकों’ का भी निरूपण आवश्क बन जाता है। अतः पाणिनि ने ‘अष्टाध्यायी’ के प्रथम अध्याय में ही ‘कारकपाद’ (1-4-23 से 54) में विभिन्न कारकसंज्ञाओं का निरूपण किया है। और उसके बाद, द्वितीय अध्याय के तृतीयपादमें ‘विभक्तिपाद’ (2-3-1 से 77) रखा है। ये दोनों प्रकार के पाद परस्पर में मिल कर ‘वाक्य’ कि सिद्धि दिखलाते है।
‘अष्टाध्यायी’ के ‘विभक्तिपाद’ (2-3-1 से 77) में जो सूत्र रखें हैं, वे अलग-अलग प्रकार की विभक्तिओं का विधान चार तरह से करते है, वह नीम्नोक्त रीति से हैः-
1. अभिहित कारक के लिए प्रथमा-विभक्ति का विधान,
2. अनभिहित कारकों के लिए द्वितीयादि विभक्तिओं का विधान,
3. अकारक- विभक्ति के रूप में-
(क) षष्ठी-विभक्ति का विधान, और
(ख) विशिष्टार्थों की अभिव्यक्ति के लिए (बिना कारक-संज्ञा के व्यवधान से) द्वितीयादि-विभक्तिओं का विधान
4. वाक्यांश के रूप में-
(क) उपपदविभक्तिओं का विधान, तथा
(ख) कर्मप्रवचनीय विभक्तिओं का विधान।।
यहाँ पर, पाणिनि-प्रोक्त वाक्यविन्यास की पद्धति में जो ध्यातव्य बिन्दुयें है वह इस तरह के है-
(1) पाणिनि ने लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः।....... सूत्र से सकर्मक धातुओं से क्रियापद की निष्पत्ति करते समय ‘कर्तृकारक’ को, या ‘कर्मकारक’ को “अभिहित” करने की विवक्षा को स्थान दिया है। और अभिहित कर्तृ / कर्म को प्रथमादि का विधान किया है (2-3-46)।।
(2) धातुमात्र से लगने वाले विभिन्न लकारों से जो कारक “अनभिहित” रहते है,
उसके लिए अनभिहिते। (2-3-1 से 45) अधिकारान्तर्गत आये हुए सूत्र से द्वितीयादि-विभक्तिओं का विधान किया है।
(3) अकारक-विभक्ति के रूप में जो (क) षष्ठी विभक्ति को (2-3-50) विधान किया
गया है, वह सम्बन्ध-रूप ‘शेष’ अर्थ को व्यक्त करने के लिए षष्ठी –विभक्ति कही गई है। तथा (ख) कतिपय विशिष्टार्थों को व्यक्त करने के लियें, पाणिनि ने (बिना कारकसंज्ञा को माध्यम बनायें ) सीधा ही विभक्तिविधान किया है । [ उदाहरण रूप से – कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे (द्वितीया) । 2-3-5, एवं अपवर्गे तृतीया । 2-3-6 इत्यादि।]
(4) वाक्य के क्रियापद से जिसका प्रत्यक्ष कोई सम्बन्ध न हो ऐसे पदसमूह, जो
कि एक ‘वाक्यांश’ के रूप में प्रधान वाक्य के बीच में प्रविष्ट होते है, उसको जन्म देनेवाली (क) उपपद-विभक्तिओं का विधान, तथा (ख) कर्मप्रवचनीय प्रकार के पाँचवे पद के योग में जन्म लेनेवाली द्वितीयादि विभक्तिओं का विधान किया है ।
इन चार तरह से विभक्ति-विधान करके पाणिनि ने पूरी वाक्यविन्यास कि पद्धति
हमारे सामने रखी है। परन्तु यहाँ आलोचनीय एक बात ध्यातव्य है कि इन चारों तरह से जो विभक्ति-विधान किया गया है, वह सब अनभिहिते । 2-3-1 के “अधिकार” के नीचे रखा गया है। यह एक अत्यन्त गम्भीर चिन्त्य स्थिति है । क्योंकि—
जो अधिकारसूत्र होता है, उसकी अनुवृत्ति तो अनवरत गति से अपने अनुगामी
सभी सूत्रोंमें होती है ऐसा पूरी ‘अष्टाध्यायी’ में माना गया है । परन्तु यहाँ पर तो – ‘अनभिहिते’(2-3-1) के नीचे जो कर्मणि द्वितीया । (2-3-2) सूत्र आया है, वह सुसंगत है, लेकिन-
(1) ‘अन्तराડन्तरेण युक्ते’ (2-3-4) जैसा उपपदविभक्ति का विधान करनेवाला सूत्र सुसंगत नहीं है। क्यों कि पूर्वसूत्र (2-3-3) से तृतीयादि पदों कि अनुवृत्ति आ जाने से 2-3-4 सूत्र लाघवपूर्ण बनता है, परन्तु 2-3-4 में ‘अनभिहिते’(2-3-1) पद की अधिकार-प्राप्त अनुवृत्ति नितान्त अप्रस्तुत है । अप्रासङ्गिक ही है। यही स्थिति नमः स्वस्तिस्वाहास्वधालंवषट् योगाच्च । (2-3-16), या सहप्रयुक्तेડप्रधाने । (2-3-19) इत्यादि उपपदविभक्ति विधायक सूत्रों में भी देखी जाती है ।
(2) उसी तरह से, कालाध्वनोरत्यन्त संयोगे । (2-3-5) तथा अपवर्गे तृतीया । (2-3-6) जैसे सूत्रों से विशिष्टार्थों में (बिना कारक-संज्ञा के व्यवधान से) जो सीधा विभक्ति-विधान बताया गया है, उन सूत्रों में भी,‘अनभिहिते’(2-3-1) का जो अधिकार आ रहा है वह सर्वथा अप्रस्तुत ही बन जाता है ।

(3) एवमेव, कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया । (2-3-8) जैसे सूत्र से अमुक अमुक
कर्मप्रवचनीय- संज्ञक शब्दों के योग में जो (रुढिगत) विभक्ति-विधान होता है, वहाँ पर भी ‘अनभिहिते’। (2-3-1) सूत्र का अधिकार एकदम अनावश्यक सिद्ध होता है ।

पाणिनि के अनभिहिते। (2-3-1) सूत्र से, एक हाथ पर वक्ता की विवक्षा को स्थान
दिया गया है। जिसके कारण वह चाहे तो “कर्तृवाच्य” वाक्यरचना बना सकता है, या चाहे तो “कर्मवाच्य” वाक्यरचना बना सकता है। तो दूसरे हाथ पर जो पूर्वोक्त चतुर्विध विभक्ति-विधान है, उन में निःशेष रूप से ‘अनभिहिते’ का अधिकार सुसंगत नहीं बैठता है ।
पाणिनि की इस अनभिहिते । 2-3-1 सूत्रोक्त अधिकारान्तर्गत दी गई युक्तायुक्त
व्यवस्था की तुलना में, आचार्य हेमचन्द्र सूरिने अपने ‘सिद्धहेम-शब्दानुशासन’ में विभक्ति-विधान की क्या व्यवस्था प्रस्तुत की है, वह समीक्षणीय है ।।
आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने भी, पाणिनि की तरह, कारक-संज्ञाओं का विधान करने
के लिए शूरु में एक सूत्रसमूह द्वितीयाध्याय के आरम्भ में दिया है। जैसा कि—
[1] क्रियाहेतुः कारकम् । 2-2-1।
स्वतन्त्रः कर्ता । 2-2-2
कर्तुर्व्याप्यं कर्म । 2-2-3....... से ले कर
क्रियाश्रयास्यास्याधारोડधिकरणम् ।। 2-2-30 पर्यन्त
इन तीस सूत्रों के बाद,
[2] विभक्ति-विधान करनेवाले सूत्रों का समूह रखा गया है। जिस में स्पष्ट रूप से तीन विभाग दिखाई देते है-
(क) नाम्नः प्रथमैक-द्वि-बहौ । 2-2-3 सूत्र से “कर्मादि कारकों से परिशिष्ट अर्थमात्र में प्रथमा-विभक्ति होती है”—ऐसा कहा गया है । तत्पश्चात्-
(ख) गौणात् समया-निकषा-हा-धिगन्तराડन्तरेणाति-येन-तेनैर्द्वितीया । 2-2-33 सूत्र से आरम्भ करके, 2-2-119 सूत्र तक के सूत्रों से गौण नामों से परे द्वितीयादि विभक्तिओं का विधान किया गया है ।
(ग) अन्त में, 2-2-120 से 124 तक के सूत्रों से जिन जिन निपातों के योग में एकाधिक विभक्तियाँ प्रसूत होती है, एवं जातिवाचक शब्दोंसे जहाँ एकवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग होता है – उसका विधान किया गया है ।

विभक्तिविधान करनेवालें सूत्रों का उपर्युक्त त्रैविध्य देख कर, प्रथम दृष्टि में ही मालुम हो जाता है कि आचार्य हेमचन्द्र सूरि ने पाणिनि से हट कर, अलग ही रास्ता अपनाया है । यहाँ पर, पाणिनि की तरह, (1) अभिहित-अनभिहित(कारक) का विभागीकरण नहीं है । (2) अकारक-विभक्ति के रूप में (क) षष्ठी विभक्ति का विधान नहीं है। तथा (ख) विशिष्टार्थों को भी सीधा विभक्ति-विधान नहीं है । (3) तथा वाक्यांश के रूप में एक अलग पदसमूह को जन्म देनेवाली (क) उपपदविभक्ति या तो (ख) कर्मप्रवचनीय-विभक्तियोँ का भी स्वतन्त्र निरूपण नहीं है ।।
अलबत्त, यहाँ जो “गौणात्.......2-2-33” से शूरु होनेवाला विभक्तिविधान है, वह अत्यन्त ध्यानास्पद है। क्योंकि पूर्वोक्त (क),(ख) एवं (ग)- इन सूत्रसमूहों में से, यही (ख) गौणात्.......(2-2-33 से 2-2-119) वाला सूत्रसमूह सब से बडा है। और आरम्भ में रखा गया ‘गौणात्’ शब्द अनुवृत्त होता हुआ 2-2-119 तक जाता है। पाणिनि ने जो अनभिहिते। 2-3-1 सूत्र से अभिहित(कारक) एवं अनभिहित (कारक) का विभागीकरण किया है, उसी सूत्र के विकल्प में आचार्य हेमचन्द्र ने यहाँ “गौणात्” पद रखा है । अतः हमारे लिए यह ‘अनभिहित’ पद, तथा तज्जन्य व्यवस्था, एवं ‘गौणात्’ पद, तथा तज्जन्य व्यवस्था जो प्राप्त होती है, वह तुलनीय बनती है ।

आचार्य हेमचन्द्र सूरी ने ‘गौणात्’ पद में मूलभूत रूप से जो ‘गौण’ शब्द है, उसकी व्याख्या करते हुए ‘स्वोपज्ञ-बृहद्वृत्ति’ में लिखा है कि—
आख्यातपदेन असमानाधिकरणं गौणम् । अर्थात्—वाक्यावस्था में, जिस नाम का क्रियापद के साथ समानाधिकरण्य नहीं होता है, उस नाम को “गौण” कहते है। ऐसे गौण नाम से परे द्वितीयादि सप्तम्यन्त (सारी) विभक्तियाँ प्रवृत्त होती है। आचार्य हेमचन्द्रजी ने इस ‘गौणात्’ पद के अधिकार से पूर्व में “ नाम्नः प्रथमैक-द्वि-बहौ । ” (2-2-31) सूत्र से प्रथमा विभक्ति का विधान कर दिया है। परन्तु यहाँ पर यह बात नहीं लिखी है कि प्रथमान्त पद का वाक्य में क्या स्थान होता है ? इस बात की जानकारी तो हमे -‘शेषे’। (2-2-81) सूत्र पर मिलती है – प्राधान्यं च अस्य आख्यातपदसामानाधिकरण्यम् । तेन ततः प्रथमैव भवति ।। अर्थात् जिस नाम का सामानाधिकरण्य क्रियापद के साथ रहता है, वह “प्रधान” गिना जाता है, और ऐसे ‘प्रधान-नाम’ को प्रथमा विभक्ति में रखा जाता है ।
इस का सार यह निकला की, हेमचन्द्र सूरिके मत में वाक्यान्तर्गत पदावली तीन तरह की होती है। जैसा कि 1. प्रधान नाम (प्रथमान्त-पद); , 2. गौण नाम (द्वितीयादि सप्तम्यन्त विभक्त्यन्त पदों) और 3. आख्यातपद (क्रियापद) ।। अर्थात् आचार्य हेमचन्द्र ने “कारक-विभक्ति” के विरोध में - 1. दो तरह की अकारक विभक्तियाँ (षष्ठी एवं विशिष्टार्थों में प्रयुक्त) द्वितीयादि ); 2. उपपद-विभक्तियाँ, तथा 3. कर्मप्रवचनीयविभक्तियाँ को अलगसा पृथक्करण ही नहीं किया है। इन सब को ‘गौणात्’ के एक ही अधिकार में रख दिये है ।
जिसके फल-स्वरूप वाक्यान्तर्गत नामपदों का ‘प्रधान नाम’ और ‘गौण नाम’ के रूप में दो तरह का ही विभाजन हो जाता है, और जो यथार्थ भी लगता है। क्योंकि वाक्यान्तर्गत इन दो तरह के नामपदों में से, जिसका सामानाधिकरण्य क्रियापद के साथ रहता है, वह प्रथमा-विभक्यन्त बनता है, और अन्य जो नामों का सामानाधिकरण्य क्रियापद के साथ नहीं रहता है, वे सभी द्वितीयादि-विभक्तिओं को धारण करते है ।
दूसरी एक फलदायी बात यह भी सिद्ध हो जाती है कि—पाणिनि के ‘अनभिहिते’ (2-3-1) सूत्रोक्त अधिकार, जो यथार्थ रूप में अनुगामी सभी सूत्रों में चरितार्थ नहीं हो पाता है, यह कठिनाई / या असङ्गति का सामना हेमचन्द्राचार्य को नहीं करना पडता है।
एक तीसरे फायदे की बात भी यहाँ दृष्टिगोचर होती है । जैसा कि – षष्ठ्यन्त पद नित्य साकाङ्क्षपद होता है । क्योंकि षष्ठी विभक्ति जो ‘सम्बन्ध’ रूप अर्थ का अभिधान करती है, वह सम्बन्ध तो हंमेशा के लिए द्विष्ठ होता है। अर्थात् - सम्बन्धमात्र दो सम्बन्धी पदार्थों में ही रहता है। अतः प्रश्न उठता है कि यदि सम्बन्धमात्र द्विष्ठ होता है, तो सम्बन्ध के प्रतियोगि पदार्थ को ही क्यूँ षष्ठीविभक्ति लगती है, और अनुयोगी पदार्थ को क्यूँ नहीं लगती है ? “राज्ञः पुरुषः” जैसे प्रयोगों में “राज्ञः पुरुषस्य” – ऐसा क्यूँ नहीं होता है ? इस तर्कनिष्ठ प्रश्न का उत्तर पाणिनीय व्याकरण में “रूढि के कारण ऐसा होता है।” या “ संस्कृत भाषा की यह यादृच्छिक-लीला है ” – ऐसा दिया जा सकता है । परन्तु हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में षष्ठी विभक्ति का विधान भी “गौणात्” के अन्तर्गत ही है, इस लिए ‘स्वोपज्ञ-बृहद्वृत्ति’ में लिखा है कि – गौणादित्येव – राज्ञः पुरुषः, अत्र सम्बन्धस्य द्विष्ठत्वेડपि प्रधानात् पुरुषान्न भवति ।।
प्राधान्यं च अस्य आख्यातपदसामानाधिकरण्यम्, तेन ततः प्रथमैव भवति, यदा पुरुषो राजानं प्रति गुणत्वं प्रतिपद्यते तदा “ पुरुषस्य राजेति ” भवत्येव ।। ( पृ.-274 ) अर्थात्-
राज्ञः पुरुषः ।। जैसे प्रयोगों में स्व-स्वामिभाव सम्बन्ध यद्यपि द्विष्ठ होता है (राजा में भी वह सम्बन्ध रहता है, और पुरुष में भी); तथापि ‘पुरुष’ ऐसे नाम में प्राधान्य आ जाता है; और वह प्रथमा विभक्ति ही धारण करता है। संक्षेप में कहे तो – पाणिनीय व्याकरण में ‘राज्ञः पुरुषस्य’ – ऐसा उभयत्र षष्ठ्यन्त प्रयोग क्यों नहीं होता है ? – इस प्रश्न का उत्तर नहीं है; परन्तु हेमचन्द्राचार्य के व्याकरण में इसका तर्कनिष्ठ उत्तर है ।। सूक्ष्म-सूक्ष्मतर शास्त्रीय चर्चाओं के प्रसङ्ग में ऐसी छोटी सी दिखनेवाली बात भी मेरु पर्वत जैसी गुरुतम बन जाती है । सिद्धहेमशब्दानुशासन कि यह एक अनुल्लिखित उपलब्धि है।।

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