बुधवार, 17 जून 2009

भारत में कोश-विज्ञान की कब भोर भई ?

भारत में कोशविज्ञान की कब भोर भई ?
वसन्तकुमार म. भट्ट
अध्यक्ष, संस्कृतविभाग
गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदाबाद-9
bhattvasant@yahoo.co.in

भूमिका - यह बात सर्वविदित एवं सर्वस्वीकृत है कि भारत में कोशविज्ञान का आरम्भ ‘निघण्टु’ नामक वैदिक शब्दकोश से हुआ है । यास्क ने ई.पूर्व 600 में, इस शब्दकोश के शब्दों का निर्वचन देने के लिए जो भाष्य लिखा है, उसका नाम “निरूक्तम्” है । इस शब्दकोश का स्वरूप देखा जाय तो उसमें 1.पर्यायवाची शब्दों का बना प्रथम काण्ड है, 2. अनेकार्थक शब्दों का दूसरा काण्ड है और 3.तीसरे काण्ड में देवता-सम्बन्धी शब्दों का संग्रह है । इस ‘निघण्टु’ शब्दकोश को आदर्श बनाके और इससे ही प्रेरणा प्राप्त करके कालान्तर में ‘अमरकोश’ की रचना हुई ।
परन्तु, इस प्रचलित मत में थोडी नूकताचीनी करनी आवश्यक दिखाई दे रही है । यह जो ‘निघण्टु’ नामक बैदिकशब्दकोश है, उसमें उपर्युक्त त्रिविध काण्ड की जो वर्गीकृत व्यवस्था है वह तो कोशविज्ञान की प्रायः पूर्ण विकसित स्थिति की परिचायक है । लेकिन भारत में कोशविज्ञान की भोर कब भई होगी ? यह प्रश्न तो पुनरीक्षणीय है ही ।
(2)
पाणिनि के “अष्टाध्यायी” व्याकरण में यद्यपि ‘वाक्य’ की निष्पत्ति कैसे होती है- इसका निरूपण किया गया है । जिसमें वाक्य की दो प्रमुख ईकाइ मानी गई है -1.सुबन्तपद (नामपद) और 2.तिङन्तपद (क्रियापद) । परन्तु पाणिनि ने अपनें सूत्रों को स्वल्पाक्षर बनाने के लिए जो धातुपाठ, गणपाठ बनाये है, वह एक दृष्टि से विभिन्न प्रकार के शब्द-यूथ बनाने का ही कार्य था । इन शब्द जूटों में, यद्यपि गणपाठ में ‘अर्थप्रदर्शन’ की बात नहीं थी । फिर भी तरह तरह के शब्दयूथ बनाना ही कोशविज्ञान की शूरूआत कही जा सकती है । गणपाठ के अलावा पाणिनि-निर्दिष्ट ‘निपातनसूत्रों’ में उल्लिखित शब्दों भी एक तरह का शब्दजूट बनाना ही था ।।
(3)
पाणिनि के पूर्वकाल में भी भाषा-विषयक विचारणा करनेवाले अनेक वैयाकरणादि हुये थे । जिनमें से ऋग्वेद के पदपाठकार शाकल्य का नाम समयावधि की दृष्टि से अग्रगण्य है । शाकल्य ने वेदमन्त्रों की संहिता को तोडकर पदपाठ बनाया । इस पदपाठ का एक केन्द्रवर्ती नियम यह था कि सबसे छोटा जो भी अर्थवाहक शब्दांश हो उसको विश्लेषित करके दिखाया जाय । प्राचीन भारत में, वाक्य में जो भी सबसे छोटा अर्थवाहक अंश होता है, वह “ पद ” कहलाता है ( अर्थः पदम् । ) – ऐसा माननेवाला भी एक पक्ष था । जो ऋग्वेद का पदपाठ बनाने की आधारशिला थी । कोशविज्ञान में सब से पहले जो प्रविष्टि (Word- entry) बनाने का कार्य होता है, उस में भी सबसे छोटी अर्थवाहक ध्वनिश्रेणी को ही स्थान दिया जाता है, उसका आरम्भ ऋग्वेद के पदपाठ में देखा जा सकता है ।।
(4)
दूसरी ओर वैयाकरणों में अतीव ध्यानास्पद एवं चर्चास्पद नाम था शाकटायन का । यास्क ने कहा है कि- “नामानि आख्यातजानि इति शाकटायनः”। (निरुक्तम् अ.1) इन का मत था कि भाषा में जो भी (संज्ञावाचक) नाम का प्रयोग होता है, वे सभी कोई एक (या एकाधिक) क्रियावाचक धातु से निष्पन्न हुए है। यथा- अश्नोति अध्वानम् इति अश्वः। “जो मार्ग को (तीव्र गति से) नाप लेता है, वह अश्व” कहलाता है । अतः शाकटायन भाषा में प्रयुक्त होनेवाले नामों के प्रसिद्ध अर्थात् परम्परागत अर्थों की संगति किसी न किसी धातु से (धातु के अर्थ एवं ध्वनिसादृश्य से) बिठाने का कार्य करनेवाले निर्वचनकार थे । इस शाकटायन को अपने गुरुपद पर स्थापित करके यास्क ने ‘निघण्टु’ में संगृहीत शब्दों पर व्याख्या लिखी है । शाकटायन एवं यास्क की यह प्रवृत्ति कोशविज्ञान से सुसम्बद्ध ऐसी अर्थविज्ञान की विचारधारा को पुष्पितपल्लवित करने की प्रवृत्ति थी । दूसरे शब्दों में कहे तो यह प्रवृत्ति कोशविज्ञान के साथ आनुषंगिक रूप से सम्बद्ध थी ।

(5)
परन्तु स्पष्टरूप से कोशविज्ञान का ही ईषत्-ईषत् चमत्कार जहाँ दिखाई दे रहा है- वह है “उणादि (पञ्चपादी)”सूत्रपाठ । पाणिनि ने अष्टाध्यायी में उणादयो बहुलम् । 3-3-1 सूत्र से उणादिसूत्रपाठ की ओर केवल अंगुलिनिर्देश ही किया है । उन्होंने स्वयं कोई उणादिसूत्र बनाये थे या नहीं –यह आज अज्ञेय है । परन्तु वे जब पूर्वोक्त 3-3-1 सूत्र को दे रहे है तो यह बात निश्चित है कि उणादिसूत्रों का अस्तित्व पाणिनि से भी पूर्व में था । यहाँ पर, अर्थात् उणादि(पञ्चपादी) सूत्रपाठ में प्राधान्येन ऐसे सूत्र प्रस्तुत हुए है कि अमुक अमुक शब्दों का अन्तिम प्रत्ययांश एक समान है । तद्यथा -
(1) कृ-वा-पा-जि-मि-स्वदि-साध्यशू-भ्य उण् । (1-1) इस सूत्र से ‘कृ’, ‘वा’ इत्यादि धातुओं से ‘उ’(ण्) प्रत्यय जूडने से कारु, वायु, पायु, जायु, मायु, स्वादु, साधु, आशु जैसे “उकारान्त शब्द” सिद्ध हुए है ।
(2) सि-तनि-गमि-मसि-सच्यविधाञ्क्रुशिभ्यस्तुन् । (1-69) सूत्र से कहा गया है कि - सि, तनि इत्यादि धातुओं से ‘तु’(न्) प्रत्यय लगने से सेतु-तन्तु-गन्तु-मस्तु-सक्तु-ओतु-धातु इत्यादि ‘तु’ प्रत्ययान्त शब्द बनते / बने है ।।
(3) कृ-गृ-शृ-वृञ्चतिभ्यः ष्वरच् । (2-279) सूत्र से कृ-गृ इत्यादि धातुओं से ष्वरच् प्रत्यय लगता है । जिससे- कर्बरः, गर्वरः, शर्वरी, बर्बरः शब्द बने है ।।
(4) छित्वर-छत्वर-धीवर-पीवर-मीवर-चीवर-तीवर-नीवर-गह्वर-कट्वर-संयद्वराः । (3-281) सूत्र से छित्वर, धीवर इत्यादि शब्द भी ‘ष्वरच्’(वर) प्रत्यय लगने से सिद्ध होते है (हुए है) ।।
(5) खष्प-शिल्प-शष्प-बाष्प-रूप-पर्प-तल्पाः । (3-308) सूत्र से ‘प’ प्रत्यय का विधान किया गया है, जिसके फलस्वरूप शिल्प-बाष्प इत्यादि जैसे ‘प’ प्रत्ययान्त शब्दों की संघटना हुई है।
(6) कृ-शृ-पृ-कटि-पटि-शौटिभ्य ईरन् । (4-470) सूत्र से ‘ईरन्’ प्रत्यय का विधान होता है और करीर, शरीर, परीर, कटीर, पटीर, शौटीर जैसे शब्द तैयार होते है । ये सभी शब्द ‘ईर’ प्रत्ययान्त है- ऐसा दिखाई दे रहा है।
(7) इसी तरह से- प्रथेरमच् । (5-746) सूत्र से ‘प्रथ्’ धातु से ‘अमच्’ प्रत्यय लगता है, और ‘प्रथम’ शब्द बनता है। चरेश्च । (5-747) सूत्र से भी ‘चर्’ धातु से ‘अमच्’ प्रत्य लगता है, और ‘चरम’ शब्द सिद्ध होता है । तथा मङ्गेरलच् । (5-747) सूत्र से ‘मङ्ग’ धातु से ‘अलच्’ प्रत्यय जूड कर ‘मङ्गल’ शब्द की सिद्धि हुई है – ऐसा दिखाई दे रहा है।
इन उदाहरण रूप उणादिसूत्रों को देख कर एक बात स्पष्ट होती है कि अज्ञात उणादि-सूत्रकार ने यहाँ पर न धात्वर्थ की और ध्यान दिया है, और न तो प्रत्ययार्थ क्या है – यह बताया है । उसका मतलब तो यही होगा की उनकी दृष्टि शब्दों की प्रत्ययान्त-स्थिति कहाँ कहाँ पर एक समान है यह देख कर ऐसे समानाकृतिवाले शब्दों का एकत्रीकरण किया जाय ।। यही तो है ‘इदं प्रथमतया’ कोशकार्य का आरम्भ ।
पाणिनि ने भाषा की बृहत्तम ईकाइ को (वाक्य को) लेकर उसकी संयोजना बताई थी । और उसके पूर्वकाल में पदपाठकार शाकल्य थे, जिन्हों ने वेदमन्त्रों को लेकर सब से छोटे सार्थक शब्दांश का विश्लेषण प्रस्तुत किया । इन दोनों के बीच (शाकल्य एवं पाणिनि के बीच) उणादिसूत्रों के अज्ञात रचयिता ने, शब्द के अन्तिम प्रत्ययांश को अपनी चयन प्रक्रिया का नियामक तत्त्व बनाके, विविध शब्दों के यूथ बनाने का सब से पहेले आरम्भ किया था ।
कोश-प्रणयन में अर्थानुसारी शब्दचयन या पृथिवीलोक-स्वर्गलोकादि सम्बन्धी शब्दों का चयन करना- यह सब बहुत परवर्तीकाल की विकसित स्थिति है । परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो भारत में ‘निघण्टु’ जैसे “एकार्थक अनेक शब्दों ” एवं “अनेकार्थक एक-एक शब्दों” का संग्रह(कोश) बनाने की प्रवृत्ति से भी पूर्वकाल में उणादि सूत्रकारने ही शब्दों के बाह्यशिल्प को अर्थात् शब्दों की अन्तिम ध्वनि सामान्य रूप से / समान रूप से कहाँ कहाँ दिखाई दे रही है ? – इसकी गवेषणा की थी । यही होगा कोशविज्ञान का उषःकाल ।।
अर्थ से निरपेक्ष रहते हुए, केवल शब्दों के अन्तिम भाग को ही देख कर शब्दों का यूथ बनाने का कार्य उणादिसूत्रों में शूरू हुआ था- यह देख कर कहना पडेगा कि आज के कोशविज्ञान के बीजवपन का कार्य सब से पहले उणादि सूत्रकार ने ही किया था ।।
कोशकार्य के प्राथमिक उद्देश्य 1. अर्थनिर्धारण करना, 2.शब्द की वर्तनी स्थिर करना तथा 3. शब्दों के लिङ्ग का नियमन करना- ये सभी बातें बाद में आती है, लेकिन शब्दों के कोई एक स्वरूप (बाह्यशिल्प) को नियामक तत्त्व के रूप में लेकर, समानरूप वाले शब्दों का एकत्रीकरण करना यही कोशकार का प्रथमतम कर्तव्य होता है । अतः हम कह सकते है कि इन उणादिसूत्रों की रचना के साथ ही कोशविज्ञान की भोर भई थी ।।



* * * *

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सामयिक, सार्थक और सटीक प्रयास. संस्कृत साधना का आपका यह अधिष्ठान नित-नई ऊंचाइयां छूए और इस देवभाषा के प्रचार-प्रसार में मील का पत्थर सिद्ध हो इसी कामना के साथ...आपको हार्दिक शुभकामनाएं और साधुवाद.

    जवाब देंहटाएं
  2. आपका तो संस्क्रत ग्यान काफी विस्तार लिए है। भाषा के प्रति लगाव अच्छा लगा।
    संदीप मिस्र

    जवाब देंहटाएं
  3. Really nice. I dont know much about sanskrit, and studied it only at school level. Even though I really remember my sanskrit Teacher who developed the interest in the languages specifically HINDI.

    I am a corporate law professional. And many times when i read the HINDI version of indian laws I find many words there which are in KLISHT HINDI which are not understandable even by a person who completed his study with Hindi as a medium. May any learned person collect his courage to try to make the indian law understandable to a normal person of INDIA.

    Making languages tough is not a indication of rich language.

    और अन्त मै इस लेख के लिये सधुवाद.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्‍लाग जगत में स्‍वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्‍दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्‍दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्‍त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।

    जवाब देंहटाएं
  5. आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . आशा है आप अपने विचारो से हिंदी जगत को बहुत आगे ले जायंगे
    लिखते रहिये
    चिटठा जगत मे आप का स्वागत है
    गार्गी

    जवाब देंहटाएं
  6. आज आपका ब्लॉग देखा.......... बहुत अच्छा लगा.. मेरी कामना है की आपके शब्दों को नए अर्थ, नई ऊंचाइयां और नई ऊर्जा मिले जिससे वे जन-सरोकारों की सशक्त और सार्थक अभिव्यक्ति का समर्थ माध्यम बन सकें.
    कभी समय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर पधारें-
    http://www.hindi-nikash.blogspot.com

    सादर, सद्भाव सहित-
    आनंदकृष्ण, जबलपुर

    जवाब देंहटाएं
  7. सुन्‍दर। शुभकामनाएँ।
    वर्ड वेरिफिकेशन की व्यवस्था हटा दीजिये .
    .इससे अनावश्यक समय नष्ट होता है

    जवाब देंहटाएं
  8. Sir,
    I am student in MSU Baroda. Yesterday i enjoyed your presentation about Manuscriptology. Your presentation made the function successful.
    Thanks Sir, Thanks a lot.
    If you allow me i will send you email for solving my Sanskrit Study Related problems. I want your guideline.
    I have my school level in Hindi medium from Sheoganj, Rajasthan so i also like to visit your blog.

    A question:
    Your working circle is gujarati but your work is in hindi. What is the reason ? Are you connected with Hindi before ?

    Your Obediently
    RAJESH SUTHAR

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कोश साहित्य के बारे में नूतन दिशाओं का आविष्कार करनेवाले इश शोधपत्रसे प्रोफ.भट्टजी की विद्या उपासना का भी परिचय होताहे |

      हटाएं