बुधवार, 22 जुलाई 2009

यास्क एवं पाणिनि - काल तथा विषयवस्तु का अन्तराल

यास्क एवम् पाणिनि – काल तथा विषयवस्तु का अन्तराल*--------------------------------------------------------------------------
वसन्तकुमार म. भट्ट
आचार्य एवं अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, तथा
निदेशक, भाषा-साहित्य-भवन, गुजरात विश्वविद्यालय, अहमदावाद – 380 009
bhattvasant@yahoo.co.in

भूमिकाः- सृष्टि के आरम्भ में साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने वेदमन्त्रों के दर्शन किये थे । तत्पश्चात् इन वेदमन्त्रों के संहितापाठ या पदपाठ, तथा प्रातिशाख्यादि की रचना हुई । इस के बाद षड् वेदाङ्गों की रचना हुई । इनमें से वेदमन्त्रों का अर्थघटन करने के लिए निरुक्त एवम् व्याकरण – वेदाङ्ग का महत्त्व सबसे अधिक है । किन्तु निरुक्तविद्या तथा व्याकरण-विद्या का उद्भव कब हुआ था – यह निश्चित रूप से हम नहीं जान सकते है । क्योंकि इन विद्याओं का उद्भव तो वेदमन्त्रों में भी देखा गया है । पाणिनि और यास्क के ग्रन्थों में अनेक पुरोगामी आचार्यों के मतों का नामशः उल्लेख प्राप्त होता है । परन्तु इन विद्या-सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना “ इदं प्रथमतया ” किस आचार्य ने की थी – वह अद्यावधि अज्ञात रहा है । इस तरह वेदाङ्ग के रूप में जिसको स्वीकृति मिली है वे दोनों – यास्क का निरुक्त, तथा पाणिनि की अष्टाध्यायी – में से कौन पहेला है ? उसका निर्णय करना भी विवाद से परे नहीं है ।
यास्क पाणिनि के पुरोगामी आचार्य है – ऐसा परम्परागत मत बहुशः प्रचलित है । गोल्डस्टूकर कहेते है कि – पाणिनि ने जो यस्कादिभ्यो गोत्रे । 2 – 4 – 33
सूत्र से यास्क शब्द की व्युत्पत्ति दी है, उससे यह सूचित होता है कि पाणिनि से पहेले यास्क हो गये थे । एवमेव, उपसर्गों की चर्चा के दौरान यास्क ने पाणिनि का नामोल्लेख नहीं किया है, अतः हम कहे सकते है कि पाणिनि से पूर्वकाल में ही यास्क पैदा हुए थे ।।
लिबीश, मूलर और मेहेन्दळेजी के मत में पाणिनि यास्क से पहेले हुए थे । गोल्डस्टूकर का प्रतिवाद करते हुए ये विद्वान् लोग कहेते है कि पाणिनि का पूर्वोक्त सूत्र यास्क शब्द की केवल एक गोत्र-नाम के रूप में ही सिद्धि प्रदर्शित करता है । उससे निरुक्तकार यास्क का ही निर्देश हो रहा है – ऐसा कहेना दुराकृष्ट है । तथा यास्क ने उपसर्गों की चर्चा में पाणिनि का नामोल्लेख नहीं किया है । क्योंकि दोनों के शास्त्रों का स्वरूप ही सर्वथा भिन्न है, अतः यह आवश्यक ही नहीं था कि यास्क अपने निरुक्त में उपसर्गों की चर्चा में पाणिनि का नामोल्लेख करें । दूसरी और, पॉल थिमे


* महर्षि पाणिनि संस्कृत विश्वविद्यालय, उज्जयिनी, द्वारा आयोजित पाणिनि विषयक राष्ट्रिय संगोष्ठी ( 25-27 जून,2009 ) में प्रस्तुत आलेख ।
कहेते है कि यास्क को पाणिनि के व्याकरण का पूरा परिचय है । यास्क जब दण्ड्यः, राजा, सन्ति – जैसे शब्दों का पृथक्करण देते है तब दण्डम् अर्हति इति दण्ड्यः । में तदर्हति । पा.सू.5-1-63 एवं दण्डादिभ्यः । पा.सू.5-2-66 सूत्रों की उनको जानकारी है ऐसा दिखाई देता है । इसी तरह से सन्ति में आदि-स्वर का लोप होता है, तथा राजा शब्द में उपधा-विकार होता है – इन सब की यास्क को जो जानकारी है वह पाणिनि के सूत्रों पर आधारित है ऐसा दिखाई देता है । इस तरह से, जब दोनों पक्षों के तर्क हमारे सामने रखे जाते है तब पाणिनि तथा यास्क का पौर्वापर्य निर्धारित करना मुश्किल लगता है । इस लिए प्रोफे. ज्यॉर्ज कार्दोनाजी कहते है कि – पाणिनि एवं यास्क का काल-निर्धारण करने का कार्य अभी भी अवशिष्ट है । 1
यद्यपि इस सन्दर्भ में पाणिनि के कतिपय तद्धित एवं कृदन्त सूत्रों का सांस्कृतिक दृष्टि से अभ्यास किया जाय तो यास्क की अपेक्षा से पाणिनि का उत्तरवर्तित्व निश्चित रूप से सिद्ध हो सकता हैः— उदाहरण रूप में 1. इन्द्रियम् इन्द्रलिङ्गम् इन्द्रदृष्टम् इन्द्रसृष्टम् इन्द्रजुष्टम् इन्द्रदत्तमिति वा (5-2-93), तथा 2. ब्रह्म-भ्रूण-वृत्रेषु क्विप् (3-2-87) – यहाँ प्रथम सूत्र में इन्द्र शब्द का ‘आत्मा’ अर्थ में प्रयोग किया गया है, जो एक दार्शनिक अर्थ है । दूसरे सूत्र में ब्रह्महा – भ्रूणहा – वृत्रहा जैसे शब्दों की रूपसिद्धि कही है । यहाँ दिति के गर्भस्थित पुत्रों ( मरुद्-गण ) की इन्द्र द्वारा की गई हत्या का निर्देश है – जिसमें हम एक पौराणिक कथा का सन्दर्भ देख सकते है । ये दोनों सन्दर्भ ऐसे है जो यास्क-कालिक नहीं है । यास्क तो इन्द्र का ‘वृष्टि के देवता’ के रूप में ही निर्वचन करते है । अतः हम कहे सकते है कि पाणिनि यास्क के उत्तरवर्ती काल में ही प्रादुर्भूत हुए होंगे ।। ( एवञ्च – ये दोनों आचार्य प्रायः निश्चित रूप से ई.पूर्व 700 – 400 के बीच में हुये होंगे ) ।।
परन्तु दोनों आचार्यों के ग्रन्थों का तुलनात्मक अभ्यास करने में काल-सीमा का कोई सीधा उपयोग नहीं है । क्योंकि दोनों आचार्यों के ग्रन्थों में यदि प्रतिपाद्य विषयवस्तु का सर्वथा साम्य होता तभी कौन पुरोगामी है और कौन अनुगामी है यह प्रश्न महत्त्व का बनता है । अतः प्रस्तुत आलेख में, यास्क एवं पाणिनि की स्वतन्त्र रूप से अपनी अपनी जो ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है उसको ध्यान में लेते हुए ही इन दोनों के ग्रन्थों में जो भेद है – उसका अभ्यास रखा गया है ।

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1. 1. After all the arguments and evidence adduced in support of both views, I think the only reasonable conclusion that can be reached at present is, as Giridhara Sarma Caturveda remarked ( in 1954 ), that the question of priority remains open.
Panini : A Survey of Research , by Prof. George Cardona, Motilal
Banarasidass, Delhi, 1980, pp.273.

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यास्क एवं पाणिनि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यास्क निरुक्ताध्ययन के प्रयोजनों की चर्चा करते हुए कहेते है कि वेदमन्त्रों का अर्थ जानने के लिए निरुक्त पढना चाहिये । लेकिन इसी क्षण पर पूर्वपक्षी के रूप में कौत्स नाम के आचार्य का मत उद्धृत करते हुए कहा गया है कि – यदि मन्त्रार्थ-प्रत्ययाय अनर्थकं भवतीति कौत्सः । अनर्थकाः हि मन्त्राः । (निरुक्तम् - अ. 1/5)
अर्थात् यास्क के पूर्वकाल में यह मत प्रचलित हो गया था कि वेदमन्त्रों में से कोई अर्थ नहीं निकाला जा सकता है । वैदिक मन्त्रों के जो अर्थ बताये जाते है वे भी वैदिक क्रियाकाण्ड के साथ सुसंगत नहीं है । वेदमन्त्रों में ऐसे अनेक वाक्य है कि जिसमें परस्पर विरुद्धार्थ का ही कथन हो । 2 सारांश यही निकलता है कि वेदमन्त्रों के जो तथाकथित अर्थ बतलाये जाते है वह तर्कशुद्ध बुद्धि में बैठते नहीं है । तो – यह थी यास्क के निरुक्त की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ।।
ब्राह्मण-संस्कृति के यज्ञयागादि में पशुहिंसा होती थी, इस लिए भगवान् बुद्ध ने वेदों का विरोध किया था । तथा कौत्स जैसे आचार्यों ने भी परम्परागत रीति से वेदों के जो अर्थ बतलाये जाते थे उस पर प्रश्नचिह्न लगा दिया था । अतः ब्राह्मण - संस्कृति के पक्षधर आचार्यों की ये इतिकर्तव्यता बन गई थी कि वेदमन्त्रों को वे सार्थक बतावें और इन अर्थों की प्रमाण-पुरस्सरता भी प्रस्थापित करें ।

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दूसरी ओर पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में लौकिक एवम् वैदिक – दोनों प्रकार के शब्दों का अन्वाख्यान किया है । यद्यपि पाणिनि भगवान् बुद्ध के प्रायः समकालिक है । तथापि पाणिनि ने मन्त्रार्थ के सन्दर्भ में कोई विवाद का नामशः निर्देश नहीं किया है । परन्तु वेदमन्त्र सार्थक है ऐसी आस्तिक परम्परा का अनुसरण करते हुए, पाणिनि ने लौकिक संस्कृत भाषा के व्याकरण के साथ साथ ही वैदिक भाषा के रूपवैविध्य का वर्णन किया है । पाणिनि के पूर्वकाल में जो वेद-विषयक साहित्य लिखा गया था उनमें शाकल्य का पदपाठ एवं कतिपय प्रातिशाख्य ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण है । इस में जो वेद भाषा-सम्बन्धी चिन्तन आकारित हुआ दिखाई दे रहा है वह वर्णसन्धि, पदच्छेद, वर्णोच्चारण-शिक्षा, उदात्तादि स्वर विषयक चर्चा तक सीमित
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2. अथाप्यनुपपन्नार्था भवन्ति । ओषधे त्रायस्वैनम् । स्वधिते मैनं हिंसीः इत्याह हिंसन् । अथापि विप्रतिषिद्धार्था भवन्ति । एक एव रुद्रो वतस्थे, न द्वितीयः । असंख्याता सहस्राणि ये रुद्रा अधि भूम्याम् । ( निरुक्तम् 1/5 )


है । अतः पाणिनि के लिये जो ( पदपाठ एवं प्रातिशाख्यादि की ) परम्परागत सामग्री उपलब्ध थी उसके सन्दर्भ में ही पाणिनि का मूल्यांकन करना चाहिये । क्योंकि यह भी सुविदित है कि पाणिनि का पुरोगामी हो ऐसा लौकिक संस्कृत भाषा का व्याकरण प्रस्तुत करनेवाला एक भी ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं होता है । तो – पाणिनि की अष्टाध्यायी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इस तरह की थी ।।


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यास्क एवं पाणिनि का लक्ष्य

यास्क ने जो निरुक्त ग्रन्थ की रचना की है, उसमें प्राधान्येन ( अज्ञातकर्तृक ) निघण्टु नामक वैदिक शब्दकोश में संगृहीत शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत करने का ही लक्ष्य रखा है । निरुक्त के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि – समाम्नायः समाम्नातः । स व्याख्यातव्यः ।। अर्थात् यास्क का निरुक्त एक व्याख्या ग्रन्थ है, दूसरे शब्दों में कहे तो निघण्टु पर लिखा गया एक भाष्य-ग्रन्थ है । लेकिन बिना विलम्ब किये यह कहना होगा कि निघण्टु में संगृहीत किये गये शब्दों के ( अज्ञात ) अर्थ ढूँढने के लिये यह व्याख्या ग्रन्थ नहीं लिखा गया है । यद्यपि प्रायः ऐसा माना जाता है कि
“ वेदमन्त्रों में प्रयुक्त जो जो शब्द दुर्बोध थे, या अज्ञातार्थक थे उसका संग्रह निघण्टु में किया गया है । अतः ऐसे अज्ञातार्थक शब्दों के अर्थ दिखाने के लिये यास्क ने निरुक्त लिखा है ।“ तो यह कथन समुचित नहीं है । क्योंकि निघण्टु के अन्दर, जो विभिन्न प्रकार के शब्दसंग्रहों रखे गये है उसमें सर्वत्र अर्थ-प्रदर्शन तो किया ही गया है । जैसे कि – इति एकविंशति पृथिवी नामधेयानि । इति षोडश हिरण्यनामानि । तथा, यास्क ने जहाँ, जो शब्द का निर्वचन दिया है वहाँ प्रायः “ इस शब्द का यह अर्थ है – ऐसा ब्राह्मण-ग्रन्थ से जाना जाता है । ” ( इति ह विज्ञायते, ...इति च ब्राह्मणम्.... इत्यपि निगमो भवति ) ऐसा कहा है । अपि च, निर्वचन के सिद्धान्तों का विवरण देते समय यास्क ने जो कहा है कि – अर्थनित्यः परीक्षेत ।.......नैकपदानि निर्ब्रूयात् । ...यथार्थं निर्वक्तव्यानि । इसका मतलब यह है कि यास्क ने संसार के किसी भी नैरुक्त ( निर्वचन-कर्ता) के पास ऐसी अपेक्षा रखी ही है कि किसी भी शब्द का निर्वचन करने से पहेले उस शब्द का अर्थ जानना अनिवार्य है । अर्थात् अर्थज्ञानपूर्वक ही निर्वचन करना चाहिये । इस चर्चा का निष्कर्ष यही निकलता है कि – निघण्टु में शब्दसंग्रह के साथ साथ जो अर्थ-निर्देश किया गया है एवं यास्क भी “ ब्राह्मण-ग्रन्थों में ऐसा अर्थ प्रचलित है ” ऐसा जब कहते है तब, निरुक्त में अज्ञातार्थक वैदिक शब्दों का अर्थ ढूँढने के लिये निर्वचन दिये है – ऐसा कहना युक्तियुक्त नहीं है ।।
अब, निघण्टु के शब्दों पर व्याख्या करते समय यास्क का प्रयास किस दिशा का है, या किस लक्ष्य को ले कर यास्क चलते है – यह सूक्ष्मेक्षिकया पुनर्विचारणीय है । इस विषय पर दुबारा सोचने से मालुम होता है कि यास्क दो लक्ष्य को लेकर चल रहे हैः—(1) निर्वचनों के द्वारा शब्दार्थ-सम्बन्ध की गवेषणा करना, ( और उसके आधार पर वैदिक शब्दों के प्रचलित अर्थों को प्रामाणिकता प्रदान करना ) तथा (2) दैवत-काण्ड के शब्दों की व्याख्या करते हुए वैदिक-देवता शास्त्र ( Theology ) को प्रस्तुत करना ।।

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महर्षि पाणिनि ने अष्टाध्यायी की जो रचना की है , उसमें लोक की एवं वेद की संस्कृत भाषा का ( व्युत्पत्तिदर्शक ) व्याकरण प्रस्तुत करने का लक्ष्य रखा है । और पाणिनि ने जो व्याकरण लिखा है वह एक शब्दनिष्पादक तन्त्र ( word -producing machine ) के रूप में लिखा है । अर्थात् अष्टाध्यायी में – व्याक्रियन्ते पृथक्क्रियन्ते शब्दा अनेन इति व्याकरणम् – ऐसे व्युत्पत्तिजन्य अर्थवाले ( पृथक्करणात्मक ) व्याकरण की प्रस्तुति नहीं है । यहाँ तो प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करके, आवश्यक ध्वनि-परिवर्तन के बाद लोक में और वेद में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों की निष्पादना ( व्युत्पत्ति ) प्रदर्शित की गई है । यहाँ “शब्द” शब्द से पाणिनि को “वाक्य” ऐसा अर्थ अभिमत है – यह बात भूलना नहीं है । कहेने का तात्पर्य यही है कि पाणिनि का व्याकरण-तन्त्र वाक्य-निष्पत्ति के लक्ष्य को लेकर प्रवृत्त हुआ है ।।

पाणिनि से पहेले वेदों का पदपाठ एवं कतिपय प्रातिशाख्य ग्रन्थ लिखे गये थे । अतः पाणिनि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में भाषाचिन्तन का माहोल देखा जाय तो वर्णशिक्षा, पदच्छेद, सन्धिविचार, और उदात्तादि स्वर विषयक चर्चायें ही प्रवर्तमान थी । इस से सारांश यही निकलता है कि – पाणिनि के पूर्वकाल में, व्याकरणविद्या भाषा के वर्णध्वनियाँ तक ही प्रायः सीमित थी । किन्तु पाणिनि भाषा की जो बृहत्तम इकाई के रूप में वाक्य होता है, उसकी निष्पत्ति करने के लिये व्यापृत हुए है । और वाक्यसिद्धि के साथ जूडे हुए पदरचना एवं सन्धिविचार का भी पूर्ण रूप से निरूपण करते है । तथा वे केवल लौकिक संस्कृत भाषा के व्याकरण तक सीमित न रह कर, वैदिक संस्कृत भाषा का भी अन्वाख्यान कर रहे है ।।

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यास्क एवं पाणिनि का कार्य और कार्यपद्धति

यास्क एवं पाणिनि के निर्वचन तथा व्युत्पत्ति का स्वरूप देखने से पहेले, ये दोनों आचार्य वाग्व्यवहार में प्रचलित शब्दों के मूलभूत रूप के बारे में कौन सी अवधारणा रखते है – यह भी प्रथम ज्ञातव्य है । यास्क ने वैसे तो भाषा में चार प्रकार के शब्दों – नाम, आख्यात, उपसर्ग एवं निपात – का होना मान्य रखा है, परन्तु उनकी चर्चा का केन्द्रभूत स्थान तो है ‘नाम’ प्रकार के शब्दों । शाकटायन नामक वैयाकरण को अपना गुरु मानते हुए यास्क ने कहा है कि – भाषा में प्रयुक्त होनेवाले सभी नाम आख्यातज होते है । 3 अर्थात् यास्क सभी नामों को यौगिक
( व्युत्पन्न ) मानते है । दूसरे शब्दों में कहे तो – सभी नाम क्रियावाचक धातु से ही निष्पन्न हुये है । परन्तु इस विषय में पाणिनि की मान्यता कुछ अलग है । पाणिनि गार्ग्य नामक नैरुक्त को अपना गुरु मानते हुए, कहेते है कि भाषा में प्रयुक्त होनेवाले सभी नाम व्युत्पन्न नहीं है । 4 पाणिनि स्पष्टतया ऐसा मानते है कि भाषा में बहुशः नाम यौगिक हो सकते है, किन्तु सभी नामों को यौगिक ( व्युत्पन्न ) बताना साहसमात्र है ।
भाषा में प्रयुक्त होनेवाले शब्दों के स्वरूप को लेकर यह जो मूलभूत अवधारणा में ही भेद है – उसी में दोनों आचार्यों के कार्यों का भी भेद अन्तर्निहित
है । निरुक्त के प्रथमाध्याय में दुर्गाचार्य ने कहा है कि – शब्द तीन प्रकार के होते हैः—1. अतिपरोक्षवृत्तिवाले, 2. परोक्षवृत्तिवाले तथा 3. प्रत्यक्षवृत्तिवाले । 5 यास्क ने निघण्टु में संगृहीत ( अतिपरोक्षवृत्तिवाले) शब्दों का जब निर्वचन दिया है तब उन्हों ने पहेले अतिपरोक्षवृत्तिवाले शब्द को परोक्षवृत्ति में परिवर्तित किया है, औऱ बाद में उसे प्रत्यक्षवृत्ति में ढाल कर, उस शब्द (नाम) में अन्तर्निहित धातु का प्रदर्शन किया है । शब्द के द्वारा जो अर्थ उद्घाटित होता है, वह तभी प्रामाणिक माना जायेगा की जब उस अर्थ को धातुसाधित बताया जाय । इसी लिये प्रत्येक नामों में अन्तर्निहित धातु दिखाना आवश्यक है । उदाहरण के रूप में – निघण्टवः । यह अतिपरोक्षवृत्तिवाला शब्द है, उसको निगन्तवः । जैसे परोक्षवृत्तिवाले शब्द में परिवर्तित किया गया है और अन्त में निगमयितारः । जैसे प्रत्यक्षवृत्तिवाले शब्द-स्वरूप में ढाल कर, उसे नि उपसर्गपूर्वक गम् धातु से निकला हुआ शब्द कहा गया है । अब उसका जो अर्थ है
( अर्थ का निगमन करानेवाले शब्द को ‘निघण्टु’ कहते है – वह ) प्रमाण-पुरस्सर का ही है ऐसा सिद्ध होता है ।
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3. तत्र नामान्याख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्च । - निरुक्तम् अ. 1
4. न सर्वाणीति गार्ग्यो, वैयाकरणानाञ्चैके । - निरुक्तम् अ. 1
5. त्रिविधा शब्दव्यवस्था – प्रत्यक्षवृत्तयः , परोक्षवृत्तयः , अतिपरोक्षवृत्तयश्च । तत्रोक्तक्रियाः प्रत्यक्षवृत्तयः, अन्तर्लीनक्रियाः परोक्षवृत्तयः, अतिपरोक्षवृत्तिषु शब्देषु निर्वचनाभ्युपायः । तस्मात् परोक्षवृत्तिताम् आपाद्य प्रत्यक्षवृत्तना निर्वक्तव्याः । तद्यथा – निघण्टवः इत्यतिपरोक्षवृत्तिः, निगन्तवः इति परोक्षवृत्तिः, निगमयितारः इति प्रत्यक्षवृत्तिः । यस्मान्निगमयितार एते निगन्तव इति, निघण्टव इत्युच्यते ।। निरुक्तम् –( दुर्गाचार्यस्य टीकया समेतम् - पृ. 44 ) सं. मनसुखराय मोर, कोलकाता, 1943


यास्क ने शाकटायन का अनुसरण करते हुए सभी नामों को यौगिक
( व्युत्पन्न ) माने हैं । परन्तु पाणिनि ने, उससे विपरित, भाषा में प्रयुक्त होनेवाले प्रत्येक नामशब्द को व्युत्पन्न नहीं माना है । भाषा में बहुशः नाम यौगिक है ऐसा दिखाई दे रहा है, परन्तु ऐसे भी शब्द काफी है कि जिसकी रचना कैसे हुई होगी यह कहेना अतिकठिन भी है । अतः पाणिनि ने व्युत्पत्ति की दृष्टि से जो दुर्बोध या अबोध शब्द देखे है ( जिसको दुर्गाचार्य ने परोक्षवृत्तिवाले या अतिपरोक्षवृत्तिवाले शब्द कहे है ) उसके लिये निपातन तथा पृषोदरादि-गण की व्यवस्था की है, या उणादि-प्रत्ययों की और अङ्गुलिनिर्देश कर दिया है । पाणिनि ऐसे शब्दों की व्युत्पत्ति नहीं देते है । अतः हम कहे सकते है कि वाक्यान्तर्गत चार प्रकार के शब्दों में से यदि त्रिविध नामों में से, यास्क का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से अतिपरोक्षवृत्तिवाले नाम ही है, तो तीन प्रकार के नामों में से पाणिनि का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से प्रत्यक्षवृत्तिवाले नाम ही है ।।

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अब दोनों आचार्यों की कार्यपद्धति को समझने के लिए निर्वचन एवं व्युत्पत्ति का स्वरूप देखना होगा । (क) यास्क ने निघण्टु में आये हुये समुद्र शब्द का निर्वचन इस प्रकार दिया हैः- समुद्रः कस्माद् । समुद् द्रवन्ति अस्माद् आपः । सम् अभि द्रवन्ति एनम् (प्रति) आपः । संमोदन्ते अस्मिन् भूतानि । समुदको भवति । समुनत्ति इति वा । ( निरुक्तम् 2-10 ) यहाँ पर एक समुद्र शब्द के लिये कुल मिला के पाँच निर्वचन प्रस्तुत किये गये हैः—
1. सम् + उद् + द्रव् - इस में से ( पृथिवी लोक में ) पानी द्रवित होता है ।
( अर्थात् समुद्र शब्द अन्तरिक्ष का वाचक है )
2. सम् + अभि + द्रव् – पानी ( निम्नगामी होने के कारण ) इसकी और जाता है
( अर्थात् यहाँ समुद्र शब्द पार्थिव सागर का वाचक बनेगा । )
3. सम् + मुद् – ( बहुत पानी होने के कारण ) उसमें जलचर आनन्द करते है ।
4. सम् + उद(क) – जिसमें अच्छी तरह से पानी इकठ्ठा होता है ।
5. सम् + उन्द् – जो (किनारे पर खडे आदमी को) भीगो देता है । वह समुद्र है ।

इसमें सम् उपसर्गपूर्वक द्रव्, मुद्, या उन्द् धातु-वाच्य क्रियाओं के (चरितार्थ होने के ) कारण अपार एवं अगाध जल से भरे सागर को समुद्र कहा गया है । अर्थात् तत् तत् क्रियाओं को करने के कारण समुद्र समुद्र कहा जाता है ।
यहाँ पर, जो निर्वचन दिये गये है वे पार्थिव समुद्र तथा अन्तरिक्ष – ऐसे दोनों सुप्रसिद्ध अर्थों को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है । क्योंकि उपर्युक्त निर्वचनों में 1. जो धातु दिखाये गये है, उस धातु-वाच्य क्रिया को समुद्र चरितार्थ करता है , तथा 2. तत् तत् धातुओं की वर्णध्वनियाँ भी समुद्र शब्द में गुम्फित भी है ।
इस चर्चा का तात्पर्यार्थ यह होता है कि – यास्क ने निर्वचन देने के निमित्त से शब्दार्थ-सम्बन्ध की ही विचारणा की है । एक और, निघण्टु में आया हुआ ( या वेद में प्रयुक्त ) समुद्र जैसा कोई शब्द है, और दूसरी और इस शब्द के प्रचलित अर्थ है । इन दोनों का सम्बन्ध उपरि-निर्दिष्ट क्रिया-वाचक धातुओं के साथ रहा है । पूर्वोक्त निर्वचनों में जिन धातुओं का प्रदर्शन किया गया है, वे सब ऐसे है कि इन धातुओं के द्वारा वाच्य जो जो क्रियायें है वे समुद्र (नामक पदार्थ) चरितार्थ करता है । तथा इन धातुओं के अन्दर जो जो वर्णध्वनियाँ गुम्फित है, वह समुद्र शब्द में भी विद्यमान (श्रूयमाण) है । अतः यह कहना ही होगा कि – यास्क निर्वचनों के द्वारा “शब्दार्थ-सम्बन्ध धातुमूलक है” ऐसा सिद्ध करते है और शब्दों के प्रचलित अर्थ यदि धातुमूलक है तो वह प्रामाणिक भी है ऐसा मानना ही होगा । - यही तो था कौत्स को देने योग्य प्रत्युत्तर, और यही तो थी यास्क की निरुक्त लिखने की इतिकर्तव्यता ।।
* * * *

अब, (ख) लौकिक एवं वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति प्रस्तुत करने के लिये पाणिनि की जो सोपानबद्ध प्रक्रिया है उसका निरूपण करना होगाः—
पाणिनि ने पृथक्करणात्मक व्याकरण न लिख कर, प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करके शब्द-निष्पादनात्मक व्याकरण लिखा है । जिसमें, आरम्भ में वक्ता के विवक्षितार्थों की वाचक प्रकृति एवं प्रत्यय स्थापित किये जाते है । उसके बाद, स्थान्यादेश-भाव की प्रयुक्ति से प्रकृति एवं प्रत्ययांश में आवश्यक परिवर्तन करने के आदेश दिये जाते है और तत्पश्चात् प्रकृति के अन्तिम वर्ण तथा प्रत्यय के आदि वर्ण पास पास में ( संहिता-स्थिति में ) आ जाने के कारण सन्धि-कार्य होते है । जिसके फल स्वरूप इष्ट रूप की ( प्रयोगार्ह पद की ) सिद्धि सम्पन्न होती है । उदाहरण के रूप में – ( कोई क्रिया के उपलक्ष्य में – )
1. कुठार + साधकतम पदार्थ ( रूपी विवक्षितत अर्थ ) होता है,
2. कुठार + करण-कारक संज्ञा ( साधकतमं करणम् । सूत्र से संज्ञा-विधान)
3. कुठार + टा – भ्याम् – भिस् (तृतीया विभक्ति के प्रत्ययों की उत्पत्ति)
4. कुठार + टा ( एकत्व की विवक्षा में टा की पसंदगी की जाती है )
5. कुठार + इन ( अदन्त प्रकृति होने के कारण टा के स्थान में इन का
आदेश किया जाता है । )
6. कुठारेन ।। ( अ + इ ये दो वर्ण संहितावस्था में पास पास आने से
वर्णसन्धि होती है ।) , ततः –
7. कुठारेण ।। ( यहाँ प्रकृतिस्थ रेफ से परे आये न वर्ण का ण वर्ण में परिवर्तन हो जाता है । ) - कुठारेण ( प्रहरति ) ।।

पाणिनि इस तरह वक्ता के विवक्षित अर्थ को व्यक्त करने के लिये, वाक्य रूप पूरी इकाई की ही निष्पत्ति ( साधनिका ) प्रस्तुत करते है । और वाक्यान्तर्गत सुबन्त एवं तिङन्त पदों की ( युगपत् ) निष्पत्ति करने के लिये, प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन करने की पूरी प्रक्रिया दिखाते है ।। इस को देख कर, लगता है कि यहाँ प्रकृति + प्रत्यय के संयोजन से शब्द उत्पन्न होते है । विशिष्टा उत्पत्तिरिति व्युत्पत्तिः ।।
पाणिनि ने व्युत्पत्ति अर्थात् शब्दों की विशेष उत्पत्ति जो दिखाई है, उसका वैशिष्ट्य यदि नामशः बताना हो तो यहाँ कहना होगा कि – 1. पाणिनि ने विवक्षित अर्थ को अपनी प्रक्रिया में आरम्भ-बिन्दु पर ( in-put के रूप में ) रखा है और तत्पश्चात् उसका प्रकृति एवं प्रत्यय में परिवर्तन करके, ध्वनिशास्त्र से सम्मत आवश्यक परिवर्तन के साथ ( out-put के रूप में ) प्रयोगार्ह रूपसिद्धि तथा अन्ततो गत्वा वाक्यसिद्धि प्रदर्शित की है । तथा 2. नामपदों की एवं क्रियापदों की रूपसिद्धि करने के लिये पाणिनि ने पहेले तो सुप् एवं तिङ् जैसे सर्वसाधारण ( 21 तथा 18 ) प्रत्ययों की शृङ्खला प्रस्तुत की है, और उसके बाद स्थान्यादेशभाव की प्रयुक्ति से, एक ही प्रत्यय अर्थात् एक ही रूपघटक में से विविध प्रकार के असंख्य रूपों का निर्माण करके दिखाया है ।।

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यास्क एवं पाणिनि की कार्यसीमाओं का एक निदर्श

एक उदाहरण के माध्यम से यास्क एवं पाणिनि की कार्यसीमाओं का रेखाङ्कन करना उचित रहेगाः—
अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखायो मनोजवेष्वसमा बभूवुः । ( ऋग्वेदः 10 – 71 – 7 )

। अक्षण् S वन्तः । कर्ण S वन्तः । सखायः । मनः Sजवेषु । असमाः । बभूवुः ।

यहाँ पर अक्षण्वन्तः – ऐसा जो शब्द है उसके पदपाठ में स्पष्ट रूप से दो अंश पृथक् तया दिखाये जाते है । यथा – । अक्षण् S वन्तः । भाग्यवशात् हमारे दोनों आचार्यों ने इसी एक शब्द पर अपनी अपनी दृष्टि से निर्वचन और व्युत्पत्ति प्रदर्शित की है ।
पदपाठकार ने यहाँ तद्धितातन्त शब्द के जिन दो ( प्रकृति तथा प्रत्यय ) अंशों को पृथक् करके पदपाठ में दिखलाये है, इन में से प्रथम अक्षि ऐसे नामशब्द का निर्वचन यास्क ने दिया है । तथा पाणिनि ने प्रत्ययांश के रूप में अवस्थित वन्तः ऐसा जो अंश है उसकी व्युत्पत्ति करके दिखाई है । तद्यथा –
यास्क अक्षि शब्द के दो निर्वचन नीम्नोक्त शब्दों में दे रहे हैः—
1. अक्षि चष्टेः । 2. अनक्तेः इति आग्रायणः । तस्माद् एते व्यक्ततरे इव भवतः इति ह विज्ञायते ।। ( निरुक्तम् – 1-9 ) अर्थात् यास्क के मत से अक्षि शब्द दो धातुओं से निष्पन्न हुआ है । 1. चक्ष् धातु से, ( जिसका अर्थ ‘देखना’ होता है ), तथा 2. अञ्ज् धातु से , ( जिसका अर्थ ‘दिखाना’ होता है ) ।। मतलब की हमारी आँखे 1. देखने की तथा 2. दिखाने की क्रिया करती है – अतः चक्ष् या अञ्ज् धातु से यह अक्षि शब्द का अवतार हुआ है – ऐसा हम निश्चित रूप से कह सकते है । परन्तु यहाँ यह ध्यातव्य है कि यास्क ने एक नाम-वाचक शब्द के रूप में केवल अक्षि शब्द पर ही ध्यान केन्द्रीत करके उसका निर्वचन देने का (ही) कार्य किया है । वे वन्तः जैसे प्रत्ययांश के सन्दर्भ में कुछ भी नहीं कहेते है ।।
पाणिनि ने ऋग्वेद के इसी शब्द को लेकर, उसका प्रत्ययांश कैसे व्युत्पन्न होता है इसकी और ही ध्यान आकृष्ट किया है । पाणिनि की दृष्टि में अक्षि शब्द एक अव्युत्पन्न प्रातिपदिक है । ( क्योंकि 436 अशेर्नित् । 3-156 – इस उणादिसूत्र से अक्षि शब्द की सिद्धि होती है । ) पाणिनि के लिये यह नाम की व्युत्पत्ति क्या हो सकती है ? यह चर्चा का विषय नहीं है ।
अक्षण्वन्तः शब्द की सिद्धि कैसे की जाय – यह बताने के लिये, पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में एक सूत्र लिखा हैः— अनो नुट् । ( पा. सू. 8 – 2 – 16 ) इस सूत्र के द्वारा नुट् आगम का विधान किया गया है । काशिकावृत्ति में इस सूत्र का अर्थ बताया है कि – छन्दसि इति वर्तते । अनन्तादुत्तरस्य मतोर्नुडागमो भवति छन्दसि विषये । 6 अर्थात् छन्द (= वेद) के विषय में, अनन्त (= अन् अन्तवाले शब्द ) के पीछे आये हुए मतुप् प्रत्यय को नुट् आगम होता है । इस सूत्र का विनियोग करके जिस तरह से पाणिनीय व्याकरणशास्त्र में ऋग्वेद के अक्षण्वन्तः शब्द की रूपसिद्धि की जाती है उसका अभ्यास करना आवश्यक हैः—
1. अक्षि + मतुप् । - यहाँ तदस्यास्तीति मतुप् । से मतुप् प्रत्यय का विधान,
2. अक्षि + वतुप् । - अब, छन्दसीरः ( 8-2-15) से म कार को व कार होता है ।
3. अक्षि+अनङ् + वत् । - यहाँ, छन्दस्यपि दृश्यते ( 7-1-76 ) से अनङ् आदेश,
4. अक्ष्+अन् + वत् ।
5. अक्षन् + वत् । - अब, नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य । (8-2-7) से न् कार का लोप,
6. अक्ष0 + वत् । अब, भूतपूर्वगति का आश्रयण करते हुए, पूर्वोक्त सूत्र (अनो नुट् )
से अक्ष(न्) शब्द के उत्तर में आये हुए मतुप् (वतुप्) प्रत्यय को
नुट् आगम किया जाता है ।
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6. काशिकावृत्तिः । ( षष्ठो भागः ) सं. द्वारिकाप्रसाद शास्त्री, तारा पब्लीकेशन्स, वाराणसी, 1967, पृ.303




7. अक्ष + नुट् वत् । - वत् से पूर्व में नुट् (= न्) आगम लगाया जाता है ।
8. अक्ष +न् वत् । - अब, अट्कुप्वाङ्नुम्व्यवाये Sपि । से न् को ण् त्व विधि की
जायेगी । जिससे – अक्षण्वत् शब्द तैयार हो जायेगा ।।
- आगे चल कर, अक्षण्वत् प्रातिपदिक में से अक्षण्वन्तः शब्द की सिद्धि की जायेगी ।
यहाँ वैयाकरणों की दृष्टि में, नुट् आगम का परादिवद् भाव मानना है । जिसके फल स्वरूप – ण्वत् – इतना भाग प्रत्ययांश कहा जायेगा ।।
* * * *
यहाँ, यास्क ने केवल प्रकृत्यंश ( अक्षि ) को लक्ष्य बनाके निर्वचन दिया है, और प्रत्ययांश के सन्दर्भ में कुछ नहीं कहा है । दूसरी और, पाणिनि ने इसी शब्द के केवल प्रत्ययांश को लक्ष्य बना के, उसकी व्युत्पत्ति प्रस्तुत की है । तथा अक्षि जैसे प्रकृत्यंश के लिये कुछ नहीं कहा है ।। इस एक उदाहरण से मालुम हो जाता है कि दोनों आचार्यों की कार्यसीमायें ( एवं कार्यपद्धति ) बहुशः अलग ही है ।।
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प्रासङ्गिक रूप से यहाँ एक रोचक बात भी बतानी आवश्यक हैः—
यास्क अक्षण्वन्तः शब्द में से केवल अक्षि – जैसे प्रकृत्यंश का ही निर्वचन देते है । परन्तु वे पदपाठकार ने जो पदच्छेद ( अक्ष ण् S वन्तः) दिया है, उसको ध्यान में नहीं लेते है । अर्थात् वे अक्षन्(ण्) को प्रकृति मान कर कुछ नहीं कहते है । और उस पदच्छेद के बारे में कोई विवाद भी नहीं करते है । लेकिन इस सन्दर्भ में वैयाकरणों ने कडी आलोचना की है । पाणिनि ने वत् प्रत्यय को नुट् आगम का विधान किया है, और जिसके फल स्वरूप ण्वन्तः जैसे प्रत्ययांश की सिद्धि हुई है । इस लिये, शाकल्य ने पदपाठ में जो । अक्षण्S वन्तः । ऐसा पदच्छेद किया गया है वह वैयाकरणों को मान्य नहीं है । अर्थात् वैयाकरणों की दृष्टि में अक्ष Sण्वन्तः – ऐसा ही पदपाठ करना चाहिये । अतः इस विसंगति को देखते हुए महाभाष्यकार पतञ्जलि ने एक गंभीर आलोचना की है, वह भी यहाँ स्मरणीय हैः—

न हि लक्षणेन पदकारा अनुवर्त्याः । पदकारैर्नाम लक्षणम् अनुवर्त्यम् ।। 7

अर्थात् लक्षणकारों (= वैयाकरणों) को पदपाठकार का अनुसरण नहीं करना है । पदपाठकार के द्वारा हि लक्षणकारों ( के नियमों ) का अनुसरण होना चाहिये ।।
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7. व्याकरण-महाभाष्यम् । ( तृतीयो भागः ), प्रकाशक – मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, 1967, पृ. 382


अर्थात् यहाँ । अक्षण्S वन्तः । होना चाहिये कि । अक्षS ण् वन्तः । होना चाहिये ? इस विषय में पतञ्जलि अपना मताग्रह जाहिर करते है कि पाणिनि के सूत्रों से जो पद की प्राप्ति होती है, उसी ( अक्षSण्वन्तः ) को ही मान्यता देनी चाहिये । पुराकाल में शाकल्य के द्वारा भले ही । अक्षण्S वन्तः । ऐसा पदच्छेद किया गया हो, लेकिन आज उसे परिवर्तित कर देना चाहिये ।।

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पाणिनि की अष्टाध्यायी में पूरे भाषा-प्रपञ्च का व्याकरण

यद्यपि अभी तक के जो आरूढ विद्वान् है, उन्हों ने पाणिनीय व्याकरण के अनेक वैशिष्ट्य हमारे सामने उद्घाटित किये है । तथापि पाणिनि की अष्टाध्यायी का बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग स्वरूप सर्वाङ्गीण रूप से बताने का सामर्थ्य तो शायद ही किसी में होगा । किन्तु प्रासंगिक रूप से कुछ मुख्य एवं ज्ञातव्य बिन्दुयें बताना जरूरी भी हैः— महर्षि पाणिनि ने संस्कृत भाषा का जो अद्वितीय व्याकरण लिखा है वह वाक्य-निष्पत्ति का व्याकरण है । ( अर्थात् इस व्याकरण के सूत्रों के द्वारा एकाकी सुबन्त य़ा तिङन्त पद की रूपसिद्धि करना सम्भव नहीं है । ) तथा वाक्य की निष्पत्ति के साथ साथ, इस व्याकरण के सूत्रों के द्वारा (विग्रह)वाक्यों में से वृत्तिजन्य पदों की रचना भी की जाती है । कहेने का तात्पर्य यह है कि विवक्षित अर्थ को आरन्भबिन्दु माना जाय तो वहाँ से शूरु करके वाक्य-सिद्धि पर्यन्त का व्याकरण पाणिनि ने बनाया है । परन्तु यह व्याकरण वहीं पर रुकता नहीं है । वह फिरसे वही वाक्य को लेकर, उसका भी रूपान्तर करके कृदन्त या तद्धितान्त, या समासादि रूप शब्दों का निर्माण भी करके दिखाता है । जिसके कारण पाणिनीय व्याकरण निरन्तर घुमता हुआ एक चक्र जैसा प्रतीत होता है ।।8 अतः हम कहे सकते है कि – पाणिनीय व्याकरण में दो तरह की विधियाँ प्रदर्शित की गई हैः—
पदत्व-सम्पादक विधियाँ और पदोद्देश्यक विधियाँ । 1. पदत्व-सम्पादक विधियों में (क) सुबन्त एवं तिङन्त पदों की रचनाओं का समावेश होता है । तथा (ख) सरूप एवं विरूप एकशेष शब्दों की रचनाओं का समावेश होता है । 2.पदोद्देश्यक विधियों में (क) कृदन्त, (ख) तद्धितान्त, (ग) समास, एवं (घ) सनाद्यन्त धातुओं की पद-रचनाओं का समावेश होता है ।। - इस में पूरे पाणिनीय व्याकरण का अशेष प्रपञ्च समाविष्ट हो जाता है ।। यहाँ तुलनात्मक दृष्टि से कहना होगा कि – यास्क अपने ग्रन्थ में इस तरह से पूरे वाग्व्यवहार ( समग्र भाषा ) को समाविष्ट नहीं करते है । बल्कि, निरुक्त लिखते समय इस तरह का उनका उपक्रम भी नहीं था ।।
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8. द्रष्टव्यः- पाणिनीय व्याकरण – तन्त्र, अर्थ और सम्भाषण सन्दर्भ । वसन्तकुमार भट्ट, एल.डी. इन्स्टीट्युट ऑफ इण्डोलॉजी, अहमदावाद – 2003
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अष्टाध्यायी में वैदिक भाषा के व्याकरण का स्वरूप

महर्षि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में लौकिक एवं वैदिक संस्कृत भाषा का व्याकरण एक साथ में प्रस्तुत किया है । यह उनकी अपूर्व एवं अद्वितीय सिद्धि है – उसमें भी कोई विवाद नहीं है । परन्तु यह प्रश्न विचारणीय है कि पाणिनि ने दोनों तरह की संस्कृत भाषा का व्याकरण एक साथ में कैसे ( किस ढंग से ) प्रस्तुत किया है । एक तो शूरु में जैसे कहा है – पाणिनीय व्याकरण पृथक्करणात्मक नहीं है, परन्तु प्रकृति + प्रत्यय का संयोजन प्रस्तुत करके वाक्य की निष्पादना करनेवाला व्याकरण है । तथा उसमें भी, पाणिनि ने अपने समकाल में जो लौकिक संस्कृत बोली जाती थी उस भाषा का वर्णन प्रस्तुत करने का आशय रखा है । 9 लेकिन भाषा का वर्णन करते समय यह भी सम्भव था कि वे, वैदिक भाषा में से लौकिक संस्कृत भाषा की उत्क्रान्ति कैसे हुई है – यह ऐतिहासिक दृष्टि से व्याकरण की रचना करे । परन्तु पाणिनि ने इस तरह का भी वैदिक व्याकरण नहीं लिखा है । पाणिनि ने तो अपने अष्टाध्यायी व्याकरण में सर्वत्र लौकिक संस्कृत भाषा के निरूपण से प्रारम्भ करके, उस लौकिक संस्कृत के विरोध में वैदिक संस्कृत भाषा में क्या अन्तर है – इस तरह का निरूपण किया है । उदाहरण रूप से देखे तो – प्राग्रीश्वरान्निपाताः । 1-4-56 सूत्र से निपातों का वर्णन आरम्भ करके, प्रादयः ।(1-4-58), उपसर्गाः क्रियायोगे ।(1-4-59) से कहा है कि प्रादिनिपात उपसर्गसंज्ञक है और उसका क्रियापद के योग में प्रयोग होता है । तथा, ते प्राग्धातोः (1-4-80) से बताते है कि उपसर्ग ( एवं गतिसंज्ञक) का प्रयोग धातु के पूर्व में ही होता है । - यहाँ पहेले लौकिक संस्कृतभाषा की व्यवस्था बतायी गई है । तत्पश्चात् आगे चल कर पाणिनि कहते है कि छन्दसि परे S पि ।
( 1-4-81 ), व्यवहिताश्च । ( 1-4-82 ) – अर्थात् वेदमन्त्रों में ये उपसर्गसंज्ञक प्रादि निपात धातुओं ( क्रियापदों ) के पीछे भी प्रयुक्त होते है , और कदाचित् किसी भी दो शब्दों के व्यवधान में भी प्रयुक्त होते है । यथा – 1. हरिभ्यां याह्योक आ । 2.आ मन्द्रैरिन्द्र हरिभिर्याहि ।। ( यहाँ याहि क्रियापद के पीछे आ का प्रयोग है, एवं आ और याहि के बीच में अन्य नामपदों का प्रयोग भी हुआ है । ) इसी तरह से छन्दसि च । ( 6-3-126), छन्दस्युभयथा । ( 6-4-5 ), तुमर्थे सेसेनसेअसेन्क्सेकसेन..... । ( 3-4-9 ) इत्यादि सूत्रों से लौकिक संस्कृत भाषा के विरोध में वैदिक संस्कृत भाषा का वर्णन बाद में ही किया गया है ।।
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9. ( अर्थात् पाणिनि ने आदेशात्मक व्याकरण बनाने का भी उपक्रम नहीं रखा है । ) पाणिनि के व्याकरण को “ Descriptive Generative Grammar ”.कहा गया है । तथा उसे prescriptive grammar भी नहीं कहा जाता है ।
अब वैदिक संस्कृत भाषा का वर्णन करने के लिए पाणिनि ने जो वर्णनात्मक शैली अपनायी है उसे देखे तो – पाणिनि ने व्यत्ययो बहुलम् । बहुलं छन्दसि । विभाषा छन्दसि । अन्येभ्यो Sपि दृश्यते । जैसे सूत्रों प्रस्तुत करके लौकिक शब्द-प्रयोगों के अनुसन्धान में वैदिक शब्द-प्रयोगों की अनियमितता ही बार बार उल्लिखित की है । यानें वेद की भाषा में नियमित प्रयोगों की परिगणना ही सुदुर्लभ है, औऱ केवल अनियमितता ही सार्वत्रिक रूप से प्रवर्तमान है ऐसा पाणिनि का निरीक्षण है ।।

तथापि यह भी कहना होगा कि – यास्क की अपेक्षा से पाणिनि ने वैदिक भाषा के लिए बहुत कुछ अधिक कहा है । जैसे कि – 1. यास्क ने वैदिक क्रियापदों के सन्दर्भ में कुछ भी नहीं कहा है । लेकिन पाणिनि ने सभी प्रकार के क्रियापदों की विभिन्न अर्थच्छायायें बताई है । 2. वैदिक क्रियापदों के रूप-वैविध्य को भी विस्तार से उल्लिखित किया है । एवं 3. लौकिक संस्कृत भाषा के प्रत्येक धातु, प्रत्ययादि, सम्बोधन वाचकादि पदों में तथा वेदमन्त्रों के शब्दों में उदात्तादि स्वर कैसे होते है – इन सब का निरूपण किया है । परन्तु यास्क ने इन में से किसी का भी वर्णन नहीं किया है । 4. पाणिनि ने स्वरभेद के आधार पर अर्थभेद होता है – इस विषय का जो निरूपण षष्ठाध्याय में किया है वह ध्यानाकर्षक है । यास्क इस विषय की और केवल अङ्गुलिनिर्देश करके रुक जाते है ।।
उपसंहारः—
यास्क ने वेदमन्त्रों के शब्दों का आख्यातजत्व दिखलाके, वेदमन्त्रों के प्रचलित अर्थों की प्रमाण-पुरस्सरता सिद्ध की है । वेदशब्दों के निर्वचन के निमित्त से उन्हों ने, भाषा में शब्दार्थ-सम्बन्ध की गवेषणा का भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया है । इस तरह, यास्क की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जो कौत्स जैसे वेदविरोधी आचार्यों खडे थे, उस विरोध के अनुसन्धान में प्रचलित वेदार्थों का समर्थन करके उन्हों ने अपनी इतिकर्तव्यता दृढता से औऱ पूर्णतया निभाई है । तथा शब्दार्थ-सम्बन्ध की गवेषणा करके भाषाचिन्तन में अपना चिरस्मरणीय विशिष्ट योगदान दिया है ।।
तथा पाणिनि की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जो व्याकरण-विचार केवल वर्ण और पद तक सीमित था, उसको देखते हुए हम कहे सकते है कि भाषाचिन्तन के क्षेत्र में पाणिनि का योगदान तो विश्वतोमुखी है । संस्कृतभाषा के लौकिक एवं वैदिक दोनों स्वरूप का वर्णन करनेवाले वैयाकरण के रूप में वे न केवल प्रथम आचार्य है, वे अद्यावधि अद्वितीय भी है । उन्हों संस्कृतभाषा के प्रकृति+प्रत्यय की संयोजना दिखाने के लिए जो व्युत्पत्तियाँ प्रस्तुत की है, और उसके लिए जो स्वोपज्ञ प्रक्रिया का प्रदर्शन किया है वह आज की वैज्ञानिक तकनिकों से बहेतर एवम् उन्नततर भी है ।।

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सन्दर्भ-ग्रन्थ सूचि
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काशिकावृत्तिः । ( षष्ठो भागः ) सं. द्वारिकाप्रसाद शास्त्री, तारा पब्लीकेशन्स, वाराणसी, 1967
निरुक्तम् – ( दुर्गस्य व्याख्यया सहितम् ) , सं. मनसुखराय मोर, गुरुमण्डल ग्रन्थमाला – 10, कलकत्ता, 1952
पाणिनीय व्याकरण – तन्त्र, अर्थ और सम्भाषण सन्दर्भ । वसन्तकुमार भट्ट,
एल.डी. इन्स्टीट्युट ऑफ इण्डोलॉजी, अहमदावाद – 2003
व्याकरण-महाभाष्यम् । ( तृतीयो भागः ), प्रकाशक – मोतीलाल बनारसीदास,
दिल्ली, 1967,
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास,( प्रथम भाग ), ले. पं.श्रीयुधिष्ठिर मीमांसक, सोनीपत,(हरियाणा),चतुर्थ संस्करण, सं.2041 ( ई.स.1984 ),

Panini : A Survey of Research , by Prof. George Cardona, Motilal
Banarasidass, Delhi, 1980


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पाणिनि और यास्क का काल-निर्धारण – एक अनुल्लिखित सन्दर्भः—

पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में कतिपय ऐसे सामाजिक और सांस्कृतिक सन्दर्भों का निर्देश किया है कि जिसके आधार पर यास्क का पुरोवर्तित्व एवं पाणिनि का उत्तरवर्तित्व सिद्ध किया जा सकता है । उदाहरण के रूप में – इन्द्रियम् इन्द्रलिङ्गम् – इन्द्रदृष्टम् – इन्द्रसृष्टम् – इन्द्रजुष्टम् – इन्द्रदत्तम् इति वा । 5 – 2 – 93 ।।
इस सूत्र में पाणिनि ने कहा है कि – इन्द्रियम् ऐसा अन्तोदात्त स्वरवाला शब्द निपातन से सिद्ध होता है । परन्तु वह शब्द इन्द्रस्य लिङ्गम् , इन्द्रेण दृष्टम् , इन्द्रेण सृष्टम् , इन्द्रेण जुष्टम् , इन्द्रेण दत्तम् – जैसे अर्थों में प्रयुक्त होता है ।

( काशिकावृत्तिकार यहाँ कहते है कि – इतिकरणः प्रकारार्थः । सति सम्भवे व्युत्पत्तिरन्यथापि कर्तव्या । अर्थात् इन्द्रेण दुर्जयम् । इस वाक्य का अर्थ “ आत्मा से जो जितना मुश्कील है, वह इन्द्रिय है ” यहाँ इन्द्रिय शब्द में रहे इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा होता है । )
इन्द्र देवता का पुराकथाशास्त्रीय अध्ययन करने से मालुम होता है कि – वेदमन्त्रों में, इन्द्र मूल में युद्ध के देवता थे, उसके बाद वह वृष्टि के देवता बनाये गये है । और अन्ततोगत्वा वह परमात्मा के स्थान पर भी स्थापित किये गये है । अतः शरीर में स्थित चैतन्य स्वरूप आत्मा को भी इन्द्र कहा गया है । दूसरी और लिङ्ग शब्द का अर्थ होता हैः— लीनम् अर्थम् गमयति इति लिङ्गम् । अर्थात् शरीर में छीपे हुए आत्मा का अस्तित्व इन्द्रिय रूपी लिङ्ग से अनुमित होता है । अतः “ इन्द्रियम् ” शब्द का प्रथम अर्थ होता है – इन्द्रस्य लिङ्गम् । ( काशिकाकार कहते है कि –
इन्द्र आत्मा । स चक्षुरादिना करणेन अनुमीयते, न अकर्तृकं करणम् अस्ति । )

यास्क ने निरुक्त के दशम अध्याय में इन्द्र शब्द के जो विभिन्न निर्वचन दिये है,
( इन्दवे द्रवति इति वा, इन्दौ रमते इति वा । 9-8, इन्द्रः कस्माद् । इरा अन्नम्, तेन सम्बन्धात् तद्हेतुभूतम् उदकं लक्ष्यते । लक्षितलक्षणया तेनापि तदाधारभूतो मेघः । 10-9 ) वह इन्द्र देवता को प्राधान्येन सोमप्रिय एवं वृष्टि के देवता के रूप में वर्णित करते है । परन्तु पाणिनि पूर्वोक्त सूत्र ( 5-2-93 ) से जो इन्द्रिय शब्द की व्युत्पत्ति देते है, उसमें आत्मा रूपी दार्शनिक अर्थवाले इन्द्र शब्द को लेकर, घच् प्रत्यय का विधान करते है । घच् को इय आदेश हो कर इन्द्र से इन्द्रिय शब्द सिद्ध होता है ।

यहाँ ध्यातव्य बात यह है कि पाणिनि ने इन्द्र का जो एक वृष्टि के देवता के रूप में वेदोक्त स्वरूप है , जिसको हम पुराकथाशास्त्रीय व्यक्तित्व कहते है, उसका निर्देश पूर्वोक्त सूत्र में नहीं किया गया है । परन्तु तदुत्तरवर्ती काल का दार्शनिक स्वरूप ध्यान में लेते हुए – इन्द्रलिङ्गम् , इन्द्रसृष्टम् इत्यादि कहा गया है । इसी तरह से, पाणिनि ने ब्रह्म-भ्रूण-वृत्रेषु क्विप् । 3-2-87 सूत्र से ब्रह्महा – भ्रूणहा ( दिति के भ्रूण की हत्या करनेवाला, दिति से मरुद्गण की उत्पत्ति कथा ) जैसे शब्दों की जो सिद्धि की है, इससे सूचित होता है कि महर्षि पाणिनि ने उत्तरवर्ती काल की पुराकथाओं का ही उल्लेख किया है । - इन दो सूत्रों से स्पष्टतया अनुमित हो सकता है कि पाणिनि यास्क के पुरोगामी आचार्य नहीं हो सकते ।।


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3 टिप्‍पणियां:

  1. महोदय,

    अन्तरजाल पर हिन्दी में यास्क और पाणिनि पर इतनी विस्तृत जानकारी देकर आपने हिन्दी और संस्कृत का बहुत भला किया है।

    आपसे निवेदन है कि हिन्दी विकि (hi.wikipedia.org/) पर संस्कृत से सम्बन्धित कुछ महत्व के विषयों पर कुछ लेखों का योगदान करें या वर्तमान लेखों को परिवर्धित करें।

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  2. अति उत्तम गुरुवर ...नमस्कार

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